सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) के सोलहवें अध्याय से बीसवें अध्याय तक (From the 16 chapter to the 20 chapter of the entire Mahabharata (Virat Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (कीचकवध पर्व)

सोलहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“कीचक द्वारा द्रौपदी का अपमान”

     कीचक ने कहा ;- सुन्दर अलकों वाली सैरन्ध्री! तुम्हारा स्वागत है। आज की रात का प्रभात मेरे लिये बड़ा मंगलमय है। अब तुम मेरी स्वामिनी होकर मेरा प्रिय कार्य करो। मैं दासियों को आज्ञा देता हूँ; वे तुम्हारे लिये सोने के हार, शंख की चूड़ियाँ, विभिन्न नगरों में बने हुए शुभ्र सुवर्णमय कर्णफूल के जोड़े, सुन्दर मणि-रत्नमय आभूषण, रेशमी साड़ियाँ तथा मृगचर्म आदि ले आवें।

    द्रौपदी बोली ;- दुर्बुद्धे! जैसे निषाद ब्राह्मणी का स्पर्श नहीं कर सकता, उसी प्रकार तुम भी मुझे छू नहीं सकते। तुम मेरा तिरस्कार करके भारी से भारी दुर्गति में न पड़ो। उस दुरवस्था में न जाओ, जहाँ धर्म मर्यादा का छेदन करने वाले बहुत-से परस्त्रीगामी मनुष्य बिल में सोने वाले कीड़ों की भाँति जाया करते हैं। राजकुमारी सुदेष्णा ने मुझे मदिरा लाने के लिये तुम्हारे पास भेजा है। 

     उनका कहना है ;- ‘मुझे बड़े जोर की प्यास लगी है; अतः शीघ्र मेरे लिये पीने योग्य रस ले आओ’।

     कीचक ने कहा ;- कल्याणी! राजपुत्री सुदेष्णा की मँगायी हुई वस्तु दूसरी दासियाँ पहुँचा देंगी। ऐसा कहकर सूतपुत्र ने द्रौपदी का दाहिना हाथ पकड़ लिया।

    द्रौपदी बोली ;- ओ पापी! यदि मैंने आज तक कभी मन से भी अभिमानवश अपने पतियों के विरुद्ध आचरण न किया हो, तो इस सत्य के प्रभाव से मैं देखूँगी कि तू शत्रु के अधीन होकर पृथ्वी पर घसीटा जा रहा है।

     वैयाम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! बड़े-बड़े नेत्रों वाली द्रौपदी को इस प्रकार फटकारती देख कीचक ने उसे पकड़ लेने की इच्छा की; किन्तु वह सहसा झटका देकर पीछे की ओर हटने लगी; इतने में ही झपटकर कीचक ने उसके दुपट्टे का छोर पकड़ लिया। अब वह बड़े वेग से उसे काबू में लाने का प्रयत्न करने लगा। इधर राजकुमारी द्रौपदी बारंबार लंबी साँसें भरती हुई उससे छूटने का प्रयत्न करने लगी। उसने सँभलकर दोनों हाथों से कीचक को बड़े जोर का धक्का दिया, जिससे वह पापी जड़-मूल से कटे हुए वृक्ष की भाँति (धम्म से) जमीन पर जा गिरा। इस प्रकार पकड़ में आने पर कीचक को धरती पर गिराकर भय से काँपती हुई द्रौपदी ने भागकर उस राजसभा की शरण ली, जहाँ राजा युधिष्ठिर विद्यमान थे। कीचक ने भी उठकर भागती हुई द्रौपदी का पीछा किया और उसका केशपाश पकड़ लिया। फिर उसने राजा के देखते-देखते उसे पृथ्वी पर गिराकर लात मारी।

 भारत! इतने में ही भगवान सूर्य ने जिस राक्षस को द्रौपदी की रक्षा के लिये नियुक्त कर रक्खा था, उसने कीचक को पकड़कर आँधी के समान वेग से दूर फेंक दिया। राक्षस द्वारा बलपूर्वक आहत होकर कीचक के सारे शरीर में चक्कर आ गया और वह जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति निष्चेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सभा में महामना राजा विराट के तथा वृद्ध ब्राह्मणों और क्षत्रियों के देखते-देखते कीचक के पादप्रहार से पीड़ित हुई द्रौपदी के मुँह से रक्त बहने लगा। उसे उस अवस्था में देखकर समस्त सभासद् सब ओर से हाहाकार कर उठे और सब लोक कहने लगे,

     सभासद बोले ;- ‘सूतपुत्र कीचक! तुम्हारा यह कार्य उचित नहीं है। यह बेचारी अबला अपने बन्धु-बान्धवों से रहित है। इसे क्यों पीड़ा दे रहे हो?’ उस समय भीमसेन और युधिष्ठिर भी राजसभा में बैठे हुए थे। उन्होंने कीचक के द्वारा द्रौपदी का यह अपमान अपनी आँखों देखा; जिसे वे सहन न कर सके।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 14-20 का हिन्दी अनुवाद)

    महामना भीमसेन दुरात्मा कीचक को मार डालने की इच्छा से उस समय रोषवश दाँतों से दाँत पीसने लगे। उनकी आँखों की पलकें ऊपर उठकर तन गयीं। उनमें धूआँ सा छा गया, ललाट में पसीना निकल आया और भौंहें टेढ़ी होकर भयंकर प्रतीत होने लगीं।

    शत्रुहन्ता भीम हाथ से माथे का पसीना पोंछने लगे। फिर तुरंत ही प्रचण्ड कोप में भर गये और सहसा उठने की इच्छा करने लगे। तब राजा युधिष्ठिर ने रहस्य प्रकट हो जाने के डर से अपने अंगूठे से भीम का अंगूठा दबाया और इस प्रकार उन्हें उत्तेजित होने से रोका। भीमसेन मतवाले गजराज की भाँति एक वृक्ष की ओर देख रहे थे। तब युधिष्ठिर ने उन्हें रोकते हुए कहा,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘बल्लव! क्या तुम ईंधन के लिये वृक्ष की ओर देखते हो? यदि रसोई के लिये सूखी लकड़ी चाहिये, तो बाहर जाकर वृक्ष से ले लो। जिस हरे-भरे वृक्ष की शीतल छाया का आश्रय लेकर रहा जाये, उसके किसी एक पत्ते से भी द्रोह नहीं करना चाहिये। उसके पहले उपकारों को सदा याद रखकर उसकी रक्षा करनी चाहिये’।

    तब भाई के संकेत को समझने वाले भीमसेन उस समय चुप हो गये। भीम के उस क्रोध को तथा राजा युधिष्ठिर की शान्तिपूर्ण चेष्टा को देखकर द्रौपदी अधिक क्रुद्ध हो उठी। कीचक के पीछा करने से कृष्णा की आँखें रोष से लाल हो रही थीं। वह खीज से बार-बार रोने लगी।

    इधर सुन्दर कटिप्रान्त वाली द्रौपदी राजसभा के द्वार पर आकर अपने दीन हृदय वाले पतियों की ओर देखती हुई मत्स्य नरेश से बोली।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 21-22 का हिन्दी अनुवाद)

     उस समय वह प्रतिज्ञारूप धर्म से आबद्ध होने के कारण अपने स्वरूप को छिपा रही थी; किन्तु उसके नेत्र मानो जला रहे हों, इस प्रकार भयंकर हो उठे थे। 

     द्रौपदी ने कहा ;- जो स्वभाव से ही प्रजाजनों की रक्षा में लगे हुए हैं, सदा धर्म और सत्य के मार्ग में स्थित हैं तथा प्रजा और अपनी संतान में कोई अन्तर नहीं समझते, उन अमित तेजस्वी राजाओं को चाहिये कि वे सदा आश्रितों का पालन एवं संरक्षण करें। जो प्रियजनों तथा द्वेषपात्रों में भी समान भाव रखते हैं, प्रजाजनों में विवाद आरम्भ होने पर जो राजा धर्मासन पर बैठकर समानभाव से प्रत्येक कार्य पर विचार करते हैं, वे दोनों लोकों को जीत लेते हैं। राजन्! आप धर्म के आसन पर बैठे हैं। मुझ निरपराध अबला की रक्षा कीजिये। महाराज! मैंने कोई अपराध नहीं किया है, तो भी दुरात्मा कीचक ने आपके देखते-देखते मुझको लात मारी है; मेरे साथ (खरीदे हुए) दास का सा बर्ताव किया है।

     मत्स्यराज! जैसे पिता अपने औरस पुत्रों की रक्षा करता है, उसी प्रकार आप अपने प्रजाजनों का संरक्षण कीजिये। जो मोह में डूबा हुआ राजा अधर्मयुक्त कार्य करता है, उस दुरात्मा को उसके शत्रु शीघ्र ही वश में कर लेते हैं। आप मत्स्यकुल में उत्पन्न हुए हैं। सत्य ही मत्स्यनरेशों का महान् आश्रय रहा है। आप ही इस धर्मपरायण कुल में ऐसे ही धर्मात्मा पैदा हुए हैं। अतः नरेश! मैं आपसे शरण देने के लिये रुदन करती हूँ। राजेन्द्र! आज मुझे इस पापी कीचक से बचाइये। पुरुषाधम कीचक यहाँ मुझे असहाय जानकर मार रहा है। यह नीच अपने धर्म की ओर नहीं देखता है। जो भूमिपाल न करने योग्य कार्यों का आरम्भ नहीं करते, करने योग्य कर्तव्यों का निरन्तर पालन करते हैं और सदा प्रजा के साथ उत्तम बर्ताव करते हैं, वे स्वर्गलोक में जाते हैं। परंतु राजन्! जो राजा कर्तव्य और अकर्तव्य के अन्तर को जानते हुए भी स्वेच्छाचारितावश प्रजावर्ग के साथ पापाचार करते हैं, वे अधोमुख हो नरक में जाते हैं। राजा लोग यज्ञ, दान अथवा गुरुसेवा से भी वैसा धर्म (पुण्य) नहीं पाते है, जैसा कि अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक पालन करने से प्राप्त करते हैं।

    पूर्वकाल में सृष्टि की रचना के समय ब्रह्माजी ने क्रिया करने और न करने की स्थिति में पुण्य ओर पाप की प्राप्ति के विषय में इस प्रकार कहा था,

    ब्रह्मा जी ने कहा था ;- ‘मनुष्यो! तुम लोगों को इस पृथ्वीलोक मेें द्वन्द्वरूप में प्राप्त धर्म और अधर्म के विषय में भली-भाँति समझकर कर्म करना चाहिये; क्योंकि अच्छी या बुरी जैसी नीयत से काम किया जाता है, वैसा ही कर्मजनित फल मिलता है। कल्याणकारी मनुष्य कल्याण का और पापाचारी पुरुष पाप के फलस्वरूप दुःख का भागी होता है। जो इनके संसर्ग में आता है, वह भी (कर्मानुसार) स्वर्ग या नरक में जाता है। मनुष्य मोहपूर्वक सत्कर्म या दुष्कर्म करके मृत्यु के बाद भी मन-ही-मन पश्चाताप करता रहता है’। इस प्रकार उत्तम वचन कहकर ब्रह्माजी ने इन्द्र को विदा कर दिया। इन्द्र भी ब्रह्माजी से पूछकर देवलोक में आये और देवसाम्राज्य का पालन करने लगे। राजेन्द्र! देवाधिदेव परमेष्ठी ब्रह्माजी ने जैसा उपदेश दिया है, उसके अनुसार आप भी कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्णय में दृढ़तापूर्वक लगे रहिये।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! पांचालराजकुमारी द्रौपदी के इस प्रकार विलाप करने पर भी मत्स्यराज विराट बलाभिमानी कीचक पर शासन करने में असमर्थ ही रहे। उन्होंने शान्तिपूर्वक समझा-बुझाकर ही सूत को वैसा करने से मना किया। यद्यपि कीचक ने भारी अपराध किया था, तो भी मत्स्यराज ने उसे अपराध के अनुसार दण्ड नहीं दिया; यह देख देवकन्या के समान सुन्दरी एवं व्यवहार धर्म को जानने वाली साध्वी द्रौपदी उत्तम धर्म का स्मरण करती हुई राजा विराट तथा समस्त सभासदों की ओर देखकर दु:खी हृदय से इस प्रकार बोली,

     द्रोपदी बोली ;- ‘जिन मेरे पतियों के वैरी को पाँच देशों को पार करके छठे देश में रहने पर भी भय के मारे नींद नहीं आती, आज उन्हीं की मानिनी पत्नी मुझ असहाय अबला को एक सूतपुत्र ने लात से मारा है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 23-36 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘जो सदा दूसरों को देते हैं, किन्तु किसी से याचना नहीं करते, जो ब्राह्मण भक्त तथा सत्यवादी हैं, उन्हीं की मुझ मानिनी पत्नी को सूतपुत्र ने लात मारी है। जिनके धनुष की टंकार सदा देव-दुन्दुभियों की गम्भीर ध्वनि के समान सुनायी पड़ती है, उन्हीं की मुझ मानिनी पत्नी को सूतपुत्र ने लात से मारा है। जो तपस्वी, जितेन्द्रिय, बलवान् और अत्यन्त मानी हैं, उन्हीं की मुझ मानिनी पत्नी पर सूतपुत्र ने पैर से आघात किया है। मेरे पति इस सम्पूर्ण संसार को मार सकते हैं; किंतु वे धर्म के बन्धन में बँधे हैं, इसी से आज उनकी मुझ मानिनी पत्नी पर सूतपुत्र ने पैर से प्रहार किया। जो शरण चाहने वाले अथवा शरण में आये हुए सब लोगों को शरण देते हैं, वे मेरे महारथी पति अपने स्वरूप को छिपाकर आज जगत् में कहाँ विचर रहे हैं?

    जो अमित तेजस्वी और बलवान् हैं, वे (मेरे पति) एक सूतपुत्र द्वारा मारी जाती हुई अपनी सती-साध्वी प्रिय पत्नी का अपमान कायरों और नपुंसकों की भाँति कैसे सहन कर रहे हैं? आज उनका अमर्ष, पराक्रम और तेज कहाँ है , जो एक दुराचारी की मार खाती हुई अपनी पत्नी की रक्षा नहीं करते हैं। यहाँ का राजा विराट भी धर्म को कलंकित करने वाला है; जो मुझ निरपराध अबला को अपने सामने मार खाती देखकर भी सहन किये जाता है। भला, इसके रहते मैं इस अपमान का बदला चुकाने के लिये क्या कर सकती हूँ? यह राजा होकर भी कीचक के प्रति कुछ भी राजोचित न्याय नहीं कर रहा है। मत्स्यराज! तुम्हारा यह लुटेरों का सा धर्म इस राजसभा में शोभा नहीं देता। तुम्हारे निकट इस कीचक द्वारा मुझ पर मार पड़ी, यह कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। यहाँ जो सभासद बैठे हैं, वे भी कीचक का यह अत्याचार देखें। कीचक को धर्म का ज्ञान नहीं है और मत्स्यराज भी किसी प्रकार धर्मज्ञ नहीं हैं तथा जो इस अधर्मी राजा के पास बैठते हैं, वे सभासद् भी धर्म के ज्ञाता नहीं हैं’।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! उत्तम वर्ण वाली द्रौपदी ने उस समय आँख में आँसू भरकर ऐसे वचनों द्वारा मत्स्यराज को बहुत फटकारा और उलाहना दिया।

     तब विराट बोले ;- सैरन्ध्री! हमारे परोक्ष में तुम दोनों में किस प्रकार कलह हुआ है; इसे मैं नहीं जानता और वास्तविक बात को जाने बिना न्याय करने में मेरा क्या कौशल प्रकट होगा?

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर सभासदों ने सारा रहस्य जानकर द्रौपदी की बार-बार सराहना की। उसे अनेक बार साधुवाद दिया और कीचक की निन्दा करते हुए उसे बहुत धिक्कारा।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 37-41 का हिन्दी अनुवाद)

    सभासद बोले ;- सम्पूर्ण मनोहर अंगों से सुशोभित यह बड़े-बड़े नेत्रों वाली साध्वी जिसकी धर्मपत्नी है, उसे जीवन में बहुत बड़ा लाभ मिला है। वह किसी प्रकार शोक नहीं कर सकता। जिसका शरीर शुभ और हष्ट-पुष्ट है, जिसका मुख अपने सौन्दर्य से कमल को पराजित कर रहा है तथा जिसकी मन्द-मन्द गति हंस को और मुस्कान कुन्दपुष्पों की शोभा को तिरस्कृत कर रही है, वही यह नारी पदप्रहार के योग्य नहीं है। जिसके बत्तीसों दाँत मसूड़ों में दृढ़तापूर्वक आबद्ध और उज्ज्वल हैं, जिसके केश चिकने और कोमल हैं, वैसी यह नारी लात मारने योग्य कदापि नहीं है। जिसकी हथेली में कमल, चक्र, ध्वजा, शंख, मन्दिर और मगर के चिह्न हैं, वह शुभलक्षणा नारी पैरों से ठुकरायी जाये, यह कदापि उचित नहीं है।

    जिसके शरीर में चार आवर्त हैं और वे सबके सब प्रदक्षिणभाव से सुशोभित हैं, जिसक अंग समान (सुडौल), शुभ लक्षणों से सम्पन्न और स्निग्ध हैं, वह लात मारने योग्य नहीं है। जिसके हाथों, पैरों और दाँतों में छिद्र दिखायी देते हैं, वह कमलदललोचना कन्या पैरों से ठोकर मारने योग्य कैसे हो सकती है? यह समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न है। इसका मुख पूर्णचन्द्र के समान मनोहर है। यह सुन्दर रूप वाली सुमुखी नारी पैरों से ठुकराने योग्य नहीं है। यह देवांगना के समान सौभाग्यशालिनी, इन्द्राणी के समान शोभासम्पन्न तथा अप्सरा के समान सुन्दर रूप धारण करने वाली है। यह लात मारने योग्य कदापि नहीं है। मनुष्य-जाति में तो ऐसी सती-साध्वी स्त्री सुलभ ही नहीं होती। इसके सम्पूर्ण अंग निर्दोष हैं। हम तो इसे मानवी नहीं; देवी मानते हैं।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! जब इस प्रकार द्रौपदी को देखकर सभासद उसकी प्रशंसा कर रहे थे, उस समय कीचक के प्रति क्रोध के कारण युधिष्ठिर के ललाट पर पसीना आ गया। तदनन्तर सुन्दरी द्रौपदी लंबी साँस खींचकर नीचा मुख किये भूमि पर खड़ी हो गयी और राजा युधिष्ठिर को कुछ कहने के लिये उद्यत देख वह स्वयं मौन रह गयी। तब उन कुरुनन्दन ने अपनी प्यारी रानी से इस प्रकार कहा,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘सैरन्ध्री! अब तू यहाँ न ठहर। रानी सुदेष्णा के महन में चली जा। पति का अनुसरण करने वाली वीर पत्नियाँ सब क्लेश चुपचाप उठाती हैं, वे साध्वी देवियाँ पतिलोक पर विजय पा लेती हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 42-51 का हिन्दी अनुवाद)

     मैं समझता हूँ, तुम्हारे सूर्य के समान तेजस्वी पति गन्धर्वगण अभी क्रोध करने का अवसर नहीं देखते; इसीलिये तुम्हारे पास दौड़कर नहीं आ रहे हैं। सुन्दर केशप्रान्त वाली सैरन्ध्री! तुम मोक्षधर्म से सम्बन्ध रखने वाली बातें सुनो। धर्मशास्त्र के अनुसार कुलवती स्त्रियों का धर्म इस प्रकार देखा गया है। स्त्री के लिये न कोई यज्ञ है, न श्राद्ध है और न उपवास का ही विधान है। स्त्रियों के द्वारा जो पति की सेवा होती है, वही उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाली है। कुमारावस्था में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र नारी की रक्षा करता है। स्त्री को कभी स्वतन्त्र नहीं रहना चाहिये। पतिव्रता स्त्रियाँ नाना प्रकार के क्लेश सहकर तथा शत्रुओं द्वारा अपमानित होकर भी अपने पतियों पर कभी क्रोध नहीं करतीं। इस प्रकार अनन्तभाव से पति की शुश्रूषा करने वाली स्त्रियाँ पुण्यलोकों को प्राप्त कर लेती हैं। सैरन्ध्री! तुम्हारे पतियों के कुपित होने पर तो वृत्रहनता इन्द्र भी युद्ध में उनका सामना नहीं कर सकते। विशाललोचने! यदि उनके साथ तेरी कोई शर्त हुई हो, तो उसे याद कर ले। क्षमाशीले! क्षमा सबसे उत्तम धर्म है। क्षमा सत्य है, क्षमा दान है, क्षमा धर्म है और क्षमा ही तप है। क्षमाशील मनुष्यों के लिये ही यह लोक और पारलोक है। जिसके दो (उत्तरायण और दक्षिणायन) अंश हैं, बारह (मास) अंग हैं, चौबीस (पक्ष) पर्व हैं और तीन सौ साठ (दिन) अरे हैं, उस कालचक्र को पूर्ण होने में यदि एक मास की कमी रह गयी हो; तो कौन उसकी प्रतीक्षा न करके क्षमा का त्याग कर सकता है?’

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इतना कहने पर भी जब द्रौपदी वहाँ खड़ी ही रह गयी, तब धर्मराज ने पुनः उससे कहा,

    युधिष्ठिर फिर बोले ;- ‘सैरन्ध्री! तू अवसर को नहीं पहचानती; इसीलिये नटी की भाँति राजसभा में रो रही है और द्यूतक्रीड़ा में लगे हुए मत्स्यराजकुमारों के खेलने में विघ्न डालती है। सैरन्ध्री! जाओ, गन्धर्व तुम्हारा प्रिय करेंगे। जिसने तुम्हारा अपकार किया है, उसे मारकर तुम्हारा दुःख दूर कर देंगे’।

     सैरन्ध्री बोली ;- जिनके बड़े भाई सदा जूआ खेला करते हैं, उन दयालु गन्धर्वों के लिये मैं अत्यन्त धर्मपरायणा रहूँगी। मेरा अपकार करने वाले दुरात्मा उन सबके लिये वध्य हो।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! यों कहकर सुन्दर कटिप्रदेश वाली द्रौपदी तीव्र गति से रानी सुदेष्णा के महल को चली गयी। उसके केश खुले हुए थे और क्रोध से उसकी आँखें लाल हो रही थीं। उस समय रोती हुई द्रौपदी का मुख इस प्रकार सुशोभित हो रहा था, मानो आकाश में मेघमाला के आवरण से मुक्त चन्द्रबिम्ब शोभा पा रहा हो। समस्त अंगों में धूलि से धूसरित गजराजवधू की भाँति शोभा पाने वाली तथा हाथी की सूँड़ के समान जाँघों वाली द्रौपदी स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य करके राजसभा से अन्तःपुर में चली गयी। उसके स्तन एक-दूसरे से सटे हुए थे तथा नेत्र मृगशावकों के समान चंचल हो रहे थे। वह कीचक के हाथ से छूटकर शोक और दु:ख से इस प्रकार मलिन हो रही थी, मानो चन्द्रमा की प्रभा वर्षाकाल के मेघों से आच्छादित हो गयी हो। जिसके लिये समस्त पाण्डव अपने प्राण तक दे सकते थे, उसी कृष्णा को उस दशा में देखकर भी धर्मात्मा पाण्डव क्षमा धारण किये बैठे थे। जैसे समुद्र अपने तट की सीमा का उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार वे अज्ञातवास के लिये स्वीकृत समय का अतिक्रमण नहीं कर रहे थे।

     सुदेष्णा ने पूछा ;- वरारोहे! तुम्हें किसने मारा है? शोभने! तू क्योें रोती है? भद्रे! आज किसका सुख समाप्त हो गया है? किसने तुम्हारा अपराध किया है? कमल के समान कमनीय, सुन्दर दाँत, ओठ, नेत्र और नासिका से सुशोभित तथा पूर्णचन्द्र के समान कान्तिमान् तुम्हारा यह मनोहर मुख ऐसा (मलिन) क्यों हो रहा है? तुम रोती हुई अपने मुख पर बहे हुए अश्रुओं को पोंछ रही हो। काली पुतली वाले सरल नेत्रों से सुशोभित, बिम्बफल के समान अरुण अधरों से उपलक्षित और अत्यन्त मनोहर प्रभा से प्रकाशित तुम्हारा मुख इस समय आँसू क्यों गिरा रहा है?

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब कृष्णा ने लंबी साँसें खींचकर कहा,

    द्रोपदी बोली ;- ‘तुम सब कुछ जानती हुई भी मुझसे क्या पूछ रही हो? स्वयं ही मुझे अपने भाई के पास भेजकर अब इस प्रकार की बातें क्यों बना रही हो?

    द्रौपदी फिर बोली ;- मैं तुम्हारे लिये मदिरा लेने गयी थी। वहाँ कीचक ने राजसभा में महाराज के देखते-देखते मुझ पर पदप्रहार किया है; ठीक उसी तरह, जैसे कोई निर्जन वन में किसी असहाय अबला पर आघात करता हो।

    सुदेष्णा ने कहा ;- सुन्दर लटों वाली सुन्दरी! यदि तुम्हारी सम्मति हो, तो मैं कीचक को मरवा डालूँ; जो काम से उन्मत्त होकर तुम जैसी दुर्लभ देवी का अपमान कर रहा है।

    सैरन्ध्री बोली ;- महारानी! उसे दूसरे ही लोग मार डालेंगे, जिनका कि अपराध वह कर रहा है। मैं तो समझती हूँ, अब वह निश्चय ही यमलोक की यात्रा करेगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षोडश अध्याय के भाग-2 का हिन्दी अनुवाद)

      रानी! आज तुम अपने भाई के लिये शीघ्र ही जीवित श्राद्ध कर लो। उसके लिये आवश्यक दान ले लो। साथ ही उसे आँख भरकर देख लो। मेरा विश्वास है कि अब उसके प्राण नहीं रहेंगे। मेरे पाँच धर्मात्मा पतियों में से एक अत्यन्त दुःसह एवं अमर्षशील वीर है। वे कुपित होने पर इस रात में ही इस संसार को मनुष्यों से शून्य कर सकते हैं। परंतु इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वे गन्धर्व न जाने क्यों अभी तक क्रोध नहीं कर रहे हैं।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! रानी सुदेष्णा से ऐसा कहकर दुःख से मोहित हुई सैरन्ध्री ने कीचक के वध के लिये व्रत की दीक्षा ग्रहण की। दूसरी स्त्रियों ने उससे प्रार्थना की। रानी सुदेष्णा ने भी उसे बहुत मनाया; तथापि न वह स्नान करती, न भोजन करती और न अपने शरीर की धूल ही झाड़ती थी। उसका मुँह रक्त से भींगा हुआ था, आँखों में रुलाई के आँसू भरे हुए थे। उसे इस प्रकार शोक से संतप्त होकर रोती देख सब स्त्रियाँ मन-ही-मन कीचक के वध की इच्छा करने लगीं।

    जनमेजय बोले ;- विप्रवर! संसार की युवतियों में श्रेष्ठ एवं पतिव्रता महाभागा द्रौपदी को कीचक ने लात मार दी; इससे वह महान् दुःख में डूब गयी। अहो! यह कितने कष्ट की बात है। जिस समय सिन्धुराज जयद्रथ ने बलपूर्वक उसका अपहरण किया था, उस समय उसने अपने पतियों की बहिन दुशला का सम्मान करते हुए वह कष्ट सह लिया और शुभलक्ष्णा सिन्धुराज को कोई शाप नहीं दिया। परंतु जब दुरात्मा कीचक ने उसका तिरस्कार किया और उसे लात से मारा, उस समय महाभागा कृष्णा ने उस दुष्ट को शाप क्यों नहीं दे दिया? देवी द्रौपदी तेज की राशि थी। वह धर्मज्ञा और सत्यवादिनी थी। उसके जैसी तेजस्विनी स्त्री अपने केश पकड़ लिये जाने पर असमर्थ की भाँति चुपचाप सह लेगी, यह सम्भव नहीं है। यदि उसने सह लिया, तो इसका कोई छोटा कारण नहीं होगा। साधुशिरोमणे! मैं वह कारण सुनना चाहता हूँ। कृष्णा के क्लेश की बात सुनकर मेरा मन अत्यन्त व्यथित हो रहा है। मुने मत्स्यराज का साला दुष्ट कीचक किसके कुल में उत्पन्न हुआ था? और वह बल से उन्मत्त क्यों हो गया था?

    वैशम्पायन जी ने कहा ;- कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले नरेश! तुम्हारा उठाया हुआ यह प्रश्न ठीक है। मैं यह सब विस्तारपूर्वक बताऊँगा। राजन्! क्षत्रिय पिता और ब्राह्मणी माता से उत्पन्न हुआ बालक ‘सूत’ कहलाता है। प्रतिलोमसंकर जातियों में अकेली यह सूत जाति ही द्विज कही गयी है। द्विजोचित कर्मों से युक्त उस सूत को ही रथकार भी कहते हैं। इसे क्षत्रिय से हीन और वैश्य से श्रेष्ठ बताते हैं। राजन्! पहले के नरेशों ने सूत जाति के साथ भी वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया है, परंतु उन्हें राजा की उपाधि नहीं प्राप्त होती थी। उनके लिये सूतों के नाम से सूतराज्य ही नियत कर दिया गया था। वह राज्य सूत जाति के एक पुरुष ने किसी क्षत्रिय राजा की सेवा करके ही प्राप्त किया था। सुप्रसिद्ध केकय नामक राजा सूतों के ही अधिपति थे। उनका जन्म किसी क्षत्रिय कन्या के गर्भ से हुआ था। वे सारथि कर्म में अनुपम थे। कुरुश्रेष्ठ! उनके मालवी के गर्भ से कई पुत्र उत्पन्न हुए। प्रभो! उन पुत्रों में कीचक ही सबसे बड़ा था। राजा केकय की दूसरी रानी भी मालवकन्या ही थी। उसके गर्भ से चित्रा नाम वाली कन्या उत्पन्न हुई, जो समस्त कीचकबन्धुओं की छोटी बहिन थी। उसी को सुदेष्णा भी कहते हैं। वही आगे चलकर महाराज विराट की प्यारी पटरानी हुई।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षोडश अध्याय के भाग-3 का हिन्दी अनुवाद)

      विराट की बड़ी रानी कोसलदेश की राजकुमारी सुरथा, जो श्वेत की जननी थी, उसकी मृत्यु हो जाने पर केकय नरेश ने अपनी कन्या सुदेष्णा का विवाह मत्स्यराज विराट के साथ प्रसन्नतापूर्वक कर दिया। सुदेष्णा को महारानी के रूप में पाकर राजा विराट का दुख दूर हो गया।

    जनमेजय! केकयकुमारी रानी सुदेष्णा ने राजा विराट से अपने कुल की वृद्धि के लिये उत्तर और उत्तरा नामक दो संतानों को उत्पन्न किया। राजन्! कीचक अपनी मौसी की बेटी सती-साध्वी सुदेष्णा की प्रेमपूर्वक परिचर्या करता हुआ विराट के यहाँ सुखपूर्वक रहने लगा। उसके सभी पराक्रमी भाई कीचक के ही प्रेमी भक्त थे; अतः वे भी विराट के ही बल और कोष को बढ़ाते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ रहने लगे। राजन्! कालेय नामक दैत्य ही, जो प्रायः इस भूमण्डल में विख्यात थे, कीचकों के रूप में उत्पन्न हुए थे। कालेयों में बाण सबसे बड़ा था। वही सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न, भयंकर पराक्रमी और महाबली कीचक हुआ, जो धर्म की मर्यादा तोड़ने और मनुष्यों के भय को बढ़ाने वाला था। उस बलोन्मत्त कीचक की सहायता पाकर, जैसे इन्द्र दानवों पर सहायता पाते थे, उसी प्रकार राजा विराट ने भी समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त की।

    मेखल, त्रिगर्त, दशार्ण, कशेरुक, मालव, यवन, पुलिन्द, काशी, कोसल, अंग, वंग, कलिंग, तंगण, परतंगण, मलद, निषध, तुण्डिकेर, कोंकण, करद, निषिद्ध, शिव, दुश्छिल्लिक तथा अन्य नाना जनपदों के स्वामी अनेक शूरवीर नरेश रणभूमि में कीचक से पराजित हो दसों दिशाओं में भाग गये। ऐसे पराक्रमसम्पन्न कीचक को, जो संग्राम में दस हजार हाथियो का बल रचाता था, राजा विराट ने अपना सेनापति बना लिया। विराट के दस भाई ऐसे थे, जो दशरथनन्दन श्रीराम के समान शक्तिशाली समझे जाते थे। वे भी इन प्रबलतर कीचक बन्धुओं का अनुसरण करने लगे। ऐसे बल सम्पन्न कीचक, जो राजा विराट के साले लगते थे, शौर्य में अपना सानी नहीं रखते थे। वे महामना विराट के बड़े हितैषी थे।

     जनमेजय! इस प्रकार मैंने तुमसे कीचक के पराक्रम की सारी बातें बता दीं। अब यह सुन लो कि द्रौपदी ने उसे शाप क्यों नहीं दिया? क्रोध से तपस्या नष्ट होती है, इसीलिये ऋषि भी सहसा किसी को शाप नहीं देते हैं। द्रौपदी इस बात को अच्छी तरह जानती थी; इसीलिये उसने उसे शाप नहीं दिया। क्षमा धर्म है, क्षमा दान है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा यश है, क्षमा सत्य है, क्षमा शील है, क्षमा कीर्ति है, क्षमा सबसे उत्कृष्ट तत्त्व है, क्षमा पुण्य है, क्षमा तीर्थ है, क्षमा सब कुछ है; ऐसा श्रुति का कथन है। यह लोक क्षमावानों का ही है। परलोक भी क्षमावानों का ही है। द्रौपदी यह सब कुछ जानती थी, इसलिये उसने क्षमा का ही आश्रय लिया। भरतनन्दन! क्षमाशील एवं धर्मात्मा पतियों का मत जानकर विशाल नेत्रों वाली सती साध्वी द्रौपदी ने समर्थ होते हुए भी कीचक को शाप नहीं दिया। समस्त पाण्डव भी द्रौपदी की दुरवस्था देखकर दु:खी हो समय की प्रतीक्षा करते हुए क्रोधाग्नि में जलते रहे। महाबाहु भीमसेन तो कीचक को तत्काल मार डालने के लिये उद्यत थे; परंतु जैसे वेला (तट की सीमा) महासागर के वेग को रोके रखती है, उसी प्रकार धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने उन्हें रोक दिया। वे मन में क्रोध को रोककर दिन-रात लंबी साँसें खींचते रहते थे। उस दिन पाकशाला में जाकर वे रात में बड़े कष्ट से सोये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी तिरस्कार सम्बन्धी सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (कीचकवध पर्व)

सत्तरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रौपदी का भीमसेन के समीप जाना”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! सूतपुत्र सेनापति कीचक ने जब से लात मारी थी, तभी से यशस्विनी राजपत्नी भामिनी द्रौपदी उसके वध की बात सोचने लगी। वह अपने निवास स्थान पर गयी। उस समय सूक्ष्म कटिभाग वाली द्रुपदकुमारी कृष्णा ने वहाँ यथायोग्य शौच, स्नान करके जल से अपने शरीर और वस्त्र धोये तथा वह रोती हुई उस दुःख के निवारण का उपाय सोचने लगी,- ‘क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? कैसे मेरा अभीष्ट कार्य होगा।' इस प्रकार चिन्तन करके उसने मन-ही-मन भीमसेन का स्मरण किया। 'भीमसेन के सिवा दूसरा कोई आज मेरे मन को प्रिय लगने वाला कार्य नहीं कर सकता', ऐसा निश्चय करके वह विशाल नेत्रों वाली सती-साध्वी सनाथा कृष्णा रात को अपनी शय्या छोड़कर उठी और अपने नाथ (रक्षक) से मिलने की इच्छा रखकर शीघ्रतापूर्वक भीमसेन के भवन में गयी। उस समय मनस्विनी द्रौपदी महान् मानसिक दुःख से पीड़ित थी। वहाँ पहुँचते ही,

    सैरन्ध्री बोली ;- आर्यपुत्र! मुझसे द्वेष रखने वाले उस महापापी सेनापति के, जिसने मेरे साथ वैसा अपमानजनक बर्ताव किया था, जीते-जी तुम आज नींद कैसे ले रहे हो?

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! ऐसा कहती हुई मनस्विनी द्रौपदी ने उस भवन में प्रवेश किया, जिसमें सिंह की भाँति साँसें खींचते हुए भीमसेन सो रहे थे। कुरुनन्दन! द्रौपदी के दिव्य रूप से महात्मा भीम की वह पाकशाला शोभा-समृद्धि को प्राप्त होकर तेज से प्रकाशित हो उठी। पवित्र मुस्कान वाली द्रौपदी पाकशाला पहुँचकर क्रमशः (बक, साँड और गजराज के पास जाने वाली) जल में उत्पन्न हुई बकी, तीन साल की पार्थिव गौ तथा हथिनी के समान श्रेष्ठ पुरुष भीमसेन के समीप गयी। जैसे लता गोमती के तट पर उत्पन्न एवं खिले हुए ऊँचे शाल वृक्ष में लिपट जाती है, उसी प्रकार सती-साध्वी पांचाली ने मध्यम पाण्डव भीमसेन का आलिंगन किया। उसने उन्हें दोनों भुजाओं से कसकर जगाया; ठीक वैसे ही, जैसे दुर्गम वन में सोये हुए सिंह को सिंहनी जगाती है। जैसे हथिनी महान् गजराज का आलिंगन करती है, उसी प्रकार निर्दोष पांचाल राजकुमारी भीमसेन से सटकर गान्धार स्वर में मधुर ध्वनि फैलाती हुई वीणा की भाँति मीठे वचनों में बोली,

   द्रोपदी बोली ;- ‘भीमसेन! उठो, उठो, क्यों मुर्दे की तरह सो रहे हो?, क्योकि (तुम्हारे जैसे वीर) पुरुष के जीवित रहते हुए उसकी पत्नी का स्पर्श करके कोई महापापी मनुष्य जीवित नहीं रह सकता’।

   राजकुमारी द्रौपदी के जगाने पर मेघ के समान श्याम वर्ण वाले कुरुनन्दन भीमसेन तोशक बिछे हुए पलंग पर शयन छोड़कर उठ बैठे और अपनी प्यारी रानी से बोले,

भीमसेन बोले ;- ‘देवि! किस कार्य से तुम इतनी उतावली-सी होकर मेरे पास आयी हो? तुम्हारे शरीर की कान्ति

स्वाभाविक नहीं रह गयी है। तुम पर उदासी छायी है। तुम दुबली और पीली दिखायी देती हो। पूरी बात बताओ, जिससे मैं सब कुछ जान सकूँ। तुम्हें सुख हो या दुःख, बुरा हो या भला, सब बातें ठीक-ठीक कह जाओ। वह सब सुनकर में उसके निवारण के लिये उचित उपाय सोचूँगा।'

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तश अध्याय के श्लोक 20-21 का हिन्दी अनुवाद)

‘कृष्णे! सब कार्यों के लिये मैं ही तुम्हारा विश्वासपात्र हूँ।

     मैं ही सब प्रकार की विपत्तियों में बार-बार सहायता करके तुम्हें संकट से मुक्त करता हूँ। अतः जैसी तुम्हारी रुचि हो और जिस कार्य के लिये कुछ कहना चाहती हो, उसे शीघ्र कहकर पहले ही अपने शयन कक्ष में चली जाओ, जिससे दूसरे किसी को इसका पता न चल सके’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी-भीम संवाद विषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (कीचकवध पर्व)

अठारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टदश अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रौपदी का भीमसेन के प्रति अपने दुःख के उद्गार प्रकट करना”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय लज्जित और भयभीत हुई द्रौपदी के नेत्रों में आँसू भर आये थे। वह मुँह नीचा किये मौन बैठी रही; कुछ भी बोल न सकी। तब पाण्डवप्रवर युधिष्ठिर के परम मित्र भयंकर पराक्रमी महाबली भीम इस प्रकार बोले,

   भीमसेन बोले ;- ‘सुन्दरि! गजराज की भाँति लीला-विलासपूर्वक मन्द गति से चलने वाली प्रिये। बताओ; मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय करूँ?’

    द्रौपदी बोली ;- जिस स्त्री के पति युधिष्ठिर हों, वह बिना शोक के रहे, यह कैसे सम्भव हो सकता है? तुम मेरे सारे दुःखों को जानते हुए भी मुझसे कैसे पूछते हो? दुर्योधन के सेवक के रूप में दुःशासन मुझे दासी कहकर जो उस समय कौरवों की सभाभवन में जनसमाज के भीतर घसीट ले गया, वह अपमान की आग मुझे आज तक जला रही है। शत्रुओं को संताप देने वाले महाबाहु भीम! उस समय वहाँ बैठे हुए कर्ण आदि क्षत्रियों ने, दुर्योधन ने, मेरे दोनों ससुर भीष्म और बुद्धिमान विदुर ने तथा द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ने भी मुझे उस दुरावस्था में देखा था। पाण्डुनन्दन! इस प्रकार तुम्हारे जीते जी मेरे केश पकड़कर मुझे दोनों श्वसुरों तथा दुर्योधन आदि भ्राताओं के बीच राजसभा में लाया गया। स्वामिन्! मुझ द्रुपदकन्या को छोड़कर दूसरी मेरी जैसी कौन राजकुमारी होगी, जो ऐसा दुःख भोगकर जी रही हो। वनयात्रा में जाने पर सिन्धुराज जयद्रथ ने जो मेरा स्पर्श कर लिया, यह दूसरा अपमान था। उसे भी कौन सह सकती है? पाण्डुकुमार! तुम्हारे जीते जी मुझे हिंसक जन्तुओं से भरे हुए विषम एवं दुर्गम प्रदेशों में पैदल विचरना पड़ा। तदनन्तर बारहवें वर्ष के अन्त में मैं जंगली फल-मूलों का आहार करती हुई इस विराट नगर में आयी और सुदेष्णा की सेविका बन गयी। मैं सत्यधर्म के मार्ग में स्थित होकर आज दूसरी स्त्री की सेवा करती हूँ।

     पाण्डुपुत्र! तुम्हारे जीते जी मैं प्रतिदिन राजा विराट के लिये गोशीर्ष, पद्काष्ठ और हरिश्याम आदि चन्दन पीसती हूँ। फिर भी तुम्हारे संतोष के लिये मैं ऐसे बहुत-से दुःखों को कुछ भी नहीं गिनती। मैं द्रुपद की पुत्री और धृष्टद्युम्न की बहिन हूँ। अग्निकुण्ड से मेरी उत्पत्ति हुई है। मैं कभी धरती पर पैदल नहीं चलती थी (परंतु अब यहाँ यह दुर्दशा भोग रही हूँ)। मत्स्यदेश के राजा विराट के सामने उस जुआरी के देखते-देखते कीचक ने जो लात मारकर मेरा अपमान किया है, उसको सहकर मेरी जैसी कौन राजकुमारी जीवित रह सकती है?

     भरतभूषण कुन्तीनन्दन! ऐसे बहुत-से क्लेशों द्वारा मैं निरन्तर पीड़ित रहती हूँ; क्या तुम यह नहीं जानते? फिर मेरे जीने का ही क्या प्रयोजन है? भारत! पुरुष सिंह! राजा विराट का जो यह कीचक नामक सेनापति है, वह उनका साला भी लगता है। उसकी बुद्धि बड़ी खोटी है। राजमहल में सैरन्ध्री के वेश में निवास करती हुई मुझे देखकर वह दुष्टात्मा प्रतिदिन ही आकर मुझसे कहता है,- ‘मेरी ही पत्नी बन जाओ’। शत्रुदमन! उस मार डालने योग्य पापी के द्वारा रोज-रोज यह घृणित प्रस्ताव सुनते-सुनते समय से पके हुए फल की भाँति मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टदश अध्याय के श्लोक 10-25 का हिन्दी अनुवाद)

    महाबली पाण्डुनन्दन! मैं तुम्हारे अमर्ष, बल और पराक्रम को जानती हूँ; इसीलिये मैं तुम्हारे आगे रोती बिलखती हूँ। पुरुषसिंह पाण्डुपुत्र! जैसे साठ वर्ष का मतवाला यूथपति गजराज धरती पर गिरे हुए बेल के फल को पैरों से दबाकर कुचल डाले, उसी प्रकार कीचक के मसतक को पृथ्वी पर गिराकर बाँयें पैर से मसल डालो। यह कीचक इस रात्रि के बीतने पर प्रातःकाल उठकर उगते हुए सूर्य का दर्शन कर लेगा, तो मैं जीवित नहीं रह सकूँगी। दूषित द्यूत क्रीड़ा में लगे रहने वाले अपने उस जुआरी भाई की निन्दा करो, जिसकी करतूत से मैं इस अत्यन्त दुःख में पड़ गयी हूँ। निन्दनीय जूए में आसक्त रहने वाले उस जुआरी को छोड़कर दूसरा कौन ऐसा पुरुष होगा, जो अपने साथ ही राज्य तथा सर्वस्व परित्याग करके वनवास लेने की शर्त पर जूआ खेल सकता है? यदि वे प्रतिदिन शाम-सवेरे एक सहस्त्र स्वर्णमुद्राओं से जूआ खेलते तथा जो दूसरे बहुमूल्य धन थे, उनको सोने, चाँदी, वस्त्र, सवारी, रथ, बकरी, भेड़, घोड़े और खच्चरों आदि के समूह को बहुत वर्षों तक भी दाँव पर लगाते रहते, तो भी हमारा राज्य वैभव कभी क्षीण नहीं होता।

    जूए की आसक्ति ने इन्हें राजलक्ष्मी के सिंहासन से नीचे उतार दिया है और अब ये अपने उन कर्मों का चिन्तन करते हुए अज्ञ की भाँति चुपचाप बैठे रहते हैं। जिनके कहीं यात्रा करते समय दस हजार हाथी और सोने की मालाएँ पहने हुए सहस्रों घोड़े पीछे-पीछे चलते थे, वे ही महाराज यहाँ जूए से जीविका चलाते हैं। इन्द्रप्रस्थ में जिनकी सवारी के लिये एक लाख रथ प्रस्तुत रहते थे और जिन महाराज युधिष्ठिर की सेवा में सहस्रों महापराक्रमी राजा बैठा करते थे, जिनके भोजनालय में नित्य एक लाख दासियाँ सोने के पात्र हाथ में लिये दिन-रात अतिथियों को भोजन कराया करती थीं तथा जो दाताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर रोज सहस्रों स्वर्णमुद्राएँ दान में बाँटा करते थे, वे ही धर्मराज यहाँ जूए में कमाये हुए महान् अनर्थकारी धन से जीवन-निर्वाह कर रहे हैं।

    इन्द्रप्रस्थ में विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण करने वाले बहुत-से सूत और मागध मधुर स्वर में संयुक्त वाणी द्वारा सायंकाल और प्रातःकाल इन महाराज की स्तुति किया करते थे। तपस्या और वेदज्ञान से सम्पन्न सहस्रों पूर्णकाम ऋषि-महर्षि प्रतिदिन इनकी राजसभा में बैठा करते थे। अट्ठासी हजार स्नातक गृहस्थ ब्राह्मणों का, जिनमें से एक-एक की सेवा के लिये तीन-तीन दासियाँ थीं, राजा युधिष्ठिर अपने यहाँ पालन करते थे। साथ ही ये महाराज दान न लेने वाले दस हजार ऊर्ध्वरेता संन्यासियों का भी स्वयं ही भरण-पोषण करते थे। आज वे ही इस अवस्था में रह रहे हैं। जिनमें कोमलता, दया और सबको अन्न-वस्त्र देना आदि समस्त सद्गुण विद्यमान थे, वे ही ये महाराज आज इस दुरावस्था में पड़े हैं। धैर्यवान् तथा सत्यपराक्रमी राजा युधिष्ठिर अपने कोमल स्वभाव के कारण सदा सबको भोजन आदि देने में मन लगाते थे और अपने राज्य के अनेक अंधों, बूढ़ों, अनाथों, बालकों तथा दुर्गति में पड़े हुए लोगों का भरण-पोषण करते थे। वे ही युधिष्ठिर आज मत्स्यराज के सेवक होकर परतन्त्रतारूपी नरक में पड़े हुए हैं। ये सभा में राजा को जूआ खेलाते और 'कंक' कहकर अपना परिचय देते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टदश अध्याय के श्लोक 26-33 का हिन्दी अनुवाद)

     इन्द्रप्रस्थ में रहते समय जिन्हें सब राजा भेंट देते थे, वे ही आज दूसरों से अपने भरण-पोषण के लिये धन पाने की इच्छा रखते हैं। इस पृथ्वी का पालन करने वाले बहुत-से भूपाल जिनकी आज्ञा के अधीन थे, वे ही महाराज आज विवश होकर दूसरों के वश में रहते हैं। सूर्य की भाँति अपने तेज से सम्पूर्ण भूमण्डल को प्रकाशित कर अब ये धर्मराज युधिष्ठिर राजा विराट की सभा में एक साधारण सदस्य बने हुए हैं।

     पाण्डुनन्दन! देखो, राजसभा में ऋषियों के साथ अनेक राजा जिनकी उपासना करते थे, वे ही पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर आज दूसरे की उपासना कर रहे हैं। एक सामान्य सदस्य की हैसियत से दूसरे की सेवा में बैठे हुए वे विराट के मन को प्रिय लगने वाली बातें करते हैं। महाराज युधिष्ठिर को इस दशा में देखकर निश्चय ही मेरा क्रोध बढ़ जाता है। जो धर्मात्मा और परम बुद्धिमान हैं, जिनका कभी इस दुरावस्था में पड़ना उचित नहीं है, वे ही जीविका के लिये आज दूसरे के घर में पड़े हैं। महाराज युधिष्ठिर को इस दशा में देखकर किसे दुःख नहीं होगा?

     वीर! पहले राजसभा में समस्त भूमण्डल के लोग जिनकी सब ओर से उपासना करते थे, भारत! अब उन्हीं भरतवंशशिरामणि को आज दूसरे राजा की सभा में बैठे देख लो।

    भीमसेन! इस प्रकार अनेक दुःखों से अनाथ की भाँति पीड़ित होती हुई मैं शोक के महासागर में डूब रही हूँ, क्या तुम मेरी यह दुर्दशा नहीं देखते?

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी-भीम संवाद विषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (कीचकवध पर्व)

उन्नीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनविंश अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्डवों के दुख से दुःखित द्रौपदी का भीमसेन के सम्मुख विलाप करना”

    द्रौपदी बोली ;- भारत! अब जो दुःख मैं तुमसे निवेदन करने वाली हूँ, वह तो मेरे लिये और भी महान् है। तुम इसके लिये मुझे दोष न देना। मैं दुःख से व्यथित होने के कारण ही यह सब कह रही हूँ। भरतर्षभ! जो तुम्हारे लिये सर्वथा अयोग्य है, ऐसे रसोइये के नीच काम में लगे हो और अपने को ‘बल्लव’ जाति का मनुष्य बताते हो। इस अवस्था में तुम्हें देखकर किसका शोक न बढ़ेगा? लोग तुम्हें राजा विराट के रसोइये बल्लव के नाम से जानते हैं। तुम स्वामी होकर भी आज सेवक की दशा में पड़े हो। इससे बढ़कर महान् कष्ट मेरे लिये और क्या हो सकता है? जब पाकशाला में भोजन बना लने पर तुम विराट की सेवा में उपस्थित होते हो और कहते हो,- ‘महाराज! बल्लव रसोइया आपको भोजन के लिये बुलाने आया है’, तब यह सुनकर मेरा मन दुःखित हो जाता है।

     जब विराट नरेश प्रसन्न होकर तुम्हें हाथियों से लड़ाते हैं, उस समय रनिवास की दूसरी स्त्रियाँ तो हँसती हैं और मेरा हृदय शोक से व्याकुल हो उठता है। जब रानी सुदेष्णा दर्शक बनकर बैठती हैं और तुम महल के आँगन में व्याघ्रों, सिंहों तथा भैसों से लड़ते हो, उस समय मुझे बड़ी व्यथा होती है। एक दिन उक्त पशुओं से तुम्हारा युद्ध देखकर उठने के बाद मुझ निर्दोष अंगों वाली अबला को इसी कारण शोक-पीड़ित-सी देख केकय राजकुमारी सुदेष्णा अपने साथ आयी हुई सम्पूर्ण दासियों से और वे खड़ी हुई दासियाँ रानी कैकेयी से इस प्रकार कहने लगीं- ‘यह पवित्र मुस्कान वाली सैरन्ध्री पहले (युधिष्ठिर के यहाँ) एक स्थान में साथ-साथ रहने के कारण पैदा होने वाले स्नेह से अथवा धर्म से प्रेरित होकर उस महापराक्रमी रसोइये को पशुओं से लड़ते देख उसके लिये बार-बार शोक करने लगती है। सैरन्ध्री का रूप तो मंगलमय है ही, बल्लव भी बड़ा सुन्दर है।

     स्त्रियों के हृदय को समझ लेना बहुत कठिन है, हमें तो यह जोड़ी अच्छी जान पड़ती है। सैरन्ध्री अपने प्रिय सम्बन्ध के कारण जब रसोइये को हाथी आदि से लड़ाने की बात की जाती है, तब (अत्यन्त दीन से होकर) सदा करुणायुक्त वचन बालने लगती है। क्यों न हो, इस राजपरिवार में भी तो ये दोनों एक ही समय से निवास करते हैं?’ इस तरह की बातें कहकर रानी सुदेष्णा प्रायः नित्य मुझे झिड़का करती हैं और मुझे क्रोध करती देख तुम्हारे प्रति मेरे गुप्त प्रेम की आशंका कर बैठती हैं। जब-जब वे वैसी बातें कहती हैं, उस समय मुझे बहुत दुःख होता है। भीम! भयंकर पराक्रम दिखाने वाले होकर भी तुम ऐसे नरकतुल्य कष्ट भोग रहे हो और उधर महाराज युधिष्ठिर को भी भारी शोक सहन करना पड़ता है। इस प्रकार मैं दुःख के समुद्र में डूबी हुई हूँ। अब मुझे जीवित रहने का तनिक भी उत्साह नहीं है। वह तरुण वीर अर्जुन, जो अकेले ही रथ में बैठकर सम्पूर्ण मनुष्यों तथा देवताओं पर भी विजय पा चुका है, आज राजा विराट की कन्याओं को नाचना सिखाता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनविंश अध्याय के श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद)

     कुन्तीनन्दन! जो असीम आत्मबल से सम्पन्न है, जिसने खाण्डववन में साक्षात् अग्निदेव को तृप्त किया था, वही वीर अर्जुन आज कुएँ में पड़ी हुई अग्नि की तरह अन्तःपुर में छिपा हुआ है। जो पुरुषों में श्रेष्ठ है, जिससे शत्रुओं को सदा ही भय प्राप्त होता आया है, वही धनंजय आज लोकनिन्दित नपुंसक वेष में रह रहा है। जिसकी परिघ (लोदण्ड) के समान मोटी भुजाएँ प्रत्यन्चा खींचते-खींचते कठोर हो गयी थीं, वही धनंजय आज हाथों में चूड़ियाँ पहनकर दुःख भोग रहा है। जिसके धनुष की टंकार से समस्त शत्रु थर्रा उठते थे, आज अन्तःपुर की स्त्रियाँ उसी के गीतों की ध्वनि सुनती और प्रसन्न होती हैं। जिसके मस्तक पर सूर्य के समान तेजस्वी किरीट शोभा पाता था, सिर पर चोटी धारण करने के कारण उसी अर्जुन के केशों की शोभा बिगड़ गयी है।

    भीम! भयंकर गाण्डीव धनुष धारण करने वाले वीर अर्जुन को अपने सिर पर केशों की चोटी धारण किये कन्याओं से घिरा देख मेरा हृदय विषाद से भर जाता है। जिस महात्मा में सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्रतिष्ठित हैं तथा जो समस्त विद्याओं का आधार है, वह आज कानों में (स्त्रियों की भाँति) कुण्डल धारण करता है। जैसे महासागर तट सीमा को नहीं लाँघ पाता, उसी प्रकार सहस्रों अप्रतिम तेज वाले राजा जिस वीर को वशीभूत करने के लिये आगे न बढ़ सके, वही तरुण अर्जुन इस समय राजा विराट की कन्याओं को नाचना सिखा रहा है और हीजड़े के वेष में छिपकर उन कन्याओं की सेवा करता है। भीमसेन! जिसके रथ की घर्घराहट से पर्वत, वन और चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी काँप उठती थी, जिस महान् भाग्यशाली पुत्र के उत्पन्न होने पर माता कुन्ती का सारा शोक नष्ट हो गया था, वही तुम्हारा छोटा भाई अर्जुन आज अपनी दुरवस्था के कारण मुझे शोकमग्न किये देता है।

    अर्जुन को स्त्रीजनोचित आभूषणों तथा सुवर्णमय कुण्डलों से विभूषित हो हाथों में शंख की चूड़ियाँ धारण किये आते देख मेरा हृदय दुःखित हो जाता है। इस भूतल पर जिसके बल-पराक्रम की समानता करने वाला कोई धनुर्धर वीर नहीं है, वही धनंजय आज राजकन्याओं के बीच बैठकर गीत गाया करता है। धर्म, शूरवीरता और सत्यभाषण में जो सम्पूर्ण जीव-जगत् के लिये एक आदर्श था, उसी अर्जुन को अब स्त्रिवेष में विकृत हुआ देखकर मेरा हृदय शोक में डूब जाता है। हथिनियों से घिरे हुए गण्डस्थल से मधु की धारा बहाने वाले गजराज की भाँति जब वाद्ययन्त्रों के बीच में बैठे हुए देवरूपधारी कुन्तीनन्दन अर्जुन को (नृत्यशाला में) कन्याओं से घिरकर धनपति मत्स्यराज विराट की सेवा में उपस्थित देखती हूँ, उस समय मेरी आँखों में अँधेरा छा जाता है; मुझे दिशाएँ नहीं सूझती हैं। निश्चय ही मेरी सास कुन्ती नहीं जानती होंगी कि मेरा पुत्र धनंजय ऐसे संकट में पड़ा है और खोटे जूए के खेल में आसक्त कुरुवंशशिरोमणि अजातशत्रु युधिष्ठिर भी शोक में डूबे हुए हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनविंश अध्याय के श्लोक 32-43 का हिन्दी अनुवाद)

     जिन कुन्तीनन्दन अर्जुन ने ऐन्द्र, वरुण, वायव्य, ब्राह्म, आग्नेय और वैष्णव अस्त्रों द्वारा अग्निदेव को तृप्त करते हुए एकमात्र रथ की सहायता से सब देवताओं को जीत लिया, जिनका आत्मबल अचिन्त्य है, जो अपने दिव्यास्त्रों द्वारा समस्त शत्रुओं का नाश करने में समर्थ हैं, जिन्होंने एकमात्र रथ पर आरूढ़ हो दिव्य गान्धर्व, वायव्य, वैष्णव, पाशुपात तथा स्थूणाकर्ण नामक अस्त्रों का प्रदर्शन करते हुए युद्ध में निवातकवचों सहित भयंकर पौलोम और कालकेय आदि महान् असुरों को, जो इन्द्र से शत्रुता रचाने वाले थे, परास्त कर दिया था, वे ही अर्जुन आज अन्तःपुर में उसी प्रकार छिपे बैठे हैं, जैसे प्रज्वलित अग्नि कुएँ में ढक दी गयी हो। जैसे बड़ा भारी साँड़ गोशालाओं में आबद्ध हो, उसी प्रकार स्त्रियों के वेष से विकृत अर्जुन को कन्याओं के अन्तःपुर में देखकर मेरा मन बार-बार कुन्ती देवी की याद करता है।

     भारत! इसी प्रकार तुम्हारे छोटे भाई सहदेव को, जो गौओं का पालक बनाया गया है, जब गौओं के बीच ग्वाले के वेष में आते देखती हूँ, तो मेरा रक्त सूख जाता है और सारा शरीर ढीला पड़ जाता है। भीमसेन! सहदेव की दुर्दशा का बार-बार चिन्तन करने के कारण मुझे कभी नींद तक नहीं आती; फिर सुख कहाँ से मिल सकता है? महाबाहो! जहाँ तक मैं जानती हूँ, सहदेव ने कभी कोई पाप नहीं किया है, जिससे इस सत्यपराक्रमी वीर को ऐसा दुःख उठाना पड़े। भरतश्रेष्ठ! साँड़ के समान हृष्ट-पुष्ट तुम्हारे प्रिय भ्राता सहदेव को राजा विराट के द्वारा गौओं की सेवा में लगाया गया देख मुझे बड़ा दुःख होता है। गेरू आदि से लाल रंग का श्रृंगार धारण किये ग्वालों के अगुआ बने हुए सहदेव को उद्विग्न होने पर भी जब मैं राजा विराट का अभिनन्दन करते देखती हूँ, तब मुझे बुखार चढ़ आता है। वीर! आर्या कुन्ती मुझसे सहदेव की सदा प्रशंसा किया करती थीं कि यह महान् कुल में उत्पन्न, शीलवान् और सदाचारी है। मुझे स्मरण है, जब सहदेव महान् वन में आने लगे, उस समय पुत्रवत्सला माता कुन्ती उन्हें हृदय से लगाकर खड़ी हो गयीं और रोती हुई मुझसे यों कहने लगीं,- ‘याज्ञसेनी! सहदेव बड़ा लज्जाशील, मधुरभाषी और धार्मिक है। यह मुझे अत्यन्त प्रिय है। इसे वन में रात्रि के समय तुम स्वयं सँभालकर (हाथ पकड़कर) ले जाना, क्योकि यह सुकुमार है (सम्भव है, थकावट के कारण चल न सके)। मेरा सहदेव शूरवीर, राजा युधिष्ठिर का भक्त, अपने बड़े भाई का पुजारी और वीर है। पांचाल राजकुमारी! तुम इसे अपने हाथों भोजन कराना।'

    पाण्डुनन्दन! योद्धाओं में श्रेष्ठ उसी सहदेव को जब मैं गौओं की सेवा में तत्पर और बछड़ों के चमड़े पर रात में सोते देखती हूँ, तब किसलिये जीवन धारण करूँ? इसी प्रकार जो सुन्दर रूप, अस्त्रबल और मेधाशक्ति- इन तीनों से सदा सम्पन्न रहता है, वह वीरवर नकुल आज विराट के यहाँ घोड़े बाँधता है। देखो, काल की कैसी विपरीत गति है? जिसे देखकर शत्रुओं के समुदाय बिखर जाते-भाग खड़े होते हैं, वही अब ग्रन्थित बनकर घोड़ों की रास खोलता और बाँधता है तथा महाराज के सामने अश्वों को वेग से चलने की शिक्षा देता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनविंश अध्याय के श्लोक 44-47 का हिन्दी अनुवाद)

    मैंने शोभासम्पन्न, तेजस्वी तथा उत्तम रूप वाले नकुल को अपनी आँखों देखा है। वह मत्स्य नरेश विराट को भाँति-भाँति के घोड़े दिखाता और उनकी सेवा में खड़ा रहता है।

     कुन्तीनन्दन! शत्रुदमन! क्या तुम समझते हो, यह सब देखकर मैं सुखी हूँ? राजा युधिष्ठिर के कारण ऐसे सैकड़ों दुःख मुझे सदा घेरे रहते हैं।

     भारत! कुन्तीकुमार! इनमें भी भारी दूसरे दुःख मुझ पर आ पड़े हैं, उनका भी वर्णन करती हूँ, सुनो। तुम सबके जीते-जी नाना प्रकार के कष्ट मेरे शरीर को सुखा रहे हैं, इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है?

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी-भीमसेन संवाद विषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (कीचकवध पर्व)

बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) विंश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रौपदी द्वारा भीमसेन से अपना दुःख निवेदन करना”

   द्रौपदी कहती है ;- परंतप! तुम्हारे जूए में चतुर चालाक भाई के कारण आज मैं राजमहल में सैरन्ध्री का वेश धारण करके टहल बजाती और रानी सुदेष्णा को स्नान की वस्तुएँ जुटा कर देती हूँ। राजपुत्री होकर भी मुझे कैसा भारी हीन कार्य करना पड़ता है, यह अपनी आँखों से देख लो; परंतु सब लोग अपने अभ्युदय का अवसर देखते रहते हैं; क्योंकि यदि दुःख आता है तो उसका अन्त भी होता ही है। मनुष्यों की अर्थसिद्धि या जय-पराजय अनित्य हैं। वे सदा स्थिर नहीं रहते। यही सोचकर मैं अपने पतियों के पुनः अभ्युदय की प्रतीक्षा करती हूँ। धन और व्यसन (सम्पत्ति और विपत्ति) सदा गाड़ी के पहिये की तरह घूमा करते हैं; ऐसा विचार कर मैं पतियों के पुनः अभ्युदय काल की प्रतीक्षा करती हूँ। जो काल मनुष्य के लिये विजय काल होता है, वही उसकी पराजय का भी कारण बन जाता है। ऐसा विचार कर मैं अपने पक्ष की विजय के अवसर की राह देखती हूँ।

     भीमसेन! क्या तुम नहीं जानते कि इन दुःखों के आघात से मैं मरी हुई सी हो गयी हूँ। मैंने सुना है, जो मनुष्य दान करते हैं, वे ही कभी याचना के लिये विवश हो जाते हैं। दूसरे बहुत-से मनुष्य ऐसे हैं, जो दूसरों को मारकर स्वयं भी दूसरों के द्वारा मारे जाते हैं तथा जो दूसरों को नीचे गिराते हैं, वे स्वयं भी दूसरे प्रतिपक्षियों द्वारा नीचे गिराये जाते हैं। अतः दैव के लिये कुछ भी दुष्कर नहीं है। दैव के विधान को लाँघ जाना भी असम्भव है। इसलिये मैं दैव की प्रधानता बताने वाले शास्त्र-वचनों का पालन करती, उन्हें आदर देती हूँ। पानी जहाँ पहले स्थिर होता है, वह फिर भी वहीं ठहरता है। इस क्रम को चाहती हुई मैं पुनः अभ्युदय काल की प्रतीक्षा करती हूँ। उत्तम नीति द्वारा सुरक्षित पदार्थ भी यदि दैव प्रतिकूल हो, तो उसके द्वारा नष्ट हो जाता है; अतः विज्ञ पुरुष को दैव को अनुकूल बनाने का ही प्रयत्न करना चहिये।

     मैंने इस समय जो ये यथार्थ बातें कही हैं, इनका क्या प्रयोजन है? यह मुझ दु:खिया से पूछो। तुम्हारे पूछने पर यहाँ मैं यथार्थ बात बताती हूँ, सुनो। मैं पाण्डवों की पटरानी और द्रुपद की पुत्री होकर भी ऐसी दुर्दशा में पड़ी हूँ। मेरे सिवा दूसरी कौन स्त्री ऐसी अवस्था में जीना चाहेगी? भारत! शत्रुदमन! मुझ पर पड़ा हुआ यह क्लेश समस्त कौरवों, पांचालों और पाण्डवों के लिये अपमान की बात है। जिसके बहुत-से भाई, श्वसुर और पुत्र हों, जो इन सबसे घिरी हुई हो तथा भलीभाँति अभ्युदयशील हो, ऐसी परिस्थिति में मेरे सिवा दूसरी कौन स्त्री दुःख भोगने के लिये विवश हुई होगी? भरतश्रेष्ठ! जान पड़ता है, बचपन में मैंने विधाता का निश्चय ही महान् अपराध किया है, जिसके फलस्वरूप मैं आज इस दुर्दशा में पड़ गयी हूँ। पाण्डुनन्दन! देखो, मेरे शरीर की कान्ति कैसी फीकी पड़ गयी है। यहाँ नगर में मेरी जो अवस्था है, वह उन दिनों अत्यन्त दुःखपूर्ण वनवास के समय भी नहीं थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) विंश अध्याय के श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद)

      भीमसेन! तुम्हीं जानते हो, पहले मुझे कितना सुख था। यहाँ आकर जब से मैं दासी भाव को प्राप्त हुई हूँ, तभी से परतन्त्र होने के कारण मुझे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती है। इसे मैं दैव की ही लीला मानती हूँ। जहाँ प्रचण्ड धनुष धारण करने वाले महाबाहु अर्जुन भी ढकी हुई अग्नि की भाँति रनिवास में छिपकर रहते हैं। कुन्तीनन्दन! दैवाधीन प्राणियों की कब क्या गति होगी, इसे जानना मनुष्यों के लिये सर्वथा असम्भव है। मैं तो समझती हूँ, तुम लोगों की जो अवनति हुई है, इसकी किसी के मन में कल्पना तक नहीं थी। एक दिन था कि इन्द्र समान पराक्रमी तुम सब भाई सदा मेरा मुँह निहारा करते थे। आज वही मैं श्रेष्ठ होकर भी अपने से निकृष्ट दूसरी स्त्रियों का मुँह जोहती रहती हूँ।

     पाण्डुनन्दन! देखो, तुम सब के जीते जी मैं ऐसी बुरी हालत में पड़ी हूँ, जो मेरे लिये कदापि उचित नहीं है। समय के इस उलट-फेर को तो देखो; एक दिन समुद्र के पास तक की पृथ्वी जिसके अधीन थी, वही मैं आज सुदेष्णा के वश में होकर उससे डरती रहती हूँ। जिसके आगे और पीछे बहुत-से सेवक रहा करते थे, वही मैं अब रानी सुदेष्णा के आगे और पीछे चलती हूँ। कुन्तीकुमार! इसके सिवा मेरे एक और असह्य दुःख को तो देखो। पहले में माता कुन्ती को छोड़कर (और किसी के लिये तो क्या) स्वयं अपने लिये भी कभी उबटन नहीं पीसती थी; किंतु वही मैं आज दूसरों के लिये चन्दन घिसती हूँ। पार्थ! देखो, ये मेरे दोनों हाथ, जिनमें घड्डे पड़ गये हैं, पहले ये ऐसे नहीं थे। ऐसा कहकर द्रौपदी ने भीमसेन को अपने दोनों हाथ दिखाये, जिनमें चन्दन रगड़ने से काले दाग पड़ गये थे।

    (फिर वह सिसकती हुई बोली-) नाथ! जो पहले कभी आर्या कुन्ती से अथवा तुम लोगों से भी नहीं डरती थी, वही द्रौपदी आज दासी होकर राजा विराट के आगे भयभीत-सी खड़ी रहती है। उस समय मैं सोचती हूँ, ‘न जाने सम्राट मुझे क्या कहेंगे? यह उबटन अच्छा बना है या नहीं।’ मेरे सिवा दूसरे का पीसा हुआ चन्दन मत्स्यराज को अच्छा ही नहीं लगता।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! भामिनी द्रौपदी इस प्रकार भीमसेन से अपने दुःख बताकर उनके मुख की ओर देखती हुई धीरे-धीरे रोने लगी। वह बार-बार लंबी साँसें लेती हुई आँसुओं से गद्गद वाणी में भीमसेन के हृदय को कम्पित करती हुई इस प्रकार बोली,

    द्रोपदी बोली ;- ‘पाण्डुनन्दन भीमसेन! मेंने पूर्वकाल में देवताओं का थोड़ा अपराध नहीं किया है, तभी तो मुझ अभागिनी को जहाँ मर जाना चाहिये, उस दशा में मैं जी रही हूँ’।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर शत्रुहन्ता भीमसेन अपनी पत्नी द्रौपदी के दुबले-पतले हाथों को, जिनमें घड्डे पड़ गये थे, अपने मुख पर लगाकर रो पड़े। फिर पराक्रमी भीम ने उस हाथों को पकड़कर आँसू बहाते हुए अत्यन्त दुःख से पीड़ित हो इस प्राकर कहा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी-भीमसेन संवाद विषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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