सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ छत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षटत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद और चिन्तापूर्ण उद्धार"
जनमेजय ने पूछा ;- मुने इस प्रकार वन में रहकर सर्दी, गर्मी, हवा और धूप का कष्ट सहने के कारण जिनके शरीर अत्यन्त कृश हो गये थे, उन नरश्रेष्ठ पाण्डवों ने पवित्र द्वैतवन में पूर्वोक्त सरोवर के पास पहुँचकर फिर कौन-सा कार्य किया।
वैशम्पायन जी बोले ;- राजन्! उस (रमणीय) सरोवर पर आकर पाण्डवों ने वहाँ आये हुए जनसमुदाय को विदा कर दिया और अपने रहने के लिये कुटी बनाकर वे आस-पास के रमणीय वनों, पर्वतों तथा नदी के तट प्रदेशों में विचरने लगे। इस तरह वन में रहते हुए उन वीरशिरोमणि पाण्डवों के पास बहुत-से स्वाध्यशील, वेदवेत्ता एवं पुरातन तपस्वी ब्राह्मण आते थे और वे नरश्रेष्ठ पाण्डव उनकी यथोचित सेवा-पूजा करते थे। तदनन्तर किसी समय कथावार्ता में कुशल एक ब्राह्मण उस वनभूमि में पाण्डवों के पास आया और उनसे मिलकर वह घूमता-घामता अकस्मात् राजा धृतराष्ट्र के दरबारमें जा पहुँचा।
कुरु कुल में श्रेष्ठ एवं वयोवृद्ध राजा धृतराष्ट्र ने उसका आदर-
सत्कार किया। जब वह आसन पर बैठ गया, तब महाराज के पूछने पर युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव के समाचार सुनाने लगा।
उसने बताया ;- ‘इस समय पाण्डव हवा और गर्मी आदि का कष्ट सहन करने के कारण अत्यन्त कृश हो गये हैं। भंयकर दु:ख के मुंह में पड़ गये हैं और वीरपत्नी द्रौपदी भी अनाथ की भाँति सब ओर से क्लेश-ही-क्लेश भोग रही है’।
ब्राह्मण की ये बातें सुनकर विचित्रवीर्यनन्दन राजा धृतराष्ट्र दया से द्रवित हो बहुत दु:खी हो गये। जब उन्होंने सुना कि राजा के पुत्र और पौत्र होकर भी पाण्डव इस प्रकार दु:ख की नदी में डूबे हुए हैं, तब उनका हृदय करुणा से भर आया और वे लम्बी-लम्बी सांसें खीचते हुए किसी प्रकार धैर्य धारण करके सब कुछ अपनी ही करतूत का परिणाम समझकर यों बोले,
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘अहो! जो मेरे सभी पुत्रों में बड़े तथा सत्यवादी, पवित्र और सदाचारी हैं तथा जो पहले रंक मृग के (नरम) रोओं से बने हुए बिछौनों पर सोया करते थे, वे अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर आजकल भूमि पर कैसे शयन करते होंगें? जिन्हें कभी मागधों और सूतों का समुदाय प्रतिदिन स्तुति-पाठ करके जगाता था, जो साक्षात् इन्द्र के समान तेजस्वी और पराक्रमी हैं, वे ही राजा युधिष्ठिर निश्चय ही अब भूमि पर सोते और पक्षियों के कलरव सुनकर रात के पिछले पहर में जागते होंगे। भीमसेन का शरीर हवा और धूप का कष्ट सहन करने से अत्यन्त दुर्बल हो गया होगा। उनका अंग-अंग क्रोध से कांपता और फड़कता होगा। वे द्रौपदी के सामने कैसे धरती पर शयन करते होंगे? उनका शरीर ऐसा कष्ट भोगने योग्य नहीं है।
इसी प्रकार सुकुमार एवं मनस्वी अर्जुन, जो सदा धर्मराज युधिष्ठिर के अधीन रहते हैं, अमर्ष के कारण उनके सारे अंगों में संताप हो रहा होगा और निश्चय ही उन्हें अपनी कुटिया में अच्छी तरह नींद नहीं आती होगी। अर्जुन का तेज बड़ा ही भंयकर है। नकुल, सहदेव, द्रौपदी, युधिष्ठिर तथा भीमसेन को सुख से वंचित देखकर सर्प के समान फुफकारते होंगे और अमर्ष के कारण निश्चय ही उन्हें नींद नहीं आती होगी। इसी प्रकार सुख भोगने के योग्य नकुल और सहदेव का भी सुख छिन गया है। वे दोनो भाई स्वर्ग के देवता अश्विनीकुमारों की भाँति रूपवान् हैं। वे भी निश्चय ही अशान्त भाव से सारी रात जागते हुए भूमि पर सोते होंगे। धर्म और सत्य ही उन्हें तत्काल आक्रमण करने से रोके हुए हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षटत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद)
‘जो बल में वायु के समान हैं, वायु देवता के ही अत्यन्त बलवान् पुत्र हैं, वे भीमसेन भी अपने बड़े भाई के द्वारा धर्म के बन्धन में बांध लिये गये हैं। निश्चय ही इसीलिये चुपचाप लम्बी सांसें खींचते हुए वे क्रोध को सहन करते हैं। रणभूमि में भीमसेन दूसरों की अपेक्षा सदा अधिक पराक्रमी सिद्ध होते हैं। वे मेरे पुत्रों के वध की कामना करते हुए धरती पर करवटें बदल रहे होंगें। सत्य और धर्म ने ही उन्हें रोक रक्खा है; अत: वे भी अवसर की ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। अजातशत्रु युधिष्ठिर को जूए में छलपूर्वक हरा दिये जाने पर दु:शासन ने जो कड़वी बातें कही थीं, वे भीमसेन के शरीर में घुसकर जैसे आग तृण और काष्ठ के समूह को जला डालती है, उसी प्रकार उन्हें दग्ध कर रही होगी।
धर्मपुत्र युधिष्ठिर मेरे अपराध पर ध्यान नहीं देंगे। अर्जुन भी उन्हीं का अनुसरण करेंगें। परन्तु इस वनवास से भीमसेन का क्रोध तो उसी प्रकार बढ़ रहा होगा, जैसे हवा लगने से आग धधक उठती है। उस क्रोध से जलते हुए वीरवर भीमसेन हाथ से हाथ मलकर इस प्रकार अत्यन्त भंयकर गर्म-गर्म सांस खींच रहे होंगे, मानो मेरे इन पुत्रों और पौत्रों को अभी भस्म कर डालेंगे। गाण्डीवधारी अर्जुन तथा भीमसेन जब क्रोध में भर जायेंगे, उस समय यमराज और काल के समान हो जायेंगे ये रणभूमि में विद्युत के समान चमकने वाले बाणों की वर्षा करके शत्रुसेना में से किसी को भी जीवित नहीं छोडेगें। दुर्योधन, शकुनि, सूतपुत्र कर्ण तथा दु:शासन-ये बड़े ही मूढ़बुद्धि हैं, क्योंकि जुए के सहारे दूसरे के राज्य का अपहरण कर रहे हैं। (ये अपने ऊपर आने वाले संकट को नहीं देखते हैं) इन्हें वृक्ष की शाखा से टपकता हुआ केवल मधु ही दिखायी देता है, वहां से गिरने का जो भारी भय है, उधर उनकी दृष्टि नहीं है। मनुष्य शुभ और अशुभ कर्म करके उसके स्वर्ग-नरकरूप फल की प्रतीक्षा करता है। वह उस फल से विवश होकर मोहित होता है। ऐसी दशा में मूढ़ पुरुष का उस मोह से कैसे छुटकारा हो सकता है?
मैं सोचता हूँ कि अच्छी तरह जोते हुए खेत में बीज बोया जाये तथा ऋतु के अनुसार ठीक समय पर वर्षा भी हो, फिर भी उसमें फल न लगे, तो इसमें प्रारब्ध के अतिरिक्त अन्य किसी कारण की सिद्धि कैसे की जा सकती है? द्यूतप्रेमी शकुनि ने जूआ खेलकर कदापि अच्छा नहीं किया। साधुता में लगे हुए युधिष्ठिर ने भी जो उसे तत्काल नहीं मार डाला, यह भी अच्छा नहीं किया। इसी प्रकार कुपुत्र के वश में पड़कर मैंने भी कोई अच्छा काम नहीं किया है। इसी का फल है कि यह कौरवों का अन्त काल आ पहुँचा है। निश्चय ही बिना किसी प्रेरणा के भी हवा चलेगी ही, जो गर्भिणी है, वह समय पर अवश्य ही बच्चा जनेगी। दिन के आदि में रजनी का नाश अवश्यम्भावी है तथा रात्रि के प्रारम्भ में दिन का भी अन्त होना निश्चित है। (इसी प्रकार पाप का फल भी किसी के टाले नहीं टल सकता)। यदि यह विश्वास हो जाये, तो हम लोभ के वश होकर न करने योग्य काम क्यों करें और दूसरे भी क्यों करें एवं बुद्धिमान मनुष्य भी उपार्जित धन का दान क्यों न करे? अर्थ के उपयोग का समय प्राप्त होने पर यदि उसका सदुपयोग न किया जाये तो वह अनर्थ का हेतु हो जाता है। अत: विचार करना चाहिये कि वह धन का सदुपयोग क्यों नहीं होता और कैसे हो?
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षटत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 27-31 का हिन्दी अनुवाद)
यदि प्राप्त हुए धन का यथावत् वितरण न किया जायेगा, तो वह कच्चे घड़े में रखे हुए जल की भॉंति चूकर व्यर्थ नष्ट क्यों न होगा? यह सोचकर उसकी रक्षा करना ही कर्तव्य है। यदि यथायोग्य विभाजन के द्वारा धन की रक्षा न की जायेगी तो वह सैकड़ों प्रकार से बिखर जायेगा।
जगत् में किये हुए कर्मफल का नाश नहीं होता-यह निश्चित है। (इससे यही सिद्ध होता है कि उसका यथायोग्य वितरण कर देना ही उचित है)। देखो अर्जुन में कितनी शक्ति है। वे वन से भी इन्द्रलोक को चले गये और वहां से चारों प्रकार के दिव्यास्त्र सीखकर पुन: इस लोक में लौट आये।
सदेह स्वर्ग में जाकर कौन मनुष्य इस संसार में पुन: लौटना चाहेगा। अर्जुन के पुन: मृर्त्यलोक में लौटने का कारण इसके सिवा दूसरा नहीं है कि ये बहुसंख्यक कौरव काल के वशीभूत हो मृत्यु के निकट पहुँच गये हैं और अर्जुन इनकी इस अवस्था को अच्छी तरह देख रहे हैं।
सव्यसाची अर्जुन अद्वितीय धनुर्धर हैं। उनके उस गाण्डीव धनुष का वेग भी बड़ा भयानक है और अब तो अर्जुन को वे दिव्यास्त्र भी प्राप्त हो गये हैं। इस समय इन तीनों के सम्मिलित तेज को यहाँ कौन सह सकता है?’
एकान्त में कही हुई राजा धृतराष्ट्र की उपर्युक्त सारी बातें सुनकर सुबलपुत्र शकुनि ने दुर्योधन और कर्ण के पास जाकर ज्यों की त्यों कह सुनायी। इससे मन्दमति दुर्योधन उदास एवं चिन्तित हो गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत घोषयात्रापर्व में धृतराष्ट्र के खेदयुक्त वचन से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ सैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"शकुनि और कर्ण का दुर्योधन की प्रशंसा करते हुए उसे वन में पाण्डवों के पास चलने के लिये उभाड़ना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धृतराष्ट्र के पूर्वोक्त वचन सुनकर उस समय कर्ण सहित शकुनि ने अवसर देखकर दुर्योधन से इस प्रकार कहा,
शकुनि ओर कर्ण बोले ;- ‘भरतनन्दन! तुमने अपने पराक्रम से पाण्डव वीरों को देश निकाला देकर वनवासी बना दिया है। अब तुम स्वर्ग में इन्द्र की भाँति अकेले ही इस पृथ्वी का राज्य भोगो। राजन्! पर्वत, वन, उद्यान एवं स्थावर-जंगमों सहित यह सारी समुद्रपर्यन्त पृथ्वी आज तुम्हारे अधिकार में है। नरेश्वर! पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा के सभी राजाओं को तुम्हारे लिेय करदाता बना दिया गया है। राजन्! जो दीप्तिमती श्री पहले पाण्डवों की सेवा करती थी, वही
आज भाइयों सहित तुम्हारे अधिकार में आ गयी है। महाराज! इन्द्रप्रस्थ में जाने पर युधिष्ठिर के यहाँ हम लोग जिस राजलक्ष्मी को प्रकाशित होते देखते थे, वही आज तुम्हारे यहाँ उद्भासित होती दिखाई देती है।
राजेन्द्र! तुम्हारे शत्रु शीघ्र ही शोक से दीन-दुर्बल हो गये हैं। महाबाहो! तुमने राजा युधिष्ठिर से इस लक्ष्मी को अपने बुद्धिबल से छीन लिया है। अत: अब तुम्हारे यहाँ यह प्रकाशित होती-सी दिखायी दे रही है। शत्रुवीरों का संहार करने वाले महाराज! इसी प्रकार सब राजा अपने को किंकर बताते हुए आपकी आज्ञा के अधीन रहते हैं। राजन्! इस समय यह सारी समुद्रवसना पृथ्वी देवी पर्वत, वन, ग्राम, नगर तथा खानों के साथ तुम्हारे अधिकार में आ गयी है। यह नाना प्रकार के प्रदेशों से युक्त तथा पर्वतों से सुशोभित है। नाना प्रकार की ध्वजा-पताकाओं से चिह्नित इस भूतल पर कितने ही समृद्धिशाली राष्ट्र हैं और वहाँ बहुत-सी विशाल सेनाएं संगठित हैं। राजन्! तुम अपने पुरुषार्थ से द्विजों द्वारा सम्मानित तथा राजाओं द्वारा पूजित होकर स्वर्ग एवं देवताओं में अंशुमाली सूर्य की भॉंति इस भूतल पर प्रकाशित हो रहे हो।
महाराज! जिस प्रकार रुद्रों से यमराज, मरुद्गणों से इन्द्र तथा नक्षत्रों से उनके स्वामी चन्द्रमा की शोभा होती है, उसी प्रकार कौरवों से घिरे हुए तुम शोभा पा रहे हो। जिन्होंने तुम्हारी आज्ञा का आदर नहीं किया था और जो तुम्हारे शासन में नहीं थे, उन पाण्डवों की दशा हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं। वे राजलक्ष्मी से वंचित हो वन में निवास करते हैं। महाराज! सुनने में आया है कि पाण्डव लोग द्वैतवन में सरोवर के तट पर वनवासी ब्राह्मणों के साथ रहते हैं। महाराज! तुम उत्कृष्ट राजलक्ष्मी से सुशोभित होकर वहाँ चलो और जैसे सूर्य अपने तेज से जगत् को संतप्त करते हैं, उसी प्रकार पाण्डुपुत्रों को संताप दो। इस समय तुम राजा के पद पर प्रतिष्ठित हो और पाण्डव राज्य से भ्रष्ट हो गये हैं। तुम श्रीसम्पन्न हो और वे श्रीहीन हैं। तुम समृद्धिशाली हो और वे निर्धन हो गये हैं।
नरेश्वर! तुम इसी दशा में चलकर पाण्डवों को देखो। पाण्डव तुम्हें नहुषनन्दन ययाति की भाँति महान् वंश में उत्पन्न तथा परम मगंलमयी स्थिति में प्रतिष्ठित देखें। प्रजापालक नरेश! पुरुष में प्रकाशित होने वाली जिस लक्ष्मी को उसके सुहृद् और शत्रु दोनों देखते हैं, वही सबल होती है। जैसे पर्वत की चोटी पर खड़ा हुआ मनुष्य भूतल पर स्थित हुई सभी वस्तुओं को नीची और छोटी देखता है, उसी प्रकार जो पुरुष स्वयं सुख में रहकर शत्रुओं को संकट में पड़ा हुआ देखता है, उसके लिये इससे बढ़कर सुख की बात और क्या होगी?'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 19-23 का हिन्दी अनुवाद)
नृपश्रेष्ठ! मनुष्य को अपने शत्रुओं की दुर्दशा देखने से जो प्रसन्नता प्राप्त होती है, वह धन, पुत्र तथा राज्य मिलने से भी नहीं होती। हम लोगों में से जो भी स्वयं सिद्धमनोराथ होकर आश्रम में अर्जुन को वल्कल और मृगछाला पहने देखेगा, उसे कौन-सा सुख नहीं मिल जायेगा।
तुम्हारी रानियाँ सुन्दर साड़ियाँ पहनकर चलें और वन में वल्कल एवं मृगचर्म लपेटकर दु:ख में डूबी हुई द्रुपदकुमारी कृष्णा को देखें तथा द्रौपदी भी इन्हें देखकर बार-बार संताप करे। वह धन से वंचित हुए अपने आत्मा तथा जीवन की निन्दा करे-उन्हें बार-बार धिक्कारे।
सभा में उसके साथ जो बर्ताव किया गया था, उससे उसके हृदय में इतना दु:ख नहीं हुआ होगा, जितना कि तुम्हारी रानियों को वस्त्राभूषणों से विभूषित देखकर हो सकता है’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शकुनि और कर्ण दोनों राजा दुर्योधन से ऐसा कहकर (अपनी बात पूरी होने पर) चुप हो गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत घोषयात्रापर्व में कर्ण और शकुनि के वचन विषयक दो सौ सैंतीसवाँ अध्याय पुरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ अड़तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टात्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"दुर्योधन के द्वारा कर्ण और शकुनि की मन्त्रणा स्वीकार करना तथा कर्ण आदि का घोषयात्रा को निमित्त बनाकर द्वैतवन में जाने लिये धृतराष्ट्र से आज्ञा लेने जाना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कर्ण की बात सुनकर राजा दुर्योधन को पहले तो बड़ी प्रसन्नता हुई फिर वह दीन होकर इस प्रकार बोला,,
दुर्योधन बोला ;- ‘कर्ण! तुम जो कुछ कह रहे हो, वह सब मेरे मन में भी है, परन्तु जहाँ पाण्डव रहते हैं, वहाँ जाने के लिये मैं पिताजी की आज्ञा नहीं पा सकूंगा। महाराज धृतराष्ट्र उन वीर पाण्डवों के लिये विलाप करते रहते हैं। वे तप:शक्ति के संयोग से पाण्डवों को हम से अधिक बलशाली भी मानते हैं अथवा यदि उन्हें इस बात का पता लग जाये कि हम लोग वहाँ जाकर क्या करना चाहते हैं, तब वे भावी संकट से हमारी रक्षा के लिये ही हमें वहाँ जाने कि अनुमति नहीं देंगे।
महातेजस्वी कर्ण! (पिताजी को यह समझते देर नहीं लगेगी कि) वन में रहने वाले पाण्डवों को उखाड़ फेंकने के अतिरिक्त हम लोगों के द्वैतवन में जाने का दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है। जूए का अवसर उपस्थित होने पर विदुर जी ने मुझ से, तुम से तथा (मामा) शकुनि से जैसी बातें कही थीं, उन्हें तो तुम जानते ही हो। उन सब बातों पर तथा और भी पाण्डवों के लिये जो विलाप किया गया है, उस पर विचार करके मैं किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता कि द्वैतवन में चलूं या नहीं चलूं। यदि मैं भीमसेन तथा अर्जुन को द्रौपदी के साथ वन में क्लेश उठाते देख सकूं, तो मुझे भी बड़ी प्रसन्नता होगी। पाण्डवों को वल्कल वस्त्र पहनें और मृगचर्म ओढ़ देखकर मुझे जितनी खुशी होगी, उतनी इस समूची पृथ्वी का राज्य पाकर भी नहीं होगी।
कर्ण! मैं द्रुपदकुमारी कृष्णा को वन में गेरुए कपड़े पहने देखूं, इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात मेरे लिये और क्या हो सकती है। यदि धर्मराज युधिष्ठिर तथा पाण्डुनन्दन भीमसेन मुझे परमोत्कृष्ट राजलक्ष्मी से सम्पन्न देख लें, तो मेरा जीवन सफल हो जाये। परन्तु मुझे कोई ऐसा उपाय नहीं दिखाई नहीं देता, जिससे हम लोग द्वैतवन में जा सकें अथवा महाराज मुझे वहाँ जाने की आज्ञा दे दें। अत: तुम मामा शकुनि तथा भाई दु:शासन के साथ सलाह करके कोई अच्छा-सा उपाय ढूँढ निकालो, जिससे हम लोग द्वैतवन चल सकें। मैं भी आज ही जाने या नहीं जाने के विषय में कोई निश्चय करके कल सबेरा होते ही महाराज के पास जाऊंगा। जब मैं वहाँ बैठ जाऊं और कुरुश्रेष्ठ भीष्म जी भी उपस्थित रहें, उस समय जो उपाय दिखायी दे, उसे तुम और शकुनि दोनों बतलाना। पितामह भीष्म जी की तथा महाराज की वहाँ जाने के विषय में क्या सम्मति है; ये सुन लेने पर पितामह को अनुनय-विनय से राजी करके (उनकी आज्ञा लेकर ही) द्वैतवन में चलने का निश्चय करूँगा।'
'बहुत अच्छा, ऐसा ही हो’, यह कहकर सब अपने-अपने विश्रामगृह में चले गये। जब रात बीती और सबेरा हुआ, तब कर्ण राजा दुर्योधन के पास गया। वहाँ कर्ण ने हंसकर दुर्योधन से कहा- 'जनेश्वर! मुझे जो उपाय सूझा है, उसे बताता हूँ, सनो। नरेश्वर! गौओं के रहने के सभी स्थान इस समय द्वैतवन में ही हैं और वहाँ आप के पधारने की सदा प्रतीक्षा की जाती है, अत: घोषयात्रा (उन स्थानों को देखने) के बहाने वहाँ नि:सन्देह चल सकेगें।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टात्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 20-24 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! अपनी गौओं को देखने के लिये यात्रा करना सदा उचित ही है, ऐसा बहाना लेने पर पिताजी तुम्हें अवश्य वहाँ जाने की आज्ञा दे सकते हैं।
घोषयात्रा का निश्चय करने के लिये इस प्रकार की बातें करते हुए उन दोनों सुहृदों से गान्धारराज शकुनि ने हंसते हुए से कहा- ‘द्वैतवन में जाने का यह उपाय मुझे सर्वथा निर्दोष दिखाई दिया है। इसके लिये राजा हमें अवश्य आज्ञा दे देंगे और वहाँ जाकर हमें क्या-क्या करना चाहिये-इसके विषय में कुछ समझायेंगे भी।
नरेश्वर! गौओं के रहने के सभी स्थान इस समय द्वैतवन में ही हैं और वहाँ तुम्हारे पधारने की सदा प्रतीक्षा की जाती है; अत: घोषयात्रा के बहाने हम वहाँ निसन्देह चल सकेंगे।'
तदनन्तर वे सब के सब अपनी योजना को सफल होती देख हंसने और एक-दूसरे के साथ हाथ पर प्रसन्नता से ताली देने लगे। फिर यही निश्चय करके वे तीनों कुरुश्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्र से मिले।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत घोषयात्रापर्व में घोषयात्रा के सम्बन्ध में परामर्शविषयक दो सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ उन्नतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"कर्ण आदि के द्वारा द्वैतवन में जाने का प्रस्ताव, राजा धृतराष्ट्र की अस्वीकृति, शकुनि का समझाना, धृतराष्ट्र का अनुमति देना तथा दुर्योधन का प्रस्थान"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भरतनन्दन जनमेजय! तदन्तर वे सेब लोग राजा धृतराष्ट्र से मिले। उन्होंने राजा की कुशल पूछी तथा राजा ने उनकी। उन लोगों ने समूह नामक एक ग्वाले को पहले से ही सिखा-पढ़ाकर ठीक कर लिया था। उसने राजा धृतराष्ट्र की सेवा में निवेदन किया कि ‘महाराज! आजकल आपकी गौएं समीप ही आयी हुई हैं।' जनमेजय! इसके बाद कर्ण और शकुनि ने राजाओं में श्रेष्ठ जननायक धृतराष्ट्र से कहा,
कर्ण और शकुनि बोले ;- ‘कुरुराज! इस समय हमारी गौओं के स्थान रमणीय प्रदेशों में हैं। यह समय गायों और बछड़ों की गणना करने तथा उनकी आयु, रंग, जाति एवं नाम का ब्यौरा लिखने के लिये
भी अत्यन्त उपयोगी है। राजन्! इस समय आपके पुत्र दुर्योधन के लिये हिंसक पशुओं के शिकार करने का भी उपयुक्त अवसर है। अत: आप इन्हें द्वैतवन में जाने की आज्ञा दीजिये’।
धृतराष्ट्र बोले ;– तात! हिंसक पशुओं का शिकार खेलने का प्रस्ताव सुन्दर है। गौओं की देख-भाल का काम भी अच्छा ही है; परंतु ग्वालों की बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिये, यह नीति का वचन है, जिसका मुझे स्मरण हो आया है। मैंने सुना है कि नरश्रेष्ठ पाण्डव भी इन दिनों वहीं कहीं आसपास ठहरे हुए हैं; अत: तुम लोंगों को मैं स्वयं वहाँ जाने की आज्ञा नहीं दे सकता। राधानन्दन! पाण्डव छलपूर्वक हराये गये हैं। महान् वन में रहकर उन्हें बड़ा कष्ट भोगना पड़ा है। वे निरन्तर तपस्या करते रहे हैं और अब विशेष शक्ति सम्पन्न हो गये हैं। महारथी तो वे हैं ही। माना कि धर्मराज युधिष्ठिर क्रोध नहीं करेंगे, परन्तु भीमसेन तो सदा ही अमर्ष में भरे रहते हैं और राजा द्रुपद की पुत्री कृष्णा भी साक्षात अग्नि की ही मूर्ति है। तुम लोग तो अहंकार और मोह में चूर रहते ही हो; अत: उनका अपराध अवश्य करोगे। उस दशा में वे तुम्हें भस्म किये बिना नहीं छोड़ेंगे। क्योंकि उनमें तप:शक्ति विद्यमान है अथवा उन वीरों के पास अस्त्र-शस्त्रों की भी कमी नहीं है। तुम्हारे प्रति उनका क्रोध सदा ही बना रहता है। वे तलवार बांधे सदा एक साथ रहते हैं; अत: वे अपने शस्त्रों के तेज से भी तुम्हें दग्ध कर सकते हैं। यदि संख्या से अधिक होने के कारण तुमने ही किसी प्रकार उन पर चढ़ाई कर दी, तो यह भी तुम्हारी बड़ी भारी नीचता ही समझी जायेगी। मेरी समझ में तो तुम लोगों का पाण्डवों पर विजय पाना असम्भव ही है। महाबाहु धनंजय इन्द्रलोक में रह चुके हैं और वहां से दिव्यस्त्रों की शिक्षा लेकर वन में लौटे हैं। पहले जब अर्जुन को दिव्यास्त्र प्राप्त नहीं हुए थे, तभी उन्होंने सारी पृथ्वी को जीत लिया था।
अब तो महारथी अर्जुन दिव्यास्त्रों के विद्वान् हैं, ऐसी दशा में वे तुम्हें मार डालें, यह कौन बड़ी बात है? अथवा मेरी बात सुनकर तुम लोग वहाँ यदि अपने को काबू में रखते हुए सावधानी के साथ रह सको, तो भी यह विश्वास करके कि ये लोग सत्यवादी होने के कारण हमें कष्ट नहीं देंगे, वनवास से उद्विग्न हुए पाण्डवों के बीच में निवास करना तुम्हारे लिये दु:खदायी ही होगा अथवा यह भी असम्भव है कि तुम लोगों के कुछ सैनिक युधिष्ठिर का अपमान कर बैठें और तुम्हारे अनजान में किया गया यह अपराध तुम लोगों के लिये हानिकारक हो जाये।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद)
'अत: भरतनन्दन! दूसरे विश्वसनीय पुरुष गौओं की गणना करने के लिये वहाँ चले जायेंगे। स्वयं तुम्हारा वहाँ जाना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता।'
शकुनि बोला ;- भारत! ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं। उन्होंने भरी सभा में यह प्रतिज्ञा की है कि ‘हमें बारह वर्षों तक वन में रहना है अन्य पाण्डव भी धर्म पर ही चलने वाले हैं; अत: वे सब के सब युधिष्ठिर का ही अनुसरण करते हैं। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर हम लोगों पर कदापि क्रोध नहीं करेंगे। हमारी विशेष इच्छा केवल हिंसक पशुओं का शिकार खेलने की है। हम लोग वहाँ स्मरण के लिये केवल गौओं की गणना करना चाहते हैं। पाण्डवों से मिलने की इच्छा हमारी बिल्कुल नहीं है। हमारी ओर से वहाँ कोई भी नीचतापूर्ण व्यवहार नहीं होगा। जहाँ पाण्डवों का निवास होगा, उधर हम लोग जायेंगे ही नहीं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शकुनि के ऐसा कहने पर राजा धृतराष्ट्र ने इच्छा न होते हुए भी मन्त्रियों सहित दुर्योधन को वहाँ जाने की आज्ञा दे दी। धृतराष्ट्र की आज्ञा पाकर गान्धारीपुत्र भरतश्रेष्ठ दुर्योधन, कर्ण और विशाल सेना के साथ नगर से बाहर निकला। दु:शासन, बुद्धिमान् शकुनि, अन्यान्य भाइयों तथा सहस्त्रों स्त्रियों से घिरे हुए दुर्योधन ने वहां से प्रस्थान किया। द्वैतवन नामक सरोवर तथा वन को देखने के लिये यात्रा करने वाले महाबाहु दुर्योधन के पीछे समस्त पुरवासी भी अपनी स्त्रियों को साथ लेकर गये।
दुर्योधन के साथ आठ हजार रथ, तीस हजार हाथी, कई हजार पैदल और नौ हजार घोड़े गये। बोझ ढोने के लिये सैकड़ों छकड़े, दुकानें तथा वेष-भूषा की सामग्रियां भी साथ चलीं। वणिक्, वंदीजन तथा आखेट प्रिय मनुष्य सैकड़ों-हजारों की संख्या में साथ गये।
राजन्! राजा दुर्योधन के प्रस्थान काल में बड़े जोर का कोलाहल हुआ, मानो वर्षा काल में प्रचण्ड वायु का भयंकर शब्द सुनायी दे रहा हो। नगर से दो कोस दूर जाकर राजा दुर्योधन ने पड़ाव डाल दिया। फिर वहां से समस्त वाहनों के साथ द्वैतवन एवं सरोवर की ओर प्रस्थान किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत घोषयात्रापर्व में दुर्योधन प्रस्थान विषयक दो सौ उन्नतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
दौ सौ चालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चत्वारिंशदधिकद्विशततमम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
"दुर्योधन का सेना सहित वन में जाकर गौओं की देखभाल करना और उसके सैनिकों एवं गन्धर्वों में परस्पर कटु संवाद"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर राजा दुर्योधन जहाँ-तहाँ वन में पड़ाव डालता हुआ, उन घोषों (गोशालाओं) के पास पहुँच गया और वहाँ उसने अपनी छावनी डाली। उसके साथ गये हुए लोगों ने भी उस सर्वगुणसम्पन्न, रमणीय, सुपरिचित, सजल तथा सघन वृक्षावलियों से युक्त प्रदेश में अपने डेरे डाल दिये। इसी प्रकार दुर्योधन के डेरे के पास ही कर्ण, शकुनि तथा दु:शासन आदि सब भाइयों के लिये पृथक्-पृथक् बहुत से खेमे पड़ गये। (रहने की व्यवस्था ठीक हो जाने पर) राजा दुर्योधन ने अपनी सैकड़ों एवं हजारों गौओं का निरीक्षण करना आरम्भ किया। उन सब पर संख्या और निशानी डलवा दी। फिर बछड़ों पर भी संख्या और निशानी डलवायी और उनमें से जो नाथने योग्य थे, उन सब की गणना कराकर उन पर पहचान डाल दी। जिन गौओं के बछड़े बहुत छोटे थे, उनकी भी अलग गणना करवायी।
इस प्रकार जांच-पड़ताल का काम पूरा करके कुरुनन्दन दुर्योधन ने तीन साल के बछडों की पृथक् गणना करवायी और स्मरण के लिये सब कुछ लिखकर वह बड़ी प्रसन्नता के साथ ग्वालों से घिरकर उस वन में विहार करने लगा। वे समस्त पुरवासी और सहस्रों की संख्या में आये हुए सैनिक उस वन में अपनी-अपनी रुचि के अनुसार देवताओं के समान क्रीड़ा करने लगे। तदनन्तर नृत्य और वादन की कला में कुशल कुछ गवैये गोप तथा गहने-कपड़ों से सजी हुई उनकी कन्याएं दुर्योधन के समीप आयीं। अपनी स्त्रियों के साथ राजा दुर्योधन उनको देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हें बहुत-सा धन दिया तथा यथायोग्य नाना प्रकार की खाने-पीने की वस्तुएं अर्पित कीं। तदनन्तर वे सब लोग तरक्षुओं (जरखों), जंगली भैंसों, गवयों, रीछों और शूकरों एवं अन्य जंगली हिंसक पशुओं का सब ओर से शिकार करने लगे। उन्होंने वन के रमणीय प्रदेशों में बहुत से हाथियों को अपने बाणों से विदीर्ण करके अनेकानेक हिंसक पशुओं को पकड़ लिया।
भरतनन्दन! दुर्योधन अपने साथियों सहित दूध आदि गोरसों का उपयोग करता और भाँति-भाँति के भोग भोगता हुआ वहां के रमणीय वनों और उपवनों की शोभा देखने लगा। उनमें मतवाले भ्रमर गुंजार करते थे और मयूरों की मधुर वाणी सब ओर गूंज रही थी। इस प्रकार क्रमश: आगे बढ़ता हुआ वह परम पवित्र द्वैतवन नामक सरोवर के समीप जा पहुँचा। वहाँ मधुमत्त भ्रमर कमल पुष्पों का रस ले रहे थे। मयूरों की मधुर वाणी से वह सारा प्रदेश व्याप्त हो रहा था। सप्तच्छन्द (छितवन) के वृक्षों से वह सरोवर आच्छादित-सा जान पड़ता था। उसके तटों पर मौलसिरी और नाग केसर के वृक्ष शोभा पा रहे थे। उसी सरोवर के तट पर वज्रधारी इन्द्र के समान उत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न बुद्धिमान् राजा युधिष्ठिर अपनी धर्मपत्री महारानी द्रौपदी के साथ साद्यस्क (एक दिन में पूर्ण होने वाले) राजर्षि यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे।
कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! उस यज्ञ में उनके साथ बहुत-से वनवासी विद्वान ब्राह्मण भी थे। राजा वन में सुलभ होने वाली सामग्री द्वारा दिव्य विधि से यज्ञ कर रहे थे। वे उसी सरोवर के आस-पास कुटी बनाकर रहते थे। भारत! तदनन्तर दुर्योधन ने अपने सहस्रों सेवकों को आज्ञा दी- ‘तुम लोग बहुत से क्रीड़ामण्डप तैयार करो’। आज्ञाकारी सेवक दुर्योधन से ‘तथास्तु' कहकर क्रीड़ाभवन बनाने की इच्छा से द्वैतवन के सरोवर के निकट गये। दुर्योधन का सेनानायक द्वैतवन सरोवर के अत्यन्त निकट तक पहुँच गया था, उस वन के द्वार पर पैर रखते ही उसको गन्धर्वों ने रोक दिया। राजन्! वहाँ गन्धर्वराज चित्रसेन पहले से ही अपने सेवक गणों के साथ कुबेरभवन से आये हुए थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चत्वारिंशदधिकद्विशततमम अध्याय के श्लोक 22-31 का हिन्दी अनुवाद)
वे उन दिनों अप्सराओं तथा देवकुमारों के साथ विभिन्न स्थानों में भ्रमण करते थे। उन्होंने स्वयं ही क्रीड़ा विहार के लिये उस सरोवर को सब ओर से घेर लिया था। राजन्! उस सरोवर को गन्धर्वराज ने घेर रक्खा है, यह देखकर वे राजसेवक जहाँ राजा दुर्योधन था, वहाँ लौट गये।
जनमेजय! अपने सेवकों का कथन सुनकर राजा दुर्योधन ने युद्ध के लिये उन्मत्त रहने वाले सैनिकों को यह आदेश देकर भेजा कि ‘गन्धर्वों को वहां से मार भगाओ’।
राजा का यह आदेश सुनकर उसकी सेना के नायक द्वैतवन सरोवर के समीप जाकर गन्धर्वों से इस प्रकार बोले,
सेना नायक बोला ;- ‘गन्धर्वो! महाराज धृतराष्ट्र के बलवान् पुत्र राजा दुर्योधन यहाँ विहार करने की इच्छा से पधार रहे हैं। तुम लोग उनके लिये यह स्थान ख़ाली करके दूर चले जाओ’।
राजन्! उनके ऐसा कहने पर गन्धर्व जोर-जोर से हंसने लगे और उन राजसेवकों को उत्तर देते हुए उनसे इस प्रकार कठोर वाणी में बोले,,
गन्धर्व बोले ;- ‘तुम्हारा राजा दुर्योधन मूर्ख है। उसे तनिक भी चेत नहीं है; क्योंकि वह हम देवलोकवासी गन्धर्व को भी बनियों के समान समझकर इस प्रकार आज्ञा दे रहा है। तुम लोगों की भी बुद्धि मारी गयी है। इसमें संदेह नहीं कि तुम सब के सब मरना चहाते हो। तभी तो उस दुर्योधन के कहने से तुम इस प्रकार हम से विचारहीन होकर बातें कर रहे हो। या तो तुम लोग तुरंत वहीं लौट जाओ, जहाँ तुम्हारा राजा दुर्योधन रहता है या यदि ऐसा नहीं करना है तो अभी धर्मराज के नगर (यमलोक) की राह लो’।
गन्धर्वों के ऐसा कहने पर राजा के सेनानायक योद्धा वहीं भाग गये, जहाँ धृतराष्ट्रपुत्र राजा दुर्योधन स्वयं विराजमान था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत घोषयात्रापर्व में गन्धर्व-दुर्योधन संवाद विषयक दो सौ चाळीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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