सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व)
दौ सौ छाछठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्षष्टयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शिबि देश के प्रमुख वीर कोटिकास्य के इस प्रकार पूछने पर राजकुमारी द्रौपदी कदम्ब की वह डाली छोड़कर अपनी रेशमी ओढ़नी को सँभालती हुई संकोचपूर्वक उसकी ओर देखकर बोली,
द्रोपदी बोली ;- ‘राजकुमार! मैं बुद्धि से सोच-विचारकर भलीभाँति समझती हूँ कि मुझ-जैसी पतिपरायणा स्त्री को तुम-जैसे परपुरुष से वार्तालाप नहीं करना चाहिये; परंतु यहाँ कोई दूसरा ऐसा पुरुष अथवा स्त्री नहीं है, जो तुम्हारी बात का उत्तर दे सके। मैं इस समय यहाँ अकेली ही हूँ। इसलिये विवश होकर तुमसे बोलना पड़ रहा है।
भद्रपुरुष! मेरी इस बात पर ध्यान दो। मैं अपने धर्म के पालन में तत्पर रहने वाली हूँ। इस समय इस वन में मैं अकेली हूँ और तुम भी अकेले पुरुष हो, ऐसी दशा में मैं तुम्हारे साथ कैसे वार्तालाप कर सकती हूँ। परंतु मैं तुम्हें पहचानती हूँ, तुम राजा सुरथ के पुत्र हो, जिसे लोग कोटिकास्य के नाम से जानते हैं। शैब्य! इसलिये मैं तुम्हें अपने बन्धुजनों तथा विश्वविख्यात वंश का परिचय देती हूँ।
शिबि देश के राजकुमार! मैं राजा द्रुपद की पुत्री हूँ। मनुष्य मुझे कृष्णा के नाम से जानते हैं। मैंने पाँचों पाण्डवों का पतिरूप में वरण किया है, जो खाण्डवप्रस्थ में रहते थे। उनका नाम तुमने अवश्य सुना होगा। युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीपुत्र नरवीर नकुल और सहदेव -ये ही मेरे पति हैं। वे सब-के-सब मुझे यहाँ रखकर हिंसक पशुओं को मारने के लिये अलग-अलग बँटकर चारों दिशाओं में गये हैं। स्वयं राजा युधिष्ठिर पूर्व दिशा में गये हैं, भीमसेन दक्षिण दिशा में, अर्जुन पश्चिम दिशा में और नकुल-सहदेव उत्तर दिशा में गये हैं। मैं समझती हूँ, अब उन महारथियों के सब ओर से यहाँ पहुँचने का समय हो गया है। अब तुम लोग अपनी सवारियों से उतरो और घोड़ों को खोलकर विश्राम करो। मेरे पतियों का आदर-सत्कार ग्रहण करके अपने अभीष्ट देश को जाना। महात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिर अतिथियों के बड़े प्रेमी हैं। वे तुम लोगों को देखकर बहुत प्रसन्न होंगे’।
शिबि देश के राजकुमार कोटिकास्य से ऐसा कहकर वह चन्द्रमुखी द्रौपदी अपनी पर्णशाला के भीतर चली गयी। ‘ये लोग हमारे अतिथि हैं’, ऐसा सोचकर उसे उन पर विश्वास हो गया था। अत: वह प्रसन्नतापूर्वक उनके आतिथ्य की व्यवस्था में लग गयी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में द्रौपदीवाक्यविषयक दौ सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व)
दौ सौ सरसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तषष्टयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भारत! पूर्वोक्त प्रकार से रथ पर बैठे हुए उन सब राजाओं के पास जाकर कोटिकास्य ने द्रौपदी के साथ उसकी जो-जो बातें हुई थीं, वे सब कह सुनायीं। कोटिकास्य की बात सुनकर सौवीर नरेश जयद्रथ ने उससे कहा,
जयद्रथ बोला ;- ‘शैव्य! सुन्दरियों में सर्वश्रेष्ठ वह युवती जब तुमसे बातचीत कर रही थी, उस समय मेरा मन उसी में लगा हुआ था। तुम उसे साथ लिये बिना कैसे लौट आये? महाबाहो! मैं तुमसे यह सच कहता हूँ, इसे देखकर मुझे दूसरी स्त्रियां ऐसी जान पड़ती हैं, मानो बंदरियां हों। उसने दर्शनमात्र से ही मेरे मन को अच्छी तरह हर लिया है। शैव्य! यदि वह मानवी हो, तो उस कल्याणी के विषय में ठीक-ठीक बताओ'।
कोटिक बोला ;- सौवीर नरेश! यह यशस्विनी राजकुमारी द्रुपदपुत्री कृष्णा ही है, जो पाँचों पाण्डवों की अत्यन्त आदरणीया महारानी है। कुन्ती के सभी पुत्र इसे प्यार करते हैं। यह सती-साध्वी देवी अपने पतियों के लिये बड़े सम्मान की वस्तु है। तुम उससे मिलकर सौवीर देश की राह लो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! कोटिकास्य के ऐसा कहने पर सौवीर और सिन्धु आदि देशों के स्वमी जयद्रथ ने मन में दुर्भावना लेकर उसे उत्तर दिया ,
जयद्रथ बोला ;- ‘अच्छा, मैं भी द्रौपदी से मिल लेता हूँ’। उसने अपने छ: भाइयों के साथ स्वयं सातवाँ बनकर द्रौपदी के पवित्र आश्रम में प्रवेश किया, मानो कोई भेड़िया सिंह की माँद में घुसा हो। वहाँ जाकर उसने द्रौपदी से इस प्रकार कहा,
जयद्रथ बोला ;- ‘वरारोहे! तुम कुशल से हो न? तुम्हारे पति निरोग तो हैं न? इसके सिवा और जिन लोगों को तुम सकुशल देखना चाहती हो, वे सभी स्वस्थ तो हैं न?
द्रौपदी बोली ;- राजन् तुम स्वयं सकुशल हो न? तुम्हारे राज्य, खजाना और सैनिक तो कुशल से हैं न? समृद्धिशाली शिबि, सौवीर, सिन्धु तथा अन्य जो-जो प्रदेश तुम्हारे अधिकार में आ गये हैं, उन सबकी प्रजा का धर्मपूर्वक पालन तो करते हो न? मेरे पति कुरुकुलरत्न कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर सकुशल हैं। मैं, उनके चारों भाई तथा अन्य जिन लोगों के विषय में तुम पूछ रहे हो, वे सब कुशल से हैं। राजकुमार! यह पैर धोने के लिये जल है, इसे ग्रहण करो और यह आसन है, इस पर बैठो।
जयद्रथ ने कहा ;- आओ चलो, मेरे रथ पर बैठो और अखण्ड सुख का उपभोग करो। अब पाण्डवों के पास धन नहीं रहा। उनका राज्य छीन लिया गया। वे दीन और उत्साहहीन हो गये हैं। अब इन वनवासी कुन्तीपुत्रों का अनुसरण करना तुम्हें शोभा नहीं देता। विदुषी स्त्रियाँ निर्धन पति की उपासना नहीं करती हैं। स्वामी के पास जब तक लक्ष्मी रहे, तभी तक उसके साथ रहना चाहिये। जब पति की सम्पति नष्ट हो जाये, तो वहाँ कदापि न रहे। पाण्डव सदा के लिये श्रीहीन तथा राज्यभ्रष्ट हो गये हैं। अब तुम्हें पाण्डवों के प्रति भक्ति रखकर कष्ट भोगने की आवश्यकता नहीं है। सुन्दरी! तुम मेरी भार्या बन जाओ। इन पाण्डवों को छोड़ दो और मेरे साथ रहकर सुख भोगो। मेरे साथ रहने से तुम्हें सिन्धु और सौवीर देश का राज्य प्राप्त होगा, तुम महारानी बनोगी।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! सिन्धुराज जयद्रथ के मुख से यह हृदय कँपा देने वाली बात सुनकर द्रुपदकुमारी कृष्णा उस स्थान से दूर हट गयी। उसके मुख पर रोष छा गया और उसकी भौहें तन गयी।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तषष्टयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 19-21 का हिन्दी अनुवाद)
उसके इस प्रस्ताव का निरस्कार करके सुन्दरी द्रौपदी ने उसे कड़ी फटकार सुनायी और बोली,,
द्रोपदी बोली ;- ‘खबरदार, फिर कभी ऐसी बात मुख से मत निकालना। सिन्धुराज! तुम्हें लज्जा आनी चाहिये थी।'
पतिव्रता द्रौपदी चाहती थी कि मेरे पति अभी यहाँ आ जायें। अत: वह जयद्रथ से वाद-विवाद करती हुई उसे बातों में फंसाये रखने की चेष्टा करने लगी।
द्रौपदी बोली ;- महाबाहो! ऐसी पाप की बात न बोलो। कौन-सा कार्य धर्म के अनुकूल और न्यायसंगत है, इसका तुम्हें ज्ञान नहीं है। तुम धृतराष्ट्रपुत्रों तथा पाण्डवों की छोटी बहन दु:शला के पति हो।
महारथी राजकुमार! इस नाते से न्यायत: तुम मेरे भाई हो; अत: तुम्हें मेरी रक्षा करनी चाहिये। तुम्हारा जन्म तो धर्मात्माओं के कुल में हुआ है, परंतु तुम्हारी दृष्टि धर्म की ओर नहीं है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- द्रौपदी के ऐसा कहने पर सिन्धुराज जयद्रथ ने उसे इस प्रकार उत्तर दिया।
जयद्रथ बोला ;- कृष्णे! तुम राजाओं का धर्म नहीं जानतीं। मनीषी पुरुषों का कथन है कि इस संसार में स्त्रियां तथा रत्न सर्वसाधारण की वस्तुएँ हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में जयद्रथ-द्रौपदी संवाद विषयक दो सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व)
दौ सौ अड़सठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टषष्टयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रौपदी का जयद्रथ को फटकारना और जयद्रथ द्वारा उसका अपहरण”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जयद्रथ की बात सुनकर द्रौपदी का सुन्दर मुख क्रोध से तमतमा उठा, आंखें लाल हो गयीं, भौंहें टेढ़ी होकर तन गयीं और उसने सौवीरराज जयद्रथ को फटकार कर पुन: इस प्रकार कहा,
द्रौपदी बोली ;- ‘अरे मूढ़! मेरे पति पाण्डव महान् यशस्वी, सदा अपने धर्म के पालन में स्थित, यक्षों तथा राक्षसों के समूह में भी यद्ध करने में समर्थ, देवराज इन्द्र के सदृश शक्तिशाली तथा महारथी वीर
हैं। उनका क्रोध तीक्ष्ण विष वाले नागों के समान भयंकर हैं। उनके सम्मान के विरुद्ध ऐसी ओछी बातें कहते हुए तुझे लज्जा कैसे नहीं आती। अच्छे लोग पूजनीय, तपस्वी तथा पूर्ण विद्वान् पुरुष के प्रति भले ही वह वनवासी हो या गृहस्थ कोई अनुचित बात नहीं कहते हैं।
जयद्रथ! मनुष्यों में जो तेरे-जैसे कुत्ते हैं, वे ही इस तरह भूँका करते हैं। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि इस क्षत्रियमण्डली में कोई भी तेरा ऐसा हितैषी स्वजन नहीं है, जो आज तेरा हाथ पकड़कर तुझे पाताल के गहरे गर्त में गिरने से बचा ले। अरे! जैसे कोई मूर्ख मनुष्य हिमालय की उपत्यका में विचरने वाले पर्वत शिखर के समान ऊँचे एवं मद की धारा बहाने वाले गजराज को हाथ में डंडा लेकर यूथ से अलग हाँक लाना चाहे, उसी प्रकार तू धर्मराज युधिष्ठिर को जीतने का हौसला रखता है। तू मूर्खतावश (अपनी माँद में) सोये हुए महाबली सिंह को लात मारकर उसके मुख के बाल नोंच रहा है। जिस समय तू क्रोध में भरे हुए भीमसेन को देखेगा, उस समय तुरंत भाग छूटेगा।
यदि तू रोष में भरे हुए भंयकर योद्धा अर्जुन से जूझना चाहता है, तो समझ ले कि पर्वत की कन्दराओं में उत्पन्न हो वहीं पलकर बढ़े हुए अत्यन्त घोर और महाबली सोये हुए भयानक सिंह को तू पैर से ठोकर मार रहा है। यदि तू पुरुषरत्न दोनों छोटे पाण्डवों के साथ युद्ध करने की इच्छा रखता है, तो यह मानना पड़ेगा कि मतवाला होकर तू मुख में तीक्ष्ण विष धारण करने वाले एवं दो जिह्वाओं से युक्त दो काले नागों की पूंछ को पैर से कुचल रहा है। अरे मूर्ख! जैसे बांस, केला और नरकुल-ये अपने विनाश के लिये ही फलते हैं, समृद्धि के लिये नहीं तथा जैसे केकड़े की मादा अपनी मृत्यु के लिये ही गर्भ धारण करती है, उसी प्रकार तू पाण्डवों द्वारा सदा सुरक्षित मुझ द्रौपदी का अपनी मृत्यु के लिये ही अपहरण करना चाहता है।'
जयद्रथ ने कहा ;- क़ृष्णे! मैं जानता हूँ कि तुम्हारे पति राजकुमार पाण्डव कैसे हैं। मुझे ये सब बातें मालूम हैं। परन्तु इस समय इस विभीषिका द्वारा तुम हमें डरा नहीं सकतीं। द्रुपदकुमारी कृष्णे! हम सब लोग उन श्रेष्ठ कुलों में उत्पन्न हुए हैं, जो सत्रह गुणों से सम्पन्न हैं। इसके सिवा हम छ: गुणों को पाकर पाण्डवों से बढ़े-चढ़े हैं, अत: उन्हें अपने से हीन मानते हैं। कृष्णे! तुम बड़ी-बड़ी बातें बनाकर हमें रोक नहीं सकतीं। अब तुम्हारे सामने दो ही मार्ग हैं-या तो सीधी तरह से तुरंत चलकर मेरे हाथी या रथ पर सवार हो जाओ; अथवा पाण्डवों के हार जाने पर दीन वाणी में विलाप करती हुई सौवीरराज जयद्रथ से कृपा की भीख मांगो।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टषष्टयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद)
द्रौपदी ने कहा ;- मैं महान् बल एवं शक्ति से सम्पन्न हूँ, तो भी सौवीरराज जयद्रथ की दृष्टि में यहाँ दुर्बल-सी प्रतीत हो रही हूँ। मुझे भगवान् पर विश्वास है, मैं जोर-जबर्दस्ती करने से यहाँ जयद्रथ के सामने कभी दीन वचन नहीं बोल सकती। एक रथ पर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन साथ होकर जिसकी खोज में निकलेंगे, उस द्रौपदी को देवराज इन्द्र भी किसी तरह हरकर नहीं ले जा सकते। फिर दूसरे किसी दीन-हीन मनुष्य की तो बिसात ही क्या है? जब शत्रुवीरों का संहार करने वाले किरीटधारी अर्जुन शत्रुओं के मनोबल को नष्ट करते हुए मेरे लिये रथ में स्थित हो तेरी सेना में प्रवेश करेंगे, उस समय जैसे गर्मियों में आग घास-फूस को जलाती है, उसी प्रकार तुझे और तेरी सेना को भस्म कर डालेंगे। अन्धक और वृष्णिवंशी वीरों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण तथा महान् धनुर्धर समस्त केकय राजकुमार मेरे रक्षक हैं। ये सभी राजपुत्र हर्ष और उत्साह में भरकर मेरा पता लगाने के लिये निकल पड़ेंगे। अर्जुन के गाण्डीव धनुष की प्रत्यंचा से छूटे हुए अत्यन्त वेगशाली बाण मेघों के समान गर्जना करते हैं। वे भयानक बाण अर्जुन के हाथ से टकराकर अत्यन्त घोर शब्द की सृष्टि करते हैं। जब तू गाण्डीव धनुष से छूटे हुए विशाल बाण समूहों को टिड्डियों की भाँति वेग से उड़ते देखेगा और जब अद्भुत पराक्रम से शोभा पाने वाले वीर अर्जुन पर तेरी दृष्टि पड़ेगी, उस समय अपने इस कुकृत्य को याद करके तू स्वयं ही अपनी बुद्धि को धिक्कारेगा।
जब गाण्डीव धनुष धारण करने वाले अर्जुन शंखध्वनि के साथ दस्ताने की आवाज फैलाते हुए बार-बार बाण उठा-उठाकर तेरी छाती पर चोट करेंगे, उस समय तेरे मन की दशा कैसी होगी? (इसे भी सोच ले) अरे नीच! जब भीमसेन हाथ में गदा लिये दौड़ेंगे और माद्रीनन्दन नकुल-सहदेव अमर्षजनित क्रोधरूपी विष उगलते हुए (तेरी सेना पर) सब दिशाओं से टूट पड़ेंगे, तब उन्हें देखकर तू दीर्घ काल तक संताप की आग में जलता रहेगा। यदि मैंने कभी मन से भी अपने परम पूजनीय पतियों का किसी तरह उल्लघंन नहीं किया हो, तो आज इस सत्य के प्रभाव से मैं देखूँगी कि पाण्डव तुझे जीतकर अपने वश में करके जमीन पर घसीट रहे हैं। मैं जानती हूँ कि तू नृशंस है, अत: मुझे बलपूर्वक खींचकर ले जायेगा, परंतु इससे मैं सम्भ्रम (घबराट) में नहीं पड़ सकूँगी। मैं अपने पति कुरुवंशी वीर पाण्डवों से शीघ्र ही मिलूंगी और उनके साथ पुन: इसी काम्यकवन में आकर रहूँगी।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय जयद्रथ के साथी आश्रम में प्रविष्ट होकर द्रौपदी को पकड़ लेना चाहते थे। यह देख विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी उन्हें डाँटकर बोली,
द्रौपदी बोली ;- ‘खबरदार, कोई मेरे शरीर का स्पर्श न करे।’ फिर भयभीत होकर उसने अपने पुरोहित धौम्य मुनि को पुकारा। इतने में ही जयद्रथ ने आगे बढ़कर द्रौपदी की ओढ़नी का छोर पकड़ लिया, परंतु द्रौपदी ने उसे जोर का धक्का दिया। उसका धक्का लगते ही पापी जयद्रथ का शरीर जड़ से कटे हुए वृक्ष की भॉंति पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर बड़े वेग से उठकर उसने राजकुमारी द्रौपदी को पकड़ लिया। तब बार-बार लम्बी सांसें छोड़ती हुई द्रौपदी ने धौम्य मुनि के चरणों में प्रणाम किया, किंन्तु वह जयद्रथ के द्वारा खींची जाने के कारण बाध्य होकर उसके रथ पर बैठ गयी।
तब धौम्य ने कहा ;- 'जयद्रथ! तू क्षत्रियों के प्राचीन धर्म पर दृष्टिपात कर। महारथी पाण्डवों को परास्त किये बिना इसे ले जाने का तुझे कोई अधिकार नहीं है।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर धौम्य मुनि हरकर ले जायी जाती हुई यशस्विनी राजकुमारी द्रौपदी के पीछे-पीछे पैदल सेना के बीच में होकर चलने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में दो सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व)
दौ सौ उनहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“पाण्डवों का आश्रम पर लौटना और धात्रेयिका से द्रौपदीहरण का वृत्तान्त जानकर जयद्रथ का पीछा करना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर भूमण्डल के श्रेष्ठतम धनुर्धर पाँचों कुन्तीकुमार सब दिशाओं में घूम-फिरकर हिंसक पशुओं, वराहों और जंगली भैसों को मारकर पृथक्-पृथक् विचरते हुए एक साथ हो गये। उस समय हिंसक पशुओं और सांपों से भरा हुआ वह महान् वन सहसा चिड़ियों के चीत्कार से गूँज उठा तथा वन्य पशु भी भयभीत होकर आर्तनाद करने लगे। उन सब की आवाज सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘भाइयों! देखो, ये मृग और पक्षी सूर्य के द्वारा प्रकाशित पूर्व दिशा की ओर दौड़ते हुए अत्यन्त कठोर शब्द बोल रहे हैं। यह विशाल वन हमारे शत्रुओं द्वारा पीड़ित हो रहा है। अब शीघ्र आश्रम की ओर लौटो। हमें बिलम्ब नहीं करना चाहिये; क्योंकि मेरा मन बुद्धि की विवेकशक्ति को आच्छादित करके व्यथित तथा चिन्ता से दग्ध हो रहा है तथा मेरे शशीर में यह प्राणों का स्वामी (जीव) भयभीत हुआ छटपटा रहा है। जैसे गरुड़ के द्वारा सरोवर में रहने वाले महासर्प के पकड़ लिये जाने पर वह मथित-सा हो उठता है, जैसे बिना राजा का राज्य श्रीहीन हो जाता है, तथा जिस प्रकार रस से भरा हुआ घड़ा द्यूर्तों द्वारा (चुपके से) पी लिये जाने पर सहसा ख़ाली दिखायी देता है; उसी प्रकार शत्रुओं द्वारा काम्यकवन की भी दुरवस्था की गयी है, ऐसा मुझे जान पड़ता है’।
तत्पश्चात् वे नरवीर पाण्डव हवा से भी अधिक तेज चलने वाले सिन्धुदेश के महान् वेगशाली अश्वों से जुते हुए सुन्दर एवं विशाल रथों पर बैठकर आश्रम की ओर चले। उस समय एक गीदड़ बड़े जोर से रोता हुआ लौटते हुए पाण्डवों के वामभाग से होकर निकल गया। इस अपशकुन पर विचार करके राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन और अर्जुन से कहा,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘यह नीच योनि का गीदड़, जो हम लोगों के वामभाग से होकर निकला है, जैसा शब्द कर रहा है, उससे स्पष्ट जान पड़ता है कि पापी कौरवों ने यहाँ आकर हमारी अवहेलना करते हुए हठपूर्वक भारी संहार मचा रक्खा है’। इस प्रकार उस विशाल वन में शिकार खेलकर लौटे हुए पाण्डव जब आश्रम के समीपवर्ती वन में प्रवेश करने लगे, तब उन्होंने देखा कि उनकी प्रिया द्रौपदी की दासी धात्रेयिका, जो उन्हीं के एक सेवक की स्त्री थी, रो रही है।
राजा जनमेजय! उसे रोती देख सारथि इन्द्रसेन तुरंत रथ से कूद पड़ा और वहाँ से दौड़कर धात्रेयिका के अत्यन्त निकट जाकर उस समय इस प्रकार बोला,
इंद्रसेन बोला ;- ‘तू इस प्रकार धरती पर पड़ी क्यों रो रही है? तेरा मुँह दीन होकर क्यों सूख रहा है? कहीं अत्यन्त निष्ठुर कर्म करने वाले पापी कौरवों ने यहाँ आकर राजकुमारी द्रौपदी का तिरस्कार तो नहीं
किया?‘ धर्मराज युधिष्ठिर महारानी के लिये जिस प्रकार संतप्त हो रहे हैं, उसे देखते हुए यह निश्चय है कि समस्त कुन्तीकुमार उनकी खोज में अभी जायेंगे। उनका रूप अचिन्त्य है। वे सुन्दर एवं विशाल नेत्रों से सुशोभित होती हैं तथा कुरुप्रवर पाण्डवों को अपने शरीर के समान प्यारी हैं। वे द्रौपदी देवी यदि पृथ्वी के भीतर प्रविष्ट हुई हों, स्वर्गलोक में गयी हों अथवा समुद्र में समा गयी हों, पाण्डव उन्हें अवश्य ढूंढ निकालेंगे। जो शत्रुओं का मानमर्दन करने वाले और किसी से भी पराजित नहीं होने वाले हैं, जो सब प्रकार के क्लेश सहन करने में समर्थ हैं, ऐसे पाण्डवों की सर्वोत्तम रत्न के समान स्पृहणीय तथा प्राणों के समान प्रियतमा द्रौपदी का कौन मूर्ख अपहरण करना चाहेगा?'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद)
‘द्रौपदी बाहर प्रकट हुई पाण्डवों की अन्तरात्मा है। अपने पतियों से सनाथ महारानी द्रौपदी को यहाँ कौन मूर्ख नहीं जानता था? आज पाण्डवों के अत्यन्त भंयकर और तीक्ष्ण श्रेष्ठ बाण किसके शरीर को विदीर्ण करके पृथ्वी में घुस जायेंगे? भीरु! तू महारानी द्रौपदी के लिये शोक न कर। तू समझ ले कि अभी वे पुन: यहाँ आ जायेंगी। कुन्ती के पुत्र अपने समस्त शत्रुओं का संहार करके द्रुपदकुमारी से अवश्य मिलेंगे’। तब अपने सुन्दर मुख पर बहते हुए आंसुओं को (दोनों हाथों से) पोंछकर धात्रेयिका ने सारथि इन्द्रसेन से कहा,
धात्रेयि बोली ;- ‘इन्द्रसेन! इन्द्र के समान पराक्रमी इन पांचों पाण्डवों का अपमान करके जयद्रथ ने हठपूर्वक द्रौपदी का अपहरण किया है। देखो, उसके रथ और सैनिकों के जाने से जो ये नये मार्ग बन गये हैं, वे ज्यों-के-त्यों हैं, मिटे नहीं हैं तथा ये टूटे हुए वृक्ष भी अभी मुरझाये नहीं हैं।
इन्द्र के समान तेजस्वी समस्त पाण्डव वीरो! आप लोग अपने रथों को लौटाइये। शीघ्र शत्रुओं का पीछा कीजिये। अभी राजकुमारी द्रौपदी दूर नहीं गयी होंगी। शीघ्र ही महान् एवं मनोहर कवच धारण कर लीजिये। बहुमूल्य धनुष और बाण ले लीजिये और शीघ्र ही शत्रु के मार्ग का अनुसरण कीजिये। कहीं ऐसा न हो कि डांट-डपट और दण्ड के भय से मोहित और व्याकुलचित्त हो अपना उदास मुख लिये द्रौपदी किसी अयोग्य पुरुष को आत्मसमर्पण कर दे। ऐसी घटना घटित होने से पहले ही वहाँ पहुँच जाइये। यदि राजकुमारी कृष्णा किसी पराये पुरुष के हाथ में पड़ गयीं, तो समझ लीजिये, किसी ने उत्तम घी से भरी हुई स्रुवा को राख में डाल दिया, हविष्य को भूसे की आग में होम दिया गया, (देवपूजा के लिये बनी हुई) सुन्दर माला श्मशान में फेंक दी गयी, यज्ञमण्ड में रखे हुए पवित्र सोमरस को वहां के ब्राह्मणों की असावधानी से किसी कुत्ते ने चाट लिया और विशाल वन में शिकार करके अशुद्ध हुए गीदड़ ने किसी पवित्र सरोवर में गोता लगाकर उसे अपवित्र कर दिया; अत: ऐसी अप्रिय घटना घटित होने से पहले ही आप लोगों को वहाँ पहुँच जाना चाहिये। कहीं ऐसा न हो कि आप लोगों की प्रिया के सुन्दर नेत्र तथा मनोहर नासिका से सुशोभित चन्द्ररश्मियों के समान स्वच्छ, प्रसन्न एवं पवित्र मुख को कोई कुकर्मकारी पापात्मा पुरुष छू दे; ठीक उसी तरह, जैसे कुत्ता यज्ञ के पुरोडाश को चाट ले। अत: जितना शीघ्र सम्भव हो, इन्हीं मार्गों से शत्रु का पीछा कीजिये। आप लोगों का बहुमूल्य समय यहाँ अधिक नहीं बीतना चाहिये’।
युधिष्ठिर बोले ;- भद्रे! हट जाओ। अपनी जबान बंद करो। हमारे निकट द्रौपदी के सम्बध में ऐसी अनुचित और कठोर बातें मुँह से न निकालो। जिन्होंने अपने बल के घमंड में आकर ऐसा निन्दनीय कार्य किया है, वे राजा हों या राजकुमार, उन्हे अपने प्राण एवं सम्मान से अवश्य वंचित होना पड़ेगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर समस्त पाण्डव अपने विशाल धनुष की डोरी खींचते और बार-बार सर्पों के समान फुफकारते हुए उन्हीं मार्गों पर चलते हुए बड़े वेग से आगे बढ़े। तदनन्तर उन्हें जयद्रथ की सेना के घोड़ों की टाप से आहत होकर उड़ती हुई धुल दिखायी दी। उसके साथ ही पैदल सैनिकों के बीच में होकर चलते हुए पुरोहित धौम्य भी दृष्टिगोचर हुए, जो बार-बार पुकार रहे थे,,
धौम्य बोल रहे थे ;- ‘भीमसेन! दौड़ो’। तब असाधारण पराक्रमी राजकुमार पाण्डव धौम्य मुनि को सान्त्वना देते हुए बोले,
पाण्डव बोले ;- ‘आप निश्चिन्त होकर चलिये, (हम लोग आ पहुँचे हैं।)’ फिर जैसे बाज मांस की ओर झपटते हैं, उसी प्रकार पाण्डव जयद्रथ की सेना के पीछे बड़े वेग से दौड़े। इन्द्र के समान पराक्रमी पाण्डव द्रौपदी के तिरस्कार की बात सुनकर ही क्रोधातुर हो रहे थे; जब उन्होंने जयद्रथ को और उसके रथ पर बैठी हुई अपनी प्रिया द्रौपदी को देखा, तब तो उनकी क्रोधाग्नि प्रबल वेग से प्रज्वलित हो उठी। फिर तो भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा राजा युधिष्ठिर-ये सभी महाधनुर्धर वीर सिन्धुराज जयद्रथ को ललकारने लगे। उस समय शत्रुओं के सैनिकों को इतनी घबराहट हुई कि उन्हें दिशाओं तक का ज्ञान न रहा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में पार्थागमन विषयक दो सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व)
दौ सौ सत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रौपदी द्वारा जयद्रथ के सामने पाण्डवों के पराक्रम का वर्णन”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्दर उस वन में भीमसेन और अर्जुन को देखकर अमर्ष में भरे हुए क्षत्रियों का अत्यन्त घोर कोलाहल सुनायी देने लगा। उन नरश्रेष्ठ वीरों की ध्वजाओं के अग्रभागों को देखकर हतोत्साह हुए दुरात्मा राजा जयद्रथ ने अपने रथ पर बैठी हुई तेजस्विनी द्रौपदी से स्वयं कहा,
जयद्रथ बोला ;- ‘सुन्दर केशों वाली कृष्णे! ये पाँच विशाल रथ आ रहे हैं। जान पड़ता है, इनमें तुम्हारे पति ही बैठे हैं। तुम तो सब को जानती ही हो। मुझे रथ पर बैठे हुए इन पाण्डवों में से एक-एक का उत्तरोत्तर परिचय दो’।
द्रौपदी बोली ;- अरे मूढ़! आयु का नाश करने वाला यह अत्यन्त भयंकर नीच कर्म करके अब तू इन महाधनुर्धर पाण्डव वीरों का परिचय जानकर क्या करेगा? ये मेरे सभी वीर पति जुट गये हैं। इनके साथ जो युद्ध होने वाला है, उसमें तेरे पक्ष का कोई भी मनुष्य जीवित नहीं बचेगा। मैं भाइयों सहित धर्मराज युधिष्ठिर को सामने देख रही हूँ; अत: अब न मुझे दु:ख है और न तेरा डर ही है। अब तू शीघ्र ही मरना चाहता है, अत: ऐसे समय में तूने मुझसे जो कुछ पूछा है, उसका उत्तर तुझे दे देना उचित है; यही धर्म है। (अत: मैं अपने पतियों का परिचय देती हूँ)
जिनकी ध्वजा के सिरे पर बंधे हुए नन्द और उपनन्द नामक दो सुन्दर मृदंग मधुर स्वर में बज रहे हैं, जिनका शरीर जाम्बूनद सुवर्ण के समान विशुद्ध गौरवर्ण का है, जिनकी नासिका ऊंची और नेत्र बड़े-बड़े हैं, जो देखने में दुबले-पतले हैं, कुरुकुल के इन श्रेष्ठतम पुरुष को ही धर्मनन्दन युधिष्ठिर कहते हैं। ये मेरे पति हैं। ये अपने धर्म और अर्थ के सिद्धान्त को अच्छी तरह जानते हैं; अत: आवश्यकता पड़ने पर लोग इनका सदा अनुसरण करते हैं। ये धर्मात्मा नरवीर अपनी शरण में आये हुए शत्रु को भी प्राणदान दे देते हैं। अरे मूर्ख! यदि तू अपनी भलाई चाहता है, तो हथियार नीचे डाल दे और हाथ जोड़कर शीघ्र इनकी शरण में जा।
ये जो शाल (साखू) के वृक्ष की तरह ऊँचे ओर विशाल भुजाओं से सुशोभित वीर पुरुष तुझे रथ में बैठे दिखायी देते हैं, जो क्रोध के मारे भौंहे टेढ़ी करके दांतों से अपने होंठ चबा रहे हैं, ये मेरे दूसरे पति वृकोदर हैं। बड़े बलवान्, सुशिक्षित और शक्तिशाली आजानेय नामक अश्व इन शूरशिरोमणि के रथ को खींचते हैं। इनके सभी कर्म प्राय: ऐसे होते हैं, जिन्हें मानव जगत् नहीं कर सकता। ये अपने भंयकर पराक्रम के कारण इस भूतल पर भीम के नाम से विख्यात हैं। इनके अपराधी कभी जीवित नहीं रह सकते। ये वैर को कभी नहीं भूलते हैं और वैर का बदला लेकर ही रहते हैं। बदला लेने के बाद भी अच्छी तरह शान्त नहीं हो पाते।
ये जो तीसरे वीर पुरुष दिखायी दे रहे हैं, वे मेरे पति धनंजय हैं। इन्हें समस्त धनुर्धरों में श्रेष्ठ माना गया है। ये धैर्यवान्, यशस्वी, जितेन्द्रिय, वृद्ध पुरुषों के सेवक तथा महाराज युधिष्ठिर के भाई और शिष्य हैं। अर्जुन कभी काम, भय अथवा लोभवश न तो अपना धर्म छोड़ सकते हैं और न कोई निष्ठुरतापूर्ण कार्य ही कर सकते हैं। इनका तेज अग्नि के समान है। ये कुन्तीनन्दन धनंजय समस्त शत्रुओं का सामना करने में समर्थ और सभी दुष्टों का दमन करने में दक्ष हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद)
जो समस्त धर्म ओर अर्थ के निश्चय को जानते हैं, भय से पीड़ित मनुष्यों का भय दूर करते हैं, जो परम बुद्धिमान् हैं, इस भूमण्डल में जिनका रूप सबसे सुन्दर बताया जाता है, जो अपने बड़े भाइयों की सेवा में तत्पर रहने वाले और उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, समस्त पाण्डव जिनकी रक्षा करते हैं, वे ही ये मेरे वीर पति नकुल हैं। जो खड्ग द्वारा युद्ध करने में कुशल हैं, जनका हाथ बड़ी फुर्ती से अद्भुत पैंतरे दिखाता हुआ चलता है, जो परम बुद्धिमान् और अद्वितीय वीर हैं, वे सहदेव मेरे पाँचवें पति हैं।
ओ मूढ़ प्राणी! जैसे दैत्यों की सेना में देवराज इन्द्र का पराक्रम प्रकट होता है, उसी प्रकार युद्ध में तू आज सहदेव का महान पौरुष देखेगा। वे शौर्यसम्पन्न, अस्त्रविद्या के विशेषज्ञ, बुद्धिमान मनस्वी तथा धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर का प्रिय करने वाले हैं। इनका तेज चन्द्रमा और सूर्य के समान है। ये पाण्डवों में सबसे छोटे और सबके प्रिय हैं। बुद्धि में इनकी समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं है। ये अच्छे वक्ता और सत्पुरुषों की सभा में सिद्धान्त के ज्ञाता माने गये हैं। मेरे पति सहदेव शूरवीर, सदा ईर्ष्यारहित, बुद्धिमान् ओर विद्वान् हैं। ये अपने प्राण छोड़ सकते हैं, प्रज्वलित अंगों में प्रवेश कर सकते हैं, परंतु धर्म के विरुद्ध कोई बात नहीं बोल सकते। नरवीर सहदेव सदा क्षत्रिय धर्म के पालन में तत्पर रहने वाले और मनस्वी हैं। आर्या कुन्ती को ये प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं।
(ओ मूढ़!) रत्नों से लदी हुई नाव जैसे समुद्र के बीच में जाकर किसी मगरमच्छ की पीठ से टकराकर टूट जाती है, उसी प्रकार पाण्डव लोग आज तेरे समस्त सैनिकों का संहार करके तेरी इस सारी सेना को छिन्न-भिन्न कर डालेंगे और तू अपनी आँखों से यह सब देखेगा। इस प्रकार मैंने तुझे इन पाण्डवों का परिचय दिया है, जिनका अपमान करके तू मोहवश इस नीच कर्म में प्रवृत्त हुआ है। यदि आज तू इनके हाथों से जीवित बच जाये और तेरे शरीर पर कोई आँच नहीं आये, तो तुझे जीते-जी यह दूसरा शरीर प्राप्त हो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! द्रौपदी यह बात कह ही रही थी कि पांच इन्द्रों के समान पराक्रमी पाँचों पाण्डव भयभीत होकर हाथ जोड़ने वाले पैदल सैनिकों को छोड़कर कुपित हो रथ, हाथी और घोड़ों से युक्त अवशिष्ट सेना को सब ओर से घेरकर खड़े हो गये और बाणों की ऐसी घनघोर वर्षा करने लगे कि चारों ओर अन्धकार छा गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में द्रौपदीवचन विषयक दो सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें