सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ सौलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षोडशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"कौशिक-धर्मव्याध संवाद का उपसंहार तथा कौशिक का अपने घर को प्रस्थान"
धर्मव्याध कहता है ;- विप्रवर! जब इस प्रकार ऋषि ने शाप दे दिया,
तब मैंने कहा ;- 'भगवन्! मेरी रक्षा कीजिये-मुझे उबारिये। मुने! मैंने अनजान में यह आज अनुचित काम कर डाला है। मेरा सब अपराध क्षमा कीजिये और मुझ पर प्रसन्न हो जाइये।' ऐसा कहकर उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा की।
ऋषि ने कहा ;- 'यह शाप टल नहीं सकता। ऐसा होकर ही रहेगा, इसमें संशय नहीं है। परंतु मेरा स्वभाव क्रूर नहीं है, इसलिये मैं तुझ पर आज कुछ अनुग्रह करता हूँ। तू शूद्रयोनि में रहकर धर्मज्ञ होगा और माता-पिता की सेवा करेगा। इसमें तनिक भी संदेह के लिये स्थान नहीं है। उस सेवा से तुझे सिद्धि और महत्ता प्राप्त होगी। तू पूर्वजन्म की बातों को स्मरण रखने वाला होगा और अन्त में स्वर्गलोक में जायेगा। शाप का निवारण हो जाने पर तू फिर ब्राह्मण होगा।' इस प्रकार उन उग्र तेजस्वी महर्षि ने पूर्वकाल में मुझे शाप दिया था।
नरश्रेष्ठ! फिर उन्होंने ही मेरे ऊपर अनुग्रह किया। द्विजश्रेष्ठ! तदनन्तर मैंने उनके शरीर से बाण निकाला और उन्हें उनके आश्रम पर पहुँचा दिया। परंतु उनके प्राण नहीं गये। विप्रवर! पूर्वजन्म में मेरे ऊपर जो कुछ बीता था, वह सब मैंने आप से कह सुनाया। अब इस जीवन के पश्चात् मुझे स्वर्गलोक में जाना है।
ब्राह्मण बोला ;- महामते! मनुष्य इसी प्रकार दु:ख और सुख पाते रहते हैं। इसके लिये आपको चिन्ता नहीं करनी चाहिये। जिसके फलस्वरूप आपको अपने पूर्वजन्म की बातों का ज्ञान बना हुआ है, वह पिता-माता की सेवारूप कर्म दूसरों के लिये दुष्कर है; किंतु आपने उसे सम्पन्न कर लिया है। आप लोकवृत्तान्त का तत्व जानते हैं और सदा धर्म में तत्पर रहते हैं। विद्वन्! आपको जो यह कर्मदोष (दूषित कर्म) प्राप्त हुआ है, वह आपके पूर्वजन्म के कर्म का फल है। इस जन्म के नहीं। अत: कुछ काल तक और इसी रूप में रहें। फिर आप ब्राह्मण हो जायेंगे। मैं तो अभी आपको ब्राह्मण मानता हूँ। आपके ब्राह्मण होने में संदेह नहीं है। जो ब्राह्मण होकर भी पतन के गर्त में गिराने वाले पापकर्मों में फंसा हुआ है और प्राय: दुष्कर्मपरायण तथा पाखंडी है, वह शूद्र के समान है। इसके विपरीत जो शूद्र होकर भी (शम) दम, सत्य तथा धर्म का पालन करने के लिये सदा उद्यत रहता है, उसे मैं ब्राह्मण ही मानता हूं; क्योंकि मनुष्य सदाचार से ही द्विज होता है। कर्मदोष से ही मनुष्य विषम एवं भयंकर दुर्गति में पड़ जाता है। परंतु नरश्रेष्ठ! मैं तो समझता हूँ कि आपके सारे कर्मदोष सर्वथा नष्ट हो गये हैं। अत: आपको अपने विषय में किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिये। आपके जैसे ज्ञानी पुरुष, जो लोकवृत्तान्त के अनुवर्तन का रहस्य जानने वाले तथा नित्य धर्मपरायण हैं, कभी विषादग्रस्त नहीं होते हैं।
धर्मव्याध ने कहा ;- ज्ञानी पुरुष शारीरिक कष्ट का औषधसेवन द्वारा नाश करे और विवेकशील बुद्धि द्वारा मानसिक दु:ख को नष्ट करे। यही ज्ञान की शक्ति है। बुद्धिमान मनुष्य को बालकों के समान शोक या विलाप नहीं करना चाहिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षोडशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
मन्दबुद्धि मनुष्य ही अप्रिय वस्तु के संयोग और प्रिय वस्तु के वियोग में मानसिक दु:ख से दु:खी होते हैं। सभी प्राणी तीनों गुणों के कार्यभूत विभिन्न वस्तु आदि से जिस प्रकार संयुक्त होते हैं, वैसे ही वियुक्त भी होते रहते हैं। अत: किसी एक का संयोग और किसी एक का वियोग वास्तव में शोक का कारण नहीं है। यदि किसी कार्य में अनिष्ट का संयोग दिखायी देता है, तो मनुष्य शीघ्र ही उससे निवृत्त हो जाता है और यदि आरम्भ होने से पहले ही उस अनिष्ट का पता लग जाता है, तो लोग उसके प्रतीकार का उपाय करने लगते हैं। केवल शोक करने से कुछ नहीं होता, संतापमात्र ही हाथ लगता है। जो ज्ञानतृप्त मनीषी मानव सुख और दु:ख दोनों का परित्याग कर देते हैं, वे ही सुखी होते हैं। मूढ़ मनुष्य असंतोषी होते हैं और ज्ञानवानों को संतोष प्राप्त होता है।
असंतोष का अन्त नहीं है, अत: संतोष ही परम सुख है। जिन्होंने ज्ञानमार्ग को पार करके परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया है, वे कभी शोक में नहीं पड़ते हैं। मन को विषाद की और न जाने दे। विषाद उग्र विष है। वह क्रोध में भरे हुए सर्प की भाँति विवेकहीन अज्ञानी मनुष्य को मार डालता है। पराक्रम का अवसर उपस्थित होने पर जिसे विषाद घेर लेता है, उस तेजोहीन पुरुष का कोई पुरुषार्थ सिद्ध नहीं होता। किये जाने वाले कर्म का फल अवश्य दृष्टिगोचर होता है। केवल खिन्न होकर बैठ रहने से कोई अच्छा परिणाम हाथ नहीं लगता। अत: दु:ख से छूटने के उपाय को अवशय देखे। शोक और विषाद में न पड़कर आवश्यक कार्य आरम्भ कर दे। इस प्रकार प्रयत्न करने से मनुष्य निश्चय ही दु:ख से छूट जाता है और फिर किसी संकट या व्यसन में नहीं फंसता। संसार के सभी पदार्थ अनित्य हैं, ऐसा सोचकर जो बुद्धि से पार होकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो गये हैं, वे ज्ञानी महापुरुष परमात्मा का साक्षात्कार करते हुए कभी शोक में नहीं पड़ते।
विद्वन्! मैं अन्तकाल की प्रतीक्षा करता हूँ। अत: कभी शोकमग्न नहीं होता। सत्पुरुषों में श्रेष्ठ ब्राह्मण! उपर्युक्त विचारों का मनन करते रहने से मुझे कभी दु:ख या अनुत्साह नहीं होता।
ब्राह्मण बोला ;- धर्मव्याध! आप ज्ञानी और बुद्धिमान हैं। आपकी बुद्धि विशाल है। आप धर्म के तत्व को जानते हैं और ज्ञानानन्द से तृप्त रहते हैं। अत: मैं आपके लिये शोक नहीं करता। अब मैं जाने के लिये आपकी अनुमति चाहता हूँ। आपका कल्याण हो और धर्म सदा आपकी रक्षा करे। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ व्याध! आप धर्माचरण में कभी प्रमाद न करें।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! कौशिक ब्राह्मण की बात सुनकर धर्मव्याध ने हाथ जोड़कर कहा,
धर्मव्याध ;- 'बहुत अच्छा! अब आप अपने घर को पधारें।' तदनन्तर विप्रवर कौशिक धर्मव्याध की परिक्रमा करके वहाँ से चल दिया। घर जाकर उस ब्राह्मण ने अपने माता-पिता की सब प्रकार की सेवा-शुश्रूषा की और उन बूढ़े माता-पिता ने प्रसन्न होकर उसकी यथायोग्य प्रशंसा की। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ तात युधिष्ठिर! तुमने जो प्रश्न किया था, उसके अनुसार मैंने ये सब बाते कह सुनायीं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षोडशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 35-37 का हिन्दी अनुवाद)
साधुश्रेष्ठ! पतिव्रता का माहात्म्य और धर्मव्याध के द्वारा ब्राह्मण से कही हुई माता-पिता सेवा आदि बातें बता दीं।
युधिष्ठिर बोले ;- ब्रह्मन्! आपने धर्म के विषय में यह अत्यन्त अद्भुत और उत्तम उपाख्यान सुनाया है।
मुनिवर! आप समस्त धर्मज्ञों में श्रेष्ठ हैं। विद्वन्! यह कथा सुनने में इतनी सुखद थी कि मेरा बहुत-सा समय भी दो घड़ी के समान बीत गया। भगवन्! आपके मुख से यह धर्म की उत्तम कथा सुनते-सुनते मुझे तृप्ति ही नहीं हो रही है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में ब्राह्मण व्याध संवाद विषयक दो सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ सत्तरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तदशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना तथा अंगिरा से बृहस्पति की उत्पत्ति"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह धर्मयुक्त शुभ कथा सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उन मार्कण्डेय मुनि से पुन: इस प्रकार प्रश्न किया।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- मुने! पूर्वकाल में अग्नि देव ने किस कारण से जल में प्रवेश किया था? और अग्नि के अदृश्य हो जाने पर महातेजस्वी अंगिरा ऋषि ने किस प्रकार अग्नि होकर देवताओं के लिये हविष्य पहुँचाने का कार्य किया? भगवन्! जब अग्नि देव एक ही हैं, तब विभिन्न कर्मों में उनके अनेक रूप क्यों दिखायी देते हैं? मैं यह सब कुछ जानना चाहता हूँ। कुमार कार्किकेय की उत्पति कैसे हुई? वे अग्नि के पुत्र कैसे हुए? भगवान शंकर से तथा गंगा देवी और कृत्तिकाओं से उनका जन्म कैसे सम्भव हुआ। भृगुकुलतिलक महामुने! मैं आपके मुख से यह सब वृत्तान्त यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूं, इसके लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है।
मार्कण्डेय जी ने कहा ;- राजन्! इस विषय में जानकर लोग उस प्राचीन इतिहास को दुहराया करते हैं, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार अग्निदेव कुपित हो तपस्या के लिये जल में प्रविष्ट हुए थे? कैसे स्वयं महर्षि अंगिरा ही भगवान अग्नि बन गये और अपनी प्रभा से अन्धकार का निवारण करते हुए जगत् को ताप देने लगे?
महाबाहो! प्राचीन काल की बात है, महाभाग अंगिरा ऋषि अपने आश्रम में ही रहकर उत्तम तपस्या करने लगे। वे अग्नि से भी अधिक तेजस्वी होने के लिये यत्नशील थे। अपने उद्देश्य में सफल होकर वे सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने लगे। उन्हीं दिनों अग्नि देव भी तपस्या कर रहे थे। वे तेजस्वी होकर भी अंगिरा के तेज से संतप्त हो अत्यन्त मलिन पड़ गये। परंतु इसका कारण क्या है? यह कुछ भी उनकी समझ में नहीं आया।
तब भगवान अग्नि ने यह सोचा,,- ‘हो न हो, ब्रह्माजी ने इस जगत् के लिये किसी दूसरे अग्नि देवता का निर्माण कर लिया है। जान पड़ता है, तपस्या में लग जाने से मेरा अग्नित्व नष्ट हो गया। अब मैं पुन: किस प्रकार अग्नि हो सकता हूँ।' यह विचार करते हुए उन्होंने देखा कि महामुनि अंगिरा अग्नि की ही भाँति प्रकाशित हो सम्पूर्ण जगत् को ताप दे रहे हैं। यह देख वे डरते-डरते धीरे से उनके पास गये। उस समय उनसे अंगिरा मुनि ने कहा,
अंगिरा मुनि बोले ;- 'देव! आप पुन: शीघ्र ही लोकभावन अग्नि के पद पर प्रतिष्ठित हो जाइये; क्योंकि तीनों लोकों तथा स्थावर-जंगम प्राणियों में आपकी प्रसिद्धि है। ब्रह्माजी ने आपको ही अन्धकारनाशक प्रथम अग्नि के रूप में उत्पन्न किया है। तिमिरपुंज को दूर भगाने वाले देवता! आप शीघ्र ही अपना स्थान ग्रहण कीजिये’।
अग्निदेव बोले ;- मुने! संसार में मेरी कीर्ति नष्ट हो गयी है। अब आप ही अग्नि के पद पर प्रतिष्ठित हैं। आपको ही लोग अग्नि समझेंगे, आपके सामने मुझे कोई अग्नि नहीं मानेगा। मैं अपना अग्नित्व आप में ही रख देता हूं, आप ही प्रथम अग्नि के पद पर प्रतिष्ठित होइये। मैं द्वितीय प्राजापत्य नामक अग्नि होऊगां।'
अंगिरा ने कहा ;- अग्नि देव! आप प्रजा को स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने वाला पुण्य कर्म (देवताओं के पास हविष्य पहुँचाने का कार्य) सम्पन्न कीजिये और स्वयं ही अन्धकार-निवारक अग्नि के पद पर प्रतिष्ठित होइये; साथ ही मुझे अपना पहला पुत्र स्वीकार कर लीजिये।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तदशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 18-21 का हिन्दी अनुवाद)
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! अंगिरा का यह वचन सुनकर अग्नि देव ने वैसा ही किया। उन्हें अपना प्रथम पुत्र मान लिया। फिर अंगिरा के भी बृहस्पति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
भरतनन्दन! अंगिरा को अग्नि देव का प्रथम पुत्र जानकर सब देवता उनके पास आये और इसका कारण पूछने लगे। देवताओं के पूछने पर अंगिरा ने उन्हें कारण बताया और देवताओं ने अंगिरा के उस कथन पर विश्वास करके उसे यथार्थ माना।
अब मैं महान् कान्तिमान् विविध अग्नियों का, जो ब्राह्मण ग्रन्थोक्त विधि-वाक्यों में अनेक कर्मों द्वारा विभिन्न प्रयोजनों की सिद्धि के लिये विख्यात हैं, वर्णन करूँगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तगर्त मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरस के प्रसंग में दो सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ अट्ठारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टादशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)
"अंगिरा की संतति का वर्णन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- कुरुकुलधुरन्धर युधिष्ठिर! ब्रह्माजी के जो तीसरे पुत्र अंगिरा हैं, उनकी पत्नी का नाम सुभा है। उसके गर्भ से जो संतानें उत्पन्न हुईं, उनका वर्णन करता हूं, सुनो।
राजन्! बृहत्कीर्ति, बृहज्ज्योत, बृहह्ण्रह्मा, बृहन्मना, बृहन्मन्त्र, बृहद्भास तथा बृहस्पति (ये अंगिरा से सुभा के सात पुत्र हुए)। अंगिरा की प्रथम पुत्री का नाम देवी भानुमती है। वह उनकी संतानों में सबसे अधिक रूपवती है; उसके रूप की कहीं तुलना ही नहीं है (भानु अर्थात् सूर्य से युक्त होने के कारण यह दिन की अभिमानिनी है)।
अंगिरा मुनि की दूसरी कन्या ‘रागा’ नाम से विख्यात है। उस पर समस्त प्राणियों का विशेष अनुराग प्रकट हुआ था। इसीलिये उसका ऐसा नाम प्रसिद्ध हुआ। (यह रात्रि की अभिमानिनी है)। अंगिरा की तीसरी पुत्री ‘सिनीवाली’ (चतुर्दशीयुक्ता अमावास्या) है, जो अत्यन्त कृश होने के कारण कभी दीखती है और कभी नहीं दीखती है; इसीलिये लोग उसे ‘दृश्यादृश्या’ कहते हैं। भगवान रुद्र उसे ललाट में धारण करते हैं, इस कारण उसे सब लोग ‘रुद्रसुता’ भी कहते हैं। उनकी चौथी पुत्री ‘अर्चिष्मती’ है, (यही पूर्ण चन्द्रमा से युक्त होने के कारण शुद्ध पौर्णमासी कही जाती है) इसकी प्रभा से लोग रात में सब वस्तुओं को स्पष्ट देखते हैं।
पांचवीं कन्या ‘हविष्मती’ (प्रतिपदायुक्ता पूर्णिमा ‘राका’) है, जिसके सांनिध्य में हविष्य द्वारा देवताओं का यजन किया जाता है। अंगिरा मुनि की जो छठी पुण्यात्मा कन्या है, उसे ‘महिष्मती’ कहते हैं (यही चतुर्दशीयुक्ता पूर्णिमा है, जिसे ‘अनुमति’ भी कहते हैं।
महामते! जो दीप्तिशाली सोमयाग आदि महायज्ञों में प्रकाशित होने के कारण ‘महामती’ नाम से विख्यात है, वह (प्रतिपदायुक्त अमावस्या) अंगिरा मुनि की सातवीं पुत्री कहलाती है।
जिस भगवती अमा को देखकर लोग ‘कुहु-कुहु’ ध्वनि कर उठते (चकित हो जाते) हैं, अंगिरा मुनि की वह आठवीं पुत्री ‘कुहू’ नाम से विख्यात है। उसमें चन्द्रमा की एक मात्र कला अत्यन्त सूक्ष्म अंश से शेष रहती है। (यही शुद्ध अमावस्या है)।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान विषयक दो सौ अट्ठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ उन्नीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनविंशत्यधिकद्विशतत अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"बृहस्पति की संतति का वर्णन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन! बृहस्पति जी की जो यशस्विनी पत्नी चान्द्रमसी (तारा) नाम से विख्यात थी, उसने पुत्ररूप में छ: पवित्र अग्नियों को तथा एक पुत्री को भी जन्म दिया। (दर्श-पौर्णमास आदि में) प्रधान आहुतियों को देते समय जिस अग्नि के लिये सर्वप्रथम घी की आहुति दी जाती है, वह महान व्रतधारी अग्नि ही बृहस्पति का ‘शंयु’ नाम से विख्यात (प्रथम) पुत्र है। चातुर्मास्य-सम्बन्धी यज्ञों में तथा अश्वमेध यज्ञ में जिसका पूजन होता है, जो सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाला और सर्वसमर्थ है तथा जो अनेक वर्ण की ज्वालाओं से प्रज्वलित होता है, वह अद्वितीय शक्तिशाली अग्नि ही शंयु है।
शंयु की पत्नी का नाम था सत्या। वह धर्म की पुत्री थी। उसके रूप और गुणों की कहीं तुलना नहीं थी। वह सदा सत्य के पालन में तत्पर रहती थी। उसके गर्भ से शंयु के एक अग्रिस्वरूप पुत्र तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाली तीन कन्याएं हुईं। यज्ञ में प्रथम आज्यभाग के द्वारा जिस अग्नि की पूजा की जाती है, वही शंयु का ज्येष्ठ पुत्र ‘भरद्वाज’ नामक अग्नि बताया जाता है। समस्त पौर्णमास यागों में स्रुवा से हविष्य के साथ घी उठाकर जिसके लिये ‘प्रथम आघार’ अर्पित किया जाता है, वह ‘भरत’ (ऊर्ज) नामक अग्नि शंयु का द्वितीय पुत्र है (इसका जन्म शंयु की दूसरी स्त्री के गर्भ से हुआ था। शंयु के तीन कन्याएं और हुईं, जिनका बड़ा भाई भरत ही पालन करता था। भरत (ऊर्ज) के ‘भरत’ नाम वाला ही एक पुत्र तथा ‘भरती’ नाम की कन्या हुई। सबका भरण-पोषण करने वाले प्रजापति भरत नामक अग्नि से ‘पावक’ की उत्पति हुई।
भरतश्रेष्ठ! वह अत्यन्त महनीय (पूज्य) होने के कारण ‘महान’ कहा गया है। शंयु के पहले पुत्र भरद्वाज की पत्नी का नाम ‘वीरा’ था, जिसने वीर नामक पुत्र को शरीर प्रदान किया। ब्राह्मणों ने सोम की ही भाँति वीर की भी आज्यभाग से पूजा बतायी है। इनके लिये आहुति देते समय मन्त्र का उपांशु उच्चारण किया जाता है। सोम देवता के साथ इन्हीं को द्वितीय आज्यभाग प्राप्त होता है। इन्हें ‘रथप्रभु,’ ‘रथध्वान’ और ‘कुम्भरेता’ भी कहते हैं। वीर ने ‘सरयू’ नाम वाली पत्नी के गर्भ से ‘सिद्धि’ नामक पुत्र को जन्म दिया। सिद्धि ने अपनी प्रभा से सूर्य को भी आच्छादित कर लिया। सूर्य के आच्छादित हो जाने पर उसने अग्नि देवता सम्बन्धी यज्ञ का अनुष्ठान किया। आह्वान-मन्त्र (अग्निमग्न आवह इत्यादि) में इस सिद्धि नामक अग्नि की ही स्तुति की जाती है।
बृहस्पति के (दूसरे) पुत्र का नाम ‘निश्च्यवन’ है। ये यश, वर्चस् (तेज) और कान्ति से कभी च्युत नहीं होते हैं। निश्च्यवन अग्नि केवल पृथ्वी की स्तुति करते हैं। वे निष्पाप, निर्मल, विशुद्ध तथा तेज:पुज्ज से प्रकाशित हैं। उनका पुत्र ‘सत्य‘ नामक अग्नि है; सत्य भी निष्पाप तथा कालधर्म के प्रवर्तक हैं। वे वेदना से पीड़ित होकर आर्तनाद करने वाले प्राणियों को उस कष्ट से निष्कृति (छुटकारा) दिलाते हैं, इसीलिये उन अग्नि का एक नाम निष्कृति भी है। वे ही प्राणियों द्वारा सेवित गृह और उद्यान आदि में शोभा की सृष्टि करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनविंशत्यधिकद्विशतत अध्याय के श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद)
सत्य के पुत्र का नाम ‘स्वन’ है, जिनसे पीड़ित होकर लोग वेदना से स्वयं कराह उठते हैं। इसलिये उनका यह नाम पड़ा है। वे रोगकारक अग्नि हैं। (बृहस्पति के तीसरे पुत्र का नाम ‘विश्वजित’ है) वे सम्पूर्ण विश्व की बुद्धि को अपने वश में करके स्थित हैं, इसीलिये अध्यात्मशास्त्र के विद्वानों ने उन्हें ‘विश्वजित्’ अग्नि कहा है।
भरतनन्दन! जो समस्त प्राणियों के उदर में स्थित हो उनके खाये हुए पदार्थों को पचाते हैं, वे सम्पूर्ण लोकों में ‘विश्वभुक’ नाम से प्रसिद्ध अग्नि बृहस्पति के (चौथे) पुत्र के रूप में प्रकट हुए हैं। ये विश्वभुक अग्नि ब्रह्मचारी, जितात्मा तथा सदा प्रचुर व्रतों का पालन करने वाले हैं। ब्राह्मण लोग पाकयज्ञों में इन्हीं की पूजा करते हैं। पवित्र गोमती नदी इनकी प्रिय पत्नी हुई। धर्माचरण करने वाले द्विज लोग विश्वभुक अग्नि में ही सम्पूर्ण कर्मों का अनुष्ठान करते हैं।
जो अत्यन्त भयंकर वडवानलरूप से समुद्र का जल सोखते रहते हैं, वे ही शरीर के भीतर ऊर्ध्वगति-‘उदान’ नाम से प्रसिद्ध हैं। ऊपर की ओर गतिशील होने से ही उनका नाम ‘ऊर्ध्वभाक’ है। वे प्राणवायु के आश्रित एवं त्रिकालदर्शी हैं। (उन्हें बृहस्पति का पांचवां पुत्र माना गया है। प्रत्येक गृह्यकर्म में जिस अग्नि के लिये सदा घी की ऐसी धारा दी जाती है, जिसका प्रवाह उत्तराभिमुख हो और इस प्रकार दी हुई वह घृत की आहुति अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि करती है। इसीलिये उस उत्कृष्ट अग्नि का नाम 'स्विष्टकृत' है (उसे बृहस्पति का छठा पुत्र समझना चाहिये। जिस समय अग्निस्वरूप बृहस्पति का क्रोध प्रशान्त प्राणियों पर प्रकट हुआ, उस समय उनके शरीर से जो पसीना निकला, वही उनकी पुत्री के रूप में परिणत हो गया। वह पुत्री अधिक क्रोध वाली थी। वह ‘स्वाहा’ नाम से प्रसिद्ध हुई। वह दारुण एवं क्रूर कन्या सम्पूर्ण भूतों में निवास करती है।
स्वर्ग में भी कहीं तुलना न होने के कारण जिसके समान रूपवान् दूसरा कोई नहीं है, उस स्वाहा पुत्र को देवताओं ने ‘काम’ नामक अग्नि कहा है। जो हृदय में क्रोध धारण किये धनुष और माला से विभूषित हो रथ पर बैठकर हर्ष और उत्साह के साथ युद्ध में शत्रुओं का नाश करते हैं, उसका नाम है ‘अमोघ’ अग्नि। महाभाग! ब्राह्मण लोग त्रिविध उक्थ मन्त्रों द्वारा जिसकी स्तुति करते हैं, जिसने महावाणी (परा) का आविष्कार किया है तथा ज्ञानी पुरुष जिसे आश्वासन देने वाला समझते हैं; उस अग्नि का नाम 'उक्थ' है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में आंगिरसोपाख्यान विषयक दौ सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति तथा उसकी संतति का वर्णन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! कश्यपपुत्र काश्यप, वसिष्ठपुत्र वासिष्ठ, प्राणपुत्र प्राणक, अंगिरा के पुत्र च्यवन तथा त्रिवर्चा- ये पांच अग्नि हैं। इन्होंने पुत्र की प्राप्ति के लिये बहुत वर्षों तक तीव्र तपस्या की। उनकी तपस्या का उद्देश्य यह था कि हम ब्रह्मा जी के समान यशस्वी और धर्मिष्ठ पुत्र प्राप्त करें। पूर्वोक्त पांच अग्निस्वरूप ऋषियों ने महाव्याहृतिसंज्ञक पांच मन्त्रों द्वारा परमात्मा का ध्यान किया, तब उनके समक्ष अत्यन्त तेजोमय, पांच वर्णों से विभूषित एक पुरुष प्रकट हुआ, जो ज्वालाओं से प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित होता था। वह सम्पूर्ण जगत की सृष्टि करने में समर्थ था। उसका मस्तक प्रज्वलित अग्नि के समान जगमगा रहा था, दोनों भुजाएं प्रभाकर की प्रभा के समान थी, दोनों आंखें तथा त्वचा–सुवर्ण के समान देदीप्यमान हो रही थीं और उस पुरुष की पिण्डलियां काले रंग की दिखायी देती थीं।
उपर्युक्त पांच मुनिजनों ने अपनी तपस्या के प्रभाव से उस पांच वर्ण वाले पुरुष को प्रकट किया था, इसलिये उस देवोपम पुरुष का नाम 'पांचजन्य' हो गया। वह उन पांचों ऋषियों के वंश का प्रवर्तक हुआ। फिर महातपस्वी पांचजन्य ने अपने पितरों का वंश चलाने के लिये दस हजार वर्षों तक घोर तपस्या करके भयंकर दक्षिणाग्नि को उत्पन्न किया। उन्होंने मस्तक से बृहत तथा मुख से रथन्तर साम को प्रकट किया। ये दोनों वेगपूर्वक आयु आदि को हर लेते हैं, इसलिये 'तरसाहर' कहलाते हैं। फिर उन्होंने नाभि से रुद्र को, बल से इन्द्र का तथा प्राण से वायु और अग्नि को उत्पन्न किया। दोनों भुजाओं से प्राकृत और वैकृत भेद वाले दोनों अनुदात्तों को मन और ज्ञानेनिद्रयों के समस्त (छहों) देवताओं को तथा पांच महाभूतों को उत्पन्न किया। इन सबकी सृष्टि करने के पश्चात उन्होंने पांचों पितरों के लिये पांच पुत्र और उत्पन्न किये।
जिनके नाम इस प्रकार हैं,- वासिष्ठ बृहद्रथ के अंश से प्रणिधि, काश्यप के अंश से महत्तर, आंगिरस च्यवन के अंश से भानु तथा वर्च के अंश से सौभर नामक पुत्र की उत्पति हुई।
प्राण के अंश से अनुदात्त की उत्पति हुई। इस प्रकार पचीस पुत्रों के नाम बताये गये। तत्पचात ‘तप’ नामधारी 'पांचजन्य ने यज्ञ में विघ्न डालने वाले अन्य पंद्रह उत्तर देवों (विनायकों) की सृष्टि की। उनका विवरण इस प्रकार है- सुभीम, अतिभीम, भीम, भीमबल और अबल -इन पांच विनायकों की उत्पति उन्होंने पहले की, जो देवताओं के यज्ञ का विनाश करने वाले हैं। इनके बाद पांचजन्य ने सुमित्र, मित्रवान, मित्रज्ञ, मित्रवर्धन और मित्रधर्मा-इन पांच देवरूपी विनायकों को उत्पन्न किया। तदनन्तर पांचजन्य ने सुरप्रवीर, वीर, सुरेश, सुवर्चा तथा सुरनिहन्ता इन पांचों को प्रकट किया। इस प्रकार ये पंद्रह देवोपम प्रभावशाली विनायक पृथक-पृथक पांच-पांच व्यक्तियों के तीन दलों में विभक्त हैं। इस पृथ्वी पर ही रहकर स्वर्गलोक से भी यज्ञकर्ता पुरुषों की यज्ञ-सामग्री का अपहरण कर लेते हैं। ये विनायकगण अग्नियों के लिये अभीष्ट महान हविष्य का अपहरण तो करते ही हैं, उसे नष्ट भी कर डालते हैं। अग्निगणों के साथ लाग-डांट रखने के कारण ही ये हविष्य का अपहरण और विध्वंस करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 16-20 का हिन्दी अनुवाद)
इसीलिये यज्ञनिपुण विद्वानों ने यज्ञशाला की बाह्य वेदी पर इन विनायकों के लिये देयभाग रख देने का नियम चालू किया है; क्योंकि जहाँ अग्नि की स्थापना हुई हो, उस स्थान के निकट ये विनायक नहीं जाते हैं।
मन्त्र द्वारा संस्कार करने के पश्चात् प्रज्वलित अग्निदेव जिस समय आहुति ग्रहण करते हुए यज्ञ का सम्पादन करते हैं, उस समय वे अपने दोनों पंखों (पार्श्ववर्ती शिखाओं) द्वारा उन विनायकों को कष्ट पहुँचाते हैं, (इसीलिये वे उनके पास नहीं फटकते)। मन्त्रों द्वारा शान्त कर देने पर वे विनायक यज्ञ-सम्बन्धी हविष्य का अपहरण नहीं कर पाते हैं।
इस पृथ्वी पर जब अग्निहोत्र होने लगता है, उस समय तप (पांचजन्य) के ही पुत्र बृहदुक्थ इस भूतल पर स्थित हो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा पूजित होते हैं। तप के पुत्र जो रथन्तर नामक अग्नि कहे जाते हैं, उनको दी हुई हवि मित्रविन्द देवता का भाग है, ऐसा यजुर्वेदी विद्वान् मानते हैं।
महायशस्वी तप (पांचजन्य) अपने इन सभी पुत्रों के सहित अत्यन्त प्रसन्न हो आनन्दमग्न रहते हैं।
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