सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) के इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (From the 21 chapter to the 25 chapter of the entire Mahabharata (Virat Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (कीचकवध पर्व)

इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन और द्रौपदी का संवाद”

    भीमसेन बोले ;- देवि! मेरे बाहुबल को तथा अर्जुन के गाण्डीव धनुष को भी धिक्कार है; क्योंकि तुम्हारे ये दोनों कोमल हाथ, जो पहले लाल थे, अब घड्डे पड़ने से काले हो गये हैं। मैं तो उसी दिन विराट की सभा में ही भारी संहार मचा देता, किंतु ऐसा न करने में कारण बने कुन्तीनन्दन महाराज युधिष्ठिर। वे प्रकट हो जाने का भय सूचित करते हुए मेरी ओर देखने लगे अथवा ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हुए उस कीचक का मस्तक मैं उसी प्रकार पैरों से रौंद डालता जैसे क्रीड़ा करता हुआ महान् गजराज कीचक (बाँस) के वृक्ष को मसल डालता है।

     कृष्णे! जब कीचक ने तुम्हें लात से मारा था, उस समय मैं वहीं था और अपनी आँखों यह घटना मैंने देखी थी। उसी क्षण मेरी इच्छा हुई कि आज इन मत्स्यदेशवासियों का महासंहार कर डालूँ। किंतु धर्मराज ने वहाँ नेत्रों से संकेत करके मुझे ऐसा करने से रोक दिया। भामिनी! उनके उस इशारे को समझकर ही मैं चुप रह गया। जिस दिन हमें राज्य से वंचित किया गया, उसी दिन जो कौरवों का वध नहीं हुआ, दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा पापी दुःशासन के मस्तक मैंने नहीं काट डाले, यह सब सोचकर मेरे हृदय में काँटा-सा चुभ जाता है और शरीर में आग लग जाती है। सुश्रोणि! तुम बड़ी बुद्धिमती हो, धर्म को न छोड़ो; क्रोध त्याग दो।

     कल्याणी! यदि राजा युधिष्ठिर तुम्हारे मुख से यह सारा उपालम्भ सुनेंगे, तो प्राण त्याग देंगे। सुश्रोणि! तनुमध्यमे! धनंजय अथवा नकुल-सहदेव भी इसे सुनकर जीवित नहीं रह सकते। इन सबके परलोकवासी हो जाने पर मैं भी नहीं जी सकूँगा। प्राचीन काल की बात है, भृगुनन्दन महर्षि च्यवन तपस्या करते-करते बाँबी के समान हो गये थे, मानो अब उनका जीवन-दीप बुझ जायेगा; ऐसी दशा हो गयी थी, तो भी उनकी कल्याणमयी पत्नी सुकन्या ने उन्हीं का अनुसरण किया। वह उन्हीं की सेवा-सुश्रूसा में लगी रही। नारायणी इन्द्रसेना भी अपने रूप-सौन्दर्य के कारण विख्यात थी। तुमने भी उसका नाम सुना होगा। पूर्वकाल में उसने अपने हजार वर्ष के बूढ़े पति मुद्गल ऋषि की निरन्तर सेवा की थी। जनकनन्दिनी सीता का नाम तो तुम्हारे कानों में पड़ा ही होगा। उन्होंने अत्यन्त घोर वन में निवास करने वाले अपने पति श्रीरामचन्द्र जी का अनुगमन किया था।

    सुश्रोणि! जानकी श्रीराम की प्यारी रानी थी। वे राक्षस की कैद में पड़कर दीर्घ काल तक क्लेश उठाती रहीं, तो भी उन्होंने श्रीराम को ही अपनाये रक्खा; अपना धर्म नहीं छोड़ा। भीरु! नयी अवस्था और अनुपम रूप-सौन्दर्य से सम्पन्न राजकुमारी लोपामुद्रा ने सम्पूर्ण अलौकिक सुख-भोगों पर लात मारकर अपने पति महर्षि अगस्त्य का ही अनुसरण किया था। सती-साध्वी मनस्विनी सावित्री द्युमत्सेन के पुत्र वीरवर सत्यवान के मर जाने पर उनके पीछे-पीछे अकेली ही यमलोक की ओर गयी थी। कल्याणि! इन रूपवती पतिव्रता नारियों का जैसा आदर्श बताया गया है, उसी प्रकार तुम भी समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)

     अब तुम थोड़े दिनों तक और ठहर जाओ। वर्ष पूरा होने में महीना-आध-महीना रह गया है। तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होते ही तुम राजरानी बनोगी। देवि! मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ, ऐसा ही होगा; यह टल नहीं सकता। तुम्हें सभी श्रेष्ठ स्त्रियों के समक्ष अपना आदर्श उपस्थित करना चाहिये। भामिनी! तुम अपनी पतिभक्ति तथा सदाचार से सम्पूर्ण नरेशों के मस्तक पर स्थान प्राप्त करोगी और तुम्हें दुर्लभ भोग सुलभ होंगे।

     द्रौपदी ने कहा ;- प्राणनाथ भीम! इधर अनेक प्रकार के दुःखों को सहन करने में असमर्थ एवं आर्त होकर ही मैंने ये आँसू बहाये हैं। मैं राजा युधिष्ठिर को उलाहना नहीं दूँगी। महाबली भीमसेन! अब बीती बातों को दुहराने से क्या लाभ? इस समय जिसका अवसर उपस्थित है, उस कार्य के लिये तैयार हो जाओ। भीम! केकयराजकुमारी सुदेष्णा यहाँ मेरे रूप से पराजित होने के कारण सदा इस शंका से उद्विग्न रहती हैं कि राजा विराट किसी प्रकार इस पर आसक्त न हो जायें। जिसका देखना भी अनृत (पापमय) है, वही यह परम दुष्टात्मा कीचक रानी सुदेष्णा के उक्त मनोभाव को जानकर सदा स्वयं आकर मेरे आगे प्रार्थना किया करता है। भीम! पहले-पहल उसके ऐसा कहने पर मैं कुपित हो उठी; किंतु पुनः क्रोध के वेग को रोककर बोली,

   द्रोपदी बोली ;- ‘कीचक! तू काम से मोहित हो रहा है। अरे! तू अपने आपकी रक्षा कर। मैं पाँच गन्धर्वों की पत्नी तथा प्यारी रानी हूँ। वे साहसी तथा शूरवीर गन्धर्व तुम्हें कुपित होकर मार डालेंगे’। मेरे ऐसा कहने पर महादुष्टात्मा कीचक ने उत्तर दिया,

    कीचक बोला ;- ‘पवित्र मुस्कान वाली सैरन्ध्री! मैं गन्धर्वों से नहीं डरता। भीरु! यदि मेरे सामने एक करोड़ गन्धर्व भी आ जायें, तो मैं उन्हें मार डालूँगा; परंतु तुम मुझे स्वीकार कर लो’।

   उसके इस प्रकार उत्तर देने पर मैंने पुनः उस कामातुर और मतवाले कीचक से कहा,

    द्रोपदी बोली ;- ‘कीचक! तू मेरे यशस्वी पति गन्धर्वों के समान बलवान् नहीं है। मैं सदा पातिव्रत्य-धर्म में स्थिर रहती हूँ एवं अपने उत्तम कुल की मर्यादा और सदाचार से सम्पन्न हूँ। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण किसी का वध हो, इसीलिये तू अब तक जीवित है’। मेरी यह बात सुनकर वह दुष्टात्मा ठहाका मारकर हँसने लगा। तदनन्तर केकयराजकुमारी सुदेष्णा, जैसा कीचक ने पहले उसे सिखा रक्खा था, उसी योजना के अनुसार अपने भाई का प्रिय करने की इच्छा से मुझे प्रेमपूर्वक कीचक के यहाँ भेजने लगी और बोली- ‘कल्याणि! तुम कीचक के महल से मेरे लिये मदिरा ले आओ’। मैं वहाँ गयी। सूतपुत्र ने मुझे देखकर पहले तो अपनी बात मान लेने के लिये बड़े-बड़े आश्वासनों के साथ समझाना आरम्भ किया; किंतु जब मैंने उसकी प्रार्थना ठुकरा दी, तब उसने क्रोधपूर्वक मेरे साथ बलात्कार करने का विचार किया। दुरात्मा कीचक के उस संकल्प को मैं जान गयी और राजा की शरण में पहुँचने के लिये बड़े वेग से भागी। किंतु वहाँ भी दुष्टात्मा सूतपुत्र ने राजा के सामने मुझे पकड़ लिया और पृथ्वी पर गिराकर लात से मारा।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 33-45 का हिन्दी अनुवाद)

    राजा विराट देखते रह गये। कंक तथा अन्य लोगों ने भी यह सब देखा। रथी, पीठमर्द (राजा के प्रिय व्यक्ति), महावत, वैदिक विद्वान तथा नागरिक-सब की दृष्टि में यह बात आयी थी। मैंने राजा विराट और कंक को बार-बार फटकारा, तो भी राजा ने न तो उसे मना किया और न उसकी उद्दण्डता का दमन ही किया। राजा विराट का यह जो कीचक नाम वाला सारथि है, इसने धर्म को त्याग दिया है। यह अत्यन्त क्रूर है, तो भी विराट और सुदेष्णा दोनों पति-पत्नी उसे बहुत मानते हैं। यह उनका प्रिय सेनापति है। इसे अपनी शूरवीरता का बड़ा अभिमान है। यह पापात्मा सब बातों में मूर्ख है।

    महाभाग! यह परायी स्त्रियों पर बलात्कार करता और लोगों से बहुत धन हड़पता रहता है। लोग रोते-चिल्लाते रह जाते हैं; किंतु यह उनका सारा धन हड़प लेता है। यह सन्मार्ग में स्थिर नहीं रहता तथा धर्मोपार्जन भी नहीं करना चाहता है। यह पापात्मा है; इसके मन में पाप की ही वासना है। यह कामदेव के बाणों से विवश हो रहा है। उद्दण्ड और दुष्टात्मा तो है ही। मैंने बार-बार इसकी प्रार्थना ठुकरायी है। अतः यह जब-जब सामने आयेगा, मुझे मारेगा। सम्भव है, किसी दिन मुझे जीवन से भी हाथ धोना पड़े। उस दशा में धर्म के लिये प्रयत्न करने वाले तुम सब लोगों का सबसे महान् धर्म नष्ट हो जायेगा।

    यदि तुम लोग प्रतिज्ञा के अनुसार तेरह वर्ष की अवधि का पालन करते रहोगे, तो तुम्हारी यह भार्या जीवित न रहेगी। भार्या की रक्षा करने पर संतान की रक्षा होती है। संतान की रक्षा होने पर अपना आत्मा सुरक्षित होता है। आत्मा ही पत्नी के गर्भ से पुत्ररूप में जन्म लेती है। इसीलिये विद्वान पुरुष पत्नी को ‘जाया’ कहते हैं। मैंने वर्णधर्म का उपदेश देने वाले ब्राह्मणों के मुँह से सुना है, पत्नी को पति की रक्षा इसलिये करनी चाहिये कि वह किसी दिन मेरे पेट से पुत्ररूप में जन्म लेगा।

    महाबली भीमसेन! क्षत्रिय के लिये सदा शत्रुओं का संहार करने के सिवा और कोई धर्म नहीं है। कीचक ने धर्मराज युधिष्ठिर के देखते-देखते और तुम्हारी आँखों के सामने मुझे लात मारी है। तुमने उस भयंकर राक्षस जटासुर से मेरी रक्षा की है। भाइयों सहित तुमने जयद्रथ को भी परास्त किया है। अतः अब इस महापापी कीचक को भी मार डालो, जो मेरा अपमान कर रहा है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 46-51 का हिन्दी अनुवाद)

   भारत! राजा का प्रिय होने के कारण कीचक मेरे लिये शोक का कारण हो रहा है। अतः ऐसे कामोन्मत्त पापी को तुम उसी तरह विदीर्ण कर डालो, जैसे पत्थर पर पटककर घड़े को फोड़ दिया जाता है।

    भारत! जो मेरे लिये बहुत-से अनर्थों का कारण बना हुआ है, उसके जीते-जी यदि कल सूर्योदय हो जायेगा, तो मैं विष घोलकर पी लूँगी; किंतु कीचक के अधीन नहीं होऊँगी।

     भीमसेन! कीचक के वश में पड़ने की अपेक्षा तुम्हारे सामने प्राण त्याग देना मेरे लिये कल्याणकारी होगा।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! ऐसा कहकर द्रौपदी भीम के वक्षःस्थल पर माथा टेककर फूट-फूटकर रोने लगी। भीमसेन ने उसको हृदय से लगाकर बहुत सान्त्वना दी।

    वह बहुत आर्त हो रही थी, अतः उन्होंने सुन्दर कटिभाग वाली द्रुपदकुमारी को युक्तियुक्त तात्त्विक वचनों से अनेक बार आश्वासन देकर अपने हाथ से उसके आँसू भरे मुँह को पोंछा और क्रोध से जबड़े चाटते हुए मन-ही-मन कीचक का स्मरण किया। तदनन्तर भीम ने दुःख से पीड़ित द्रौपदी ने इस प्रकार कहा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी को आश्वासन विषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (कीचकवध पर्व)

बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कीचक और भीमसेन का युद्ध तथा कीचक वध”

    भीमसेन बोले ;- भद्रे! तू जैसा कह रही है, वैसा ही करूँगा। भीरु! मैं आज कीचक को उसके भाई-बन्धुओं सहित मार डालूँगा। पवित्र मुस्कान वाली द्रौपदी! तुम दुःख, शोक भुलाकर आगामी रात्रि के प्रदोष काल में कीचक से मिलो और उसे नृत्यशाला में आने के लिये कह दो। मत्स्यराज विराट ने जो यहाँ नृत्यशाला बनवायी है, उसमें दिन के समय तो कन्याएँ नाचती हैं तथा रात को अपने-अपने घर चली जाती हैं। उस नृत्यशाला में एक बहुत सुन्दर मजबूत पलंग बिछा हुआ है। वहीं आने पर उस कीचक को मैं उसके मरे हुए बाप-दादों का दर्शन कराऊँगा। तुम ऐसी चेष्टा करना, जिससे उसके साथ गुप्त वार्तालाप करते समय कोइ तुम्हें देख न ले। कल्याणी! तुम ऐसी बात करना, जिससे वहाँ दिये हुए संकेत के अनुसार वह अवश्य मेरे पास आ जाये।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार बातचीत करके वे दोनों दु:खी दम्पति आँसू बहाकर अलग हुए तथा रात्रि के शेषभाग को उन्होंने बड़ी व्याकुलता से बिताया और आपस की बातचीत को मन में ही गुप्त रखा। वह रात बीत जाने पर कीचक सवेरे उठा और राजमहल में जाकर द्रौपदी से इस प्रकार बोला,

     कीचक बोला ;- ‘सैरन्ध्री! मैंने राजसभा में तुम्हारे महाराज के देखते-देखते तुम्हें पृथ्वी पर गिराकर तुम्हें लातों से मारा था। तुम मुझ जैसे महाबलवान पुरुष के पाले पड़ी हो; तुम्हें कोई बचा नहीं सकता। राजा विराट तो कहने के लिये ही मत्स्यदेश का नाममात्र का राजा है। वास्तव में मैं ही यहाँ का राजा हूँ; क्योंकि सेना का मालिक मैं हूँ। भीरु! सुखपूर्वक मुझे स्वीकार कर लो, फिर तो मैं तुम्हारा दास बन जाऊँगा। सुश्रोणि! मैं तुम्हारे दैनिक खर्च के लिये प्रतिदिन सौ मोहरें देता रहूँगा। तुम्हारी सेवा के लिये सौ दासियाँ और उतने ही दास दूँगा। तुम्हारी सवारी के लिये खच्चरियों से जुता हुआ रथ प्रस्तुत रहेगा। भीरु! अब हम दोनों का परस्पर समागम होना चाहिये।

    द्रौपदी ने कहा ;- कीचक! यदि ऐसी बात है, तो आज मेरी एक शर्त स्वीकार करो। तुम मुझसे मिलने आते हो, यह बात तुम्हारा मित्र अथवा भाई कोई भी न जाने। क्योंकि मैं गन्धर्वों के अपवाद से डरती हूँ। यदि इस बात के लिये मुझसे प्रतिज्ञा करो, तो मैं तुम्हारे अधीन हो सकती हूँ।

    कीचक बोला ;- ठीक है। सुश्रोणि! तुम जैसा कहती हो, वैसा ही करूँगा। भद्रे! तुम्हारे सूने घर में मैं अकेला ही आऊँगा। रम्भोरु! मैं काम से मोहित होकर तुम्हारे साथ समागम के लिये इस प्रकार आऊँगा, जिससे सूर्य के समान तेजस्वी गन्धर्व तुम्हें उस समय मेरे साथ न देख सकें।

    द्रौपदी ने कहा ;- कीचक! मत्स्यराज ने यह जो नृत्यशाला बनवायी है, उसमें दिन के समय कन्याएँ नृत्य करती हैं तथा रात में अपने-अपने घर चली जाती हैं। वहाँ अँधेरा रहता है, अतः मुझसे मिलने के लिये वहीं जाना। उस स्थान को गन्धर्व नहीं जानते। वहाँ मिलने से सब दोष दूर हो जायेगा; इसमें संशय नहीं है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)

   कीचक बोला ;- भद्रे! भीरु! तुम जैसा ठीक समझती हो, वैसा ही करूँगा। शोभने! मैं तुमसे मिलने के लिये अकेला ही नृत्यशाला में आऊँगा। सुश्रोणि! यह बात मैं अपने पुण्य की शपथ खाकर कहता हूँ। वरवर्णिनी! मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे गन्धर्वों को तुम्हारे विषय में कुछ भी पता न लगे। मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम्हें गन्धर्वों से कोई भय नहीं है।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार कीचक के साथ बात करने के बाद द्रौपदी को अवशिष्ट आधा दिन (भीमसेन से यह बात निवेदन करने की प्रतीक्षा में) एक महीने के समान भारी मालूम हुआ। इधर कीचक महान् हर्ष में भरा हुआ अपने घर को गया। उस मूर्ख को यह पता नहीं था कि सैरन्ध्री के रूप में मेरी मृत्यु आ रही है। वह तो काम से मोहित हो रहा था, अतः घर जाकर शीघ्र ही अपने आपको (गहने-कपड़ों से) सजाने लगा। वह विशेषतः सुगन्धित पदार्थों, आभूषणों तथा मालाओं के सेवन में संलग्न रहा। मन-ही-मन विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी का बारंबार चिन्तन करते हुए श्रृंगार धारण करते समय कीचक को वह थोड़ा-सा समय भी उत्कण्ठावश बहुत बड़ा-सा प्रतीत हुआ। वास्तव में जो सदा के लिये राजलक्ष्मी से वियुक्त होने वाला है, उस कीचक की भी उस समय श्रृंगार आदि धारण करने से श्री (शोभा) बहुत बढ़ गयी थी। ठीक उसी तरह, जैसे बुझने के समय बत्ती को भी जला देने की इच्छा वाले दीपक की प्रभा विशेष बढ़ जाती है। काममोहित कीचक ने द्रौपदी की बात पर पूरा विश्वास कर लिया था; अतः उसके समागम सुख का चिन्तन करते-करते उसे यह भी पता न चला कि दिन कब बीत गया।

   तदनन्तर कल्याणस्वरूपा द्रौपदी पाकशाला में अपने पति कुरुनन्दन भीमसेन के पास गयी। वहाँ सुन्दर लटों वाली कृष्णा ने कहा,

     द्रोपदी बोली ;- ‘शत्रुतापन! जैसा तुमने कहा था, उसके अनुसार मैंने कीचक को नृत्यशाला में मिलने का संकेत कर दिया है। अतः महाबाहो! कीचक रात के समय उस सूनी नृत्यशाला में अकेला आयेगा। तुम वहीं उसे मार डालना। कुन्तीकुमार! पाण्डुनन्दन! तुम नृत्यशाला में जाकर उस मदोन्मत्त सूतपुत्र कीचक को प्राणशून्य कर दो। प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ वीर! वह सूतपुत्र अपनी वीरता के घमंड में आकर गन्धर्वों की अवहेलना करता है; अतः जलाशय से सर्प की भाँति उसे तुम इस जगत् से निकाल फेंको। भारत! तुमहारा कल्याण हो। तुम कीचक को मारकर मुझ दुःख पीड़ित अबला के आँसू पोंछो तथा अपना और अपने कुल का सम्मान बढ़ाओ’।

     भीमसेन बोले ;- वरारोहे! तुम्हारा स्वागत है; क्योंकि तुमने मुझे प्रिय संवाद सुनाया है। सुन्दरी! मैं इस कार्य में दूसरे किसी को सहायक बनाना नहीं चाहता। वरवर्णिनी! कीचक से मिलने के लिये तुमने जो शुभ संवाद दिया है और इसे सुनकर मुझे जितनी प्रसन्नता हुई है, ऐसी प्रसन्नता मुझे हिडिम्बासुर को मारकर प्राप्त हुई थी। मैं सत्य, धर्म और भाइयों को आगे करके-उनकी शपथ खाकर तुमसे कहता हूँ, जैसे देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था, उसी प्रकार में भी कीचक का वध कर डालूँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद)

    एकान्त में या जन-समुदाय में जहाँ भी वह मिलेगा, कीचक को मैं कुचल डालूँगा और यदि मत्स्यदेश के लोग उसकी ओर से युद्ध करेंगे तो उन्हें भी निश्चय ही मार डालूँगा। तदनन्तर दुर्योधन को मारकर समूची पृथ्वी का राज्य ले लूँगा। भले ही कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर यहाँ बैठकर मत्स्यराज की उपासना करते रहें।

    द्रौपदी ने कहा ;- प्रभो! तुम वही करो, जिससे मेरे लिये तुम्हें सत्य का परित्याग न करना पड़े। कुन्तीनन्दन! तुम अपने को गुप्त रखकर ही उस कीचक का संहार करो।

    भीमसेन बोले ;- ठीक है, भीरु! तुम जैसा कहती हो, वही करूँगा। आज मैं उस कीचक को उसके भाई बन्धुओं सहित मार डालूँगा। अनिन्दिते! गजराज जैसे बेल के फल पर पैर रखकर उसे कुचल दे, उसी प्रकार मैं अँधेरी रात में उससे अदृश्य रहकर तुझ जैसी अलभ्य नारी को प्राप्त करने की इच्छा वाले दुरात्मा कीचक के मस्तक को कुचल डालूँगा।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर भीमसेन रात के समय पहले ही जाकर नृत्यशाला में छिपकर बैठ गये और कीचक की इस प्रकार प्रतीक्षा करने लगे, जैसे सिंह अदृश्य रहकर मृग की घात में बैठा रहता है। इधर कीचक भी इच्छानुसार वस्त्राभूषणों से सज-धजकर द्रौपदी के पास समागम की अभिलाषा से उसी समय नृत्यशाला के समीप आया। उस गृह को संकेत स्थान मानकर उसने भीतर प्रवेश किया। वह विशाल भवन सब ओर से अन्धकार से


आच्छन्न हो रहा था। अतुलित पराक्रमी भीमसेन तो वहाँ पहले से ही आकर एकान्त में एक शय्या पर लेटे हुए थे। खोटी बुद्धि वाला सूतपुत्र कीचक वहाँ पहुँच गया और उन्हें हाथ से टटोलने लगा। उस समय भीमसेन कीचक द्वारा द्रौपदी के अपमान के कारण क्रोध से जल रहे थे। उनके पास पहुँचते ही काममोहित कीचक हर्ष से उन्तत्त-चित्त हो मुसकराते हुए बोला,

    कीचक बोला ;- ‘सुभ्रु! मैंने अनेक प्रकार का जो धन संचित किया है, वह सब तुम्हें भेंट कर दिया तथा मेरा जो धन रत्ननादि से सम्पन्न, सैंकड़ों दासी आदि उपकरणों से युक्त, रूपलावण्यवती युवतियों से अलंकृत तथा क्रीड़ा-विलास से सुशोभित गृह एवं अन्तःपुर है, वह सब तुम्हारे लिये ही निछावर करके मैं सहसा तुम्हारे पास चला आया हूँ। मेरे घर की स्त्रियाँ अकस्मात् मेरी प्रशंसा करने लगती हैं और कहती हैं,,- ‘आपके समान सुन्दर वस्त्रधारी और दर्शनीय दूसरा कोई पुरुष नहीं है’।

    भीमसेन बोले ;- सौभाग्य की बात है कि तुम ऐसे दर्शनीय हो और यह भी भाग्य की बात है कि तुम स्वयं ही अपनी प्रशंसा कर रहे हो। परंतु ऐसा कोमल स्पर्श भी तुम्हें पहले कभी नहीं प्राप्त हुआ होगा। स्पर्श को तो तुम खूब पहचानते हो। इस कला में बड़े चतुर हो। कामधर्म के विलक्षण ज्ञाता जान पड़ते हो। इस संसार में स्त्रियो को प्रसन्न करने वाला तुम्हारे सिवा दूसरा कोई पुरुष नहीं है।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! कीचक से ऐसा कहकर भयंकर पराक्रमी कुन्तीपुत्र महाबाहु भीमसेन सहसा उछलकर खड़े हो गये और हँसते हुए इस प्रकार बोले,

भीमसेन बोले ;- ‘अरे! तू पर्वत के समान विशालकाय है, तो भी जैसे सिंह महान् गजराज को घसीटता है, उसी प्रकार आज मैं तुझ पापी हो पृथ्वी पर पटककर घसीटूँगा और तेरी बहिन यह सब देखेगी।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 69-85 का हिन्दी अनुवाद)

      इतने में ही भीम ने दोनों हथेलियों से बलवान् कीचक की छाती पर प्रहार किया। चोट खाकर बलवान् कीचक क्रोध से जल उठा, किंतु अपने स्थल से एक पग भी विचलित नहीं हुआ। भूमि पर खड़े रहकर दो घड़ी तक उस दुःसह वेग को सह लेने के पश्चात् भीमसेन के बल से पीड़ित हो सूतपुत्र कीचक अपनी शक्ति खो बैठा। महाबली भीम उसे निर्बल एवं अचेत होते देख उसकी छाती पर चढ़ बैठे और बड़े वेग से उसे रौंदने लगे। विजयी वीरों में श्रेष्ठ भीमसेन का क्रोधावेश अभी उतरा नहीं था। उन्होंने पुनः बारंबार उच्छवास लेकर कीचक के केश पकड़ लिये। जैसे कच्चे मांस की अभिलाषा रखने वाला सिंह महान् मृग को पकड़ ले, उसी प्रकार महाबली भीम कीचक को पकड़ कर बड़ी शोभा पा रहे थे। तदनन्तर उसे अत्यन्त थका जानकर भीम ने अपनी भुजाओं में इस प्रकार कस लिया, जैसे पशु को रस्सी से बाँध दिया गया हो। अब वह फूटे नगारे के समान विकृत स्वर में जोर-जोर से सिंहनाद करने तथा बन्धन से छूटने के लिये छटपटाने लगा।

    उसकी चेतना लुप्त हो रही थी। उसी दशा में भीमसेन ने बहुत देर तक घुमाया। फिर द्रौपदी का क्रोध शान्त करने के लिये उन्होंने दोनों हाथों से उसका गला पकड़कर बड़े वेग से दबाया। इस प्रकार जब उसके सब अंग भंग हो गये, आँख की पुतलियाँ बाहर निकल आयीं और वस्त्र फट गये, तब उन्होंने उस कीचकाधम की कमर को अपने घुटनों से दबाकर दोनों भुजाओं द्वारा उसका गला घोंट दिया और उसे पशु की तरह मारने लगे। मृत्यु के समय कीचक को विषाद करते देख पाण्डुनन्दन भीम ने उसे धरती पर घसीटा और इस प्रकार कहा,

     भीमसेन बोले ;- ‘जो सैरन्ध्री के लिये कण्टक था, जिसने मेरे भाई की पत्नी का अपहरण करने की चेष्टा की थी, उस दुष्ट कीचक को मारकर आज मैं उऋण हो जाऊँगा और मुझे बड़ी शान्ति मिलेगी। पुरुषों में उत्कृष्ट वीर भीमसेन के नेत्र क्रोध से लाल हो रहे थे। उन्होंने उपयुक्त बातें कहकर कीचक को नीचे डाल दिया।

     उस समय उसके गहने कपड़े इधर-उधर बिखर गये थे। वह छटपटा रहा था। उसकी आँखें ऊपर को चढ़ गयी थीं और उसके प्राण पखेरू निकल रहे थे। बलवानों में श्रेष्ठ भीम अब भी क्रोध में भरे थे। वे हाथ से हाथ मलते हुए दाँतों से ओठ दबाकर पुनः बलपूर्वक कीचक के ऊपर चढ़ गये। तदनन्तर जैसे महादेव जी ने गयासुर के सब अंगों को उसके शरीर के भीतर घुसेड़ दिया था, उसी प्रकार उन्होंने भी कीचक के हाथ, पैर, सिंर और गर्दन आदि सब अंगों को उसके धड़ में ही घुसा दिया। महाबली भीम ने उसका सारा शरीर मथ डाला और उसे मांस का लोंदा बना दिया। इसके बाद उन्होंने द्रौपदी को दिखाया। उस समय महातेजस्वी भीम ने युवतियों में श्रेष्ठ द्रौपदी से कहा! ‘पांचाली! यहाँ आओ और इसे देखो। इस कामी की शक्ल कैसी बना दी है।’ महाराज! भयंकर पराक्रमी भीम ने ऐसा कहकर उस दुरात्मा की लाश को पैर से दबाया।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 86-94 का हिन्दी अनुवाद)

    फिर वहाँ आग जलाकर उन्होंने कीचक का शव दिखाया। उस सूय वीरवर भीम ने पाञ्चाली से यह बात कही,

    भीमसेन बोले ;- ‘सुन्दर केशों वाली भीरु पाञ्चाली! तुम सुशील और सद्गुणों से सम्पन्न हो। जो दुष्ट तुमसे समागम की याचना करेंगे, वे इसी प्रकार मारे जायँगे। जैसे आज कीचक शोभा पाता है, वही दशा उनकी भी होगी’।

     द्रौपदी को प्रिय लगन वाले इस उत्तम एवं दुष्कर कर्म को करके ऊपर बताये अनुसार कीचक को मारकर अपना रोष शान्त करने के पश्चात् द्रौपदी से पूदकर भीमसेन पुनः पाकशाला में चले गये। युवतियों में श्रेष्ठ द्रौपदी इस प्रकार कीचक को मरवाकर बड़ी प्रसन्न हुई। उसके सब संताप दूर हो गये। फिर वह सभा भवन के रक्षकों के पास जाकर बोली,

    द्रोपदी बोली ;- ‘आओ, देखो, ‘परायी स्त्री के प्रति कामोन्मत्त रहने वाला यह कीचक मेरे पति गन्धर्वों द्वारा मारा जाकर वहाँ नृत्यशाला में पड़ा है’।

     उसका यह कथन सुनकर नृत्यशाला के रक्षक सहस्रों की संख्या में हाथों में मशाल लिये सहसा वहाँ आये और उस घर के भीतर जाकर उन्होंने देखा; कीचक को गन्धर्व ने मार गिराया है, उसके प्राण निकल गये हैं और उसकी लाश खून से लथपथ होकर धरती पर पड़ी है। उसे हाथ-पैर से हीन देख उन सबको बड़ी व्यथा हुई।

    फिर वे सभी बडत्रे आश्चर्य में पडत्रकर उसे ध्यान से देखने लगे। कीचक को इस तरह मारा गया देख वे आपस में बोले,

    रक्षक बोले ;- ‘यह कर्म तो किसी मनुष्य का किया हुआ नहीं हो सकता। देखो न, इसकी गर्दन, हाथ, पैर और सिर आदि अंग कहाँ चले गये ?’ यों कहकर जब परीक्षा की, तो वे इसी निश्चय पर पहुँचे कि हो-न-हो, इसे गन्धर्व ने मारा है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में कीचक वध विषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (कीचकवध पर्व)

तेईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“उपकीचकों का सैरन्ध्री को बाँधकर श्मशानभूमि में ले जाना और भीमसेन का उन सबको मारकर सैरन्ध्री को छुड़ाना”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! उसी समय यह समाचार पाकर कीचक के बन्धु-बान्धव वहाँ आ गये। वे कीचक की यह दशा


देख उसे चारों ओर से घेरकर विलाप करने लगे। उसके सारे अवयव शरीर में घुस गये थे, इसलिये वह जल से निकालकर स्थल में रक्खे हुए कछुए के समान जान पड़ता था। कीचक के शव की वह दुर्गति देखकर वे सब थर्रा उठे, उन सबके रोंगटे खड़े हो गये। जैसे इन्द्र ने दानव वृत्रासुर का वध किया था, उसी प्रकार भीमसेन के हाथ से मारे गये उस कीचक का दाह-संस्कार करने की इच्छा से उसके बान्धवगण उसे बाहर (श्मशानभूमि में) ले जने की तैयारी करने लगे।

     इसी समय वहाँ आये हुए सूतपुत्रों ने देखा, निर्दोष अंगों वाली द्रौपदी थोड़ी ही दूर पर एक खंभे का सहारा लिये खड़ी है। जब सब लोग जुट गये, तब उन उपकीचकों (कीचक के भाइयों) ने द्रौपदी को लक्ष्य करके कहा,

     कीचक के भाई बोले ;- ‘इस दुष्ट को शीघ्र मार डाला जाय, क्योंकि इसी के लिये कीचक की जान गयी है।। ‘अथवा मारा न जाय। कामी कीचक की लाश के साथ इसे भी जला दिया जाय। मर जाने पर भी सूतपुत्र का जो पिंय हो; जिससे उसकी आत्मा प्रसन्न हो, वह कार्य हमें सर्वथा करना चाहिये’। 

     तदनन्तर उन्होंने विराट से कहा ;- ‘इस सैरन्ध्री के लिये ही कीचक मारा गया है, अतः आज हम कीचक की लाश के साथ इसे भी जला देना चाहते हैं, आप इसके लिये आज्ञा दें’। राजा ने सूतपुत्रों के पराक्रम का विचार करके सैरन्ध्री को कीचक के साथ जला डालने की अनुमति दे दी। फिर क्या था, उपकीचकों ने उसके पास जाकर भयभीत एवं मूर्च्छित हुई कमललोचना कृष्णा को बलपूर्वक पकड़ लिया।। फिर उन्होंने सुन्दर कटिभाग वाली उस देवी को टिकटी पर चढ़ाकर लाश के साथ बाँध दिया। इसके बाद वे सब लोग मृतक को उठाकर श्मशानभूमि की ओर ले चले। राजन्! सूतपुत्रों द्वारा इस प्रकार ले जायी जाती हुई सती द्रौपदी सनाथा होकर भी (अनाथा सी हो रही थी, वह) नाथ (रक्षक) की इच्छा करती हूई जोर-जोर से पुकारने लगी।

     द्रौपदी बोली ;- मेरे पति जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन ओर जयद्वल जहाँ भी हों, मेरी यह आर्त वाणी सुनें और समझें। ये सूतपुत्र मुझे श्मशान में लिये जा रहे हैं। जिन वेगवान् गन्धर्वों के धनुषों की प्रत्यंचा का भीषण शब्द वज्राघात के समान सुनायी देता है तथा जिनके रथों की घर्घराहट की आवाज भी बड़े जोर से उठती और दूर तक फैलती है, वे मेरी मेरी यह आर्त वाणी सुनें और समझें। ये सूतपुत्र मुझे श्मशान में लिये जा रहे हैं।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! द्रौपदी की वह दीन वाणी और करूण विलाप सुनते ही भीमसेन बिना कोई विचार किये शय्या से कूद पड़े।

    भीमसेन बोले ;- सैरन्ध्री! तुम जो कुछ कह रही हो, तुमहारी वाणी मैं सुनता हूँ। इसीलिये भीरु! अब इन सूतपुत्रों से तेरे लिये कोई भय नहीं है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! ऐसा कहकर महाबाहु भीमसेन ने उपकीचकों को वध करने के लिये अँगड़ाई लेते हुए अपने शरीर को बढ़ा लिया और प्रयत्नपूर्वक वेष बदलकर बिना दरवाजे के ही दीवार फाँदकर पाकशाला से बाहर निकल गये। फिर वे नगर का परकाटा लाँघकर बड़े वेग से एक वृक्ष पर चढ़ गये (और वहीं से यह देखने लगे कि उपकीचक द्रौपदी को किधर ले जा रह हैं)। तत्पश्चात् वे उपकीचक जिधर गये थे, उसी ओर भीमसेन भी श्मशानभूमि की दिशा में चल दिये। चाहरदीवारी लाँघने के पश्चात् उस श्रेष्ठ नगरी से निकलकर भीमसेन इतने वेग से चले कि सूतपुत्रों से पहले ही वहाँ पहुँच गये। राजन्! चिता के समीप जाकर उन्होंने वहाँ ताड़ के बाराबर एक वृक्ष देखा, जिसकी शाखाएँ बहुत बड़ी थीं और जो ऊपर से सूख गया था। उस वृक्ष की ऊँचाई दस व्याम थी।

    उसे शत्रुतापन भीमसेन ने दोनों भुजाओं में भरकर हाथी के समान जोर लगाकर उखाड़ा और अपने कंधे पर रख लिया। शाखा-प्रशाखाओं सहित उस दस व्याम ऊँचे वृक्ष को लेकर बलवान् भीम दण्डपति यमराज के समान उन सूतपुत्रों की ओर दौड़े। उस समय उनकी जंघाओं के वेग से टकराकर बहुतेरे बरगदए पीपल और ढाक के वृक्ष पृथ्वी पर गिरकर ढेर-के-ढेर बिखर गये। सिंह के समान क्रोण में भरे हुए गन्धर्वरूपी भीम को अपनी ओर आते देखकर सभी सुतपुत्र डर गये और विषाद एवं भय से काँपते हुए कहने लगे,

   सूतपुत्र बोले ;- ‘अरे! देखो, यह बलवान् गन्धर्व वृक्ष उठाये कुपित हो हमारी ओर आ रहा है। सैरन्ध्री को शीघ्र छोड़ दो, क्योंकि उसी के कारण हमें यह भय उपस्थित हुआ है’। इतने में ही भीमसेन के द्वारा घुमाये जाते हुए उस वृक्ष को देखकर वे द्रौपदी को वहीं छोड़ नगर की ओर भागन लगे।।

     राजेन्द्र! उन्हें भागते देख वायुपुत्र बलवान् भीम ने, वज्रधारी इन्द्र जैसे दानवों का वध करते हैं, उसी प्रकार उस वृक्षा से एक सौ पाँच उपकीचकों को यमराज के घर भेज दिया। महाराज्! तदनन्तर उन्होंने द्रौपदी को बन्धन से मुक्त करके आश्वासन दिया। उस समय पाञ्चालराजकुमारी द्रौपदी बड़ी दीन एवं दयनीय हो गयी थी। उसके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। दुर्धर्ष वीर महाबाहु वृकोदर ने उसे धीरज बँधाते हुए कहा,

   भीमसेन बोले ;- ‘भीरु! जो तुझ निरपराध अबला को समायेंगे, वे इसी तरह मारे जायँगे। कृष्णे! नगर को जाओ। अब तुम्हारे लिये कोई भय नहीं है। मैं दूसरे मार्ग से विराट की पाकशाला में चला जाऊँगा’।

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- भारत! भीमसेन के द्वारा मारे गये वे एक सौ पाँच उपकीचक वहाँ श्मशानभूमि में इस प्रकार सो रहे थे,


मानो काटा हुआ महान् जंगल गिरे हुए पेड़ों से भरा हो। राजन्! इस पकार वे एक सौ पाँच उपकीचक और पहले मरा हुआ सेनापित कीचक सब मिलकर एक सौ छः सूतपुत्र मारे गये। भारत! उस समय श्मशानभूमि मे बहुत से पुरुष और स्त्रियाँ एकत्र हो गयीं थी। उन सबने यह महान् आश्चर्यजनक काण्ड देखा, किंतु भारी विस्मय में पड़कर किसी ने कुछ कहा नहीं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (कीचकवध पर्व)

चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रौपदी का राजमहल में लौटकर आना और बृहन्नला एवं सुदेष्णा से उसकी बातचीत”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! नगरवासियों ने सूतपुत्रों का यह संहार देख राजा विराट के पास जाकर निवेदन किया,
     नगरवासी बोले ;- महाराज! गनधर्वों ने महाबली सूतपुत्रो को मार डाला। ‘जैसे पर्वत का महान् शिखर वज्र से विदीर्ण हो गया हो, उसी प्रकार वे सूतपुत्र पृथ्वी पर बिखरे दिखायी देते हैं। ‘सैरन्ध्री बन्धनमुक्त हो गयी है, अब वह पुनः आपके महल की ओर आ रही हे। उसके रहने से आपके सम्पूर्ण नगर का जीवन संकट में पड़ जायगा। ‘सैरन्ध्री का जैसा अप्रतिम रूप सौन्दर्य है, वह सबको विदित ही है। उसके पति गन्धर्व भी बड़े बलवान हैं। पुरुषों को मैथुन के लिये विषयभोग अभीष्ट है ही; इसमें संशय नहीं है। ‘अतः राजन्! आप शीघ्र ही कोई ऐसी नीति अपनावें, जिससें सैरन्ध्री के दोष से आपका यह नगर नष्ट न हो जाय।’।
  उनकी बात सुनकर सेनाओं के स्वामी राजा विराट ने कहा,
    राजा विराट बोले ;- ‘इन सूतपुत्रों का अन्त्येष्टि संस्कार किया जाय। ‘एक ही चिता में अग्नि प्रज्वलित करके रत्न और सुगन्धित पदार्थों के साथ सम्पूर्ण कीचकों का दाह करना चाहिये’। तदनन्तर राजा ने भयभीत होकर रानी सुदेष्णा के पास जाकर कहा,
   विराट बोले ;- ‘देवि! जब सैरन्ध्री यहाँ आ जाय, तो मेरी ही ओर से उससे यों कहो,- ‘सैरन्ध्री! तुम्हारा कल्याण हो। वरानने! तुम्हारी जहाँ रुचि हो, चली जाओ। सुश्रोणि! गन्धर्वों के तिरस्कार से राजा डरते हैं। ‘तुम गन्धर्वों से सुरक्षित हो। मैं पुरुष होने के कारण स्वयं तुमसे कोई बात नहीं कह सकता। किंतु स्त्री के मुख से तुम्हारे प्रति यह सब कहलाने में दोष नहीं है; अतः अपनी पत्नी के द्वारा स्वयं ही तुमसे यह बात कह रहा हूँ’।
     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! जब सूतपुत्रों को मारकर भीमसेन ने द्रौपदी का बन्धन खोल दिया और वह भय से मुक्त हो गयी, तब जल से स्नान करके अपने शरीर और वस्त्रों को धोकर सिंह से डरायी हुई हरिणी की भाँति वह मनस्विनी बाला नगर की ओर चली। जनमेजय! उस समय द्रौपदी को देखकर गन्धर्वों के भय से डरे हुए पुरुष दसों दिशाओं की ओर भाग जाते थे और कोई-कोई उसे देखकर आँख मूँद लेते थे। तदनन्तर पाकशाला के द्वार पर पहुँचकर पाञ्चाली ने वहाँ मतवाले गजराज के समान भीमसेन को खड़ा देखा। और विस्मय विमुग्ध होकर उसने धीरे से संकेतपूर्वक इस प्रकार कहा,
   द्रौपदी बोली ;- ‘ उन गन्धर्वों को नमस्कार है, जिनहोंने मुझे भारी संकअ से मुक्त किया है’।

      भीमसेन बोले ;- देवि! जो पुरुष तुम्हारी आज्ञा के अधीन होकर यहाँ पहले से विचर रहे हैं, वे तुम्हारी यह बात सुनकर प्रतिज्ञा से उऋण हो इच्छानुसार विहार करें। 
     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! तत्पश्चात् द्रौपदी ने नृत्यशाला में पहुँचकर महाबाहु अर्जुन को देखा, जो राजा विराट की कन्याओं को नृत्य सिखा रहे थे। उसके आने का समाचार पाकर अर्जुन सहित वे सब कन्याएँ नृत्यशाला से बाहर निकल आयीं और वहाँ आती हुई निरपराध सतायी गयी कृष्णा को देखने लगीं।

(महाभारत (विराट पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद)

     उसे देखकर कन्याओं ने कहा ;- सैरन्ध्री! सौभाग्य की बात है कि तुम संकट से मुक्त हो गयी और सौभाग्य से यहाँ पुनः लौट आयीं। वे सूतपुत्र जो तुम्हें बिना किसी अपराध के ही कष्ट दे रहे थे, मार दिये गये, यह भी भाग्यवश अक्ष्च्छा ही हुआ। 
   बृहन्नला ने पूछा ;- सैरन्ध्री! तू उन पापियो के हाथ से कैसे छूटी ? ओर वे पापी कैसे मारे गये ? मैं ये सब बातें तेरे मुख से ज्यों-की-त्यों सुनना चाहती हूँ। 
    सैरन्ध्री बोली ;- बृहन्नले! अब तुम्हें सैरन्ध्री से क्या काम है ?

कल्याणी! तुम तो मौज से इन कन्याओं के अन्तःपुर में रहती हो। सैरन्ध्री जो दुःख भोग रही है, उसे दूर तो करोगी नहीं या उसका अनुभव तो तुम्हें होगा नहीं ; इसीलिये मुण् दुखिया की हँसी उड़ाने के लिये ऐसा प्रश्न कर रही हो ?
 


    बृहन्नला ने कहा ;- कल्याणी! पशुओं की सी नीच या नपुसक योनि में पड़कर बृहन्नला भी महान् दुःख भोग रही है, तू अभी भोली-भाली है; इसीलिये बृहन्नला को नहीं समझ पाती। सुश्रोणि! तेरे साथ तो मैं रह चुकी हूँ और तू भी हम सबके साथ रही है; फिर तेरे ऊपर कष्ट पडत्रने पर किसको दुःख न होगा ? निश्चय ही, कोई अन्य व्यक्ति किसी दूसरे के हृदय को कभी पूर्णरूप से नहीं समझ सकता, यही कारण है कि तुम मुझे नहीं समझ पाती; मेरे कष्ट का अनुभव नहीं कर पातीं।
     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर उन कन्याओं के साथ ही द्रौपदी राजभवन में गयी और रानी सुदेष्णा के पास जाकर खड़ी हो गयी। तब राजपुत्री सुदेष्णा ने विराट कथनानुसार उससे कहा,
   सुदेष्णा ने कहा ;- ‘सैरन्ध्री! तुम जहाँ जाना चाहो, शीघ्र चली जाओ।‘भद्रे! तुम्हारे गन्धर्वों द्वारा प्राप्त होने वाले पराभाव से महाराज को भय हो रहा है। सुभ्रु! तुम अभी तरुणी हो, रूपसौन्दर्य में भी तुम्हारी समानता कर सके, ऐसी कोई स्त्री इस भूमण्डल में नहीं है। पुरुषों को विषयभोग प्रिय होता ही है; (अतः उनसे प्रमाद होने की सम्भावना है।) इधर तुम्हारे गन्धर्व बड़े क्रोधी हैं ( वे न जाने कब क्या कर बैठें ?)’।
    सैरन्ध्री ने कहा ;- भामिनी! मेरे लिये तेरह दिन और महाराज क्षमा करें। निःसंदेह तब तक गन्धर्वों का अभीष्ट कार्य पूर्ण हो जायगा- वे कृतकृत्य हो जायँगे। इसके बाद वे मुझे तो ले ही जायेंगे, आपका भी प्रिय करेंगे। (गन्धर्वों की प्रसन्नता) अवश्य ही राजा विराट अपने भाई-बन्धुओं सहित कल्याण के भागी होंगे। शुभे! राजा विराट ने गन्धर्वों का बड़ा उपकार किया है; अतः वे सदा उनके प्रति कृतज्ञ बने रहते हैं। गन्धर्वलोग बल के अभिमानी होते हुए भी साधु स्वभाव के पुरुष हैं और अपने प्रति किये हुए उपकार का बदला चुकाने की इच्छा रखते हैं। मैं ऐ प्रयोजन से यहाँ रहती हूँ; इसीलिये तुमसे अभी कुछ दिन और यहाँ ठहरने देने के लिये अनुरोध करती हूँ। तुम अपने मन में जो कुछ भी सोच-विचारकर करो, किंतु कुछ गिने गिनाये दिनों तक अभी और मेरा भरण-पोषण करती चलो; इससे तुम्हारा कल्याण होगा।।
      वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! सैरन्ध्री की यह बात सुनकर केकयराजकुमारी सुदेष्णा भाई के शोक से पीड़ित और दुःख से मोहित हो आर्त होकर द्रौपदी से बोली,
    सुदेष्णा बोली ;- ‘भद्रे! तुम्हारी जब तक इच्छा हो, यहाँ रहो; परंतु मेरे पति और पुत्रों की विशेषरूप से रक्षा करो। इसके लिये मैं तुम्हारी शरण में आयी हूँ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में कीचकों के दाह संसकार विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

पच्चीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पन्चविंश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन के पास उसके गुप्तचरों का आना और उनका पाण्डवों के विषय में कुछ पता न लगा, यह बताकर कीचकवध का वृत्तान्त सुनाना”

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! कीचक के मारे जाने पर शत्रुवीरों का वध करने वाले राजा विराट पुरोहित और मन्त्रियों सहित बहुत दुखी हुए।। नरेश्वर! भाइयों सहित कीचक का वध होने से सब लोग इसको बड़ी भारी दुर्घटना या दुःसाहस का काम मानकर अलग-अलग आश्चर्य में पड़े रहे। उस नगर तथा राष्ट्र में झुंड के झुंड मनुष्य एकत्र हो जाते और उनमें इस तरह की बातें होने लगती थीं,- ‘महाबली कीचक अपनी शूरवीरता के कारण राजा विराट को बहुत प्रिय था। ‘उसने विपक्षी दलों की बहुत-सी सेनाओं का संहार किया था, किंतु उसकी बुद्धि बड़ी खोटी थी। व परायी स्त्रियों पर बलात्कार करने वाला पापात्मा और दुष्ट था; इसीलिये गन्धर्वों द्वारा मारा गया। 
       जनमेजय! शत्रुओं की सेना का संहार करने वाले दुर्धर्ष वीर कीचक के बारे में देश-विदेश के लोग ऐसी ही बातें किया करते थे। इधर अज्ञातवास की अवस्था में पाण्डवों का पता लगाने के लिये दुर्योधन ने जो बाहर के देशों में घूमने वाले गुप्तचर लगा रक्खे थे, वे अनेक ग्राम, राष्ट्र और नगरों में उन्हें ढूंढकर, जैसा वे देख सकते थे पता लगा सकते थे अथवा जिन जिन देशों में छा-बीन कर सकते थे, उन सबमें उसी प्रकार देखभाल करके अपना काम पूरा करके पुनः हस्तिनापुर में लौट आये। वहाँ वे धृतराष्ट्र कुरुनन्दन दुर्योधन से मिले, जो द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य, महात्मा भीष्म अपने सम्पूर्ण भाई तथा महारथी त्रिगर्तों के साथ राजसभा में बैठा था। उससे मिलकर उन गुप्तचरों ने यों कहा।
     गुप्तचर बोले ;- नरेन्द्र! हमने उस विशाल वन में पाण्डवों की खोज के लिये महान् प्रयत्न जारी रक्खा है। मृगों से भरे हुए निर्जन वन में, जो अनेकानेक वृक्षों और लताओं से व्याप्त, विविध लताओं की बहुलता एवं विसतार से विलसित तथा नाना गुल्मों से समावृत है, घूमकर वहाँ के विभिन्न स्थानों में अनेक प्रकार से उनके पदचिह्न हम ढूंढते रहे हैं तथापि वे सुदृढ़ पराक्रमी कुन्तीकुमार किस मार्ग से कहाँ गये ? यह नहीं जान सके। महाराज! हमने पर्वतों के ऊँचे-ऊँचे शिखरों पर, भिनन-भिन्न देशों में, जनसमूह से भ्सरे हुए स्थानों में तथा तराई के गाँवों, बाजारों और नगरों में भी उनकी बहुत खोज की, परंतु कहीं भी पाण्डवों का पता नहीं लगा।
     नरश्रेष्ठ! आपका कल्याण हो। सम्भव है, वे सर्वथा नष्ट हो गये हों। रथियों में श्रेष्ठ नरोत्तम! हमने रथियों के मार्ग पर भी उनका अन्वेषण किया है, किंतु वे कहाँ गये और कहाँ रहते हैं ? इसका पता हमें नहीं लगा। मानवेन्द्र! कुछ काल तक हम लोग सारथियों के पीछे लगे रहे और अच्छी तरह खोज करके हमने एक यथार्थ बात का ठीक-ठीक पता लगा लिया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पन्चविंश अध्याय के श्लोक 16-22 का हिन्दी अनुवाद)

    शत्रओं को संताप देने वाले राजेश्वर! पाण्डवों के इन्द्रसेन आदि सारथि उनके बिना ही द्वारका पहुँच गये हैं वहाँ न तो द्रौपदी है और न महान् व्रतधारी पाण्डव ही हैं।। जान पड़ता है; वे बिल्कुल नष्ट हो गये। भरेतश्रेष्ठ! आपको नमसकार है। हम महात्मा पाण्डवों के मार्ग, निवास-स्थान, प्रवृत्ति अथवा उनके द्वारा किये गये कार्य के विषय में कुछ भी जानकारी प्रापत नहीं कर सके। प्रजापालक नरेश! इसके बाद हमारे लिये क्या आज्ञा है ? बताइये, पाण्डवों को ढूंढने के लिये हम पुनः क्या करें ?
     वीर! हमारी एक बात और सुलिये? यह आपको प्रिय लगेगी। इसमें आपके लिये मंगलजनक समाचार है। राजन्! मत्स्यराज विराट के जिस महाबली सेनापति सूतपुत्र कीचक ने बहुत बड़ी सेना के द्वारा त्रिगर्तदेश और वहाँ के निवासियों को तहस-नहस कर दिया था, भारत! गन्धर्वों ने उस दुष्टात्मा को उसके सहोदर भाइयों सहित रात्रि में गुप्तरूप से मार डाला है। अब वह श्मशानभूमि में पड़ा सो रहा है।
     उदारचित कीचक राजा विराट का साला और सेनापति था। रानी सुदेष्णा का वह बड़ा भाई लगता था। कीचक शूरवीर, व्यथारहित, उत्साही, महापराक्रमी, नीतिमान्, बलवान्, युद्ध की कला को जानने वाला, शत्रुवीरों का संहार करने में समर्थ, सिंह के समान पराक्रम सम्पन्न, प्रजारक्षण में कुशल, शत्रुओं को काबू में लाने की शक्ति रखने वाला, बड़े-बडत्रे युद्धों में बैरियों पर विजय पाने वाला, अत्यन्त क्रोधी, अमानी, नर-नारियों के मन को आह्लादित करने वाला, रणप्रिय धीर और बोलने में चतुर था।
      नरेश्वर! वह अमर्षशील दुष्टात्मा कीचक एक स्त्री के कारण गन्धर्वों द्वारा आधी रात में अपने भाइयों सहित मार डाला गया है। उसके प्रिय सुहृद और श्रेष्ठ सैनिक भी मारे गये हैं। कुरुनन्दन! शत्रुओं के पराभाव का प्रिय संवाद सुनकर आप कृतकृत्य हों और इसके बाद जो कुछ करना हो, वह करें।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में गुप्तचरों के लौटकर आने से सम्बन्ध रखने वाला पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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