सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के दौ सौ छियालीसवें अध्याय से दौ सौ पचासवें अध्याय तक (From the 241 to the 245 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

दौ सौ छियालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्चत्‍वारिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर का संवाद और दुर्योधन का छुटकारा"

   वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर परम कान्तिमान महाधनुर्धर अर्जुन ने गन्‍धर्वों की सेना के बीच चित्रसेन से हंसते हुए पूछा,

  अर्जुन बोले ;- ‘वीर! कौरवों को बन्‍दी बनाने में तुम्‍हारा क्‍या उदेश्‍य था? स्त्रियों सहित दुर्योधन को तुमने किसलिये कैद किया?

   चित्रसेन ने कहा ;- धनंजय! देवराज इन्‍द्र को स्‍वर्ग में बैठे-बैठे ही दुरात्‍मा दुर्योधन और पापी कर्ण का यह अभिप्राय मालूम हो गया था कि ये आप लोगों को वन में रहकर अनाथ की भाँति क्‍लेश उठाते और विषम परिस्थिति में पड़कर अस्थिर भाव से रहते हुए जानकर भी उस अवस्‍था में आपको देखने और दु:खी करने का निश्‍चय कर चुके हैं। ये स्‍वयं सम (सुखपूर्ण) अवस्‍था में स्थित है, फिर भी आप पाण्‍डवों तथा यशस्विनी द्रौपदी की हंसी उड़ाने के लिये वन में आये हैं। इस प्रकार इनकी (आप लोगों का अनिष्‍ट करने की) इच्‍छा जानकर देवेश्‍वर इन्‍द्र ने मुझसे इस प्रकार कहा,

   देवराज इंद्र बोले ;- ‘चित्रसेन! तुम जाओ और दुर्योधन को उसके मंन्त्रियों सहित बांधकर यहाँ ले आओ। युद्ध में तुम्‍हें भाइयों सहित अर्जुन की रक्षा करनी चाहिये; क्‍योंकि पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन तुम्‍हारे प्रिय सखा तथा शिष्‍य हैं’। वहां से देवराज की यह आज्ञा मानकर मैं तुरन्‍त यहाँ चला आया। यह दुरात्‍मा दुर्योधन मेरी कैद में आ गया है; अत: अब मै देवलोक को जाऊंगा और पाकशासन इन्‍द्र की आज्ञा से इस दुरात्‍मा को भी वहीं ले जाऊंगा।

    अर्जुन बोले ;- चित्रसेन! दुर्योधन हम लोगों का भाई है। यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो, तो धर्मराज के आदेश से इसे छोड़ दो। 

    चित्रसेन ने कहा ;- धनंजय! यह पापी सदा राज्‍य सुख भोगने के कारण हर्ष से मतवाला हो उठा है; अत: इसे छोड़ना उचित नही है। इसने धर्मराज युधिष्ठिर तथा द्रौपदी को धोखा दिया है। कुन्‍तीनन्‍दन धर्मराज युधिष्ठिर इसके इस कुटिल अभिप्राय को नहीं जानते हैं; अत: यह सब सुनकर तुम्हारी जैसी इच्‍छा हो, वैसा करो।

     वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्‍तर वे सब लोग राजा युधिष्ठिर के पास गये। वहाँ जाकर गन्‍धर्वों ने दुर्योधन की सारी कुचेष्‍टा कह सुनायी। गन्‍धर्वों का यह कथन सुनकर अजातशत्रु यधिष्ठिर ने उस समय समस्‍त कौरवों को बन्‍धन से छुड़ा दिया और गन्‍धर्वों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। आप सब लोग बलबान और समृद्धिशाली हैं। आपने मंत्रियों तथा जाति भाइयों सहित इस दुराचारी दुर्योधन का वध नहीं किया, यह बड़े सौभाग्‍य की बात है। तात! आकाशचारी गानधर्वों ने यह मेरा बहुत बड़ा उपकार किया कि इस दुरात्‍मा को छोड़ दिया। इसलिये मेरे कुल का अपमान नहीं हुआ। गन्‍धर्वो! अपनी अभीष्‍ट सेवा के लिये हमें आज्ञा दीजिये। हम सब लोग आपके दर्शन से बहुत प्रसन्‍न हैं। अपनी समस्‍त मनोवांच्छित वस्‍तुओं को प्राप्‍त करने के पश्‍चात प्रस्‍थान कीजियेगा। बुद्धिमान पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर चित्रसेन आदि सब गन्‍धर्व अप्‍सराओं के साथ प्रसन्‍नतापूर्वक वहां से विदा हुए।

    गन्‍धर्वों सहित चित्रसेन ने देवलोक में पहुँचकर देवराज इन्‍द्र के समक्ष सब समाचार निवेदन किया। युद्ध में कौरवों द्वारा जो गन्‍धर्व मारे गये थे, उन सबको देवराज इन्‍द्र ने दिव्‍य अमृत की वर्षा करके जिला दिया। इस प्रकार सब भाई बन्‍धुओं एवं राजकुल की महिलाओं को गन्‍धर्वों से छुड़ाकर एवं दुष्‍कर पराक्रम करके प्रसन्‍न हुए महारथी


महामना पाण्‍डव स्‍त्री-बालकों सहित कौरवों द्वारा पूजित एवं प्रशंसित हो यज्ञमण्‍डप में प्रज्‍ज्‍वलित अग्नियों के समान देदीप्‍यमान हो रहे थे। तदनन्‍तर बन्‍धनमुक्‍त हुए दुर्योधन से भाइयों सहित युधिष्ठिर ने यह बात कही,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘तात! फिर कभी ऐसा दु:साहस न करना। भारत! दु:साहस करने वाले मनुष्‍य कभी सुखी नहीं होते।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्चत्‍वारिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 23-27 का हिन्दी अनुवाद)

  ‘कुरुनन्‍दन! अब तुम अपने सब भाइयों के साथ कुशलपूर्वक इच्‍छानुसार घर जाओ। हम लोगों के प्रति मन में वैमनस्‍य न रखना।'

   वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर राजा दुर्योधन ने उन धर्मपुत्र अजातशत्रु को प्रणाम करके नगर की ओर प्रस्‍थान किया। उस समय जिनकी इन्द्रियाँ काम न देती हों, उस रोगी की भाँति उसका हृदय व्‍यथा से विदीर्ण हो रहा था। उसे अपने कुकृत्‍य पर बडी लज्‍जा हो रही थी।

    दुर्योधन के चले जाने पर द्विजातियों से प्रशंसित होते हुए भाइयों सहित वीर कुन्तीनन्‍दन युधिष्ठिर वहां के समस्‍त तपस्‍वी मुनियों से घिरे रहकर देवताओं के बीच में बैठे हुए इन्द्र की भॉंति शोभा पाने और प्रसन्‍नतापूर्वक द्वैतवन में विहार करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत घोषयात्रापर्व में दुर्योधन को छुड़ाने से सम्‍बन्‍ध रखने वाला दो सौ छियालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

दौ सौ सैतालिसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्‍तचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"सेना सहित दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण के द्वारा उसका अभिनन्‍दन"

    जनमेजय बोले ;- मुने ! दुर्योधन को शत्रुओं ने जीता और बांध लिया। फिर महात्‍मा पाण्‍डवों ने गन्‍धर्वों के साथ युद्ध करके उसे छुड़ाया। ऐसी दशा में उस अभिमानी और दुरात्‍मा दुर्योधन का हस्तिनापुर में प्रवेश करना मुझे तो अत्‍यन्‍त कठिन प्रतीत होता है; क्‍योंकि वह अपने शौर्य के विषय में बहुत डींग हांका करता था, घमंड में भरा रहता था और सदा गर्व के नशे में चूर रहता था। उसने अपने पौरुष और उदारता द्वारा सदा पाण्‍डवों का अपमान ही किया था। पापी दुर्योधन सदा अहंकार की ही बातें करता था। पाण्‍डवों की सहायता से मेरे जीवन की रक्षा हुई, यह सोचकर तो वह लज्जित हो गया होगा; उसका हृदय शोक से व्‍याकुल हो उठा होगा। वैशम्‍पायन जी! ऐसी स्थिति में उसने अपनी राजधानी में कैसे प्रवेश किया? यह विस्‍तारपूर्वक कहिये।

    वैशम्‍पायन जी बोले ;- राजन्! धर्मराज से विदा होकर धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन लज्‍जा से मुंह नीचे किये अत्‍यन्‍त दु:खी और खिन्न होकर वहां से चल दिया। राजा दुर्योधन की बुद्धि शोक से मारी गयी थी। वह अपने अपमान पर विचार करता हुआ चतुरंगिणी सेना के साथ नगर की ओर चल पड़ा। रास्‍ते में एक ऐसा स्‍थान मिला, जहाँ घास और जल की सुविधा थी। दुर्योधन अपने वाहनों को वहीं छोड़कर एक सुन्‍दर एवं रमणीय भू भाग में अपनी रुचि के अनुसार ठहर गया। हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों को भी उसने यथास्‍थान ठहरने की आज्ञा दे दी। राजा दुर्योधन अग्नि के समान उद्दीप्‍त होने वाले (सोने के) पलंग पर बैठा हुआ था। रात्रि के अन्‍त में चन्‍द्रमा पर राहु-द्वारा ग्रहण लग जाने पर जैसे उसकी शोभा नष्‍ट हो जाती है, वही दशा उस समय दुर्योधन की भी थी।

   उस समय कर्ण ने समीप आकर दुर्योधन से इस प्रकार कहा,

   कर्ण बोला ;- ‘गान्‍धारीनन्‍दन! बड़े सौभाग्‍य की बात है कि तुम जीवित हो। सौभाग्‍यवश हम लोग पुन: एक-दूसरे से मिल गये। भाग्‍यों से तुमने इच्‍छानुसार रूप धारण करने वाले गन्‍धर्वों पर विजय पायी, यह और भी प्रसन्नता की बात है। कुरुनन्‍दन! मैं तुम्‍हारे सम्‍पूर्ण महारथी भाइयों को, जो शत्रुओं पर विजय पा चुके हैं, युद्ध के लिये उद्यत तथा पुन: विजय की अभिलाषा से युक्‍त देख रहा हूँ, यह भी सौभाग्‍य का ही सूचक है। मैं तो तुम्‍हारे देखते-देखते ही समस्‍त गन्‍धर्वों से पराजित होकर भाग गया था। तितर-बितर होकर भागती हुई सेना को स्थिर न रख सका। बाणों के आघात से मेरा सारा शरीर क्षत-विक्षत हो गया था। समस्‍त अंगों में बड़ी वेदना हो रही थी; इसीलिये मुझे भागना पड़ा। भारत! तुम लोग, जो उस अमानुषिक युद्ध से छूटकर यहाँ स्‍त्री, सेना और वाहनों सहित सकुशल तथा क्षति से रहित दिखाई देते हो; यह बात मुझे बड़ी अद्भुत जान पड़ती है। भरतनन्‍दन महाराज! इस युद्ध में भाइयों सहित तुमने जो पराक्रम कर दिखाया है, उसे करने वाला दूसरा कोई पुरुष इस संसार में नहीं है’।

     वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! कर्ण के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधन उस समय अश्रुगद्गद वाणी द्वारा (कर्ण) से इस प्रकार बोला।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत घोषयात्रापर्व में कर्ण-दुर्योधन संवाद विषयक दो सौ सैंतालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

दौ सौ अड़तालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्‍टचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना"

   दुर्योधन बोला ;- राधानन्‍दन! तुम सब बातें जानते नहीं हो, इसी से मैं तुम्‍हारे इस कथन को बुरा नहीं मानता। तुम समझते हो कि मैंने अपने शश्रुभूत गन्‍धर्वों को अपने ही पराक्रम से हराया है; परंन्‍तु ऐसी बात नहीं है। महाबाहो! मेरे भाइयों ने मेरे साथ रहकर गन्‍धर्वों के साथ बहुत देर तक युद्ध किया और उसमें दोनों पक्ष के बहुत-से सैनिक मारे


गये। परंतु जब माया के कारण अधिक शक्तिशाली शूरवीर गन्‍धर्व आकाश में खड़े होकर युद्ध करने लगे, तब उनके साथ हम लोगों का युद्ध समान स्थिति में नहीं रह सका। युद्ध में हमारी पराजय हुई और हम सेवक, सचिव, पुत्र, स्‍त्री, सेना तथा सवारियों सहित बंदी बना लिये गये। फिर गन्‍धर्व हमें ऊँचे आकाशमार्ग से ले चले।

    उस समय हम लोग अत्‍यन्‍त दु:खी हो रहे थे। तदनन्‍तर हमारे कुछ सैनिकों और महारथी मंन्त्रियों ने अत्‍यन्‍त दीन हो शरणदाता पाण्‍डवों के पास जाकर कहा,

    सैनिक व महारथी बोले ;- ‘कुन्‍तीकुमारो! ये धृतराष्‍ट्रपुत्र राजा दुर्योधन अपने भाइयों, मन्त्रियों तथा स्त्रियों के साथ यहाँ आये थे। इन्‍हें गन्‍धर्वगण आकाशमार्ग से हरकर लिये जाते हैं। आप लोगों का कल्‍याण हो। रानियों सहित महाराज को छुड़ाइये। कहीं ऐसा न हो कि कुरुकुल की स्त्रियों का तिस्‍कार हो जाये’। उनके ऐसा कहने पर ज्‍येष्‍ठ पाण्‍डुपुत्र धर्मात्‍मा युधिष्ठिर ने अन्‍य सब पाण्‍डवों को राजी करके हम सब लोगों को छुड़ाने के लिये आज्ञा दी। तदनन्‍तर पुरुषसिंह महारथी पाण्‍डव उस स्‍थान पर आकर समर्थ होते हुए भी गन्‍धर्वों से सान्‍त्‍वनापूर्ण शब्‍दों में (हमें छोड़ देने के लिये) याचना करने लगे।

    उनके समझाने-बुझाने पर भी जब अकाशचारी वीर गन्‍धर्व हमें न छोड़ सके और बादलों की भाँति गरजने लगे, तब अर्जुन, भीम, उत्‍कट बलशाली नकुल-सहदेव ने उन असंख्‍य गन्‍धर्वों की ओर लक्ष्‍य करके बाणों की वर्षा आरम्‍भ कर दी। फिर तो सारे गन्‍धर्व रणभूमि छोड़कर आकाश में उड़ गये। मन-ही-मन आनन्‍द का अनुभव करते हुए हम दीन-दु:खियों को अपनी ओर घसीटने लगे। इसी समय हमने देखा, चारों ओर बाणों का जाल-सा बन गया है और उससे वेष्टित हो अर्जुन अलौकिक अस्‍त्रों की वर्षा कर रहे हैं। पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन ने अपने तीखे बाणों से समस्‍त दिशाओं को आच्‍छादित कर दिया है, ये देखकर उनके सखा चित्रसेन ने अपने आपको उनके सामने प्रकट कर दिया। फिर तो चित्रसेन और अर्जुन दोनों एक-दूसरे से मिले और कुशलमंगल तथा स्‍वास्‍थ्‍य का समाचार पूछने लगे। दोनों ने एक-दूसरे से मिलकर अपना कवच उतार दिया। फिर समस्‍त वीर गन्‍धर्व पाण्‍डवों के साथ मिलकर एक हो गये। तत्‍पश्‍चात चित्रसेन और धनंजय ने एक-दूसरे का आदर-सत्‍कार किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत घोषयात्रापर्व में दुर्योधन वाक्‍य विषयक दो सौ अड़तालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

दौ सौ उनचासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"दुर्योधन का कर्ण से अपनी ग्‍लानि का वर्णन करते हुए आमरण अनशन का निश्‍चय, दु:शासन को राजा बनने का आदेश, दु:शासन का दु:ख ओर कर्ण का दुर्योधन को समझाना"

   दुर्योधन बोला ;- कर्ण! चित्रसेन से मिलकर उस समय शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन ने हंसते हुए-से यह शूरोचित वचन कहा,

अर्जुन बोले ;- ‘वीर गन्‍धर्वश्रेष्‍ठ! तुम्‍हें मेरे इन भाइयों को मुक्‍त कर देना चाहिये। पाण्‍डवों के जीते-जी ये इस प्रकार अपमान सहन करने योग्‍य नहीं हैं’। कर्ण! महात्‍मा पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन के ऐसा कहने पर गन्‍धर्व ने वह बात कह दी, जिसके लिये सलाह करके हम लोग घर से चले थे। उसने बताया कि ‘ये कौरव सुख से वंचित हुए पाण्‍डवों तथा द्रौपदी की दुर्दशा देखने के लिये आये हैं’। जिस समय गन्‍धर्व उपर्युक्‍त बात कह रहा था, उस समय मैं (अत्‍यन्‍त) लज्जित हो गया। मेरी इच्‍छा हुई कि धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊं।

    तत्‍पशचात् गन्‍धर्वों ने पाण्‍डवों के साथ युधिष्ठिर के पास आकर हम लोगों की दुर्मन्‍त्रणा उन्‍हें बतायी और हमें उनके सुपुर्द कर दिया उस समय हम सब लोग बंधे हुए थे। स्त्रियों के सामने मैं दीनभाव से बंधकर शत्रुओं के वश में पड़ गया और उसी दशा में युधिष्ठिर को अर्पित किया गया। इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्‍या हो सकती है? जिनका मैंने सदा तिरस्‍कार किया और जिनका मैं सर्वदा शत्रु बना रहा, उन्‍हीं लोगों ने मुझ दुर्बुद्धि को शत्रुओं के बन्‍धन से छुड़ाया है और उन्‍होंने ही मुझे जीवनदान दिया है। वीर! यदि मैं उस महायुद्ध में मारा गया होता, तो यह मेरे लिये कल्‍याणकारी होता; परंतु इस दशा में जीवित रहना कदापि अच्‍छा नहीं है। गन्‍धर्व के हाथ से मारे जाने पर इस भूमण्‍डल में मेरा यश विख्‍यात हो जाता और इन्‍द्रलोक में मुझे अक्षय पुण्‍यधाम प्राप्‍त होते।

    नरश्रेष्‍ठ वीरो! अब मैंने जो निश्‍चय किया है, उसे सुनो। मैं यहाँ आमरण अनशन करूँगा। तुम सब लोग घर लौट जाओ। मेरे सब भाई आज अपनी राजधानी को चले जायें। कर्ण आदि मेरे मित्र तथा बान्‍धवगण भी दु:शासन को आगे करके आज ही हस्तिनापुर को लौट जायें। शत्रुओं से अपमानित होकर अब मैं अपने नगर को नहीं जाऊंगा। अब तक मैंने शत्रुओं का मानमर्दन किया है और सुहृदों को सम्‍मान दिया है। परंतु आज मैं अपने सुहृदों के लिये शोकदायक और शत्रुओं का हर्ष बढ़ाने वाला हो गया। हस्तिनापुर जाकर मैं राजा से क्‍या कहूँगा? भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्‍थामा, विदुर, संजय, बाह्लीक, भूरिश्रवा तथा अन्‍य जो वृद्ध पुरुषों के लिये आदरणीय महानुभाव हैं, वे तथा ब्राह्मण, प्रमुख वैश्‍यगण और उदासीन वृत्ति वाले लोग मुझसे क्‍या कहेंगे और मैं उन्‍हें क्‍या उत्‍तर दूंगा? मैं पराक्रम करके शत्रुओं के मस्‍तक तथा छाती पर खड़ा हो गया था; परंतु अब अपने ही दोष से नीचे गिर गया। ऐसी दशा में उन आदरणीय पुरुषों से मैं किस प्रकार वार्तालाप करूँगा? उद्दण्‍ड मनुष्‍य लक्ष्‍मी, विद्या तथा ऐश्‍वर्य को पाकर भी दीर्घकाल तक कल्‍याणमय पद पर प्रतिष्ठित नहीं रह पाते हैं। जैसे मैं मद और अंहकार में चूर होकर अपनी प्रतिष्‍ठा खो बैठा हूँ। अहो! यह कुकर्म मेरे योग्‍य नहीं था। मुझ दुर्बुद्धि ने स्‍वयं ही मोहवश दु:खदायक दुष्‍कर्म कर डाला; जिससे (गन्‍धर्वों का बंदी हो जाने के कारण) मेरा जीवन संदिग्‍ध हो गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनपच्‍चाशदधिकद्विशततमअध्‍याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)

   इसलिये मैं (अवश्‍य) आमरण उपवास करूँगा। अब जीवित नहीं रह सकूंगा। जिसका शत्रुओं ने संकट से उद्धार किया हो, ऐसा कौन विचारशील पुरुष जीवित रहना चाहेगा? शत्रुओं ने मेरी हंसी उड़ायी है। मुझे अपने पौरुष का अभिमान था; किंतु यहाँ मैं कोई पुरुषार्थ न दिखा सका। पराक्रमी पाण्‍डवों ने अवहेलनापूर्ण दृष्टि से मुझे देखा है। (ऐसी दशा में मुझे इस जीवन से विरक्ति हो गयी है)

    वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार चिन्‍तामग्‍न हुए दुर्योधन ने दु:शासन से कहा,

  दुर्योधन बोला ;- ‘भरतनन्‍दन दु:शासन! मेरी यह बात सुनो,- ‘मैं तुम्‍हारा राज्‍यभिषेक करता हूँ। तुम मेरे दिये हुए इस राज्‍य को ग्रहण करो और राजा बनो। कर्ण और शकुनि की सहायता से सुरक्षित एवं धन-धान्‍य से समृद्ध इस पृथ्‍वी का शासन करो। जैसे इन्द्र मरुद्गणों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार तुम अपने अन्‍य भाइयों का विश्‍वासपूर्वक पालन करना। जैसे देवता इन्‍द्र के आश्रित रहकर जीवन निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार तुम्‍हारे बान्‍धवजन भी तुम्‍हारा आश्रय लेकर जीविका चलावें। प्रमाद छोडकर सदा ब्राह्मणों की जीविका की व्यवस्‍था एवं रक्षा करना। बन्‍धुओं तथा सुहृदों को सदैव सहारा देते रहना। जैसे भगवान् विष्णु देवताओं पर कृपादृष्टि रखते हैं, उसी प्रकार तुम भी अपने कुटुम्‍बीजनों की देखभाल करते रहना और गुरुजनों का सदैव पालन करना। अच्‍छा, अब जाओ और समस्‍त सुहृदों का आनन्‍द बढ़ाते हुए तथा शत्रुओं की सदैव भर्त्‍सना करते हुए अपनी अधिकृत भूमि की रक्षा करो।’

   ऐसा कहकर दुर्योधन ने दु:शासन को गले से लगा लिया और गद्गद कण्‍ठ से कहा,

   दुर्योधन बोला ;- ‘जाओ’ !

दुर्योधन की यह बात सुनकर दु:शासन का गला भर आया। वह अत्‍यन्‍त दु:ख से आतुर हो दीनभाव से हाथ जोड़कर अपने बड़े भाई के चरणों में गिर पड़ा और गद्गद वाणी में व्‍यथित चित्‍त से इस प्रकार बोला,

    दुःशासन बोला ;- भैया! आप प्रसन्न हों?’ ऐसा कहकर वह धरती पर लोट गया और दु:ख से कातर हो दुर्योधन के दोनों चरणों में अपने नेत्रों का अश्रुजल चढ़ाता हुआ नरश्रेष्‍ठ दु:शासन यों बोला,

   दुःशासन बोला ;- ‘नहीं, ऐसा नहीं होगा। चाहे सारी पृथ्‍वी फट जाये, आकाश के टुकडे़-टुकड़े हो जायें, सूर्य अपनी प्रभा और चन्‍द्रमा अपनी शीतलता त्‍याग दे, वायु अपनी तीव्र गति छोड़ दे, हिमालय अपना स्‍थान छोड़कर इधर-उधर घूमने लगे, समुद्र का जल सूख जाये तथा अग्नि अपनी उष्‍णता त्‍याग दे; परन्‍तु मैं आपके बिना इस पृथ्‍वी का शासन नहीं करूँगा। राजन्! अब आप प्रसन्‍न हो जाइये, प्रसन्न हो जाइये।’ इस अन्तिम वाक्‍य को दु:शासन ने बार-बार दुहराया और इस प्रकार कहा,

   दुःशासन बोला ;- ‘भैया आप ही हमारे कुल में सौ वर्षों तक राजा बने रहेंगे।’

   जनमेजय! ऐसा कहकर दु:शासन अपने बड़े भाई के माननीय चरणों को पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगा। दु:शासन और दुर्योधन को इस प्रकार दु:खी होते देख कर्ण के मन में बड़ी व्‍यथा हुई। उसने निकट जाकर उन दोनों से कहा,

   कर्ण बोला ;- ‘कुरुकुल के श्रेष्‍ठ वीरो! तुम दोनों गंवारों की तरह नासमझी के कारण इतना विषाद क्‍यों कर रहे हो? शोक में डूबे रहने से किसी मनुष्‍य का शोक कभी निवृत्‍त नहीं होता। जब शोक करने वाले का शोक उस पर आये हुए संकट को टाल नहीं सकता है, तब उसमें क्‍या सामर्थ्‍य है? यह तुम दोनों भाई शोक करके प्रत्‍यक्ष देख रहे हो। अत: धैर्य धारण करो। शोक करके तो शत्रुओं का हर्ष ही बढ़ाओगे।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 39-40 का हिन्दी अनुवाद)

    राजन्! पाण्‍डवों ने गन्‍धर्वों के हाथ से तुम्‍हें छुड़ाकर अपने कर्तव्‍य का ही पालन किया है। राजा के राज्‍य में रहने वालों को सदा ही उसका प्रिय करना चाहिये। तुम से सुरक्षित होकर वे यहाँ निश्चिन्‍ततापूर्वक निवास कर रहे हैं।

    ऐसी दशा में तुम्‍हें निम्‍न कोटि के मनुष्‍यों की तरह दीनतापूर्ण खेद नहीं करना चाहिये।

    राजन्! तुम आमरण उपवास का व्रत लेकर बैठे हो और इधर तुम्‍हारे सगे भाई शोक एवं विषाद में डूबे हुए हैं। बस, इन सबको दु:खी करने से कोई लाभ नहीं है। तुम्‍हारा भला हो। उठो चलो और अपने भाइयों को आश्‍वासन दो’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत घोषयात्रापर्व में दुर्योधन प्रायोपवेशन विषयक दो सौ उनचासवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

दौ सौ पचासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"कर्ण के समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन करने का ही निश्‍चय"

   कर्ण बोला ;- राजन्! आज तुम यहाँ जो इतनी लघुता का अनुभव कर रहे हो, इसका कोई कारण मेरी समझ में नहीं आता। शत्रुनाशक वीर! यदि एक बार शत्रुओं के वश में पड़ जाने पर पाण्‍डवों ने तुम्‍हें छुड़ाया है, तो इसमें कौन अद्भुत बात हो गयी? कुरुश्रेष्‍ठ! जो राजकीय सेना में रहकर जीविका चलाते हैं तथा राजा के राज्‍य में निवास करते हैं, वे ज्ञात हों या अज्ञात; उनका कर्तव्‍य है कि वे सदा राजा का प्रिय करें। प्राय: देखा जाता है कि प्रधान पुरुष लड़ते-लड़ते शत्रुओं की सेना को व्‍याकुल कर देते हैं। फिर उसी युद्ध में वे बंदी बना लिये जाते हैं और साधारण सैनिकों की सहायता से छूट भी जाते हैं। जो मनुष्‍य सेनाजीवी हैं अथवा राजा के राज्‍य में निवास करते हैं, उन सबको मिलकर अपने राजा के हित के लिये यथोचित प्रयत्‍न करना चाहिये।

    राजन्! यदि तुम्‍हारे राज्‍य में निवास करने वाले पाण्‍डवों ने इसी नीति के अनुसार दैववश तुम्‍हें शत्रुओं के हाथ से छुड़ा दिया है, तो इसमें खेद करने की क्‍या बात है?

    राजन्! आप श्रेष्‍ठ नरेश हैं और अपनी सेना के साथ वन में पधारे हैं, ऐसी दशा में यहाँ रहने वाले पाण्‍डव यदि आपके पीछे-पीछे न चलते-आपकी सहायता न करते, तो यह उनके लिये अच्‍छी बात न होती। पाण्‍डव शौर्यसम्‍पन्न, बलवान् तथा युद्ध में पीठ न दिखाने वाले हैं। वे आपके दास तो बहुत पहले ही हो चुके हैं, अत: उन्‍हें आपका सहायक होना ही चाहिये। पाण्‍डवों के पास जितने रत्‍न थे, उन सबका उपभोग आज तुम्‍हीं कर रहे हो; तथापि देखो, पाण्‍डव कितने धैर्यवान हैं कि उन्‍होंने कभी आमरण अनशन नहीं किया। अत: महाबाहो! तुम्‍हारे इस प्रकार विषाद करने से कोई लाभ नहीं है।

    राजन्! उठो, तुम्‍हारा कल्‍याण हो। अब यहाँ अधिक विलम्‍ब नहीं करना चाहिये। नरेश्‍वर! राजा के राज्‍य में निवास करने वाले लोगों को अवश्‍य ही उसके प्रिय कार्य करने चाहिये। अत: इसके लिये पछताने या विलाप करने की क्‍या बात है? शत्रुओं का मान-मर्दन करने वाले महाराज! यदि तुम मेरी यह बात नहीं मानोगे, तो मैं भी तुम्‍हारे चरणों की सेवा करता हुआ यहीं रह जाऊंगा। नरश्रेष्‍ठ! तुमसे अलग होकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता। राजन्! आमरण अनशन के लिये बैठ जाने पर तुम समस्‍त राजाओं के उपहास पात्र हो जाओगे।

    वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! कर्ण के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधन ने स्‍वर्गलोक में ही जाने का निश्‍चय करके उस समय उठने का विचार नहीं किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत घोषयात्रापर्व में दुर्योधन प्रायोपवेशन के प्रसंग में कर्णवाक्‍य सम्‍बन्‍धी दो सौ पचासवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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