सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के दौ सौ ग्यारहवें अध्याय से दौ सौ पन्द्रहवें अध्याय तक (From the 211 to the 215 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

दौ सौ ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादशधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"पंचमहाभूतों के गुणों का और इन्द्रियनिग्रह का वर्णन"

    मार्कण्‍डेय जी कहते हैं ;- भरतनन्‍दन! धर्मव्‍याध के इस प्रकार उपदेश देने पर कौशिक ब्राह्मण ने पुन: मन की प्रसन्नता को बढ़ाने वाली वार्ता प्रारम्‍भ की। 

   ब्राह्मण बोला ;- धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ व्‍याध! जो पांच महाभूत कहे जाते हैं, उन पांचों में से प्रत्‍येक के गुणों का मुझसे भली-भाँति वर्णन करो। 

    धर्मव्‍याध ने कहा ;- ब्रह्मन्! पृथ्‍वी, जल, अग्रि, वायु और आकाश-ये सब पूर्व-पूर्व वाले तत्‍व अपने से उत्तर-उत्तर वालों के गुणों से युक्‍त हैं। उनके गुणों का वर्णन करता हूँ। विप्रवर! पृथ्‍वी में पांच गुण हैं, जल चार गुणों से युक्‍त है, तेज में तीन गुण होते हैं, वायु में दो और आकाश में एक गुण है। शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस और गन्‍ध- ये भूमि के पांच गुण हैं। इस प्रकार भूमि अन्‍य सब भूतों की अपेक्षा अधिक गुणवती है। द्विजश्रेष्‍ठ! शब्‍द, स्‍पर्श, रूप और रस-ये चार जल के गुण हैं। उत्तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण! इनका वर्णन पहले भी आपसे किया गया है। शब्‍द, स्‍पर्श तथा रूप-ये तेज के तीन गुण हैं, शब्‍द और स्‍पर्श-ये दो गुण वायु के हैं तथा आकाश में एक ही गुण है-शब्‍द।

     ब्रह्मन्! इस प्रकार पांचों भूतों में ये पंद्रह गुण बताये गये हैं। इन्‍हीं में सम्‍पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। विप्रवर! ये पांच भूत एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते। परस्‍पर मिलकर ही भली-भाँति प्रकाशित होते हैं। जिस समय व्‍यक्‍त और अव्‍यक्‍त पांचों भूत विषयभाव को प्राप्‍त होते हैं, उस समय यह जीव काल की प्रेरणा से अपने संकल्‍पानुसार दूसरे शरीर को प्राप्‍त हो जाता है। ये पांचों भूत मृत्‍युकाल में प्रतिलोम क्रम से विलीन हो जाते हैं और उत्‍पति काल में अनुलोम क्रम से उत्‍पन्न होते हैं। विभिन्न शरीरों में जितने रक्‍त आदि धातु दिखायी देते हैं, वे सब पांच भूतों के ही परिणाम हैं, जिनसे यह समस्‍त चराचर जगत् व्‍याप्‍त है। बाह्य इन्द्रियों से जिस-जिसका संसर्ग होता है, वह-वह व्‍यक्त माना गया है; परंतु जो विषय इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है, केवल अनुमान से जाना जाता है, उसे अव्‍यक्‍त समझना चाहिये।

     अपने-अपने विषयों का अतिक्रमण न करके इन शब्‍द आदि विषयों को ग्रहण करने वाली इन इन्द्रियों को जब आत्‍मा अपने वश में करता है, तब मानो वह तपस्‍या करता है। वह सम्‍पूर्ण लोकों में अपने को व्‍याप्‍त और अपने में सम्‍पूर्ण लोकों को स्थित देखता है। इस प्रकार जो निर्गुण ब्रह्म को जानने वाला समर्थ ज्ञानी पुरुष है, वह सम्‍पूर्ण भूतों को आत्‍मरूप से देखता है। सब अवस्‍थाओं में सदा समस्‍त भूतों को आत्‍मरूप से देखने वाले उस ब्रह्मस्‍वरूप ज्ञानी का कभी भी अशुभ कर्मों से सम्‍पर्क होना सम्‍भव नहीं है। उस (पूर्वोक्‍त) अज्ञानजनित क्‍लेश से जो पार हो गया है, उस महापुरुष का प्रभाव उसके द्वारा की जाने वाली लौकिक चेष्‍टाओं से ज्ञानमार्ग के द्वारा जाना जा सकता है। बुद्धिमान भगवान ब्रह्मा ने (अपने नि:श्वावास भूत वेदों के द्वारा) मुक्‍त जीव को आदि-अन्‍त से रहित, स्‍वयम्‍भू, अविकारी, अनुपम तथा निराकार बताया गया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादशधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद)

     विप्रवर! आप मुझसे जो कुछ पूछते हैं, उसके उत्तर में मैं यह बता रहा हूँ कि इस सब का मूल तप है। इन्द्रियों का संयम करने से ही वह तपस्‍या सम्‍पन्न होती है, और किसी प्रकार से नहीं। स्‍वर्ग और नरक आदि जो कुछ भी है, वह सब इन्द्रियां ही हैं अर्थात् इन्द्रियां ही उनकी कारण हैं। वश में की हुई इन्द्रियां स्‍वर्ग की प्राप्ति कराने वाली हैं और जिन्‍हें विषयों की ओर खुला छोड़ दिया गया है, वे इन्द्रियां नरक में डालने वाली हैं। योग का सम्‍पूर्ण रूप से अनुष्‍ठान यह है कि मन सहित समस्‍त इन्द्रियों को काबू में रखा जाये। यही सारी तपस्‍या का मूल है और इन्द्रियों को वश में न रखना ही नरक का हेतु है।

       इन्द्रियों के संसर्ग से ही मनुष्‍य नि:संदेह दुर्गुण-दुराचार आदि दोषों को प्राप्‍त होते हैं। उन्‍हीं इन्द्रियों को अच्‍छी तरह वश में कर लेने पर उन्‍हें सर्वथा सिद्धि प्राप्‍त हो सकती है। जो अपने शरीर में ही सदा विद्यमान रहने वाले मन सहित छहों इन्द्रियों पर अधिकार पा लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों में नहीं लगता, फिर पाप‍जनित अनर्थों से तो उसका संयोग ही कैसे हो सकता है। पुरुष का यह प्रत्‍यक्ष देखने में आने वाला स्‍थूल शरीर रथ है। आत्‍मा (बुद्धि) सारथि है और इन्द्रियों को अश्व बताया गया है। जैसे कुशल, सावधान एवं धीर रथी, उत्तम घोड़ों को अपने वश में रखकर उनके द्वारा सुखपूर्वक मार्ग तै करता है, उसी प्रकार सावधान, धीर एवं साधन-कुशल पुरुष इन्द्रियों को वश में करके सुख से जीवन यात्रा पूर्ण करता है। जो धीर पुरुष अपने शरीर में नित्‍य विद्यमान छ: प्रमथनशील इन्द्रियरूपी अश्वों की बागडोर संभालता है, वही उत्तम सारथि हो सकता है।

      सड़क पर दौड़ने वाले घोड़ों की तरह विषयों में विचरने वाली इन इन्द्रियों को वश में करने के लिये धैर्यपूर्वक प्रयत्‍न करे। धैर्यपूर्वक उद्योग करने वाले को उन पर अवश्‍य विजय प्राप्‍त होती है। जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्‍त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है। सभी मनुष्‍य इन छ: इन्द्रियों के शब्‍द आदि विषयों में उनसे प्राप्‍त होने वाले सुखरूप फल पाने के सम्‍बन्‍ध में मोह से संशय में पड़ जाते हैं। परंतु जो उनके दोषों का अनुसंधान करने वाला वीतराग पुरुष है, वह उनका निग्रह करके ध्‍यानजनित आनन्‍द का अनुभव करता है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेयसमस्‍यापर्व में ब्राह्मणव्‍याध संवाद विषयक दो सौ ग्‍यारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

दौ सौ बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादशाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"तीनों गुणों के स्वरूप और फल का वर्णन"

    मार्कण्‍डेय जी कहते हैं ;- भारत! इस प्रकार धर्मव्याध द्वारा सूक्ष्‍म तत्‍व का निरूपण होने पर कौशिक ब्राह्मण ने एकाग्रचित्त होकर पुन: एक सूक्ष्‍म प्रश्न उपस्थित किया। 

    ब्राह्मण बोला ;- व्‍याध! यहाँ यथोचित रूप से एक प्रश्न उपस्थित करता हूँ। वह यह है कि सत्‍व, रज और तम का गुण (स्‍वरूप) क्‍या है? यह मुझे यथार्थ रूप से बताओ।

     धर्मव्‍याध ने कहा ;- ब्रह्मन्! आप मुझसे जो बात पूछ रहे हैं, मैं अब उसे कहूंगा। सत्‍व, रज और तम-इन तीनों गुणों का पृथक्-पृथक् वर्णन करता हूं, सुनिये। इन तीनों गुणों में जो तमोगुण है, वह मोहात्‍मक मोह उत्‍पन्न करने वाला है। रजोगुण कर्मों में प्रवृत्त करने वाला है। परंतु सत्‍वगुण में प्रकाश की बहुलता है, इसलिये वह सबसे श्रेष्‍ठ कहा जाता है।

      जिसमें अज्ञान की बहुलता है, जो मूढ़ (मोहग्रस्‍त) और अचेत होकर सदा नींद लेता रहता है, जिसकी इन्द्रियां वश में न होने के कारण दूषित हैं, जो अविवेकी, क्रोधी और आलसी है, ऐसे मनुष्‍य को तमोगुणी जानना चाहिये। ब्रह्मर्षे! जो प्रवृत्तिमार्ग की ही बातें करने वाला, सलाह देने में कुशल और दूसरों के गुणों में दोष न देखने वाला है; जो सदा कुछ-न-कुछ करने की इच्‍छा रखता है, जिसमें कठोरता और अभिमान की अधिकता है, वह मनुष्‍यों पर रोब जमाने वाला पुरुष रजोगुणी कहा गया है। जिसमें प्रकाश (ज्ञान) की बहुलता है, जो धीर और नये-नये कार्य आरम्‍भ करने की उत्‍सुकता से रहित है, जिसमें दूसरों के दोष देखने की प्रवृत्ति का अभाव है, जो क्रोधशून्‍य, बुद्धिमान और जितेन्द्रिय है, वह मनुष्‍य सात्त्विक माना जाता है।

      सात्त्विक पुरुष ज्ञानसम्‍पन्न हो रजोगुण और तमोगुण के कार्यभूत लौकिक व्‍यवहार में पड़ने का कष्‍ट नहीं उठाता। जब जानने योग्‍य तत्‍व को जान लेता है, तब उसे सांसारिक व्यवहार से ग्‍लानि हो जाती है। सात्त्विक पुरुष में वैराग्‍य का लक्षण पहले ही प्रकट हो जाता है। उसका अहंकार ढीला पड़ जाता है और सरलता प्रकाश में आने लगती है। तदनन्‍तर इसके राग-द्वेष आदि सम्‍पूर्ण द्वन्‍द्व परस्‍पर शान्‍त हो जाते है। इसके हृदय में कभी कोई संशय नहीं उठता। ब्रह्मन्! शूद्रयोनि में उत्‍पन्न मनुष्‍य भी यदि उत्तम गुणों का आश्रय ले, तो वह वैश्‍य तथा क्षत्रिय भाव को प्राप्‍त कर लेता है। जो ‘सरतला’ नामक गुण में प्रतिष्ठित है, उसे ब्राह्मणत्‍व प्राप्‍त हो जाता है। ब्रह्मन्! इस प्रकार मैंने आपसे सम्‍पूर्ण गुणों का वर्णन किया है, अब और क्‍या सुनना चाहते हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेयसमस्‍यापर्व में ब्राह्मण-व्‍याध संवाद विषयक दो सौ बारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

दौ सौ तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"प्राणवायु की स्थिति का वर्णन तथा परमात्‍म-साक्षात्‍कार के उपाय"

  ब्राह्मण ने पूछा ;- व्‍याध! शरीर में रहने वाला अग्नि स्‍वरूप प्राण पार्थिव धातु का अवलम्‍बन करके कैसे रहता है? और प्राणवायु नाड़ियों के मार्गविशेष के द्वारा किस प्रकार (रस-रक्‍तादि का) संचालन करता है?

    मार्कण्‍डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! ब्राह्मण के द्वारा उपस्थित किये गये इस प्रश्न को सुनकर धर्मव्‍याध ने उन महामना ब्राह्मण से इस प्रकार कहा।

    धर्मव्‍याध बोला ;- ब्रह्मन! प्राणी के शरीर को सुरक्षित रखता हुआ अग्नि स्‍वरूप उदान वायु मस्‍तक का आश्रय लेकर शरीर में रहता है एवं मुख्‍य प्राण मस्‍तक और उदान वायु इन दोनों में स्थित हुआ समस्‍त शरीर में जीवन का संचार करता है। भूत, वर्तमान और भविष्‍य-सब कुछ प्राण के ही आश्रित है, वह प्राण ही समस्‍त भूतों में श्रेष्‍ठ है। अत: परब्रह्म से उत्‍पन्न होने वाले प्राण की हम सब उपासना करते हैं। वह प्राण ही जीव है, वही समस्‍त प्राणियों का आत्‍मा है, वही सनातन पुरुष है, महत्तत्‍व, बुद्धि और अहंकार तथा पांचों भूतों के कार्यरूप इन्द्रियां और उनके विषय सब कुछ वही है (क्‍योंकि इस शरीर में सबकी स्थिति उसी के आश्रित है और भविष्‍य में मिलने वाले शरीर में जाना-आना भी इसी के आश्रित रहकर होता है। इसलिये यह प्राण की स्‍तुति की गयी है।)

    द्विजश्रेष्‍ठ! प्राण ही अव्‍यक्‍त, सत्‍व, जीव, काल, प्रकृति और पुरुष है। वही जाग्रत्-अवस्‍था में जागता है। वही स्‍वप्नकाल में स्‍वप्न-जगत का निर्माण करके स्‍वप्नावस्‍था की सारी चेष्‍टाएं करता है। वही जाग्रत् काल में बल का आधान करता है और चेष्‍टाशील प्राणियों में चेष्‍टा उत्‍पन्न करता है। विप्रवर! उस प्राण का निरोध हो जाने पर ही प्रत्‍येक जीव मरा हुआ कहलाता है। भूतात्‍मा प्राण एक शरीर को छोड़कर फिर दूसरे शरीर में प्रविष्‍ट हो जाता है। इस प्रकार इस जगत् में सर्वत्र प्राण की स्थिति है। प्राण के द्वारा ही सबका पालन होता है। पीछे वही प्राण जब समान वायुभाव से प्राप्‍त होता है, तब अपनी-अपनी पृथक् गति का आश्रय लेता है। समान वायु के रूप में जठराग्नि का आश्रय ले वह प्राण जब मूत्राशय और गुदा में स्थित होता है, उस समय मल और मूत्र का भार वहन करने के कारण वह अपान वायु के नाम से विख्‍यात हो संचरण करता है। वही प्राण जब प्रयत्‍न (काम करने की चेष्‍टा), कर्म शक्ति (उत्क्षेपण और गमन आदि) तथा बल (बोझ उठाने की शक्ति)-इन तीन विषयों में प्रवृत्त होता है, तब अध्‍यात्‍मवेत्ता मनुष्‍य उसे उदान कहते हैं। वही जब मनुष्‍य-शरीर के प्रत्‍येक संधिस्‍थल में व्‍याप्‍त होकर रहता है, तब उसे व्‍यान कहते हैं।

     त्‍वचा आदि सब धातुओं में जठरानल व्‍याप्‍त है। वह प्राण आदि वायुओं से प्रेरित होकर अन्न आदि रसों, त्‍वचा आदि धातुओं तथा पित्त आदि दोषों को परिपक्‍व करता हुआ समूचे शरीर में दोड़ा करता है। प्राण आदि वायुओं के परस्‍पर मिलने से एक संघर्ष उत्‍पन्न होता है, उससे प्रकट होने वाले उत्ताप को ही जठरानल समझना चाहिये। वही देहधारियों के खाये हुए अन्न को पचाता है। समान और उदान वायुओं के बीच में प्राण और अपान वायु की स्थिति है। उनके संघर्ष से उत्‍पन्न जठरानल अन्न को पचाता है और रस से इस शरीर को भली-भाँति पुष्‍ट करता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

       इस जठरानल का स्‍थान नाभि से लेकर पायु तक है। इसी को ‘गुदा’ कहते हैं। उस गुदा से देहधारियों के समस्‍त प्राणों में स्रोत (नाड़ीमार्ग) प्रकट होते हैं। गुदा से प्राण अग्नि के वेग को लेकर गुदान्‍त में टकराता है, फिर वहाँ से ऊपर को उठकर वह जठराग्नि को भी ऊपर उठाता है। नाभि के नीचे पक्‍वाशय (पके हुए भोजन का स्‍थान) है और ऊपर आमाशय (कच्‍चे भोजन का स्‍थान) है। शरीर में स्थित समस्‍त प्राण नाभि में ही प्रतिष्ठित हैं-वही उनका केन्‍द्र स्‍थान है। नाड़ियां हृदय से नीचे और ऊपर इधर-उधर फैली हुई हैं। वे दस प्राण वायुओं से प्रेरित हो शरीर के सब भागों में अन्न के रसों को पहुँचाती रहती है। जिन्‍होंने समस्‍त क्‍लेशों को जीत लिया है, जो समदर्शी और धीर हैं, जिन्‍होंने (सुषुम्‍णा नाड़ी के द्वारा) अपने प्राणमय आत्‍मा को मस्‍तक (वर्ती सहस्रारचक्र) में ले जाकर स्‍थापित किया है, उन योगियों के लिये यह (मस्‍तक से लेकर पायु तक का सुषुम्‍णामय) मार्ग है, जिससे वे उस परब्रह्म परमात्‍मा को प्राप्‍त होते हैं। इस प्रकार समस्‍त जीवात्‍माओं के शरीर में ये प्राणवायु और अपानवायु व्‍याप्‍त हैं।

     ब्रह्मन्! वे प्राण और अपान जठरानल के साथ रहते हैं। प्राण को आत्‍मा में स्थित जानिये। आत्‍मा एकादश इन्द्रियरूप विकारों से युक्‍त, षोडश कलाओं के समूह से सम्‍पन्न, शरीर को धारण करने वाला तथा नित्‍य है। उसने योगबल से मन बुद्धि को अपने अधीन कर रखा है। इस प्रकार आत्‍मा के सम्‍बन्‍ध में आपको जानना चाहिये। जैसे बटलोई में आग रखी गयी हो, उसी प्रकार पूर्वोक्‍त कला-समूहरूप शरीर में प्रकाश स्‍वरूप शरीर में प्रकाश स्‍वरूप आत्‍मा सदा विद्यमान रहता है। आप उसे जानिये। वह नित्‍य तथा योगशक्ति से मन-बुद्धि को अपने अधीन रखने वाला है। जैसे कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूंद निर्लिप्‍त होती है, उसी प्रकार ये आत्‍मदेव कलात्‍मक शरीर में असंग भाव से स्थित हैं। वे ही क्षेत्रज्ञ हैं, आप उन्‍हें जानिये। वे योग से अपने मन और बुद्धि पर अधिकार प्राप्‍त करने वाले तथा नित्‍य हैं।

    ब्रह्मन्! आप यह जान लें कि सत्‍वगुण (प्रकाश, रजोगुण (प्रवृत्ति) और तमोगुण (मोह)-ये जीवात्‍मक हैं अर्थात् जीवात्‍मा के अन्‍त:करण के विकार हैं, जीव आत्‍मा का गुण (सेवक) है और परमात्‍मस्‍वरूप है। भाव यह कि परमात्‍मा को ही यहाँ आत्‍मा कहा गया है। शरीर-तत्‍व के ज्ञाता महात्‍मा पुरुष जड़ शरीर आदि को जीव का भोग्‍य बताते हैं। वह जीव शरीर के भीतर रहकर स्‍वयं चेष्‍टाशील होता है तथा शरीर और इन्द्रिय आदि सबको चेष्‍टाओं में लगाता है। जिन्‍होंने सातों भुवनों का निर्माण किया है, उन परमात्‍मा को ज्ञानी पुरुष जीवात्‍मा से उत्‍कृष्‍ट बताते हैं। इस प्रकार सम्‍पूर्ण भूतों के आत्‍मा परमेश्‍वर समस्‍त प्राणियों के भीतर प्रकाशित हो रहे हैं। ज्ञानी महात्‍मा अपनी श्रेष्‍ठ एवं सूक्ष्‍म बुद्धि के द्वारा उन्हें देख पाते हैं। मनुष्‍य अपने चित्त की पवित्रता के द्वारा ही समस्‍त शुभाशुभ कर्मों को नष्‍ट (फल देने में असमर्थ) कर देता है। जिसका अन्‍त:करण प्रसन्न (पवित्र) है, वह अपने आप में ही स्थित होकर अक्षय सुख (मोक्ष) का भागी होता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 25-40 का हिन्दी अनुवाद)

    जैसे भोजन आदि से तृप्‍त हुआ मनुष्‍य सुख से सोता है और जैसे वायुरहित स्‍थान में चतुर मनुष्‍य के द्वारा जलाया हुआ दीप निश्‍चल भाव से प्रकाशित होता है; ऐसा ही लक्षण चित्त की पवित्रता का भी है। मनुष्‍य को चाहिये कि वह हल्‍का भोजन करे और अन्‍त:करण को शुद्ध रखे। रात के पहले और पिछले पहर में सदा अपना मन परमात्‍मा के चिन्‍तन में लगावे। जो इस प्रकार निरन्‍तर अपने हृदय में परमात्‍मा के साक्षात्‍कार का अभ्‍यास करता है, वह प्रज्‍वलित दीपक के द्वारा निराकार परमेश्‍वर का साक्षात्‍कार करके तत्‍काल मुक्‍त हो जाता है। सम्‍पूर्ण उपायों से लोभ और क्रोध की वृत्तियों को दबाना चाहिये। संसार में ही पवित्र तप है और यही सबके लिये भवसागर से पार उतारने वाला सेतु माना गया है। सदा तप को क्रोध से, धर्म को द्वेष से, विद्या को मान-अपमान से और अपने आप को प्रमाद से बचाना चाहिये। क्रूरता का अभाव (दया) सबसे महान् धर्म है, क्षमा सबसे बड़ा बल है, सत्‍य सबसे उत्तम व्रत है और परमात्‍मा के तत्‍व का ज्ञान ही सर्वोत्तम ज्ञान है।

    सत्‍य बोलना सदा कल्‍याणकारी है। यथार्थ ज्ञान ही हितकारक होता है। जिससे प्राणियों का अत्‍यन्‍त हित होता है, उसे ही उत्तम सत्‍य माना गया है। जिसके सम्‍पूर्ण आयोजन कभी कामनाओं से बंधे हुए नहीं होते तथा जिसने त्‍याग की आग में अपना सर्वस्‍व होम दिया है, वही त्‍यागी और बुद्धिमान है। इसलिये दृश्य संसार में वियोग कराने वाले और योग नाम से कहे जाने वाले इस ब्रह्मयोग को स्‍वयं जानना और सम्‍पादन करना चाहिये। गुरु को भी उचित है कि वह इसे अपात्र शिष्‍य के प्रति न सुनावे। किसी प्राणी की हिंसा न करे। सब में मित्रभाव रखते हुए विचरे। इस दुर्लभ मनुष्‍य जीवन को पाकर किसी के साथ वैर न करे। कुछ भी संग्रह न रखना, सभी दशाओं में अत्‍यन्‍त संतुष्‍ट रहना तथा कामना और लोलुपता को त्‍याग देना-यही परम ज्ञान है और यही सत्‍यस्‍वरूप उत्तम आत्‍मज्ञान है। इहलोक और परलोक के समस्‍त भोगों का एवं सब प्रकार के संग्रह का त्‍याग करके शोकरहित निश्‍चल परमधाम को लक्ष्‍य बनाकर बुद्धि के द्वारा मन और इन्द्रियों का संयम करे।

     जो जितेन्द्रिय है, जिसने मन पर अधिकार प्राप्‍त कर लिया है तथा जो अजित पद को जीतने की इच्‍छा करता है, नित्‍य तपस्‍या में संलग्‍न रहने वाले उस मुनि को आसक्तिजनक भोगों से अलग-अनासक्‍त रहना चाहिये। जो गुण में रहता हुआ भी गुणों से रहित है, जो सर्वथा संग से रहित है तथा जो एकमात्र अन्‍तरात्‍मा के द्वारा ही साध्‍य है, जिसकी उपलब्धि में अविद्या के सिवा और कोई व्‍यवधान नहीं है, वही ब्रह्म का अद्वितीय नित्‍य पद है और वही (निरतिशय) सुख है। जो मनुष्‍य दु:ख और सुख दोनों को त्‍याग देता है, वही अनन्‍त ब्रह्मपद को प्राप्‍त होता है। अनासक्ति के द्वारा भी उसी पद की प्राप्ति होती है।

    द्विजश्रेष्‍ठ! मैंने यह सब जैसा सुना है, वैसा सब-का-सब थोड़े में आपसे कह सुनाया है। अब आप और क्‍या सुनना चाहते हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेयसमस्‍यापर्व में ब्राह्मण व्‍याध संवाद विषयक दौ सौ तेरहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

दौ सौ चौदहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्दशाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"माता-पिता की सेवा का दिग्‍दर्शन"

    मार्कण्‍डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! धर्मव्‍याध ने जब इस प्रकार पूर्ण रूप से मोक्ष-धर्म का वर्णन किया, तब कौशिक ब्राह्मण अत्‍यन्‍त प्रसन्न होकर उससे यों बोला,,
   ब्राह्मण बोला ;- ‘तात! तुमने मुझसे जो कुछ कहा, यह सब न्‍याययुक्‍त है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यहाँ धर्म के विषय में कोई ऐसी बात नहीं दिखायी देती, जो तुम्‍हें ज्ञात न हो’।
    धर्मव्‍याध ने कहा ;- 'विप्रवर! अब मेरा जो प्रत्‍यक्ष धर्म है, जिसके प्रभाव से मुझे यह सिद्धि प्राप्‍त हुई है, ब्राह्मणश्रेष्‍ठ! उसका दर्शन भी कर लीजिये। भगवन्! आप धर्म के ज्ञाता हैं, उठिये और शीघ्र घर के भीतर चलकर मेरे माता-पिता का दर्शन कीजिये।' कौशिक ब्राह्मण ने भीतर जा करके देखा-एक बहुत सुन्‍दर साफ-सुथरा घर था, उसकी दीवारों पर चूने से सफेदी की हुई थी। उसमें चार कमरे थे, वह भवन बहुत प्रिय और मन को लुभा लेने वाला था, ऐसा जान पड़ता था, मानो देवताओं का निवास स्‍थान हो। देवता भी उसका आदर करते थे। एक ओर सोने के लिये शय्या बिछी थी और दूसरी ओर बैठने के लिये आसन रखे गये थे। वहाँ धूप और चंदन, केसर आदि की उत्तम गंध फैल रही थी। एक सुन्‍दर आसन पर धर्मव्‍याध के माता–पिता भोजन करके संतुष्‍ट हो बैठै हुए थे। उन दोनों के शरीर पर श्वेत वस्‍त्र शोभा पा रहे थे और पुष्‍प, चन्‍दन आदि से उनकी पूजा की गयी थी। धर्मव्‍याध ने उन दोनों को देखते ही चरणों में मस्‍तक रख दिया और पृथ्‍वी पर पड़कर साष्‍टांग प्रणाम किया।
 
 तब बूढ़े माता-पिता ने (स्‍नेहपूर्वक) कहा,,
  माता पिता बोले ;- 'बेटा! उठो! उठो! तुम धर्म के जानकार हो, धर्म तुम्‍हारी सब ओर से रक्षा करे। हम दोनों तुम्‍हारे शुद्ध आचार-विचार तथा सेवा से बहुत प्रसन्न हैं। तुम्‍हारी आयु बड़ी हो। तुमने उत्तम गति, तप, ज्ञान और श्रेष्‍ठ बुद्धि प्राप्‍त की है, बेटा! तुम सुपुत्र हो, तुमने नित्‍य नियमपूर्वक समयानुसार हमारा पूजन-आदर-सत्‍कार किया है। हम इस घर में इस प्रकार सुख से रहते हैं, मानो देवलोक में पहुँच गये हों। देवताओं में भी तुम्‍हारे लिये हम दोनों के सिवा और कोई देवता नहीं है। तुम हमें ही देवता मानते हो। अपने मन को पवित्र एवं संयम में रखने के कारण तुम द्विजोचित्त शम-दम से सम्‍पन्न हो। वत्‍स! मेरे पिता के पितामह और प्रपितामह आदि सभी तुम्‍हारे इन्द्रियसंयम से सदा प्रसन्न रहते हैं। हम दोनों भी तुम्‍हारे द्वारा की हुई पूजा-सेवा से बहुत संतुष्‍ट हैं। तुम मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी हम दोनों की सेवा नहीं छोड़ते। इस समय भी तुम्‍हारा विचार इसके प्रतिकूल नहीं दिखायी देता। बेटा! जमदग्निनन्‍दन परशुराम ने जिस प्रकार अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा पूजा की थी, उसी प्रकार तथा उससे भी बढ़कर तुमने हमारी सब सेवाएं की हैं।'
     तदनन्‍तर धर्मव्‍याध ने अपने माता-पिता को उस कौशिक ब्राह्मण

का परिचय दिया। तब उन दोनों ने भी स्‍वागतपूर्वक ब्राह्मण का पूजन किया। ब्राह्मण ने उनके द्वारा की हुई पूजा को स्‍वीकार करके कृतज्ञता प्रकट की और उनसे पूछा,
    ब्राह्मण बोले ;- ‘आप दोनों इस घर में अपने सुयोग्‍य पुत्र तथा सेवकों के साथ सकुशल तो हैं न? आप दोनों शरीर से भी सदा नीरोग रहते हैं न?

(महाभारत (वन पर्व) चतुर्दशाधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)

   उन वृद्धों ने उत्तर दिया ;- ब्रह्मन्! इस घर में हम दोनों सकुशल हैं। हमारे सेवक तथा कुटुम्‍ब के लोग भी कुशल से हैं। भगवन्! अपना समाचार कहें, आप यहाँ सकुशल पहुँच गये न? किसी विघ्न-बाधा का सामना तो नहीं करना पड़ा?

      मार्कण्‍डेय जी कहते हैं ;- राजन्! तब कौशिक ब्राह्मण ने उन्‍हें प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया,
  ब्राह्मण बोला ;- ‘हां, मुझे कोई कष्‍ट नहीं हुआ।'
तदनन्‍तर धर्मव्‍याध ने अपने पिता-माता की ओर देखते हुए कौशिक ब्राह्मण से कहा। 
    धर्मव्‍याध बोला ;- भगवन्! ये माता-पिता ही मेरे प्रधान देवता हैं। जो कुछ देवताओं के लिये करना चाहिये, वह मैं इन्‍हीं दोनों के लिये करता हूँ। जैसे समस्‍त संसार के लिये इन्द्र आदि तैंतीस करोड़ देवता पूजनीय हैं, उसी प्रकार मेरे लिये ये दोनों बूढ़े माता-पिता ही आराधनीय हैं। द्विज लोग देवताओं के लिये जैसे नाना प्रकार के उपहार समर्पण करते हैं, उसी प्रकार मैं इनके लिये करता हूँ। इनकी सेवा में मुझे आलस्‍य नहीं होता।
     ब्रह्मन्! ये माता-पिता ही मेरे सर्वश्रेष्‍ठ देवता हैं। मैं सदा फूल, फल तथा रत्‍नों से इन्‍हीं को संतुष्‍ट करता हूँ। विप्रवर! जिन्‍हें विद्वान् लोग ‘अग्नि’ कहते हैं, वे मेरे लिये ये ही हैं। चारों वेद और यज्ञ सब कुछ मेरे लिये ये माता-पिता ही हैं। मेरे प्राण, स्‍त्री, पुत्र और सुहृद सब इन्‍हीं की सेवा के लिये हैं। मैं स्‍त्री और पुत्रों के साथ प्रतिदिन इन्‍हीं की शुश्रूषा में लेगा रहता हूँ। द्विजश्रेष्‍ठ! मैं स्‍वयं ही इन्‍हें नहलाता हूं, इनके चरण धोता हूँ और स्‍वयं ही भोजन परोसकर इन्‍हें जिमाता हूँ। मैं वही बात बोलता हूं, जो इनके मन के अनुकूल हो, जो इन्‍हें प्रिय न लगे, ऐसी बात मुंह से कभी नहीं निकालता। इनको पसंद हो, तो मैं अधर्मयुक्‍त कार्य भी कर सकता हूँ। विप्रवर! इस प्रकार माता-पिता की सेवारूप धर्म को ही महान् मानकर मैं उसका पालन करता हूँ।
      ब्रह्मन्! आलस्‍य छोड़कर मैं सदा इन्‍हीं दोनों की सेवा में लगा रहता हूँ। ब्राह्मणश्रेष्‍ठ! उन्नति चाहने वाले पुरुष के पांच ही गुरु हैं- पिता, माता, अग्नि, परमात्‍मा तथा गुरु। द्विजश्रेष्‍ठ! जो इन सबके प्रति उत्तम बर्ताव करेगा, उस ग्रहस्‍थ-धर्म का पालन करने वाले के द्वारा सदा सब अग्नियों की सेवा सम्‍पन्न होती रहेगी। यही सनातन धर्म है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेयसमस्‍यापर्व में ब्राह्मणव्‍याध संवाद विषयक दो सौ चौदहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

दौ सौ पंद्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्‍चदशधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"धर्मव्‍याध का कौशिक ब्राह्मण को माता-पिता की सेवा का उपदेश देकर अपने पूर्वजन्‍म की कथा कहते हुए व्‍याध होने का कारण बताना"

    मार्कण्‍डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इस प्रकार धर्मात्‍मा व्‍याध ने कौशिक ब्राह्मण को अपने माता-पितारूप दोनों गुरुजनों का दर्शन कराकर पुन: उससे इस प्रकार कहा,
    व्याध बोला ;- ‘ब्राह्मण! माता-पिता की सेवा ही मेरी तपस्‍या है। इस तपस्‍या का प्रभाव देखिये। मुझे दिव्‍यदृष्टि प्राप्‍त हो गयी है, जिसके कारण उस पतिव्रता देवी ने, जो सदा पति की सेवा में संलग्न रहने वाली, जितेन्द्रिय तथा सत्‍य एवं सदाचार में तत्‍पर है, आपको यह कहकर यहाँ भेजा था कि ‘आप मिथिलापुरी को जाइये। वहाँ एक व्‍याध रहता है। वह आपको सब धर्मों का उपदेश करेगा।'
      ब्राह्मण बोला ;- उत्तम व्रत का पालन करने वाले धर्मज्ञ व्‍याध! उस सत्‍यपरायण और सुशीला पतिव्रता देवी के वचनों का स्‍मरण करके मुझे यह दृढ़ विश्‍वास हो गया है कि तुम उत्तम गुणों से सम्‍पन्न हो।
     धर्मव्याध ने कहा ;- द्विजश्रेष्ठ प्रभो! उस पतिव्रता देवी ने पहले आप से मेरे विषय में जो कुछ कहा है, वह सब ठीक है। इसमें संदेह नहीं कि उसने पातिव्रत्‍य के प्रभाव से सब कुछ प्रत्‍यक्ष देखा है। विप्रवर! आप पर अनुग्रह करने के विचार से ही मैंने ये सब बातें आपके सामने रखी हैं। तात! आप मेरी बात सुनिये। ब्रह्मन्! आपके लिये जो हितकर है, वही बात बताऊंगा। द्विजश्रेष्‍ठ! आपने माता-पिता की उपेक्षा की है। वेदाध्‍ययन करने के लिये उन दोनों की आज्ञा लिये बिना ही आप घर से निकल पड़े हैं। अनिन्‍द्य ब्राह्मण! यह आपके द्वारा अनुचित कार्य हुआ है। आपके शोक से वे दोनों बूढ़े एवं तपस्‍वी माता-पिता अन्‍धे हो गये हैं। आप उन्‍हें प्रसन्न करने के लिये घर जाइये। ऐसा करने से आपका धर्म नष्‍ट नहीं होगा। आप तपस्‍वी, महात्‍मा तथा निरन्‍तर धर्म में तत्‍पर रहने वाले हैं। परंतु माता-पिता को संतुष्‍ट न करने के कारण आपका यह सारा धर्म और व्रत व्‍यर्थ हो गया है। अत: शीघ्र जाकर उन दोनों को प्रसन्न कीजिये। ब्रह्मन! मेरी बात पर श्रद्धा कीजिये। इसके विपरीत कुछ न कीजिये। ब्रह्मर्षे! आप अपने घर जाइये और माता-पिता की सेवा कीजिये। यह मैं आपके लिये परम कल्‍याण की बात बता रहा हूँ।
     ब्राह्मण बोला ;- धर्म, सदाचार और गुणों से सम्‍पन्न व्‍याध! आपका भला हो। आपने यह जो कुछ बताया है, सब नि:संदेह सत्‍य है। मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूँ।
     धर्मव्‍याध ने कहा ;- विप्रवर! आप देवताओं के समान हैं; क्‍योंकि आपने उस धर्म में मन लगाया है, जो पुरातन, सनातन, दिव्‍य तथा मन को जीतने वाले पुरुषों के लिये दुर्लभ है। द्विजश्रेष्‍ठ! आप माता-पिता के पास जाकर आलस्‍यरहित हो शीघ्र ही उनकी सेवा में लग जाइये। मैं इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं देखता।
     ब्राह्मण बोला ;- नरश्रेष्‍ठ! मेरा बड़ा भाग्‍य था, जो यहाँ आया और सौभाग्‍य से ही मुझे आपका संग प्राप्‍त हो गया। संसार में आप-जैसे धर्म का मार्ग दिखाने वाले मनुष्‍य दुर्लभ हैं। हजारों मनुष्‍यों में से कोई एक भी धर्म के तत्‍व को जानने वाला है या नहीं-यह निश्‍चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। पुरुषर्षभ! आपका कल्याण हो। आज में आपके सत्य के कारण आप पर बहुत प्रसन्न हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्‍चदशधिकद्विशततम अध्‍याय के श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद)

    अनघ! मैं नरक में गिर रहा था। आज आपने मेरा उद्धार कर दिया। इस प्रकार जब मुझे आपका दर्शन मिल गया, तब निश्‍चय ही आपके उपदेश के अनुसार भविष्‍य में सब कुछ होगा। राजा ययाति स्‍वर्ग से गिर गये थे; परंतु उनके उत्तम स्‍वभाव वाले दौहित्रों (पुत्री के पुत्रों) ने पुन: उनका उद्धार कर दिया-वे पूर्ववत् स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित हो गये। पुरुषसिंह! इसी प्रकार आपने भी आज मुझ ब्राह्मण को नरक में गिरने से बचाया है। मैं आपके कहने के अनुसार माता-पिता की सेवा करूँगा। जिसका अन्‍त:करण शुद्ध नहीं है, वह धर्म-अधर्म के निर्णय को बतला नहीं सकता। आश्‍चर्य है कि यह सनातन धर्म, जिसके स्‍वरूप को समझना अत्‍यन्‍त कठिन है, शूद्रयोनि के मनुष्‍य में भी विद्यमान है। मैं आपको शूद्र नहीं मानता। आपका जो शूद्रयोनि में जन्‍म हो गया है, इसका कोई विशेष कारण होना चाहिये। महामते! जिस विशेष कर्म के कारण आपको यह शूद्रयोनि प्राप्‍त हुई, उसे मैं यथार्थ रूप से जानना चाहता हूँ। आप सत्‍य और पवित्र अन्‍त:करण के विशवास के अनुसार स्‍वेच्‍छापूर्वक मुझे सब कुछ बताइये।
       धर्मव्‍याध ने कहा ;- विप्रवर! मुझे ब्राह्मणों का अपराध कभी नहीं करना चाहिये। अनघ! मेरे पूर्वजन्‍म के शरीर द्वारा जो घटना घटित हुई है, वह सब बताता हूं, सुनिये। मैं पूर्वजन्‍म में एक श्रेष्‍ठ ब्राह्मण का पुत्र और वेदाध्‍ययनपरायण ब्राह्मण था। वेदांगों का पारंगत विद्वान् माना जाता था। मैं विद्याध्‍ययन में अत्‍यन्‍त कुशल था। ब्राह्मण! अपने ही दोषों के कारण मुझे इस दूरवस्‍था में आना पड़ा है। पूर्वजन्‍म में जब मैं ब्राह्मण था, एक धनुर्वेद-परायण राजा के साथ मेरी मित्रता हो गयी थी। उनके संसर्ग से मैं धनुर्वेद की शिक्षा लेने लगा और धनुष चलाने की कला में मैंने श्रेष्‍ठ योग्‍यता प्राप्‍त कर ली। ब्रह्मन्! इसी समय राजा अपने मन्त्रियों तथा प्रधान योद्धाओं के साथ शिकार खेलने के लिये निकला। उन्‍होंने एक ऋषि के आश्रम के निकट बहुत-से हिंसक पशुओं का वध किया। द्विजश्रेष्‍ठ! तदनन्‍तर मैंने भी एक भयानक बाण छोड़ा। उसकी गांठ कुछ झुकी हुई थी। उस बाण से एक ऋषि मारे गये।
      ब्रह्मन्! बाण लगते ही वे मुनि पृथ्वी पर गिर पड़े और अपने आर्तनाद से वन्‍य प्रदेश को गुंजाते हुए बोले,,
    मुनी बोले ;- ‘आह! मैं तो किसी का कोई अपराध नहीं करता हूँ। फिर किसने यह पापकर्म कर डाला। प्रभो! मैंने उन्‍हें हिंसक पशु समझकर बाण मारा था। अत: सहसा उनके पास जा पहुँचा। वहाँ जाकर देखा कि झुकी हुई गांठ वाले उस बाण से एक ऋषि घायल होकर धरती पर पड़े हैं। यह न करने योग्‍य पाप कर डालने के कारण मेरे मन में उस समय बड़ी पीड़ा हुई। वे उग्र तपस्‍वी ब्राह्मण उस समय धरती पर पड़े-पड़े कराह रहे थे। मैंने साहस करके उन मुनीश्वर से कहा,
   व्याध बोला ;- ‘भगवन्। अनजान में मेरे द्वारा यह अपराध बन गया है। अत: आप यह सब क्षमा कर दें।' मेरी बात सुनकर ऋषि क्रोध से व्‍याकुल हो गये और उत्तर देते हुए बोले,
   मुनी बोले ;- 'निर्दयी ब्राह्मण! तू शूद्रयोनि में जन्‍म लेकर व्‍याध होगा’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तगर्त मार्कण्‍डेयसमस्‍यापर्व में ब्राह्मणव्‍याध संवाद विषयक दो सौ पंद्रहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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