सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ छप्पनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्पच्चाशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
"दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ एवं समाप्ति"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर समस्त शिल्पियों, श्रेष्ठ मन्त्रियों तथा परम बुद्धिमान् विदुर जी ने दुर्योधन को सूचना दी- ‘भारत! क्रतुश्रेष्ठ वैष्णव यज्ञ की सारी सामग्री जुट गयी है। यज्ञ का नियत समय भी आ पहुँचा है और सोने का बहुमूल्य हल भी पूर्णरूप से बन गया है’। राजन्! यह सनुकर नृपश्रेष्ठ दुर्योधन ने उस क्रतुराज को प्रारम्भ करने की आज्ञा दी। फिर तो उत्तम संस्कार से युक्त और प्रचुर धन्य-धान्य से सम्पन्न वह वैष्णव यज्ञ आरम्भ हुआ। गान्धारीनन्दन दुर्योधन ने शास्त्र की आज्ञा के अनुसार विधिपूर्वक उस यज्ञ की दीक्षा ली। धृतराष्ट्र, महायशस्वी विदुर, भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा यशस्विनी गांधारी को इस यज्ञ से बड़ी प्रसन्नता हुई।
राजेन्द्र! तदनन्तर समस्त भूपालों तथा ब्राह्मणों को निमन्त्रित करने के लिये बहुत-से शीघ्रगामी दूत भेजे गये। दूतगण तेज चलने वाले वाहनों पर सवार हो, जिन्हें जैसी आज्ञा मिली थी, उसके अनुसार कर्तव्यपालन के लिये प्रस्थित हुए। उन्हीं में से एक जाते हुए दूत से कहा,
दु:शासन ने कहा ;- ‘तुम शीघ्रतापूर्वक द्वैतवन में जाओ और पापात्मा पाण्डवों तथा उस वन में रहने वाले ब्राह्मणों को यथोचित रीति से निमन्त्रण दे आओ’। उस दूत ने समस्त पाण्डवों के पास जाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा,
दूत बोला ;- ‘महाराज! कुरु कुल के श्रेष्ठ पुरुष नृपति शिरोमणि दुर्योधन अपने पराक्रम से अतुल धनराशि प्राप्त कर एक यज्ञ कर रहे हैं। उसमें (विभिन्न स्थानों से) बहुत-से राजा और ब्राह्मण पधार रहे हैं।
राजन्! महामना दु:शासन ने मुझे आपके पास भेजा है। जननायक महाराज दुर्योधन आप लोगों को उस यज्ञ में बुला रहे हैं। आप लोग चलकर राजा के मनोवांच्छित उस यज्ञ का दर्शन कीजिये’।
दूत का यह कथन सुनकर राजाओं में सिंह के समान महाराज युधिष्ठिर ने इस प्रकार उत्तर दिया,,
युधिष्ठिर बोले ;- 'सौभाग्य की बात है कि पूर्वजों की कीर्ति बढ़ाने वाले राजा दुर्योधन श्रेष्ठ यज्ञ के द्वारा भगवान का यजन कर रहे हैं। हम भी उस यज्ञ में चलते, परंतु इस समय यह किसी तरह सम्भव नहीं है। हमें तेरह वर्ष तक वन में रहने की अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना है’। धर्मराज की यह बात सुनकर भीमसेन ने दूर से इस प्रकार कहा,,
भीमसेन बोले ;- ‘दूत! तुम राजा दुर्योधन से जाकर यह कह देना कि सम्राट धर्मराज युधिष्ठिर तेरह वर्ष बीतने के पश्चात उस समय वहाँ पधारेंगे, जबकि रणयज्ञ में अस्त्र-शस्त्रों द्वारा प्रज्वलित की हुई रोषाग्नि में तुम्हारी आहुति देंगे। जब रोष की आग में जलते हुए धृतराष्ट्र के पुत्रों पर पाण्डव अपने क्रोधरूपी घी की आहुति डालने को उद्यत होंगे, उस समय मैं (भीमसेन) वहाँ पदार्पण करूँगा।'
राजन्! शेष पाण्डवों ने कोई अप्रिय वचन नहीं कहा। दूत ने भी लौटकर दुर्योधन से सब समाचार ठीक-ठीक बता दिया। महाभाग! तदनन्तर विभिन्न देशों के अधिपति नरश्रेष्ठ भूपाल तथा ब्राह्मण दुर्योधन की राजधानी हस्तिनापुर आये। उन सबकी शास्त्रीय विधि से यथोचित सेवा पूजा की गयी। इससे वे नरेशगण अत्यन्त प्रसन्न हो मन-ही-मन आनन्द का अनुभव करने लगे। राजेन्द्र! समस्त कौरवों से घिरे हुए धृतराष्ट्र को भी बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने विदुर से कहा,
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘भइया! शीघ्र ऐसी व्यवस्था करो, जिससे इस यज्ञमण्डप में पधारे हुए सभी लोग खानपान से सन्तुष्ट एवं सुखी हों’। शत्रुदमन जनमेजय! धर्मज्ञ एवं विद्वान विदुर जी ने सब मनुष्यों की ठीक-ठीक संख्या का ज्ञान करके उन सबका यथोचित स्वागत-सत्कार किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्पच्चाशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 24-27 का हिन्दी अनुवाद)
वे बड़े हर्ष के साथ सभी अतिथियों को उत्तम भक्ष्य, पेय अन्न–पान, सुगन्धित पुष्पहार तथा नाना प्रकार के वस्त्र देने लगे।
वीर राजा दुर्योधन ने सभी को शस्त्रानुसार यथायोग्य निवास गृह बनवा कर उनमें ठहराया था। उसने सब प्रकार से आश्वासन तथा भाँति-भाँति के रत्न देकर सहस्त्रों राजाओं तथा ब्राह्मणों को विदा किया।
इस प्रकार राजाओं को विदा देकर भाइयों से घिरे हुए दुर्योधन ने कर्ण और शकुनि के साथ हस्तिनापुर में प्रवेश किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत घोषयात्रापर्व में दुर्योधन का यज्ञविषयक दो सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ सत्तावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तपच्चाशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"दुर्योधन के यज्ञ के विषय में लोगों का मत, कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा, युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महाराज! राजश्रेष्ठ! नगर में प्रवेश करते समय सूतों तथा अन्य लोगों ने भी अटल निश्चयी और महान् धनुर्धर राजा दुर्योधन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। तत्पश्चात सब लोग लावा और चन्दनचूर्ण बिखेरकर कहने लगे,,
नगरवासी बोले ;- ‘महाराज! आपका यह यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण हो गया, यह बड़े सौभाग्य की बात है’। वहीं कुछ ऐसे लोग भी थे, जिनका मस्तिष्क वात रोग से विकृत था-कब क्या कहना उचित है, इसको वे नहीं जानते थे, अत: राजा दुर्योधन को सम्बोधित करके कहने लगे,
अन्यलोग बोले ;- ‘राजन्! आपका यह यज्ञ युधिष्ठिर के यज्ञ के समान नहीं था’। कुछ अन्य वायुरोगग्रस्त लोग राजा दुर्योधन से इस प्रकार कहने लगे,,
दूसरे लोग बोले ;- ‘यह यज्ञ तो युधिष्ठिर के यज्ञ की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है’। जो राजा के सुहृद थे, वहाँ इस प्रकार बोले,
राजा के सुहृद बोले ;- ‘यह यज्ञ पिछले सब यज्ञों से बढ़कर हुआ है। ययाति, नहुष, मांधाता और भरत भी इस यज्ञ कर्म का अनुष्ठान करके पवित्र हो सब-के-सब स्वर्ग लोक में गये हैं।
भरतश्रेष्ठ! सुहृदों की ये सुन्दर बातें सुनता हुआ राजा दुर्योधन प्रसन्नतापूर्वक नगर में प्रवेश करके अपने राजभवन में गया। महाराज! उसने सबसे पहले अपने माता-पिता के चरणों में प्रणाम किया। तत्पश्चात् क्रमश: भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि को तथा बुद्धिमान विदुर जी को भी मस्तक झुकाया। तदनन्तर छोटे भाइयों ने आकर भ्राताओं का आनन्द बढ़ाने वाले दुर्योधन को प्रणाम किया। इसके बाद वह भाइयों से घिरा हुआ अपने प्रमुख राजसिंहासन पर विराजमान हुआ। उस समय सूतपुत्र कर्ण ने उठकर महाराज दुर्योधन से इस प्रकार कहा,
कर्ण बोला ;- ‘भरतश्रेष्ठ! सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा यह महान् यज्ञ सकुशल समाप्त हुआ। नरश्रेष्ठ! जब युद्ध में पाण्डव मारे जायेंगे, उस समय तुम्हारे द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ की समाप्ति पर मैं पुन: इसी प्रकार तुम्हारा अभिनन्दन करूँगा।' तब महायशस्वी महाराज दुर्योधन ने उससे इस प्रकार कहा,
दुर्योधन बोले ;- ‘वीर! तुम्हारा यह कथन सत्य है। नरश्रेष्ठ! जब दुरात्मा पाण्डव मारे जायेंगे, उस समय महायज्ञ राजसूय के समाप्त होने पर तुम पुन: इसी प्रकार मेरा अभिनन्दन करोगे’।
भरतकुलभूषण! महाराज! ऐसा कहकर दुर्योधन ने कर्ण को छाती से लगा लिया और क्रतुश्रेष्ठ राजसूय का चिन्तन करने लगा। नृपश्रेष्ठ दुर्योधन ने अपने पास खड़े हुए कौरवों को सम्बोधित करते हुए कहा,
दुर्योधन फिर बोला ;- ‘कुरु कुल के राजकुमारो! कब ऐसा समय आयेगा, जब मैं समस्त पाण्डवों को मारकर प्रचुर धन से सम्पन्न होने वाले उस क्रतुश्रेष्ठ राजसूय का अनुष्ठान करूँगा’। उस समय कर्ण ने दुर्योधन से कहा,
कर्ण बोला ;- ‘नृपश्रेष्ठ! मेरी यह प्रतिज्ञा सुन लो,,- ‘जब तक अर्जुन मेरे हाथ से मारा नहीं जाता, तब तक मैं दूसरों से पैर नहीं धुलवाऊँगा, केवल जल से उत्पन्न पदार्थ नहीं खाऊँगा और आसुर व्रत (क्रूरता आदि) नहीं धारण करूँगा। किसी के भी कुछ माँगने पर ‘नहीं है’, ऐसी बात नहीं कहूँगा’। कर्ण के द्वारा युद्ध में अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा करने पर महान् धनुर्धर महारथी धृतराष्ट्रपुत्रोंने बड़े जोर से सिंहनाद किया। उस दिन से कौरव पाण्डवों को पराजित ही मानने लगे। राजेन्द्र! तदनन्तर जैसे देवराज इन्द्र चैत्ररथ नामक उद्यान-में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार श्रीमान राजा दुर्योधन ने उन नरपुंगवों को विदा करके अपने महल में प्रवेश किया। भारत! तदनन्तर वे सभी महाधनुर्धर वीर अपने-अपने भवन में चले गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तपच्चाशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 21-28 का हिन्दी अनुवाद)
इधर महाधनुर्धर पाण्डव इनके वाक्य से प्रेरित हो उसी विषय का चिन्तन करते हुए कभी चैन नहीं पाते थे। महाराज! फिर उन्होंने गुप्तचरों द्वारा वह समाचार भी प्राप्त कर लिया, जिसमें अर्जुन के वध के लिये सूतपुत्र कर्ण की प्रतिज्ञा दुहरायी गयी थी।
राजन् यह सब सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर उद्विग्न हो उठे। वे विचारने लगे- ‘कर्ण का कवच अभेद्य है और उसका पराक्रम भी अद्भुत है।’ यह मानकर तथा वन के क्लेशों का स्मरण करके उन्हें शान्ति नहीं प्राप्त होती थी। इस प्रकार चिन्ता से घिरे हुए महात्मा युधिष्ठिर के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि ‘अनेक प्रकार के सर्पों तथा मृगों से भरे हुए इस द्वैतवन को छोड़कर हम कहीं अन्यत्र चलें’।
इधर राजा दुर्योधन भी अपने वीर भाइयों के साथ रहकर भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, युद्ध में शोभा पाने वाले सूतपुत्र कर्ण तथा द्यूतकुशल शकुनि से मिलकर निरन्तर प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ इस पृथ्वी का शासन करने लगा। दुर्योधन सदा अपने अधीन रहने वाले राजाओं का प्रिय करने लगा और प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों का भी स्वागत-सत्कार करता रहा।
राजन्! शत्रुओं का सन्ताप देने वाला वीर दुर्योधन निरन्तर अपने भाइयों का प्रिय कार्य करता था। धन के दो ही फल हैं-दान और भोग, ऐसा मन-ही-मन निश्चय करके वह इन्हीं में धन का उपयोग करता था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत घोषयात्रापर्व में युधिष्ठिर की चिन्ता से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(घोषयात्रा पर्व समाप्त)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मृगखप्रोद्भव पर्व)
दौ सौ अठावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टपच्चाशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों का काम्यकवन में गमन"
जनमेजय ने पूछा ;- दुर्योधन को गन्धर्वों के बन्धन से छुड़ाकर महाबली पाण्डवों ने उस वन में कौन-सा कार्य किया? यह मुझे बताने की कृपा करें।
वैशम्पायन जी ने कहा ;- तदनन्तर एक रात में जब कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर सो रहे थे, स्वप्न में द्वैतवन के सिंह-बाघ आदि हिंसक पशुओं ने उन्हें दर्शन दिया। उन सबके कण्ठ आंसुओं से रून्धे हुए थे। वे थरथर कांपते हुए हाथ जोड़कर खडे थे। महाराज युधिष्ठिर ने उनसे पूछा,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘आप लोग कौन हैं? क्या कहना चाहते हैं? आपकी क्या इच्छा है? बताइये’। यशस्वी पाण्डव कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर मरने से बचे हुए हिंसक पशुओं ने उनसे कहा,
पशु बोला ;- ‘भारत! हम द्वैतवन के पशु हैं। आप लोगों के मारने से हमारी इतनी ही संख्या शेष रह गयी है। महाराज! हमारा सर्वथा संहार न हो जाये, इसके लिये आप अपना निवास स्थान बदल दीजिये। आपके सभी भाई शूरवीर एवं अस्त्र विद्या में प्रवीण हैं। इन्होंने हम वनवासी हिंसक पशुओं के कुलों को थोड़ी ही संख्या में जीवित छोड़ा है। महामते! हम सिंह, बाघ आदि पशु थोड़ी-सी संख्या में अपने वंश के बीजमात्र शेष रह गये हैं। महाराज युधिष्ठिर! आपकी कृपा से हमारे वंश की वृद्धि हो, यही हम निवेदन करते हैं’। वे सिंह-बाघ आदि पशु त्रस्त होकर थर–थर कांप रहे थे और बीजमात्र ही शेष रह गये थे। उनकी यह दयनीय दशा देखकर धर्मराज युधिष्ठिर अत्यन्त दु:ख से व्याकुल हो गये।
समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले राजा युधिष्ठिर ने उनसे कहा,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘बहुत अच्छा, तुम लोग जैसा कहते हो, वैसा ही करूँगा’। इस प्रकार जब रात बीतने पर सबेरे उनकी नींद खुली, तब वे नृपति शिरोमणि हिंसक पशुओं के प्रति दयाभाव से द्रवित हो अपने सब भाइयों से बोले,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘बन्धुओं! रात को सपने में मरने से बचे हुए इस वन के पशुओं ने मुझसे कहा है,- ‘राजन्! आपका भला हो। हम अपनी वंश परम्परा के एक-एक तन्तु मात्र शेष रह गये हैं। अब हम लोगों पर दया कीजिये’। मेरी समझ में वे पशु ठीक कहते हैं। हम लोगों को वनवासी हिंसक जीवों पर भी दया करनी चाहिये। अब तक हम लोगों का इस द्वैतवन में रहते हुए एक वर्ष आठ महीने बीत चुके हैं। अत: अब हम पुन: असंख्य मृगों से युक्त, रमणीय तथा उत्तम काम्यकवन में तृणबिन्दु नामक सरोवर के पास चलें। काम्यकवन मरुभूमि के शीर्षक स्थान में पड़ता है, वहीं विहार करते हुए हम वनवास के शेष दिन सुखपूर्वक बितायेंगे’।
राजन्! तदनन्तर उन धर्मज्ञ पाण्डवों ने वहाँ रहने वाले ब्राह्मणों के साथ शीघ्र ही उस वन से प्रस्थान कर दिया। इन्द्रसेन आदि सेवक भी उस समय उन्हीं के साथ चल दिये। वे सब लोग उत्तम अन्न और पवित्र जल की सुविधा से सम्पन्न तथा सदा चालू रहने वाले मार्गों से यात्रा करते हुए पुण्य एवं बहुतेरे तपस्वीजनों से युक्त काम्यकवन के आश्रम में पहुँचकर वहां की शोभा देखने लगे। जैसे पुण्यात्मा पुरुष स्वर्ग में जाते हैं, उसी प्रकार उन भरतश्रेष्ठ पाण्डवों ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ काम्यकवन में प्रवेश किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मृगस्वप्नोद्भ्रव पर्व में काम्यकवन प्रवेश विषयक दो सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(मृगखप्रोद्भव पर्व समाप्त)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (व्रीहिद्रौणिक पर्व)
दौ सौ उनसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनषष्टयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर की चिन्ता, व्यास जी का पाण्डवों के पास आगमन और दान की महत्ता का प्रतिपादन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ जनमेजय! इस प्रकार वन में रहते हुए उन महात्मा पाण्डवों के ग्यारह वर्ष बड़े कष्ट से बीते। वे फल-मूल खाकर रहते थे। सुख भोगने के योग्य होकर भी महान् कष्ट भोगते थे और यह सोचकर कि यह हमारे कष्ट का समय है, इसे धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये, चुपचाप सब दु:ख झेलते थे। उनमें ऐसा विवेक इसलिये था कि वे सब के सब श्रेष्ठ पुरुष थे। महाबाहु राजर्षि युधिष्ठिर सदा यही सोचते रहते थे कि ‘मेरे भाइयों पर जो यह महान् द:ख आ पड़ा है, मेरी ही करनी का फल है। मेरे ही अपराध से इन्हें कष्ट भोगना पड़ रहा है’। इसी चिन्ता में पड़े-पड़े राजा युधिष्ठिर रात में सुख की नींद नहीं सो पाते थे। ये बातें उनके हृदय में चुभे हुए कांटों के समान दु:ख दिया करती थीं।
जूआ खेलने के कारणभूत शकुनि आदि की दुष्टता पर दृष्टिपात करके तथा सूतपुत्र कर्ण की कठोर बातों को स्मरण करके पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर दीनभाव से लंबी सांसें लेते रहते और महान् क्रोधरूपी विष को अपने हृदय में धारण करते थे। अर्जुन, दोनों भाई नकुल-सहदेव, यशस्विनी द्रौपदी तथा सर्वश्रेष्ठ बलवान् महातेजस्वी भीमसेन भी राजा युधिष्ठिर की ओर देखते हुए महान से महान् दु:ख को चुपचाप सहते रहे। ‘अब तो वनवास का थोड़ा-सा ही समय शेष रह गया है', ऐसा समझकर नरश्रेष्ठ पाण्डवों ने उत्साह एवं अमर्षयुक्त चेष्टाओं से अपने शरीर को किसी और ही प्रकार का बना लिया था। तदनन्तर किसी समय महायोगी सत्यवतीनन्दन व्यास पाण्डवों को देखनेके लिये वहाँ आये। उन महात्मा को आया देख कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर उनकी अगवानी के लिये कुछ दूर आगे बढ़ गये और विधिपूर्वक स्वागत-सत्कार के साथ उन्हें अपने साथ लिवा लाये। जब वे आसन पर बैठ गये, तब पाण्डवों का आनन्द बढ़ाने वाले युधिष्ठिर अपनी इन्द्रियों को संयम में रखते हुए सेवा की इच्छा से व्यास जी के पास में ही बैठ गये और उनके चरणों में प्रणाम करके उन्होंने महर्षियों को सन्तुष्ट किया।
अपने पौत्रों को वनवास के कष्ट से दुर्बल तथा जंगली फल-मूल खाकर जीवन निर्वाह करते देख महर्षि व्यास को बड़ी दया आयी। वे उन पर कृपा करने के लिये नेत्रों से आंसू बहाते हुए गद्गद कण्ठ से बोले,
महर्षि व्यास बोले ;- ‘धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाबाहु युधिष्ठिर! मेरी बात सुनो, संसार में जिन्होंने तपस्या नहीं की है, वे महान् सुख की उपलब्धि नहीं कर पाते हैं। मनुष्य बारी-बारी से सुख और दु:ख दोनों का सेवन करता है। नरश्रेष्ठ! कोई भी इस जगत में ऐसा सुख नहीं
पाता, जिसका कभी अन्त न हो। उत्तम बुद्धि से युक्त ज्ञानवान् पुरुष ही उत्पत्ति, स्थिति और लय के अधिष्ठानरूप परमात्मा को जानकर कभी हर्ष और शोक नहीं करता है। अत: विवेकी पुरुष को उचित है कि प्राप्त हुए सुख का (त्यागपूर्वक) सेवन करे और स्वत: आये हुए दु:ख का भार भी (धैर्यपूर्वक) वहन करे। जैसे किसान बीज बोकर समय के अनुसार प्रारब्धवश जितना अन्न मिलता है, उसे ग्रहण करता है; उसी प्रकार मनुष्य समय-समय पर दैववश प्राप्त हुए सुख तथा दु:ख को स्वीकार करें। भारत! तप से बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। तप से मनुष्य महत्पद (परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है। तुम इस बात को अच्छी तरह जान लो कि तपस्या से कुछ भी असाध्य नहीं है।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनषष्टयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)
‘महाराज! सत्य, सरलता, क्रोध का अभाव, देवता और अतिथियों को देकर अन्न आदि ग्रहण करना, इन्द्रियसंयम, मनोनिग्रह, दूसरों के दोष न देखना, हिंसा न करना, बाहर-भीतर की पवित्रता रखना तथा सम्पूर्ण इन्द्रियों को काबू में रखना-ये पुण्यात्मा पुरुषों के सद्गुण सबको पवित्र करने वाले हैं। जो लोग अधर्म में रुचि रखने वाले हैं, वे मूढ़ मानव पशु-पक्षी आदि तिर्यग् योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं। उन कष्टदायक योनियों में पड़कर वे कभी सुख नही पाते। इस लोक में जो कर्म किया जाता है, उसका फल परलोक में भोगना पड़ता है। इसलिये अपने शरीर को तप और नियमों के पालन में लगावे।
राजन्! समय पर यदि कोई अतिथि आ जाये, तो क्रोधरहित और प्रसन्नचित्त होकर अपनी शक्ति के अनुसार उसे दान दे और विधिवत् पूजन करके उसे प्रणाम करे। सत्यवादी मनुष्य दीर्घ आयु, क्लेशशून्यता (सुख) तथा सरलता प्राप्त करता है। जो क्रोध नहीं करता और दूसरों के दोष नहीं देखता है, उसे परमानन्द की प्राप्ति होती है। जो सदा अपनी इन्द्रियों को संयम में रखकर मन का निग्रह करता है, उसे कभी क्लेश का सामना नहीं करना पड़ता। जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, वह दूसरों की सम्पत्ति देखकर संतप्त नहीं होता है। जो देवताओं और अतिथियों को उनका भाग समर्पित करता है, वह भोग-सामग्री से सम्पन्न होता है। दान करने वाला मनुष्य सुखी होता है। जो किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता, उसे उत्तम आरोग्य की प्राप्ति होती है। जो माननीय पुरुषों का सम्मान करता है, वह महान् कुल में जन्म पाता है। जितेन्द्रिय पुरुष कभी दुर्व्यसनों में नहीं फंसता है। उसे इस लोक और परलोक में भी अत्यन्त सुख की प्राप्ति होती है। जिसकी बुद्धि शुभ में ही आसक्त होती है, वह मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होने पर उस शुभ के संयोग से कल्याणबुद्धि होकर ही उत्पन्न होता है’।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- भगवन! महामने! दान, धर्म एवं तपस्या-इनमें से किसका फल परलोक में अधिक माना गया है? और इन दोनों में कौन दुष्कर बाताया जाता है?
व्यास जी ने कहा ;- तात! दान से बढ़कर दुष्कर कार्य इस पृथ्वी पर दूसरा कोई नहीं है। लोगों को धन का लोभ अधिक होता है और धन मिलता भी बड़े कष्ट से है। महामते! कितने ही साहसी मनुष्य रत्नों के लिये अपने प्यारे प्राणों का मोह छोड़कर समुद्र में गोते लगाते हैं और धन के लिये घोर जंगलों में भटकते फिरते हैं। कुछ मनुष्य कृषि तथा गोरक्षा को अपनी जीविका का साधन बनाते हैं, कुछ लोग धन की इच्छा से नौकरी करने के लिये दूर निकल जाते हैं। अत: दु:ख सहकर कमाये हुए धन का परित्याग करना अत्यन्त कठिन है। दान से बढ़कर दूसरा कोई दुष्कर कार्य नहीं है। इसलिये मेरे मत में दान ही सर्वश्रेष्ठ है। यहाँ विशेष बात यह जाननी चाहिये कि मनुष्य न्याय से कमाये गये धन को उत्तम देश, काल और पात्र का विचार करते हुए श्रेष्ठ पुरुषों को दे। अन्याय से प्राप्त किये हुए धन के द्वारा जो दानधर्म किया जाता है, वह कर्ता की महान् भय से रक्षा नहीं कर पाता। युधिष्ठिर! यदि विशुद्ध मन से उत्तम समय पर सत्पात्र को थोड़ा-सा भी दान दिया गया हो, तो वह परलोक में अनन्त फल देने वाला माना गया है। इस विषय में जानकार लोग इस पुराने इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। मुद्गल ऋषि ने एक द्रोण धान का दान करके महान् फल प्राप्त किया था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत व्रीहिद्रौणिकपर्व में दान की दुष्करता का प्रतिपादन विषयक दो सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (व्रीहिद्रौणिक पर्व)
दौ सौ साठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षष्टयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा तथा मुद्गल का देवदूत से कुछ प्रश्न करना"
युधिष्ठिरने पूछा ;– भगवन्! महात्मा मुद्गल ने एक द्रोण धान का दान कैसे और किस विधि से किया था? तथा वह दान किसको दिया गया था? यह सब मुझे बताइये। मनुष्यों के धर्म को प्रत्यक्ष देखने और जानने वाले भगवान् जिसके कर्मों से सन्तुष्ट होते हैं, उसी श्रेष्ठ धर्मात्मा पुरुष का जन्म सफल है, ऐसा मैं मानता हूँ।
व्यास जी बोले ;- राजन्! कुरुक्षेत्र में मुद्गल नामक एक ऋषि रहते थे। वे बड़े धर्मात्मा और जितेन्द्रिय थे। शिल तथा उच्छवृत्ति से ही वे जीविका चलाते थे तथा सदा सत्य बोलते और किसी की भी निन्दा नहीं करते थे। उन्होंने अतिथियों की सेवा का व्रत ले रक्खा था। वे बड़े कर्मनिष्ठ और तपस्वी थे तथा कपोती वृत्ति का आश्रय ले आवश्यकता के अनुरूप थोड़े से ही अन्न का संग्रह करते थे। वे मुनि स्त्री और पुत्र के साथ रहकर पंन्द्रह दिन में जैसे कबूतर दाने चुगता है, उसी प्रकार चुनकर एक द्रोण धान का संग्रह कर पाते थे और उसके द्वारा इष्टीकृत नामक यज्ञ का अनुष्ठान करते थे।
इस प्रकार परिवार सहित उन्हें पंन्द्रह दिन पर भोजन प्राप्त होता था। उनके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या का भाव नहीं था। वे प्रत्येक पक्ष में दर्श एवं पौर्णमास यज्ञ करते हुए देवताओं और अतिथियों को उनका भाग अर्पित करके शेष अन्न से जीवन-यापन करते थे। महाराज! प्रत्येक पर्व पर तीनों लोकों के स्वामी साक्षात् इन्द्र देवताओं सहित पधार कर उनके यज्ञ में भाग ग्रहण करते थे। मुद्गल ऋषि मुनि व़ृत्ति से रहते हुए पूर्वकालोचित कर्म-दर्श और पौर्णमास यज्ञ करके हर्षोल्लासपूर्ण हृदय से अतिथियों को भोजन देते थे। ईर्ष्या से रहित महात्मा मुद्गल एक द्रोण धान से तैयार किये हुए अन्न में से जब-जब दान करते थे, तब-तब देने से बचा हुआ अन्न मुद्गल के द्वारा दूसरे अतिथियों का दर्शन करने से बढ़ जाया करता था। इस प्रकार उसमें सैकड़ों मनीषी ब्राह्मण एक साथ भोजन कर लेते थे। मुद्गल मुनि के विशुद्ध त्याग के प्रभाव से वह अन्न निश्चय ही बढ़ जाता था।
राजन्! एक दिन दिगम्बर वेष में भ्रमण करने वाले महर्षि दुर्वासा ने उत्तम व्रत का पालन करने वाले धर्मिष्ठ महात्मा मुद्गल का नाम सुना। उनके व्रत की ख्याति सुनकर वे वहाँ आ पहुँचे। पाण्डुनन्दन! दुर्वासा मुनि पागलों की तरह अटपटा वेष धारण किये, मूंछ मुड़ाये और नाना प्रकार के कटु वचन बोलते हुए उस आश्रम में पधारे। ब्रह्मर्षि मुद्गल के पास पहुँचकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा ने कहा,
दुर्वासा जी बोले ;- ‘विप्रवर! तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि मैं भोजन की इच्छा से यहाँ आया हूँ’।
मुद्गल ने उनसे कहा ;- ‘महर्षे! आपका स्वागत है', ऐसा कहकर उन्होंने पाद्य, उत्तम अर्घ्य तथा आचमनीय आदि पूजन की सामग्री भेंट की। तत्पश्चात् उन व्रतधारी अतिथिसेवी महर्षि मुद्गल ने बड़ी श्रद्धा के साथ उन्मत्त वेशधारी भूखे तपस्वी दुर्वासा को भोजन समर्पित किया। वह अन्न बड़ा स्वादिष्ट था। वे उन्मत मुनि भूखे तो थे ही, परोसी इई सारी रसोई खा गये। तब महर्षि मुद्गल ने उन्हें और
भोजन दिया। इस तरह सारा भोजन उदरस्थ करके दुर्वासा जी ने जूठन लेकर अपने सारे अंगों मे लपेट ली और फिर जैसे आये थे, वैसे ही चल दिये। इसी प्रकार दूसरा पर्वकाल आने पर दुर्वासा ऋषि ने पुन: आकर उच्छवृत्ति से जीवन निर्वाह करने वाले उन मनीषी महात्मा मुद्गल के यहां का सारा अन्न खा लिया। मुनि निराहार रहकर पुन: अन्न के दाने बीनने लगे। भूख का कष्ट उनके मन में विकार उत्पन्न करने में समर्थ न हो सका।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षष्टयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक20-36 का हिन्दी अनुवाद)
स्त्री-पुत्र सहित अन्न के दाने चुनते हुए विप्रवर मुद्गल के हृदय में क्रोध, द्वेष, घबराहट तथा अपमान प्रवेश नहीं कर सके। इस प्रकार उच्छधर्म का पालन करने वाले मुनिश्रेष्ठ मुद्गल के घर पर महर्षि दुर्वासा उनका धैर्य छुड़ाने का दृढ़ निश्चय लेकर लगातार छ: बार ठीक पर्व के समय उपस्थित हुए। किन्तु उन्होंने उनके मन में कभी कोई विकार नहीं देखा शुद्ध अन्त:करण वाले महर्षि मुद्गल के मन को दुर्वासा ने सदा शुद्ध और निर्मल ही पाया। तब वे प्रसन्न होकर मुद्गल से बोले,
दुर्वासा बोले ;- ‘ब्रह्मन्! इस संसार में ईर्ष्या से रहित होकर दान देने वाला मनुष्य तुम्हारे समान दूसरा कोई नहीं है। भूख (बड़े-बड़े लोगों के) धर्मज्ञान को विलुप्त कर देती है, धैर्य हर लेती है तथा रस का अनुसरण करने वाली रसना सदा रसीले पदार्थों की ओर मनुष्य को खींचती रहती है। भोजन से ही प्राणों की रक्षा होती है। चंचल मन को रोकना अत्यन्त कठिन होता है। मन और इद्रियों की एकग्रता को ही निश्चित रूप से तप कहा गया है। परिश्रम से उपार्जित किये हुए धन का शुद्ध हृदय से दान करना अत्यन्त दुष्कर है। परंतु श्रेष्ठ पुरुष! तुमने यह सब यथार्थ रूप से सिद्ध कर लिया है।
तुम से मिलकर हम बहुत प्रसन्न हैं और अपने ऊपर तुम्हारा अनुग्रह मानते हैं। इद्रियसंयम, धैर्य, संविमान (दान), शम, दम, सत्य और धर्म-ये सब गुण तुम में पूर्ण रूप से विद्यमान हैं। तुम्हारे-जैसा पवित्र अन्त:करण वाला दूसरा कोई नहीं है। तुमने अपने शुम कर्मों से सभी लोकों को जीत लिया; परमपद को प्राप्त कर लिया। अहो! स्वर्गवासी देवताओं ने भी तुम्हारे महान् दान की सर्वत्र घोषणा की है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! तुम सदेह स्वर्ग लोक को जाओगे’।
दुर्वासा मुनि इस प्रकार कह ही रहे थे कि एक देवदूत विमान के साथ मुद्गल ऋषि के पास आ पहुँचा। उस विमान में हंस एवं सारस जुते हुए थे। क्षुद्रघण्टिकाओं की जाली से उसे सुसज्जित किया गया था तथा उससे दिव्य सुगन्ध फैल रही थी। वह विमान देखने में बड़ा विचित्र और इच्छानुसार चलने वाला था। देवदुत ने ब्रह्मर्षि मुद्गल से कहा,
देवदूत बोले ;- ‘मुने! यह विमान आपको शुभ कर्मों से प्राप्त हुआ है। इस पर बैठिये। आप परम सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं’। देवदूत के ऐसा कहने पर महर्षि मुद्गल ने उससे कहा,
महर्षि मुद्गल बोले ;- ‘देवदुत! मैं तुम्हारे मुख से स्वर्गवासियों के गुण सुनना चाहता हूँ। वहाँ रहने वालों में कौन-कौन से गुण होते हैं? कैसी तपस्या होती है? और उनका निश्चित विचार कैसा होता है? स्वर्ग में क्या सुख है और वहाँ क्या दोष है? प्रभो! सत्पुरुषों में सात पग एक
साथ चलने से ही मित्रता हो जाती है, ऐसा कुलीन सत्पुरुषों का कथन है। मैं उसी मैत्री को सामने रखकर तुमसे उपर्युक्त प्रश्न पूछ रहा हूँ। इसके उत्तर में जो सत्य एवं हितकर बात हो, उसे बिना किसी हिचकिचाहट के कहो। तुम्हारी बात सुनकर उसी के द्वारा मैं अपने कर्तव्य का निश्चिय करूँगा’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत व्रीहिद्रौणिकपर्व में मुद्गलोपाख्यान सम्बन्धी दो सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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