सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ इकत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
"स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार, रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट-यात्रा, देवासुर संग्राम, महिषासुर वध तथा स्कन्द की प्रशंसा"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जब स्कन्द ने इस प्रकार मातृगणों का यह प्रिय मनोरथ पूर्ण किया, तब स्वाहा ने आकर उनसे कहा,
स्वाहा बोली ;- ‘तुम मेरे औरस पुत्र हो। अत: मैं चाहती हूँ कि तुम मुझे परम दुर्लभ प्रीति प्रदान करो।’
तब स्कन्द ने पूछा ;- ‘मां तुम कैसी प्रीति पाने की अभिलाषा रखती हो?’
स्वाहा बोली ;- 'महाबाहो! मैं प्रजापति दक्ष की प्रिय पुत्री हूँ, मेरा नाम स्वाहा है मैं बचपन से ही सदा अग्नि देव के प्रति अनुराग रखती आयी हूँ। पुत्र! परन्तु अग्नि देव को इस बात का अच्छी तरह पता नहीं है कि मैं उन्हें चाहती हूँ। बेटा! मेरी यह हार्दिक अभिलाषा है कि मैं नित्य निरन्तर अग्नि देव के साथ ही निवास करूं।'
स्कन्द बोले ;- 'देवी! आज से सन्मार्ग पर चलने वाले सदाचारी धर्मात्मा मनुष्य देवताओं तथा पितरों के लिये हव्य और कव्य के रूप में उठाकर ब्राह्मणों द्वारा उच्चारित वेद-मन्त्रों के साथ अग्नि में जो कुछ आहुति देंगे, वह सब स्वाहा का नाम लेकर ही अर्पण करेंगे। शोभने! इस प्रकार तुम्हारे साथ निरन्तर अग्नि देव का निवास बना रहेगा।'
मार्कण्डेय जी कहते है ;- युधिष्ठिर! स्कन्द के इस प्रकार कहने और आदर देने पर स्वाहा बहुत संतुष्ट हुई। अपने स्वामी अग्नि देव का संयोग पाकर स्कन्द का पूजन किया। तदनन्तर प्रजापति ब्रह्माजी ने महासेन से कहा,
ब्रह्माजी बोले ;- ‘वत्स! अब तुम अपने पिता त्रिपुरविनाशक महादेव जी से मिलो। भगवान रुद्र ने अग्नि में और भगवती उमा ने स्वाहा में प्रवेश करके समस्त लोकों के हित के लिये तुम जैसे अपराजित वीर को उत्पन्न किया है। महात्मा रुद्र ने उमा के गर्भ में जिस वीर्य की स्थापना की थी, उसका कुछ भाग इसी पर्वत पर गिर पड़ा था, जिससे मिज्जिका-मिज्जिक जोडे़ की उत्पत्ति हुई। शेष शुक्र का कुछ अंश लोहित-सागर में, कुछ सूर्य की किरणों में, कुछ पृथ्वी पर और कुछ वृक्षों पर गिर पड़ा। इस प्रकार वह पांच भागों में विभक्त होकर गिरा था। उसी से यह तुम्हारे विभिन्न आकृति वाले, मांस-भक्षी एवं भयंकर पार्षद प्रकट हुए हैं; जिन्हें मनीषी पुरुष ही जान पाते हैं’। तब अपरिमित आत्मबल से सम्पन्न एवं पितृभक्त कुमार महासेन ने ‘एवमस्तु’ कहकर अपने पिता भगवान महेश्वर का पूजन किया।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! धनार्थी पुरुषों को आक के फूलों से उन पांचों गणों की सेवा करनी चाहिये। रोगों की शान्ति के लिये भी उनका पूजन करना उचित है। मिज्जिका-मिज्जिक का जोड़ा भी भगवान शंकर से उत्पन्न हुआ है। अत: बालकों के हित की इच्छा रखने वाले पुरुषों को चाहिये कि वे सदा इस जोड़े को नमस्कार करें। वृक्षों पर से गिरे हुए शुक्र से ’वृद्धिका’ नाम वाली स्त्रियां उत्पन्न हुई हैं, जो मनुष्य का मांस भक्षण करने वाली हैं। सन्तान की इच्छा रखने वाले लोगों को इन देवियों के आगे मस्तक झुकाना चाहिये। इस प्रकार ये पिशाचों के असंख्य गण बताये गये हैं।
राजन्! अब तुम मुझसे स्कन्द के घण्टे और पताका की उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनो। इन्द्र के ऐरावत हाथी के उपयोग में आने वाले जो दो ‘वैजयन्ती’ नाम से विख्यात घण्टे थे, उन्हें बुद्धिमान इन्द्र ने क्रमश: ले आकर स्वयं कुमार कार्तिकेय को अर्पण कर दिया। उनमें से एक घण्टा विशाख ने ले लिया और दूसरा स्कन्द के पास रह गया। कार्तिकेय और विशाख दोनों की पताकायें लाल रंग की हैं। उस समय देवताओं ने जो खिलौने दिये थे, उन्हीं से महाबली महासेन खेलते और मन बहलाते हैं। राजन्! अद्भुत शोभा से सम्पन्न और कान्तिमान् कुमार कार्तिकेय उस समय उस स्वर्णमय शिखर पर पिशाचों और देवताओं के समूह से भिड़कर बड़ी शोभा पा रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 22-42 का हिन्दी अनुवाद)
जैसे अंशुमाली सूर्य के उदय से मनोहर कन्दरा वाले मंदराचल की शोभा होती है, उसी प्रकार वीरवर स्कन्द के निवास से सुन्दर वन वाले उस श्वेतगिरि की शोभा बढ़ गयी थी। वहाँ कहीं फूलों से भरे हुए कल्पवृक्ष के वन और कहीं कनेर के कानन सुशोभित होते थे। कहीं पारिजात के वन थे, तो कहीं जपा और अशोक के उपवन शोभा पाते थे। कहीं कदम्ब नामक वृक्षों के समूह लहलहा रहे थे, तो कहीं दिव्य मृगगण विचर रहे थे। सब ओर दिव्य पक्षियों के समुदाय कलरव कर रहे थे। इन सबसे उस श्वेत पर्वत की शोभा बहुत बढ़ गयी थी। वहाँ सम्पूर्ण देवता तथा देवर्षिगण आकर विराजमान हो गये। क्षुब्ध महासागर की गम्भीर गर्जना के समान मेघों और दिव्य वाद्यों का तुमुल घोष सब ओर गूंजने लगा। वहाँ दिव्य गन्धर्व और अप्सराएं नृत्य करने लगीं।
हर्ष में भरे हुए प्रणियों का महान् कोलाहल सुनायी देने लगा। इस प्रकार इन्द्र सहित सम्पूर्ण जगत् बड़ी प्रसन्नता के साथ श्वेत पर्वत पर विराजमान कुमार कार्तिकेय का दर्शन करने लगा। उनके दर्शन से किसी का जी नहीं भरता था।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! जब अग्निनन्दन भगवान स्कन्द का सेनापति के पद पर अभिषेक हो गया, तब श्रीमान् भगवान शिव देवी पार्वती के साथ सूर्य के समान रथ पर आरूढ़ हो प्रसन्नतापूर्वक भद्रवट की ओर प्रस्थित हुए। उस समय इन्द्र आदि सब देवता उनके पीछे-पीछे चले। भगवान शिव के उस उत्तम रथ में एक हजार सिंह जुते हुए थे। साक्षात् काल उस रथ का संचालन कर रहा था। उसकी प्रेरणा से वह शुभ्र रथ आकाश में उड़ चला। मनोहर केशरों से सुशोभित वे सिंह चराचर प्रणियों को भयभीत करते और दहाड़ते हुए आकाश में इस प्रकार चलने लगे, मानो उसे पी जायेंगे।
उस रथ पर भगवती उमा के साथ बैठे हुए भगवान शिव इस प्रकार शोभित हो रहे थे, मानो इन्द्रधुनुष से युक्त मेघों की घटा में विद्युत् के साथ भगवान सूर्य प्रकाशित हो रहे हों। उनके आगे-आगे गुह्यकों सहित नरवाहन धनाध्यक्ष भगवान कुबेर मनोहर पुष्पक विमान पर बैठकर जा रहे थे। देवताओं सहित इन्द्र भी ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो (भद्रवट को) जाते हुए वरदायक भगवान वृषभध्वज के पीछे-पीछे चल रहे थे। मालाधारी जृम्भकगण, यक्ष तथा राक्षसों से सुशोभित महायक्ष अमोघ भगवान शंकर के दाहिने भाग में रहकर चल रहा था। उसके दाहिने भाग में विचित्र प्रकार के युद्ध करने वाले बहुत-से देवता, वसुओं तथा रुद्रों के साथ संगठित होकर चल रहे थे। मृत्यु सहित यमराज अत्यन्त भयंकर रूप धारण करके देवताओं के साथ यात्रा कर रहे थे। उन्हें सैकडों भयानक रोगों ने मूतिर्मान् होकर चारों ओर से घेर रक्खा था। यमराज के पीछे-पीछे भगवान शंकर का विजय नामक भयंकर त्रिशूल जा रहा था, जो तीन शिखरों से सुशोभित और तीक्ष्ण था। उस त्रिशूल को सिन्दूर आदि से भली-भाँति सजाया गया था।
जल के स्वामी भगवान वरुण हाथ में भयंकर पाश लिये उस त्रिशूल को सब ओर से घेरकर धीरे-धीरे चल रहे थे। उनके साथ नाना प्रकार की आकृति वाले जल जन्तु भी थे। विजय के पीछे भगवान रुद्र का पट्टिश नामक शस्त्र जा रहा था, जिसे गदा, मूसल और शक्ति आदि उत्तम आयुधों ने घेर रक्खा था। राजन्! पट्टिश के पीछे भगवान रुद्र का अत्यन्त प्रभावपूर्ण छत्र जा रहा था और उसके पीछे महर्षियों द्वारा सेवित कमण्डलु यात्रा कर रहा था। कमण्डलु के दाहिने भाग में जाते हुए तेजस्वी दण्ड की बड़ी शोभा हो रही थी। उसके साथ भृगु और अंगिरा आदि महर्षि थे और देवता भी बार-बार उसका पूजन करते थे। इन सबके पीछे उज्ज्वल रथ पर आरूढ़ हो रुद्रदेव यात्रा करते थे, जो अपने तेज से सम्पूर्ण देवताओं का हर्ष बढ़ा रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 43-64 का हिन्दी अनुवाद)
रुद्रदेव के पीछे ऋषि, देवता, गन्धर्व, नाग, नदियां, गहरे जलाश्य, समुद्र, अप्सराएं, नक्षत्र, ग्रह तथा देवकुमार चल रहे थे। मनोहर रूप और भाँति-भाँति की आकृति धारण करने वाली बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियां फूलों की वर्षा करती हुई भगवान रुद्र के पीछे-पीछे जा रही थीं। पिनाकधारी भगवान शंकर को नमस्कार करके पर्जन्य देव भी उनके पछे-पीछे चले। चन्द्रमा ने उनके मस्तक पर श्वेत छत्र लगा रक्खा था। राजन्! वायु और अग्नि चंवर लेकर दोनों ओर खड़े थे। तेजस्वी इन्द्र समस्त राजर्षियों के साथ भगवान वृषभध्वज की स्तुति करते हुए उनके पीछे-पीछे जा रहे थे। गौरी, विद्या, गान्धारी, केशिनी, मित्रा और सावित्री -ये सब पार्वती देवी के पीछे-पीछे चल रही थीं।
विद्वानों द्वारा प्रकाशित सम्पूर्ण विद्याएं भी उन्हीं के साथ थीं। इन्द्र आदि देवता सेना के मुहाने पर उपस्थित हो भगवान शिव के आदेश का पालन करते थे। एक राक्षस ग्रह सेना का झंडा लेकर आगे-आगे चलता था। भगवान रुद्र का सखा यक्षराज पिंगलदेव जो सदा श्मशान में ही (उसकी रक्षा के लिये) निवास करता और सम्पूर्ण जगत् को आनन्द देने वाला था, उस यात्रा में भगवान शिव के साथ था। इन सब के साथ महादेव जी सुखपूर्वक भद्रवट की यात्रा कर रहे थे। वे कभी सेना के आगे रहते और कभी पीछे। उनकी कोई निश्चित गति नही थी। मरणधर्मा मनुष्य इस संसार में सत्कर्मों द्वारा रुद्रदेव की ही पूजा करते हैं। इन्हीं को शिव, ईश, रुद्र और पितामह कहते हैं। लोग नाना प्रकार के भावों से भगवान महेश्वर की पूजा करते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणहितैषी, देवसेनापति कृत्तिकानन्दन स्कन्द भी देवताओं की सेना से घिरे हुए देवेश्वर भगवान शिव के पीछे-पीछे जा रहे थे।
तदनन्तर महादेव जी ने कुमार महासेन से यह उत्तम बात कही,,
महादेव बोले ;- ‘बेटा! तुम सदा सावधानी के साथ मारुतस्कन्ध नामक देवताओं के सातवें व्यूह की रक्षा करना’।
स्कन्द बोले ;- प्रभो! मैं सातवें व्यूह मारुतस्कन्ध की अवश्य रक्षा करूँगा। देव! इसके सिवा और भी मेरा जो कुछ कर्तव्य हो, उसके लिये आप शीघ्र आज्ञा दीजिये।
रुद्र ने कहा ;- पुत्र! काम पड़ने पर तुम सदा मुझसे मिलते रहना। मेरे दर्शन से तथा मुझ में भक्ति करने से तुम्हारा परम कल्याण होगा।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! ऐसा कहकर भगवान महेश्वर ने कार्तिकेय को हृदय से लगाकर विदा किया। स्कन्द के विदा होते ही
बड़ा भारी उत्पात होने लगा। महाराज! सहसा समस्त देवताओं को मोह में डालता हुआ नक्षत्रों सहित आकाश प्रज्वलित हो उठा। समस्त संसार अत्यन्त मूढ़-सा हो गया। पृथ्वी हिलने लगी। उसमें गड़गड़ाहट पैदा हो गयी। सारा जगत् अन्धकार में मग्न-सा जान पड़ता था। उस समय यह दारुण उत्पात देखकर भगवान शंकर, महाभाग उमा, देवगण तथा महर्षिगण क्षुब्ध हो उठे। जिस समय वे सब लोग मोह-ग्रस्त हो रह थे, उसी समय पर्वतों और मेघमालाओं के समान दैत्यों की विशाल एवं भंयकर सेना दिखायी दी। वह नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। उसके सैनिकों की संख्या गिनी नहीं जा सकती थी। वह भंयकर वाहिनी अनेक प्रकार की बोली बोलती हुई भीषण गर्जना कर रही थी। उसने रणभूमि में आकर देवताओं तथा भगवान शंकर पर धावा बोल दिया। दैत्यों ने देवताओं के सैनिकों पर कई बार बाण वर्षा की। शिलाखण्ड, शतघ्नी (तोप), प्रास, खड्ग, परिघ और गदाओं के लगातार प्रहार हो रहे थे। इन भंयकर अस्त्रों की मार से देवताओं की सारी सेना क्षण भर में (पीठ दिखाकर) भाग चली। सारे सैनिक युद्ध से विमुख दिखाई देते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 65-87 का हिन्दी अनुवाद)
बहुत-से यौद्धा, हाथी और घोडे़ काट डाले गये। असंख्य आयुध और बड़े-बडे़ रथ टूक-टूक कर दिये गये। इस प्रकार दानावों द्वारा पीड़ित हुई देवताओं की सेना युद्ध से विमुख हो गयी। जैसे आग समूचे वन को जला देती है, उसी प्रकार असुरों ने देवताओं की सेना में भारी मारकाट मचा दी। बड़े-बड़े़ वृक्षों से भरे हुए वन का अधिकाश भाग जल जाने पर उसकी जैसी दुरवस्था दिखाई देती है, उसी प्रकार दैत्यों की अस्त्राग्नि में अधिकांश सैनिकों के दग्ध हो जाने के कारण वह देवसेना धराशायी हो रही थी। उस महासमर में असुरों की मार खाकर वे सब देवता भागते हुए कहीं कोई रक्षक नहीं पा रहे थे। किन्हीं के सिर फट गये थे, तो किन्हीं के सब अंगों में गहरे घाव हो गये थे।
तदनन्तर बलासुरविनाशक देवराज इन्द्र ने अपनी उस सेना को दानवों से पीड़ित होकर भागती देख उसे आश्वासन देते हुए कहा,
इन्द्र बोले ;- ‘शूरवीरो! भय त्याग दो, इससे तुम्हारा मंगल होगा। हथियार उठाओ और पराक्रम में मन लगाओ। तुम्हें किसी प्रकार व्यथित नहीं होना चाहिये। इन भयंकर दिखाई देने वाले दुराचारी दानवों को जीतो। तुम्हारा कल्याण हो। तुम सब लोग मेरे साथ इन महाकाय दैत्यों पर टूट पड़ो। इन्द्र की यह बात सुनकर देवताओं को बड़ी सान्त्वना मिली। उन्होंने इन्द्र को अपना आश्रय बनाकर दानवों के साथ पुन: युद्ध प्रारम्भ किया। तत्पश्चात् वे सभी देवता महाबली मरुद्गण तथा वसुओं एवं महाभाग साध्यगण सहित युद्धभूमि में आगे बढ़ने लगे। उन्होंने संग्राम में कुपित होकर दैत्यों की सेनाओं के ऊपर जो अस्त्र-शस्त्र और बाण चलाये, वे उनके शरीरों में घुसकर प्रचुर मात्रा में रक्त पीने लगे। वे तीखे बाण उस समय दैत्यों के शरीरों को विदीर्ण कर रण-भूमि में इस प्रकार गिरते दिखाई देते थे, मानों वृक्षों से सर्प गिर रहे हों। राजन्! देवताओं के बाणों से विदीर्ण हुए वे दैत्यों के शरीर सब प्रकार से छिन्न-भिन्त्र हुए बादलों के समान धरती पर गिरने लगे।
तदनन्तर समस्त देवताओं ने उस युद्ध में दानव सेना को अपने विविध बाणों के प्रहार से भयभीत करके रणभूमि से विमुख कर दिया। फिर तो उस समय हाथों में अस्त्र-शस्त्र उठाये सम्पूर्ण देवता हर्ष में भरकर कोलाहल करने लगे और अनेक प्रकार के विजय वाद्य एक साथ बज उठे। इस प्रकार देवताओं और दानवों में परस्पर अत्यन्त भंयकर युद्ध हो रहा था। रक्त और मांस से वहां की भूमि पर कीचड़ जम गयी थी। फिर सहसा बाजी पलट गयी। देवलोक की पराजय दिखायी देने लगी। भंयकर दानव देवताओं को मारने लगे। उस समय दानवेन्द्रों के भयंकर सिंहनाद सुनायी पड़ते थे। उसके रणवाद्यों तथा भेरियों का गम्भीर घोष सब ओर गूंज उठा। इतने ही में दैत्यों की भंयकर सेना से महाबली दानव ‘महषि’ हाथों में एक विशाल पर्वत लिये निकला और देवताओं पर टूट पड़ा।
राजन्! बादलों से घिरे हुए सूर्य की भाँति पर्वत उठाये हुए दानव को देखकर सब देवता भाग चले। परंतु महिषासुर ने देवताओं का पीछा करके उनके ऊपर वह पहाड़ पटक दिया। युधिष्ठिर! उस भयानक पर्वत के गिरने से देवसेना के दस हजार योद्धा कुचलकर धरती पर गिर पड़े। तदनन्तर जैसे सिंह छोटे मृगों को डराता हुआ उन पर टूट पड़ता है, उसी प्रकार महिषासुर ने अपने दानव सैनकों के साथ रणभूमि में समस्त देवताओं को भयभीत करते हुए उन पर शीघ्र ही प्रबल आक्रमण किया। उस महिषासुर को आते देख इन्द्र आदि सब देवता भयभीत हो अपने अस्त्र-श्स्त्र और ध्वजा फेंककर युद्ध भूमि से भागने लगे। तब क्रोध में भरा हुआ महिषासुर तुरंत ही भगवान रुद्र के रथ की ओर दौड़ा और पास जाकर उनके रथ का कूबर पकड़ लिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 88-107 का हिन्दी अनुवाद)
जब क्रोध में भरे हुए महिषासुर ने सहसा भगवान रुद्र के रथ पर आक्रमण किया, उस समय पृथ्वी और आकाश में भारी कोलाहल मच गया और महर्षिगण भी घबरा गये। इधर विशालकाय दैत्य मेघों के समान गम्भीर गर्जना करने लगे। उन्हें यह निश्चय हो गया कि ‘हमारी जीत होगी’। उस अवस्था में भी भगवान रुद्र नें युद्ध में महिषासुर को स्वयं नहीं मारा, किंतु उस दुरात्मा दानव की मृत्यु जिनके हाथों से होने वाली थी, उन कुमार कार्तिकेय का स्मरण किया।
भयानक महिषासुर रुद्र के रथ को देखकर देवताओं को त्रास और दैत्यों को हर्ष प्रदान करता हुआ बार-बार सिंहनाद करने लगा। देवताओं के लिये वह घोर भय का अवसर उपस्थित था। इसी समय जगमगाते हुए सूर्य की भॉंति कुमार महासेन क्रोध में भरे हुए वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने अपने शरीर को लाल वस्त्रों से आच्छादित कर रखा था।
उनके हार और आभूषण भी लाल रंग के ही थे। उनके घोड़े का रंग भी लाल था। उन महाबाहु भगवान स्कन्द ने सुवर्णमय कवच धारण किया था। वे सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर विराजमान थे। उनकी अंग कान्ति भी सुवर्ण के समान ही उद्भासित हो रही थी। उन्हें सहसा संग्राम में उपस्थित देख दैत्यों की सेना रणभूमि से भाग चली। राजेन्द्र! महाबली महासेन ने महिषासुर पर एक प्रज्ज्वलित शक्ति चलायी, जो उसके शरीर को विदीर्ण करने वाली थी। कुमार के हाथ से छूटते ही उस शक्ति ने महिषासुर के महान् मस्तक को काट गिराया। सिर कट जाने पर महिषासुर प्राणशून्य होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके पर्वत सदृश विशाल मस्तक ने गिरकर (उत्तर-पूर्व देश के) सोलह योजन लम्बे द्वार को बंद कर दिया। अत: वह देश सर्वसाधारण के लिये अगम्य हो गया। उत्तर कुरु के निवासी अब उस मार्ग से सुखपूर्वक आते-जाते हैं। देवताओं और दानवों ने देखा, कुमार कार्तिकेय बार-बार शत्रुओं पर शक्ति का प्रहार करते हैं और वह सहस्रों युद्धाओं को मारकर पुन: उनके हाथ में लौट आती है।
परम बुद्धिमान महासेन ने अपने बाणों द्वारा अधिकांश दैत्यों को समाप्त कर दिया, बचे-खुचे भंयकर दैत्य भी भयभीत हो साहस खो चुके थे। स्कन्ददेव के दुर्धर्ष पार्षद उन सहस्रों दैत्यों को मारकर खा गये। उन सब ने अत्यन्त हर्ष में भरकर दानवों को खाते और उनके रक्त पीते हुए क्षणभर में सारी रणभूमि को दानवों से ख़ाली कर दिया। जैसे सूर्य अन्धकार मिटा देते हैं, आग वृक्षों को जला डालती है, और आकाशचारी वायु बादलों को छिन्न–भिन्न कर देती है, वैसे ही कीर्तिशाली कुमार कार्तिकेय ने अपने पराक्रम द्वारा समस्त शत्रुओं को नष्ट करके उन पर विजय पायी। उस समय देवता लोग कृत्तिकानन्दन स्कन्ददेव की स्तुति और पूजा करने लगे। कुमार स्कन्द अपने पिता महेश्वर को प्रणाम करके सब ओर किरणें बिखेरने वाले अंशुमाली सूर्य की भाँति शोभा पाने लगे।
शत्रुओं का नाश करके जब कुमार कार्तिकेय भगवान महेश्वर के पास पंहुचे, उस समय इन्द्र ने उनको हृदयसे लगा लिया और इस प्रकार कहा,
इन्द्र बोले ;- ‘विजयी वीरों में श्रेष्ठ स्कन्द! इस महिषासुर को ब्रह्माजी ने वरदान दिया था, जिसके कारण उसके सामने सब देवता तिनकों के समान हो गये थे। आज तुमने इसे मार गिराया है। महाबाहो! यह देवताओं के लिये बड़ा भारी कांटा था, जिसे तुमने निकाल फेंका है। यही नहीं, आज रणभूमि में इस महिष के समान पराक्रमी एक सौ देवद्रोही दानव और तुम्हारे हाथ से मारे गये हैं, पहले हमें बहुत कष्ट दे चुके हैं। तुम्हारे पार्षद भी सैकड़ों दानवों को खा गये हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 108-113 का हिन्दी अनुवाद)
‘देव! तुम भगवान शंकर के समान ही युद्ध में शत्रुओं के लिये अजेय हो। यह तुम्हारा प्रथम पराक्रम सर्वत्र विख्यात होगा। तुम्हारी अक्षय कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायेगी। महाबाहो! सब देवता तुम्हारे वश में रहेंगें’।
महासेन से ऐसा कहकर शचीपति इन्द्र भगवान शंकर की आज्ञा ले देवताओं के साथ स्वर्गलोक को लौट गये।
भगवान रुद्र भद्रवट के समीप गये और देवता अपने-अपने स्थान को लौटने लगे। उस समय भगवान शंकर ने देवताओं से कहा,
भगवान शिव बोले ;- ‘तुम सब लोग कुमार कार्तिकेय को मेरे ही समान मानना।'
अग्निनन्दन स्कन्द ने सब दानवों को मारकर महर्षियों से पूजित हो एक ही दिन में समूची त्रिलोकी को जीत लिया। जो ब्राह्मण एकाग्रचित्त हो स्कन्ददेव के इस जन्म वृत्तान्त का पाठ करता है, वह संसार में पुष्टि को प्राप्त हो अन्त में भगवान स्कन्द के लोक में जाता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान के प्रसंग में स्कन्द की उत्पत्ति तथा महिषासुर वध विषयक दो सौ एकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ बत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वात्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
"कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन तथा उनका स्तवन"
युधिष्ठिर बोले ;- भगवान्! विप्रवर! तीनों लोकों में महामना कार्तिकेय के जो-जो नाम विख्यात हैं, मैं उन्हें सुनना चाहता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;– जनमेजय! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने पर महातपस्वी महात्मा भगवान् मार्कण्डेय ने ऋषियों के समीप इस प्रकार कहा।
मार्कण्डेय जी बोले ;- राजन्! आग्नेय, स्कन्द, दीप्तकीर्ति, अनामय, मयूरकेतु, धर्मात्मा, भूतेश, महिषमर्दन, कामजित्, कामद, कान्त, सत्यवाक, भुवनेश्वर, शिशु, शीघ्र, शुचि, चण्ड, दीप्तवर्ण, शुभानन, अमोघ, अनघ, रौद्र, प्रिय, चन्द्रानन, दीप्तशक्ति, प्रशान्तात्मा, भद्रकृत्, कूटमोहन, षष्ठीप्रिय, धर्मात्मा, पवित्र, मातृवत्सल, कन्याभर्ता, विभक्त, स्वाहेय, रेवतीसुत, प्रभु, नेता, विशाख, नैगमेय, सुदुश्वर, सुव्रत, ललित, बालक्रीडनकप्रिय, आकाशचारी, ब्रह्मचारी, शूर, शखणोद्भव, विश्वामित्रप्रिय, देवसेनाप्रिय, वासुदेवप्रिय, प्रिय और प्रियकृत्-ये कार्तिकेय जी के दिव्य नाम हैं। जो इनका पाठ करता है, वह धन, कीर्ति तथा स्वर्गलोक प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं है।
कुरु कुल के प्रमुख वीर युधिष्ठिर! अब मैं देवताओं तथा ऋषियों से सेवित, असंख्य नामों तथा अनन्त शक्ति से सम्पन्न, शक्ति नामक अस्त्र धारण करने वाले वीरवर षडानन गुह की स्तुति करता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो। स्कन्ददेव! आप ब्राह्मणहितैषी, ब्रह्मात्मज, ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मनिष्ठ, ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ, ब्राह्मणप्रिय, ब्राह्मणों के समान व्रतधारी, ब्रह्मज्ञ तथा ब्राह्मणों के नेता हैं। आप स्वाहा, स्वधा, परम पवित्र, मन्त्रों द्वारा प्रशंसित और सुप्रसिद्ध षडर्चि (छ: ज्वालाओं से युक्त) अग्नि हैं। आप ही संवत्सर, छ: ऋतुएं, पक्ष, मास, अयन और दिशाएं हैं। आप कमलनयन, कमलमुख, सहस्रवदन और सहस्रबाहु हैं। आप ही लोकपाल, सर्वोत्तम हविष्य तथा सम्पूर्ण देवताओं और असुरों के पालक हैं। आप ही सेनापति, अत्यन्त कोपवान, प्रभु, विभु और शत्रुविजयी हैं। आप ही सहस्रभू और पृथ्वी हैं। आप ही सहस्रों प्राणियों को सन्तोष देने वाले तथा सहस्रभोक्ता हैं। आप के सहस्रों मस्तक हैं। आपके रूप का कहीं अन्त नहीं है। आपके सहस्रों चरण हैं।
गुह! आप शक्ति धारण करते हैं। देव! आप अपने इच्छानुसार गंगा, स्वाहा, पृथ्वी तथा कृत्तिकाओं के पुत्ररूप से प्रकट हुए हैं। षडानन! आप मुर्गे से खेलते हैं तथा इच्छानुसार नाना प्रकार के कमनीयरूप धारण करते हैं। आप सदा ही दीक्षा, सोम, मरुद्गण, धर्म, वायु, गिरिराज तथा इन्द्र हैं। आप सनातनों में भी सनातन है। प्रभुओं के भी प्रभु हैं। आपका धनुष भंयकर है। आप सत्य के प्रवर्तक, दैत्यों का संहार करने वाले, शत्रुविजयी तथा देवताओं में श्रेष्ठ हैं। जो सर्वोत्कृष्ट सूक्ष्म तप है, वह आप ही हैं। आप ही कार्यकारण-तत्व के ज्ञाता तथा कार्यकारणस्वरूप हैं। धर्म, काम तथा इन दोनों से परे जो मोक्ष तत्व है, उसके भी आप ही ज्ञाता हैं। महात्मन्! यह सम्पूर्ण जगत् आपके तेज से प्रकाशित होता है। समस्त देवताओं के प्रमुख वीर! आपकी शक्ति से यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। लोकनाथ! मैंने यथाशक्ति आपका स्तवन किया है। बारह नेत्रों और भुजाओं से सुशोभित देव! आपको नमस्कार है। इससे परे जो आपका स्वरूप है, उसे मैं नहीं जानता। जो ब्राह्मण एकाग्रचित्त हो स्कन्ददेव के इस जन्म वृत्तान्त को पढ़ता है, ब्राह्मणों को सुनाता है अथवा स्वयं ब्राह्मण के मुख से सुनता है, वह धन, आयु, उज्ज्वल यश, पुत्र, शत्रुविजय तथा तुष्टि-पुष्टि पाकर अन्त में स्कन्द के लोक में जाता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान के प्रसंग में कार्तिकेय स्तुति विषयक दो सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(मार्कण्डेयसमस्या पर्व समाप्त)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (द्रौपदी सत्यभामा संवाद पर्व)
दौ सौ तेंतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"द्रौपदी का सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा देना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब महात्मा पांडव तथा ब्राह्मण लोग आसपास बैठकर धर्मचर्चा कर रहे थे, उसी समय द्रौपदी और सत्यभामा भी एक ओर जाकर एक ही साथ सुखपूर्वक बैठीं और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक परस्पर हास्य-विनोद करने लगीं। राजेन्द्र! दोनों ने एक-दूसरी को बहुत दिनों बाद देखा था, इसलिये परस्पर प्रिय लगने वाली बातें करती हुई वहाँ सुखपूर्वक बैठी रहीं। कुरु कुल और यदुकुल से सम्बन्ध रखने वाली अनेक विचित्र बातें उनकी चर्चा की विषय थीं।
भगवान् श्रीकृष्ण की प्यारी पटरानी सत्राजित्कुमारी सुन्दरी सत्यभामा ने एकान्त में द्रौपदी से इस प्रकार पूछा,
सत्यभामा बोली ;- ‘शुभे! द्रुपदकुमारी! किस बर्ताव से तुम हृष्ट-पुष्ट अंगों वाले तथा लोकपालों के समान वीर पाण्डवों के हृदय पर अधिकार रखती हो? किस प्रकार तुम्हारे वश में रहते हुए वे कभी तुम पर कुपित नहीं होते? प्रियदर्शने! क्या कारण है कि पाण्डव सदा
तुम्हारे अधीन रहते हैं और सब के सब तुम्हारे मुंह की ओर देखते रहते हैं? इसका यथार्थ रहस्य मुझे बताओ। पांचालकुमारी कुमारी कृष्णे! आज मुझे भी कोई ऐसा व्रत, तप, स्नान, मन्त्र, औषध, विद्या-शक्ति, मूल-शक्ति (जड़ी-बूटी का प्रभाव) जप, होम या दवा बताओ, जो यश और सौभाग्य की वृद्धि करने वाला हो तथा जिससे श्यामसुन्दर सदा मेरे अधीन रहें’। ऐसा कहकर यशस्विनी सत्यभामा चुप हो गयी।
तब पतिपरायणा महाभागा द्रौपदी ने उसे इस प्रकार उत्तर दिया,
द्रोपदी बोली ;- ‘सत्ये! तुम मुझसे जिसके विषय में पूछ रही हो, वह साध्वी स्त्रियों का नहीं, दुराचारिणी और कुलटा स्त्रियों का आचरण है। जिस मार्ग का दुराचारिणी स्त्रियों ने अवलम्बन किया है, उसके विषय में हम लोग कोई चर्चा कैसे कर सकती हैं? इस प्रकार का प्रश्न अथवा स्वामी के स्नेह में सन्देह करना तुम्हारे-जैसी साध्वी स्त्री के लिये कदापि उचित नहीं है; चूंकि तुम बुद्धिमती होने के साथ ही श्यामसुन्दर की प्रियतमा पटरानी हो। जब पति को यह मालूम हो जाये कि उसकी पत्नी उसे वश में करने के लिये किसी मन्त्र-तन्त्र अथवा जड़ी-बूटी का प्रयोग कर रही है, तो वह उससे उसी प्रकार उद्विग्न हो उठता है, जैसे अपने घर में घुसे हुए सर्प से लोग शंकित रहते हैं। उद्विग्न को शान्ति कैसी? और अशान्त को सुख कहाँ? अत: मन्त्र-तन्त्र करने से पति अपनी पत्नी के वश में कदापि नहीं हो सकता। इसके सिवा, ऐसे अवसरों पर धोखे से शत्रुओं द्वारा भेजी हुई ओषधियों को खिलाकर कितनी ही स्त्रियां अपने पतियों को अत्यन्त भंयकर रोगों का शिकार बना देती हैं।
किसी को मारने की इच्छा वाले मनुष्य उसकी स्त्री के हाथ में यह प्रचार करते हुए विष दे देते हैं कि ‘यह पति को वश में करने वाली जड़ी-बूटी है’। उनके दिये हुए चूर्ण ऐसे होते हैं कि उन्हें पति यदि जिह्वा अथवा त्वचा से भी स्पर्श कर ले, तो वे नि:सन्देह उसी क्षण उसके प्राण ले लें। कितनी ही स्त्रियों ने अपने पतियों को (वश में करने की आशा से हानिकारक दवाएं खिलाकर उन्हें) जलोदर और कोढ़ का रोगी, असमय में ही वृद्ध, नपुंसक, अंधा, गूंगा और बहरा बना दिया है। इस प्रकार पापियों का अनुसरण करने वाली वे पापिनी स्त्रियां अपने पतियों को अनेक प्रकार की विपत्तियों में डाल देती हैं। अत: साध्वी स्त्री को चाहिये कि वह कभी किसी प्रकार भी पति का अप्रिय न करे।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद)
‘यशस्विनी सत्यभामे! मैं स्वयं महात्मा पाण्डवों के साथ जैसा बर्ताव करती हूँ, वह सब सच-सच सुनाती हूँ; सुनो। मैं अहंकार और काम-क्रोध को छोड़कर सदा पूरी सावधानी के साथ सब पाण्डवों की और उनकी अन्यान्य स्त्रियों की भी सेवा करती हूँ। अपनी इच्छाओं का दमन करके मन को अपने आप में ही समेटे हुए केवल सेवा की इच्छा से ही अपने पतियों का मन रखती हूँ। अहंकार और अभिमान को अपने पास नहीं फटकने देती। कभी मेरे मुख से कोई बुरी बात न निकल जाये, इसकी आशंका से सदा सावधान रहती हूँ। असभ्य की भॉंति कहीं खड़ी नहीं होती। निर्लज्ज की तरह सब ओर दृष्टि नहीं डालती। बुरी जगह पर नहीं बैठती।
दुराचार से बचती तथा चलने-फिरने में भी असभ्यता न हो जाये, इसके लिये सतत सावधान रहती हूँ। पतियों के अभिप्रायपूर्ण संकेत का सदैव अनुसरण करती हूँ। कुन्ती देवी के पांचों पुत्र ही मेरे पति हैं। वे सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी, चन्द्रमा के समान आह्लाद प्रदान करने वाले महारथी दृष्टिमात्र से ही शत्रुओं को मारने की शक्ति रखने वाले तथा भंयकर बल-पराक्रम एवं प्रताप से युक्त हैं। मैं सदा उन्हीं की सेवा में लगी रहती हूँ। देवता मनुष्य, गन्धर्व, युवक बड़ी सजधज वाला धनवान् अथवा परम सुन्दर कैसा ही पुरुष क्यों न हो, मेरा मन पाण्डवों के सिवा और कहीं नहीं जाता। पतियों और उनके सेवकों को भोजन कराये बिना मैं कभी भोजन नहीं करती, उन्हें नहलाये बिना कभी नहाती नहीं हूँ तथा पतिदेव जब तक शयन न करें, तब तक मैं सोती भी नहीं हूँ।
खेत से, वन से अथवा गांव से जब कभी मेरे पति घर पधारते हैं, उस समय मैं खड़ी होकर उनका अभिनन्दन करती हूँ तथा आसन और जल अर्पण करके उनके स्वागत-सत्कार में लग जाती हूँ। मैं घर के बर्तनों को मांज, धोकर साफ रखती हूँ। शुद्ध एवं स्वादिष्ट रसोई तैयार करके सब को ठीक समय पर भोजन कराती हूँ। मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर घर में गुप्त रूप से अनाज का संचय रखती हूँ और घर को झाड़-बुहार और लीप-पोतकर सदा स्वच्छ एवं पवित्र बनाये रखती हूँ। मैं कोई ऐसी बात मुहं से नहीं निकालती, जिससे किसी का तिरस्कार होता हो। दुष्ट स्त्रियों के सम्पर्क से सदा दूर रहती हूँ। आलस्य को कभी पास नहीं आने देती और सदा पतियों के अनुकूल बर्ताव करती हूँ। पति के किये हुए परिहास के सिवा अन्य समय में मैं नहीं हंसा करती, दरवाजे पर बार-बार नहीं खड़ी होती, जहाँ कूड़े-करकट फेंके जाते हों, ऐसे गंदे स्थानों में देर तक नहीं ठहरती और बगीचों में भी बहुत देर तक अकेली नहीं घूमती हूँ।
नीच पुरुषों से बात नहीं करती, मन में असंतोष को स्थान नहीं देती और परायी चर्चा से दूर रहती हूँ। न अधिक हंसती हूँ और न अधिक क्रोध करती हूँ। क्रोध का अवसर ही नहीं आने देती। सदा सत्य बोलती और पतियों की सेवा में लगी रहती हूँ। पतिदेव के बिना किसी भी स्थान में अकेली रहना मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है। मेरे स्वामी जब कभी कुटुम्ब के कार्य से कभी परदेश चले जाते हैं, उन दिनों मैं फूलों का श्रृंगार नहीं धारण करती, अंगराग नहीं लगाती और निरन्तर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती हूँ। मेरे पतिदेव जिस चीज को नहीं खाते, नहीं पीते अथवा नहीं सेवन करते, वह सब मैं भी त्याग देती हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 32-48 का हिन्दी अनुवाद)
‘सुन्दरी! शास्त्रों में स्त्रियों के लिये जिन कर्तव्यों का उपदेश किया गया है, उन सब का मैं नियमपूर्वक पालन करती हूँ। अपने अंगों को वस्त्राभूषणों से विभूषित रखकर पूरी सावधानी के साथ मैं पति के प्रिय एवं हितसाधन में संलग्न रहती हूँ। मेरी सास ने अपने परिवार के लोगों के साथ बर्ताव में लाने योग्य जो धर्म पहले मुझे बताये थे, उन सब का मैं निरन्तर आलस्यरहित होकर पालन करती हूँ। मैं दिन-रात आलस्य त्याग कर भिक्षा-दान, बलिवैश्वदेव, श्राद्ध, पर्वकालोचित स्थालीपाकयज्ञ, मान्य पुरुषों का आदर-सत्कार, विनय, नियम तथा अन्य जो-जो धर्म मुझे ज्ञात हैं, उन सबका सब प्रकार से उद्यत होकर पालन करती हूँ। मेरे पति बड़े ही सज्जन और मृदुल स्वभाव के हैं। सत्यवादी तथा सत्यधर्म का निरन्तर पालन करने वाले हैं; तथापि क्रोध में भरे हुए विषैले सर्पों से जिस प्रकार लोग डरते हैं, उसी प्रकार मैं अपने पतियों से डरती हुई उनकी सेवा करती हूँ। मैं यह मानती हूँ कि पति के आश्रय में रहना ही स्त्रियों का सनातन धर्म है।
पति ही उनका देवता है और पति ही उनकी गति है। पति के सिवा नारी का दूसरा कोई सहारा नहीं है, ऐसे पतिदेवता का भला कौन स्त्री अप्रिय करेगी। पतियों के शयन करने से पहले मैं कभी शयन नहीं करती, उनसे पहले भोजन नहीं करती, उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई आभूषण नहीं पहनती, अपनी सास की कभी निन्दा नहीं करती और अपने आपको सदा नियन्त्रण में रखती हूँ। सौभाग्यशालिनी सत्यभामे! सावधानी से सर्वदा सबेरे उठकर समुचित सेवा के लिये सन्नद्ध रहती हूँ। गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा से ही मेरे पति मेरे अनुकूल रहते हैं। मैं वीरजननी सत्यवादिनी आर्या कुन्ती देवी की भोजन, वस्त्र और जल आदि से सदा स्वयं सेवा करती हूँ। वस्त्र, आभूषण और भोजन आदि में मैं कभी सास की अपेक्षा अपने लिये कोई विशेषता नहीं रखती। मेरी सास कुन्ती देवी पृथ्वी के समान क्षमाशील हैं। मैं कभी उनकी निन्दा नहीं करती। पहले महाराज युधिष्ठिर के महल में प्रतिदिन आठ हजार ब्राह्मण सोने की थालियों में भोजन किया करते थे।
महाराज युधिष्ठिर के यहाँ अट्ठासी हजार ऐसे स्नातक गृहस्थ थे, जिनका वे भरण-पोषण करते थे। उनमें से प्रत्येक की सेवा में तीस-तीस दासियां रहती थीं। इनके सिवा दूसरे दस हजार और उर्ध्वरेता यति उनके यहाँ रहते थे, जिनके लिये सुन्दर ढंग से तैयार किया हुआ अन्न सोने की थालियों में परोसकर पहुँचाया जाता था। मैं उन सब वेदपाठी ब्राह्मणों को अग्रहार (बलिवैश्वदेव के अन्त में अतिथि को दिये जाने वाले प्रथम अन्न) का अर्पण करके भोजन, वस्त्र और जल के द्वारा उनकी यथायोग्य पूजा करती थी। कुन्तीनन्दन महात्मा युधिष्ठिर के एक लाख दासियां थीं, जो हाथों में शंख की चूड़ियां, भुजाओं में बाजूबंद और कण्ठ में सुवर्ण के हार पहनकर बड़ी सजधज के साथ रहती थीं। उनकी मालाएं तथा आभूषण बहुमूल्य थे, अंगकान्ति बड़ी सुन्दर थी। वे चन्दनमिश्रित जल से स्नान करतीं और चन्दन का ही अंगराग लगाती थीं, मणि तथा सुवर्ण के गहने पहना करती थीं। नृत्य और गीत की कला में उनका कौशल देखने ही योग्य था। उन सबके नाम, रूप तथा भोजन-आच्छादन आदि सभी बातों की मुझे जानकारी रहती थी। किसने क्या काम किया और क्या नहीं किया? यह बात भी मुझसे छिपी नहीं रहती थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 49-61 का हिन्दी अनुवाद)
बुद्धिमान् कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की एक लाख दासियां हाथों में (भोजन से भरी हुई) थाली लिये दिन-रात अतिथियों को भोजन कराती रहती थीं। जिन दिनों महाराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ में रहकर इस पृथ्वी का पालन करते थे, उस समय प्रत्येक यात्रा में उनके साथ एक लाख घोड़े और एक लाख हाथी चलते थे। मैं ही उनकी गणना करती, आवश्क वस्तुएं देती और उनकी आवश्कताएं सुनती थी। अन्त:पुर के, नौकरों के तथा ग्वालों और गड़रियों से लेकर समस्त सेवकों के सभी कार्यों की देखभाल मैं ही करती थी और किसने क्या काम किया अथवा कौन काम अधूरा रह गया-इन सब बातों की जानकारी भी रखती थी।
कल्याणी एवं यशस्विनी सत्यभामे! महाराज तथा अन्य पाण्डवों को जो कुछ आय, व्यय और बचत होती थी, उस सबका हिसाब मैं अकेली ही रखती और जानती थी। वरानने! भरतश्रेष्ठ पाण्डव कुटुम्ब का सारा भार मुझ पर ही रखकर उपासना में लगे रहते और तदनुरूप चेष्टा करते थे। मुझ पर जो भार रक्खा गया था, उसे दुष्ट स्वभाव के स्त्री-पुरुष नहीं उठा सकते थे। परंतु मैं सब प्रकार का सुख-भोग छोड़कर रात-दिन उस दुर्वह भार को वहन करने की चेष्टा किया करती थी। मेरे धर्मात्मा पतियों का भरा-पूरा खजाना वरुण के भण्डार और परिपूर्ण महासागर के समान अक्षय एवं अगम्य था। केवल मैं ही उसके विषय की ठीक जानकारी रखती थी। रात हो या दिन, मैं सदा भूख-प्यास के कष्ट सहन करके निरन्तर कुरुकुलरत्न पाण्डवों की आराधना में लगी रहती थी। इससे मेरे लिये दिन और रात समान हो गये थे।
सत्ये! मैं प्रतिदिन सबसे पहले उठती और सबसे पीछे सोती थी। यह पतिभक्ति और सेवा ही मेरा वशीकरण मन्त्र है। पति को वश में करने का यही सबसे महत्वपूर्ण उपाय मैं जानती हूँ। दुराचारिणी स्त्रियां जिन उपायों का अवलम्बन करती हैं, उन्हें न तो मैं करती हूँ और न चाहती ही हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! द्रौपदी की ये धर्मयुक्त बातें सुनकर सत्यभामा ने उस धर्मपरायणा पांचाली का समादर करते हुए कहा,
सत्यभामा बोली ;- ‘पांचाल राजकुमारी! याज्ञसेनी! मैं तुम्हारी शरण में आयी हूँ; (मैंने जो अनुचित प्रश्न किया है), उसके लिये मुझे क्षमा कर दो। सखियों में परस्पर स्वेच्छापूर्वक ऐसी हास-परिहास की बातें हो जाया करती हैं’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत द्रौपदी-सत्यभामा-संवादपर्व में दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (द्रौपदी सत्यभामा संवाद पर्व)
दौ सौ चौतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"पतिदेव को अनुकूल करने का उपाय-पति की अनन्य भाव से सेवा"
द्रौपदी बोली ;- सखी! मैं स्वामी के मन का आकषर्ण करने के लिये तुम्हें एक ऐसा मार्ग बता रही हूँ, जिसमें भ्रम अथवा छल-कपट के लिये तनिक भी स्थान नहीं है। यदि तुम यथावत् रूप से इसी पथ पर चलती रहोगी, तो स्वामी के चित्त को अपनी सौतों से हटाकर अपनी ओर अवश्य खींच सकोगी। सत्ये! स्त्रियों के लिये देवताओं सहित सम्पूर्ण लोकों में पतिके समान दूसरा कोई देवता नहीं हैं। पति के प्रसाद से नारी की सम्पूर्ण कामनाएं पूर्ण हो सकती हैं और यदि पति ही कुपित हो जाये, तो वह नारी की सभी आशाओं को नष्ट कर सकता है। सेवा द्वारा प्रसन्न किये हुए पति से स्त्रियों को (उत्तम) संतान, भाँति-भाँति के भोग, शय्या, आसन, सुन्दर दिखायी देने वाले वस्त्र, माला, सुगन्धित पदार्थ, स्वर्गलोक तथा महान् यश की प्राप्ति होती है।
सखी! इस जगत् में कभी सुख के द्वारा सुख नहीं मिलता। पतिव्रता स्त्री दु:ख उठाकर ही सुख पाती है। तुम सौहार्द, प्रेम, सुन्दर वेश-भूषा-धारण, सुन्दर आसन समर्पण, मनोहर पुष्पमाला, उदारता, सुगन्धित द्रव्य एवं व्यवहार कुशलता से श्यामसुन्दर की निरन्तर आराधना करती रहो। उनके साथ ऐसा बर्ताव करो, जिससे वे यह समझकर कि 'सत्यभामा को मैं ही अधिक प्रिय हूँ’, तुम्हें ही हृदय से लगाया करें। जब महल के द्वार पर पधारे हुए प्राणवल्लभ का स्वर सुनायी पड़े, तब तुम उठकर घर के आंगन में आ जाओ और उनकी प्रतीक्षा में खड़ी रहो। जब देखो कि वे भीतर आ गये, तब तुरंत आसन और पाद्य के द्वारा उनका यथावत् पूजन करो। सत्ये! यदि श्यामसुन्दर किसी कार्य के लिये दासी को भेजते हों, तो तुम्हें स्वयं उठकर वह सब काम कर लेना चाहिये; जिससे श्रीकृष्ण को तुम्हारे इस सेवा-भाव का अनुभव हो जाये कि सत्यभामा सम्पूर्ण हृदय से मेरी सेवा करती है। तुम्हारे पति तुम्हारे निकट जो भी बात कहें, वह छिपाने योग्य न हो, तो भी तुम्हें उसे गुप्त ही रखना चाहिये। अन्यथा तुम्हारे मुख से उस बात को सुनकर यदि कोई सौत उसे श्यामसुन्दर के सामने कह दे, तो इससे उनके मन में तुम्हारी ओर से विरक्ति हो सकती है।
पतिदेव के जो प्रिय, अनुरक्त एवं हितैषी सुहृद् हों, उन्हें तरह-तरह के उपायों से खिलाओ-पिलाओ तथा जो उनके शत्रु, उपेक्षणीय और अहितकारक हों अथवा जो उनसे छल-कपट करने के लिये उद्यत रहते हों; उनसे सदा दूर रहो। दूसरे पुरुषों के समीप घमंड और प्रमाद का परित्याग करके मौन रहकर अपने मनोभाव को प्रकट न होने दो। कुमार प्रद्युम्न और साम्ब यद्यपि तुम्हारे पुत्र हैं, तथापि तुम्हें एकान्त में कभी उनके पास भी नहीं बैठना चाहिये। अत्यन्त ऊँचे कुल में उत्पन्न और पापाचार से दूर रहने वाली सती स्त्रियों के साथ ही तुम्हें सखीभाव स्थापित करना चाहिये। जो अत्यन्त क्रोधी, नशे में चूर रहने वाली, अधिक खाने वाली, चोरी की लत रखने वाली, दुष्ट और चंचल स्वभाव की स्त्रियां हों, उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिये। तुम बहुमूल्य हार, आभूषण और अंगराग धारण करके पवित्र सुगन्धित वस्तुओं से सुवासित हो अपने प्राणवल्लभ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की आराधना करो। इससे तुम्हारे यश और सौभाग्य की वृद्धि होगी। तुम्हारे मनोरथ की सिद्धि तथा शत्रुओं का नाश होगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत द्रौपदी-सत्यभामा-संवादपर्व में द्रौपदी द्वारा स्त्रीकर्तव्यकथन विषयक दो सौ चौतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (द्रौपदी सत्यभामा संवाद पर्व)
दौ सौ पैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्चात्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन देकर श्रीकृष्ण के साथ द्वारिका को प्रस्थान"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय भगवान् श्रीकृष्ण मार्कण्डेय आदि ब्रह्मर्षियों तथा महात्मा पाण्डवों के साथ अनुकूल बातें करते हुए कुछ काल तक वहाँ रहकर (द्वारिका जाने को उद्यत हुए )। मधुसूदन केशव ने उन सब से यथावत् वार्तालाप के अनन्तर विदा
लेकर रथ पर चढ़ने की इच्छा से सत्यभामा को बुलाया। तब सत्यभामा वहाँ द्रुपदकुमारी से गले मिलकर अपने हार्दिक भाव के अनुसार एकाग्रतापूर्वक मधुर वचन बोली,
सत्यभामा बोली ;- ‘सखी कृष्णे! तुम्हें उत्कण्ठित (राज्य के लिये चिन्तित) और व्यथित नहीं होना चाहिये। तुम इस प्रकार रात-रात भर जागना छोड़ दो। तुम्हारे देवतुल्य पतियों द्वारा जीती हुई इस पृथ्वी का राज्य तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा। श्यामलोचने! तुम्हें जैसा क्लेश सहन करना पड़ा है, वैसा कष्ट तुम्हारी जैसी सुशीला तथा श्रेष्ठ लक्षणों वाली देवियां अधिक दिनों तक नहीं भोगा करती हैं। मैंने (महात्माओं से) सुना है कि तुम अपने पतियों के साथ निश्चय ही इस पृथ्वी का निर्द्वन्द्व तथा निष्कण्टक राज्य भोगोगी।
द्रुपदकुमारी! तुम शीघ्र ही देखोगी कि धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर और पहले के वैर का भरपूर बदला चुकाकर तुम्हारे पतियों ने विजय पायी है और इस पृथ्वी पर महाराज युधिष्ठिर का अधिकार हो गया है। तुम्हारे वन जाते समय अभिमान से मोहित हो कुरु कुल की जिन स्त्रियों ने तुम्हारी हंसी उड़ायी थी, उनकी आशाओं पर पानी फिर जायेगा और तुम उन्हें शीघ्र ही दुरवस्था में पड़ी हुई देखोगी। कृष्णे! तुम दु:खों में पड़ी हुई थीं, उस दशा में जिन लोगों ने तुम्हारा अप्रिय किया है, उन सब को तुम यमलोक में गया हुआ ही समझो। युधिष्ठिरकुमार प्रतिविन्ध्य, भीमसेननन्दन सुतसोम, अर्जुनकुमार श्रुतकुमार, नकुलनन्दन शतानीक तथा सहदेवकुमार सुतसेन-तुम्हारे ये सभी वीर पुत्र शस्त्र विद्या में निपुण हो गये हैं और कुशलपूर्वक द्वारिकापुरी में रहते हैं। वे सब के सब अभिमन्यु की भाँति बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ रहते हैं। द्वारिका में उनका मन बहुत लगता है।
सुभद्रा देवी तुम्हारी ही तरह उन सबके साथ सब प्रकार से प्रेमपूर्ण बर्ताव करती हैं। वे किसी के प्रति भेदभाव न रखकर उन सबके प्रति निश्छल स्नेह रखती हैं। वे उन बालकों के दु:ख से ही दु:खी और उन्हीं के सुख से सुखी होती है। प्रद्युम्न की माताजी भी उनकी सब प्रकार से सेवा और देखभाल करती हैं। श्यामसुन्दर अपने भानु आदि पुत्रों से भी बढ़कर तुम्हारे पुत्रों को मानते हैं। मेरे ससुरजी प्रतिदिन इनके भोजन-वस्त्र आदि की समुचित व्यवस्था पर दृष्टि रखते हैं। बलराम जी आदि सभी अन्धकवंशी तथा वृष्णिवंशी यादव उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखते है। भामिनि! उन सब का और प्रद्युम्न का भी तुम्हारे पुत्रों पर समान प्रेम हैं।'
इस प्रकार हृदय को प्रिय लगने वाले सत्य एवं मन के अनुकूल वचन कहकर श्रीकृष्णमहिषी सत्यभामा ने अपने स्वामी के रथ की ओर जाने का विचार किया और द्रौपदी की परिक्रमा की। तदनन्तर भामिनी सत्यभामा श्रीकृष्ण के रथ पर आरूढ़ हो गयी। यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर द्रौपदी को सान्त्वना दी और उसे लौटाकर शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा अपनी पुरी द्वारिका को प्रस्थान किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत द्रौपदी-सत्यभामा-संवादपर्व में श्रीकृष्ण का द्वारिका को प्रस्थान विषयक दो सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(द्रौपदी सत्यभामा संवाद पर्व समाप्त)
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