सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व)
दौ सौ इकहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“पाण्डवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार, जयद्रथ का पलायन, द्रौपदी तथा नकुल-सहदेव के साथ युधिष्ठिर का आश्रम पर लौटना तथा भीम और अर्जुन का वन में जयद्रथ का पीछा करना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तब सिन्धुराज जयद्रथ ‘ठहरो, मारो, जल्दी दौड़ो’ कहकर अपने साथ आये हुए राजाओं को युद्ध के लिये उत्साहित करने लगा। उस समय रणभूमि में युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव को देखकर जयद्रथ के सैनिकों में बड़ा भंयकर कोलाहल मच गया। सिंह के समान उत्कट बलवान् पुरुषसिंह पाण्डवों को देखकर शिबि, सौवीर तथा सिन्धुदेश के राजाओं के मन में भी अत्यन्त विषाद छा गया। जिसका ऊपरी भाग स्वर्णपत्र से जटित होने के कारण विचित्र शोभा पाता था, जिसका सब कुछ शैक्य नामक लोहे से बनाया गया था, उस विशाल गदा को हाथ में लेकर भीमसेन कालप्रेरित जयद्रथ की ओर दौड़े। इतने में ही रथों की विशाल सेना के द्वारा भीमसेन को सब ओर से घेरकर कोटिकास्य ने जयद्रथ और भीमसेन के बीच में भारी व्यवधान डाल दिया। उस समय सब योद्धा भीमसेन पर अपनी भुजाओं के द्वारा चलाकर शक्ति, तोमर और नाराच आदि बहुत-से अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे; परंन्तु भीमसेन इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने जयद्रथ की सेना के मुहाने पर जाकर अपनी गदा की चोट से सवार सहित एक हाथी और चौदह पैदलों को मार डाला।
इसी प्रकार अर्जुन ने सौवीरराज जयद्रथ को पकड़ने की इच्छा रखकर सेना के अग्रभाग में स्थित पाँच सौ शूरवीर पर्वतीय महारथियों को मार डाला। स्वयं राजा युधिष्ठिर ने भी उस समय अपने ऊपर प्रहार करने वाले सौवीर क्षत्रियों के सौ प्रमुख वीरों को पलक मारते-मारते समरांगण में मार गिराया। महावीर नकुल हाथ में तलवार लिये रथ से कूद पड़े और पादरक्षक सैनिकों के मस्तक काट-काटकर बीज की भाँति उन्हें बार-बार धरती पर बोते दिखायी दिये। सहदेव रथ द्वारा आगे बढ़कर हाथी सवार योद्धाओं से भिड़ गये और नाराच नामक बाणों से मार-मारकर उन्हें इस प्रकार नीचे गिराने लगे, मानो कोई व्याध वृक्षों पर से मोरों को घायल करके गिरा रहा हो। तदनन्तर धनुष हाथमें लिये त्रिगर्तराज ने अपने विशाल रथ से उतरकर राजा युधिष्ठिर के चारों घोड़ों को गदा से मार डाला। उसे पैदल ही पास आया देख कुन्तीनन्दन धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्धचन्द्रकार बाण से उसकी छाती को छेद डाला। तब हृदय विदीर्ण हो जाने के कारण वीर त्रिगर्तराज मुख से रक्तवमन करता हुआ राजा युधिष्ठिर के सामने ही जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा।
इधर धर्मराज युधिष्ठिर अपने घोडे़ मारे जाने के कारण सारथि इन्द्रसेन के साथ सहदेव के विशाल रथ पर जा बैठे। दूसरी ओर क्षेमंकर और महामुख नामक दो वीर (राजकुमार) नकुल को लक्ष्य करके दोनों ओर से तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। उस समय तोमरों की वर्षा करते हुए वे दोनो योद्धा वर्षा ऋतु के दो बादलों के समान जान पड़ते थे, परन्तु माद्रीनन्दन नकुल ने एक-एक विपाठ नामक बाण मारकर उन दोनों को धराशायी कर दिया। तदनन्तर हाथी का संचालन करने में निपुण त्रिगर्तराज सुरथ ने नकुल के रथ के धुरे के पास पहुँचकर अपने हाथी के द्वारा उनके रथ को दूर फेंकवा दिया। परंतु नकुल को इससे तनिक भी भय नहीं हुआ। वे हाथ में ढाल तलवार लिये उस रथ से कूद पड़े और एक निरापद स्थान में आकर पर्वत की भाँति अविचल भाव से खड़े हो गये। तब सुरथ ने कुपित होकर अत्यन्त ऊँचे सूंड़ उठाये हुए उस गजराज को नकुल का वध करने के लिये प्रेरित किया। परंतु नकुल ने खड़ग द्वारा अपने निकट आये हुए उस हाथी की सूंड़ को दांतों सहित जड़ से काट डाला। फिर तो घुंघुरूओं से विभूषित वह गजराज बड़े जोर से चीत्कार करके नीचे मस्तक किये पृथ्वी पर गिर पड़ा। गिरते-गिरते उसने महावत को भी पृथ्वी पर दे मारा।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 23-45 का हिन्दी अनुवाद)
यह महान पराक्रम प्रकट करके शूरवीर माद्रीनन्दन महारथी नकुल भीमसेन के रथ पर चढ़ गये और वहीं पहुँचकर उन्हें शान्ति मिली। इधर भीमसेन ने युद्ध में अपने ऊपर आक्रमण करने वाले राजा कोटिकास्य के सारथि का, जो उस समय घोड़ों का संचालन कर रहा था, छुरे से सिर उड़ा दिया। परंतु राजा को यह मालूम न हो सका कि बाहुशाली भीम के द्वारा मेरा सारथि मारा गया है। उसके मारे जाने से कोटिकास्य के घोड़े रणभूमि में इधर-उधर भागने लगे। सारथि के नष्ट हो जाने से कोटिकास्य को रण से विमुख हुआ देख योद्धाओं में श्रेष्ठ पाण्डुनन्दन भीमसेन ने उसके पास जाकर प्रास नामक मूठदार शस्त्र से उसे मार डाला।
अर्जुन ने सौवीर देश के जो बारह राजकुमार थे, उन सबके धनुष और मस्तक अपने भल्ल नामक तीखे बाणों से काट गिराये। उन अतिरथी वीर ने युद्ध में बाणों के लक्ष्य बने हुए शिबि, इक्ष्वाकु, त्रिगर्त और सिन्धु देश के क्षत्रियों को भी मारा डाला। सव्यसाची अर्जुन के द्वारा मारे या नष्ट किये गये पताका सहित बहुतेरे हाथी और ध्वजायुक्त अनेक विशाल रथ दृष्टिगोचर हो रहे थे। उस समय बिना सिर के धड़ और बिना धड़ के सिर समस्त रणभूमि को अच्छादित करके बिखरे पड़े थे। वहाँ मारे गये वीरों के मांस तथा रक्त से कुत्ते, गीध, कंक (सफेद चीलें), काकोल (पहाड़ी कौए), चीलें, गीदड़ और कौए तृप्त हो रहे थे। उन वीरों के मारे जाने पर सिन्धुराज जयद्रथ भय से थर्रा उठा और द्रौपदी को वहीं छोड़कर उसने भाग जाने का विचार किया। उस तितर-बितर हुई सेना के बीच उस द्रौपदी को रथ से उतारकर नराधम जयद्रथ अपने प्राण बचाने के लिये वन की ओर भागा।
धर्मराज युधिष्ठिर ने देखा कि द्रौपदी धौम्य मुनि को आगे करके आ रही है, तो उन्होंने वीरवर माद्रीनन्दन सहदेव द्वारा उसे रथ पर चढ़वा लिया। जयद्रथ के भाग जाने पर सारी सेना इधर-उधर भाग चली, परन्तु भीमसेन अपने नाराचों द्वारा नाम बता बताकर उन सैनिकों का वध करने लगे। जयद्रथ को भागते देख अर्जुन ने उसके सैनिकों के संहार में लगे हुए भीमसेन को रोका।
अर्जुन बोले ;- जिसके अत्याचार से हम लोगों को यह दु:सह क्लेश सहन करना पड़ा है, उस जयद्रथ को तो मैं इस समरभूमि में देखता ही नहीं हूँ। भैया! आपका भला हो, आप जयद्रथ की ही खोज करें, इन (निरीह) सैनिकों को मारने से क्या लाभ? यह कार्य तो निष्फल दिखाई देता है अथवा आप इसे कैसा समझते हैं?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! बुद्धिमान अर्जुन के ऐसा कहने पर बातचीत में कुशल भीमसेन ने युधिष्ठिर की ओर देखकर कहा,
भीमसेन बोले ;- ‘राजन्! शत्रुओं के प्रमुख वीर मारे जा चुके हैं और बहुत-से सैनिक सब दिशाओं में भाग गये हैं। अब आप द्रौपदी को साथ लेकर यहाँ से आश्रम को लौटिये। महाराज! आप नकुल, सहदेव तथा महात्मा धौम्य के साथ आश्रम पर पहुँचकर द्रौपदी को सान्त्वना दीजिये। मूर्ख सिन्धुराज जयद्रथ यदि पाताल में घुस जाये अथवा इन्द्र भी उसके सारथि या सहायक होकर आ जायें, तो भी आज वह मेरे हाथ से जीवित नहीं बच सकता’।
युधिष्ठिर बोले ;- महाबाहो! सिन्धुराज जयद्रथ यद्यपि अत्यन्त दुरात्मा है; तथापि बहिन दु:शला और यस्विनी माता गान्धारी को स्मरण करके उसका वध न करना।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! युधिष्ठिर की यह बात सुनकर द्रौपदी की सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। वह लज्जावती और बुद्धिमती होने पर भी भीमसेन और अर्जुन दोनों पतियों से कुपित होकर बोली,
द्रौपदी बोली ;- ‘यदि आप लोगों को मेरा प्रिय करना है, तो उस नराधम को अवश्य मार डालिये। वह पापी दुर्बद्धि जयद्रथ सिन्धु देश का कलंक और कुलांगार है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 46-60 का हिन्दी अनुवाद)
जो अपनी पत्नी का अपहरण करने वाला तथा राज्य को हड़प लेने वाला हो, ऐसे शत्रु को युद्ध में पाकर वह प्राणों की भीख मांगे, तो भी किसी तरह जीवित नहीं छोड़ना चाहिये’। द्रौपदी के ऐसा कहने पर वे दोनों नरश्रेष्ठ जिस ओर जयद्रथ गया था, उसी ओर चल दिये तथा राजा युधिष्ठिर द्रौपदी को लेकर पुरोहित धौम्य के साथ आश्रम पर चल पड़े। उन्होंने आश्रम में प्रवेश करके देखा कि बैठने के आसन और स्वाध्याय के लिये बनी हुई पर्णशाला में सब वस्तुएँ इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। मार्कण्डेय आदि ब्रह्मर्षि वहाँ इकठ्ठे हो रहे थे। वे सब ब्राह्मण एकाग्रचित्त हो द्रौपदी के लिये ही बार-बार शोक कर रहे थे।
इतने में ही पत्नी सहित परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर अपने भाई नकुल और सहदेव के बीच में होकर चलते हुए वहाँ आ पहुँचे। सिन्धु और सौवीर देश के क्षत्रियों को जीतकर महाराज लौटे हैं और द्रौपदी देवी भी पुन: आश्रम में आ गयी हैं, यह देखकर उन ऋषियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन ब्राह्मणों से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर वहीं बैठ गये और भामिनी कृष्णा नकुल-सहदेव के साथ आश्रम के भीतर चली गयी।
इधर भीमसेन और अर्जुन ने जब सुना कि हमारा शत्रु जयद्रथ एक कोस आगे निकल गया है, तब वे सवयं अपने घोड़ों को हाँकते हुए बड़े वेग से उसके पीछे दौडे़। यहाँ वीर पुरुष अर्जुन ने एक अद्भुत पराक्रम दिखाया। यद्यपि जयद्रथ के घोड़े एक कोस आगे निकल गये थे, तो भी उन्होंने दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित बाणों द्वारा उन्हें दूर से ही मार डाला। अर्जुन दिव्यास्त्र से सम्पन्न थे। संकट काल में भी घबराते नहीं थे। इसलिये उन्होंने वह दुष्कर कर्म कर दिखाया। तत्पश्चात् वे दोनों वीर भीम और अर्जुन जयद्रथ के पीछे दौड़े। वह अकेला तो था ही, घोड़ों के मारे जाने से अत्यन्त भयभीत हो गया था। उसके हृदय में व्याकुलता छा गयी थी।
सिन्धुराज अपने घोड़ों को मारा गया देख और अलौकिक पराक्रम कर दिखाने वाले अर्जुन को आता जान अत्यन्त दु:खी हो गया। अब उसमें केवल भागने का उत्साह रह गया था, अत: वह वन की ओर भागा। सिन्धुराज को केवल भागने में ही पराक्रम दिखाता देख महाबाहु अर्जुन उसका पीछा करते हुए बोले,
अर्जुन बोले ;- ‘राजकुमार! लौटो, तुम्हें पीठ दिखाकर भागते शोभा नहीं देता। अपने सेवकों को शत्रुओं के बीच में छोड़कर कैसे भागे जा रहे हो? क्या इसी बल से तुम दूसरे की स्त्री को हरकर ले जाना चाहते थे?' अर्जुन के इस प्रकार ताने देने पर भी सिन्धुराज नहीं लौटा। तब महाबली भीम ‘ठहरो, ठहरो’ कहते हुए सहसा उसके पीछे दौड़े। उस समय दयालु अर्जुन ने उनसे कहा,
अर्जुन बोले ;- ‘भैया! इसको जान से न मारना’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में जयद्रथपलायन विषयक दो सौ इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(द्रौपदीहरण पर्व समाप्त)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (जयद्रथविमोक्षण पर्व)
दौ सौ बहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीम द्वारा बंदी होकर जयद्रथ का युधिष्ठिर के सामने उपस्थित होना, उनकी आज्ञा से छूटकर उसका गंगाद्वार में तप करके भगवान् शिव से वरदान पाना तथा भगवान् शिव द्वारा अर्जुन के सहायक भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भीम और अर्जुन दोनों भाइयों को अपने वध के लिये तुले हुए देख जयद्रथ बहुत दु:खी हुआ और घबराहट छोड़कर प्राण बचाने की इच्छा से तुरंत तीव्र गति से भागने लगा। उसे भागता देख अमर्ष में भरे हुए महाबली भीम भी रथ से उतर गये और बड़े वेग से दौड़कर उन्होंने उसके केश पकड़ लिये। तत्पशचात् भीम ने उसे ऊपर उठाकर धरती पर पटक दिया और उसे रौंदने लगे। फिर उन्होंने राजा जयद्रथ को पकड़कर उसे कई थप्पड़ लगाये। इतनी मार खाकर भी वह अभी जीवित ही था और उठने की इच्छा कर रहा था। इसी समय महाबाहु भीमसेन ने उसके मस्तक पर एक लात मारी। इससे वह रोने चिल्लाने लगा, तो भी भीमसेन ने उसे गिराकर उसके शरीर पर अपने दोनों घुटने रख दिये और उसे घूसों से मारने लगे। इस प्रकार बड़े जोर की मार पड़ने से पीड़ा के मारे राजा जयद्रथ मूर्च्छित हो गया। इतने पर भी भीमसेन का क्रोध कम नहीं हुआ।
यह देख अर्जुन ने उन्हें रोका और कहा,
अर्जुन बोले ;- 'कुरुनन्दन! दु:शला के वैधव्य का खयाल करके महाराज ने जो आज्ञा दी थी, उसका भी तो विचार कीजिये’।
भीमसेन ने कहा ;- 'इस नराधम ने क्लेश पाने के अयोग्य द्रौपदी को कष्ट पहुँचाया है; अत: अब मेरे हाथ से इस पापचारी जयद्रथ का जीवित रहना ठीक नहीं है। परंतु मैं क्या कर सकता हूँ? राजा युधिष्ठिर सदा दयालु ही बने रहते हैं और तुम भी अपनी बालबुद्धि के कारण मेरे ऐसे कामों में सदा बाधा पहुँचाया करते हो।' ऐसा कहकर भीम ने जयद्रथ के लम्बे-लम्बे बालों को अर्द्धचन्द्राकार बाण से मूँढ़कर पाँच चोटियाँ रख दीं। उस समय वह भय के मारे कुछ भी बोल नहीं पाता था। तदनन्तर कटुवचनों से सिन्धुराज का तिरस्कार करते हुए भीम ने कहा,
भीमसेन बोले ;- ‘अरे मूढ़! यदि तू जीवित रहना चाहता है, तो जीवन रक्षा का हेतुभूत मेरा यह वचन सुन। तू राजाओं की सभा-समितियों में जाकर सदा अपने को (महाराज युधिष्ठिर) का दास बताया कर यह शर्त स्वीकार हो, तो तुझे जीवन-दान दे सकता हूँ। युद्ध में विजयी पुरुष की ओर से हारे हुए के लिये ऐसा ही विधान है’। उस समय सिन्धुराज जयद्रथ धरती पर घसीटा जा रहा था। उसने उपर्युक्त शर्त स्वीकार कर ली और युद्ध में शोभा पाने वाले पुरुषसिंह भीमसेन से अपनी स्वीकृति स्पष्ट बता दी।
तदनन्तर वह उठने की चेष्टा करने लगा। तब कुन्तीकुमार वृकोदर ने उसे बाँधकर रथ पर डाल दिया। वह बेचारा धूल से लथपथ और अचेत हो रहा था। उसे रथ पर चढ़ाकर आगे-आगे भीम चले और पीछे-पीछे अर्जुन। आश्रम पर आकर भीमसेन वहाँ मध्य भाग में बैठे हुए राजा युधिष्ठिर के पास गये। भीम ने उसी अवस्था में जयद्रथ को महाराज के सामने उपस्थित किया। उसे देखकर राजा युधिष्ठिर जोर-जोर से हँसने लगे और बोले,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘अब इसे छोड़ दो’। तब भीमसेन ने भी राजा से कहा,
भीमसेन बोले ;- ‘आप द्रौपदी को यह सूचित कर दीजिये कि यह पापात्मा जयद्रथ पाण्डवों का दास हो चुका है।’ तब बड़े भाई युधिष्ठिर ने प्रेमपूर्वक भीमसेन से कहा,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘यदि तुम मेरी बात मानते हो, तो इस पापचारी को छोड़ दो’। उस समय द्रौपदी ने भी युधिष्ठिर की ओर देखकर
भीमसेन से कहा,
द्रौपदी बोली ;- ‘आपने इसका सिर मूँड़कर पाँच चोटियाँ रख दी हैं तथा यह महाराज का दास हो गया है; अत: अब इसे छोड़ दीजिये’।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! तब जयद्रथ बन्धन से मुक्त कर दिया गया। उसने विह्विल होकर राजा युधिष्ठिर के पास जा उन्हें प्रणाम करने के पश्चात् वहाँ बैठे हुए अन्यान्य मुनियों को भी देखकर उनके चरणों में मस्तक झुकाया। उस समय (आदर देते हुए) अर्जुन ने जयद्रथ का हाथ थाम लिया। तब दयालु राजा धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने जयद्रथ की ओर देखकर कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘सिन्धुराज! अब तू दास नहीं रहा, जा, तुझे छोड़ दिया गया है। फिर कभी ऐसा काम न करना। अरे! तू परायी स्त्री की इच्छा करता है, तुझे धिक्कार है! तू स्वयं तो नीच है ही, तेरे सहायक भी अधम हैं। तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा नराधाम है, जो ऐसा धर्मविरुद्ध कार्य कर सके? तेरा यह कर्म सम्पूर्ण लोक में निन्दित है’। वह अशुभ कर्म करने वाला जयद्रथ मृतप्राय-सा हो गया है, यह देख और समझकर भरतश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने उस पर कृपा की और कहा,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘तेरी बुद्धि धर्म में उत्तरोत्तर बढ़ती रहे, तू कभी अधर्म में मन न लगाना। जयद्रथ! अपने रथ, घोड़े और पैदल सबको साथ लिये कुशलपूर्वक चला जा’।
राजन्! युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर जयद्रथ बहुत लज्जित हुआ और नीचा मुँह किये वहाँ से चुपचाप चला गया। तब जनमेजय! वह पराजित होने के महान् दु:ख से पीड़ित था; अत: वहाँ से घर न जाकर गंगाद्वार (हरिद्धार) को चल दिया। वहाँ पहुँचकर उसने तीन नेत्रों वाले भगवान् उमापति की शरण ले बड़ी भारी तपस्या की। इससे भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये। त्रिनेत्रधारी महादेव ने प्रसन्नतापूर्वक स्वयं दर्शन देकर उसकी पूजा ग्रहण की। जनमेजय! भगवान् ने उसे वर दिया और जयद्रथ ने उसको ग्रहण किया। वह वर क्या था? यह बताता हूँ, सुनो,-
जयद्रथ बोला ;- ‘मैं रथ सहित पाँचों पाण्डवों को युद्ध में जीत लूँ’, यही वर सिन्धुराज ने महादेव जी से माँगा। परन्तु महादेव जी ने उससे कहा,
महादेव बोले ;- ‘ऐसा नहीं हो सकता। पाण्डव अजेय और अवध्य हैं। तुम केवल एक दिन युद्ध में महाबाहु अर्जुन को छोड़कर अन्य चार पाण्डवों को आगे बढ़ने से रोक सकते हो। देवेश्वर नर, जो
बदरिकाश्रम में भगवान् नारायण के साथ रहकर तपस्या करते हैं, वे ही अर्जुन हैं। उन्हें तुम तो क्या, सम्पूर्ण लोक मिलकर भी जीत नहीं सकते। उनका सामना करना तो देवताओं के लिये भी कठिन है। मैंने उन्हें पाशुपत नामक दिव्य अस्त्र प्रदान किया है, जिसके जोड़ का दूसरा कोई अस्त्र ही नहीं है। इसके सिवा अन्यान्य लोकपालों से भी उन्होंने वज्र आदि महान् अस्त्र प्राप्त किये हैं। [अब मैं तुम्हें नर स्वरूप, अर्जुन के सहायक भगवान् नारायण की महिमा बताता हूँ, सुनो]
भगवान् नारायण देवताओं के भी देवता, अनन्तस्वरूप, सर्वव्यापी, देवगुरु, सर्वसमर्थ, प्रकृति-पुरुषरूप, अव्यक्त, विश्वात्मा एवं विश्वरूप हैं। प्रलय काल उपस्थित होने पर वे भगवान् विष्णु ही कालाग्निरूप से प्रकट हो पर्वत, समुद्र, द्वीप, शैल, वन और काननों सहित सम्पूर्ण जगत को दग्ध कर देते हैं। फिर पाताल तल में विचरण करने वाले नागलोकों को भी वे भस्म कर डालते हैं। कालाग्नि द्वारा सब कुछ भस्म हो जाने पर आकाश में अनेक रंग के महान् मेघों की घोर घटा घिर आती है। भयंकर स्वरगर्जना करते हुए वे बादल बिजलियों की मालाओं से प्रकाशित हो सम्पूर्ण दिशाओं में फैल जाते और सब ओर वर्षा करने लग जाते हैं। इससे प्रलयकालीन अग्नि बुझ जाती है। संवर्तक अग्नि का नियन्त्रण करने वाले वे महामेघ लम्बे सर्पों के समान मोटी धाराओं से जल गिराते हुए सबको डुबो देते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 36-54 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय सम्पूर्ण दिशाओं में पानी भर जाने से चारों ओर एकाकार जलमय समुद्र ही दृष्टिगोचर होता है। उस एकार्णव के जल में समस्त चराचर जगत् नष्ट हो जाता है। चन्द्रमा, सूर्य और वायु भी विलीन हो जाते हैं। ग्रह और नक्षत्रों का अभाव हो जाता है। एक हजार चतुर्यगी समाप्त होने पर उपर्युक्त एकार्णव के जल में यह पृथ्वी डूब जाती है। तत्पश्चात् नारायण नाम से प्रसिद्ध भगवान् श्रीहरि उस एकावर्ण के जल में शयन करने के हेतु अपने लिये निशाकालोचित अन्धकार (तमोगुण) से व्याप्त महारात्रि का निर्माण करते हैं। उन भगवान् के सहस्रों नेत्र, सहस्रों चरण और सहस्रों मस्तक हैं। वे अन्तर्यामी पुरुष हैं ओर इन्द्रियातीत होने पर भी शयन करने की इच्छा से उन शेषनाग को अपना पर्यंक बनाते हैं, जो सहस्रों फणों से विकटाकार दिखाई देते हैं। वे शेषनाग एक सहस्त्र प्रचण्ड सूर्यों के समूह की भाँति अनन्त एवं असीम प्रभा धारण करते हैं। उनकी कान्ति कुन्द पुष्प, चन्द्रमा, मुक्ताहार, गोदुग्ध, कमलनाल तथा कुमुद-कुसुम के समान उज्ज्वल है। उन्हीं की शय्या बनाकर भगवान् श्रीहरि शयन करते हैं।
तत्पश्चात् सृष्टिकाल में सत्वगुण के आधिक्य से भगवान् योगनिद्रा से जाग उठे। जागने पर उन्हें यह समस्त लोक सूना दिखायी दिया। महर्षिगण भगवान् नारायण के सम्बन्ध में यहाँ इस श्लोक का उदाहरण दिया करते हैं,,- 'जल भगवान् का शरीर है, इसीलिये उनका नाम ‘नार’ सुनते आये हैं। वह नार ही उनका अयन (गृह) है अथवा उसके साथ एक होकर वे रहते हैं, इसीलिये उन भगवान् को नारायण कहा गया है।' तत्पश्चात प्रजा की सृष्टि के लिये भगवान् ने चिन्तन किया। इस चिन्तन के साथ ही भगवान् की नाभि से सनातन कमल प्रकट हुआ। उस नाभिकमल से चतुर्मुख ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ। उस कमल पर बैठे हुए लोक पितामह ब्रह्माजी ने सहसा सम्पूर्ण जगत को शून्य देखकर अपने मानस पुत्र के रूप में अपने ही जैसे प्रभावशाली मरीचि आदि नौ महार्षियों को उत्पन्न किया। उन महर्षियों ने स्थावर-जंगमरूप सम्पूर्ण भूतों की तथा यक्ष, राक्षस, भूत पिशाच, नाग और मनुष्यों की सृष्टि की।
ब्रह्माजी के रूप से भगवान् सृष्टि करते हैं। परमपुरुष नारायण रूप से इसकी रक्षा करते हैं तथा रुद्र स्वरूप से सब का संहार करते हैं। इस प्रकार प्रजापालक भगवान् की ये तीन अवस्थाएं हैं। सिन्धुराज! क्या तुमने वेदों के पारगंत ब्रह्मर्षियों के मुख से अद्भुतकर्मा भगवान् विष्णु का चरित्र नहीं सुना है? समस्त भूमण्डल सब ओर से जल में डूबा हुआ था। उस समय एकार्णव से उपलक्षित एकमात्र आकाश में पृथ्वी का पता लगाने के लिये भगवान् इस प्रकार विचर रहे थे, जैसे वर्षा काल की रात में जुगनू सब ओर उड़ता फिरता है। वे पृथ्वी को कहीं स्थिर रूप से स्थापित करने के लिये उसकी खोज कर रहे थे। पृथ्वी को जल में डूबी हुई देख भगवान् ने मन-ही-मन उसे बाहर निकालने की इच्छा की। वे सोचने लगे, ‘कौन-सा रूप धारण करके मैं इस जल से पृथ्वी का उद्धार करूँ’। इस प्रकार मन-ही-मन चिन्तन करके उन्होंने दिव्यदृष्टि से देखा कि जल में क्रीड़ा करने के योग्य तो वराह रूप है; अत: उन्होंने उसी रूप का स्मरण किया। वेदतुल्य वैदिक वांङ्म्य वराह रूप धारण करके भगवान ने जल के भीतर प्रवेश किया। उनका वह विशाल पर्वताकार शरीर सौ योजन लम्बा और दस योजन चौड़ा था। उनकी दाढ़ें बड़ी तीखी थीं। उनका शरीर देदीप्यमान हो रहा था। भगवान् का कण्ठस्वर महान् मेघों की गर्जना के समान गम्भीर था। उनकी अंगकान्ति नील जलधर के समान श्याम थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 55-76 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार यज्ञवराहरूप धारण करके भगवान् ने जल के भीतर प्रवेश किया और एक ही दाँत से पृथ्वी को उठाकर उसे अपने स्थान पर स्थापित कर दिया। तदनन्तर महाबाहु भगवान् श्रीहरि ने एक अपूर्व शरीर धारण किया, जिसमें आधा अंग तो मनुष्य का था और आधा सिंह का। इस प्रकार नृसिंह रूप धारण करके हाथ से हाथ का स्पर्श किये हुए दैत्यराज हिरण्यकशिपु की सभा में गये। दैत्यों के आदिपुरुष और देवताओं के शत्रु दितिनन्दन हिरण्यकशिपु ने उस अपूर्व पुरुष को देखकर क्रोध से आंखें लाल कर लीं। उसने एक हाथ में शूल उठा रखा था। उसके गले में पुष्पों की माला शोभा पा रही थी। उस समय वीर हिरण्यकशिपु ने, जिसकी आवाज मेघ की गर्जना के समान थी, जो नीले मेघों के समूह-जैसा श्याम था तथा जो दिति के गर्भ से उत्पन्न होकर देवताओं का शत्रु बना हुआ था; भगवान् नृसिंह पर धावा किया। इसी समय अत्यन्त बलवान् मृगेन्द्रस्वरूप भगवान् नृसिंह ने दैत्य के निकट जाकर उसे अपने तीखे नखों द्वारा अत्यन्त विदीर्ण कर दिया।
इस प्रकार शत्रुघाती दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध करके भगवान् कमलनयन श्रीहरि पुन: सम्पूर्ण लोकों के हित के लिये अन्य रूप में प्रकट हुए। उस समय वे कश्यप जी के तेजस्वी पुत्र हुए। अदिति देवी ने उन्हें गर्भ में धारण किया था। पूरे एक हजार वर्ष तक गर्भ में धारण करने के पश्चात अदिति ने एक उत्तम बालक को जन्म दिया। वह वर्षा काल के मेघ के समान श्याम वर्ण था। उसके नेत्र देदीप्यमान हो रहे थे। वे वामनाकार, दण्ड और कमण्डलु धारण किये तथा वक्ष:स्थल में श्रीवत्स चिह्न से विभूषित थे। उनके सिर पर जटा थी और गले में यज्ञोपवीत शोभा पाता था। उस समय वे बालरूपधारी श्रीमान भगवान् दानवराज बलि की यज्ञशाला के समीप गये। बृहस्पति जी की सहायता से उनका बलि के यज्ञमण्डप में प्रवेश हुआ। वामनरूपधारी भगवान् को देखकर राजा बलि बहुत प्रसन्न हुए और बोले- ‘ब्रह्मन्! आपका दर्शन पाकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी सेवा के लिये क्या दूँ?' बलि के ऐसा कहने पर भगवान् वामन ने ‘(आपका) स्वस्ति (कल्याण हो)’ ऐसा कहकर बलि को आशीर्वाद दिया और मुस्कराते हुए कहा,
भगवान वामन बोले ;- ‘दानवराज! मुझे तीन पग पृथ्वी दे दीजिये’। बलि ने प्रसन्नचित्त होकर उन अमित तेजस्वी ब्राह्मण देवता को उनकी मुँहमाँगी वस्तु दे दी। तब भूमि को नापते समय श्रीहरि का अत्यन्त अद्भुत दिव्य रूप प्रकट हुआ। उन अक्षोभ्य सनातन विष्णुदेव ने तीन पग द्वारा शीघ्र ही सारी वसुधा नाप ली और देवराज इन्द्र को समर्पित कर दी। यह मैंने तुम्हें भगवान् के वामनावतार की बात बतायी है। उन्हीं से देवताओं की उत्पत्ति हुई है।
यह जगत् भी भगवान् विष्णु से प्रकट होने के कारण वैष्णव कहलाता है। राजन्! वे ही भगवान् विष्णु दुष्टों का दमन और धर्म का संरक्षण करने के लिये मनुष्यों के बीच यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। उन्हीं को श्रीकृष्ण कहते हैं। वे अनादि, अनन्त, अजन्मा, दिव्यस्वरूप, सर्वसमर्थ और विश्ववन्दित हैं। सिन्धुराज! विद्वान् पुरुष उन्हीं भगवान् की महिमा गाते और उन्हीं के पावन चरित्रों का वर्णन करते हैं। उन्हीं को अपराजित शंखचक्रगदाधारी पीतपट्टाम्बरविभूषित श्रीवत्सधारी भगवान् श्रीकृष्ण कहा गया है। अस्त्रविद्या के विद्वानों में श्रेष्ठ अर्जुन उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित हैं। शत्रुवीरों का संहार करने वाले अतुल पराक्रमी श्रीमान् कमलनयन श्रीकृष्ण एक ही रथ पर अर्जुन के समीप बैठकर उनकी सहायता करते हैं। इस कारण अर्जुन को कोई नहीं जीत सकता। उनका वेग सहन करना देवताओं के लिये भी कठिन है; फिर कौन ऐसा मनुष्य है, जो युद्ध में अर्जुन पर विजय पा सके?'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 77-81 का हिन्दी अनुवाद)
‘राजन्! केवल अर्जुन को छोड़कर एक दिन ही तुम युधिष्ठिर की सारी सेना को और अपने शत्रु चारों पाण्डवों को भी जीत सकोगे’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उमापति भगवान् हर समस्त पापों का अपहरण करने वाले हैं। वे पशुरूपी जीवों के पालक, दक्षयज्ञ-विध्वसंक तथा त्रिपुरविनाशक हैं। उनके तीन नेत्र हैं और उन्हीं के द्वारा भगदेवता के नेत्र नष्ट किये गये हैं। भगवती उमा सदा उनके साथ रहती हैं।
नृपश्रेष्ठ! भगवान् शिव सिन्धुराज जयद्रथ से पूर्वोक्त वचन कहकर भंयकर कानों और नेत्रों वाले भाँति-भाँति के अस्त्र उठाये रहने वाले अपने भंयकर पार्षदों के साथ, जिनमें बौने, कुबड़े और विकट आकृति वाले प्राणी भी थे, भगवती पार्वती सहित वहीं अन्तर्धान हो गये।
तत्पश्चात् मन्दबुद्धि जयद्रथ भी अपने घर चला गया और पाण्डवगण उस काम्यकवन में उसी प्रकार निवास करने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत जयद्रथविमोक्षणपर्व में दो सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(जयद्रथविमोक्षण पर्व समाप्त)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
दौ सौ तिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“अपनी दुरवस्था से दु:खी हुए युधिष्ठिर का मार्कण्डेय मुनि से प्रश्न करना”
जनमेजय ने पूछा ;- इस प्रकार द्रौपदी का अपहरण होने पर महान् क्लेश उठाने के पश्चात् मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी पाण्डवों ने कौन-सा कार्य किया?
वैशम्पायन जी बोले ;- जनमेजय! इस प्रकार जयद्रथ को जीत द्रौपदी को छुड़ाकर लेने के पश्चात धर्मराज युधिष्ठिर मुनिमण्डली के साथ बैठे हुए थे। महर्षि लोग भी पाण्डवों पर आये हुए संकट को सुनते और उसके लिये बारंबार शोक करते थे। उन्हीं में से मार्कण्डेय जी को लक्ष्य करके पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने इस प्रकार कहा।
युधिष्ठिर बोले ;- भगवन्! आप भूत, भविष्य और वर्तमान-तीनों कालों के ज्ञाता हैं। देवर्षियों में भी आपका नाम विख्यात है। अत: आप से मैं अपने हृदय का एक संदेह पूछता हूँ, उसका निवारण कीजिये। यह परम सौभाग्यशालिनी द्रुपदकुमारी यज्ञ की वेदी से प्रकट हुई है; अत: अयोनिजा है (इसे गर्भवास का कष्ट नहीं सहन करना पड़ा है) इसे महात्मा पाण्डु की पुत्रवधु होने का गौरव भी मिला है। मेरी समझ में भगवान् काल, विधिनिर्मित दैव और समस्त प्राणियों की भवितव्यता अर्थात् उनके लिये होने वाली घटना-ये तीनों ही प्रबल हैं; इनको कोई टाल नहीं सकता। अन्यथा हमारी इस पत्नी को, जो धर्म को जानने वाली तथा धर्म के पालन में तत्पर रहने वाली है, ऐसा भाव (अपहृत होने का लांछन) कैसे स्पर्श कर सकता था? यह तो ठीक वैसा ही है, जैसे किसी शुद्ध आचार-विचार वाले मनुष्य पर झूठे ही चोरी का कलंक लग जाये। इसने कभी कोई पाप या निन्दित कर्म नहीं किया है। द्रौपदी ने ब्राह्मणों के प्रति सेवा-सत्कार आदि के रूप में महान् धर्म का आचरण किया है। ऐसी स्त्री का भी मूढ़बुद्धि पापी राजा जयद्रथ ने बलपूर्वक अपहरण किया। इस अपहरण के ही कारण उसका सिर मूंड़ा गया, वह अपने सहायकों सहित युद्ध में पराजित हुआ तथा हम लोग सिन्धु देश की सेना का संहार करके पुन: द्रौपदी को लौटा लाये हैं।
इस प्रकार हमने जिसे कभी सोचा तक न था, वह अपनी पत्नी का अपहरणरूप अपमान हमें प्राप्त हुआ और मिथ्या व्यवसाय में लगे हुए बान्धवों ने हमें देश से निर्वासित कर दिया है। अत: मैं पूछता हूँ, क्या संसार में मेरे-जैसा मन्दभाग्य मनुष्य कोई और भी है अथवा आपने पहले कभी मुझ-जैसे भाग्यहीन को कहीं देखा या सुना है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्व में युधिष्ठिरप्रश्न विषयक दो सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
दौ सौ चहोत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतु:सप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीराम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति और उन्हें ऐश्वर्य की प्राप्ति”
मार्कण्डेयजी ने कहा ;- भरतश्रेष्ठ! श्रीरामचन्द्र जी को भी वनवास तथा स्त्रीवियोग का अनुपम दु:ख सहन करना पड़ा था। दुरात्मा राक्षसराज महाबली रावण अपना मायाजाल बिछाकर आश्रम से उनकी पत्नी सीता को वेगपूर्वक हर ले गया था और अपने कार्य में बाधा डालने वाले गृधराज जटायु को उसने वहीं मार गिराया था। फिर श्रीरामचन्द्र जी भी सुग्रीव की सेना का सहारा ले समुद्र पर पुल बांधकर लंका में गये और अपने तीखे (आग्नेय आदि) बाणों से उसको भस्म करके वहां से सीता को वापस लाये।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- भगवन्! श्रीरामचन्द्र जी किस कुल में प्रकट हुए थे? उनका बल और पराक्रम कैसा था? रावण किसका पुत्र था और उसका रामचन्द्र जी से क्या वैर था? भगवन्! ये सभी बातें मुझे अच्छी प्रकार बताइये। मैं अनायास ही महान् कर्म करने वाले भगवान् श्रीराम का चरित्र सुनना चाहता हूँ।
मार्कण्डेय जी ने कहा ;- राजन्! इक्ष्वाकु वंश में अज नाम से प्रसिद्ध एक महान् राजा हो गये हैं। उनके पुत्र थे दशरथ, जो सदा स्वाध्याय में संलग्न रहने वाले और पवित्र थे। उनके चार पुत्र हुए। वे सब के सब धर्म और अर्थ के तत्व को जानने वाले थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- राम, लक्ष्मण, महाबली भरत और शत्रुघ्न। श्रीरामचन्द्र जी की माता का नाम कौशल्या था, भरत की माता कैकेयी थी तथा शत्रुओं को सन्ताप देने वाले लक्ष्मण और शत्रुघ्न सुमित्रा के पुत्र थे। राजन्! विदेह देश के राजा जनक की एक पुत्री थी, जिसका नाम था सीता। उसे स्वयं विधाता ने ही भगवान् श्रीराम की प्यारी रानी होने के लिये रचा था। जनेश्वर! इस प्रकार मैंने श्रीराम और सीता के जन्म का वृत्तान्त बताया है। अब रावण के भी जन्म का प्रसंग सुनाऊँगा। सम्पूर्ण जगत के स्वामी, सबकी सृष्टि करने वाले, प्रजापालक, महातपस्वी और स्वयम्भू साक्षात् भगवान् ब्रह्माजी ही रावण के पितामह थे। ब्रह्माजी के एक परम प्रिय मानसपुत्र पुलस्त्य जी थे। उनसे उनकी गौ नाम की पत्नी के गर्भ से वैश्रवण नामक शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न हुआ।
राजन्! वैश्रवण अपने पिता को छोड़कर पितामह की सेवा में रहने लगे। इससे उन पर क्रोध करके पिता पुलस्त्य ने स्वयं अपने आपको ही दूसरे रूप में प्रकट कर लिया। पुलस्त्य के आधे शरीर से जो दूसरा द्विज प्रकट हुआ, उसका नाम विश्रवा था। विश्रवा वैश्रवण से बदला लेने के लिये उनके ऊपर सदा कुपित रहा करते थे। परंतु पितामह ब्रह्माजी उन पर प्रसन्न थे; अत: उन्होंने वैश्रवण को अमरत्व प्रदान किया और धन का स्वामी तथा लोकपाल बना दिया। पितामह ने उनकी महादेव जी से मैत्री करायी, उन्हें नलकूबर नामक पुत्र दिया तथा राक्षसों से भरी हुई लंका को उनकी राजधानी बनायी। साथ ही उन्हें इच्छानुसार विचरने वाला पुष्पक नाम का एक विमान दिया। इसके सिवा ब्रह्माजी ने कुबेर को यक्षों का स्वामी बना दिया और उन्हें ‘राजराज’ की पदवी प्रदान की।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्व में राम-रावण जन्म कथन विषयक दो सौ चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
दौ सौ पचहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्चसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति, तपस्या और वर प्राप्ति तथा कुबेर का रावण को शाप देना”
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! पुलस्त्य के क्रोध से उनके आधे शरीर से जो ‘विश्रवा’ नामक मुनि प्रकट हुए थे, वे कुबेर को कुपित दृष्टि से देखने लगे। युधिष्ठिर! राक्षसों के स्वामी कुबेर को जब यह बात मालूम हो गयी कि मेरे पिता मुझ पर रुष्ट रहते हैं, तब वे उन्हें प्रसन्न रखने का यन्त्र करने लगे। राजराज कुबेर स्वयं लंका में रहते थे। वे मनुष्यों द्वारा ढोई जाने वाली पालकी आदि की सवारी पर चलते थे। उन्होंने अपने पिता विश्रवा की सेवा के लिये तीन राक्षस कन्याओं को परिचारिकाओं के रूप में नियुक्त कर दिया था। भरतश्रेष्ठ! वे तीनों ही नाचने और गाने की कला में निपुण थीं तथा सदा ही उन महात्मा महर्षि को संतुष्ट रखने के लिये सचेष्ट रहती थीं। महाराज! उनके नाम थे- पुष्पोत्कटा, राका तथा मालिनी। वे तीनों सुन्दरियां अपना भला चाहती थीं। इसलिये एक-दूसरी से स्पर्धा रखकर मुनि की सेवा करती थीं। वे ऐर्श्यशाली महात्मा उनकी सेवाओं से प्रसन्न हो गये और उनमें से प्रत्येक को उनकी इच्छा के अनुसार लोकपालों के समान पराक्रमी पुत्र होने का वरदान दिया।
पुष्पोत्कटा के दो पुत्र हुए रावण और कुम्भकर्ण। ये दोनों ही राक्षसों के अधिपति थे। भूमण्डल में इनके समान बलवान दूसरा कोई नहीं था। मालिनी ने एक पुत्र विभीषण को जन्म दिया। राका के गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री हुई। पुत्र का नाम खर था और पुत्री का शूर्पणखा। इन सब बालकों में विभीषण ही सबसे रूपवान्, सौभाग्यशाली, धर्मरक्षक तथा कर्तव्यपरायण थे। रावण के दस मस्तके थे। वही सब में ज्येष्ठ तथा राक्षसों का स्वामी था। उत्साह, बल, धैर्य और पराक्रम में भी वह महान् था। कुम्भकर्ण शारीरिक बल में सबसे बढ़ा-चढ़ा था। युद्ध में भी वह सबसे बढ़कर था। मायावी और रणकुशल तो था ही, वह निशाचर बड़ा भंयकर भी था। खर धनुर्विद्या में विशेष पराक्रमी था। वह ब्राह्मणों से द्वेष रखने वाला तथा मांसाहारी था। शूर्पणखा की आकृति बड़ी भयानक थी। वह सिद्ध ऋषि-मुनियों की तपस्या में विघ्न डाला करती थी। वे सभी बालक वेदवेत्ता, शूरवीर तथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले थे और अपने पिता के साथ गन्धमादन पर्वत पर सुखपूर्वक रहते थे।
एक दिन नरवाहन कुबेर अपने महान् ऐश्वर्य से युक्त होकर पिता के साथ बैठे थे। उसी अवस्था में रावण आदि ने उन्हें देखा। उनका वैभव देखकर इन बालकों के हृदय में डाह पैदा हो गयी। अत: उन्होंने मन-ही-मन तपस्या करने का निश्चय किया और घोर तपस्या के द्वारा उन्होंने ब्रह्माजी को संतुष्ट कर लिया। रावण सहस्रों वर्षों तक एक पैर पर खड़ा रहा। वह चित्त को एकाग्र रखकर पंचाग्निसेवन करता और वायु पीकर रहता था। कुम्भकर्ण ने भी आहार का संयम किया। वह भूमि पर सोता और कठोर नियमों का पालन करता था। विभीषण केवल एक सूखा पत्ता खाकर रहते थे। उनका भी उपवास में ही प्रेम था। बुद्धिमान एवं उदार बुद्धि विभीषण सदा जप किया करते थे। उन्होंने भी उतने समय तक तीव्र तपस्या की। खर और शूर्पणखा, ये दोनों प्रसन्न मन से तपस्या में लगे हुए अपने भाइयों की परिचर्या तथा रक्षा करते थे। एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर दुर्धर्ष दशानन ने अपना मस्तक काटकर अग्नि में उसकी आहुति दे दी। उसके इस अद्भुत कर्म से लोकेश्वर ब्रह्माजी बहुत सुंतुष्ट हुए।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्चसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 22-40 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर ब्रह्माजी ने स्वयं आकर उन सबको तपस्या करने से रोका और प्रत्येक को पृथक्-पृथक् वरदान का लोभ देते हुए कहा।
ब्रह्माजी बोले ;- पुत्रो! मैं तुम सब पर प्रसन्न हूँ, वर मांगो और तपस्या से निवृत्त हो जाओ। केवल अमरत्व को छोड़कर जिसकी जो-जो इच्छा हो, उसके अनुसार वह वर मांगे। उसका वह मनोरथ पूर्ण
होगा। (तत्पश्चात् उन्होंने रावण की ओर लक्ष्य करके कहा-) तुमने महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने की इच्छा से अपने जिन-जिन मस्तकों की अग्नि में आहुति दी है, वे सबके सब पूर्ववत् तुम्हारे शरीर में इच्छानुसार जुड़ जायेंगे। तुम्हारे शरीर में किसी प्रकार की कुरूपता नहीं होगी, तुम इच्छानुसार रूप धारण कर सकोगे तथा युद्ध में शत्रुओं पर विजयी होओगे, इसमें संशय नहीं है।
रावण बोला ;- भगवन्! गन्धर्व, देवता, असुर, यक्ष, राक्षस, सर्प, किन्नर तथा भूतों से कभी मेरी पराजय न हो।
ब्रह्माजी ने कहा ;- तुमने जिन लोगों का नाम लिया है, इनमें से किसी से भी तुम्हें भय नहीं होगा। केवल मनुष्यों को छोड़कर तुम सबसे निर्भय रहो। तुम्हारा भला हो। तुम्हारे लिये मनुष्य से होने वाले भय का विधान मैंने ही किया है।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर दसमुख रावण बहुत प्रसन्n हुआ। वह दुर्बुद्धि नरभक्षी राक्षस मनुष्यों की अवहेलना करता था। तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने कुम्भकर्ण से वर मांगने को कहा। परंन्तु उसकी बुद्धि तमोगुण से ग्रस्त थी; अत: उसने अधिक काल तक नींद लेने का वर मांगा। उसे ‘ऐसा ही होगा’ यों कहकर ब्रह्माजी विभीषण के पास गये और इस प्रकार बोले,
ब्रह्मा जी बोले ;- ‘बेटा! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, अत: तुम भी वर मांगो।’ ब्रह्माजी ने यह बात बार-बार दुहरायी।
विभीषण बोले ;- भगवन्! बहुत बड़ा संकट आने पर भी मेरे मन में कभी पाप का विचार न उठे तथा बिना सीखे ही मेरे हृदय में ब्रह्मास्त्र के प्रयोग और उपसंहार की विधि स्फुरित हो जाये।
ब्रह्माजी ने कहा ;- शत्रुनाशन! राक्षस योनि में जन्म लेकर भी तुम्हारी बुद्धि अधर्म में नहीं लगती है; इसलिये (तुम्हारे मांगे हुए वर के अतिरिक्त) मैं तुम्हें अमरत्व भी देता हूँ।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! राक्षस दशानन ने वर प्राप्त कर लेने पर सबसे पहले अपने भाई कुबेर को युद्ध में परास्त किया और उन्हें लंका के राज्य से बहिष्कृत कर दिया। भगवान् कुबेर लंका छोड़कर गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा किम्पुरुषों के साथ गन्धमादन पर्वत पर आकर रहने लगे। रावण ने आक्रमण करके उनका पुष्पक विमान भी छीन लिया। तब कुबेर ने कुपित होकर उसे शाप दिया,,
कुबेर बोले ;- ‘अरे! यह विमान तेरी सवारी में नहीं आ सकेगा। जो युद्ध में तुझे मार डालेगा, उसी का यह वाहन होगा। मैं तेरा बड़ा भाई होने के कारण मान्य था, परंतु तूने मेरा अपमान किया है। इससे बहुत शीघ्र तेरा नाश हो जायेगा’। महाराज! विभीषण धर्मात्मा थे। उन्होंने
सत्पुरुषों के मार्ग का ध्यान रखकर सदा अपने भाई कुबेर का अनुसरण किया; अत: वे उत्तम लक्ष्मी से सम्पन्न हुए। बड़े भाई बुद्धिमान् कुबेर ने संतुष्ट होकर छोटे भाई विभीषण को यक्ष तथा राक्षसों की सेना का सेनापति बना दिया। नरभक्षी राक्षस तथा महाबली पिशाच-सब ने मिलकर दशमुख रावण को राक्षसराज के पद पर अभिषिक्त किया। बलोन्मत रावण इच्छानुसार रूप धारण करने और आकाश में भी चलने में समर्थ था। उसने दैत्यों और देवताओं पर आक्रमण करके उनके पास जो रत्न या रत्नभूत वस्तुएँ थीं, उन सबका अपहरण कर लिया। उसने सम्पूर्ण लोकों को रुला दिया था; इसलिये वह रावण कहलाता है। दशानन का बल उसके इच्छानुसार बढ़ जाता था; अत: वह सदा देवताओं को भयभीत किये रहता था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्व में रावण आदि को वरप्राप्ति विषयक दो सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें