सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ इकतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
"कौरवों का गन्धर्वों के साथ युद्ध और कर्ण की पराजय"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर वे सब लोग एक साथ कुरुराज दुर्योधन के पास गये और गन्धवों ने राजा से कहने के लिये जो-जो बातें कहीं थीं, उन्हें कह सुनाया। भारत! गन्धर्वों द्वारा अपनी सेना को रोक दिये जाने पर प्रतापी राजा दुर्योधन ने अमर्ष में भरकर समस्त सैनिकों से कहा,
दुर्योधन बोला ;- ‘अरे! यदि समस्त देवताओं के साथ इन्द्र भी यहाँ आकर क्रीड़ा करते हों, तो वे भी मेरा अप्रिय करने वाले हैं। तुम लोग इन सब पापात्माओं को दण्ड दो’। दुर्योधन की यह बात सुनकर महाबली कौरव और उनके सहस्रों योद्धा सब के सब युद्ध के लिये कमर कसकर तैयार हो गये। तदनन्तर वे अपने महान् सिंहनाद से दसों दिशाओं को गुंजाते हुए उन समस्त गन्धर्वों को रौंदकर बलपूर्वक द्वैतवन में घुस गये।
राजन् ! उस समय दूसरे-दूसरे गन्धर्वों ने शान्तिपूर्ण वचनों द्वारा ही कौरव सैनिकों को रोका। राकने पर भी उन गन्धर्वों की अवहेलना करके वे समस्त सैनिक उस महान् वन के भीतर प्रविष्ट हो गये। जब राजा दुर्योधन सहित समस्त कौरव वाणी द्वारा मना करने पर न रुके, तब आकाश में विचरने वाले उन सभी गन्धर्वों ने राजा चित्रसेन से यह सारा समाचार निवेदन किया। यह सुनकर गन्धर्वराज चित्रसेन को बड़ा अमर्ष हुआ। उन्होंने कौरवों को लक्ष्य करके समस्त गन्धर्वों को आज्ञा दी, ‘अरे! इन दुष्टों का दमन करो’। भारत! चित्रसेन की आज्ञा पाते ही सब गन्धर्व अस्त्र-शस्त्र लेकर कौरवों की ओर दौडे़। गन्धर्वों को अस्त्र-शस्त्र लिये तीव्र वेग से अपनी ओर आते देख वे सभी कौरव सैनिक दुर्योधन के देखते-देखते चारों ओर भागने लगे। धृतराष्ट्र के सब पुत्रों को युद्ध से विमुख हो भागते देखकर भी राधानन्दन वीर कर्ण ने वहाँ पीठ नहीं दिखायी। गन्धर्वों की उस विशाल सेना को अपनी ओर आती देख कर्ण ने भारी बाण वर्षा करके उसे आगे बढ़ने से रोक दिया। सूतपुत्र कर्ण ने अपने हाथों की फुर्ती के कारण लोहे के क्षुरप्र, विशिख, भल्ल और वत्सदन्त नामक बाणों की वर्षा करके सैकड़ों गन्धर्वों को घायल कर दिया।
गन्धर्वों के मस्तक काटकर गिराते हुए महारथी कर्ण ने चित्रसेन की सारी सेना को क्षणभर में छिन्न-भिन्न कर डाला। परम बुद्धिमान् सूतपुत्र कर्ण के द्वारा ज्यों-ज्यों गन्धर्वों पर मार पड़ने लगी, त्यों-ही-त्यों वे सैकड़ों और हजारों की संख्या में वहाँ आ-आकर एकत्र होने लगे। इस प्रकार चित्रसेन के अत्यन्त वेगशाली सैनिकों के आने से क्षणभर में वहां की सारी पृथ्वी गन्धर्वमयी हो गयी। तदनन्तर राजा दुर्योधन, सुबलपुत्र शकुनि, दु:शासन, विकर्ण तथा अन्य जो धृतराष्ट्रपुत्र वहाँ आये थे, उन सब ने गरुड़ के समान भयंकर शब्द करने वाले रथों पर आरूढ़ हो गन्धर्वों की उस सेना का संहार आरम्भ किया। उन्होंने कर्ण को आगे करके पुन: बड़े वेग से गन्धर्वों का सामना किया। उनके साथ रथों का विशाल समूह था। वे रथों को विचित्र गतियों से चलाते हुए कर्ण की रक्षा करने और गन्धर्वों पर बाण बरसाने लगे।
तत्पश्चात् सारे गन्धर्व संगठित हो कौरवों के साथ भिड़ गये। उस समय उनमें घमासान युद्ध होने लगा, जो रोंगटे खड़े कर देने वाला था। तदनन्तर कौरवों के बाणों से पीड़ित हो गन्धर्व कुछ ढीले पड़ने लगे और उन्हें कष्ट पाते देख कौरव योद्धा जोर-जोर से गरजने लगे। वे युद्ध की विचित्र पद्धतियों के ज्ञाता थे। उन्होंने मायामय अस्त्र का आश्रय लेकर युद्ध आरम्भ किया। चित्रसेन की उस माया से समस्त कौरवों पर मोह छा गया। भारत! उस समय दुर्योधन का एक-एक सैनिक दस-दस गन्धर्वों के साथ लोहा ले रहा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 25-32 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! तदनन्तर गन्धर्वों की विशाल सेना से पीड़ित हो वे सभी योद्धा, जो पहले जीतने का हौसला रखते थे, भयभीत हो युद्ध से भाग चले।
जनमेजय! जब कौरवों के सभी सैनिक युद्ध छोड़कर भागने लगे, उस समय भी सूर्यपुत्र कर्ण पर्वत की भाँति अविचल भाव से उस युद्धभूमि में डटा रहा। दुर्योधन, कर्ण और सुबलपुत्र शकुनि -ये उस समरागंण में यद्यपि बहुत घायल हो गये थे, तथापि गन्धर्वों से युद्ध करते रहे। इस पर सभी गन्धर्व एक साथ संगठित हो कर्ण को मार डालने की इच्छा से सौ-सौ तथा हजार-हजार का दल बांधकर रणभूमि में कर्ण के ऊपर टूट पड़े। उन महाबली वीरों ने सूतपुत्र कर्ण के वध की इच्छा रखकर उसके ऊपर चारों ओर से तलवार, पट्टिश, शूल और गदाओं द्वारा प्रहार आरम्भ किया।
किन्हीं ने उसके रथ का जुआ काट दिया, दूसरों ने ध्वजा काटकर गिरा दी। कुछ लोगों ने ईषादण्ड के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। कुछ गन्धर्वों ने कर्ण के घोड़ों को यमलोक पहुँचा दिया तथा दूसरों ने सारथि को मार गिराया। किसी एक ने छत्र, दूसरों ने 'वरूथ' और अन्य सैनिकों ने रथ के बन्धन काट डाले।
गन्धर्वों की संख्या कई हजार थी। उन्होंने कर्ण के रथ को तिल-तिल करके काट दिया। तब सूतपुत्र कर्ण हाथ में तलवार और ढाल लिये अपने रथ से कूद पड़ा और विकर्ण के रथ पर बैठकर अपने प्राण बचाने के लिये उसके घोड़ों को जोर-जोर से हांकने लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत घोषयात्रापर्व में कर्ण पराजय विषयक दो सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ बयालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
"गन्धर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महाराज! गन्धर्वों ने जब महारथी कर्ण को भगा दिया, तब दुर्योधन के देखते-देखते उसकी सारी सेना भी भाग चली। धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को युद्ध से पीठ दिखाकर भागते देखकर भी राजा दुर्योधन स्वयं वहीं डटा रहा। उसने पीठ नहीं दिखायी। गन्धर्वों की उस विशाल सेना को अपनी ओर आती देख शत्रुओं का दमन करने वाले वीर दुर्योधन ने उस पर बाणों की बड़ी भारी वर्षा प्रारम्भ कर दी। परंतु गन्धर्वों ने उस बाण वर्षा की कुछ भी परवाह नहीं की। उन्होंने दुर्योधन को मार डालने की इच्छा से उसके रथ को चारों ओर से घेर लिया और उसके युग, ईषादण्ड, वरूथ, ध्वजा, सारथि, घोड़ों, तीन वेणुदण्ड वाले छत्र और तल्प (बैठने के स्थान) को बाणों द्वारा तिल-तिल करके काट डाला।
उस समय दुर्योधन रथहीन होकर धरती पर गिर पड़ा। यह देख महाबाहु चित्रसेन ने झटपट जाकर उसे जीते-जी ही बंदी बना लिया।
राजेन्द्र! दुर्योधन के कैद हो जाने पर गन्धर्वों ने रथ पर बैठे हुए दु:शासन को भी सब ओर से घेरकर पकड़ लिया। अन्य कितने ही गन्धर्व धृतराष्ट्र के पुत्र चित्रसेन और विविंशति को बंदी बनाकर ले चले। कुछ अन्य गन्धर्वों ने विन्द और अनुविन्द की तथा राजकुल की समस्त महिलाओं को भी अपने अधिकार में ले लिया। गन्धर्वों ने दुर्योधन की सारी सेना को मार भगाया था। वह सेना तथा उसके वे सैनिक, जो पहले से ही मैदान छोड़कर भाग गये थे, सब एक साथ पाण्डवों की शरण में गये। गन्धर्व जब राजा दुर्योधन को बंदी बनाकर ले जाने लगे, उस समय छकड़े, रसद की दूकान, वेष-भूषा, सवारी ढोने तथा कंधों पर जुआ रखकर चलने में समर्थ बैल आदि सब उपकरणों को साथ ले कौरव सैनिक पाण्डवों की शरण में गये।
सैनिक बोले ;- कुन्तीकुमारो! हमारे प्रियदर्शी महाबाहु महाबली धृतराष्ट्रकुमार राजा दुर्योधन को गन्धर्व (बांधकर) लिये जाते हैं। आप लोग उनकी रक्षा के लिये दौड़िये। वे दु:शासन, दुर्विषह, दुर्मुख, दुर्जय तथा कुरुकुल की सब स्त्रियों को भी कैद करके लिये जा रहे हैं।
राजा को हृदय से चाहने वाले दुर्योधन के सब मन्त्री आर्त एवं दीन होकर उपर्युक्त बातें जोर-जोर से कहते हुए युधिष्ठिर के समीप गये। दुर्योधन के उन बूढ़े मन्त्रियों को इस प्रकार दीन एवं दु:खी होकर युधिष्ठिर से सहायता की भीख मांगते देख भीमसेन ने कहा- ‘हमें हाथी घोड़ों आदि के द्वारा बहुत प्रयन्त्र करके कमर कसकर जो काम करना चाहिये था, उसे गन्धर्वों ने ही पूरा कर दिया। ये कौरव कुछ और ही करना चाहते थे; परन्तु इन्हें उल्टा परिणाम देखने पड़ा। कपटद्यूत खेलने वाले राजा दुर्योधन का यह दुर्मन्त्रणापूर्ण षड्यन्त्र था, जो सफल न हो सका। हमने सुना है, जो लोग असमर्थ पुरुषों से द्वेष करते हैं, उन्हें दूसरे ही लोग नीचा दिखा देते हैं। गन्धर्वों ने आज अलौकिक पराक्रम करके हमारी इस सुनी हुई बात को प्रत्यक्ष कर दिखाया। सौभाग्य की बात है कि संसार में कोई ऐसा भी पुरुष है, जो हम लोगों के प्रिय एवं हितसाधन में लगा हुआ है। उसने हम लोगों का भार उतार दिया और हमें बैठे-ही-बैठे सुख पहुँचाया है। हम सर्दी, गर्मी और हवा का कष्ट सहते हैं, तपस्या से दुर्बल हो गये हैं और विषम परिस्थिति में पड़े हैं, तो भी वह दुर्बुद्धि दुर्योधन, जो इस समय राजगद्दी पर बैठकर मौज उड़ा रहा है, हमें इस दुर्दशा में देखने की इच्छा रखता है। उस पापाचारी दुरात्मा कौरव के स्वभाव का जो लोग अनुसरण करते हैं, वे भी अपनी पराजय देखते हैं। जिसने दुर्योधन को यह सलाह दी है कि वह वन में पाण्डवों से मिलकर उनकी हंसी उड़ावे, उसने बड़ा भारी पाप किया है। कुन्ती के पुत्र कभी क्रूरतापूर्ण बर्ताव नहीं करते, मैं यह बात आप लोगों के सामने कह रहा हूँ’।
कुन्तीनन्दन भीमसेन को इस प्रकार विकृत स्वर में बात करते देख राजा युधिष्ठिर ने कहा,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘भैया! यह कड़वी बातें कहने का समय नहीं है’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें दुर्योधन आदिका अपहरणविषयक दो सौ बयालीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ तिरयालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर का भीमसेन को गन्धर्वों के हाथ से कौरवों को छुड़ाने का आदेश और इसके लिये अर्जुन की प्रतिज्ञा"
युधिष्ठिर बोले ;- तात! ये लोग भय से पीड़ित हो शरण लेने की इच्छा से हमारे पास आये हैं। इस समय कौरव भारी संकट में पड़ गये हैं। फिर तुम ऐसी कड़वी बात कैसे बोल रहे हो? भीमसेन! ज्ञाति अर्थात् भाई बन्धुओं में मतभेद और लड़ाई-झगडे़ होते ही रहते हैं। कभी-कभी उनमें वैर भी बंध जाते हैं; परंतु इससे कुल का धर्म यानि अपनापन नष्ट नहीं होता। जब कोई बाहर का मनुष्य उनके कुल पर आक्रमण करता है, तब श्रेष्ठ पुरुष उस बाहरी मनुष्य के द्वारा, होने वाले अपने कुल के तिरस्कार को नहीं सहन करते हैं। दूसरों के द्वारा पराभव प्राप्त होने पर उसका सामना करने के लिये हम लोग एक सौ पांच भाई हैं। आपस में विरोध होने पर ही हम पांच भाई अलग हैं और वे सौ भाई अलग हैं। यह खोटी बुद्वि वाला गन्धर्व जानता है कि हम (पाण्डव) दीर्घकाल से यहाँ रह रहे हैं, तो भी इस प्रकार हमारा तिरस्कार करके इस चित्रसेन गन्धर्व ने यह अप्रिय कार्य किया है। शक्तिशाली भीम! गन्धर्व के द्वारा बलपूर्वक दुर्योधन के पकड़े जाने से और एक बाहरी पुरुष के द्वारा कुरुकुल की स्त्रियों का अपहरण होने से हमारे कुल का जो तिरस्कार हुआ है, वह कुल के लिये मृत्यु के तुल्य है। नरश्रेष्ठ वीरो! शरणागतों की रक्षा करने और कुल की लाज बचाने के लिेये तुम लोग शीघ्र उठो और युद्ध के लिये तैयार हो जाओ, विलम्ब न करो। वीर! अर्जुन, नकुल, सहदेव और तुम किसी से परास्त होने वाले नहीं हो।
नरवीरो! गन्धर्वों द्वारा अपहृत होने वाले दुर्योधन को छुड़ा लाओ। नरसिंहो! कौरवों के ये सुनहरी ध्वजों वाले निर्मल रथ सामने खड़े हैं। इनमें सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र मौजूद हैं। इनके चनले पर भारी आवाज होती है। ये रथ सदा सुसज्जित रहते हैं। शास्त्रविद्या में निपुण इन्द्रसेन आदि सारथि इन पर बैठे हुए हैं। तुम लोग इन रथों पर आरूढ़ हो गन्धर्वों से युद्ध करने के लिये तैयार हो जाओ और सावधान होकर दुर्योधन को छुड़ाने का प्रयत्न करो। भीमसेन! जो कोई साधारण क्षत्रिय भी क्यों न हो, शरण लेने के लिये आये हुए मनुष्य की यथाशक्ति रक्षा करता है। फिर तुम जैसे वीर पुरुष शरणागत की रक्षा करें, इसके लिये तो कहना ही क्या है?'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर कुन्तीकुमार भीमसेन पहले के वैरका स्मरण करते हुए क्रोध से आंखें लाल करके फिर इस प्रकार बोले।
भीमसेन बोले ;- 'वीरवर भैया युधिष्ठिर! आपको याद होगा, पहले इसी दुर्योधन ने लाक्षागृह में हम लोगों को जलाकर भस्म कर देने का घृणित विचार किया था; परन्तु दैव ने हमारी रक्षा की। भरतकुलभूषण प्रभो! इसी ने मेंरे भोजन मे तीव्र कालकूट विष मिला दिया और मुझे लतापाश से बांधकर गंगाजी में फेंक दिया था। कुन्तीनन्दन! जूए के समय इसने बड़े-बड़े पाप किये हैं। द्रौपदी का स्पर्श, उसके केशों को पकड़कर खींचना और भरी सभा में उसे नग्नी करने के लिये उसके वस्त्रों का अपहरण करना-ये सब दुर्योधन के कुकृत्य हैं। पहले के किये हुए पापों का फल आज दुर्योधन भोग रहा है। इस धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन को पकड़कर दण्ड देने का काम तो हम लोगों को ही करना चाहिये था; परन्तु किसी दूसरे ने हमारे साथ मैत्री की इच्छा रखकर स्वयं ही वह कार्य पूरा कर दिया। राजन्! आप उदासीन न हों; गन्धर्व हम-लोगों का उपकारी ही है।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इसी समय चित्रसेन द्वारा अपहृत होता हुआ दुर्योधन अत्यन्त दु:ख से पीड़ित हो जोर-जोर से विलाप करने लगा।
दुर्योधन बोला ;- पुरुवंश का यश बढ़ाने वाले समस्त धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महायशस्वी पुरुषसिंह महाबाहु पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर! मुझे गन्धर्व बलपूर्वक हरकर लिये जा रहे हैं। मेरी रक्षा करो। महाबाहो! यह शत्रु तुम्हारे भाई मुझ दुर्योधन को बांधे लिये जाता है। साथ ही ये सारे गन्धर्व दु:शासन, दुर्विषह, दुर्मुख, दुर्जय तथा हमारी रानियों को भी बन्दी बनाकर लिये जा रहे हैं। पुरुषोत्तम पाण्डवों! शीघ्र इनका पीछा करो और मेरे प्राण बचाओ। महाबाहु वृकोदर और महायशस्वी धनंजय! मेरी रक्षा करो। दोनो भाई नकुल और सहदेव भी अस्त्र-शस्त्र लिये मेरी रक्षा के लिये दौड़े आवें। पाण्डवों कुरुवंश के लिये यह बड़ा भारी अयश प्राप्त हो रहा है। तुम अपने पराक्रम से इन गन्धर्वों को जीतकर मार भगाओ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार आर्त वाणी में विलाप करते हुए दुर्योधन का करुण क्रन्दन सुनकर माननीय युधिष्ठिर दया से द्रवित हो गये। उन्होंने पुन: भीमसेन से कहा,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘इस जगत् में कौन ऐसा श्रेष्ठ पुरुष है, जो हाथ जोड़कर शरण में आये हुए शत्रु को भी देखकर और उसके द्वारा की हुई ‘दौड़ो बचाओ’ की पुकार सुनकर उसकी रक्षा के लिये दौड़ नहीं पड़ेगा?'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद)
‘पाण्डवो! वरदान, राज्यप्रदान पुत्र की प्राप्ति कराना तथा शत्रु का संकट से उद्धार करना-इन चार वस्तुओं मे से प्रारम्भ के तीन और अन्त का एक समान हैं। तुम्हारे लिये इससे बढ़कर आनन्द की बात और क्या होगी कि दुर्योधन विपत्ति में पड़कर तुम्हारे बाहुबल के भरोसे अपने जीवन की रक्षा करना चाहता है?
वीर भीमसेन! यदि मेरा यह यज्ञ प्रारम्भ न हो गया होता, तो मैं स्वयं ही दुर्योधन को छुड़ाने के लिये दौड़ा जाता। इस विषय में मेरे लिये कोई दूसरा विचार करना उचित नहीं है। कुरुनन्दन भीम! शान्तिपूर्ण ढंग से समझा-बुझाकर जिस तरह भी दुर्योधन को छुड़ा सको, सभी उपायों से वैसा ही प्रयत्न करना। यदि समझाने-बुझाने से वह गन्धर्वराज चित्रसेन तुम्हारी बात न माने, तो कोमलतापूर्ण पराक्रम के द्वारा दुर्योधन को छुड़ाने की चेष्टा करना।
भीम! यदि कोमलतापूर्ण युद्ध से भी वह कौरवों को न छोड़े, तो तुम सभी उपायों से उन लुटेरे गन्धर्वों को कैद करके कौरवों को छुड़ाना। भरतनन्दन वृकोदर! इस समय मेरा यह यज्ञकर्म चालू है; अत: ऐसी स्थिति में मैं तुम्हें इतना ही संदेश दे सकता हूँ’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अजातशत्रु युधिष्ठिर का उपर्युक्त वचन सुनकर अर्जुन ने अपने बड़े भाई की आज्ञा के अनुसार कौरवों को छुड़ाने की प्रतिज्ञा की।
अर्जुन बोले ;- 'यदि गन्धर्व लोग समझाने-बुझाने से कौरवों को नहीं छोड़ेंगे, तो यह पृथ्वी आज गन्धर्वराज का रक्त पीयेगी।' राजन्!
सत्यवादी अर्जुन की वह प्रतिज्ञा सुनकर कौरवों के जी में जी आया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत घोषयात्रापर्व में दुर्योधन को छुड़ाने की आज्ञा विषयक दो सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ चौवालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुश्रत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों का गन्धर्वों के साथ युद्ध"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! युधिष्ठिर की बात सुनकर भीमसेन आदि सभी नरश्रेष्ठ पाण्डव युद्ध के लिये उठ खड़े हुए। उन सब के मुख पर प्रसन्नता छा रही थी। भारत! तदनन्तर उन समस्त महारिथयों ने जाम्बूनद नामक सुवर्ण से विभूषित एवं विचित्र शोभा धारण करने वाले अभेद कवच धारण किये। फिर नाना प्रकार के दिव्य आयुध हाथ में लिये, कवच धारण करके रथों पर आरुढ़ हो ध्वज और धनुष से सुशोभित समस्त पाण्डव प्रज्वलित अग्नियों के समान दिखायी देने लगे। उन रथों में तेज चलने वाले घोड़े जुते हुए थे। वे सभी रथ युद्ध की आवश्यक सामग्रियों से पूर्णत: सम्पन्न थे। रथियों में श्रेष्ठ पाण्डव उन पर आरूढ़ हो शीघ्र ही वहाँ से चल दिये। फिर तो कौरव सैनिकों की बड़ी भयंकर गर्जना सुनायी देने लगी।
महारथी पाण्डवों को एक साथ धावा बोलते देख विजयश्री से सुशोभित होने वाले आकाशचारी महारथी गन्धर्व बड़ी उतावली के साथ क्षणभर में उस वन के भीतर ऐसे एकत्र हो गये, मानो उन्हें किसी का भय न हो। तदनन्तर अपनी विजय से उल्लासित होते हुए सारे गन्धर्व शत्रुओं का सामना करने के लिए लौट पड़े। उन्होंने देखा, चारों वीर पाण्डव युद्ध के लिए उद्यत हो रथ पर बैठे हुए आ रहे हैं और अपनी कान्ति से लोकपालों के समान उद्भासित हो रहे हैं। यह देखकर गन्धमादन निवासी गन्धर्व अपनी सेना की व्यूह रचना करके खडे़ हो गये।
भारत! परम बुद्धिमान धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के पूर्वोक्त वचनों को स्मरण करके पाण्डवों ने कोमलतापूर्वक ही युद्ध आरंभ किया। परंतु गन्धर्वराज चित्रसेन के मूढ़ सैनिक ऐसे नहीं थे, जिन्हें कोमलतापूर्ण वर्ताव के द्वारा कल्याण के पथ पर लाया जा सके। तो भी उस समय शत्रुओं को संताप देने वाले सव्यसाची अर्जुन ने रणदुर्जय आकाशचारी गन्धर्वों को समझाते हुए इस प्रकार कहा,,
अर्जुन बोले ;- 'तुम सब लोग मेरे भाई राजा दुर्योधन को छोड़ दो।' यशस्वी पाण्डुनंदन अर्जुन के ऐसा कहने पर गन्धर्वों ने मुस्कराकर उनसे इस प्रकार कहा,
गन्धर्व बोले ;- ‘तात! हम भूमंडल में केवल एक व्यक्ति की ही आज्ञा का पालन करते हैं। भारत! जिनके शासन को शिरोधार्य करके हम निश्चिन्त हो सर्वत्र विचरते हैं, हमारे उन्हीं एकमात्र स्वामी ने जैसी आज्ञा दी है, वैसा बर्ताव हम कर रहे हैं। अत: इन देवेश्वर के सिवा दूसरा कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो हम लोगों पर शासन कर सके।'
गन्धर्वों के ऐसा कहने पर कुन्तीनंदन अर्जुन ने पुन: उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया,
अर्जुन बोले ;- 'गन्धर्वो! परायी स्त्रियों का अपहरण और मनुष्यों के साथ युद्ध-ये घृणित कर्म गन्धर्वराज चित्रसेन को शोभा नहीं देते हैं। अत: तुम लोग धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा से इस महापराक्रमी धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा इनकी स्त्रियों को छोड़ दे। गन्धर्वों! यदि इस प्रकार समझाने-बुझाने से तुम लोग धृतराष्ट्र के पुत्रों को नहीं छोड़ोगे, तो मैं स्वयं ही पराक्रम करके दुर्योधन को छुड़ा लूंगा'। ऐसा कहकर सव्यसाची अर्जुन ने गन्धर्वों के एक-एक दल पर अपने तीखे आकाशगामी बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। इसी प्रकार बलोन्मत गन्धर्व भी बाणों की बौछार करते हुए पाण्डवों से भिड़ गये। इधर से पाण्डव भी गन्धर्वों का डटकर सामना करने लगे। भारत! तदनन्तर बलशाली गन्धर्वों तथा भयानक वेग वाले पाण्डवों में अत्यन्त भंयकर युद्ध प्रारम्भ हो गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत घोषयात्रापर्व में पाण्डव-गन्धर्व युद्ध विषयक दो सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ पैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्चचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों के द्वारा गन्धर्वों की पराजय"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर दिव्यास्त्रों से सम्पन्न सुवर्ण मालाधारी गन्धर्वों ने तेजोमय बाणों की वर्षा करते हुए चारों ओर से पाण्डवों को घेर लिया। राजन्! वीर पाण्डव केवल चार थे, परंतु उस रणभूमि में हजारों गन्धर्व उन पर एक साथ टूट पड़े थे। यह एक अद्भुत सी बात थी। गन्धर्वों नें जैसे कर्ण तथा दुर्योधन दोनों के रथों को छिन्न-भिन्न करके उनके सैकड़ों टुकड़े कर दिये थे, उसी प्रकार वे पाण्डवों के रथों को भी टूक-टूक कर देने की चेष्टा में लग गये। राजन्! रणभूमि में सैकड़ों गन्धर्वों को अपने ऊपर आक्रमण करते देख नरश्रेष्ठ पाण्डवों ने बार-बार बाणों की झड़ी लगाकर उन सबको रोक दिया। सब ओर से बाणों की वर्षा का लक्ष्य होने के कारण वे आकाशचारी गन्धर्व पाण्डवों के समीप जाने का साहस न कर सके। उस समय गन्धर्वों को क्रोध में भरे हुए देख अर्जुन ने भी कुपित होकर महान् दिव्यास्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया।
वे अत्यन्त बलवान थे। उन्होंने उस युद्ध में आग्नेयास्त्र-का प्रयोग करके दस लाख गन्धर्वों को यमलोक पहुँचा दिया। राजन्! इसी प्रकार बलवानों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर भीमसेन ने अपने तीक्ष्ण सायकों द्वारा सैकड़ों गन्धर्वों को मार गिराया। उत्कट बलशाली माद्रीकुमार नकुल और सहदेव ने भी युद्ध में तत्पर हो सैकड़ों शत्रुओं को आगे से पकड़कर मार डाला। महारथी पाण्डवों के चलाये दिव्यास्त्रों की मार खाकर गन्धर्व धृतराष्ट्र के पुत्रों को लिये-दिये आकाश में उड़ गये। कुन्तीनन्दन अर्जुन ने उन्हें आकाश में उड़ते देख चारों ओर बाणों का विस्तृत जाल-सा फैलाकर गन्धर्वों को घेरे में डाल दिया। उस जाल में वे उसी प्रकार बंध गये, जैसे पिंजड़े में पक्षी। अत: वे अत्यन्त कुपित होकर अर्जुन पर गदा, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रों आदि की वर्षा करने लगे। तब उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता अर्जुन ने उनकी गदा, शक्ति तथा ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा का निवारण करके भल्ल नामक बाणों द्वारा गन्धर्वों के अंगों पर आघात करने लगे। गन्धर्वों के मस्तक, बाहु तथा पैर कट-कटकर इस प्रकार गिरने लगे, मानो पत्थरों की वर्षा हो रही हो।
इससे शत्रुओं को बड़ा भय होने लगा। महात्मा पाण्डुनन्दन अर्जुन के बाणों से घायल होकर आकाश में स्थित हुए गान्धर्वों ने पृथ्वी पर पड़े हुए अर्जुन पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ की। तेजस्वी परन्तप सव्यसाची ने अपने अस्त्रों द्वारा गन्धर्वों की बाण वर्षा का निवारण करके उन्हें फिर से घायल कर दिया। कुरुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले अर्जुन ने स्थूणाकर्ण, इन्द्रजाल, सौर, आग्नेय तथा सौम्य नामक दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया। कुन्तीकुमार के उन सायकों से गन्धर्व
उसी प्रकार दग्ध होने लगे, जैसे इन्द्र के बाणों द्वारा दैत्य। इससे उनको बड़ा विषाद हुआ। जब वे ऊपर की ओर उड़ने लगते, तब अर्जुन के बाणों के जाल से उनकी गति रुक जाती थी और जब इधर-उधर भागने लगते, तब सव्यसाची अर्जुन के भल्ल नामक बाण उन्हें आगे बढ़ने से रोकते थे।
भारत! इस प्रकार कुन्तीकुमार के द्वारा गन्धर्वों को त्रस्त हुआ देख गन्धर्वराज चित्रसेन ने गदा लेकर सव्यसाची अर्जुन पर आक्रमण किया। हाथ में गदा लिये बड़े वेग से युद्ध के लिये आते हुए चित्रसेन की उस गदा के, जो सब की सब लोहे की बनी हुई थी, अर्जुन ने अपने बाणों द्वारा सात टुकड़े कर दिये। वेगशाली अर्जुन के बाणों से अपनी गदा के अनेक टुकड़े हुए देख चित्रसेन अन्तर्धान विद्या द्वारा अपने आपको छिपाकर उन पाण्डुकुमार के साथ युद्ध करने लगे। उस समय उन्होंने जिन-जिन दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया, उन सबको वीर अर्जुन ने अपने दिव्य अस्त्रों द्वारा शान्त कर दिया। महात्मा अर्जुन के उन अस्त्रों से रोके जाने पर बलबान गन्धर्वराज माया से अदृश्य हो गये। उन्हें अदृश्य होकर प्रहार करते देख अर्जुन ने दिव्य अस्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित किये हुए आकाशचारी बाणों से बींध डाला।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्चचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 26-30 का हिन्दी अनुवाद)
(रणभूमि में सब ओर विचरने के कारण) उस समय अर्जुन अनेक रूप धारण किये हुए जान पड़ते थे। उन्होंने कुपित होकर शब्दभेद का सहारा ले चित्रसेन की अन्तर्धान माया को भी नष्ट कर दिया।
चित्रसेन अर्जुन के प्यारे सखा थे। उन्होंने महात्मा अर्जुन के बाणों से अत्यन्त घायल होने पर अपने आपको उनके सामने प्रकट कर दिया।
चित्रसेन ने उनसे कहा ;- ‘कुन्तीनन्दन! इस युद्ध में मुझे तुम अपन सखा चित्रसेन समझो।' यह सुनकर अर्जुन ने चित्रसेन की ओर दृष्टिपात किया। अपने सखा को युद्ध में अत्यन्त दुर्बल हुआ देख
पाण्डवप्रवर अर्जुन ने अपने धनुष पर प्रकट किये हुए उस दिव्यास्त्र का उपसंहार कर दिया।
अर्जुन को अपना अस्त्र समेटते हुए देख सब पाण्डवों ने भी दौड़ते हुए घोड़ों को रोक लिया तथा वेगपूर्वक छूटने वाले और धनुषों का संचालन भी बन्द कर दिया।
तत्पश्चात गन्धर्वराज चित्रसेन, भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेव सब लोग परस्पर कुशल समाचार पूछकर अपने रथों में ही बैठे रहे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत घोषयात्रापर्व में गन्धर्व पराजय विषयक दो सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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