सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ इक्कीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"अग्निस्वरूप तप एवं भानु (मनु) की संतति का वर्णन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! पूर्वोक्त भरत नामक अग्नि (जो शंयु के पौत्र और ऊर्जा के पुत्र हैं) गुरुतर नियमों से युक्त हैं। वे संतुष्ट होने पर पुष्टि प्रदान करते हैं, इसलिये उनका एक नाम ‘पुष्टिमति’ भी है। समस्त प्रजा का भरण-पोषण करते हैं, इसलिये उन्हें 'भरत' कहते हैं। ‘शिव’ नाम से प्रसिद्ध जो अग्नि हैं, वे शक्ति की आराधना में लगे रहते हैं। दु:खातुर मनुष्यों का सदा ही शिव (कल्याण) करते हैं, इसलिये उन्हें ‘शिव’ कहते हैं। तप (पांचजन्य) का तपस्याजनित फल (ऐश्वर्य) बढ़कर महान् हो गया है, यह देख उसे प्राप्त करने की इच्छा से मानो बुद्धिमान इन्द्र ही पुरंदर नाम से उनके पुत्र होकर प्रकट हुए। उन्हीं पांचजन्य से 'ऊष्मा' नामक अग्नि का प्रादुर्भाव हुआ।
जो समस्त प्राणियों के शरीर में ऊष्मा (गर्मी) के द्वारा परिलक्षित होते हैं तथा तप के जो 'मनु' नामक अग्रिस्वरूप पुत्र हैं, उन्होंने 'प्राजापत्य' यज्ञ सम्पन्न कराया था। वेदों के पारंगत विद्वान् 'शम्भु' आवसथ्य’ नामक अग्नि को देदीप्यमान तथा महान् तेज:पुज्ज से सम्पन्न बताते हैं। इस प्रकार जिन्हें यज्ञ में सोम की आहुति दी जाती है, ऐसे पांच पुत्रों को तप ने पैदा किया। वे सब-के-सब सुवर्ण-सदृश कान्तिमान्, बल और तेज की प्राप्ति कराने वाले तथा देवताओं के लिये हविष्य पहुँचाने वाले हैं। महाभाग! अस्तकाल में परिश्रम से थके-मांदे सूर्यदेव (अग्नि में प्रविष्ट होने के कारण) अग्निस्वरूप हो जाते हैं। भयंकर असुरों तथा नाना प्रकार के मरणधर्मा मनुष्यों को उत्पन्न करते हैं। (उन्हें भी तप की संतति के अन्तर्गत माना गया है)। तप के मनु (प्रजापति) स्वरूप पुत्र भानु नामक अग्नि को अंगिरा ने भी (अपना प्रभाव अर्पित करके) नूतन जीवन प्रदान किया है। वेदों के पारगामी विद्वान् ब्राह्मण भानु को ही ‘बृहद्भानु’ कहते हैं।
भानु की दो पत्नियाँ हुईं-सुप्रजा और बृहद्भासा। इनमें बृहद्भासा सूर्य की कन्या थी। इन दोनों ने छ: पुत्रों को जन्म दिया। इनके द्वारा जो संतानों की सृष्टि हुई, उसका वर्णन सुनो। जो दुर्बल प्राणियों को प्राण एवं बल प्रदान करते हैं, उन्हें ‘बलद’ नामक अग्नि बताया जाता है। ये भानु के प्रथम पुत्र हैं। जो शान्त प्राणियों में भयंकर ‘क्रोध’ बनकर प्रकट होते हैं, वे ‘मन्युमान्’ नामक अग्नि भानु के द्वितीय पुत्र हैं। यहाँ जिनके लिये दर्श तथा पौर्णमास यागों में हविष्य समर्पण का विधान पाया जाता है, उन अग्नि का नाम ‘विष्णु’ है। वे ‘अंगिरा’ गोत्रीय माने गये हैं। उन्हीं का दूसरा नाम ‘धृतिमान्’ अग्नि है (ये भानु के तीसरे पुत्र हैं)। इन्द्र सहित जिनके लिये आग्रयण (नूतन अन्न द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञ) कर्म में हविष्य–अर्पण का विधान है, वे ‘आग्रयण’ नामक अग्नि भानु के ही (चौथे) पुत्र हैं। चातुर्मास्य यज्ञों में नित्यविहित आग्नेय आदि आठ हविष्यों के जो उद्भवस्थान हैं, उनका नाम ‘अग्रह’ है। (वे ही पांचवें पुत्र हैं), ‘स्तुभ’ नामक अग्नि भी भानु के ही पुत्र हैं। पहले कहे हुए चार पुत्रों के साथ जो ये अग्रह (वैश्ववदेव) और स्तुभ हैं, इन्हें मिलाकर भानु के छ: पुत्र हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद)
मनु (भानु) की ही एक तीसरी पत्नी थी, जिसका नाम था निशा। उसने एक कन्या और दो पुत्रों को जन्म दिया। (कन्या का नाम ‘रोहिणी’ तथा) पुत्रों के नाम थे- अग्नि और सोम, इनके सिवा, निशा ने पांच अग्निस्वरूप पुत्र और भी उत्पन्न किये। (जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-वैश्वानर, सन्निहित, कपिल और अग्रणी)। चातुर्मास्य यज्ञों में प्रधान हविष्य द्वारा पर्जन्य सहित जिसकी पूजा की जाती है, वे कान्तिमान् वेश्वानर नामक अग्नि (मनु के प्रथम पुत्र) हैं। जो वेदों में ‘सम्पूर्ण जगत् के प्रति’ कहे गये हैं, वे विश्वपति नामक अग्नि मनु के द्वितीय पुत्र हैं। उन्हीं के प्रभाव से हविष्य की सुन्दर भाव से आहुति-क्रिया सम्पन्न होती है; अत: वे परम स्विष्टकृत (उत्तम अभीष्ट पूर्ति करने वाले) कहे जाते हैं।
मनु की कन्या भी 'स्विष्टकृत' ही मानी गयी है। उसका नाम रोहिणी था; वह मनु की कुमारी पुत्री किसी अशुभ कर्म के कारण हिरण्यकशिपु की पत्नी हुई थी। वास्तव में ‘मनु’ ही वह्नि है और वे ही ‘प्रजापति’ कहे गये हैं। जो देहधारियों के प्राणों का आश्रय लेकर उनके शरीर को कार्य में प्रवृत्त करते हैं, उनका नाम है, संनिहित’ अग्रि। ये मनु के तीसरे पुत्र हैं। इनके द्वारा शब्द तथा रूप को ग्रहण करने में सहायता मिलती है। जो दीप्तिमान् महापुरुष, शुक्ल और कृष्ण गति के आधार हैं, जो अग्नि का धारण-पोषण करते हैं, जिसमें किसी प्रकार का कल्मष अर्थात् विकार नहीं है तथापि जो समस्त विकारस्वरूप जगत् के कर्ता हैं, जो सांख्ययोग के प्रवर्तक हैं, वे क्रोध स्वरूप अग्नि के आश्रय कपिल नामक अग्नि हैं। (ये मनु के चौथे पुत्र हैं)। मनुष्य आदि समस्त भूत-प्राणि सर्वदा भाँति–भाँति के कर्मों में जिनके द्वारा सब भूतों के लिये अन्न का अग्रभाग अर्पण करते हैं, वे अग्रणी नामक अग्नि (मनु के पांचवें पुत्र) कहलाते हैं।
मनु ने अग्निहोत्र कर्म में की हुई त्रुटि के प्रायश्चित (समाधान) के लिये इन लोकविख्यात तेजस्वी अग्नियों की सृष्टि की, जो पूर्वोक्त अग्नियों से भिन्न हैं। यदि किसी प्रकार हवा के चलने से अग्नियों का परस्पर स्पर्श हो जाये, तो अष्टाकपाल (आठ कपालों में संस्कारपूर्वक तैयार किये हुए) पुरोडाश के द्वारा शुचि नामक अग्नि के लिये इष्टि करनी (आहुति देनी) चाहिये। जब दक्षिणाग्नि का गार्हपत्य तथा आह्वनीय नामक दो अग्नियों से संसर्ग किये हुए पुरोडाश द्वारा ‘वीति’ नामक अग्नि के लिये आहुति देनी चाहिये। यदि ग्रहस्थित अग्नियों का दावानल से संसर्ग हो जाये, तो मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कारपूर्वक तैयार किये हुए पुरोडास द्वारा 'वीति' नामक अग्नि को आहुति देनी चाहिए। यदि अग्निहोत्र सम्बन्धी अग्नि को कोई रजस्वला स्त्री छू दे, तो वसुमान् अग्रि के लिये मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत चरु द्वारा आहुति देनी चाहिये। यदि किसी प्राणी का मृत्युसूचक विलाप आदि सुनायी दे अथवा कुक्कुर आदि पशु उस अग्नि का स्पर्श कर ले, उस दशा में मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत पुरोडाश द्वारा सुरभिमान नामक अग्नि की प्रसन्नता के लिये होम करना चाहिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 29-31 का हिन्दी अनुवाद)
जो ब्राह्मण किसी पीड़ा से आतुर होकर तीन रात तक अग्निहोत्र न करे, उसे मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत चरु के द्वारा ‘उत्तर’ नामक अग्नि को आहुति देनी चाहिये।
जिसका चालू किया हुआ दर्श और पौर्णमास याग बीच में ही बंद हो जाये अथवा बिना आहुति किये ही रह जाये, उसे ‘पथिकृत्’ नामक अग्नि के लिये मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत चरु के द्वारा होम करना चाहिये।
जब सूतिकागृह की अग्नि, अग्निहोत्र की अग्नि का स्पर्श कर ले, तब मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कृत पुरोडाश द्वारा ‘अग्निमान्’ नामक अग्नि को आहुति देनी चाहिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तगर्त मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान विषयक दो सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ बाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वाविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"सह नामक अग्नि का जल में प्रवेश और अथर्वा अंगिरा द्वारा पुन: उनका प्राकट्य"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! जल में निवास के कारण प्रसिद्ध हुए ‘सह’ नामक अग्नि के एक परम प्रिय पत्नी थी, जिसका नाम था मुदिता। उसके गर्भ से भूलोक और भुवलोक के स्वामी सह ने ‘अद्भुत’ नामक उत्कृष्ट अग्नि को उत्पन्न किया। ब्राह्मण लोगों में वंश परम्परा के क्रम से सभी यह मानते और कहते हैं कि ‘अद्भुत’ नामक अग्नि सम्पूर्ण भूतों के अधिपति हैं। वे ही सबके आत्मा और भुवन-भर्ता हैं। वे ही इस जगत् के सम्पूर्ण महाभूतों के पति हैं। उनमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य सुशोभित हैं। वे महातेजस्वी अग्नि देव सदा सर्वत्र विचरण करते हैं। जो अग्नि गृहपति नाम से सदा यज्ञ में पूजित होते हैं तथा हवन किये गये हविष्य को देवताओं के पास पहुँचाते हैं, वे अद्भुत अग्नि ही इस जगत् को पवित्र करने वाले हैं।
जो ‘आप’ नाम वाले सह के पुत्र हैं, जो महाभाग, सत्वभोक्ता, भुलोक के पालक और भुवलोक के स्वामी हैं, वे अद्भुत नामक महान् अग्नि बुद्धितत्व के अधिपति बताये जाते हैं। उन्हीं ‘अद्भुत’ या ग्रहपति के एक अग्निस्वरूप पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम ‘भरत’ है। ये मरे हुए प्राणियों के शव का दाह करते हैं। भरत का अग्निष्टोम यज्ञ में नित्य निवास है, इसलिये उन्हें ‘नियत’ भी कहते हैं। नियत का संकल्प उत्तम है। प्रथम अग्नि ‘सह’ बड़े प्रभावशाली हैं। एक समय देवता लोग उनको ढूंढं रहे थे। उनके साथ अपने पौत्र नियत को भी आता देख (उससे छू जाने के) भय से वे समुद्र के भीतर घुस गये। तब देवता लोग सब दिशाओं में उनकी खोज करते हुए वहाँ भी पहुँचने लगे। एक दिन अथर्वा (अंगिरा) को देखकर अग्नि ने उनसे कहा,
अग्नि देव बोले ;- ‘वीर! तुम देवताओं के पास उनका हविष्य पहुँचाओ। मैं अत्यन्त दुर्बल हो गया हूँ। अब केवल तुम्हीं अग्निपद पर प्रतिष्ठित हो जाओ और मेरा यह प्रिय कार्य सम्पन्न करो।'
इस प्रकार अथर्वा को भेजकर अग्नि देव दूसरे स्थान में चले गये। किंतु मत्स्यों ने अथर्वा से उनकी स्थिति कहाँ है, यह बता दिया। इससे कुपित होकर अग्नि ने उन्हें शाप देते हुए कहा,
अग्नि देव बोले ;- ‘तुम लोग नाना प्रकार के जीवों के भक्ष्य बनोगे’। तदनन्तर अग्नि ने अथर्वा से फिर वही बात कही। उस समय देवताओं के कहने से अथर्वा मुनि ने सह नामक अग्नि देव से अत्यन्त अनुनय-विनय की; परंतु उन्होंने न तो हविष्य ढोने का भार लेने की इच्छा की और न वे अपने उस जीर्ण शरीर का ही भार सह सके। अन्ततोगत्वा उन्होंने शरीर त्याग दिया। उस समय अपने शरीर को त्यागकर वे धरती में समा गये। भूमि का स्पर्श करके उन्होंने पृथक-पृथक बहुत-से धातुओं की सृष्टि की। ‘सह’ नामक अग्नि ने अपने पीब तथा रक्त से गन्धक एवं तैजस धातुओं को उत्पन्न किया। उनकी हड्डियों से देवदारु के वृक्ष प्रकट हुए। कफ से स्फटिक तथा पित्त से मरकत मणि का प्रादुर्भाव हुआ और उनका यकृत (जिगर) ही काले रंग का लोहा बनकर प्रकट हुआ। काष्ठ, पाषाण और लोहा-इन तीनों से ही प्रजाजनों की शोभा होती है। उनके नख मेघसमूह का रूप धारण करते हैं। नाड़ियां मूंगा बनकर प्रकट हुई हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वाविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! सह अग्नि के शरीर से अन्य नाना प्रकार के धातु उत्पन्न हुए। इस प्रकार शरीर त्यागकर वे बड़ी भारी तपस्या में लग गये। जब भृगु और अंगिरा आदि ऋषियों ने पुन: उनको तपस्या से उपरत कर दिया, तब वे तपस्या से पुष्ट हुए तेजस्वी अग्नि देव अत्यन्त प्रज्वलित हो उठे। महर्षि अंगिरा को सामने देख वे अग्नि भय के मारे पुन: महासागर के भीतर प्रविष्ट हो गये। इस प्रकार अग्नि के अदृश्य हो जाने पर सारा संसार भयभीत हो अथर्वा-अंगिरा की शरण में आया तथा देवताओं ने इन अथर्वा की पूजा की। अथर्वा ने सब प्राणियों के देखते-देखते समुद्र को मथ डाला और अग्नि देव का दर्शन करके स्वयं ही सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि की। इस प्रकार पूर्वकाल में अदृश्य हुए अग्नि को भगवान अंगिरा ने फिर बुलाया। जिससे प्रकट होकर वे सदा सम्पूर्ण प्राणियों का हविष्य वहन करते हैं।
उस समुद्र के भीतर नाना स्थानों में विचरण एवं भ्रमण करते हुए सह अग्नि ने इसी प्रकार विविध भाँति के बहुत-से वेदोक्त अग्निदेवों तथा उनके स्थानों को उत्पन्न किया। सिंधुनद, पंचनद, देविका, सरस्वती, गंगा, शतकुम्भा, सरयू, गण्डकी, चर्मण्वती, मही, मेध्या, मेधातिथि, ताम्रवती, वेत्रवती, कौशिकी, तमसा, नर्मदा, गोदावरी, वेणा, उपवेणा, भीमा, वडवा, भारती, सुप्रयोगा, कावेरी, मुर्मुरा, तुंगवेणा, कृष्णवेणा, कपिला तथा शोणभद्र- ये सब नदियां और नद हैं, जो अग्नियों के उत्पत्ति स्थान कहे गये हैं। अद्भुत की जो प्रियतमा पत्नी है, उसके गर्भ से उनके ‘विभूरसि’ नामक पुत्र हुआ। अग्नियों की जितनी संख्या बतायी गयी है, सोमयागों की भी उतनी ही है। वे सब अग्नि ब्रह्माजी के मानसिक संकल्प से अन्नि के वंश में उनकी संतानरूप से उत्पन्न हुए हैं। अत्रि को जब प्रजा की सृष्टि करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने उन अग्नियों को ही अपने हृदय में धारण किया। फिर उन ब्रह्मर्षि के शरीर से विभिन्न अग्नियों का प्रादुर्भाव हुआ।
राजन्! इस प्रकार मैंने इन अप्रमेय, अन्धकार निवारक तथा दीप्तिमान् महामना अग्नियों की जिस क्रम से उत्पत्ति हुई है, उसका तुमसे वर्णन किया। वेदों में ‘अद्भुत’ नामक अग्नि के माहात्म्य का जैसा वर्णन है, वैसा ही सब अग्नियों का समझना चाहिये: क्योंकि इन सब में एक ही अग्नितत्व विद्यमान है। ये प्रथम भगवान अग्नि, जिन्हें अंगिरा भी कहते हैं, एक ही हैं, ऐसा जानना चाहिये। जैसे ज्योतिष्टोम यज्ञ उद्भिद् आदि अनेक रूपों में प्रकट हुआ है, उसी प्रकार एक ही अग्नितत्व प्रजापति के शरीर से विविध रूपों में उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार मेरे द्वारा अग्नि देव के महान् वंश का प्रतिपादन किया गया। वे भगवान अग्नि विविध वेदमन्त्रों द्वारा पूजित होकर देहधारियों के दिये हुए हविष्य को देवताओं के पास पहुँचाते हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान विषयक अग्निप्रादुर्भाव सम्बन्धी दो सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ इक्कीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"इन्द्र के द्वारा केशी के हाथ से देवसेना का उद्धार"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह धर्मयुक्त कल्याणमयी कथा सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने पुन: उन तपस्वी मुनि मार्कण्डेय जी से पूछा। युधिष्ठिर बोले- मुने! कुमार (स्कन्द) का जन्म कैसे हुआ? वे अग्नि के पुत्र किस प्रकार हुए? भगवान शिव से उनकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई तथा वे गंगा और छहों कृत्तिकाओं के गर्भ से कैसे प्रकट हुए? मैं यह सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल है।
मार्कण्डेय जी ने कहा ;- निष्पाप युधिष्ठिर! मैंने तुमसे अग्रियों के विविध वंशों का वर्णन किया। अब तुम परम बुद्धिमान कार्तिकेय के जन्म का वृत्तान्त सुनो। अद्भुत अग्नि के अद्भुत पुत्र कार्तिकेय के बल और तेज असीम हैं। उनका जन्म ब्रह्मर्षियों की पत्नियों के गर्भ से हुआ है। वे अपने उत्तम यश को बढ़ाने वाले तथा ब्राह्मणभक्त हैं। मैं उनके जन्म का वृत्तान्त बता रहा हूं, सुनो।
पूर्वकाल की बात है, देवता और असुर युद्ध के लिये उद्यत हो एक-दूसरे को अस्त्र-शस्त्रों द्वारा चोट पहुँचाया करते थे। उस संघर्ष के समय भंयकर रूप वाले दानव सदा ही देवताओं पर विजय पाते थे। जब इन्द्र ने देखा कि दानव बार-बार देवताओं की सेना का वध कर रहे हैं, तब उन्हें एक सुयोग्य सेनापति की आवश्यकता हुई। इसके लिये वे बहुत चिन्तित हुए। उन्होंने सोचा ‘मुझे ऐसे पुरुष का पता लगाना चाहिये, जो महान् बलवान् हो और अपने पराक्रम का आश्रय ले देवताओं की उस सेना का, जिसका दानव नाश कर देते हैं, संरक्षण करे’। इसी बात का बार-बार विचार करते हुए इन्द्र मानस पर्वत पर गये। वहाँ उन्हें एक स्त्री के मुख से निकला हुआ भयंकर आर्तनाद सुनायी दिया। वह कह रही थी ‘कोई वीर पुरुष दौड़कर आये और मेरी रक्षा करे। वह मेरे लिये पति प्रदान करे या स्वयं ही मेरा पति हो जाये’। यह सुनकर इन्द्र ने उससे कहा,
इंद्र बोले ;- ‘भद्रे! डरो मत’, अब तुम्हें कोई भय नहीं है।' ऐसा कहकर जब उन्होंने उधर दृष्टि डाली, तब केशी दानव सामने खड़ा दिखायी दिया। उसने मस्तक पर किरीट धारण कर रखा था। उसके
हाथ में गदा थी और वह एक कन्या का हाथ पकड़े विविध धातुओं से विभूषित पर्वत-सा जान पड़ता था। यह देख इन्द्र ने उससे कहा- ‘रे नीच कर्म करने वाले दानव। तू कैसे इस कन्या का अपहरण करना चाहता है? समझ ले, मैं वज्रधारी इन्द्र हूँ। अब इस अबला को सताना छोड़ दे।'
केशी बोला ;- 'इन्द्र! तू ही इसे छोड़ दे। मैंने इसका वरण कर लिया है। पाकशासन! ऐसा करने पर ही तू जीता-जागता अपनी अमरावतीपुरी को लौट सकता है।' ऐसा कहकर केशी ने इन्द्र का वध करने के लिये अपनी गदा चलायी। परंतु इन्द्र ने अपने वज्र द्वारा उस आती हुई गदा को बीच से ही काट डाला। तब केशी ने कुपित होकर इन्द्र पर पर्वत की एक चट्टान फेंकी। राजन्! उस शैलशिखर को अपने ऊपर गिरता देख इन्द्र ने वज्र से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये और वह चूर-चूर होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय गिरते हुए उस शिलाखण्ड ने केशी को ही भारी चोट पहुँचायी। उस आघात से अत्यन्त पीड़ित हो वह दानव उस परम सौभाग्यशालिनी कन्या को छोड़कर भाग गया। उस असुर के भाग जाने पर इन्द्र ने उस कन्या से पूछा,
इंद्र बोले ;- ‘सुमुखि! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? और यहाँ क्या करती हो?
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान प्रकरण में स्कन्द की उत्पत्ति के विषय में केशिपराभव विषयक दो सौ तेईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ चौबीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्विशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्माजी के पास तथा ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना, अग्नि का मोह और वनगमन"
कन्या बोली ;- देवेन्द्र! मैं प्रजापति की पुत्री हूँ। मेरा नाम देवसेना है। मेरी बहिन का नाम दैत्यसेना है, जिसे केशी ने पहले ही हर लिया था। हम दोनों बहिनें अपनी सखियों के साथ प्रजापति की आज्ञा लेकर सदा क्रीड़ाविहार के लिये इस मानस पर्वत पर आया करती थीं। पाकशासन्! महान् असुर केशी प्रतिदिन यहाँ आकर हम दोनों को हर ले जाने के लिये फुसलाया करता था। दैत्यसेना इसे चाहती थी। परंतु मेरा इस पर प्रेम नहीं था। अत: दैत्यसेना को तो यह हर ले गया, परंतु मैं आपके पराक्रम से बच गयी। भगवन्! देवेन्द्र! अब मैं आपके आदेश के अनुसार किसी दुर्जय वीर को अपना पति बनाना चाहती हूँ।
इन्द्र बोले ;- शुभे! तुम मेरी मौसेरी बहिन हो। मेरी माता भी दक्ष ही पुत्री हैं। मेरी इच्छा है कि तुम स्वयं ही अपने बल का परिचय दो।
कन्या बोली ;- महाबाहो! मैं तो अबला हूँ। पिताजी के वरदान से मेरे भावी पति बलवान् तथा देव-दानववन्दित होंगे।
इन्द्र ने पूछा ;- देवि! तुम्हारे पति का बल कैसा होगा? अनिन्दिते! यह बात मैं तुम्हारे ही मुंह से सुनना चाहता हूँ।
कन्या बोली ;- देवराज! जो देवता, दानव, यक्ष, किन्नर, नाग, राक्षस तथा दुष्ट दैत्यों को जीतने वाला हो; जिसका पराक्रम महान् और बल दैत्यों को जीतने वाला हो; जिसका पराक्रम महान् और बल असाधारण हो तथा जो तुम्हारे साथ रहकर समस्त प्राणियों पर विजय प्राप्त कर सके, वह ब्राह्मणहितैषी तथा अपने यश की वृद्धि करने वाला वीर पुरुष मेरा पति होगा।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! देवसेना की बात सुनकर इन्द्र अत्यन्त दु:खी हो सोचने लगे ‘इस देवी को जैसा यह बता रही है, वैसा पति मिलना सम्भव नहीं जान पड़ता।' तदनन्तर सूर्य के समान तेजस्वी इन्द्र ने देखा, सूर्य उदयाचल पर आ गये हैं। महाभाग चन्द्रमा भी सूर्य में ही प्रवेश कर रहे हैं। अमावस्या आरम्भ हो गयी थी। उस रौद्र (भयंकर) मुहूर्त में ही उदयगिरि के शिखर पर उन्हें देवासुर संग्राम का लक्षण दिखायी दिया। ऐश्वर्यशाली इन्द्र ने देखा, पूर्व संध्या (प्रभात) का समय है, प्राची के आकाश में लाल रंग के घने बादल घिर आये हैं और समुद्र का जल भी लाल ही दृष्टिगोचर हो रहा है। भृगु तथा अंगिरा गोत्र के ऋषियों द्वारा पृथक-पृथक मन्त्र पढ़कर हवन किये हुए हविष्य को ग्रहण करके अग्नि देव भी सूर्य में प्रवेश करते हैं।
उस समय भगवान सूर्य के निकट चौबीसवां पर्व उपस्थित था अर्थात् पहले जिस अमावस्या में देवासुर संग्राम हुआ था, उससे पूरे एक वर्ष के बाद पुन: वैसा अवसर आया था। धर्म की अर्थात् होम और संध्या की बेला में वह रौद्र मुहूर्त उपस्थित था और चन्द्रमा सूर्य की राशि में स्थित हो गये थे। इस प्रकार चन्द्रमा और सूर्य की एकता (एक राशि पर स्थिति) तथा रौद्र मुहूर्त का संयोग देखकर इन्द्र मन ही मन इस प्रकार चिन्तन करने लगे,,- ‘अहो! इस समय चन्द्रमा और सूर्य पर यह भयंकर घेरा दिखायी दे रहा है। इससे सूचित होता है कि रात बीतते-बीतते भारी युद्ध छिड़ जायेगा।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्विशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)
‘यह सिन्धु नदी भी उल्टी धारा में बहकर रक्त के स्रोत बहा रही है। सियारिन मुंह से आग उगलती हुई सी सूर्य की ओर देखती रोती है। अनेक योगों का यह भयंकर तथा महान् संघात (सम्मेलन) तेज से आलोकित हो रहा है। अग्नि और सूर्य के साथ चन्द्रमा का यह अद्भुत समागम दृष्टिगोचर होता है। जान पड़ता है, इस समय चन्द्रमा जिस पुत्र को जन्म देंगे, वही इस देवी का पति होगा अथवा अग्नि भी इन सभी अभीष्ट गुणों से युक्त हैं। वे भी देवकोटि में ही हैं। अत: ये यदि किसी बालक को उत्पन्न करें, तो वही इस देवी का पति होगा।' ऐसा सोच विचार कर ऐश्वर्यशाली इन्द्र उस समय उस देवसेना को साथ ले ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले,,
इंद्र बोले ;- ‘भगवन्! आप इस देवी के लिये कोई अच्छे स्वभाव का शूरवीर पति प्रदान कीजिये।'
ब्रह्माजी ने कहा ;- दानवसूदन! इस विषय में तुमने जो विचार किया है, वही मैंने भी सोचा है। वैसा होने पर ही एक महान् पराक्रमी बलवान् वीर का प्रादुर्भाव होगा। शतक्रतो! वही तुम्हारे साथ रहकर देवसेना का पराक्रमी सेनापति होगा और वही इस देवी का भी पति
होगा। यह सुनकर देवराज इन्द्र ब्रह्माजी को नमस्कार करके उस कन्या को साथ ले जहाँ महान् शक्तिशाली वसिष्ठ आदि श्रेष्ठ ब्राह्मण एवं देवर्षि थे, वहाँ उनके आश्रम पर आये। उन दिनों वे महर्षिगण जो यज्ञ कर रहे थे, उसमें भाग लेने के लिये तथा सोमपान करने के लिये इन्द्र आदि सभी देवता वहाँ पधारे थे। उन सबके मन में सोमपान की इच्छा थी। उन महात्मा ऋषियों ने प्रज्वलित अग्नि में शास्त्रीय विधि से इष्टि का सम्पादन करके सम्पूर्ण देवताओं के लिये हविष्य आहुति दी।
भरतश्रेष्ठ! मन्त्रों द्वारा आवाहन होने पर वे अद्भुत नामक अग्नि सूर्यमण्डल से निकलकर मौनभाव से वहाँ आये और ब्रह्मर्षियों द्वारा मन्त्रोच्चरणपूर्वक विधिवत् हवन किये हुए भाँति-भाँति के हवनीय पदार्थों को उन महर्षियों से प्राप्त करके उन्होंने सम्पूर्ण देवताओं की सेवा में अर्पित किया। देवताओं को हविष्य पहुँचाकर जब अग्नि देव वहाँ से जाने लगे, तब उनकी दृष्टि उन महात्मा सप्तर्षियों की पत्नियों पर पड़ी। उनमें से कुछ तो अपने आसनों पर बैठी थीं और कुछ सुखपूर्वक सो रही थीं। उनकी अंगकान्ति सुवर्णमयी वेदी के समान गौर थी, वे चन्द्रमा की कला के समान निर्मल थीं, अग्नि की लपटों के समान प्रभा बिखेर रही थीं और तारिकाओं के समान अद्भुत सौन्दर्य प्रकाशित हो रही थीं।
इस प्रकार वहाँ (आसक्तियुक्त) मन से उन ब्रह्मर्षियों की पत्नियों को देखकर अग्नि देव की सारी इन्द्रियाँ क्षोभ से चंचल हो उठीं। वे सर्वथा काम के अधीन हो गये। फिर उन्होंने मन-ही मन विचार किया कि ‘मेरा यह कार्य कदापि उचित नहीं है। मेरे मन में विकार आ गया है। इन ब्रह्मर्षियों की पत्नियां पतिव्रता हैं। ये मुझे बिल्कुल नहीं चाहतीं, तो भी मैं इनकी कामना करता हूँ। मैं अकारण न तो इन्हें देख सकता हूँ और न इनका स्पर्श ही कर सकता हूँ। ऐसी दशा मैं यदि मैं गार्हपत्य अग्नि में प्रविष्ट हो जाऊं, तो बार-बार इनके दर्शन का अवसर पा सकता हूँ।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्विशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 36-42 का हिन्दी अनुवाद)
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! ऐसा निश्चय करके अग्नि देव ने गार्हपत्य अग्नि का आश्रय लिया और अपनी लपटों से स्वर्ग की सी कान्ति वाली उन ऋषि-पत्नियों का स्पर्श तथा दर्शन-सा करते हुए वे बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करने लगे। इस प्रकार बहुत देर तक वहाँ टिके रहकर अग्नि देव काम के वश में हो गये।
वे अपना हृदय उन सुन्दरियों पर निछावर करके उनसे मिलने की कामना कर रहे थे। उनका हृदय कामाग्नि से संतप्त हो रहा था। वे उन ब्रह्मर्षियों की पत्नियों के न मिलने से अपने शरीर को त्याग देने का निश्चय कर चुके थे। अत: वन में चले गये।
प्रजापति दक्ष की पुत्री स्वाहा पहले से ही अग्नि देव को अपना पति बनाना चाहती थी और इसके लिये बहुत दिनों से वह अग्नि का छिद्र ढूंढ रही थी। पंरतु अग्नि देव के सदा सावधान रहने के कारण साध्वी स्वाहा उनका कोई दोष नहीं देख पाती थी।
जब उसे अच्छी तरह मालूम हो गया कि अग्नि कामसंतप्त होकर वन में चले गये हैं, तब उसने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया- ‘मैं अग्नि के प्रति कामभाव से पीड़ित हूँ। अत: स्वयं ही सप्तर्षि-पत्नियों के रूप धारण करके अग्नि देव की कामना करूँगी; क्योंकि वे उनके रूप से मोहित हो रहे हैं। ऐसा करने से उन्हें प्रसन्नता होगी और मेरी कामना भी पूर्ण हो जायेगी।'
(इस प्रकार श्री महाभारत वन पर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेय समस्या पर्व में आग्डि़रसो पाख्यान के प्रसग्ड़ में स्कन्द की उत्पति विषयक दो सौ चौबीसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ पच्चीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्चविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"स्वाहा का मुनिपत्नियों के रूपों में अग्नि के साथ समागम, स्कन्द की उत्पत्ति तथा उनके द्वारा क्रोध आदि पर्वतों का विदारण"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- नरेश्वर! अंगिरा की पत्नि शिवा शील, रूप और सद्गुणों से सम्पन्न थी। सुन्दरी स्वाहा देवी पहले उसी का रूप धारण करके अग्नि देव के निकट गयी और उनसे इस प्रकार बोली- ‘अग्ने! मैं कामवेदना से संतप्त हूं। तुम मुझे अपने हृदय में स्थान दो। यदि ऐसा नहीं करोगे तो यह निश्चय जान लो, मैं अपने प्राण त्याग दूंगी। हुताशन! मैं अंगिरा की पत्नी हूँ। मेरा नाम शिवा है। दूसरी ऋषिपत्नियों ने सलाह करके एक निश्चय पर पहुँचकर मुझे यहाँ भेजा है।'
अग्नि ने पूछा ;- देवि! तुम तथा दूसरी सप्तर्षियों की सभी प्यारी स्त्रियां, जिनके विषय में अभी तुमने चर्चा की है, कैसे जानती हैं कि मैं तुम लोगों के प्रति कामभाव से पीड़ित हूँ।
शिवा बोली ;- अग्निदेव! तुम हमें सदा ही प्रिय रहे हो; परंतु हम लोग तुम से सदा डरती आ रही हैं। इन दिनों तुम्हारी चेष्टाओं से मन की बात जानकर मेरी सखियों ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। मैं समागम की इच्छा से यहाँ आयी हूँ। तुम स्वत: प्राप्त हुए काम-सुख का शीघ्र उपभोग करो। हुताशन! वे भगिनीस्वरूप सखियां मेरी राह देख रही हैं, अत: मैं शीघ्र चली जाऊंगी।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! तब अग्नि देव ने प्रेम और प्रसन्नता के साथ उस शिवा को हृदय से लगाया (शिवा के रूप में) स्वाहा देवी ने प्रेमपूर्वक अग्नि देव से समागम करके उनके वीर्य को हाथ में ले लिया। तत्पश्चात् उसने कुछ सोचकर कहा,
शिवा बोली ;- ‘अग्निकुलनन्दन! जो लोग वन में मेरे इस रूप को देखेंगे, वे ब्राह्मण पत्नियों को झूठा दोष लगायेंगे। अत: मैं इस रहस्य को गुप्त रखने के लिये ‘गरुडी’ पक्षिणी का रूप धारण कर लेती हूँ। इस प्रकार मेरा इस वन से सुखपूर्वक निकलना सम्भव हो सकेगा।'
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! ऐसा कहकर वह तत्काल गरुडी का रूप धारण करके उस महान् वन से बाहर निकल गयी। आगे जाने पर उसने सरकंडों के समूह से आच्छादित श्वेत पर्वत के शिखर को देखा। सात सिरों वाले अद्भुत नाग, जिनकी दृष्टि में ही विष भरा था, उस पर्वत की रक्षा करते थे। इनके सिवा राक्षस, पिशाच, भयानक भूतगण, राक्षसी समुदाय तथा अनेक पशु-पक्षियों से भी वह पर्वत भरा हुआ था। अनेकानेक नदी और झरने वहाँ बहते थे तथा नाना प्रकार के वृक्ष उस पर्वत की शोभा बढ़ाते थे। शुभस्वरूपा स्वाहा देवी ने सहसा उस दुर्गम शैलशिखर पर जाकर एक सुवर्णमय कुण्ड में शीघ्रतापूर्वक उस शुक्र (वीर्य) को डाल दिया।
कुरुश्रेष्ठ! उस देवी ने सातों महात्मा सप्तर्षियों की पत्नियों के समान रूप धारण करके अग्नि देव के साथ समागम की इच्छा की थी; किंतु अरुन्धती की तपस्या तथा पतिशुश्रूषा के प्रभाव से वह उनका दिव्य रूप धारण न कर सकी, इसलिये छ: बार ही अग्नि के वीर्य को वहाँ डालने में सफल हुई। अग्नि देव की कामना रखने वाली स्वाहा ने
प्रतिपदा को उस कुण्ड में उनका वीर्य डाला था। स्कन्दित (स्खलित) हुए उस वीर्य ने वहाँ एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। ऋषियों ने उसका बड़ा सम्मान किया। वह स्कन्दित होने के कारण स्कन्द कहलाया। उसके छ: सिर, बारह कान, बारह नैत्र और बारह भुजाएं थीं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्चविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)
पंरतु उस कुमार का कण्ठ और पेट एक ही था। वह द्वितीया को अभिव्यक्त हुआ और तृतिया को शिशुरूप में सुशोभित होने लगा। चतुर्थी को वे कुमार स्कन्द सभी अंग-उपांगों से सम्पन्न हो गये। उस समय कुमार लाल रंग के विशाल बिजलीयुक्क्त बादल से आच्छादित थे। अत: अरुण रंग के मेघों की विशाल घटा के भीतर उदित हुए सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहे थे। त्रिपुरनाशक भगवान शिव ने देवशत्रुओं का विनाश करने वाले जिस विशाल तथा रोमांचकारी श्रेष्ठ धनुष को रख छोड़ा था, उसे बलवान् स्कन्द ने उठा लिया और बड़े जोर से गर्जना की। ये उस गर्जना द्वारा चराचर प्राणियों सहित इन तीनों लोकों को मूर्च्छित-सा कर रहे थे।
महान् मेघों की गम्भीर ध्वनि के समान उनकी उस गर्जना को सुनकर चित्र और ऐरावत नामक दो महागज वहाँ दौड़े आये। कुमार स्कन्द सूर्य की कान्ति के समान उद्भासित हो रहे थे। उन दोनों हाथियों को आते देख उन अग्निकुमार ने उन्हें दो हाथों से पकड़ लिया तथा एक हाथ में शक्ति और दूसरे में अरुण शिखा से विभूषित और बलवानों में श्रेष्ठ एवं विशाल शरीर वाले एक समीपवर्ती कुक्कुट (मुर्ग) को पकड़कर उन महाबाहु कुमार ने भयंकर गर्जना की और (उन हाथी, मुर्गे आदि को लिये हुए) क्रीड़ा करने लगे। तत्पश्चात् उन बलवान् वीर ने दोनों हाथों में उत्तम शंख लेकर बजाया, जो बलवान् प्राणियों को भी भयभीत कर देने वाला था। फिर वे दो भुजाओं से आकाश को बार-बार पीटने लगे। इस प्रकार क्रीड़ा करते हुए कुमार महासेन ऐसे जान पड़ते थे, मानो वे अपने मुखों से तीनों लोकों को पी जायेंगे।
अपरिमित आत्मबल से सम्पन्न और अद्भुत पराक्रमी स्कन्द पर्वत के शिखर पर उदय काल में अंशुमाली सूर्य की भाँति शोभा पा रहे थे। फिर वे उस पर्वत की चोटी पर बैठ गये और अपने अनेक मुखों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं की ओर देखने लगे। भाँति-भाँति की वस्तुओं को देखकर वे अमेयात्मा स्कन्द पुन: बालोचित कोलाहल करने लगे। उनकी इस गर्जना को सुनकर बहुत-से प्राणी पृथ्वी पर गिर गये। फिर भयभीत और उद्विग्नचित्त होकर उन सबने उन्हीं की शरण ली। उस समय जिन-जिन नाना वर्ण वाले जीवों ने उन स्कन्द देव की शरण ली, उन सबको ब्राह्मणों ने उनका महाबलवान् पार्षद बताया है।
उन महाबाहु ने उठकर उन सब प्राणियों को सान्त्वना दी और महापर्वत श्वेत पर खड़े-खड़े धनुष खींचकर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। उन बाणों द्वारा उन्होंने हिमालय के पुत्र क्रौंच पर्वत को विदीर्ण कर दिया। उसी छिद्र में होकर हंस और गृध्र पक्षी मेरु पर्वत को जाते हैं। स्कन्द के बाणों से छिन्न-भिन्न हो वह क्रौंच पर्वत अत्यन्त आर्तनाद करता हुआ गिर पड़ा। उस समय उसके गिरने पर दूसरे पर्वत भी जोर-जोर से चीत्कार करने लगे। बलवानों में श्रेष्ठ और अमित आत्मबल से सम्पन्न कुमार उन अत्यन्त आर्त पर्वतों के उस चीत्कार को सुनकर भी विचलित नहीं हुए, अपितु हाथ से शक्ति को उठाकर सिंहनाद करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्चविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 36-39 का हिन्दी अनुवाद)
उन महात्मा ने उस समय अपनी चमचमाती हुई शक्ति चलायी और उसके द्वारा श्वेतगिरि के भयानक शिखर को बड़े वेग से विदीर्ण कर डाला।
इस प्रकार कार्तिकेय द्वारा शक्ति के आघात से विदीर्ण होकर श्वेत पर्वत उन महात्मा के भय से डर गया और (दूसरे) पर्वतों के साथ इस पृथ्वी को छोड़कर आकाश में उड़ गया।
इससे पृथ्वी को बड़ी पीड़ा हुई। वह सब ओर से फट गयी और पीड़ित हो कार्तिकेय जी की ही शरण में जाने पर पुन: बलवती हो शोभा पाने लगी।
तत्पश्चात् पर्वतों ने भी उन्हीं के चरणों में मस्तक झुकाया और वे फिर पृथ्वी पर आ गये। तभी से लोग प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को स्कन्द देव का पूजन करने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान के प्रसंग में कुमारोत्पत्ति विषयक दो सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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