सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के दौ सौ इकसठवें अध्याय से दौ सौ पैसठवें अध्याय तक (From the 261 to the 265 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (व्रीहिद्रौणिक पर्व)

दौ सौ इकसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकषष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"देवदूत द्वारा स्‍वर्गलोक के गुण-दोषों का तथा दोषरहित विष्‍णुधाम का वर्णन सुनकर मुद्गल का देवदूत को लौटा देना एवं व्‍यास जी का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम को लौट जाना"

    देवदूत बोला ;– महर्षे! तुम्‍हारी बुद्धि बड़ी उत्‍तम है। जिस उत्‍तम स्‍वर्गीय सुख को दूसरे लोग बहुत बड़ी चीज समझते हैं, वह तुम्‍हें प्राप्‍त ही है, फिर भी तुम अनजान से बनकर इसके सम्‍बंध में विचार करते हो-इसके गुण-दोष की समीक्षा कर रहे हो। मुने! वहाँ पहुँचने के लिये ऊपर को जाया जाता है, इसलिये उसका एक नाम ऊव्‍वर्ग भी है। वहाँ जाने के लिये जो मार्ग है, वह बहुत उत्‍तम है। वहां के लोग सदा विमानों पर विचरा करते हैं। मुद्गल! जिन्‍होंने तपस्‍या नहीं की है। बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन नहीं किया है तथा जो असत्‍यवादी एवं नास्तिक हैं, वे उस लोक में नहीं जा पाते हैं।

     ब्रह्मन्! धर्मात्‍मा, मन को वश में रखने वाले, शम-दम से सम्‍पन्‍न, ईर्ष्‍यारहित, दान-धर्म परायण तथा युद्ध कला में प्रसिद्ध शूरवीर मनुष्‍य ही वहाँ सब धामों में श्रेष्‍ठ इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहरूपी योग को अपनाकर सत्‍पुरुषों द्वारा सेवित पुण्‍यवानों के लोकों में जाते हैं। मुद्गल! वहाँ देवता, साध्‍य, विश्वेदेव, महर्षिगण, याम, धाम, गन्धर्व तथा अप्सरा -इन सब देवसमूहों के अलग-अलग अनेक प्रकाशमान लोक हैं, जो इच्‍छानुसार प्राप्‍त होने वाले भोगों से सम्‍पन्‍न, तेजस्‍वी तथा मंगलकारी हैं। स्‍वर्ग में तैंतीस हजार योजन का सुवर्णमय एक बहुत ऊंचा पर्वत है, जो मेरुगिरि के नाम से विख्‍यात है।

    मुद्गल! वहीं देवताओं के नन्‍दन आदि पवित्र उद्यान तथा पुण्‍यात्‍मा पुरुषों के विहार स्‍थल हैं। वहाँ किसी को भूख-प्‍यास नहीं लगती, मन में कभी ग्‍लानि नहीं होती, गर्मी और जाड़े का कष्‍ट भी नहीं होता और न कोई भय ही होता है। वहाँ कोई भी वस्‍तु ऐसी नहीं है, जो घृणा करने योग्‍य एवं अशुभ हो। वहाँ सब ओर मनोरम सुगन्‍ध, सुखदायक स्‍पर्श तथा कानों और मन को प्रिय लगने वाले मधुर शब्‍द सुनने में आते हैं। मुने! स्‍वर्गलोक में न शोक होता है, न बुढ़ापा। वहाँ थकावट तथा करुणाजनक विलाप भी श्रवणगोचर नहीं होते हैं। महर्षे! स्‍वर्गलोक ऐसा ही है। अपने सत्‍कर्मों के फलरूप से ही उनकी प्राप्ति होती है। मनुष्‍य वहाँ अपने किये हुए पुण्‍य कर्मों से ही रह पाते है। मुद्गल! स्‍वर्गवासियों के शरीर में तेजस्‍व तत्‍व की प्रधानता होती है। वे शरीर पुण्‍य कर्मों से उपलब्‍ध होता है। माता-पिता के रजोवीर्य से उनकी उत्‍पत्ति नहीं होती है। उन शरीरों में कभी पसीना नहीं निकलता, दुर्गन्‍ध नहीं आती तथा मल-मूत्र का भी अभाव होता है।

     मुने! उनके कपड़ों में कभी मैल नहीं बैठती है। स्‍वर्गवासियों की जो (दिव्‍यकुसुमों की) मालाएं होती हैं, वे कभी कुम्‍हलाती नहीं है। उनसे निरन्‍तर दिव्‍य सुगन्‍ध फैलती रहती है तथा वे देखने में भी बड़ी मनोरम होती हैं। ब्रह्मन्! स्‍वर्ग के सभी निवासी ऐसे ही विमानों से सम्‍पन्‍न होते हैं। महामुने! जो अपने सत्‍कर्मों द्वारा स्‍वर्गलोक पर विजय पा चुके हैं, वे वहाँ बड़े सुख से जीवन बिताते हैं। उनमें किसी के प्रति ईर्ष्‍या नहीं होती, वे कभी शोक तथा थकावट का अनुभव नहीं करते एवं मोह तथा मात्‍सर्य (द्वेषभाव) से सदा दूर रहते हैं। मुनिश्रेष्‍ठ! देवताओं के जो पूर्वोक्‍त प्रकार के लोक हैं, उन सबके ऊपर अन्‍य कितने ही विविध गुणसम्‍पन्‍न दिव्‍य लोक हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकषष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद)

    उन सबसे ऊपर ब्रह्माजी के लोक हैं, जो अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी एवं मंगलकारी हैं। ब्रह्मन! वहाँ अपने शुभ कर्मों से पवित्र ऋषि, मुनि जाते है। वहीं ऋभु नामक दूसरे देवता रहते हैं, जो देवगणों के भी आराध्‍य देव हैं। देवताओं के लोकों से उनका स्‍थान उत्‍कृष्‍ट है। देवता लोग भी यज्ञों द्वारा उनका यजन करते हैं। उनके उत्‍तम लोक स्‍वयंप्रकाश, तेजस्‍वी और सम्‍पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले हैं। उन्‍हें स्त्रियों के लिये संताप नहीं होता। लोकों के ऐश्‍वर्य के लिये उनके मन में कभी ईर्ष्‍या नहीं होती। वे देवताओं की तरह आहुतियों से जीविका नहीं चलाते। उन्‍हें अमृत पीने की भी आवश्‍यकता नहीं होती। उनके शरीर दिव्‍य ज्‍योतिर्मय हैं। उनकी कोई विशेष आकृति नहीं होती। वे सुख में प्रतिष्ठित हैं, परन्‍तु सुख की कामना नहीं रखते। वे देवताओं के भी देवता और सनातन हैं। कल्‍प का अन्‍त होने पर भी उनकी स्थिति में परिवर्तन नहीं होता। वे ज्‍यों-के-त्‍यों बने रहते हैं।

    मुने! उनमें जरा मृत्‍यु की सम्‍भावना तो हो ही कैसे सकती है? हर्ष, प्रीति तथा सुख आदि विकारों का भी उनमें सर्वथा अभाव ही है। ऐसी स्थिति में उनके भीतर दु:ख-सुख तथा राग-द्वेषादि कैसे रह सकते हैं? मौद्गल्‍य! स्‍वर्गवासी देवता भी उस (ऋभु नामक देवताओं की) परमगति को प्राप्‍त करने की इच्‍छा रखते हैं। वह परा सिद्धि की अवस्‍था है, जो अत्‍यन्‍त दुर्लभ है। विषय-भोगों की इच्‍छा रखने वाले लोगों की वहाँ तक पहुँच नहीं होती। ये जो तैंतीस देवता हैं, उन्‍हीं के लोकों की मनीषी पुरुष उत्‍तम नियमों के आचरण से अथवा विधिपूर्वक दिये हुए दानों से प्राप्‍त करते हैं। ब्रह्मन! तुमने अपने दान के प्रभाव से अनायास ही वह स्‍वर्गीय सुख सम्‍पत्ति प्राप्‍त कर ली है। अपनी तपस्‍या के तेज से दैदीप्‍यमान होकर अब तुम अपने पुण्‍य से प्राप्‍त हुए उस दिव्‍य वैभव का उपभोग करो। विप्रवर! यही स्‍वर्ग का सुख है और ऐसे ही वहाँ भाँति-भाँति के लोक हैं। यहां तक मैंने स्‍वर्ग के गुण बताये हैं, अब वहां के दोष भी मुझसे सुन लो। अपने किये हुए सत्‍कर्मों का जो फल होता है, वही स्‍वर्ग में भोगा जाता है। वहाँ कोई नया कर्म नहीं किया जाता। अपना पुण्‍यरूप मूलधन गवांने से ही वहां के भोग प्राप्‍त होते हैं।

    मुद्गल! स्‍वर्ग में सबसे बड़ा दोष मुझे यह जान पड़ता है कि कर्मों का भोग समाप्‍त होने पर एक दिन वहाँ से पतन हो ही जाता है। जिनका मन सुखभोग में लगा हुआ है, उनको सहसा पतन कितना दु:खदायी होता है। स्‍वर्ग में भी जो लोग नीचे के स्‍थानों में स्थित हैं, उन्‍हें अपने से ऊपर के लोकों की समुज्‍ज्‍वल श्रीसम्‍पत्ति देखकर जो असन्‍तोष और सन्‍ताप होता है, उनका वर्णन करना अत्‍यन्‍त कठिन है। स्‍वर्गलोक से गिरते समय वहां के निवासियों की चेतना लुप्‍त हो जाती है। रजोगुण के आक्रमण से उनकी बुद्धि बिगड़ जाती है। पहले उनके गले की मालायें कुम्‍हला जाती हैं, इससे उन्‍हें पतन की सूचना मिल जाने से उनके मन में बड़ा भारी भय समा जाता है। मौद्गल्‍य! ब्रह्मलोकपर्यन्‍त जितने लोक हैं, उन सब में ये भंयकर दोष देखे जाते हैं। स्‍वर्गलोक में रहते समय तो पुण्‍यात्‍मा पुरुषों मे सहस्रों गुण होते हैं। मुने! परन्‍तु वहां से भ्रष्‍ट हुए जीवों का भी यह एक अन्‍य श्रेष्‍ठ गुण देखा जाता है कि वे अपने शुभ कर्मों के संस्‍कार से युक्‍त होने के कारण मनुष्‍ययोनि में ही जन्‍म पाते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकषष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 34-51 का हिन्दी अनुवाद)

    वहाँ भी वह महाभाग मानव सुख के साधनों से सम्‍पन्‍न होकर उत्‍पन्‍न होते हैं। परन्‍तु यदि मानव योनि में वह अपने कर्तव्‍य को न समझते, तो उससे भी नीचे योनि में चला जाता है। इस मनुष्‍य लोक में मानव शरीर द्वारा जो कर्म किया जाता है, उसी को परलोक में भोगा जाता है। ब्रह्मन! यह कर्मभूमि और फलभोग की भूमि मानी गयी है।'

   मुद्गल बोले ;- देवदूत! तुमने स्‍वर्ग के महान दोष बताये, परन्‍तु स्‍वर्ग की अपेक्षा यदि कोई दूसरा लोक इन दोषोंसे सर्वथा रहित हो, तो मुझसे उसका वर्णन करो।

    देवदूत ने कहा ;- ब्रह्माजी के भी लोक से ऊपर भगवान् विष्‍णु का परमधाम है। वह शुद्ध सनातन ज्‍योतिर्मय लोक है। उसे परम ब्रह्मा भी कहते हैं। विप्रवर! जिनका मन विषयों में रचा-पचा रहता है, वे लोग वहाँ नहीं जा सकते। दम्‍भ, लोभ, महाक्रोध, मोह और द्रोह से युक्‍त मनुष्‍य भी वहाँ नही पहुँच सकते। जो ममता और अहंकार से रहित, सुख-दु:ख आदि द्वन्‍दों से ऊपर उठे हुए, जितेन्द्रिय तथा ध्‍यानयोग में तत्‍पर हैं, वे मनुष्‍य ही उस लोक में जा सकते हैं। मुद्गल! तुमने जो कुछ मुझसे पूछा था, वह सब मैंने कह सुनाया। साधो! अब आपकी कृपा से हम लोग सुखपूर्वक स्‍वर्ग की यात्रा करें, विलम्‍ब नहीं होना चाहिये।

    व्‍यास जी कहते हैं ;- राजन्! देवदूत की यह बात सुनकर मुनिश्रेष्‍ठ मुद्गल ने उस पर बुद्धिपूर्वक विचार किया। विचार करके उन्‍होंने देवदूत से कहा,

   मुद्गल बोले ;- ‘देवदूत! तुम्‍हें नमस्‍कार है। तात्! तुम सुखपूर्वक पधारो! स्‍वर्ग अथवा वहां का सुख महान दोषों से युक्‍त है; इसलिये मुझे इसकी आवश्‍यकता नहीं है। ओह! पतन के बाद तो स्‍वर्गवासी


मनुष्‍यों को अत्‍यन्‍त भंयकर महान दु:ख और अनुताप होता है और फिर वे इसी लोक में विचरते रहते हैं। इसलिये मुझे स्‍वर्ग में जाने की इच्‍छा नहीं है। जहाँ जाकर मनुष्‍य कभी शोक नहीं करते, व्‍यथित नहीं होते तथा वहां से विचलित नहीं होते हैं, केवल उसी अक्षय धाम का मैं अनुसंन्‍धान करूँगा’। ऐसा कहकर मुद्गल मुनि ने उस देवदूत को विदा कर दिया और शिल एवं उञ्छवृत्ति से जीवन-निर्वाह करने वाले वे धर्मात्‍मा महर्षि उत्‍तम रीति से शम-दम आदि नियमों का पालन करने लगे। उनकी दृष्टि में निन्‍दा और स्‍तुति समान हो गयी। वे मिट्टी के ढेले, पत्‍थर और सुवर्ण को समान समझने लगे और विशुद्ध ज्ञानयोग के द्वारा नित्‍य ध्‍यान में तत्‍पर रहने लगे। ध्‍यान से (परम वैराग्‍य का) बल पाकर उन्‍हें उत्‍तम बोध प्राप्‍त हुआ और उसके द्वारा उन्होंने सनातन मोक्षरूपा परम सिद्धि प्राप्‍त कर ली।

    कुन्‍तीनन्‍दन! इसलिये तुम भी समृद्धिशाली राज्‍य से भ्रष्‍ट होने के कारण शोक न करो; तपस्‍या द्वारा तुम उसे प्राप्‍त कर लोगे। मनुष्‍य पर सुख के बाद दु:ख और दु:खके बाद सुख बारी-बारी से आते रहते हैं। जैसे अरे नेमि से जुड़े हुए ऊँचे-नीचे आते रहते हैं, वैसे ही मनुष्‍य का दु:ख-सुख से सम्‍बन्‍ध होता रहता है। अमित पराक्रमी युधिष्ठिर तुम तेरहवें वर्ष के बाद अपने बाप-दादों का राज्‍य प्राप्‍त कर लोगे, अत: अब तुम्‍हारी मानसिक चिन्‍ता दूर हो जानी चाहिये।

     वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! परम बुद्धिमान भगवान् व्‍यास पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर से ऐसा कहकर तपस्‍या के लिये पुन: अपने आश्रम की ओर चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत व्रीहिद्रौणिकपर्व में मुद्गल-देवदूत संवाद विषयक दो सौ इकसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

(व्रीहिद्रौणिक पर्व समाप्त)


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वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व)

दौ सौ बासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विषष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"दुर्योधन का महर्षि दुर्वासा को अतिथ्‍यसत्‍कार से संतुष्‍ट करके उन्‍हें युधिष्ठिर के पास भेजकर प्रसन्न होना"

    जनमेजय ने पूछा ;- महामुनि वैशम्‍पायन जी! जब महात्‍मा पाण्डव इस प्रकार वन में रहकर मुनियों के साथ विचित्र कथा वार्ता द्वारा मनोरंजन करते थे तथा जब तक द्रौपदी भोजन न कर ले, तब तक सूर्य के दिये हुए अक्षय पात्र से प्राप्‍त होने वाले अन्‍न से वे उन ब्राह्मणों को तृप्‍त करते थे, जो भोजन के लिये उनके पास आये होते थे; उन दिनों दु:शासन, कर्ण और शकुनि के मत के अनुसार चलने वाले पापाचारी दुरात्‍मा दुर्योधन आदि धृतराष्‍ट्रपुत्रों ने उन पाण्‍डवों के साथ कैसा बर्ताव किया? भगवन्! मेरे प्रश्‍न के अनुसार ये सब बातें कहिये।

    वैशम्‍पायन जी ने कहा ;- महाराज! जब दुर्योधन ने सुना कि पाण्‍डव लोग तो वन में भी उसी प्रकार दानपुण्‍य करते हुए आनन्‍द से रह रहे हैं, जैसे नगर के निवासी रहा करते हैं, तब उसने उनका अनिष्‍ट करने का विचार किया। इस प्रकार सोचकर छल-कपट की विद्या में निपुण कर्ण और दु:शासन आदि के साथ जब वे दुरात्‍मा धृतराष्‍ट्रपुत्र भाँति-भाँति के उपायों से पाण्‍डवों को संकट में डालने की युक्ति का विचार कर रहे थे, उसी समय महायशस्‍वी धर्मात्‍मा तपस्‍वी महर्षि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्‍यों को साथ लिये हुए वहाँ स्‍वेच्‍छा से ही आ पहुँचे। परम क्रोधी दुर्वासा मुनि को आया देख भाइयों सहित श्रीमान राजा दुर्योधन ने अपनी इन्द्रियों को काबू में रखकर नम्रतापूर्वक विनीतभाव से उन्‍हें अतिथि सत्‍कार के रूप में निमन्त्रित किया। दुर्योधन ने स्‍वयं दास की भाँति उनकी सेवा में खड़े रहकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की। मुनिश्रेष्‍ठ दुर्वासा कई दिनों तक वहाँ ठहरे रहे।

    महाराज जनमेजय! राजा दुर्योधन (श्रद्धा से नहीं अपितु) उनके शाप से डरता हुआ दिन-रात आलस्‍य छोड़कर उनकी सेवा में लगा रहा। वे मुनि कभी कहते ‘राजन्! मैं बहुत भूखा हूँ, मुझे शीघ्र भोजन दो’, ऐसा कहकर वे स्‍नान करने के लिये चले जाते और बहुत देर के बाद लौटते थे। लौटकर वे कह देते- ‘मैं नहीं खाऊंगा; आज मुझे भूख नहीं है’, ऐसा कहकर अदृश्‍य हो जाते थे। फिर कहीं से अकस्‍मात् आकर कहते-हम लोगों को जल्‍दी भोजन कराओ।’ कभी आधी रात में उठकर उसे नीचा दिखाने के लिये उद्यत हो पूर्ववत् भोजन बनवाकर उस भोजन की निन्‍दा करते हुए भोजन करने से इन्‍कार कर देते थे। भारत! ऐसा उन्‍होंने कई बार किया, तो भी जब राजा दुर्योधन के मन में विकार या क्रोध नहीं उत्‍पन्न हुआ, तब वे दुर्धर्ष मुनि उस पर बहु‍त प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले,

  दुर्धर्ष मुनि बोले ;- ‘मैं तुम्‍हें वर देना चाहता हूँ’। 

   दुर्वासा बोले ;- राजन्! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। तुम्‍हारे मन में जो इच्‍छा हो, उसके लिये वर मांगो। मेरे प्रसन्न होने पर जो धर्मानुकूल वस्‍तु होगी, वह तुम्‍हारे लिये अलभ्‍य नहीं रहेगी।

    वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शुद्ध अन्‍त:करण वाले महर्षि दुर्वासा का यह वचन सुनकर दुर्योधन ने मन-ही-मन ऐसा समझा, मानो उसका नया जन्‍म हुआ हो। मुनि संतुष्‍ट हो, तो क्‍या मांगना चाहिये, इस बात के लिये कर्ण और दु:शासन आदि के साथ उसकी पहले से ही सलाह हो चुकी थी। राजन्! उसी निश्‍चय के साथ दुर्बुद्धि दुर्योधन ने अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर यह वर मांगा,

   दुर्योधन बोला ;- ‘ब्रह्मन्! हमारे कुल में महाराज युधिष्ठिर सबसे ज्‍येष्‍ठ और श्रेष्‍ठ हैं। इस समय वे धर्मात्‍मा पाण्‍डुकुमार अपने भाइयों के साथ वन में निवास करते हैं। युधिष्ठिर बड़े गुणवान और सुशील हैं। जिस प्रकार आप मेरे अतिथि हुए। उसी तरह शिष्‍यों के साथ आप उनके भी अतिथि होइये।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विषष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 21-28 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘यदि आपकी मुझ पर कृपा हो तो मेरी प्रार्थना से आप वहाँ ऐसे समय में जाइयेगा, जब परम सुन्‍दरी य‍शस्विनी सुकुमारी राजकुमारी द्रौपदी समस्‍त ब्राह्मणों तथा पांचों पतियों को भोजन कराकर स्‍वयं भी भोजन करने के पश्‍चात् सुखपूर्वक बैठकर विश्राम कर रही हो’।

   ‘तुम पर प्रेम होने के कारण मैं वैसा ही करूँगा’, दुर्योधन से ऐसा कहकर विप्रवर दुर्वासा जैसे आये थे, वैसे ही चले गये।

    उस समय दुर्योधन ने अपने आपको कृतार्थ माना। वह कर्ण का हाथ अपने हाथ में लेकर अत्‍यन्‍त प्रसन्न हुआ। कर्ण ने भी भाइयों सहित राजा दुर्योधन से बड़े हर्ष के साथ इस प्रकार कहा। 

     कर्ण बोला ;- 'कुरुनन्‍दन! सौभाग्‍य से हमारा काम बन गया। तुम्‍हारा अभ्‍युदय हो रहा है, यह भी भाग्‍य की ही बात है। तुम्‍हारे शत्रु विपत्ति के अपार महासागर में डूब गये, यह कितने सौभाग्‍य की बात है। पाण्‍डव दुर्वासा की क्रोधाग्नि में गिर गये हैं और अपने ही महापापों के कारण वे दुस्‍तर नरक में जा पड़े हैं।

    वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! छल-कपट की विद्या में प्रवीण दुर्योधन आदि इस प्रकार बातें करते और हंसते हुए प्रसन्न मन से अपने-अपने भवनों में गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में दुर्वासा का उपाख्‍यानविषयक दो सौ बासठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व)

दौ सौ तिरसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिषष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्वासा का पाण्‍डवों के आश्रम पर असमय में आतिथ्‍य के लिये जाना, द्रौपदी के द्वारा स्‍मरण किये जाने पर भगवान् का प्रकट होना तथा पाण्‍डवों को दुर्वासा के भय से मुक्‍त करना और उनको आश्‍वासन देकर द्वारका जाना”

     वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर एक दिन महर्षि दुर्वासा इस बात का पता लगाकर कि पाण्‍डव लोग भोजन करके सुखपूर्वक बैठे हैं और द्रौपदी भी भोजन से निवृत्‍त हो आराम कर रही है, दस हजार शिष्‍यों से घिरे हुए उस वन में आये। श्रीमान राजा युधिष्ठिर अतिथियों को आते देख भाइयों सहित उनके सम्‍मुख गये। वे अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत नहीं होते थे। उन्‍होंने उन अतिथि देवता को लाकर श्रेष्‍ठ आसन पर आदरपूर्वक बैठाया और हाथ जोड़कर प्रणाम किया। फिर विधिपूर्वक पूजा करके उन्‍हें अतिथि सत्‍कार के रूप में निमन्त्रित किया और कहा,

   युधिष्ठिर बोले ;- ‘भगवन! अपना नित्‍य नियम पूरा करके (भोजन के लिये) शीघ्र पधारिये।' यह सुनकर वे निष्‍पाप मुनि अपने शिष्‍यों के


साथ स्नान करने के लिये चले गये। उन्‍होंने इस बात का तनिक भी विचार नहीं किया कि ये इस समय मुझे शिष्‍यों सहित भोजन कैसे दे सकेंगे। सारी मुनि मण्‍डली ने जल में गोता लगाया फिर सब लोग एकाग्रचित्‍त होकर ध्‍यान करने लगे।

    राजन्! इसी समय युवतियों में श्रेष्‍ठ पतिव्रता द्रौपदी को अन्‍न के लिये बड़ी चिन्‍ता हुई। जब बहुत सोचने विचारने पर भी उसे अन्‍न मिलने का कोई उपाय नहीं सूझा, तब वह मन-ही-मन कंसनिकन्‍दन आनन्‍दकन्‍द भगवान् श्रीकृष्‍णचन्‍द्र का स्‍मरण करने लगी,

   द्रोपदी बोली ;- ‘हे कृष्‍ण! हे महाबाहु श्रीकृष्‍ण! हे देवकीनन्‍दन! हे अविनाशी वासुदेव! चरणों में पड़े हुए दु:खियों का दु:ख दूर करने वाले हे जगदीश्‍वर! तुम्‍हीं सम्‍पूर्ण जगत के आत्‍मा हो। अविनाशी प्रभो! तुम्‍हीं इस विश्‍व की उत्‍पत्ति और संहार करने वाले हो। शरणागतों की रक्षा करने वाले गोपाल! तुम्‍हीं समस्‍त प्रजा का पालन करने वाले परात्‍पर परमेश्‍वर हो। आकूति (मन) और चित्ति (बुद्धि) के प्रेरक परमात्‍मन्! मैं तुम्‍हें प्रणाम करती हूँ। सबके वरण करने योग्‍य वरदाता अनन्‍त! आओ! जिन्‍हें तुम्‍हारे सिवा दूसरा कोई सहायता देने वाला नहीं है, उन असहाय भक्‍तों की सहायता करो। पुराणपुरुष! प्राण और मन की वृत्ति आदि तुम्‍हारे पास तक नहीं पहुँच सकती।

    सबके साक्षी परमात्‍मन्! मैं तुम्‍हारी शरण में आयी हूँ। शरणागतवत्‍सल देव! कृपा करके मुझे बचाओ। नीलकमलदल के समान श्‍यामसुन्‍दर! कमलपुष्‍प के भीतरी भाग के समान किंचित् लाल नेत्रों वाले पीताम्‍बरधारी श्रीकृष्‍ण! तुम्‍हारे व:क्षस्‍थल पर कौस्‍तुभ मणमय आभूषण शोभा पाता है। प्रभो! तुम्‍ही समस्‍त प्राणियों के आदि और अन्‍त हो। तुम्‍हीं सबके परम आश्रय हो। तुम्‍हीं परात्‍पर, ज्‍योतिर्मय सर्वात्‍मा एवं सब ओर मुख वाले परमेश्‍वर हो। ज्ञानी पुरुष तुम्‍हें ही इस जगत् का परम बीज और सम्‍पूर्ण सम्‍पदाओं की निधि ब‍तलाते हैं। देवेश्‍वर! यदि तुम मेरे रक्षक हो, तो मुझ पर सारी विपत्तियां टूट पड़ें, तो भी मुझे उनसे भय नही है। भगवन्! पहले कौरव-सभा में दु:शासन के हाथ से जैसे तुमने मुझे बचाया था, उसी प्रकार इस वर्तमान संकट से भी मेरा उद्धार करो’।

    वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- द्रौपदी के इस प्रकार स्‍तुति करने पर अचिन्‍त्‍यगति परमेश्‍वर देवाधिदेव जगन्नाथ भक्‍तवत्‍सल भगवान् केशव को यह मालूम हो गया कि द्रौपदी पर कोई संकट आ गया है, फिर तो शय्या पर अपने पास ही सोयी हुई रुक्‍मणी को छोड़कर तुरंत आ पहुँचे। भगवान् को आया देख द्रौपदी को बड़ा आनन्‍द हुआ। उसने उन्‍हें प्रणाम करके दुर्वासा मुनि के आने का सारा समाचार कह सुनाया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिषष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद)

तब भगवान् श्रीकृष्‍ण ने द्रौपदी से कहा,,

    श्री कृष्ण बोले ;- ‘कृष्‍णे! इस समय मुझे बड़ी भूख लगी है; मैं भूख से अत्‍यन्‍त पीड़ित हो रहा हूँ। पहले मुझे जल्‍दी भोजन कराओ। फिर सारा प्रबन्‍ध करती रहना।’ उनकी यह बात सुनकर द्रौपदी को बड़ी लज्‍जा हुई। 

    द्रोपदी बोली ;- ‘भगवन्! सूर्यनारायण की दी हुई बटलोई से तभी तक भोजन मिलता है, जब त‍क मैं भोजन न कर लूं। देव! आज तो मैं भी भोजन कर चुकी हूँ, अत: अब उसमें अन्‍न नहीं रह गया है’।

   यह सुनकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्‍ण ने द्रौपदी से कहा,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘कृष्‍णे! मैं तो भूख और थकावट से आतुर हो रहा हूँ और तुझे हंसी सूझती है। यह परिहास का समय नहीं है। जल्‍दी जा


और बटलोई लाकर मुझे दिखा।

 इस प्रकार हठ करके भगवान ने द्रौपदी से बटलोई मंगवायी। उसके गले में जरा सा साग लगा हुआ था।

 उसे देखकर श्रीकृष्‍ण ने लेकर खा लिया और द्रौपदी से कहा,,



    श्री कृष्ण बोले ;- ‘इस साग से सम्‍पूर्ण विश्‍व के आत्‍मा यज्ञभोक्‍ता सर्वेश्‍वर भगवान् श्रीहरि तृप्‍त और सन्‍तुष्‍ट हों’। इतना कहकर सबका क्‍लेश दूर करने वाले महाबाहु भगवान् श्रीकृष्‍ण सहदेव से बोले,

श्री कृष्ण फिर बोले ;- ‘तुम शीघ्र जाकर मुनियों को भोजन के लिये बुला लाओ’।

    नृपश्रेष्‍ठ! तब महायशस्‍वी सहदेव देवनदी में स्‍नान के लिये गये हुए उन दुर्वासा आदि सब मुनियों को भोजन के निमित्‍त बुलाने के लिये तुरंन्‍त गये। वे मुनि लोग उस समय जल में उतर कर अघमर्षण मन्‍त्र का जप कर रहे थे। सहसा उन्‍हें पूर्ण तृप्ति का अनुभव हुआ; बार-बार


अन्‍न रस से युक्‍त डकारें आने लगीं।

 यह देखकर वे जल से बाहर निकले और आपस में एक-दूसरे की ओर देखने लगे। (सबकी एक-सी अवस्‍था हो रही थी) वे सभी मुनि दुर्वासा की ओर देखकर बोले,,

   


  सभी मुनि बोले ;- ‘ब्रह्मर्षें! हम लोग राजा युधिष्ठिर को रसोई बनवाने की आज्ञा देकर स्‍नान करने के लिये आये थे, परन्‍तु इस समय इतनी तृप्ति हो रही है कि कण्‍ठ तक अन्‍न भरा हुआ जान पड़ता है। अब हम कैसे भोजन करेंगे? हमने जो रसोई तैयार करवायी है, वह व्‍यर्थ होगी। उसके लिये हमें क्‍या करना चाहिये’।

    दुर्वासा बोले ;- वास्‍तव में व्‍यर्थ ही रसोई बनवाकर हमने राजर्षि युधिष्ठिर का महान् अपराध किया है। कहीं ऐसा न हो कि पाण्‍डव क्रूर दृष्टि से देखकर हमें भस्‍म कर दें। ब्राह्मणों! परम बुद्धिमान् राजा अम्‍बरीष के प्रभाव को याद करके मैं उन भक्‍तजनों से सदा डरता रहता हूँ, जिन्होंने भगवान् श्रीहरि के चरणों का आश्रय ले रखा है। सब पाण्‍डव महामना, धर्मपरायण, विद्वान्, शूरवीर, व्रतधारी तथा तपस्‍वी है। वे सदा सदाचारपरायण तथा भगवान् वासुदेव को अपना परम आश्रय मानने वाले हैं। पाण्‍डव कुपित होकर हमें उसी प्रकार भस्‍म कर सकते हैं, जैसे रूई के ढेर को आग। अत: शिष्‍यो! पाण्‍डवों से बिना पूछे ही तुरन्‍त भाग चलो।

     वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! गुरु दुर्वासा मुनि के ऐसा कहने पर वे सब ब्राह्मण पाण्‍डवों से अत्‍यन्‍त भयभीत हो दसों दिशाओं में भाग गये। सहदेव ने जब देवनदी में उन श्रेष्‍ठ मुनियों को नहीं देखा, तब वे वहां के तीर्थों में इधर-उधर खोजते हुए विचरने लगे। वहाँ रहने वाले तपस्‍वी मुनियों के मुख से उनके भागने का समाचार सुनकर सहदेव युधिष्ठिर के पास लौट आये और सारा वृन्‍तान्‍त उनसे निवेदन कर दिया। तदनन्‍तर मन को वश में रखने वाले सब पाण्‍डव उनके लौट आने की आशा से कुछ देर तक उनकी प्रतीक्षा करते रहे। 

    पाण्‍डव सोचने लगे ;- 'दुर्वासा मुनि अकस्‍मात आधी रात को आकर हमें छलेंगे। दैववश प्राप्‍त हुए इस महान् संकट से हमारा उद्धार कैसे होगा?’ इसी चिन्‍ता में पड़कर वे बारंबार लंबी सांसें खींचने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिषष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 42-49 का हिन्दी अनुवाद)

    उनकी यह दशा देखकर भगवान् श्रीकृष्‍ण ने युधिष्ठिर आदि अन्‍य सब पाण्‍डवों को प्रत्‍यक्ष दर्शन देकर कहा। 

    श्रीकृष्‍ण बोले ;- 'कुन्‍तीकुमारो! परम क्रोधी महर्षि दुर्वासा से आप लोगों पर संकट आता जानकर द्रौपदी ने मेरा स्‍मरण किया था, इसीलिये मैं तुरन्‍त यहाँ आ पहुँचा हूँ। अब आप लोगों को दुर्वासा मुनि से तनिक भी भय नहीं है। वे आपके तेज से डरकर पहले ही भाग गये हैं। जो लोग सदा धर्म में तत्‍पर रहते हैं, वे कभी कष्‍ट में नहीं पड़ते। अब मैं आप लोगों से जाने के लिये आज्ञा चाहता हूँ। यहां से द्वारकापुरी को जाऊंगा। आप लोगों का निरन्‍तर कल्‍याण हो।'

     वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भगवान् श्रीकृष्‍ण का यह सन्‍देश सुनकर द्रौपदी सहित पाण्‍डवों का चित्‍त स्‍वस्‍थ हुआ। उनकी सारी चिन्‍ता दूर हो गयी और वे भगवान् से इस प्रकार बोले,

   पाण्डव बोले ;- ‘विभो! गोविन्‍द! तुम्‍हें अपना सहायक और संरक्षक पाकर हम बड़ी-बड़ी दुस्‍तर विपत्तियों से उसी प्रकार पार हुए हैं, जैसे महासागर में डूबते हुए मनुष्‍य जहाज का सहारा पाकर पार हो जाते हैं। तुम्‍हारा कल्‍याण हो। इसी प्रकार भक्‍तों का हितसाधन किया करो।’

   पाण्‍डवों के इस प्रकार कहने पर भगवान् श्रीकृष्‍ण द्वारिकापुरी को चले गये। महाभाग जनमेजय! तत्‍पश्‍चात द्रौपदी सहित पाण्‍डव प्रसन्नचित्‍त हो वहाँ एक वन से, दूसरे वन में भ्रमण करते हुए सुख से रहने लगे।

    राजन्! यहाँ तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने तुम्‍हें बतला दिया। इस प्रकार दुरात्‍मा धृतराष्‍ट्रपुत्रों ने वनवासी पाण्‍डवों पर अनेक बार छल-कपट का प्रयोग किया, परंतु वह सब व्‍यर्थ हो गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में दुर्वासा की कथाविषयक दो सौ तिरसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व)

दौ सौ चौसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतु:षटयधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“जयद्रथ का द्रौपदी को देखकर मोहित होना और उसके पास कोटिकास्य को भेजना”

    वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! काम्यकवन में नाना प्रकार के वन्‍य पशु रहते थे। वहाँ भरतकुलभूषण महारथी पाण्‍डव सब ओर घूमते हुए देवताओं के समान विहार करते थे। वे चारों ओर घूम-घूमकर नाना प्रकार के वन्‍य प्रदेशों तथा ऋतुकाल के अनुसार भलीभाँति खिले हुए फूलों से सुशोभित रमणीय वनश्रेणियों की शोभा देखते थे।

   शत्रुदमन जनमेजय! पाण्‍डव लोग बाघ-चीते आदि हिंसक पशुओं का शिकार किया करते थे। देवराज इन्‍द्र के समान वे उस महान वन में विचरते हुए कुछ काल तक विहार करते रहे। एक‍ दिन की बात है, शत्रुओं को सन्‍ताप देने वाले पुरुषसिहं पांचों पाण्‍डव उद्यत तपस्‍वी पुरोहित धौम्‍य तथा महर्षि तृ‍णबिन्‍दु की आज्ञा से द्रौपदी को अकेले ही आश्रम में रखकर ब्राह्मणों की रक्षा के लिये हिंसक पशुओं को मारने एक साथ चारों दिशाओं में (अलग-अलग) चले गये। उसी समय सिन्‍धु देश का महायस्‍वी राजा जयद्रथ, जो वृद्धछत्र का पुत्र था, विवाह की इच्‍छा से शाल्‍व देश की ओर जा रहा था। वह बहुमूल्‍य राजोचित ठाठ-बाट से सुसज्जित था। अनेक राजाओं के साथ यात्रा करता हुआ वह काम्‍यकवन में आ पहुँचा। वहाँ उसने पाण्‍डवों की प्‍यारी पत्‍नी यशस्विनी द्रौपदी को दूर से देखा, जो निर्जन वन में आश्रम के दरवाजे पर खड़ी थी। वह परम सुन्‍दर रूप धारण किये अपनी अनुपम कान्ति से उद्भाशित हो रही थी और जैसे विद्युत अपनी प्रभा से नीले मेघ समूह को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार वह सुन्‍दरी अपनी अंग छटा से उस वनप्रान्‍त को सब ओर से दैदीप्‍यमान कर रही थी।

    जयद्रथ और उसके सभी साथियों ने उस अनिन्‍द्य सुन्‍दरी की ओर देखा और वे हाथ जोड़कर मन-ही-मन यह विचार करने लगे,- ‘यह कोई अप्‍सरा है या देवकन्‍या है अथवा देवताओं की रची हुई माया है?’ निर्दोष अंगों वाली उस सुन्‍दरी को देखकर वृद्धक्षत्रकुमार सिन्‍धुराज जयद्रथ चकित रह गया। उसके मन में दूषित भावना का उदय हुआ। उसने काममोहित होकर कोटिकास्‍य से कहा,

   जयद्रथ बोला ;- ’कोटिक! जरा जाकर पता तो लगाओ, यह सर्वांगसुन्‍दरी किसकी स्‍त्री है? अथवा यह मनुष्‍य जाति की स्‍त्री है भी या नहीं? इस अत्‍यन्‍त सुन्‍दरी रमणी को पाकर मुझे और किसी से विवाह करने की आवश्‍यकता ही नही रह जायेगी। इसी को लेकर मैं अपने घर लौट जाऊंगा। सौम्‍य! जाओ, पता लगाओ, यह किसकी स्‍त्री है और कहां से इस वन में आयी है? यह सुन्‍दर भौहों वाली युवती कांटों से भरे हुए इस जंगल में किसलिये आयी है? क्‍या यह मनोहर कटि प्रदेश वाली विश्‍व सुन्‍दरी मुझे अंगीकार करेगी? इसके नेत्र कितने विशाल हैं, दांत कैसे सुन्‍दर हैं और शरीर का मध्य भाग कितना सूक्ष्‍म है। यदि मैं इस सुन्‍दरी को पा जाऊं तो कृतार्थ हो जाऊंगा। कोटिक! जाओ और पता लगाओ कि इसका पति कौन है?’

    जयद्रथ का यह वचन सुनकर कुण्‍डलमण्डित कोटिकास्‍य रथ से उतर पड़ा और जैसे गीदड़ बाघ की स्‍त्री से बात करे, उसी प्रकार उसने द्रौपदी के पास जाकर पूछा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में जयद्रथ का आगमनविषयक दो सौ चौसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व)

दौ सौ पैसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्‍चषटयधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“कोटिकास्‍य का द्रौपदी से जयद्रथ और उसके साथियों का परिचय देते हुए उसका भी परिचय पूछना”

   कोटिक बोला ;- सुन्‍दर भौंहों वाली सुन्‍दरी तुम कौन हो? जो कदम्‍ब की डाली झुकाकर उसके सहारे इस आश्रम में अकेली खड़ी हो, यहाँ तुम्‍हारी बड़ी शोभा हो रही है। जैसे रात में वायु से आन्‍दोलित अग्नि की ज्‍वाला देदीप्‍यमान दिखाई देती है, उसी प्रकार तुम भी इस आश्रम में अपनी प्रभा बिखेर रही हो। तुम बड़ी रूपवती हो। क्‍या इन जंगलों में भी तुम्‍हें डर नहीं लगता है? तुम किसी देवता, यक्ष, दानव अथवा दैत्‍यों की स्‍त्री तो नहीं हो या कोई श्रेष्‍ठ अप्सरा हो? क्‍या तुम दिव्‍य रूप धारण करने वाली नाग राजकुमारी हो अथवा वन में विचरने वाली किसी राक्षस की पत्‍नी हो अथवा राजा वरुण, चन्‍द्रमा एवं धनाध्‍यक्ष कुबेर इनमें से किसी की पत्‍नी हो? अथवा तुम धाता, विधाता, सविता, विभु या इन्द्र के भवन से यहाँ आयी हो? न तो तुम्‍हीं हमारा परिचय पूछती हो और न हम ही यहाँ तुम्‍हारे पति के विषय में जानते हैं। भद्रे! हम तुम्‍हारा सम्‍मान बढ़ाते हुए तुम्‍हारे पिता और पति का परिचय पूछ रहे हैं। तुम अपने बन्‍धु-बान्‍धव, पति और कुल का यथार्थ परिचय दो और यह भी बताओ कि तुम यहाँ कौन-सा कार्य करती हो?

    कमल के समान विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी! मैं राजा सुरथ का पुत्र हूँ, जिसे साधारण जनता कोटिकास्‍य के नाम से जानती है और वे जो सुवर्णमय रथ में बैठे हैं तथा वेदी पर स्‍थापित एवं घी की आहुति पड़ने से प्रज्‍ज्‍वलित हुए अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे हैं, त्रिगर्त देश के राजा हैं। ये वीर क्षेमंकर के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसके बाद जो ये महान् धनुष धारण किये सुन्‍दर फूलों की मालाएं पहने विशाल नेत्रों वाले वीर तुम्‍हें निहार रहे हैं, कुलिन्‍दराज के ज्‍येष्‍ठ पुत्र हैं। ये सदा पर्वत पर ही निवास करते हैं। सुन्‍दरांगि! और वे जो पुष्‍करणी के समीप श्‍यामवर्ण के दर्शनीय नवयुवक खड़े हैं, इक्ष्‍वाकुवंशी राजा सुबल के पुत्र हैं। ये अकेले ही अपने शत्रुओं का संहार करने में समर्थ हैं। लाल रंग के घोड़ों से जुते हुए रथों पर बैठकर यज्ञों में प्रज्‍वलित अग्‍नि के समान सुशोभित होने वाले अंगारक, कुञ्जर, गुप्‍तक, शत्रुंजय संजय, सुप्रवृद्ध, भंयकर, भ्रमर, रवि, शूर, प्रताप तथा कुहन सौवीर देश के ये बारह राजकुमार जिनके रथ के पीछे हाथ में ध्‍वजा लिये चलते हैं तथा छ: हजार रथी, हाथी, घोड़े और पैदल जिनका अनुगमन करते हैं, उन सौवीरराज जयद्रथ का नाम तुमने सुना होगा।

    सौभाग्‍यशालिनी! ये वे ही राजा जयद्रथ दिखायी दे रहे हैं। उनके दूसरे उदार हृदय वाले भाई बलाहक और अनीक-विदारण आदि भी उनके साथ हैं। सौवीर देश के ये प्रमुख बलवान् नवयुवक वीर सदा राजा जयद्रथ के साथ चलते हैं। राजा जयद्रथ इन सहायकों से सुरक्षित हो मरुद्गणों से घिरे हुए देवराज इन्द्र की भाँति यात्रा करते हैं। सुकेशि! हम तुमसे सर्वथा अनजान हैं, अत: हमें भी अपना परिचय दो; तुम किसकी पत्‍नी और किसकी पुत्री हो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत द्रौपदीहरणपर्व में कोटिकास्‍य का प्रश्‍नविषयक दो सौ पैसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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