सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ छवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"कौशिक ब्राह्मण और पतिव्रता के उपाख्यान के अन्तर्गत ब्राह्मणों के धर्म का वर्णन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- भरतनन्दन! कौशिक नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण था, जो वेद का अध्ययन करने वाला, तपस्या का धनी और धर्मात्मा था। वह तपस्वी ब्राह्मण सम्पूर्ण द्विजातियों में श्रेष्ठ समझा जाता था। द्विजश्रेष्ठ कौशिक ने सम्पूर्ण अंगों सहित वेदों और उपनिषदों का अध्ययन किया था।
एक दिन की बात है, वह किसी वृक्ष के नीचे बैठकर वेद का पाठ कर रहा था। उस समय उस वृक्ष के ऊपर एक बगुली छिपी बैठी थी। उसने ब्राह्मण देवता के ऊपर बीट कर दी। यह देख ब्राह्मण क्रोधित हो
गया और उस पक्षी की ओर दृष्टि डालकर उसका अनिष्ट चिन्तन करने लगा। उसने अत्यन्त कुपित होकर उस बगुली को देखा और उसका अनिष्टचिन्तन किया था, अत: वह पृथ्वी पर गिर पड़ी। उस बगुली को अचेत एवं निष्प्राण होकर पड़ी देख ब्राह्मण का हृदय द्रवित हो उठा। उसे अपने इस कुकृत्य पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वह इस प्रकार शोक प्रकट करता हुआ बोला,
ब्राह्मण द्विजश्रेष्ठ बोले ;- ‘ओह! आज क्रोध और आसक्ति के वशीभूत होकर मैंने यह अनुचित कार्य कर डाला।'
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार बार-बार पछताकर वह विद्वान ब्राह्मण गांव में भिक्षा के लिये गया। उस गांव में जो लोग शुद्ध और पवित्र आचरण वाले थे, उन्हीं के घरों पर भिक्षा मांगता हुआ वह एक ऐसे घर पर जा पहुँचा, जहाँ पहले भी कभी भिक्षा प्राप्त कर चुका था। दरवाजे पर पहुँचकर ब्राह्मण बोला,
ब्राह्मण बोला ;- ‘भिक्षा दें।'
भीतर से किसी स्त्री ने उत्तर दिया,,
स्त्री बोली ;- ‘ठहरो! (अभी लाती हूँ)'
राजन्! वह घर की मालकिन थी, जो जूंठे बर्तन मांज रही थी। ज्यों ही वह बर्तन साफ करके उधर से निवृत्त हुई, त्यों ही उसके पतिदेव सहसा घर पर आ गये। भरतश्रेष्ठ! वे भुख से अत्यन्त पीड़ित थे। पति को आया देख उस श्याम नेत्रों वाली पतिव्रता ने ब्राह्मण को तो उसी दशा में छोड़ दिया और अत्यन्त विनीत भाव से वह पति की सेवा में लग गयी। पानी लाकर उसने पति के पैर धोये, हाथ-मुंह धूलाये और बैठने को आसन दिया। फिर सुन्दर स्वादिष्ठ भक्ष्य भोज्य पदार्थ परोसकर वह पति को भोजन कराने लगी।
युधिष्ठिर! वह सती स्त्री प्रतिदिन पति को भोजन कराकर उनके उच्छिष्ट को प्रसाद मानकर बड़े आदर और प्रेम से भोजन करती थी। वह पति को देवता मानती थी और उनके विचार के अनुकूल ही चलती थी। उसका मन कभी परपुरुष की ओर नहीं जाता था। वह मन, वाणी और क्रिया से पतिपरायणा थी। अपने हृदय की समस्त भावनाएं, सम्पूर्ण प्रेम पति के चरणों में चढ़ाकर वह अनन्य भाव से उन्हीं की सेवा में लगी रहती थी। सदाचार का पालन करती, बाहर-भीतर से शुद्ध पवित्र रहती, घर के काम-काज को कुशलतापूर्वक करती और कुटुम्ब के सभी लोगों का हित चाहती थी। पति के लिये जो हितकर कार्य जान पड़ता, उसमें भी वह सदा संलग्न रहती थी। देवताओं की पूजा, अतिथियों के सत्कार, भृत्यों के भरण-पोषण और सास-ससुर की सेवा में भी वह सर्वदा तत्पर रहती थी। अपने मन और इन्द्रियों पर वह निरन्तर पूर्ण संयम रखती थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद)
पति की सेवा करते-करते उस मंगलमयी दृष्टि वाली देवी को भिक्षा के लिये खड़े हुए ब्राह्मण की याद आयी। भरतवंशविभूषण! अपनी भूल के कारण वह यशस्विनी साध्वी स्त्री बहुत लज्जित हुई और ब्राह्मण के लिये भिक्षा लेकर घर से बाहर निकली। उसे देखकर,,
ब्राह्मण ने कहा ;- 'सुन्दरी! तुम्हारा यह कैसा बर्ताव है? देख! तुम्हें इतना विलम्ब करना था तो ‘ठहरो’ कहकर मुझे रोक क्यों लिया? मुझे जाने क्यों नहीं दिया?'
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! ब्राह्मण क्रोध से संतप्त हो अपने तेज से जलता-सा प्रतीत होता था। उसे देखकर उस पतिव्रता देवी ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया।
स्त्री बोली ;- 'विद्वन्! क्षमा करें। मेरे लिये सबसे बड़े देवता पति हैं। वे भूखे और थके हुए घर पर आये थे। (उन्हें छोड़कर कैसे आती?) उन्हीं की सेवा में लग गयी।'
तब ब्राह्मण बोला ;- 'क्या ब्राह्मण बड़े नहीं हैं; तुमने पति को ही सबसे बड़ा बना दिया? ग्रहस्थ धर्म में रहकर भी तुम ब्राह्मणों का अपमान करती हो? अरी! (स्वर्गलोक के स्वामी) इन्द्र भी इन ब्राह्मणों
के आगे सिर झुकाते हैं, फिर भूतल के मनुष्यों की तो बात ही क्या है? घमंड में भरी हुई स्त्री! क्या तुम ब्राह्मणों का प्रभाव नहीं जानती? कभी बड़े-बूढ़ों के मुख से भी नहीं सुना? अरी! ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्वी होते हैं। वे चाहें तो इस पृथ्वी को भी जलाकर भस्म कर सकते हैं।'
स्त्री बोली ;- 'तपोधन! क्रोध न करो। ब्रह्मर्षे! मैं बगुली नहीं हूं, जो तुम्हारी इस क्रोध भरी दृष्टि से जल जाऊंगी। तुम इस तरह कुपित होकर मेरा क्या करोगे? मैं ब्राह्मणों का अपमान नहीं करती। मनस्वी ब्राह्मण तो देवता के समान होते हैं। निष्पाप ब्राह्मण! तुम मेरे इस अपराध को क्षमा करो। मैं बुद्धिमान ब्राह्मणों के तेज और महत्व को जानती हूँ। ब्राह्मणों के ही क्रोध का फल है कि समुद्र का पानी खारा एवं पीने के अयोग्य बना दिया गया। इसी प्रकार जिनकी तपस्या बहुत बढ़ी-चढ़ी थी और जिनका अन्त:करण परम पवित्र हो चुका था, ऐसे मुनियों ने भी जो क्रोध की आग प्रज्वलित की थी, वह आज भी दण्डकारण्य में बुझ नहीं पा रही है। ब्राह्मणों का तिरस्कार करने से ही क्रूर स्वभाव वाला महान् असुर अत्यन्त दुरात्मा वातापि अगस्त्य के पेट में जाकर पच गया।
ब्रह्मन्! महात्मा ब्राह्मणों के प्रभाव को बताने वाले बहुत-से चरित्र सुने जाते हैं। उन महात्माओं का क्रोध और कृपा दोनों ही महान् होते हैं। निष्पाप ब्रह्मन्! मेरे द्वारा जो तुम्हारा अपराध बन गया है, उसे क्षमा करो। विप्रवर! मुझे तो पति की सेवा से जो धर्म प्राप्त होता है, वही अधिक पसंद है। परिपूर्ण देवताओं में भी पति ही मेरे सबसे बड़े देवता हैं। द्विजश्रेष्ठ! मैं साधारण रूप से ही पतिसेवारूप धर्म का पालन करती हूँ। ब्राह्मण देवता! इस पतिसेवा का जैसा फल है, उसे प्रत्यक्ष देख लो। तुमने क्रोध करके जो एक बगुली को जला दिया था, वह बात मुझे मालूम हो गयी। द्विजश्रेष्ठ! मनुष्यों का एक बहुत बड़ा शत्रु है। वह उनके शरीर में ही रहता है, उसका नाम है ‘क्रोध’।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 33-48 का हिन्दी अनुवाद)
जो क्रोध और मोह को त्याग देता है, उसी को देवतागण ब्राह्मण मानते हैं। जो यहाँ सत्य बोले, गुरु को संतुष्ट रखे, किसी के द्वारा मार खाकर भी बदले में उसे न मारे, उसको देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। जो जितेन्द्रिय, धर्मपरायण, स्वाध्यायतत्पर और पवित्र है तथा काम और क्रोध जिसके वश में है, उसे देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। जिस धर्मज्ञ एवं मनस्वी पुरुष का सम्पूर्ण जगत् के प्रति आत्मभाव है तथा धर्मों पर जिसका समान अनुराग है, उसे देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। जो पढ़े और पढ़ाये, यज्ञ करे और कराये तथा यथाशक्ति दान दे, उसे देवता ब्राह्मण कहते हैं। जो द्विजश्रेष्ठ ब्रह्मचर्य का पालन करे, उदार बने, वेदों का अध्ययन करे और सतत सावधान रहकर स्वाध्याय में ही लगा रहे, उसे देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। ब्राह्मण के लिये जो हितकर कर्म हो, उसी का उनके सामने वर्णन करना चाहिये। सत्य बोलने वाले लोगों का मन कभी असत्य में नहीं लगता।
द्विजश्रेष्ठ! स्वाध्याय, मनोनिग्रह, सरलता और इन्द्रियनिग्रह-ये ब्राह्मण के लिये सनातन धर्म कहे गये हैं। धर्मज्ञ पुरुष सत्य और सरलता को सर्वोत्तम धर्म बताते हैं। सनातन धर्म के स्वरूप को जानना तो अत्यन्त कठिन है, परंतु वह सत्य में प्रतिष्ठित है। जो वेदों के द्वारा प्रमाणित हो, वही धर्म है-यह वृद्ध पुरुषों का उपदेश है। द्विजश्रेष्ठ! बहुधा धर्म का स्वरूप सूक्ष्म ही देखा जाता है। तुम भी धर्मज्ञ, स्वाध्यायपरायण और पवित्र हो। भगवन! तो भी मेरा विचार यह है कि तुम्हे धर्म का यथार्थ ज्ञान नहीं है। विप्रवर! यदि तुम परम धर्म क्या है, यह नहीं जानते तो मिथिलापुरी में धर्मव्याघ के पास जाकर पूछो। मिथिला में व्याघ रहता है, जो माता-पिता का सेवक, सत्यवादी और जितेन्द्रिय है, वह तुम्हें धर्म का उपदेश करेगा। द्विजश्रेष्ठ! तुम अपनी रुचि के अनुसार वहीं जाओ, तुम्हारा मंगल हो।
अनिन्दनीय ब्राह्मण! यदि मेरे मुख से कोई अनुचित बातें निकल गयी हों तो उन सब के लिये मुझे क्षमा करें; क्योंकि जो धर्मज्ञ पुरुष हैं, उन सबकी दृष्टि में स्त्रियां अदण्डनीय हैं।'
ब्राह्मण बोला ;- 'शुभे! तुम्हारा भला हो। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। मेरा सारा क्रोध दूर हो गया। तुमने जो उलाहना दिया है, वह अनुचित वचन नहीं, मेरे लिये परम कल्याणकारी है। शोभने! तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं जाऊंगा और अपना कार्यसाधन करूँगा। कल्याणि! तुम धन्य हो, जिसका सदाचार इतनी उच्च कोटि का है।'
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! उस साध्वी स्त्री से विदा लेकर वह द्विजश्रेष्ठ कौशिक अपने आत्मा की निन्दा करता हुआ अपने घर को लौट गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में पतिव्रतोपाख्यान विषयक दो सौ छवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ सातवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना, धर्मव्याध के द्वारा पतिव्रता से प्रेषित जान लेने पर कौशिक को आश्चर्य होना, धर्मव्याध के द्वारा वर्णधर्म का वर्णन, जनक राज्य की प्रशंसा और शिष्टाचार का वर्णन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! उस पतिव्रता देवी की कही हुई सारी बातों पर विचार करके कौशिक ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह अपने-आप को धिक्कारता हुआ अपराधी-सा जान पड़ने लगा। फिर अपने धर्म की सूक्ष्म गति पर विचार करके वह मन ही मन बोला,
ब्राह्मण बोला (मन ही मन मैं) ;- ‘मुझे (उस सती के कथन पर) श्रद्धा और विश्वास करना चाहिये; अत: मैं अवश्य मिथिला जाऊंगा। कहते हैं, वहाँ एक पुण्यात्मा धर्मज्ञ व्याध निवास करता है। मैं उस तपोधन व्याघ से धर्म की बात पूछने के लिये आज ही उसके पास जाऊंगा।' मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके वह कौतूहलवश मिथिलापुरी की ओर चल दिया। पतिव्रता स्त्री बगुली पक्षी वाली घटना स्वयं जान गयी थी और उसने धर्मानुकूल शुभ वचनों द्वारा उपदेश दिया था, इन कारणों से उसकी बातों पर कौशिक ब्राह्मण की बड़ी श्रद्धा हो गयी थी।
वह अनेकानेक जंगलों, गांवों तथा नगरों को पार करता हुआ राजा जनक के द्वारा सुरक्षित, धर्म की मर्यादा से व्याप्त तथा यज्ञसम्बन्धी उत्सवों से सुशोभित सुन्दर मिथिलापुरी में जा पहुँचा। बहुत-से गोपुर, अट्टालिकाएं, महल और चहारदीवारियां उस नगर की शोभा बढ़ा रही थीं। वह रमणीयपुरी बहुत-से विमानों से युक्त थी तथा बहुत-सी दुकानें उस पुरी का सौन्दर्य बढ़ाती थीं। सुन्दर ढंग से बनायी हुई बड़ी-बड़ी सड़कें शोभा पा रही थीं। बहुसंख्यक घोड़े, रथ, हाथी और सैनिकों से संयुक्त मिथिलापुरी हष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरी हुई थी। वहाँ नित्य नाना प्रकार के उत्सव होते रहते थे और अनेक प्रकार की घटनाएं घटित होती थीं। ब्राह्मण ने उस पुरी में प्रवेश करके सब ओर घूम-घूमकर उसे अच्छी तरह देखा। वहाँ उसने लोगों से धर्म व्याध का
पता पूछा और ब्राह्मणों ने उसे उसका स्थान बता दिया। कौशिक ने वहाँ जाकर देखा कि तपस्वी धर्मव्याध कसाई खाने में बैठकर सूअर, भैंसे आदि पशुओं का मांस बेच रहा है। वहाँ ग्राहकों की भीड़ लगी हुई थी, इसलिये कौशिक एकान्त मे जाकर खड़ा हो गया। ब्राह्मण को आया हुआ जानकर व्याध सहसा शीघ्रतापूर्वक उठ खड़ा हुआ और उस स्थान पर आ गया, जहाँ ब्राह्मण एकान्त स्थान में खड़ा था।
व्याध बोला ;- भगवन्! मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। द्विजश्रेष्ठ! आपका स्वागत है। मैं ही वह व्याध हूँ (जिसकी खोज में आपने यहाँ तक आने का कष्ट किया है) आपका भला हो, आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा करूँ। उस पतिव्रता देवी ने जो आपसे यह कहकर भेजा है कि ‘तुम मिथिलापुरी को जाओ।’ वह सब मैं जानता हूँ। आप जिस उद्देश्य से यहाँ पधारे हैं, वह भी मुझे मालूम है।'
व्याध की वह बात सुनकर ब्राह्मण को बड़ा विस्मय हुआ। वह मन-ही-मन सोचने लगा,,- 'यह दूसरा आश्चर्य दृष्टिगोचर हुआ है'।
इसके बाद ,,
व्याध ने कहा ;- ‘भगवन्! यह स्थान आपके ठहरने योग्य नहीं है। अनघ! यदि आपकी रुचि हो तो हम दोनों हमारे घर पर चलें’।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! यह सुनकर ब्राह्मण को बड़ा हर्ष हुआ। उसने व्याध से कहा,
ब्राह्मण बोले ;- ‘बहुत अच्छा’ ऐसा ही करो। तब व्याध ब्राह्मण को आगे करके घर की ओर चला।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)
व्याध का घर बहुत सुन्दर था। वहाँ पहुँचकर उस व्याध ने ब्राह्मण को बैठने के लिये आसन दिया और अर्ध्य देकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण की आदर सहित पूजा की। सुखपूर्वक बैठ जाने पर ब्राह्मण ने व्याध से कहा- ‘तात! यह मांस बेचने का काम निश्चय ही तुम्हारे योग्य नहीं है। मुझे तो तुम्हारे इस घोर कर्म से बहुत संताप हो रहा है’।
व्याध बोला ;- 'ब्रह्मन्! यह काम मेरे बाप-दादों के समय से होता चला आ रहा। मेरे कुल के लिये जो उचित है, वही धंधा मैंने भी अपनाया है। मैं अपने धर्म का ही पालन कर रहा हूं; अत: आप मुझ पर क्रोध न करें। द्विजश्रेष्ठ! विधाता ने इस कुल में जन्म देकर मेरे लिये जो कार्य प्रस्तुत किया है, उसका पालन करता हुआ मैं अपने बूढ़े माता-पिता की बड़े यत्न से सेवा करता रहता हूँ। सत्य बोलता हूँ। किसी की निन्दा नहीं करता और अपनी शक्ति के अनुसार दान भी करता हूँ। देवताओं, अतिथियों और भरण-पोषण के योग्य कुटुम्बीजनों तथा सेवकों को भोजन देकर जो बचता है, उसी से शरीर का निर्वाह करता हूँ।
द्विजश्रेष्ठ! किसी के दोषों की चर्चा नहीं करता और अपने से बलिष्ठ पुरुष की निन्दा नहीं करता, क्योंकि पहले के किये हुए शुभाशुभ कर्मों का परिणाम स्वयं कर्ता को ही भोगना पड़ता है। कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य, दण्डनीति और त्रयीविद्या-ऋक्, यजु, साम के अनुसार यज्ञादि का अनुष्ठान करना और कराना, ये लोगों की जीविका के साधन हैं। इनसे ही लौकिक और परलौकिक उन्नति सम्भव होती है। शूद्र का कर्तव्य है सेवा कर्म, वैश्य का कार्य है खेती और युद्ध करना क्षत्रिय का कर्म माना गया है। ब्रह्मचर्य, तपस्या, मन्त्र-जप, वेदाध्ययन तथा सत्य भाषण- ये सदा ब्राह्मण के पालन करने योग्य धर्म हैं। राजा अपने-अपने वर्णाश्रमोचित कर्म में लगी हुई प्रजा का धर्मपूर्वक शासन करता है और जो कोई अपने कर्मों से गिरकर विपरीत दिशा में जा रहे हों, उन्हें पुन: अपने कर्तव्य के पालन में लगाता है। इसलिये राजाओं से सदा डरते रहना चाहिये: क्योंकि वे प्रजा के स्वामी हैं। जो लोग धर्म के विपरीत कार्य करते हैं, उन्हें राजा दण्ड द्वारा उसी प्रकार पाप से रोकते हैं, जैसे बाणों द्वारा वे हिंसक पशुओं को हिंसा से रोकते हैं।
ब्रह्मर्षे! यह राजा जनक का नगर है, यहाँ कोई ऐसा नहीं है, जो वर्णधर्म के विरुद्ध आचरण करे। द्विजश्रेष्ठ! यहाँ चारों वर्णों के लोग अपना-अपना कर्म करते हैं। ये राजा जनक दुराचारी को, वह अपना पुत्र ही क्यों न हो, दण्डनीय मानकर दण्ड देते ही हैं तथा किसी भी धर्मात्मा को कष्ट नहीं पहुँचने देते हैं। विप्रवर! राजा जनक ने सब ओर गुप्तचर लगा रखे हैं, अत: उनके द्वारा वे धर्मानुसार सब पर दृष्टि रखते हैं। सम्पत्ति का उपार्जन, राज्य की रक्षा तथा अपराधियों को दण्ड देना- ये क्षत्रियों के कर्तव्य हैं। राजा लोग अपने धर्म का पालन करते हुए ही प्रचुर सम्पत्ति पाने की इच्छा रखते हैं और राजा सभी वर्णों का रक्षक होता है। ब्रह्मन्! मैं स्वयं किसी जीव की हिंसा नहीं करता। सदा दूसरों के मारे हुए सूअर और भैंसों का मांस बेचता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 33-48 का हिन्दी अनुवाद)
मैं स्वयं मांस कभी नहीं खाता। ऋतु काल प्राप्त होने पर ही पत्नी-समागम करता हूँ। द्विजप्रवर! मैं दिन में सदा ही उपवास और रात में भोजन करता हूँ। शील से रहित पुरुष भी कभी शीलवान हो जाता है। प्राणियों की हिंसा में अनुरक्त मनुष्य भी फिर धर्मात्मा हो जाता है। राजाओं के व्यभिचार-दोष से धर्म अत्यन्त संकीर्ण हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है, इससे प्रजा में वर्ण संकरता आ जाती है। उस दशा में भयंकर आकृति वाले, बौने, कुबड़े, मोटे मस्तक वाले, नपुंसक, अंधे, बहरे और अधिक ऊँचे नेत्रों वाले मनुष्य उत्पन्न होते हैं। राजाओं के अधर्म परायण होने से प्रजा की सदा अवनति होती है। हमारे ये राजा जनक समस्त प्रजा को धर्मपूर्ण दृष्टि से ही देखते हैं।
नरश्रेष्ठ! राजा जनक सदा स्वधर्म में तत्पर रहने वाली सम्पूर्ण प्रजा पर अनुग्रह रखते हुए उसका पिता की भाँति सदा पालन करते हैं। जो लोग मेरी प्रशंसा करते हैं और जो निन्दा करते हैं, उन सबको अपने सद्व्यवहार से संतुष्ट रखता हूँ। जो राजा अपने धर्म का पालन करते हुए जीवन निर्वाह करते हैं, धर्म में संयुक्त रहते हैं, किसी दूसरे की कोई वस्तु अपने उपयोग में नहीं लाते तथा सदा अपनी इन्द्रियों पर संयम रखते हैं, वे ही उन्नतिशील होते हैं। अपनी शक्ति के अनुसार सदा दूसरों को अन्न देना, दूसरों के अपराध तथा शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों को सहन करना, सदा धर्म में दृढ़तापूर्वक लगे रहना तथा सम्पूर्ण प्राणियों में सभी पूजनीय पुरुषों का यथायोग्य पूजन करना- ये मनुष्यों के सद्गुण पुरुष में स्वार्थत्याग के बिना नहीं रह पाते हैं। झूठ बोलना छोड़ दे, बिना कहे ही दूसरों का प्रिय करे, काम, क्रोध तथा द्वेष से भी कभी धर्म का परित्याग न करे। प्रिय वस्तु की प्राप्ति होने पर हर्ष से फूल न उठे, अपने मन के विपरीत कोई बात हो जाये तो दु:ख न माने- चिन्तिन न हो, अर्थ संकट आ जाये तो भी मोह के वशीभूत हो घबराये नहीं और किसी भी अवस्था में अपना धर्म न छोड़े। यदि भूल से कभी निन्दित कर्म बन जाये, तो फिर दुबारा वैसा काम न करे।
अपने मन और बुद्धि से विचार करने पर जो कल्याणकारी प्रतीत हो, उसी कार्य में अपने को लगावे। यदि कोई अपने साथ बुरा बर्ताव करे, तो स्वयं भी बदले में उसके साथ बुराई न करे। जो पापी दूसरों का अहित करना चाहता है, वह स्वयं ही नष्ट हो जाता है। यह (दूसरों का अहित करना) तो दुराचारी की भाँति दुर्व्यसनों में आसक्त हुए पापी पुरुषों का ही कार्य है। ‘धर्म कोई चीज नहीं है’ ऐसा मानकर जो शुद्ध आचार-विचार वाले श्रेष्ठ पुरुषों की हंसी उड़ाते हैं, वे धर्म पर अश्रद्धा रखने वाले मनुष्य निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। पापी मनुष्य लुहार की बड़ी धौंकनी के समान सदा ऊपर से फूले दिखायी देते हैं (परंतु वास्तव में सारहीन होते हैं)। द्विजश्रेष्ठ! उत्तम पुरुष सर्वत्र विनयशील ही होता है। अंहकारी मूढ़ मनष्यों की सोची हुई प्रत्येक बात नि:सार होती है। जैसे सूर्य दिन के रूप को प्रकट कर देता है, उसी प्रकार मूर्खों की अन्तरात्मा ही उनके यथार्थ स्वरूप का दर्शन करा देती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 49-62 का हिन्दी अनुवाद)
मूर्ख मनुष्य केवल अपनी प्रशंसा के बल से जगत् में प्रतिष्ठा नहीं पाता है, विद्वान् पुरुष कान्तिहीन हो, तो भी संसार में उसकी ख्याति बढ़ जाती है। किसी दूसरे की निन्दा न करे, अपनी मान-प्रतिष्ठा की प्रशंसा न करे, कोई भी गुणवान् पुरुष परनिन्दा और आत्मप्रशंसा का त्याग किये बिना इस भूमण्ड में सम्मानित हुआ हो, यह नहीं देखा जाता है। जो मनुष्य पापकर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चत्ताप करता है, वह उस पाप से छूट जाता है तथा ‘फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करूँगा’ ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर वह भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी बच जाता है।
विप्रवर! शास्त्रविहित (जप, तप, यज्ञ, दान आदि) किसी भी कर्म का निष्काम भाव से आचरण करने पर पाप से छुटकारा मिल सकता है। ब्रह्मन्! धर्म के विषय में ऐसी श्रुति देखी जाती है। पहले का धर्मशील पुरुष भी यदि अनजान में यहाँ कोई पाप कर बैठे तो वह पीछे (निष्काम पुण्य कर्म द्वारा) उस पाप को नष्ट कर देता है। राजन्! मनुष्यों का धर्म ही यहाँ प्रमादवश किये हुए उनके पापों को दूर कर देता है। जो मनुष्य पाप करके भी यह मानता है कि 'मैं पापी नहीं हूँ', वह भूल करता हैं; क्योंकि देवता उसे और उसके पाप को देखते हैं तथा उसी के भीतर बैठा हुआ परमात्मा भी देखता ही है। श्रद्धालु मनुष्य दूसरों के दोष देखना छोड़कर सदा सबके हित की इच्छा करे। जो पापी अपने दोषों की ओर से आंखें बंद करके सदा दूसरे श्रेष्ठ पुरुषों के दोषों को ही कपड़े के छेदों की भाँति अधिकाधिक प्रकट करता और बढ़ाता है, वह मृत्यु के पश्यचात् नष्ट हो जाता है-परलोक में उसे कोई सुख नहीं मिलता है। यदि मनुष्य पाप करके भी कल्याणकारी कर्म में लग जाता है, तो वह महामेघ से मुक्त हुए चन्द्रमा की भाँति सब पापों से मुक्त हो जाता है। जैसे सूर्य उदय होने पर पहले के अन्धकार को नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार कल्याणकारी शुभ कर्म का निष्काम भाव से अनुष्ठान करने वाला पुरुष सब पापों से छुटकारा पा जाता है।
विप्रवर! लोभ को ही पापों का घर समझो। जिन्होंने अधिकतर शास्त्रों का श्रवण नहीं किया है, वे लोभी मनुष्य ही पाप करने का विचार रखते हैं। तिनके से ढके हुए कुओं की भाँति धर्म की आड़ में कितने ही अधर्म चल रहे हैं। धर्मात्मा के वेश में रहने वाले इन अधार्मिक मनुष्यों में इन्द्रियसंयम, पवित्रता और धर्मसम्बन्धी चर्चा आदि सभी गुण तो होते हैं, पंरतु उनमें शिष्टाचार (श्रेष्ठ पुरुषों का-सा आचार-व्यवहार) अत्यन्त दुर्लभ होते हैं।'
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर परम बुद्धिमान कौशिक ने धर्मव्याघ से पूछा,
ब्राह्मण बोले ;- ‘नरश्रेष्ठ! मुझे शिष्टाचार का ज्ञान कैसे हो? धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महामते व्याध! तुम्हारा भला हो, मैं ये सब बातें तुम से सुनना चाहता हूँ। अत: यथार्थ रूप से इनका वर्णन करो’।
व्याध ने कहा ;- 'द्विजश्रेष्ठ! यज्ञ, दान, तपस्या, वेदों का स्वाध्याय और सत्यभाषण- ये पांच पवित्र वस्तुएं शिष्ट पुरुषों के आचार-व्यवहार में सदा देखी गयी हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 63-78 का हिन्दी अनुवाद)
जो काम, क्रोध, लोभ, दम्भ और कुटिलता को वश में करके केवल धर्म को ही अपनाकर संतुष्ट रहते हैं, वे शिष्ट कहलाते हैं और उन्हीं का शिष्ट पुरुष आदर करते हैं। वे निरन्तर यज्ञ और स्वाध्याय में लगे रहते हैं। उनमें स्वेच्छाचार नहीं होता। सदाचार का पालन शिष्ट पुरुषों का दूसरा लक्षण है। ब्रह्मन! शिष्टाचारी पुरुषों में गुरु की सेवा, सत्यभाषण, क्रोध का अभाव तथा दान-ये चार सधुण सदा रहते हैं। मनुष्य शिष्ट पुरुषों के उपर्युक्त आचार में मन को सब प्रकार से स्थापित करके जिस उत्तम स्थिति को प्राप्त करता है, उसकी उपलब्धि और किसी प्रकार से नहीं हो सकती। वेद का सार है सत्य, सत्य का सार है इन्द्रिय-संयम और इन्द्रिय-संयम का सार है त्याग। यह त्याग शिष्ट पुरुषों के आचार में सदा विद्यमान रहता है। जो मनुष्य बुद्धिमोह से युक्त होकर धर्म में दोष देखते हैं, उनके पीछे चलने वाला मनुष्य भी कष्ट पाता है। जो शिष्ट हैं, वे सदा ही नियमित जीवन व्यतीत करते हैं, वेदों के स्वाध्याय में त्त्पर और त्यागी होते हैं। धर्म के मार्ग पर ही चलते हैं और सत्य धर्म को ही अपना परम आश्रय मानते हैं।
शिष्टाचारपरायण मनुष्य अपनी उत्तम बुद्धि को भी संयम में रखते हैं, गुरु के सिद्धांत के अनुसार चलते हैं और मर्यादा में स्थित होकर धर्म और अर्थ पर दृष्टि रखते हैं। इसलिये तुम नास्तिक, धर्म की मर्यादा भंग करने वाले, क्रूर तथा पापपूर्ण विचार रखने वाले पुरुषों का साथ छोड़ दो और ज्ञान का आश्रय लेकर धर्मात्मा पुरुषों की सेवा मे रहो। यह शरीर एक नदी है। पांच इन्द्रियां इसमें जल हैं। काम और लोभ रूपी मगर इसके भीतर भरे पड़े हैं। जन्म और मृत्यु के दुर्गम प्रदेश में यह नदी बह रही है। तुम धैर्य की नाव पर बैठो और इसके दुर्गम स्थानों-जन्म आदि क्लेशों को पार कर जाओ। जैसे कोई भी रंग सफेद कपड़े पर ही अच्छी तरह खिलता है, उसी प्रकार शिष्टाचार का पालन करने वाले पुरुष में ही क्रमश: संचित किया हुआ बुद्धियोगमय महान् धर्म भली-भाँति प्रकाशित होता है।
अहिंसा और सत्यभाषण-ये समस्त प्राणियों के लिये अत्यन्त हितकर हैं। अहिंसा सबसे महान् धर्म है, परंतु वह सत्य में ही प्रतिष्ठित है। सत्य के ही आधार पर श्रेष्ठ पुरुषों के सभी कार्य आरम्भ होते हैं। अत: शिष्ट पुरुषों के आचार में ग्रहीत सत्य ही सबसे अधिक गौरव की वस्तु है। सदाचार ही श्रेष्ठ पुरुषों का धर्म है। सदाचार से ही संतों की पहचान होती है। जिस जीव की जैसी प्रकृति होती है, वह अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करता है। अपने मन को वश मे न रखने वाला पापात्मा पुरुष ही काम, क्रोध आदि दोषों को प्राप्त होता है। 'जो आरम्भ न्याययुक्त हो, वही धर्म कहा गया है। इसके विपरीत जो अनाचार है, वह अधर्म है'– ऐसा शिष्ट पुरुषों का कथन है। जिनमें क्रोध का अभाव है, जो दूसरों के दोष नहीं देखते, जिनमें अहंकार और ईर्ष्या का अभाव है, जो सरल तथा मनोनिग्रह से सम्पन्न हैं, वे शिष्टिचारी कहलाते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 79-95 का हिन्दी अनुवाद)
जो तीनों वेदों के विद्वानों में श्रेष्ठ, पवित्र, सदाचारी, मनस्वी, गुरुसेवक और जितेन्द्रिय हैं, वे शिष्टाचारी कहे जाते हैं। जो सत्त्वगुण से सम्पन्न हैं, जिनके आचार और कर्म पापियों के लिये कठिन हैं तथा जो संसार में अपने सत्कर्मों के द्वारा सत्कृत हैं, उनके हिंसा आदि दोष स्वत: नष्ट हो जाते हैं। जिसका श्रेष्ठ पुरुषों ने पालन किया है, जो अनादि, सनातन और नित्य है, उस धर्म को धर्मदृष्टि से ही देखने वाले मनीषी पुरुष स्वर्गलोक में जाते हैं। जो आस्तिक, अहंकारशून्य, ब्राह्मणों का समादर करने वाले, विद्वान और सदाचार से सम्पन्न हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष स्वर्ग में निवास करते हैं। जिसका वेदों में वर्णन है, वह धर्म का पहला लक्षण है। धर्मशास्त्रों में जिसका प्रतिपादन किया गया है, वह धर्म का दूसरा लक्षण है और शिष्टाचार धर्म का तीसरा लक्षण है। इस प्रकार शिष्ट पुरुषों ने धर्म के तीन लक्षण स्वीकार किये हैं। सब विद्याओं का अध्ययन, सब तीर्थों में स्नान, क्षमा, सत्य, सरलता और शौच (पवित्रता) ये श्रेष्ठ पुरुषों के आचार को लक्षित कराने वाले हैं। जो समस्त प्राणियों पर दया करते, सदा अहिंसा-धर्म के पालन में तत्पर रहते और कभी किसी से कटु वचन नहीं बोलते, ऐसे संत सदा समस्त द्विजों के प्रिय होते हैं।
जो शुभ और अशुभ कर्मों के फलसंचय से सम्बन्ध रखने वाले परिणाम को जानते हैं, वे शिष्ट कहे गये हैं और शिष्ट पुरुषों में उनका समादर होता है। जो न्यायपरायण, सद्गुणसम्पन्न, सब लोगों का हित चाहने वाले, हिंसारहित और सन्मार्ग पर चलने वाले हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष स्वर्गलोक पर विजय पाते हैं। जो सबको दान देने वाले, अपने कुटुम्बीजनों में प्रत्येक वस्तु को समान रूप से बांटकर उसका उपयोग करने वाले, दीनजनों पर कृपाभाव बनाये रखने वाले, शास्त्रज्ञान के धनी, सबके लिये समादरणीय, तपस्वी और समस्त प्राणियों के प्रति दयालु हैं, वे श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा सम्मानित शिष्ट कहे गये हैं। जो दान से अवशिष्ट वस्तु का उपयोग करने वाले हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष इस लोक में सम्पत्ति और परलोक में सुखमय लोक प्राप्त करते हैं। शिष्ट पुरुषों के पास जब उत्तम पुरुष कुछ मांगने के लिये पधारते हैं, उस समय वे अपनी स्त्री तथा कुटुम्बीजनों को कष्ट देकर भी मनोयोगपूर्वक अपनी शक्ति से अधिक दान देते हैं।
न्यायपूर्वक लोकयात्रा का निर्वाह कैसे हो धर्म की रक्षा और आत्मा का कल्याण किस प्रकार हो, इन्हीं बातों की ओर उनकी दृष्टि रहती है। ऐसा बर्ताव करने वाले संत पुरुष अनन्त काल तक उन्नति की ओर अग्रसर होते रहते हैं। जो अहिंसा, सत्यभाषण, कोमलता, सरलता, अद्रोह, अहंकार का त्याग, लज्जा, क्षमा, शम, दम-इन गुणों से युक्त बुद्धिमान्, धैर्यवान्, समस्त प्राणियों पर अनुग्रह करने वाले तथा राग-द्वेष से रहित हैं, वे संत सम्पूर्ण लोकों के लिये प्रमाणभूत हैं। श्रेष्ठ पुरुष तीन ही पद बताते हैं-किसी से द्रोह न करे, दान करे और सदा सत्य ही बोले। यह श्रेष्ठ पुरुषों का सर्वोत्तम व्रत है। जो सर्वत्र दया करते हैं, जिनके हृदय में करुणा की अनुभूति होती है, वे श्रेष्ठ पुरुष इस लोक में अत्यन्त संतुष्ट रहकर धर्म के उत्तम पथ पर चलते हैं। जिन्होंने धर्म को अपनाये रखने का दृढ़ निश्चय कर लिया है, वे ही महात्मा सदाचारी हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 96-99 का हिन्दी अनुवाद)
दोषदृष्टि का अभाव, क्षमा, शान्ति, संतोष, प्रियभाषण और काम-क्रोध का त्याग, शिष्टाचार का सेवन और शास्त्र के अनुकूल कर्म करना-यह श्रेष्ठ पुरुषों का अति उत्तम मार्ग है।
द्विजश्रेष्ठ! जो धर्मात्मा पुरुष सदा शिष्टाचार का सेवन करते हैं और प्रज्ञारूपी प्रासाद पर आरुढ़ हो भाँति-भाँति के लोक चरित्रों का निरीक्षण तथा अत्यन्त पुण्य एवं पाप कर्मों की समीक्षा करते हैं, वे महान् भय से मुक्त हो जाते हैं।
ब्रह्मन! विप्रवर! इस प्रकार शिष्टाचार के गुणों के सम्बन्ध में मैंने जैसा जाना और सुना है, वह सब आपसे कह सुनाया है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में ब्राह्मणव्याध संवाद विषयक दौ सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ आठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर धर्म व्याध ने कौशिक ब्राह्मण से कहा,,
व्याध बोला ;- ‘मैं जो यह मांस बेचने का व्यवसाय कर रहा हूं, वास्तव में यह अत्यन्त घोर कर्म है, इसमें संशय नहीं है। किंतु ब्रह्मन्! दैव बलवान् है। पूर्वजन्म में किये हुए कर्म का ही नाम दैव है। उससे पार पाना बहुत कठिन है। यह जो कर्मदोषजनित व्याध के घर जन्म हुआ है, यह मेरे पूर्वज्न्म में किये हुए पाप का फल है। ब्रह्मन्! मैं इस दोष के निवारण के लिये प्रयत्नशील हूँ। क्योंकि विधाता के द्वारा पहले ही जीव की मृत्यु निश्चित की जाती है; किंतु घातक (कसाई अथवा व्याध) उसमें निमित्त बन जाता है अर्थात् जो स्वेच्छा से ज्ञानपूर्वक जीव हिंसा करता है, वह घातक व्यर्थ ही निमित्त बनकर दोष का भागी होता है। द्विजश्रेष्ठ! इस कार्य में हम निमित्त मात्र हैं।
ब्रह्मन्! मैं जिन मारे गये प्राणियों का मांस बेचता हूं, उनके जीते-जी यदि उनका सदुपयोग किया जाता तो बड़ा धर्म होता। मांस-भक्षण में तो धर्म का नाम भी नहीं है (उलटे महान् अधर्म होता है) देवता, अतिथि, भरणीय कुटुम्बीजन और पितरों का पूजन (आदर-सत्कार) अवश्य धर्म है। ओषधियां, अन्न, तृण, लता, पशु, मृग और पक्षी आदि सभी वस्तुएं सम्पूर्ण प्राणियों के अनादि काल से उपयोग में आती रहती हैं-ऐसी श्रुति भी सुनी जाती है। द्विजश्रेष्ठ! उशीनर के पुत्र क्षमाशील (और दयालु) राजा शिबि ने (एक भूखे बाज को कबूतर के बदले) अपने शरीर का मांस अर्पित कर दिया था और उसी के प्रसाद से उन्हें परम दुर्लभ स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई थी। विप्रवर! मैं अपना स्वधर्म समझकर यह धंधा नहीं छोड़ रहा हूँ। पहले से मेरे पूर्वज यही करते आये हैं, ऐसा समझकर मैं इसी कर्म से जीवन निर्वाह करता हूँ। ब्रह्मन्! अपने कर्म का परित्याग करने वाले यहाँ अधर्म की प्राप्ति देखी जाती है। जो अपने कर्म में तत्पर हैं, उसी का बर्ताव धर्मपूर्ण है, ऐसा सिद्धान्त है।
पहले का किया हुआ कर्म देहधारी मनुष्यों को नहीं छोड़ता है। बहुधा कर्म का निर्णय करते समय विधाता ने इसी विधि को अपने सामने रखा है। जो क्रूर कर्म में लगा हुआ है, उसे सदा यह सोचते रहना चाहिये कि ‘मैं शुभ कर्म करूँ और किस प्रकार इस निन्दित कर्म से छुटकारा पाऊं। बार-बार ऐसा करने से उस घोर कर्म से छूटने के विषय में कोई निश्चित उपाय प्राप्त हो जाता है। द्विजश्रेष्ठ! मैं दान, सत्यभाषण, गुरुसेवा, ब्राह्मण पूजन तथा धर्मपालन में सदा तत्पर रहकर अभिमान और अतिवाद से दूर रहता हूँ। कुछ लोग खेती को उत्तम मानते हैं, परंतु उसमें भी बहुत बड़ी हिंसा होती है। हल चलाने वाले मनुष्य धरती के भीतर शयन करने वाले बहुत-से प्राणियों की हत्या कर डालते हैं। इनके सिवा और भी बहुत-से जीवों का वध वे करते रहते हैं। इस विषय में आप क्या समझते हैं? द्विजश्रेष्ठ! धान आदि जितने अन्न के बीज हैं, वे सब-के-सब जीव ही हैं; अत: इस विषय में आप क्या समझते हैं?
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद)
‘विप्रवर! कितने ही मनुष्य पशुओं पर आक्रमण करके उन्हें मारते और खाते हैं। वृक्षों तथा ओषधियों (अन्न के पौधों) को काटते हैं। वृक्षों और फलों में भी बहुत-से जीव रहते हैं। जल में भी नाना प्रकार के जीव रहते हैं। ब्रह्मन्! उनके विषय में आप क्या समझते हैं। जीवों से ही जीवन-निर्वाह करने वाले जीवों द्वारा यह सारा जगत् व्याप्त है। मत्स्य मत्स्यों तक को अपना ग्रास बना लेते हैं। उनके विषय में आप क्या समझते हैं? द्विजश्रेष्ठ! बहुधा जीव जीवों से ही जीवन धारण करते हैं और प्राणी स्वयं ही एक-दूसरे को अपना आहार बना लेते हैं। उनके विषय में आप क्या समझते हैं? मनुष्य चलते-फिरते समय धरती के बहुत-से जीव-जन्तुओं को (असावधानीपूर्वक) पैरों से मार देते हैं। ब्रह्मन! उनके विषय में आप क्या समझते हैं?
ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न पुरुष भी (अनजाने में) बैठते-सोते समय अनेक जीवों की हिंसा कर बैठते हैं। उनके विषय में आप क्या समझते हैं? आकाश से लेकर पृथ्वी तक यह सारा जगत् जीवों से भरा हुआ है। कितने ही मनुष्य अनजाने में भी जीवहिंसा करते हैं। इस विषय में आप क्या समझते हैं? पूर्वकाल के अभिमानशून्य श्रेष्ठ पुरुषों ने अहिंसा का उपदेश किया है (उसका तत्व समझना चाहिये; क्योंकि) द्विजश्रेष्ठ! (स्थूल दृष्टि से देखा जाये तो) इस संसार में कौन जीवहिंसा नहीं करते हैं। बहुत सोच-विचार कर मैं इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि कोई भी (क्रियाशील मनुष्य) अहिंसक नहीं है। द्विजश्रेष्ठ! यति लोग अहिंसा-धर्म के पालन में तत्पर होते हैं, परंतु वे भी हिंसा कर ही डालते हैं (अर्थात् उनके द्वारा भी हिंसा हो ही जाती है)।
अवश्य ही यत्नपूर्वक चेष्टा करने से हिंसा की मात्रा बहुत कम हो सकती है। ब्रह्मन्! उत्तम कुल में उत्पन्न, परम सद्गुण सम्पन्न और श्रेष्ठ माने जाने वाले पुरुष भी अत्यन्त भयानक कर्म करके लज्जा का अनुभव करते ही हैं। मित्र दूसरे मित्रों को और शत्रु अपने शत्रुओं को, वे अच्छे कर्म में लगे हुए हों तो भी अच्छी दृष्टि से नहीं देखते। बन्धु-बान्धव अपने समृद्धिशाली बान्धवों से भी प्रसन्न नहीं रहते। अपने को पण्डित मानने वाले मूढ़ मनुष्य गुरुजनों की भी निन्दा करते हैं। द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार जगत् में अनेक उल्टी बातें दिखायी देती हैं। अधर्म भी धर्म से युक्त प्रतीत होता है। इस विषय में आप क्या समझते हैं? धर्म और अधर्म सम्बन्धी कार्यों के विषय में और भी बहुत-सी बातें कही जा सकती हैं। अत: जो अपने कुलोचित कर्म में लगा हुआ है, वही महान् यश का भागी होता है’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में पतिव्रतोपाख्यान के प्रसंग में ब्राह्मणव्याध संवाद विषयक दो सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ नौवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवाधिकद्विशततक अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल तथा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! तदनन्तर धर्मव्याध ने विप्रवर कौशिक से पुन: कुशलतापूर्वक कहना आरम्भ किया।
व्याध बोला ;- वृद्ध पुरुषों का कहना है कि ‘धर्म के विषय में केवल वेद ही प्रमाण है।' यह ठीक है, तो भी धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। उसके अनन्त भेद और अनेक शाखाएं हैं। (वेद के अनुसार सत्य धर्म और असत्य अधर्म है, परंतु) यदि किसी के प्राणों पर संकट आ जाये अथवा कन्या आदि का विवाह तै करना हो तो ऐसे अवसरों पर प्राणरक्षा आदि के लिये झूठ बोलने की आवश्यकता पड़ जाये, तो वहाँ असत्य से ही सत्य का फल मिलता है। इसके विपरीत (यदि सत्यभाषण से किसी के प्राणों पर संकट आ गया, तो वहां) सत्य से ही असत्य का फल मिलता है, जिससे परिणाम में प्राणियों का अत्यन्त हित होता हो, वह वास्तव में सत्य है। इसके विपरीत जिससे किसी का अहित होता हो या दूसरों के प्राण जाते हों, वह देखने में सत्य होने पर भी वास्तव में असत्य एवं अधर्म है। इस प्रकार विचार करके देखिये, धर्म की गति कितनी सूक्ष्म है।
सज्जनशिरोमणे! मनुष्य जो शुभ या अशुभ कार्य करता है, उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है, इसमें संशय नहीं है। मूर्ख मानव संकट की दशा में पड़ने पर देवताओं को बहुत कोसता है, उनकी भरपेट निन्दा करता है; किंतु वह यह नहीं समझता कि यह अपने ही कर्मों के दोष का परिणाम है। द्विजश्रेष्ठ! मूर्ख, शठ और चंचल चित्त वाला मनुष्य सदा ही भ्रमवंश सुख में दु:ख और दु:ख में सुख बुद्धि कर लेता है। उस समय बुद्धि, उत्तम नीति (शिक्षा) तथा पुरुषार्थ भी उसकी रक्षा नहीं कर पाते। यदि पुरुषार्थजनित कर्म का फल पराधीन न होता, तो जिसकी जो इच्छा होती, उसी को वह प्राप्त कर लेता। किंतु बड़े-बड़े संयमी, कार्यकुशल और बुद्धिमान मनुष्य भी अपना काम करते-करते थक जाते हैं, तो भी वे इच्छानुसार फल की प्राप्ति से वंचित ही देखे जाते हैं तथा दूसरा मनुष्य, जो निरन्तर जीवों की हिंसा के लिये उद्यत रहता है और सदा लोगों को ठगने में ही लगा रहता है, वह सुखपूर्वक जीवन बिताता देखा जाता है।
कोई बिना उद्योग किये चुपचाप बैठा रहता है और लक्ष्मी उसकी सेवा में उपस्थित हो जाती है और कोई सदा काम करते रहने पर भी अपने उचित वेतन से भी वंचित रह जाता है (ऐसा देखा जाता है)। कितने ही दीन मनुष्य पुत्र की कामना रखकर देवताओं को पूजते और कठिन तपस्या करते हैं, तो भी उनके द्वारा गर्भ में स्थापित तथा दस मास तक माता के उदर में पालित होकर जो पुत्र पैदा होते हैं, वे कुलांगार निकल जाते हैं और दूसरे बहुत-से ऐसे भी हैं, जो अपने पिता के द्वारा जोड़कर रखे हुए धन-धान्य तथा भोग-विलास के प्रचुर साधनों के साथ पैदा होते हैं और उनकी प्राप्ति भी उन्हीं मांगलिक कृत्यों के अनुष्ठान से होती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवाधिकद्विशततक अध्याय के श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद)
इसमें संदेह नहीं कि मनुष्यों के जो रोग होते हैं, वे उनके कर्मों के ही फल हैं। जैसे बहेलिये छोटे मृगों को पीड़ा देते हैं, उसी प्रकार वे रोग और आधि-व्याधियाँ जीवों को पीड़ा देती रहती हैं। ब्रह्मन्! (उनका भोग पूरा होने पर) ओषधियों का संग्रह करने वाले चिकित्साकुशल चतुर चिकित्सक उन रोग-व्याधियों का उसी प्रकार निवारण कर देते हैं, जैसे व्याध मृगों को भगा देते हैं। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ कौशिक! देखो, जिनके यहाँ भोजन का भण्डार भरा पड़ा है, उन्हें प्राय: संग्रहणी सता रही है, वे उसका उपभोग नहीं कर पाते है। विप्रवर! दूसरे बहुत-से ऐसे मनुष्य हैं, जिनकी भुजाओं में बल है-जो स्वस्थ और अन्न को पचाने में समर्थ हैं, परंतु उन्हें बड़ी कठिनाई से भोजन मिल पाता है-वे सदा ही अन्न का कष्ट भोगते रहते हैं। इस प्रकार यह संसार असहाय तथा मोह, शोक में डूबा हुआ है। कर्मों के अत्यन्त प्रबल प्रवाह में पड़कर बार-बार उसकी आधि-व्याधिरूपी तरंगों के थपेड़े सहता और विवश होकर इधर-से-उधर बहता रहता है।
यदि जीव अपने वश में होते तो वे न मरते और न बूढ़े ही होते। सभी सब तरह की मनचाही वस्तुओं को प्राप्त कर लेते। किसी को अप्रिय घटना नहीं देखनी पड़ती। सब लोग सारे जगत् के ऊपर-ऊपर जाने की इच्छा रखते हैं-सभी सबसे ऊंचा होना चाहते हैं और उसके लिये वे यथाशक्ति प्रयत्न भी करते हैं, पंरतु (सभी जगह) वैसा होता नहीं है। बहुत-से ऐसे मनुष्य देखे जाते हैं, जिनका जन्म एक ही नक्षत्र में हुआ है और जिनके लिए मंगल कृत्य भी समान रूप से ही किये गये हैं, परंतु विभिन्न प्रकार के कर्मों का संग्रह होने के कारण उन्हें प्राप्त होने वाले फल में महान् अन्तर दृष्टिगोचर होता है। ब्रह्मन्! साधुशिरोमणे! कोई अपने हाथ में आयी हुई वस्तु का भी उपयोग करने में समर्थ नहीं है। इस जगत् में पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों के ही फल की प्राप्ति देखी जाती है। विप्रवर! श्रुति के अनुसार यह जीवात्मा निश्चय ही सनातन है और संसार में समस्त प्राणियों का शरीर नश्वर है। शरीर पर आघात करने से उस शरीर का नाश तो हो जाता है; किंतु अविनाशी जीव नहीं मरता। वह कर्मों के बन्धन में बंधकर फिर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है।
ब्राह्मण ने पूछा ;- धर्मज्ञों तथा वक्ताओं में श्रेष्ठ व्याध! जीव सनातन कैसे है? मैं इस विषय को यथार्थ रूप से जानना चाहता हूँ।
धर्मव्याध ने कहा ;- ब्रह्मन्! देह का नाश होने पर जीव का नाश नहीं होता। मनुष्यों का यह कथन कि ‘जीव मरता है’ मिथ्या ही है, किंतु जीव तो इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में चला जाता है। शरीर के पांचों तत्वों का पृथक-पृथक पांच भूतों में मिल जाना ही उसका नाश कहलाता है। इस मानव लोक में मनुष्य के किये हुए कर्म को (उस कर्ता के सिवा) दूसरा कोई नहीं भोगता है। उसके द्वारा जो कुछ भी कर्म किया गया है, उसे वह स्वयं ही भोगेगा। किये हुए कर्मों का कभी नाश नहीं होता। पुण्यात्मा मनुष्य पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करते हैं और नीच मनुष्य पाप में प्रवृत्त होते हैं। यहाँ अपने किये हुए कर्म मनुष्य का अनुसरण करते हैं और उनसे प्रभावित होकर वह दूसरा जन्म धारण करता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवाधिकद्विशततक अध्याय के श्लोक 29-42 का हिन्दी अनुवाद)
ब्राह्मण ने पूछा ;- सत्पुरुषों में श्रेष्ठ! जीव दूसरी योनि में कैसे जन्म लेता है, पाप और पुण्य से उसका सम्बन्ध किस प्रकार होता है तथा उसे पुण्ययोनि और पापयोनि की प्राप्ति कैसे होती है?
व्याध ने कहा ;- विप्रवर! गर्भाधान आदि संस्कारसम्बन्धी ग्रन्थों द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है 'कि यह जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है, सब कर्मों का ही परिणाम है। अत: किस कर्म से कहाँ जन्म होता है? इस विषय में तुमसे संक्षिप्त वर्णन करता हूँ, सुनो। जीव कर्मबीजों का संग्रह करके जिस प्रकार पुन: जन्म ग्रहण करता है, वह बताया जा रहा है। शुभ कर्म करने वाला मनुष्य शुभ योनियों में और पाप कर्म करने वाला पाप योनियों में जन्म लेता है। शुभकर्मों के संयोग से जीव को देवत्व की प्राप्ति होती है। शुभ और अशुभ दोनों के सम्मिश्रण से उसका मनुष्य योनि में जन्म होता है। मोह में डालने वाले तामस कर्मों के आचरण से जीव पशु, पक्षी आदि की योनि में जन्म ग्रहण करता है और जिसने केवल पाप का ही संचय किया है, वह नरकगामी होता है।
मनुष्य अपने ही किये हुए अपराधों के कारण जन्म-मृत्यु और जरा सम्बन्धी दु:खों से सदा पीड़ित हो बारंबार संसार में पचता रहता है। कर्मबन्धन में बंधे हुए (पापी) जीव सहस्रों प्रकार की तिर्यक् योनियों तथा नरकों में चक्कर लगाया करते हैं। प्रत्येक जीव अपने किये हुए कर्मों से ही मृत्यु के पश्चात् दु:ख भोगता है और उस दु:ख का भोग करने के लिये ही वह (चाण्डालादि) पापयोनि में जन्म लेता है। वहाँ फिर नये-नये बहुत-से पापकर्म कर डालता है, जिसके कारण कुपथ्य खा लेने वाले रोगी की भाँति उसे नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। इस प्रकार वह यद्यपि निरन्तर दु:ख ही भोगता रहता है, तथापि अपने को दु:खी नहीं मानता। इस दु:ख को ही वह सुख की संज्ञा दे देता है। जब तक बन्धन में डालने वाले कर्मों का भोग पूरा नहीं होता और नये-नये कर्म बनते रहते हैं, तब तक अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करता हुआ वह चक्र की तरह इस संसार में चक्कर लगाता रहता है।
द्विजश्रेष्ठ! जब बन्धनकारक कर्मों का भोग पूरा हो जाता है और सत्कर्मों के द्वारा मनुष्य में शुद्धि आ जाती है, तब वह तप और योग का आरम्भ करता है। अत: बहुत-से शुभकर्मों के फलस्वरूप उसे उत्तम लोकों का भोग प्राप्त होता है। इस प्रकार बन्धनरहित तथा शुद्ध हुआ मनुष्य अपने पुण्य कर्मों के प्रभाव से पुण्यलोक प्राप्त करता है, जहाँ जाकर कोई भी शोक नहीं करता है। पाप करने वाले मनुष्यों को पाप की आदत हो जाती है, फिर उसके पाप का अन्त नहीं होता; अत: मनुष्यों को चाहिये कि वह पुण्य कर्म करने का प्रयत्न करें और पाप को सर्वथा त्याग दें। पुण्यात्मा मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और कृतज्ञ होकर कल्याणकारी कर्मों का सेवन करता है तथा उसे सुख, धर्म, अर्थ एवं स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवाधिकद्विशततक अध्याय के श्लोक 43-56 का हिन्दी अनुवाद)
जो संस्कारसम्पन्न, जितेन्द्रिय, शौचाचारपरायण और मन को काबू में रखने वाला है, उस बुद्धिमान पुरुष को इहलोक और परलोक में भी सुख की प्राप्ति होती है। ब्रह्मन्! अत: मनुष्य को चाहिये कि वह सतौरुषों के धर्म का पालन करे, शिष्ट पुरुषों के समान बर्ताव करे और जगत् में किसी भी प्राणी को कष्ट दिये बिना जिससे जीवन-निर्वाह हो सके, ऐसी आजीविका प्राप्त करने की इच्छा करे। संसार में बहुत-से वेदवेत्ता और शास्त्र-विचक्षण शिष्ट पुरुष विद्यमान हैं: उनके उपदेश के अनुसार स्वधर्म के पालनपूर्वक प्रत्येक कार्य करना चाहिये, इससे कर्मों का संकर नहीं हो पाता।
द्विजश्रेष्ठ! बुद्धिमान पुरुष धर्म से ही आनन्द मानता है, धर्म का ही आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करता है और धर्म से धर्म का ही आश्रय लेकर जीवन-नर्वाह करता है और धर्म से ही उपलब्ध किये हुए धन से धन का ही मूल सींचता है अर्थात् धर्म का पालन करता है। वह धर्म में ही गुण देखता है। इस प्रकार वह धर्मात्मा होता है, उसका अन्त:करण निर्मल हो जाता है तथा मित्रजनों से संतुष्ट होकर वह इहलोक और परलोक में भी आनन्दित होता है। सज्जनशिरोमणे! धर्मात्मा पुरुष श्ब्द, स्पर्श, रूप और प्रिय गन्ध-सभी प्रकार के विषय तथा प्रभुत्व भी प्राप्त करता है। उसकी यह स्थिति धर्म का ही फल मानी गयी है।
द्विजोत्तम! कोई-कोई धर्म के फलरूप से सांसारिक सुख को पाकर संतुष्ट नहीं होता। वह ज्ञानदृष्टि के कारण विषयभोग के सुख पाकर संतुष्ट नहीं होता। वह ज्ञानदृष्टि के कारण विषयभोग के सुख से तुप्ति-लाभ न करके निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त होता है। इस जगत् में ज्ञानदृष्टि से सम्पन्न पुरुष राग-द्वेष आदि दोषों का अनुसरण नहीं करता। उसे यथेष्ट वैराग्य होता है तथा वह कभी धर्म का त्याग नहीं करता है। सम्पूर्ण जगत् को नश्वर समझकर वह सबको त्यागने का प्रयत्न करता है। तत्पचात् उचित उपाय से मोक्ष के लिये सचेष्ट होता है। अनुपाय (प्रारब्ध आदि) का अवलम्बन करके बैठ नहीं रहता। इस प्रकार वह वैराग्य को अपनाता और पाप कर्म को छोड़ता जाता है। फिर सर्वथा धर्मात्मा हो जाता और अन्त में परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जीव के कल्याण का साधन है तप और उसका मूल है शम (मनोनिग्रह) तथा दम (इन्द्रियसंयम)।
मनुष्य मन के द्वारा जिन-जिन अभीष्ट पदार्थों को पाना चाहता है, उन सबको वह उस तप के द्वारा प्राप्त कर लेता है। द्विजश्रेष्ठ! इन्द्रियसंयम, सत्यभाषण और मनोनिग्रह-इनके द्वारा मनुष्य ब्रह्म के परम पद को प्राप्त कर लेता है।
ब्राह्मण ने पूछा ;- उत्तम व्रत का पालन करने वाले व्याध! जिन्हें इन्द्रिय कहते हैं, वे कौन-कौन हैं? उनका निग्रह कैसे करना चाहिये? और उस निग्रह का फल क्या है? धर्मात्माओं में श्रेष्ठ व्याध! उन इन्द्रियों के निग्रह का फल कैसे प्राप्त होता है? मैं इस इन्द्रिय-निग्रहरूपी धर्म को यथार्थ रूप से जानना चाहता हूँ। तुम मुझे समझाओ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में ब्राह्मणव्याध संवाद विषयक दो सौ नौवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ दसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) दशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"विषयसेवन से हानि, सत्संग से लाभ और ब्राह्मी विद्या का वर्णन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजा युधिष्ठिर! ब्राह्मण के इस प्रकार पूछने पर धर्मव्याध ने उसे जैसा उत्तर दिया था, वह सब सुनाता हूं, सुनो।
धर्मव्याध ने कहा ;- द्विजश्रेष्ठ! इन्द्रियों द्वारा किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करने के लिये सबसे पहले मनुष्यों का मन प्रवृत्त होता है। उस विषय को प्राप्त कर लेने पर मन का उसके प्रति राग या द्वेष हो जाता है। जब किसी विषय में राग होता है, तब मनुष्य उसे पाने के लिये प्रयत्नशील होता है और उसके लिये बड़े-बड़े कार्यों का आरम्भ करता है। जब वे अभीष्ट रूप, गन्ध आदि विषय प्राप्त हो जाते हैं, तब वह उनका बारंबार सेवन करता है। उनके सेवन से विषयों के प्रति उत्कट राग प्रकट होता है। फिर उसकी प्रतिकूलता में द्वेष होता है; अनन्तर अभीष्ट वस्तु के प्रति लोभ का प्रादुर्भाव होता है। तत्पचात् बुद्धि पर मोह छा जाता है। इस प्रकार लोभ से आक्रान्त और राग-द्वेष से पीड़ित मनुष्य की बुद्धि धर्म में नहीं लगती। यदि वह धर्म करता भी है, तो कोई बहाना लेकर।
जो किसी बहाने से धर्माचरण करता है, वह वास्तव में धर्म की आड़ लेकर धन चाहता है। द्विजश्रेष्ठ! जब धर्म के बहाने से धन की प्राप्ति होने लगती है, तब उसकी बुद्धि उसी में रम जाती है और उसके मन में पाप की इच्छा जाग उठती है। विप्रवर! जब उसे हितैषी मित्र तथा विद्वान पुरुष ऐसा करने से रोकते हैं, तब वह उसके समर्थन में अशास्त्रीय उत्तर देते हुए भी उसे वेद प्रतिपादित बताता है। राग रूपी दोष के कारण उसके द्वारा तीन प्रकार के अधर्म होने लगते हैं-
- वह मन से पाप का चिन्तन करता है।
- वाणी से पाप की बात बोलता है।
- क्रिया द्वारा भी पाप का ही आचरण करता है।
इस प्रकार अधर्म में लग जाने पर उसके सभी अच्छे गुण नष्ट हो जाते हैं। वह अपने ही जैसे स्वभाव वाले पाप-परायण मनुष्यों से मित्रता स्थापित कर लेता है। उस पाप से इस लोक में तो दु:ख होता ही है, परलोक में भी उसे बड़ी विपत्ति भोगनी पड़ती है। इस प्रकार मनुष्य पापात्मा हो जाता है। अब धर्म की प्राप्ति कैसे होती है, इसको मुझसे सुनो। जो दु:ख और सुख की विवेचना में कुशल है, वह अपनी बुद्धि से इन विषयसम्बन्धी दोषों को पहले ही समझ लेता है। अत: उनसे दूर हटकर श्रेष्ठ पुरुषों का संग करता है और उस श्रेष्ठ संग से उसकी बुद्धि धर्म में लग जाती है।
ब्राह्मण बोला ;- धर्मव्याध! तुम धर्म के विषय में बड़ी मधुर और प्रिय बातें कह रहे हो। इन बातों को बताने वाला दूसरा कोई नहीं है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम कोई दिव्य प्रभाव से सम्पन्न महान् ऋषि ही हो।
धर्मव्याध ने कहा ;- ब्रह्मन्! महाभाग ब्राह्मण और पितर ये सदा प्रथम भोजन के अधिकारी माने गये हैं। अत: बुद्धिमान पुरुष को इस लोक में सब प्रकार से उनका प्रिय करना चाहिये।
(सम्पूर्ण सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) दशाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 15-21 का हिन्दी अनुवाद)
विप्रवर! उन ब्राह्मणों को नमस्कार करके उनके लिये जो प्रिय वस्तु है, उसका वर्णन करता हूँ। तुम मुझसे ब्राह्मी विद्या श्रवण करो। पंचमहाभूतों से बना हुआ यह सम्पूर्ण चराचर जगत् तब प्रकार से अजेय ब्रह्मस्वरूप है। ब्रह्म से उत्कृष्ट दूसरी कोई वस्तु नहीं है।
आकाश, वायु, अग्रि, जल तथा पृथ्वी- ये पांच महाभूत हैं तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध -ये क्रमश: उनके विशेष गुण हैं। उन शब्द आदि गुणों के भी अनेक गुण-भेद हैं, क्योंकि इन गुणों का परस्पर संक्रमण भी देखा जाता है। पहले-पहले के सभी गुण क्रमश: बाद वाले तीन गुणवान् भूतों (अग्रि, जल और पृथ्वी) मैं उपलब्ध होते हैं अर्थात् अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप; जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रस तथा पृथ्वी में शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध पाये जाते हैं।
इन पांच भूतों के अतिरिक्त छठा तत्व है चित्त, इसी को मन कहते हैं। सातवां तत्व बुद्धि है और उसके बाद आठवां अहंकार है। इनके सिवा पांच ज्ञानेन्द्रियां, प्राण और सत्व, रज, तम-इन सत्रह तत्वों का समूह अव्यक्त कहलाता है।
पांच ज्ञानेन्द्रियां तथा मन और बुद्धि के जो व्यक्त और अव्यक्त विषय हैं, जो बुद्विरूपी गुहा में छिपे रहते हैं, उन्हें सम्मिलित करने से चौबीस तत्व होते हैं। इन तत्वों का समुदाय ही व्यक्त और अव्यक्त रूप गुण है। (यह सब-का-सब ब्रह्मस्वरूप है।)
ब्राह्मण! इस प्रकार ये सब बातें मैंने तुम्हें बतायी हैं, अब और क्या सुनना चाहते हो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में ब्राह्मण माहात्म्य विषयक दो सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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