सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना और विश्वामित्र के समझाने पर भी ऋषियों का अपनी पत्नियों को स्वीकार न करना तथा अग्निदेव आदि के द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! उन महान् धैर्यशाली और महाबली महासेन के जन्म लेने पर भाँति-भाँति के बड़े भयंकर उत्पात प्रकट होने लगे। स्त्री-पुरुषों का स्वभाव विपरीत हो गया। सर्दी आदि द्वन्द्वों में भी (अद्भुत) परिवर्तन दिखायी देने लगा। ग्रह, दशाएं और आकाश- ये सब मानो जलने लगे और पृथ्वी जोर-जोर से गर्जना-सी करने लगी। लोकहित की भावना रखने वाले महर्षि चारों ओर अत्यन्त भयंकर उत्पात देखकर उद्विग्न हो उठे और जगत् में शान्ति बनाये रखने के लिये शास्त्रीय कर्मों का अनुष्ठान करने लगे। उस चैत्ररथ नामक वन में जो लोग निवास करते थे,
वे कहने लगे ,- 'अग्नि ने सप्तर्षियों की छ: पत्नियों के साथ समागम करके हम लोगों पर यह बहुत बड़ा अनर्थ लाद दिया है’। दूसरे लोगों ने उस गरुडी पक्षिणी से कहा,
लोग बोले ;- ‘तूने ही यह अनर्थ उपस्थित किया है।' यह उन लोगों का विचार था, जिन्होंने स्वाहा देवी को गरुडी के रूप मे जाते देखा था। लोग यह नहीं जानते थे कि यह सारा कार्य स्वाहा ने किया है।
गरुडी ने लोगों की बातें सुनकर कहा,,
गरुड़ी बोली ;- ‘यह मेरा पुत्र है।' फिर उसने धीरे से स्कन्द के पास जाकर कहा,
गरुड़ी फिर बोली ;- ‘बेटा! मैं तुम्हें जन्म देने वाली माता हूँ।' इधर सप्तर्षियों ने जब यह सुना कि हमारी छ: पत्नियों के संग से अग्नि देव के एक महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ है, तब उन्होंने अरुन्धती देवी के सिवा अन्य छ: पत्नियों को त्याग दिया। क्योंकि उस वन के निवासियों ने उस समय छ: पत्नियों के गर्भ से उस बालक की उत्पति बतायी थी। राजन्! यद्यपि स्वाहा ने सप्तर्षियों से बार-बार कहा कि ‘यह मेरा पुत्र है। मैं इसके जन्म का रहस्य जानती हूं; लोग जैसी बात उड़ा रहे हैं, वैसी नहीं है।' (तो भी वे सहसा उसकी बात पर विश्वास न कर सके)। महामुनि विश्वामित्र जब सप्तर्षियों की इष्टिपूर्ण कर चुके, तब वे भी कामपीड़ित अग्नि के पीछे-पीछे गुप्त रूप से चल दिये थे, उस समय कोई उन्हें देख नहीं पाता था। अत: उन्होंने यह सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से जान लिया।
विश्वामित्र जी सबसे पहले कुमार कार्तिकेय की शरण में गये तथा उन्होंने महासेन की दिव्य स्तोत्रों द्वारा स्तुति भी की। उन महामुनि ने कुमार के सारे मांगलिक कृत्य सम्पन्न किये। जातकर्म आदि तेरह क्रियाओं का भी अनुष्ठान किया। स्कन्द की महिमा, उनके द्वारा कुक्कुट पक्षी का धारण, देवी के समान प्रभावशालिनी शक्ति का ग्रहण तथा पार्षदों का वरण आदि कुमार के सभी कार्यों को विश्वामित्र ने लोकहित के लिये आवश्यक सिद्ध किया। अत: विश्वामित्र मुनि कुमार के अधिक प्रिय हो गये। महामुनि विश्वामित्र ने यह जान लिया था कि स्वाहा ने अन्य ऋषिपत्नियों के रूप धारण करके अग्नि देव से सम्बन्ध स्थापित किया था; इसलिये उन्होंने सब ऋषियों से कहा,,
विश्वामित्र बोले ;- ‘आपकी स्त्रियों का कोई अपराध नहीं है।' उनके मुख से यथार्थ बात जानकर भी ऋषियों ने अपनी पत्नियों को सर्वथा त्याग ही दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद)
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! उस समय स्कन्द के जन्म और बल-पराक्रम का समाचार सुनकर सब देवताओं ने एकत्र हो इन्द्र से कहा,
देवगण बोले ;- ‘देवेश्वर! स्कन्द का बल असह्य है। शीघ्र उन्हें मार डालिये; विलम्ब न कीजिये। महाबली इन्द्र! यदि आप इन्हें अभी नहीं मारते हैं, तो ये त्रिलोकी को, हम सबको तथा आपको भी अपने वश में करके ‘देवेन्द्र‘ बन बैठेंगे’।
तब इन्द्र ने व्यथित होकर उन देवताओं से कहा,,
इन्द्र देव बोले ;- ‘देवताओ! यह बालक बड़ा बलवान् है। यह लोकस्रष्टा ब्रह्मा को भी युद्ध में पराक्रम करके मार सकता है। अत: मुझमें इस बालक को मारने का साहस नहीं है।' इन्द्र बार-बार यही बात दुहराने लगे।
यह सुनकर देवता बोले ;- ‘आप में अब बल और पराक्रम नहीं रह गया है, इसीलिये ऐसी बातें कहते हैं। हमारी राय है कि सम्पूर्ण लोकमातृकाएं स्कन्द के पास जायें। ये इच्छानुसार पराक्रम प्रकट कर सकती हैं; अत: स्कन्द को मार डालें। तब ‘बहुत अच्छा‘ कहकर वे मातृकाएं वहाँ से चल दीं। परंतु स्कन्द का अप्रतिम बल देखकर उनके मुख पर उदासी छा गयी। वे सोचने लगीं- ‘इस वीर को पराजित करना असम्भव है।' ऐसा निश्चय होने पर वे उन्हीं की शरण में गयीं और बोलीं,
मातृकाएं बोले ;- ‘महाबली कुमार! तुम हमारे पुत्र हो जाओ, हमें माता मान लो। देखो, हम पुत्रस्नेह से विकल हो रही हैं, हमारे स्तनों से दूध झर रहा है, इसे पीकर हम सबको सम्मानित और आनन्दित करो।'
मातृकाओं की यह बात सुनकर समर्थ स्कन्द के मन में उनके स्तनपान की इच्छा जाग्रत् हो गयी। फिर महासेन ने उन सबका समादर करके उनकी मनोवांच्छा पूर्ण की। तदनन्तर बलवानों में बलिष्ठ वीर स्कन्द ने अपने पिता अग्नि देव को आते देखा। कुमार महासेन के द्वारा पूजित हो मंगलकारी अग्नि देव मातृकागणों के साथ उन्हें घेरकर खड़े हो गये और उनकी रक्षा करने लगे। उस समय सम्पूर्ण मातृकाओं के क्रोध से जो एक नारी मूर्ति प्रकट हुई थी, वह हाथ में त्रिशुल ले धाय की भाँति अपने पुत्र के समान प्रिय स्कन्द की सब ओर से रक्षा करने लगी। लाल सागर की एक क्रूर स्वभाव वाली कन्या थी, जिसका रक्त ही भोजन था। वह महासेन को पुत्र की भाँति हृदय से लगाकर सर्वतोभावेन उनकी रक्षा करने लगी। वेदप्रतिपादित अग्नि बकरे का-सा मुख बनाकर अनेक संतानों के साथ उपस्थित हो पर्वत शिखर पर निवास करने वाले बालक स्कन्द का इस प्रकार मन बहलाने लगे, मानो उन्हें खिलौनों से खेला रहे हों।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान के प्रसंग में स्कन्द की उत्पत्ति विषयक दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ सताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"पराजित होकर शरण में आये हुए इन्द्र सहित देवताओं को स्कन्द का उभयदान"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! ग्रह, उपग्रह, ऋषि, मातृकागण और मुख से आग उगलने वाले दर्पयुक्त पार्षदगण-ये तथा दूसरे बहुत-से भयंकर स्वर्गवासी प्राणी मातृकागणों के साथ रहकर महासेन को सब ओर से घेरे हुए उनकी रक्षा के लिये खड़े थे। देवेश्वर इन्द्र को अपनी विजय के विषय में संदेह ही दिखायी देता था, तो भी वे विजयी की अभिलाषा से ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो देवताओं के साथ आगे बढ़े। सब देवताओं से घिरे हुए बलवान् इन्द्र महासेन को मार डालने की इच्छा से हाथ में वज्र ले बड़े वेग से अग्रसर हो रहे थे। देवताओं की सेना बड़ी भयानक थी। उसमें जोर-जोर से विकट गर्जना हो रही थी। उसकी प्रभा का विस्तार महान् था। उसके ध्वज और संनाह (कवच) विचित्र थे। सभी सैनिकों के वाहन और धनुष नाना प्रकार के दिखायी देते थे। सब ने श्रेष्ठ वस्त्रों से अपने शरीर को आच्छादित कर रखा था। सभी लोग श्रीसम्पन्न तथा विविध आभूषणों से विभूषित दिखायी देते थे।
इन्द्र को अपने वध के लिये आते देख कुमार ने भी उन पर धावा बोल दिया। युधिष्ठिर! महाबली देवराज इन्द्र अग्निनन्दन स्कन्द को मार डालने की इच्छा से देवताओं की सेना का हर्ष बढ़ाते हुए तीव्र गति से विकट गर्जना के साथ आगे बढ़ रहे थे। उस समय सम्पूर्ण देवता और महर्षि उनका बड़ा सम्मान कर रहे थे। जब देवराज इन्द्र कुमार कार्तिकेय के निकट पहुँचे, तब उन्होंने देवताओं के साथ सिंह के समान गर्जना की। उनका वह सिंहनाद सुनकर कुमार कार्तिकेय भी समुद्र के समान भयंकर गर्जना करने लगे। देवताओं की सेना उमड़ते हुए समुद्र के समान जान पड़ती थी। परंतु स्कन्द की भारी गर्जना से अचेत-सी होकर वहीं चक्कर काटने लगी।
अग्निकुमार स्कन्द यह देखकर कि देवता लोग मेरा वध करने की इच्छा से यहाँ एकत्र हुए हैं, कुपित हो उठे और अपने मुंह से आग की बढ़ती हुई लपटें छोड़ने लगे। इस प्रकार उन्होंने देवताओं की सेना को जलाना प्रारम्भ किया। सारे सैनिक पृथ्वी पर गिरकर छटपटाने लगे। किसी का शरीर जल गया, किसी का सिर, किसी के आयुध जल गये और किसी के वाहन। वे सब के सब सहसा तितर-बितर हो आकाश में बिखरे हुए तारों के समान जान पड़ते थे। इस तरह जलते हुए देवता वज्रधारी इन्द्र का साथ छोड़कर अग्निनन्दन स्कन्द की ही शरण में आये, तब उन्हें शान्ति मिली। देवताओं के त्याग देने पर इन्द्र ने स्कन्द पर अपने वज्र का प्रहार किया। महाराज! इन्द्र के छोड़े हुए उस वज्र ने शीघ्र ही कुमार कार्तिकेय की दायीं पसली पर गहरी चोट पहुँचायी और उन महामना स्कन्द के पार्श्वभाग को क्षत-विक्षत कर दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 16-18 का हिन्दी अनुवाद)
वज्र का प्रहार होने पर स्कन्द के (उस दक्षिण पार्श्व से) एक दूसरा वीर पुरुष प्रकट हुआ, जिसकी युवावस्था थी। उसने सुवर्णमय कवच धारण कर रखा था। उसके एक हाथ में शक्ति चमक रही थी और कानों में दिव्य कुण्डल झलमला रहे थे।
वज्र के प्रविष्ट होने से उसकी उत्पति हुई थी, इसलिये वह विशाख नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्रलय काल की अग्नि के समान अत्यन्त तेजस्वी उस द्वितीय वीर को प्रकट हुआ देख इन्द्र भय से थर्रा उठे और हाथ जोड़कर उन स्कन्द देव की शरण में आये।
तब सत्पुरुषों में श्रेष्ठ कुमार स्कन्द ने सेना सहित इन्द्र को उभयदान दिया। इससे प्रसन्न होकर सब देवता (हर्षसूचक) बाजे बजाने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान के प्रसंग में इन्द्र-स्कन्द समागम विषयक दो सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ अठाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"स्कन्द के पार्षदों का वर्णन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! अब तुम स्कन्द के भयंकर पार्षदों का वर्णन सुनो, जो देखने में बड़े अद्भुत हैं। वज्र का प्रहार होने पर स्कन्द के शरीर से वहाँ बहुत-से कुमार ग्रह उत्पन्न हुए। वे क्रूर स्वभाव वाले कुमार ग्रह नवजात तथा गर्भस्थ शिशुओं को भी हर ले जाते हैं। इन्द्र के वज्र-प्रहार से स्कन्द के शरीर से वहाँ अत्यन्त बलशालिनी कन्याएं भी उत्पन्न हुई थीं। पूर्वोक्त कुमार ग्रहों ने विशाख (स्कन्द) को अपना पिता माना। भगवान स्कन्द बकरे के समान मुख धारण करके समस्त कन्यागणों और अपने पुत्रों से घिरकर मातृकाओं के देखते-देखते युद्ध में अपने पक्ष की रक्षा करते हैं। वे ही ‘भद्रशाख’ तथा ‘कौसल’ नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। इसीलिये भूतल के मनुष्य स्कन्द को कुमार ग्रहों का पिता कहते हैं। भिन्न-भिन्न स्थानों में पुत्रवान् तथा पुत्र की इच्छा रखने वाले मनुष्य अग्निस्वरूप रुद्र और स्वाहास्वरूपा महाबलवती उमा की सदा आराधना करते हैं।
तप नामक अग्नि ने जिन कन्याओं को जन्म दिया, वे सब स्कन्द के पास आयीं और पूछने लगीं,
कन्यायें बोली ;- ‘हम क्या करें?'
कुमारियां बोलीं ;- 'हम सब लोग सम्पूर्ण जगत् की श्रेष्ठ माताएं हों और आपकी कृपा से हम सदा पूजनीय मानी जायें, यही हमारा प्रिय मनोरथ है, आप इसे पूर्ण कीजिये।'
तब उदारबुद्धि स्कन्द ने बार-बार कहा,
स्कन्द बोले ;- ‘बहुत अच्छा, तुम सब लोग पृथक-पृथक पूजनीया माता मानी जाओगी। तुम्हारे दो भेद होंगे- शिवा और अशिवा।' तदनन्तर स्कन्द को अपना पुत्र मानकर मातृकाएं वहाँ से विदा हो गयीं। काकी, हलिमा, मालिनी, बृंहता, आर्या, पलाला और बैमित्रा -ये सातों शिशु की माताएं हैं। भगवान स्कन्द की कृपा से इन्हें शिशु नामक एक अत्यन्त पराक्रमी पुत्र प्राप्त हुआ, जो अत्यन्त दारुण और भयंकर था। उसकी आंखें रक्तवर्ण की थीं। शिशु और मातृगणों को लेकर जो आठ व्यक्ति होते हैं, उन्हें ‘वीराष्टक’ कहा गया है। बकरे के से मुख से युक्त स्कन्द को सम्मिलित करने से यह समुदाय वीर-नवक कहा जाता है।
युधिष्ठिर! स्कन्द का ही छठा मुख छागमय है, यह जान लो। राजन्! वह छ: सिरों के बीच में स्थित है और मातृकाएं सदा उसकी पूजा करती हैं। स्कन्द के छहों मस्तकों में वही सर्वश्रेष्ठ बताया जाता है। उन्होंने दिव्यशक्ति का प्रयोग किया था; इसलिये उनका नाम भद्रशाख हुआ। नरेश्वर! इस प्रकार शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को विविध आकार वाले पार्षदों की सृष्टि हुई और षष्ठी वहाँ अत्यन्त भयंकर युद्ध हुआ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान के प्रसंग में कुमारोत्पत्ति विषयक दो सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ उन्नतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप, देव सेनापति के पद पर अभिषेक तथा देवसेना के साथ उनका विवाह"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! स्कन्द सोने का कवच, सोने की माला और सोने की कलंगी से सुशोभित मुकुट धारण किये (सुन्दर आसन पर) बैठे थे। उनके नेत्रों से सुवर्ण की-सी ज्योति छिटक रही थी और उनके शरीर से महान् तेज:पुंज प्रकट हो रहा था। उन्होंने लाल रंग के वस्त्र से अपने अंगों को आच्छादित कर रखा था। उनके दांत बड़े तीखे थे और उनकी आकृति मन को लुभा लेने वाली थी। वे समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न तथा तीनों लोकों के लिये अत्यन्त प्रिय थे। तदनन्तर वर देने में समर्थ, शौर्य-सम्पन्न, युवा अवस्था से सुशोभित तथा सुन्दर कुण्डलों से अलंकृत कुमार कार्तिकेय का कमल के समान कान्ति वाली मूर्तिमती शोभा ने स्वयं ही सेवन किया। मूर्तिमती शोभा से सेवित हो वहाँ बैठे हुए महायशस्वी सुन्दर कुमार को उस समय सब प्राणी पूर्णमासी के चन्द्रमा की भाँति देखते थे। महामना ब्राह्मणों ने महाबली स्कन्द की पूजा की और सब महर्षियों ने वहाँ आकर उनका इस प्रकार स्तवन किया।
ऋषि बोले ;- 'हिरण्यगर्भ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम समस्त जगत् के लिये कल्याणकारी बनो। तुम्हारे पैदा हुए अभी छ: रातें ही बीती होंगी। इतने में ही तुमने समस्त लोकों को अपने वश में कर लिया है। सुरश्रेष्ठ! फिर तुम्हीं ने इन सब लोकों को अभयदान दिया है। अत: आज से तुम इन्द्र होकर रहो और तीनों लोकों के भय का निवारण करो।'
स्कन्द बोले ;- 'तपोधनो! इन्द्र इस पद पर रहकर सम्पूर्ण लोकों के लिये क्या करते हैं तथा वे देवेश्वर सदा समस्त देवताओं की किस प्रकार रक्षा करते हैं?'
ऋषि बोले ;- 'देवराज इन्द्र संतुष्ट होने पर सम्पूर्ण प्राणियों को बल, तेज, संतान और सुख की प्राप्ति कराते हैं तथा उनकी समस्त कामनाएं पूर्ण करते हैं। वे दुष्टों का संहार करते और उत्तम व्रत का पालन करने वाले सत्पुरुषों को जीवन दान देते हैं। बल नामक दैत्य का विनाश करने वाले इन्द्र सभी प्राणियों को आवश्यक कार्यों में लगने का आदेश देते है। सूर्य के अभाव में स्वयं ही सूर्य होते हैं और चन्द्रमा के न रहने पर स्वयं ही चन्द्रमा बनकर उनका कार्य सम्पादन करते हैं। आवश्यकता पड़ने पर वे ही अग्नि, वायु, पृथ्वी और जल का स्वरूप धारण कर लेते हैं। यह सब इन्द्र का कार्य है। इन्द्र में अपरिमित बल होता है। वीर! तुम भी श्रेष्ठ बलवान् हो। अत: तुम्हीं हमारे इन्द्र हो जाओ।'
इन्द्र ने कहा ;- 'तुम्हीं इन्द्र बनो और हम सबको सुख पहुँचाओ। सज्जनशिरोमणे! तुम इस पद के सर्वथा योग्य हो। अत: आज ही इस पद पर अपना अभिषेक करा लो।'
स्कन्द बोले ;- 'इन्द्रदेव! आप ही स्वस्थचित्त होकर तीनों लोकों का शासन कीजिये और विजया प्राप्ति के कार्य में संलग्न रहिये। मैं तो आपका सेवक हूँ। मुझे इन्द्र बनने की इच्छा नहीं है।
इन्द्र ने कहा ;- 'वीर! तुम्हारा बल अद्भुत है, अत: तुम्हीं देव-शत्रुओं का संहार करो। वीरवर! मैं तुम्हारे सामने पराजित होकर बलहीन सिद्ध हो गया हूँ। अत: तुम्हारे पराक्रम से चकित होकर लोग मेरी अवहेलना करेंगे। यदि मैं इन्द्र पद पर स्थित रहूं, तो भी सब लोग मेरा उपहास करेंगे और आलस्य छोड़कर हम दोनों में परस्पर फूट डालने का प्रयत्न करेंगे।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद)
'प्रभो! यदि तुम फूट जाओगे, तो जगत् के प्राणी दो भागों में बट जायेंगे। महाबलवान् वीर! सम्पूर्ण लोकों के निश्चय ही दो दलों में बट जाने तथा लोगों के द्वारा भेदबुद्धि उत्पन्न किये जाने पर हम लोगों में युद्ध प्रारम्भ हो सकता है। तात! उस युद्ध में जैसा कि मेरा विश्वास है, तुम्हीं विजयी होओगे। अत: तुम्हीं इन्द्र हो जाओ। इस विषय में कोई दूसरी बात मत सोचो।'
स्कन्द बोले ;- 'देवेन्द्र! आप ही देवराज के पद पर प्रतिष्ठित रहें। आपका कल्याण हो। आप ही तीनों लोकों के तथा मेरे भी स्वामी हैं। आपकी किस आज्ञा का पालन करूँ? यह मुझे बताने की कृपा करें।'
इन्द्र ने कहा ;- 'महाबलवान् स्कन्द! मैं तुम्हारे कहने से इन्द्र-पद पर प्रतिष्ठित रहूंगा। यदि वास्तव में तुम मेरी आज्ञा का पालन करना चाहते हो, यदि तुमने यह निश्चित बात कही है अथवा यदि तुम्हारा यह कथन सत्य है, तो मेरी यह बात सुनो। महावीर! तुम देवताओं के सेनापति के पद पर अभिषेक करा लो।'
स्कन्द बोले ;- 'देवराज! दानवों के विनाश, देवताओं के कार्य की सिद्धि तथा गौओं और ब्राह्मणों के हित के लिये सेनापति के पद पर मेरा अभिषेक कीजिये।'
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर समस्त देवताओं सहित इन्द्र ने कुमार का देवसेनापति के पद पर अभिषेक कर दिया। उस समय वहाँ महर्षियों द्वारा पूजित होकर स्कन्द की बड़ी शोभा हुई। उनके ऊपर तना हुआ वह सुवर्णमय छत्र उद्भासित हो रहा था, मानो प्रज्वलित अग्नि का अपना ही मण्डल प्रकाशित होता हो। नरश्रेष्ठ परंतप युधिष्ठिर! साक्षात् त्रिपुरनाशक यशस्वी भगवान शिव तथा देवी पार्वती ने पधारकर स्कन्द के गले में विश्वकर्मा की बनायी हुई सोने की दिव्यमाला पहनायी। भगवान वृषध्वज (शिव) ने अत्यन्त प्रसन्न होकर स्कन्द का समादर किया। ब्राह्मण लोग अग्नि को रुद्र का स्वरूप बताते हैं, इसलिये स्कन्द भगवान रुद्र के ही पुत्र हैं। रुद्र ने जिस वीर्य का त्याग किया था, वही श्वेत पर्वत के रूप में परिणत हो गया। फिर कृत्तिकाओं ने अग्नि के वीर्य को श्वेत पर्वत पर पहुँचाया था। भगवान रुद्र के द्वारा गुणवानों में श्रेष्ठ कुमार कार्तिकेय का सम्मान होता देख सब देवता कहने लगे,
देवगण बोले ;- 'ये रुद्र के ही पुत्र हैं। रुद्र ने अग्नि में प्रवेश करके इस शिशु को जन्म दिया है।'
रुद्रस्वरूप अग्नि से उत्पन्न होने के कारण स्कन्द रुद्र के ही पुत्र कहलाये। भारत! सुरश्रेष्ठ स्कन्द का जन्म रुद्रस्वरुप अग्नि से, स्वाहा से तथा छ: स्त्रियों से हुआ था। इसलिये वे भगवान रुद्र के पुत्र हुए। अग्निनन्दन स्कन्द लाल रंग के दो स्वच्छ वस्त्र धारण किये कान्तिमान् एवं तेजस्वी शरीर से ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो दो लाल बादलों के साथ भगवान अंशुमाली (सूर्य) सुशोभित हो रहे हों। अग्नि देव ने स्कन्द के लिये कुक्कुट के चिह्न से सुशोभित ऊँचा ध्वज प्रदान किया था, जो रथ पर अरुण प्रभा से प्रलयाग्नि के समान उद्भासित हो रहा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनत्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 34-52 का हिन्दी अनुवाद)
सम्पूर्ण भूतों में जो चेष्टा, प्रभा, शान्ति और बल है, वही कुमार कार्तिकेय के सम्मुख शक्तिरूप में उपस्थित है। वह देवताओं की विजयश्री को बढ़ाने वाली है तथा उन स्कन्द देव के शरीर में सहज (स्वाभाविक) कवच का प्रवेश हो गया, जो सदा उनके युद्ध करते समय प्रकट होता था। राजन्! शक्ति, धर्म, बल, तेज, कान्ति, सत्य, उन्नति, ब्राह्मण भक्ति, असम्मोह (विवेक), भक्तजनों की रक्षा, शत्रुओं का संहार और समस्त लोकों का पालन-ये सारे गुण स्कन्द के साथ ही उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार समस्त देवताओं द्वारा सेनापति के पद पर अभिषिक्त होकर विविध आभुषणों से विभूषित, विशुद्ध एवं प्रसन्न हृदय वाले स्कन्द पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान सुशोभित हुए।
उस समय अत्यन्त प्रिय लगने वाले वेद-मन्त्रों की ध्वनि सब ओर गूंज उठी, देवताओं के उत्तम वाद्य भी बजने लगे, देव और गन्धर्व गीत गाने लगे और समस्त अप्सराएं नृत्य करने लगीं। ये तथा और भी बहुत से देवगण एवं पिशाच समूह विविध अलंकारों से अलंकृत, हर्षोत्फुल्ल और संतुष्ट हो स्कन्द को घेरकर खड़े थे। उस समय इन सब से घिरे हुए अग्निनन्दन कार्तिकेय देवताओं द्वारा अभिषिक्त हो भाँति-भाँति की क्रीड़ाएं करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। देवताओं ने सेनापति पद पर अभिषिक्त हुए कुमार महासेन को इस प्रकार देखो, मानो सूर्य देव अन्धकार का नाश करके उदित हुए हों। तदनन्तर सारी देवसेनाएं सहस्रों की संख्या में सब दिशाओं से उनके पास आयीं और कहने लगीं,,
देवसेना बोली ;- ‘आप ही हमारे पति हैं।' समस्त भूतगणों से घिरे हुए भगवान स्कन्द ने उन देवसेनाओं को अपने समीप पाकर उन्हें सान्त्वना दी और स्वयं भी उनके द्वारा पूजित तथा प्रशंसित हुए। उस समय इन्द्र ने स्कन्द को सेनापति के पद पर अभिषिक्त करने के पश्चात् उस कुमारी देवसेना का स्मरण किया, जिसका उन्होंने केशी के हाथ से उद्धार किया था। उन्होंने सोचा, स्वयं ब्रह्माजी ने निश्चय ही कुमार कार्तिकेय को ही उसका पति नियत किया है। यह सोचकर वे देवसेना को वस्त्राभूषणों से भूषित करके ले आये।
फिर बलसंहारक इन्द्र ने स्कन्द से कहा,
इन्द्र बोले ;- ‘सुरश्रेष्ठ! तुम्हारे जन्म लेने के पहले से ही ब्रह्मजी ने इस कन्या को तुम्हारी पत्नी नियत किया है, अत: तुम वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक, इसका विधिवत् पाणिग्रहण करो। अपने कमल की सी कान्ति वाले हाथ से इस देवी का दायां हाथ पकड़ो।' इन्द्र के ऐसा कहने पर स्कन्द ने विधिपूर्वक देवसेना का पाणिग्रहण किया। उस समय मन्त्रवेत्ता बृहस्पति जी ने वेद-मन्त्रों का जप और होम किया। इस प्रकार सब लोग यह जान गये कि देवसेना कुमार कार्तिकेय की
पटरानी है। उसी को ब्राह्मण लोग षष्ठी, लक्ष्मी, आशा, सुखप्रदा, सिनीवाली, कुहू, सद्वृति तथा अपराजिता कहते हैं। जब देवसेना ने स्कन्द को अपने सनातन पति के रूप में प्राप्त कर लिया, तब (शोभास्वरूपा) लक्ष्मी देवी ने स्वयं मूर्तिमती होकर उनका आश्रय लिया। पंचमी तिथि को स्कन्द देव श्री अर्थात शोभा से सेवित हुए, इसलिये उस तिथि को श्रीपंचमी कहते हैं और षष्ठी को कृतार्थ हुए थे, इसलिये षष्ठी महातिथि मानी गयी है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान के प्रसंग में स्कन्दोपाख्यान सम्बन्धी दो सौ उतनीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति तथा मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! कुमार महासेन को श्रीसम्पन्न और देवताओं का सेनापति हुआ देख सप्तर्षियों में से छ: की पत्नियां उनके पास आयीं। वे धर्मपरायणा तथा महान् पातिव्रत्य का पालन करने वाली थीं तो भी ऋषियों ने उन्हें त्याग दिया था। अत: उन्होंने देवसेना के स्वामी भगवान स्कन्द के पास शीघ्रतापूर्वक आकर कहा,
ऋषि पत्नियां बोली ;- ‘बेटा! हमारे देवतुल्य पतियों ने अकारण रुष्ट होकर हमें त्याग दिया है, इसलिये (हम) पुण्यलोक से च्युत हो
गयी हैं। उन्हें किसी ने यह बता दिया है कि तुम हमारे गर्भ से उत्पन्न हुए हो, (परंतु ऐसी बात नहीं है)। अत: हमारे सत्य कथन को सुनकर तुम इस संकट से हमारी रक्षा करो। प्रभो! तुम्हारी कृपा से हमें अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। इसके सिवा हम तुम्हें अपना पुत्र भी बनाये रखना चाहती हैं। यह सब कार्य सम्पन्न करके तुम हम से उऋण हो जाओ।'
स्कन्द बोले ;- वन्दनीय सतियों! आप लोग मेरी माताएं हैं और मैं आप सबका पुत्र हूँ। इसके सिवा यदि आप लोगों की और कोई इच्छा हो, तो वह भी पूर्ण हो जायेगी।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर इन्द्र को कुछ कहने के लिये उत्सुक देख स्कन्द ने पूछा,
स्कन्द बोले ;- ‘क्या काम है, कहिये।'
स्कन्द के इस प्रकार आदेश देने पर इन्द्र बोले,
इन्द्र बोले ;- ‘रोहिणी की छोटी बहिन अभिजित् देवी स्पर्धा के कारण ज्येष्ठता पाने की इच्छा से तपस्या करने के लिये वन में चली गयी है। तुम्हारा कल्याण हो, आकाश से यह एक नक्षत्र च्युत हो गया है; (इसकी पूर्ति कैसे हो?) इस प्रश्न को लेकर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ। स्कन्द! तुम ब्रह्माजी के साथ मिलकर इस उत्तम काल (मुहूर्त या नक्षत्र) की पूर्ति के उपाय का विचार करो। अभिजित् का पतन होने से ब्रह्माजी ने धनिष्ठा से ही (सत्ययुग) काल की गणना का क्रम निश्चित किया (क्योंकि वही उस समय युगादि नक्षत्र था)। इसके पूर्व रोहिणी को ही युगादि नक्षत्र माना जाता था (क्योंकि उसी के प्रारम्भ काल में चन्द्रमा, सूर्य तथा गुरु का योग होता था)-इस प्रकार नाक्षत्र मास की दिन-संख्या उन दिनों सम थी’।
इन्द्र के उपर्युक्त प्रस्ताव करने पर उनका आशय समझकर छहों कृत्तिकाएं अभिजित् के स्थान की पूर्ति करने के लिये आकाश में चली गयीं। वह अग्नि देवता सम्बन्धी कृति का नक्षत्र सात सिरों की आकृति में प्रकाशित हो रहा है। गरुड़जातीय विनता ने स्कन्द से कहा,,
विनता बोली ;- ‘बेटा! तुम मेरे पिण्डदाता पुत्र हो। मैं सदा तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ।'
स्कन्द ने कहा ;- 'एवमस्तु (ऐसा ही हो), मा! तुम्हें नमस्कार है। तुम मेरे ऊपर पुत्रोचित स्नेह रखकर कर्तव्य का आदेश देती रहो। देवि! तुम यहाँ सदा अपनी पुत्रवधू देवसेना द्वारा सम्मानित होकर रहोगी।'
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर समस्त मातृगणों ने आकर स्कन्द से कहा,
माताएं बोली ;- 'बेटा! विद्वानों ने हमें सम्पूर्ण लोकों की माताएं कहकर हमारी स्तुति की है। अब हम तुम्हारी माता होना चाहती हैं। तुम मातृभाव से हमारा पूजन करो।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद)
स्कन्द ने कहा ;- आप मेरी माताएं हैं। मैं आप लोगों का पुत्र हूँ। मुझसे सिद्ध होने योग्य जो आपका अभीष्ट कार्य हो, उसे बताइये।
माताओं ने कहा ;- (ब्राह्मी, माहेश्वरी आदि) सुप्रसिद्ध लोकमाताएं जो पहले से इस सम्पूर्ण जगत् की माताओं के स्थान पर प्रतिष्ठत हों, (वे अपना पद छोड़ दें) उनके उस स्थान पर अब हमारा अधिकार हो जाये। उनका उस पर कोई अधिकार न रहे। सुरश्रेष्ठ! हम सम्पूर्ण जगत् की पूजनीया हों। जो पहले मातृकाएं थीं, उनकी अब पूजा न हो। उन्होंने तुम्हारे लिये हम पर मिथ्या अपवाद लगाकर हमारे पतियों को कुपित करके हमारे संतान सुख को छीन लिया है। अत: तुम हमें संतान प्रदान करो ( हमारे पतियों को अनुकूल करके हमें संतान-सुख की प्राप्ति कराओ।
स्कन्द बोले ;- माताओ! जिस प्रजाओं की उत्पत्ति का अवसर बीत गया, उन्हें आप लोग अब नहीं पा सकतीं। यदि दूसरी कोई प्रजा पाने की आपके मन में इच्छा हो, तो कहिये, मैं उसे प्रदान करूँगा।
माताओं ने कहा ;- यदि ऐसी बात है, तो हमें इन लोकमाताओं की संतानें सौंप दो। हम उन्हें खाना चाहती हैं। तुमसे पृथक जो उन संतानों के पिता आदि अभिभावक हैं, उन्हें भी हम खाना चाहती हैं।
स्कन्द बोले ;- देवियो! आप लोगों ने यह दु:ख की बात कही है, तो भी मैं आपको पहले की मातृकाओं की संतानों को अर्पित कर देता हूं; परंतु आप लोग उन सबकी रक्षा करें; इसी से आपका भला होगा। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
माताओं ने कहा ;- स्कन्द! जैसी तुम्हारी इच्छा है, उसके अनुसार हम उन संतानों की रक्षा अवश्य करेंगी। शक्तिशाली कुमार! हमें दीर्घ काल तक तुम्हारे साथ रहने की इच्छा है।
स्कन्द बोले ;- संसार के मनुष्य जब तक सोलह वर्ष के तरुण न हो जायें, तब तक आप मानव प्रजा को पृथक-पृथक उतने ही रूप धारण करके संताप दे सकती हैं। मैं आप लोगों को एक भयंकर एवं अविनाशी पुरुष प्रदान करूँगा, जो मेरा अभिन्न स्वरूप होगा। उसके साथ सम्मानपूर्वक रहकर आप लोग परमसुख की भागिनी होंगी।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर स्कन्द के शरीर से अग्नि के समान तेजस्वी तथा परमकान्तिमान् एक पुरुष प्रकट हुआ, जो समस्त मानव प्रजा को खा जाने की इच्छा रखता था। वह पैदा होते ही भूख से पीड़ित हो सहसा अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर स्कन्द की आज्ञा से वह भयंकर रूपधारी ग्रह हो गया। श्रेष्ठ द्विज इस ग्रह को ‘स्कन्दापस्मार’ कहते हैं। इसी प्रकार अत्यन्त रौद्र रूप धारण करने वाली विनता को ‘शकुनि ग्रह’ बताया जाता है। पूतना को राक्षसी बताया गया है, उसे ‘पूतनाग्रह’ समझना चाहिये। वह भयंकर रूप धारण करने वाली निशाचरी बड़ी क्रूरता के साथ बालकों को कष्ट पहुँचाती है। इसके सिवा भयानक आकार वाली एक पिशाची है, जिसे ‘शीतपूतना’ कहते हैं, वह देखने में बड़ी डरावनी है। वह मानवी स्त्रियों का गर्भ हर ले जाती है। लोग अदिति देवी को रेवती कहते हैं। रेवती के ग्रह का नाम रैवत है। वह महाभयंकर महान् ग्रह भी बालकों को बड़ा कष्ट देता है। दैत्यों की माता जो दिति है, उसे ‘मुखमणिडका’ कहते हैं। वह छोटे बच्चों के मांस से अधिक प्रसन्न होती है। उसे पराजित करना अत्यन्त कठिन है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 31-49 का हिन्दी अनुवाद)
कुरुनन्दन! स्कन्द के शरीर से उत्पन्न हुए जिन कुमार एवं कुमारियों का वर्णन किया गया है, वे सभी गर्भस्थ बालकों का भक्षण करने वाले महान् ग्रह हैं। वे कुमार उन्हीं पत्नीस्वरूपा कुमारियों के पति कहे गये हैं। उनके कर्म बड़े भयंकर हैं। वे जन्म लेने के पहले ही बच्चों को पकड़ ले जाते हैं। राजन्! विद्वान् पुरुष जिसे गोमाता सुरभि कहते हैं, उसी पर आरुढ़ होकर शकुनिग्रह-विनता अन्य ग्रहों के साथ भूमण्डल के बालकों का भक्षण करती है। नरेश्वर! कुत्तों की माता जो देवजातीय सरमा है, वह भी सदैव मानवीय स्त्रियों के गर्भस्थ बालकों का अपहरण करती रहती है। जो वृक्षों की माता है, वह करंज वृक्ष पर निवास किया करती है। वह वर देने वाली सौम्य है और सदा समस्त प्राणियों पर कृपा करती है। इसीलिए पुत्रार्थी मनुष्य करंज वृक्ष पर रहने वाली उस देवी को नमस्कार करते हैं।
ये तथा दूसरे अठारह ग्रह मांस और मधु के प्रेमी हैं। कद्रू सूक्ष्म शरीर धारण करके गर्भिणी स्त्री के शरीर के भीतर प्रवेश कर जाती है और वहाँ उस गर्भ को खा जाती है। इससे गर्भिणी स्त्री सर्प पैदा करती है। जो गन्धर्वों की माता है, वह गर्भिणी स्त्री के गर्भ को लेकर चल देती है, जिससे उस मानवी स्त्री का गर्भ विलीन हुआ देखा जाता है। जो अप्सराओं की माता है, वह भी गर्भ को पकड़ लेती है, जिससे बुद्धिमान मनुष्य कहते हैं कि अमुक स्त्री का गर्भ नष्ट हो गया। लाल सागर की कन्या का नाम लोहितायनि है, जिसे स्कन्द की धाय बताया गया है। उसकी कदम्ब वृक्षों में पूजा की जाती है। जैसे पुरुषों में भगवान रुद्र श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार स्त्रियों में आर्या उत्तम मानी गयी है।
आर्या कुमार कार्तिकेय की जननी है। लोग अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिये उनका उपर्युक्त ग्रहों से पृथक पूजन करते हैं। इस प्रकार मैंने ये कुमारसम्बन्धी महान् ग्रह बताये हैं। जब तक सोलह वर्ष की अवस्था न हो जाये, तब तक ये बालकों का अमंगल करने वाले होते हैं। जो मातृगण और पुरुष ग्रह बताये गये हैं, इन सबको समस्त देहधारी मनुष्य सदा ‘स्कन्दग्रह’ के नाम से जाने। स्नान, धूप, अंजन, बलिकर्म, उपहार अर्पण तथा स्कन्द देव की विशेष पूजा करके इन स्कन्दग्रहों की शान्ति करनी चाहिये। राजेन्द्र! इस प्रकार पूजित तथा विधिवत् पूजन द्वारा अभिवन्दित होने पर वे सभी ग्रह मनुष्यों का मंगल करते हैं और उन्हें आयु तथा बल देते हैं।
अब मैं भगवान महेश्वर को नमस्कार करके उन ग्रहों का परिचय दूंगा, जो सोलह वर्ष की अवस्था के बाद मनुष्यों के लिये अनिष्टकारक होते हैं। जो मनुष्य जागते या सोते में देवताओं को देखता और तुरंत पागल हो जाता है, उस कष्ट देने वाले ग्रह को ‘देवग्रह’ कहते हैं। जो मनुष्य बैठे-बैठे या सोते समय पितरों को देखता और शीघ्र पागल हो जाता है, उस बाधा देने वाले ग्रह को ‘पितृग्रह’ जानना चाहिये। जो सिद्ध पुरुषों का अनादर करता है और क्रोध में आकर वे सिद्ध पुरुष जिसे शाप दे देते हैं, जिसके कारण वह तुरंत पागल हो जाता है, उसे ‘सिद्धग्रह’ की बाधा प्राप्त हुई है, ऐसा समझना चाहिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 50-59 का हिन्दी अनुवाद)
जो विभिन्न सुगन्धों को सूंघता तथा रसों का आस्वादन करता है एवं तत्काल ही उन्मत्त हो उठता है, उस पर प्रभाव डालने वाले ग्रह को ‘राक्षस ग्रह’ जानना चाहिये। भूतल पर जिस मनुष्य में दिव्य गन्धर्वों का आवेश होता है, वह भी शीघ्र ही उन्मादग्रस्त हो जाता है। इसे ‘गान्धर्व ग्रह’ की ही बाधा समझनी चाहिये। जिस पुरुष पर सदा पिशाच चढ़े रहते हैं, वह भी शीघ्र पागल हो जाता है। अत: वह ‘पिशाचग्रह’ की ही बाधा है। कालक्रम से जिस पुरुष में यक्षों का आवेश होता है, उसे भी पागल होते देर नहीं लगती। इसे ‘यक्षग्रह’ की बाधा जाननी चाहिये।
जिस देहधारी मनुष्य का चित्त वात, पित्त और कफ नामक दोषों के कुपित होने से अपनी संज्ञा खो बैठता है, वह शीघ्र ही विक्षिप्त हो जाता है। उसकी वैद्यक शास्त्र के अनुसार चिकित्सा करानी चाहिये। जो घबराहट, भय तथा घोर वस्तुओं के दर्शन से ही तत्काल पागल हो जाता है, उसके अच्छे होने का उपाय केवल उसे सान्त्वना देना है। कोई ग्रह क्रीड़ा-विनोद की, कोई भोजन की और कोई कामोपभोग की इच्छा रखता है, इस प्रकार ग्रहों की प्रकृति तीन प्रकार की है। जब तक सत्तर वर्ष की अवस्था पूरी होती है, तब तक ये ग्रह मनुष्यों को सताते हैं।
उसके बाद तो सभी देहधारियों को ज्वर आदि रोग ही ग्रहों के समान सताने लगते हैं। जिसने अपनी इन्द्रियों को सब ओर से समेट लिया है, जो जितेन्द्रिय, पवित्र, नित्य आलस्यरहित, आस्तिक तथा श्रद्धालु है, उस पुरुष को ग्रह कभी नहीं छेड़ते हैं-उसे दूर से ही त्याग देते हैं।
राजन्! इस प्रकार मैंने मनुष्यों को जो ग्रहों की बाधा प्राप्त होती है, उसका संक्षेप से वर्णन किया है। जो भगवान महेश्वर के भक्त हैं, उन मनुष्यों को भी ये ग्रह नहीं छूते हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान के प्रसंग में मनुष्यों को कष्ट देने वाले ग्रहों के वर्णन से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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