सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के दौ सौ इक्यावनवें अध्याय से दौ सौ पचपनवें अध्याय तक (From the 251 to the 255 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

दौ सौ इक्यावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"शकुनि के समझाने पर भी दुर्योधन को प्रायोपवेशन से विचलित होते न देखकर दैत्‍यों का कृत्‍या द्वारा उसे रसातल में बुलाना"

    वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्‍तर अमर्ष में भरकर आमरण उपवास के लिये बैठे हुए राजा दुर्योधन को सान्‍त्‍वना देते हुए सुबलपुत्र शकुनि ने कहा। 

     शकुनि बोला ;- कुरुनन्‍दन! कर्ण ने बहुत अच्‍छी बात कही है, जो तुमने सुनी ही है। मैंने पाण्‍डवों से तुम्‍हारे लिये जिस समृद्धिशालिनी राजलक्ष्‍मी का अपहरण किया है, तुम उसे मोहवश क्‍यों त्‍याग रहे हो? नरेश्‍वर! तुम अपनी अल्‍पबुद्धि के कारण ही आज प्राण-त्‍याग करने को उतारू हो गये हो अथवा मैं समझता हूँ कि तुमने कभी वृद्ध पुरुषों का सेवन नहीं किया है। जो मनुष्‍य सहसा उत्‍पन्‍न हुई हर्ष अथवा शोक पर नियन्‍त्रण नहीं रखता, वह राजलक्ष्‍मी को पाकर भी उसी प्रकार नष्‍ट हो जाता है; जैसे मिट्टी का कच्‍चा बर्तन पानी में गल जाता है। जो राजा अत्‍यन्‍त डरपोक, बहुत कायर, दीर्घसूत्री (आलसी), प्रमादी और दुर्व्‍यसनवश विषयों में फंसा होता है, उसे प्रजा अपना स्‍वामी नहीं स्‍वीकार करती है।

    पाण्‍डवों ने तुम्‍हारा सत्‍कार किया है, तो तुम्‍हें शोक हो रहा है। इसके विपरीत यदि उन्‍होंने तिरस्‍कार किया होता, तो न जाने तुम्‍हारी कैसी दशा हो जाती? उसे तुम शोक का आश्रय लेकर नष्‍ट न कर दो। राजेन्‍द्र! जहाँ तुम्‍हें हर्ष मनाना और पाण्‍डवों का सत्‍कार करना चाहिये था, वहाँ तुम शोक कर रहे हो। तुम्‍हारा यह व्‍यवहार तो उल्‍टा ही है। अत: मन में प्रसन्नता लाओ, शरीर का त्‍याग ना करो। पाण्‍डवों ने तुम्‍हारे साथ जो सद्व्‍यवहार किया है, उसे स्‍मरण करो और सन्‍तुष्‍ट होकर उनका राज्‍य उन्‍हें लौटा दो। ऐसा करके यश और धर्म के भागी बनो। मेरे इस प्रस्‍ताव को समझकर ऐसा ही करो। इससे तुम कृतज्ञ माने जाओगे। पाण्‍डवों के साथ उत्‍तम भाईचारे का बर्ताव करके उन्‍हें राज्‍य सिंहासन पर बिठा दो और उनका पैतृक राज्‍य उन्‍हें समर्पित कर दो। इससे तुम्‍हें सुख प्राप्‍त होगा।'

    वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! शकुनि का यह वचन सुनकर दुर्योधन ने अपने चरणों में पड़े हुए म्‍लान मुख वाले भ्रातृभक्‍त शत्रुदमन वीर दु:शासन की ओर देखकर अपनी सुन्‍दर बाहों द्वारा उसे उठाया और प्रेमपूर्वक हृदय से लगाकर मस्‍तक सूंघा। कर्ण और शकुनि की भी बातें सुनकर राजा दुर्योधन अत्‍यन्‍त उदास हो गया तथा मन-ही-मन लज्‍जा से अभिभूत हो उसने बड़ी निराशा का अनुभव किया। सब सुहृदों के वचन सुनकर दुर्योधन ने उनसे कुपित हो इस प्रकार कहा,

   दुर्योधन बोला ;- ‘मुझे धर्म, धन, सुख, ऐश्‍वर्य, शासन और भोग किसी की भी आवश्‍यकता नहीं है। तुम लोग मेरे निश्‍चय में बाधा न डालो। यहाँ से चले जाओ। आमरण अनशन करने के सम्‍बन्‍ध में मेरी बुद्धि का निश्‍चय अटल है। तुम सब लोग नगर को जाओ और वहाँ मेरे गुरुजनों का सदा आदर सत्‍कार करो’।

ऐसा उत्‍तर पाकर सब सुहृदों ने शत्रुदमन राजा दुर्योधन से कहा,

   सब सुहृद बोले ;- ‘राजेन्‍द्र! तुम्‍हारी जो गति होगी, वही हमारी भी होगी। भारत! हम तुम्‍हारे बिना हस्तिनापुर में कैसे प्रवेश करेंगे?’

    वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! दुर्योधन को उसके सुहृद्, मन्‍त्री, भाई तथा स्‍वजनों ने बहुतेरा समझाया, परंतु कोई भी उसे अपने निश्‍चय से विचलित न कर सका।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 19-30 का हिन्दी अनुवाद)

    धृतराष्‍ट्रपुत्र नृपश्रेष्‍ठ दुर्योधन अपने निश्‍चय पर अटल रहकर आचमन करके पवित्र हो पृथ्‍वी पर कुश का आसन बिछा कुश और


वल्‍कल के वस्‍त्र धारण करके बैठा और स्‍वर्ग प्राप्ति की इच्‍छा से वाणी का संयम करके उपवास के उत्‍तम नियमों का पालन करने लगा। उस समय उसने मन के द्वारा मरने का ही निश्‍चय करके स्नान-भोजन आदि बाह्य क्रियाओं को सर्वथा त्‍याग दिया था।

    दुर्योधन के इस निश्‍चय को जानकर पातालवासी भयंकर दैत्‍यों और दानवों ने, जो पूर्वकाल में देवताओं से पराजित हो चुके थे, मन-ही-मन विचार किया कि इस प्रकार दुर्योधन का प्रणान्‍त होने से तो हमारा पक्ष ही नष्‍ट हो जायेगा; अत: उसे अपने पास बुलाने के लिये मन्‍त्रविद्या में निपुण दैत्‍यों ने उस समय बृहस्‍पति और शुक्राचार्य के द्वारा वर्णित तथा अथर्ववेद में प्रतिपादित मन्‍त्रों द्वारा अग्निविस्‍तारसाध्‍य यज्ञ-कर्म का अनुष्‍ठान आरम्‍भ किया और उपनिषद् (आरण्‍यक) में जो मन्‍त्र जप से युक्‍त हवनादि क्रियाएं बतायी गयी हैं, उनका भी सम्‍पादन किया। तब दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले, वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मण एकाग्रचित्‍त हो मन्‍त्रोंच्‍चारणपूर्वक प्रज्‍वलित अग्नि में घृत और खीर की आहुति देने लगे।

    राजन्! कर्म की सिद्धि होने पर वहाँ यज्ञकुण्‍ड से उस समय एक अत्‍यन्‍त अद्भुत कृत्‍या जंभाई लेती हुई प्रकट हुई और बोली,

  कृत्या बोली ;- ‘मैं क्‍या करूं?’ तब दैत्‍यों ने प्रसन्नचित्‍त होकर उससे कहा,

  दैत्य बोला ;- ‘तू प्रायोपवेशन करते हुए धृतराष्‍ट्रपुत्र राजा दुर्योधन को यहाँ ले आ’।

     ‘जो आज्ञा' कहकर वह कृत्‍या तत्‍काल वहां से प्रस्थित हुई और पलक मारते-मारते जहाँ राजा दुर्योधन था, वहाँ पहुँच गयी। फिर राजा को साथ ले दो ही घड़ी में रसातल आ पहुँची और दानवों को उसके लाये जाने की सूचना दे दी। राजा दुर्योधन को लाया देख सब दानव रात में एकत्र हुए। उनके मन में प्रसन्नता भरी थी और नेत्र हर्षतिरेक से कुछ खिल उठे थे। उन्‍होंने दुर्योधन से अभिमानपूर्वक यह बात कही।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत घोषयात्रापर्व में दुर्योधन प्रायोपवेशन विषयक दो सौ इक्‍यावनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

दौ सौ बावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"दानवों का दुर्योधन को समझाना और कर्ण के अनुरोध करने पर दुर्योधन का अनशन त्‍याग करके हस्तिनापुर को प्रस्‍थान"

   दानव बोले ;- भरतवंश का भार वहन करने वाले महाराज सुयोधन! आप सदा शूरवीरों तथा महामना पुरुषों से घिरे रहते हैं, फिर आपने यह आमरण उपवास करने का साहस क्‍यों किया है? आत्‍महत्‍या करने वाला पुरुष तो अधोगति को प्राप्‍त होता है और लोक में उसकी निन्‍दा होती है, जो अयश फैलाने वाली है। जो अभीष्‍ट कार्यों के विरुद्ध पड़ते हों, जिनमें बहुत पाप भरे हों तथा जो जड़-मूल सहित अपना विनाश करने-वाले हों, ऐसे आत्‍महत्‍या आदि अशुभ कर्मों में आप-जैसे बुद्धिमान पुरुष नहीं प्रवृत्‍त होते हैं। राजन्! आपका यह आत्‍महत्‍या सम्‍बन्‍धी विचार धर्म, अर्थ तथा सुख, यश, प्रताप और पराक्रम का नाश करने वाला तथा शत्रुओं का हर्ष बढ़ाने वाला है, अत: इसे रोकिये।

    प्रभो! एक रहस्‍य की बात सुनिये। नरेश्‍वर आपका स्‍वरूप दिव्‍य है तथा आपके शरीर का निर्माण भी अद्भुत प्रकार से हुआ है। यह हम


लोगों से सुनकर धैर्य धारण कीजिये। राजन्! पूर्वकाल में हम लोगों ने तपस्‍या द्वारा भगवान् शंकर की आराधना करके आपको प्राप्‍त किया था। आपके शरीर का पूर्वभाग-जो नाभि से ऊपर है, वज्र समूह से बना हुआ है। वह किसी भी अस्‍त्र-शस्‍त्र से विदीर्ण नहीं हो सकता। अनघ! उसी प्रकार आपका नाभि से नीचे का शरीर पार्वती देवी ने पुष्‍पमय बनाया है, जो अपने रूप सौन्‍दर्य से स्त्रियों के मन को मोहने वाला है। नृपश्रेष्‍ठ! इस प्रकार आपका शरीर देवी पार्वती के साथ साक्षात् भगवान् महेश्‍वर ने संघटित किया है। अत: राजसिंह! आप मनुष्‍य नहीं, दिव्‍य पुरुष हैं। भगदत्‍त आदि महापराक्रमी क्षत्रिय दिव्‍यास्‍त्रों के ज्ञाता तथा शौर्य सम्‍पन्न हैं। वे आपके शत्रुओं का संहार करेंगे। अत: आपको शोक करने की आवश्यता नहीं है। आपको कोई भय नहीं है।

   आपकी सहायता के लिये बहुत-से वीर दानव भूतल पर प्रकट हो चुके हैं। दूसरे भी अनेक असुर भीष्म, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य आदि के शरीरों में प्रवेश करेंगे, जिनसे अविष्‍ट होकर वे लोग दया को त्‍यागकर आपके शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। कुरुश्रेष्‍ठ! दानवों का आवेश होने पर भीष्‍म, द्रोण आदि की अन्‍तरात्‍मा पर भी उन दानवों का अधिकार हो जायेगा। उस दशा में युद्ध में स्‍नेहरहित हो प्रहार करते हुए वे लोग पुत्रों, भइयों, पितृजनों, बान्‍धवों, शिष्‍यों, कुटुम्‍बीजनों, बालकों तथा बूढ़ों को भी नहीं छोड़ेंगे। वे पुरुषसिंह भीष्‍म आदि वीर (दानवों के आवेश के कारण) विवश होकर अज्ञान से मोहित हो जायेंगे। उनके मन में मलिनता आ जायेगी और वे स्‍नेह को दूर छोड़कर प्रसन्‍नतापूर्वक अस्‍त्र-शस्‍त्रों द्वारा प्रहार करेंगे। इसमें विधिनिर्मित होनहार ही कारण है। एक-दूसरे के विरुद्ध भाषण करते हुए वे सब योद्धा कहेंगे- ‘आज तू मेरे हाथों से जीवित नहीं बच सकता।’

    कुरुश्रेष्‍ठ! इस प्रकार सभी अस्‍त्र-शस्‍त्रों की वर्षा करते हुए पराक्रम पर डटे रहेंगे और परस्‍पर होड़ लगाकर जनसंहार करेंगे। वे दैवप्रेरित महाबली महात्‍मा पांचों पाण्‍डव भी इन भीष्‍म आदि का सामना करते हुए इनका वध करेंगे। राजन्! दैत्‍यों तथा राक्षसों के समुदाय क्षत्रिय योनि में उत्‍पन्न हुए हैं, जो आपके शत्रुओं के साथ पराक्रमपूर्वक युद्ध करेंगे। वे महाबली वीर दैत्‍य आपके शत्रुओं पर गदा, मूसल, शूल तथा अन्‍य छोटे-बडे़ अस्‍त्र-शस्‍त्रों द्वारा प्रहार करेंगे। वीर! आपके भीतर जो अर्जुन का भय समाया हुआ है, वह भी निकाल देना चाहिये; क्‍योंकि हम लोगों ने अर्जुन के वध का उपाय भी कर लिया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)

     श्रीकृष्‍ण के हाथों जो नरकासुर मारा गया है, उसकी आत्‍मा कर्ण के शरीर में घुस गयी है। वीरवर! वह (नरकासुर) उस वैर को याद करके श्रीकृष्‍ण और अर्जुन से युद्ध करेगा। महारथी कर्ण योद्धाओं में श्रेष्‍ठ और अपने पराक्रम पर गर्व रखने वाला है। वह रणभूमि में अर्जुन तथा आपके अन्‍य सब शत्रुओं पर अवश्‍य विजयी होगा। इस बात को समझकर वज्रधारी इन्द्र अर्जुन की रक्षा के लिये छल करके कर्ण के कुण्‍डल और कवच का अपहरण कर लेंगे। इसलिये हम लोगों ने भी एक लाख दैत्‍यों तथा राक्षसों को इस काम में लगा रक्‍खा है, जो संशप्‍तक नाम से विख्‍यात हैं। वे वीर अर्जुन को मार डालेंगे। अत: आप शोक न करें। नरेश्‍वर! आपको इस पृथ्‍वी का निष्‍कंटक राज्‍य भोगना है। अत: कुरुनन्‍दन! आप विषाद न करें। यह आपको शोभा नहीं देता है। आपके नष्‍ट हो जाने पर हमारे पक्ष का ही नाश हो जायेगा। वीरवर! जाइये। अब आपको किसी तरह भी अन्‍यथा विचार नहीं करना चाहिए। देखिये, देवताओं ने पाण्डवों का आश्रय ले रक्‍खा है; परंतु हमारी गति तो सदा आप ही हैं।

   वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! दुर्घर्ष वीर नृप-‍शिरोमणि दुर्योधन से ऐसा कहकर दैत्‍यों तथा दानवेश्वरों ने उसे पुत्र की भाँति हृदय से लगाया और आश्‍वासन देकर उसकी बुद्धि को स्थिर किया। भारत! तत्‍पश्रात् प्रिय वचन बोलकर उन्‍होंने दुर्योधन को जाने के लिये आज्ञा देते हुए कहा,,

    दैत्य बोला ;- ‘अब आप जाइये और शत्रुओं पर विजय प्राप्‍त कीजिये’। दैत्‍यों के विदा करने पर उसी कृत्‍या ने महाबाहु दुर्योधन को पुन: उसी स्‍थान पर पहुँचा दिया, जहाँ वह पहले आमरण उपवास के लिये बैठा था। वीर राजा दुर्योधन को वहाँ रखकर कृत्‍या ने उसके प्रति सम्‍मान प्रदर्शित किया और उससे आज्ञा लेकर जैसे आयी थी, वैसे ही अदृश्‍य हो गयी। भारत! कृत्‍या के चले जाने पर राजा दुर्योधन ने इन सारी बातों को स्‍वप्‍न समझा। दैत्‍यों के कहे हुए वचनों पर विचार करके दुर्बुद्धि दुर्योधन के मन में यह संकल्‍प उदित हुआ कि,- ‘मैं युद्ध में पाण्‍डवों को जीत लूंगा’। दुर्योधन ने यह मान लिया कि संशप्‍तकगण तथा कर्ण ये शत्रुघाती अर्जुन के वध में लगे हुए हैं और इसके लिये वे समर्थ हैं।

    जनमेजय! इस प्रकार उस खोटी बुद्धि वाले धृतराष्‍ट-पुत्र के मन में पाण्‍डवों पर विजय पाने की दृढ़ आशा हो गयी। इधर कर्ण भी नरकासुर की अन्‍तरात्‍मा से आविष्‍टचित्त होने के कारण अर्जुन का वध करने के लिये क्रूरतापूर्ण संकल्‍प करने लगा। इसी प्रकार राक्षसों से आविष्‍टचित्त होकर वे संशप्‍तक वीर भी रजोगुण और तमोगुण से आक्रान्‍त हो अर्जुन को मार डालने की इच्‍छा रखने लगे। राजन्! भीष्‍म्, द्रोण और कृपाचार्य आदिके मन पर भी दानवों ने अधिकार कर लिया था। अत: पाण्‍डवों के प्रति उनका भी वैसा स्‍नेह नहीं रह गया। दानवों ने रात में कृत्‍या द्वारा अपने यहाँ बुलाकर जो बातें कही थीं, उन्‍हें राजा दुर्योधन ने किसी पर भी प्रकट नहीं किया। वह रात बीतने पर सूर्यपुत्र कर्ण ने आकर राजा दुर्योधन से हाथ जोड़ मुसकराते हुए यह युक्तियुक्‍त वचन कहा,

   कर्ण बोला ;- ‘कुरुनन्‍दन! मरा हुआ मनुष्‍य कभी शत्रुओं पर विजय नहीं पाता। जो जीवित रहता है, वह कभी सुख के दिन भी देखता है। मरे हुए को कहाँ सुख और कहाँ विजय। यह समय शोक मनाने, भयभीत होने अथवा मरने का नहीं है’।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 41-52 का हिन्दी अनुवाद)

    यह कहकर महाबाहु कर्ण ने दोनों भुजाओें से खींचकर दुर्योधन को हृदय से लगा लिया और कहा,

   कर्ण बोला ;- 'शत्रुघाती नरेश! उठो, क्‍यों सो रहे हो? किसलिये शोक करते हो? अपने पराक्रम से शत्रुओं को संतप्‍त करके अब मृत्‍यु की इच्‍छा क्‍यों करते हो? अथवा यदि तुम्‍हें अर्जुन का पराक्रम देखकर भय हो गया हो, तो मैं तुमसे सच्‍ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि मैं युद्ध में अर्जुन को अवश्‍य मार डालूंगा। महाराज! मैं धनुष छूकर सच्चाई के साथ यह शपथ ग्रहण करता हूँ कि तेरहवां वर्ष व्‍यतीत होते ही पाण्‍डवों को तुम्‍हारे वश में ला दूंगा’।

     कर्ण के ऐसा कहने पर और इन दु:शासन आदि भाइयों के प्रणामपूर्वक अनुनय-विनय करने पर दैत्‍यों के वचनों का स्‍मरण करके दुर्योधन अपने आसन से उठ खड़ा हुआ। दैत्‍यों के पूर्वोक्‍त कथनों को याद करके नरश्रेष्‍ठ दुर्योधन ने पाण्‍डवों से युद्ध करने का पक्‍का विचार कर लिया और पैदल सैनिकों से युक्‍त अपनी चतुरंगिणी सेना को तैयार होने की आज्ञा दी।

     राजन्! वह विशालवाहिनी गंगा के प्रवाह के समान चलने लगी। श्‍वेत छत्र, पताका, शुभ्र चंवर, रथ, हाथी और पैदल योद्धाओं से भरी हुई वह कौरव सेना शरत् काल में कुछ-कुछ व्‍यक्‍त शारदीय सुषमा से सुशोभित आकाश की भाँति शोभा पा रही थी। धृतराष्‍ट्रपुत्र राजा दुर्योधन सम्राट् की भाँति श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों के मुख से विजयसूचक आशीर्वादों के साथ अपनी स्‍तुति सुनता तथा लोगों की प्रणामाजंलियों को ग्रहण करता हुआ उत्‍कृष्‍ट शोभा से प्रकाशित हो आगे–आगे चला।

    राजेन्‍द्र! कर्ण तथा द्यूतकुशल शकुनि के साथ दु:शासन आदि सब भाई, भूरिश्रवा, सोमदत्‍त तथा महाराज बाह्लीक-ये सभी कुरुकुलरत्‍न नाना प्रकार के रथों, गजराजों तथा घोड़ों पर बैठकर राजसिंह दुर्योधन के पीछे-पीछे चल रहे थे। जनमेजय! थोडे़ समय में उन सब ने अपनी राजधानी हस्तिनापुर में प्रवेश किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत घोषयात्रापर्व में दुर्योधन का नगर में प्रवेश विषयक दो सौ बावनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

दौ सौ तिरपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

"भीष्म का कर्ण की निन्‍दा करते हुए दुर्योधन को पाण्‍डवों से संधि करने का परामर्श देना, कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्‍वजय के लिये प्रस्‍थान"

    जनमेजय बोले ;- मुने! जब महात्‍मा पाण्‍डव उस वन में निवास करते थे, उन दिनों महान् धनुर्धर नरश्रेष्‍ठ धृतराष्‍ट्र-पुत्रों ने क्‍या किया? सूर्यपुत्र कर्ण, महाबली शकुनि, भीष्म, द्रोण तथा कृपाचार्य -इन सब ने कौन-सा कार्य किया? यह मुझे बताने की कृपा करें।

    वैशम्‍पायन जी ने कहा ;- महाराज! पाण्‍डवों द्वारा गन्‍धर्वों से छुटकारा मिल जाने पर जब दुर्योधन विदा होकर हस्तिनापुर पहुँच गया और पाण्‍डव जाकर पूर्ववत् वन में ही रहने लगे, तब भीष्म जी ने धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन से यह बात कही,

   भीष्म जी बोले ;- ‘तात! तुम्‍हारे तपोवन जाते समय जैसा कि मैंने पहले ही कह दिया था, वही आज भी कह रहा हूँ। मुझे तुम्‍हारा वहाँ जाना अच्‍छा नहीं लगा और वहाँ जाकर तुमने जो कुछ किया, वह भी


पसंद नहीं आया। वीर! शत्रुओं ने तुम्‍हें वहाँ बलपूर्वक बंदी बना लिया और धर्मज्ञ पाण्‍डवों ने तुम्‍हें उस संकट से छुड़ाया है। क्‍या अब भी तुम्‍हें लज्‍जा नहीं आती। गान्‍धारीनन्‍दन! सेना सहित तुम्‍हारे सामने ही सूतपुत्र कर्ण गन्‍धर्वों से भयभीत हो युद्धभूमि से भाग निकला। राजेन्‍द्र! राजकुमार! जब सेना‍ सहित तुम चीखते-चिल्‍लाते रहे, उस समय महात्‍मा पाण्‍डवों ने जो पराक्रम कर दिखाया था, वह भी तुमने प्रत्‍यक्ष देखा है। महाबाहो! उस समय खोटी बुद्धि वाले सूतपुत्र कर्ण का पराक्रम भी तुमसे छिपा नहीं था। नृपश्रेष्‍ठ! धर्मवत्‍सल! मेरा तो ऐसा विश्‍वास है कि धनुर्वेद, शौर्य और धर्माचरण में कर्ण पाण्‍डवों की अपेक्षा चौथाई योग्‍यता भी नहीं रखता है। अत: संधिवेत्‍ताओं में श्रेष्‍ठ नरेश! मैं तो इस कुल के अभ्‍युदय के लिये उन महात्‍मा पाण्‍डवों के साथ संन्धि कर लेना ही उचित समझता हुँ’।

    राजन्! भीष्म के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधन हंस पड़ा और शकुनि के साथ सहसा वहाँ से अन्‍यत्र चला गया। महाबली दुर्योधन को अन्‍यत्र गया जान कर्ण और दु:शासन अदि माहन् धनुर्धरों ने उसका अनुसरण किया। राजन्! उन सबको वहाँ से प्रस्‍थान करते देख कुरुकुल-पितामह भीष्म लज्जित होकर अपने आवास स्‍थान को चले गये। महाराज! भीष्म के चले जाने पर राजा दुर्योधन फिर उसी स्‍थान पर लौट आया और अपने मन्त्रियों के साथ गुप्‍त मन्‍त्रणा करने लगा,

   दुर्योधन बोला ;- ‘मित्रो! क्‍या करने से हम लोगों की भलाई होगी? हमारे लिये कौन-सा कार्य शेष रह गया है? कैसे करने से हमारा कार्य शुभ परिणामजनक होगा? क्‍या करने में हमारा हित है? आज इसी विषय पर हम लोगों को विचार करना है’?

     कर्ण बोला ;- कुरुकुलरत्‍न दुर्योधन! मैं तुमसे जो कुछ कह रहा हूँ, उस पर ध्‍यान दो। भीष्म सदा हमारी निन्‍दा और पाण्‍डवों की प्रशंसा करते रहते हैं। महाबाहो! वे तुम्‍हारे प्रति द्वेष होने से मुझसे भी द्वेष रखते हैं। नरेश्‍वर! तुम्‍हारे सामने वे सदा मेरी निन्‍दा ही किया करते हैं। भारत! तुम्‍हारे सामने भीष्म ने जो कुछ कहा है, उसे मैं सहन नहीं कर सकता। शत्रुदमन! भरतकुलनन्‍दन! उन्‍होंने जो पाण्‍डवों का यश गाया और तुम्‍हारी निन्‍दा की है, यह मेरे लिये असह्य है। अत: तुम मुझे सेवक, सेना तथा सवारियों के साथ दिग्विजय करने की आज्ञा दो। राजन्! मैं पर्वत, वन और काननों सहित सारी पृथ्‍वी को जीत लूँगा। जिस भूमि पर चार बलशाली पाण्‍डवों ने मिलकर विजय पायी है, उसे मैं तुम्‍हारे लिये अकेला ही जीत लूँगा, इसमें संशय नहीं है। खोटी बुद्धि वाला कुरुकुलाधम भीष्म मेरे इस पराक्रम को अपनी आँखों देखे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 22-29 का हिन्दी अनुवाद)

    जो अनिन्‍दनीय की निन्‍दा और अप्रशंसनीय की प्रशंसा करता है, वह भीष्म आज मेरा बल देख ले और अपने आपको धिक्‍कारे। राजन्! मुझे आज्ञा दो। तुम्‍हारी विजय निश्चित है। यह मैं तुमसे प्रतिज्ञापूर्वक सत्‍य कहता हूँ और शस्‍त्र छूकर शपथ करता हूँ।

    भरतश्रेष्‍ठ राजन्! कर्ण की यह बात सुनकर राजा दुर्योधन ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उससे कहा,

   दुर्योधन बोला ;- ‘वीर! मैं धन्‍य हूँ, तुम्‍हारे अनुग्रह का पात्र हूँ; क्‍योंकि तुम जैसे महाबली सुहृद् सदा मेरे हितसाधन में लगे रहते हैं। आज मेरा जन्‍म सफल हो गया।

    वीरवर! जब तुम्‍हें विश्‍वास है कि तुम्‍हारे द्वारा सब शत्रुओं का संहार हो सकता है, तब तुम दिग्विजय के लिये यात्रा करो। तुम्‍हारा कल्‍याण हो। मुझे आवश्‍यक व्‍यवस्‍था के लिये आज्ञा दो।

    जनमेजय! बुद्धिमान् दुर्योधन के इस प्रकार कहने पर कर्ण ने यात्रा-सम्‍बन्‍धी सारी आवश्‍यक तैयारी के लिये आज्ञा दे दी।

     तदनन्‍तर महान् धनुर्धर कर्ण ने मागंलिक शुभ पदार्थों से जल के द्वारा स्‍नान करके द्विजातियों की आशीर्वादमय वाणी से सम्‍मानित एवं प्रशंसित हो शुभ नक्षत्र, शुभ तिथि और शुभ मुहूर्त में यात्रा की। उस समय वह अपने रथ की घर्घराहट से चराचर भूतों सहित समस्‍त त्रिलोकी को प्रतिध्‍वनित कर रहा था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत घोषयात्रापर्व में कर्णदिग्विजय विषयक दो सौ तिरपनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

दौ सौ चौवनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुष्‍पच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)

"कर्ण के द्वारा सारी पृथ्‍वी पर दिग्विजय और हस्तिनापुर में उसका सत्‍कार"

   वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्‍ठ जनमेजय! तदनन्‍तर महाधनुर्धर कर्ण ने अपनी विशाल सेना के साथ जाकर राजा द्रुपद के रमणीय नगर को चारों ओर से घेर लिया। फिर महान् युद्ध करके उसने वीर द्रुपद को अपने वश में कर लिया और उन्‍हें सोना, चांदी, भाँति-भाँति के रत्‍न एवं कर देने के लिये विवश किया। नृपश्रेष्‍ठ महाराज जनमेजय! इस प्रकार द्रुपद को जीतकर कर्ण ने उनके अनुयायी नरेशों को भी अपने अधीन कर लिया और उन सबसे भी कर वसूल किया। तत्‍पश्‍चात् उसने उत्‍तर दिशा में जाकर वहाँ के राजाओं को अपने वश में कर लिया। भगदत्त को जीतकर राधानन्‍दन कर्ण शत्रुओं से युद्ध करता हुआ महान् पर्वत हिमालय पर आरूढ़ हुआ। वहाँ से सब दिशाओं में जाकर उसने समस्‍त राजाओं को अपने अधीन किया और हिमालय प्रदेश के समस्‍त भूपालों को जीतकर उनसे कर लिया। तदनन्‍तर नेपाल देश में जो राजा थे, उन पर भी विजय प्राप्‍त की, फिर हिमालय पर्वत से उतर कर उसने पूर्व दिशा की ओर धावा किया। अंग, वंग, कलिंग, शुडि़क, मिथिला, मगध और कर्कखण्‍ड-इन सब देशों को अपने राज्‍य में मिलाकर कर्ण ने आवशीर, योध्य और अहिक्षत्र देश को भी जीत लिया।

     इस प्रकार पूर्व दिशा पर विजय प्राप्‍त करके उसने वत्‍सभूमि में पदार्पण किया। वत्‍सभूमि को जीतकर कर्ण ने केवला, मृत्तिकाबती, मोहनपत्‍तन, त्रिपुरी तथा कोसला-इन सब देशों को अपने अधिकार में किया और सबसे कर लेकर (दक्षिण दिशा की ओर) प्रस्‍थान किया। दक्षिण दिशा में पहुँचकर कर्ण ने बड़े–बड़े महारथियों को जीता। दाक्षिणात्‍यों में रुक्‍मी के साथ कर्ण ने युद्ध किया। रुक्‍मी ने पहले तो बड़ा भंयकर युद्ध किया, फिर उसने सूतपुत्र कर्ण से कहा,

    रुक्मी बोला ;- ‘राजेन्‍द्र! मैं तुम्‍हारे बल और पराक्रम से बहुत प्रसन्न हूँ। अत: तुम्‍हारे कार्य में विघ्‍न नहीं डालूँगा। थोड़ी देर युद्ध करके मैंने केवल क्षत्रिय धर्म का पालन किया है। तुम जितना सोना ले जाना चाहो, उतना मैं प्रसन्नतापूर्वक दे रहा हूँ।’ इस प्रकार रुक्‍मी से मिलकर कर्ण ने पाण्‍ड्य देश तथा श्रीशैल की ओर प्रस्‍थान किया। उसने रणभूमि में केरल नरेश राजा नील तथा वेणुदारिपुत्र को हराया और दक्षिण दिशा में अन्‍य जितने प्रमुख भूपाल थे, उन सबको जीतकर उनसे कर वसूल किया। इसके बाद सूतपुत्र महाबली कर्ण ने चेदि देश में जाकर शिशुपाल के पुत्र को हराया और उसके पार्श्‍ववर्ती नरेशों को भी अपने अधीन कर लिया।

     भरतश्रेष्‍ठ! तदनन्‍तर उसने सामनीति के द्वारा अवन्‍ती देश के राजाओं को वश में करके वृष्णिवंशी यादवों से हिल-मिलकर पश्चिम दिशा पर विजय प्राप्‍त की। इसके बाद पश्चिम दिशा में जाकर यवन तथा बर्बर राजाओं को, जो पश्चिम देश के ही निवासी थे, पराजित करके उनसे कर लिया। इस प्रकार पूर्व, पश्चिम, उत्‍तर दक्षिण सब दिशाओं की समूची पृथ्‍वी को जीतकर म्‍लेच्‍छ, वनवासी, पर्वतीय भद्र, रोहितक, आग्रेय तथा मालव आदि समस्‍त गणराज्‍यों को परास्‍त किया। इसके बाद नीति के अनुसार काम करने-वाले सूतनन्‍दन कर्ण ने हँसते-हँसते शशक और यवन राजाओं को भी जीत लिया। इस प्रकार पुरुषसिंह महारथी कर्ण नग्नजित् आदि महारथी नरेश समुदायों को जीतकर सारी पृथ्‍वी को पराजित कर‍के अपने वश में कर लेने के पश्‍चात् हस्तिनापुर को लौट आया।

    महाराज! रण में शोभा पाने वाले महधनुर्धर कर्ण को आया हुआ


जान भाई, पिता तथा बन्‍धु बान्‍धवों सहित राजा दुर्योधन ने उसकी अगवानी की और विधिपूर्वक उसका स्‍वागत-सत्‍कार किया। तत्‍पश्‍चात् दुर्योधन ने अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर कर्ण के दिग्‍विजय की सब ओर घोषणा करा दी। तत्‍पश्‍चात उसने कर्ण से कहा,

 

  दुर्योधन बोला ;- ‘वीरवर! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। मुझे भीष्‍म जी से, आचार्य द्रोण से, कृपाचार्य से तथा बाह्लिक से भी जो वस्‍तु नहीं मिली थी, वह तुमसे प्राप्‍त हो गयी।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुष्‍पच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 26-36 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘महाबाहु कर्ण! अधिक कहने से क्‍या लाभ? तुम मेरी बात सुनो। सत्‍पुरुषरत्‍न! तुम्‍हें अपना नाथ (सहायक) पाकर ही मैं सनाथ हूँ।‘

     पुरुषसिंह! समस्‍त पाण्डव अथवा अन्‍य श्रेष्‍ठतम नरेश तुम्‍हारी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते। महाधनुर्धर कर्ण! अब तुम मेरे पूज्‍य पिता धृतराष्ट्र तथा यशस्विनी माता गांधारी का उसी प्रकार दर्शन करो, जैसे वज्रधारी इन्द्र माता अदिति का दर्शन करते हैं’।

    जनमेजय! तदनन्‍तर हस्तिनापुर नगर में सब ओर बड़ा भारी कोलाहल मच गया। अनेक प्रकार के हाहाकार सुनायी देने लगे। राजन्! कोई तो कर्ण की प्रशंसा करते थे और दूसरे उसकी निन्‍दा करते थे। अन्‍य कितने ही राजा निन्‍दा और प्रशंसा कुछ भी न करके मौन थे।

     महाराज! इस प्रकार शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ सूतपुत्र कर्ण ने पर्वत, वन, स्‍थान, समुद्र, उद्यान, ऊँचे-नीचे देश, पुर और नगर, द्वीप और जलयुक्‍त प्रदेशों से युक्‍त सारी पृथ्‍वी को जीतकर थोड़े ही समय में समस्‍त राजाओं को वश में कर लिया और उनसे अटूट धनराशि लेकर वह राजा धृतराष्ट्र के समीप आया।

    शत्रुसूदन जनमेजय! धर्मज्ञ वीर कर्ण ने अन्‍त:पुर में प्रवेश करके गान्‍धारी सहित धृतराष्‍ट्र का दर्शन किया और पुत्र की भाँति उसने उनके दोनों चरण पकड़ लिये। धृतराष्‍ट्र ने भी उसे प्रेमपूर्वक हृदय से लगाकर विदा किया।

     भारत! तब से राजा दुर्योधन तथा सुबलपुत्र शकुनि युद्ध में कर्ण द्वारा पाण्‍डवों को पराजित हुआ ही समझने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत घोषयात्रापर्व में कर्णदिग्विजय सम्‍बन्‍धी दो सौ चौवनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

दौ सौ पचपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्‍चपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"कर्ण और पुरोहित की सलाह से दुर्योधन की वैष्‍णव यज्ञ के लिये तैयारी"

     वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- महाराज जनमेजय! शत्रुवीरों का संहार करने वाले सूतपुत्र कर्ण ने सारी पृथ्‍वी को जीतकर दुर्योधन से इस प्रकार कहा। 

    कर्ण बोला ;- 'कुरुनन्‍दन दुर्योधन! मैं जो कहता हूँ, उसे सुनो। शत्रुदमन! मेरी बात सुनकर उसके अनुसार सब कुछ करो। वीर! नृपश्रेष्‍ठ! आज सारी पृथ्‍वी तुम्‍हारे लिये निष्‍कण्‍टक हो गयी है। जैसे महामना इन्द्र अपने शत्रुओं का संहार करके त्रिलोकी का पालन करते हैं, उसी प्रकार तुम भी इस पृथ्‍वी का पालन करो।'

    वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कर्ण के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधन ने पुन: उससे कहा,

     दुर्योधन बोला ;- ‘पुरुषश्रेष्‍ठ! जिसके सहायक तुम हो एवं जिस पर तुम्‍हारा अनुराग है, उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। तुम सदा मेरे हित के लिये उद्यत रहते हो। मेरा एक मनोरथ है, जिसे यथार्थरूप से बतलाता हूँ, सुनो। सूतनन्‍दन! पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर के उस क्रतुश्रेष्‍ठ महान् राजसूय यज्ञ को देखकर मेरे मन में भी उसे करने की इच्‍छा जाग उठी है। तुम इस इच्‍छा को पूर्ण करो’। दुर्योधन की यह बात सुनकर कर्ण ने उससे यह कहा,,

   कर्ण बोला ;- ‘नृपश्रेष्‍ठ! इस समय भूपाल तुम्‍हारे वश में हैं। कुरुकुलश्रेष्‍ठ! उत्‍तम ब्राह्मणों को बुलाओ और विधिपूर्वक यज्ञ की सामग्रियों तथा उपकरणों को जुटाओ। शत्रुदमन नरेश! तुम्‍हारे द्वारा आमन्त्रित शास्‍त्रोक्‍त योग्‍यता से सम्‍पन्न वेदज्ञ ऋत्विक् विधि‍ के अनुसार सब कार्य करें। भरतश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारा महायज्ञ भी प्रचुर अन्‍नपान की सामग्री से युक्‍त और अत्‍यन्‍त समृद्धिशाली गुणों से सम्‍पन्‍न हो’।

     राजन्! कर्ण के इस प्रकार अनुमोदन करने पर दुर्योधन ने अपने पुरोहित को बुलाकर यह बात कही,

    दुर्योधन बोला ;- ‘ब्रह्मन्! आप मेरे लिये उत्‍तम दक्षिणा ओं से युक्‍त क्रतुश्रेष्‍ठ राजसूय का यथोचित रीति से विधिपूर्वक अनुष्‍ठान करवाइये’। नरेश्‍वर! राजा के इस प्रकार आदेश देने पर विप्रवर पुरोहित ने वहाँ आये हुए अन्‍य ब्राह्मणों के साथ इस प्रकार उत्‍तर दिया,

     पुरोहित बोले ;- ‘कौरवश्रेष्‍ठ! नृपशिरोमणे! राजा युधिष्ठिर के जीते आपके कुल में इस उत्‍तम क्रतु राजसूय का अनुष्‍ठान नहीं किया जा सकता। महाराज! अभी आपके दीर्घायु पिता धृतराष्ट्र भी जीवित हैं, इसलिये भी यह यज्ञ आपके लिये अनुकूल नहीं पड़ता। प्रभो! एक दूसरा महान् यज्ञ है, जो राजसूय की समानता रखता है। राजेन्‍द्र! आप उसी के द्वारा भगवान का यजन कीजिये और इसके सम्‍बनध में मेरी यह बात सुनिये।

    पृथ्‍वीनाथ! ये जो सब भूपाल आपको कर देते हैं, इन्‍हें आज्ञा दीजिये-ये लोग आपको सुवर्ण के बने हुए आभूषण तथा सुवर्ण ‘कर’ के रूप में अर्पण करें। नृपश्रेष्‍ठ! उसी सुवर्ण से आप एक हल तैयार करवाइये। भारत! उसी हल से आपके यज्ञमण्‍डप की भूमि जोती जाये। नृपश्रेष्‍ठ! उस जोती हुई भूमि में ही उत्‍तम संस्‍कार से सम्‍पन्न प्रचुर अन्‍नपान से युक्‍त और सबके लिये खुला हुआ यज्ञ यथोचित रूप से प्रारम्‍भ किया जाय। यह मैंने आपको वैष्‍णव नामक यज्ञ बताया है, जिसका अनुष्‍ठान सत्‍पुरुषों के लिये सर्वथा उचित है। पुरातनपुरुष भगवान् विष्णु के सिवा और किसी ने अब तक इस यज्ञ का अनुष्‍ठान नहीं किया है। यह महायज्ञ क्रतुश्रेष्‍ठ राजसूय से टक्‍कर लेने वाला है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्‍चपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 21-25 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘भारत! हम लोगों को तो यह यज्ञ पसंद है और यही आपके लिये कल्‍याणकारी होगा। यह यज्ञ बिना किसी विघ्‍न-बाधा के सम्‍पन्न हो जाता है; तुम्‍हारी यह यज्ञविषयक अभिलाषा भी इसी से सफल होगी। इसलिये महाबाहो! तुम्‍हारा यह यज्ञ आरम्‍भ होना चाहिये।’

     उन ब्राह्मणों के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधन ने कर्ण, शकुनि तथा अपने भाइयों से इस प्रकार कहा,,

   दुर्योधन बोला ;- ‘बन्‍धुओं! मुझे तो इन ब्राह्मणों की सारी बातें रुचिकर जान पड़ती हैं, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। यदि तुम लोगों को भी यह बात अच्‍छी लगे, तो शीघ्र अपनी सम्‍मति प्रकट करो’।

    यह सुनकर उन सब ने राजा से ‘तथास्‍तु’ कहकर उसकी हाँ में हाँ मिला दी।

    तदनन्‍तर राजा दुर्योधन ने काम में लगे हुए सब शिल्पियों को क्रमश: हल बनाने की आज्ञा दी। नृपश्रेष्‍ठ! राजा की आज्ञा पाकर सब शिल्पियों ने तद्नुसार सारा कार्य क्रमश: सम्‍पन्न किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत घोषयात्रापर्व में दुर्योधन यज्ञ समारम्‍भ विषयक दो सौ पचपनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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