सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ एकवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"उत्तंक की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान का उन्हें वरदान देना तथा इक्ष्वाकुवंशी राजा कुवलाश्व का धुन्धुमार नाम पड़ने का कारण बताना"
वैश्म्पायन जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ महाराज जनमेजय! महाभाग मार्कण्डेय मुनि के मुख से राजर्षि इन्द्रद्युम्न को पुन: स्वर्ग प्राप्ति होने का वृत्तान्त (तथा दान माहात्म्य) सुनकर राजा युधिष्ठिर ने पापरहित, दीर्घायु तथा तपोवृद्ध महात्मा मार्कण्डेय से इस प्रकार पूछा,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘धर्मज्ञ मुने! आप देवता, दानव तथा राक्षसों को भी अच्छी तरह जानते हैं। आपको नाना प्रकार के राजवंशों तथा ऋषियों की सनातन वंश परम्परा का भी ज्ञान है। द्विजश्रेष्ठ! इस लोक में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो आपसे अज्ञात हो। मुने! आप मनुष्य, नाग, राक्षस, देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर तथा अप्सराओं की भी दिव्य कथाएं जानते हैं। विप्रवर! अब मैं यथार्थरूप से यह सुनना चाहता हूँ कि इक्ष्वाकु वंश में जो कुवलाश्व नाम से विख्यात विजयी राजा हो गये हैं, वे क्यों नाम बदलकर ‘धुन्धुमार’ कहलाने लगे। भृगुश्रेष्ठ! बुद्धिमान राजा कुवलाश्व के इस नाम परिवर्तन का यथार्थ कारण मैं जानना चाहता हूँ।
वैशम्पायन जी ने कहा ;- भारत! धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर महामुनि मार्कण्डेय ने धुन्धुमार की कथा प्रारम्भ की।
मार्कण्डेय जी बोले ;- राजा युधिष्ठिर! सुनो। धुन्धुमार का आख्यान धर्ममयी है। अब इसका वर्णन करता हूं, ध्यान देकर सुनो। महाराज! इक्ष्वाकुवंशी राजा कुवलाश्व जिस प्रकार धुन्धुमार नाम से विख्यात हुए, वह सब श्रवण करो। भरतनन्दन! कुरुकुलरत्न! महर्षि उत्तंक का नाम बहुत प्रसिद्ध है। तात! मरु के रमणीय प्रदेश में उनका आश्रम है। महाराज्! प्रभावशाली उत्तंक ने भगवान विष्णु की आराधना की इच्छा से बहुत वर्षों तक अत्यन्त दुष्कर तपस्या की थी। उनकी तपस्या से
प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उनका दर्शन पाते ही महर्षि नम्रता से झुक गये और नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करने लगे। उत्तंक बोले- देव, देवता, असुर, मनुष्य आदि सारी प्रजा आप से ही उत्पन्न हुई है। समस्त स्थावर-जंगम प्राणियों की सुष्टि भी आपने ही की है। महातेजस्वी परमेश्वर! ब्रह्मा, वेद और जानने योग्य सभी वस्तुएं आपने ही उत्पन्न की हैं। देव! आकाश आपका मस्तक है। चन्द्रमा और सूर्य नेत्र हैं। वायु श्वास है तथा अग्नि आपका तेज है। अच्युत! सम्पूर्ण दिशाएं आपकी भुजाएं और महासागर आपका कुक्षिस्थान है। देव! मधुसूदन! पर्वत आपके उरु और अन्तरिक्ष लोक आपकी नाभि है। पृथ्वी देवी आपके चरण तथा ओषधियां रोएं हैं।
भगवन्! इन्द्र, सोम, अग्नि, वरुण देवता, असुर और बड़े-बड़े नाग- ये सब आपके सामने नतमस्तक हो, नाना प्रकार के स्तोत्र पढ़कर आपकी स्तुति करते हुए आपको हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं। भुवनेश्वर! आपने सम्पूर्ण भूतों को व्याप्त कर रखा है। महान् शक्तिशाली योगी और महर्षि आपका स्तवन करते हैं। पुरुषोत्तम! आपके संतुष्ट होने पर ही संसार स्वस्थ एवं सुखी होता है और आपके कुपित होने पर इसे महान् भय का सामना करना पड़ता है। एकमात्र आप ही सम्पूर्ण भय का निवारण करने वाले हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 21-34 का हिन्दी अनुवाद)
देव! आप देवताओं, मनुष्यों तथा सम्पूर्ण भूतों को सुख पहुँचाने वाले हैं। आपने तीन पगों द्वारा ही (बलि के हाथ से) तीनों लोक (दान द्वारा) हरण कर लिये थे। आपने समृद्धिशाली असुरों का संहार किया है। आपके ही पराक्रम से देवता परम सुख-शान्ति के भागी हुए हैं। महाद्युते! आपके रुष्ट होने से ही दैत्यराज देवताओं के सामने पराजित हो जाते हैं। आप इस जगत् के सम्पूर्ण प्राणियों की सृष्टि तथा संहार करने वाले हैं। प्रभो! आपकी आराधना करके ही सम्पूर्ण देवता सुख एवं समृद्धि लाभ करते हैं। महात्मा उत्तंक के इस प्रकार स्तुति करने पर सम्पूर्ण इन्द्रियों के प्रेरक भगवान विष्णु ने उनसे कहा,
भगवान विष्णु बोले ;- ‘महर्षे! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम कोई वर मांगो’।
उत्तंक ने कहा ;- भगवन्! समस्त संसार की सृष्टि करने वाले दिव्य सनातन पुरुष आप सर्वशक्तिमान् श्रीहरि का जो मुझे दर्शन मिला, यही मेरे लिये सबसे महान् वर है।
भगवान विष्णु बोले ;- भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार भगवान विष्णु के द्वारा वर लेने के लिए आग्रह होने पर उत्तंक ने हाथ जोड़कर इस प्रकार वर माँगा,
उत्तंक बोला ;- ‘भगवन्! कमलनयन! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी बुद्धि सदा धर्म, सत्य और इन्द्रिय-निग्रह में लगी रहे। मेरे स्वामी! आपके भजन का मेरा अभ्यास सदा बना रहे।'
श्रीभगवान बोले ;- ब्रह्मन्! मेरी कृपा से यह सब कुछ तुम्हें प्राप्त हो जायेगा। इसके सिवा तुम्हारे हृदय में उस योगविद्या का प्रकाश होगा, जिससे युक्त होकर तुम देवताओं तथा तीनों लोकों का महान् कार्य कर सकोगे। विप्रवर! धुन्धु नाम से प्रसिद्ध एक महान असुर है, जो तीनों लोकों का संहार करने के लिये घोर तपस्या कर रहा है। जो वीर उस महान् असुर का वध करेगा, उसका परिचय देता हूं, सुनो।
तात! इक्ष्वाकु कुल में बृहदश्व नाम से प्रसिद्ध एक महापराक्रमी और किसी से पराजित न होने वाले राजा उत्पन्न होंगे। उनका पवित्र और जितेन्द्रिय पुत्र कुवलाश्व के नाम से विख्यात होगा। ब्रह्मर्षे! तुम्हारे आदेश से वे नृपश्रेष्ठ कुवलाश्व ही मेरे योगबल का आश्रय लेकर धुन्धु राक्षस का वध करेंगे और लोक में धुन्धुमार नाम से विख्यात होंगे।' उत्तंक से ऐसा कहकर भगवान विष्णु अन्तर्धान हो गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में धुन्धुमारोपाख्यान विषयक दो सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ दौवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
"उत्तंक का राजा बृहदश्व से धुन्धु का वध करने के लिये आग्रह"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! महाराज इक्ष्वाकु के देहावसान के पश्यचात उनके परम धर्मात्मा पुत्र शशाद इस पृथ्वी पर राज्य करने लगे। वे अयोध्या में रहते थे। शशाद के पुत्र पराक्रमी ककुत्स्थ हुए। ककुत्स्थ के पुत्र अनेना और अनेना के पृथु हुए। पृथु के विष्वगश्व और उनके पुत्र अद्रि हुए। अद्रि के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व का पुत्र श्राव नाम से विख्यात हुआ। श्राव का पुत्र श्रावस्त हुआ, जिसने श्रावस्तीपुरी बसायी थी। श्रावस्त के ही पुत्र महाबली बृहदश्व थे। बृहदश्व के ही पुत्र का नाम कुवलाश्व था। कुवलाश्व के इक्कीस हजार पुत्र हुए। वे सब के सब सम्पूर्ण विद्याओं में पारंगत, बलवान् और दुर्धर्ष वीर थे। कुवलाश्व उत्तम गुणों में अपने पिता से बढ़कर निकले।
महाराज! राजा बृहदश्व ने यथासमय अपने उत्तम धर्मात्मा शुरवीर पुत्र कुवलाश्व को राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। शत्रुओं का संहार करने वाले बुद्धिमान राजा बृहदश्व राजलक्ष्मी का भार पुत्र पर छोड़कर स्वयं तपस्या के लिये तपोवन में चले गये। राजन्! तदनन्तर द्विजश्रेष्ठ उत्तंक ने यह सुना कि राजर्षि बृहदश्व वन को चले जा रहे हैं। वे नरश्रेष्ठ नरेश सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के विद्वानों में सर्वोत्तम थे। विशाल हृदय वाले महातेजस्वी उत्तंक ने उनके पास जाकर उन्हें वन में जाने से रोका और इस प्रकार कहा।
उत्तंक बोले ;- महाराज! प्रजा की रक्षा करना आपका कर्तव्य है। अत: पहले वही आपको करना चाहिये, जिससे आपके कृपाप्रसाद से हम लोग निर्भय हो जायें। राजन्! आप जैसे महात्मा राजा से सुरक्षित
होकर ही पृथ्वी सर्वथा भयशून्य हो जायेगी। अत: आप वन में न जाइये। क्योंकि आपके लिये यहाँ रहकर प्रजाओं का पालन करने में जो महान् धर्म देखा जाता है, वैसा वन में रहकर तपस्या करने में नहीं दिखायी देता। अत: आपकी ऐसी समझ नहीं होनी चाहिये।राजेन्द्र! पूर्वकाल के राजर्षियो ने जिस धर्म का पालन किया है, वह प्रजाजनों के पालन में ही सुलभ है ऐसा धर्म और किसी कार्य में नहीं दिखायी देता। राजा के लिये प्रजाजनों का पालन करना ही धर्म है। अत: आपको प्रजावर्ग की रक्षा ही करनी चाहिये। भूपाल! मैं शान्तिपूर्वक तपस्या नहीं कर पा रहा हूँ। मेरे आश्रम के समीप समस्त मरु प्रदेश में एक बालू से पूर्ण अर्थात् बालुकामय समुद्र है, उसके नाम है उज्जालक। उसकी लम्बाई-चौड़ाई कई योजन की है। वहाँ महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न एक भयंकर दानवराज रहता है, जो मधु और कैटभ का पुत्र है। वह क्रूर-स्वभाव वाला राक्षस धुन्धु नाम से प्रसिद्ध है। राजन्! वह अमित पराक्रमी दानव धरती के भीतर छिपकर रहा करता है। महाराज! उसका नाश करके ही आपको वन में जाना चाहिये। भूपाल! वह सम्पूर्ण लोकों और देवताओं के विनाश के लिये कठोर तपस्या का आश्रय लेकर (पृथ्वी) शयन करता है। राजन्! वह सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्माजी से वर पाकर देवताओं, दैत्यों, राक्षसों, नागों, यक्षों और समस्त गन्धर्वों के लिये अवध्य हो गया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयधिकद्विशततमो अध्याय के श्लोक 22-31 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! आपका कल्याण हो। आप उस दैत्य का विनाश कीजिये। इसके विपरीत आपको कोई विचार नहीं करना चाहिये। उसका वध करके आप सदा बनी रहने वाली अक्षय एवं महान् कीर्ति प्राप्त करेंगे। बालू के भीतर छिपकर रहने वाला वह क्रूर राक्षक एक वर्ष में एक ही बार सांस लेता है।
जिस समय वह सांस लेता है, उस समय पर्वत, वन और काननों सहित यह सारी पृथ्वी डोलने लगती है। उसके सांस की आंधी से धूल का इतना ऊँचा बवंडर उठता है कि वह सूर्य के मार्ग को भी ढक लेता है और सात दिनों तक वहाँ भूकम्प होता रहता है। आग की चिनगारियां, ज्वालाएं और धुआं उठकर अत्यन्त भंयकर दृश्य उपस्थित करते हैं। राजन्! इस कारण मेरा अपने आश्रम में रहना कठिन हो गया है। सब लोगों के हित के लिये आप उस राक्षस को नष्ट कीजिये।
उस असुर के मारे जाने पर सब लोग स्वस्थ एवं सुखी हो जायेंगे। मेरा विश्वास है कि आप अकेले ही उसका नाश करने के लिये पर्याप्त हैं। भूपाल! भगवान विष्णु अपने तेज से आपके तेज को बढ़ायेंगे। उन्होंने पूर्वकाल में मुझे यह वर दिया था कि जो राजा उस भयानक एवं महान् असुर का वध करने को उद्यत होगा, उस दुर्धर्ष वीर के भीतर मेरा वैष्णव तेज प्रवेश करेगा।
महाराज! अत: आप भगवान का दु:सह तेज धारण करके पृथ्वी पर रहने वाले उस भयानक पराक्रमी दैत्य को नष्ट कीजिये। राजन्! धुन्धु महातेजस्वी असुर है। साधारण तेज से सौ वर्षों में भी कोई उसे नष्ट नहीं कर सकता।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में धुन्धुमारोपाख्यान विषयक दो सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ तीनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
"ब्रह्माजी की उत्पत्ति और भगवान विष्णु के द्वारा मधु-कैटभ का वध"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- कौरवश्रेष्ठ! उत्तंक के इस प्रकार आग्रह करने पर अपराजित वीर राजर्षि बृहदश्व ने उनसे हाथ जोड़कर कहा,
बृहदश्व बोले ;- ‘ब्रह्मन्! आपका यह आगमन निष्फल नहीं होगा। भगवन्! मेरा यह पुत्र कुवलाश्व भूमण्डल में अनुपम वीर है। यह धैर्यवान् और फुर्तीला है। परिघ-जैसी मोटी भुजाओं वाले अपने समस्त शूरवीर पुत्रों के साथ जाकर यह आपका सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करेगा, इसमें संशय नहीं है। ब्रह्मन्! आप मुझे छोड़ दीजिये। मैंने अब अस्त्र-शस्त्रों को त्याग दिया है।' तब अमित तेजस्वी उत्तंक मुनि ने ‘तथास्तु’ कहकर राजा को वन में जाने की आज्ञा दे दी। तत्पचात् राजर्षि बृहदश्व ने महात्मा उत्तंक को अपना वह पुत्र सौंप दिया और धुन्धु का वध करने की आज्ञा दे उत्तम तपोवन की ओर प्रस्थान किया।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- तपोधन! भगवन्! यह पराक्रमी दैत्य कौन था? किसका पुत्र और नाती था? मैं यह सब जानना चाहता हूँ। तपस्या के धनी मुनीश्वर! ऐसा महाबली दैत्य तो मैंने कभी नहीं सुना था, अत: भगवन्! मैं इसके विषय में यथार्थ बातें जानना चाहता हूँ। महामते! आप यह सारी कथा विस्तारपूर्वक बताइये।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन! तुम बड़े बुद्धिमान हो। यह सारा वृत्तान्त मैं यथार्थरूप से विस्तारपूर्वक कह रहा हूं, ध्यान देकर सुनो।
भरतश्रेष्ठ! बात उस समय की है, जब सम्पूर्ण चराचर जगत् एकार्णव के जल में डूबकर नष्ट हो चुका था। समस्त प्राणी काल के गाल में चले गये थे। उस समय वे भगवान विष्णु एकार्णव जल में अमित तेजस्वी शेषनाग के विशाल शरीर की शय्या पर आश्रय लेकर शयन करते थे। उन्हीं भगवान को सिद्ध, मुनिगण सबकी उत्पति का कारण, लोकस्रष्टा, सर्वव्यापी, सनातन, अविनाशी तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं। महाभाग! अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले लोककर्ता भगवान श्रीहरि नाग के विशाल फण के द्वारा धारण की हुई इस पृथ्वी का सहारा लेकर (शेषनाग पर) सो रहे थे, उस समय उन दिव्यस्वरूप नारायण की नाभि से एक दिव्य कमल प्रकट हुआ, जो सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। उसी में सम्पूर्ण लोकों के गुरु साक्षात् पितामह ब्रह्माजी प्रकट हुए, जो सूर्य के समान तेजस्वी थे। वे चारों वेदों के विद्वान् हैं। जरायुज आदि चतुर्विध जीव उन्हीं के स्वरूप हैं। उनके चार मुख हैं। उनके बल और पराक्रम महान् हैं। वे अपने प्रभाव से दुर्घर्ष हैं।
ब्रह्माजी के प्रकट होने के कुछ काल बाद मधु और कैटभ नामक दो पराक्रमी दानवों ने सर्वसामर्थ्यवान् भगवान श्रीहरि को देखा। वे शेषनाग के शरीर की दिव्यशय्या पर शयन करते हैं, उसकी लंबाई-चौड़ाई कई योजनों की है। भगवान के मस्तक पर किरीट और कण्ठ में कौस्तुभ मणि की शोभा हो रही थी। उन्होंने रेशमी पीताम्बर धारण कर रखा था। राजन्! वे अपनी कान्ति और तेज से उद्वीप्त हो रहे थे। शरीर से वे सहस्रों सूर्यों के समान प्रकाशित होते थे। उनकी झांकी अद्भुत और अनुपम थी। भगवान को देखकर मधु और कैटभ दोनों को बड़ा आश्चर्य हुआ। तत्पचात् उनकी दृष्टि कमल में बैठे हुए कमलनयन पितामह ब्रह्माजी पर पड़ी। उन्हें देखकर वे दोनों दैत्य उन अमित तेजस्वी ब्रह्माजी को डराने लगे। उन दोनों के द्वारा बार-बार डराये जाने पर महायशस्वी ब्रह्माजी ने उस कमल की नाल को हिलाया। इससे भगवान गोविन्द जाग उठे। जागने पर उन्होंने उन दोनों महापराक्रमी दानवों को देखा।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयधिकद्विशततमो अध्याय के श्लोक 23-35 का हिन्दी अनुवाद)
उन महाबली दानवों को देखकर भगवान विष्णु ने कहा,
भगवान विष्णु बोले ;- ‘तुम दोनों बड़े बलवान् हो। तुम्हारा स्वागत है। मैं तुम दोनों को उत्तम वर दे रहा हूं; क्योंकि तुम्हें देखकर मुझे प्रसन्नता होती है’।
महाराज! वे दोनों महाबली दानव बड़े अभिमानी थे। उन्होंने हंसकर इन्द्रियों के स्वामी भगवान मधुसूदन से एक साथ कहा,
दानव बोले ;- ‘सुरश्रेष्ठ! हम दोनों तुम्हें वर देते हैं। देव! तुम्हीं हम लोगों से वर मांगो। हम दोनों तुम्हें तुम्हारी इच्छा के अनुसार वर देंगे। तुम बिना सोचे-विचारे जो चाहो, मांग लो’।
श्री भगवान बोले ;- वीरों! मैं तुम से अवश्य वर लूंगा। मुझे तुम से वर प्राप्त करना अभीष्ट है: क्योंकि तुम दोनों बड़े पराक्रमी हो। तुम्हारे-जैसा दूसरा कोई पुरुष नहीं है। सत्यपराक्रमी वीरो! तुम दोनों मेरे हाथ से मारे जाओ। मैं सम्पूर्ण जगत् के हित के लिये तुम से यही मनोरथ प्राप्त करना चाहता हूँ।
मधु और कैटभ ने कहा ;- पुरुषोत्तम! हम लोगों ने पहले कभी स्वच्छन्द (मर्यादारहित) बर्ताव में भी झूठ नहीं कहा है, फिर और समय में तो हम झूठ बोल ही कैसे सकते हैं? आप हम दोनों को सत्य और धर्म में अनुरक्त मानिये। बल, रूप, शौर्य और मनोनिग्रह में हमारी समता करने वाला कोई नहीं है। धर्म, तपस्या, दान, शील, सत्व तथा इन्द्रियसंयम में भी हमारी कहीं तुलना नहीं है। किंतु केशव! हम लोगों पर यह महान् संकट आ पहुँचा है। अब आप भी अपनी कही हुई बात पूर्ण कीजिये। काल का उल्लंघन करना बहुत ही कठिन है।
देव! सुरश्रेष्ठ! विभो! हम दोनों आपके द्वारा एक ही सुविधा चाहते हैं। वह यह है कि आप इस खुले आकाश में ही हमारा वध कीजिये। सुन्दर नेत्रों वाले देवेश्वर! हम दोनों आपके पुत्र हों। हमने आपसे यही वर मांगा है। आप इसे अच्छी तरह समझ लें। सुरश्रेष्ठ देव! हमने जो प्रतिज्ञा की है, वह असत्य नहीं होनी चाहिये।
श्री भगवान बोले ;- बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा। यह सब कुछ (तुम्हारी इच्छा के अनुसार) होगा। भगवान विष्णु ने बहुत सोचने पर जब कहीं खुला आकाश न देखा और स्वर्ग अथवा पृथ्वी पर भी जब
उन्हें कोई खुली जगह न दिखायी दी, तब महायशस्वी देवेश्वर मधुसूदन ने अपनी दोनों जांघों को अनावृत (वस्त्ररहित) देखकर मधु और कैटभ के मस्तकों को उन्हीं पर रखकर तीखी धार वाले चक्र से काट डाला।(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में धुन्धुमारोपाख्यान विषयक दो सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ चारवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरधिकद्विशततक अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"धुन्धु की तपस्या और वरप्राप्ति, कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध और देवताओं का कुवलाश्व को वर देना"
मार्कण्डेयजी कहते हैं ;- महाराज! उन्हीं दोनों मधु और कैटभ का पुत्र धुन्धु है, जो बड़ा तेजस्वी और महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न है। उसने बड़ी भारी तपस्या की। वह दीर्घकाल तक एक पैर से खड़ा रहा। उसका शरीर इतना दुर्बल हो गया कि नस-नाड़ियों का जाल दिखायी देने लगा। ब्रह्माजी ने उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर उसे वर दिया धुन्धु ने भगवान ब्रह्मा से इस प्रकार वर मांगा,
धुन्धु बोला ;― ‘भगवन्! मैं देवता, दानव, यक्ष, सर्प, गन्धर्व और राक्षस किसी के हाथ से न मारा जाऊं। मैंने आप से यही वर मांगा है’। तब ब्रह्माजी ने उससे कहा,
ब्रम्हा जी बोले ;- ‘ऐसा ही होगा। जाओ।' उनके ऐसा कहने पर धुन्धु ने मस्तक झुकाकर उनके चरणों का स्पर्श किया और वहाँ से चला गया।
जब धुन्धु वर पाकर महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न हो गया, तब उसे अपने पिता मधु और कैटभ के वध का स्मरण हो आया और वह शीघ्रतापूर्वक भगवान विष्णु के पास गया। धुन्धु अमर्ष में भरा हुआ था। उसने गन्धर्व सहित सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर भगवान विष्णु तथा अन्य देवताओं को बार-बार महान् कष्ट देना प्रारम्भ किया। भरतश्रेष्ठ! वह दुष्टात्मा बालुकामय प्रसिद्ध उज्जालक समुद्र में आकर रहने और उस देश के निवासियों को सताने लगा। राजन्! वह अपनी पूरी शक्ति लगाकर धरती के भीतर बालू में छिपकर वहाँ उत्तंक के आश्रम में भी उपद्रव करने लगा। मधु और कैटभ का वह भयंकर पराक्रमी पुत्र धुन्धु तपोबल का आश्रय ले सम्पूर्ण लोकों का विनाश करने के लिये वहाँ मरु प्रदेश में शयन करता था। उत्तंक के आश्रम के पास सांस ले-लेकर वह आग की चिनगारियां फैलाता था।
भरतश्रेष्ठ! इसी प्रकार राजा कुवलाश्व ने अपनी सेना, सवारी तथा पुत्रों के साथ प्रस्थान किया। उनके साथ विप्रवर उत्तंक भी थे। शत्रुमर्दन महाराज कुवलाश्व अपने इक्कीस हजार बलवान् पुत्रों को
साथ लेकर (सेना सहित) चले थे। तदनन्तर उत्तंक के अनुरोध से सम्पूर्ण जगत् का हित करने के लिये सर्वसमर्थ भगवान विष्णु ने अपने तेजोमय स्वरूप से कुवलाश्व में प्रवेश किया। उन दुर्धर्ष वीर कुवलाश्व के यात्रा करने पर देवलोक में अत्यन्त हर्षपूर्ण कोलाहल होने लगा।
देवता कहने लगे ;- ‘ये श्रीमान् नरेश अवध्य हैं, आज धुन्धु को मारकर ये ‘धुन्धुमार’ नाम धारण करेंगे।'
देवता लोग चारों ओर से उन पर दिव्य फुलों की वर्षा करने लगे। देवताओं की दुन्दुभियां स्वयं बिना किसी प्रेरणा के बज उठीं। उन बुद्धिमान राजा कुवलाश्व के यात्राकाल में शीतल वायु चलने लगी। देवराज इन्द्र धरती की धूल शान्त करने के लिये वर्षा करने लगे। युधिष्ठिर! जहाँ महान् असुर ‘धुन्धु’ रहता था, वहीं आकाश में देवताओं के विमान आदि दिखायी देने लगे। कुवलाश्व और धुन्धु का युद्ध देखने के लिये उत्सुक हो देवताओं और गन्धर्वों के साथ महर्षि भी आकर डट गये और वहाँ सारी बातों पर दृष्टिपात करने लगे। कुरुनन्दन! उस समय भगवान नारायण के तेज से परिपुष्ट हो राजा कुवलाश्व अपने उन पुत्रों के साथ वहाँ जा पहुँचे और शीघ्र ही चारों ओर से उस बालुकामय समुद्र को खुदवाने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरधिकद्विशततक अध्याय के श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद)
कुवलाश्व के पुत्रों ने सात दिनों तक खुदाई करने के बाद उस बालुकामय समुद्र में (छिपे हुए) महाबली धुन्धु को देखा। बालू के भीतर छिपा हुआ उसका शरीर विशाल एवं भयंकर था। भरतश्रेष्ठ! वह अपने तेज से सूर्य के समान उद्दीप्त हो रहा था। महाराज्! तदनन्तर धुन्धु पश्चिम दिशा को घेरकर सो गया। नृपश्रेष्ठ! उसकी कान्ति प्रलयकालीन अग्नि के समान जान पड़ती थी। उस समय राजा कुवलाश्व के पुत्रों ने सब ओर से घेरकर उस पर आक्रमण किया। तीखे बाण, गदा, मूसल, पट्टिश, परिघ, प्रास और चमचमाते हुए तेज धार वाले खड्ग-इन सबके द्वारा चोट खाकर महाबली धुन्धु क्रोधित हो गया और उनके चलाये हुए नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को वह क्रोधी असुर खा गया। तत्पचात् उसने अपने मुंह से प्रलयकालीन अग्नि के समान आग की चिनगारियां उगलना आरम्भ किया और उन समस्त राजकुमारों को अपने तेज से जलाकर भस्म कर दिया।
नृपश्रेष्ठ! जैसे पूर्व काल में भगवान कपिल ने कुपित होकर राजा सगर के सभी पुत्रों को क्षणभर में दग्ध कर दिया था, उसी प्रकार क्रोध में भरे हुए धुन्धु ने, अपने मुख से आग प्रकट करके कुवलाश्व के पुत्रों को जला दिया। यह एक अद्भुत-सी घटना घटित हुई। भरतश्रेष्ठ! जब सभी राजकुमार धुन्धु की क्रोधाग्नि से दग्ध हो गये, तब महातेजस्वी राजा कुवलाश्व ने दूसरे कुम्भकर्ण के समान जगे हुए उस महाकाय दानव पर आक्रमण किया। महाराज्! उस समय धुन्धु के शरीर से बहुत-सा जल प्रवाहित होने लगा, किंतु राजा कुवलाश्व ने योगी होने के कारण योगबल से उस जलमय तेज को पी लिया और जल प्रकट करके धुन्धु की मुखाग्नि को बुझा दिया।
राजेन्द्र! भरतश्रेष्ठ! तत्पचात् सम्पूर्ण लोकों के कल्याण के लिये राजर्षि कुवलाश्व ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके उस क्रूर पराक्रमी दैत्य धुन्धु को दग्ध कर दिया। इस प्रकार ब्रह्मास्त्र द्वारा शत्रुनाशक, देववैरी महान् असुर धुन्धु को दग्ध करके राजा कुवलाश्व दूसरे इन्द्र की भाँति शोभा पाने लगे। उस समय महामना राजा कुवलाश्व धुन्धु को मारने के कारण ‘धुन्धुमार’ नाम से विख्यात हो गये। उनका सामना करने वाला वीर कोई नहीं रह गया था। तदनन्तर महर्षियों सहित सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होकर वहाँ आये और राजा से वर मांगने का अनुरोध करने लगे।
राजन्! उनकी बात सुनकर कुवलाश्व अत्यन्त प्रसन्न हुए और हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर इस प्रकार बोले,
कुवलाश्व बोले ;- ‘देवताओ! मैं श्रेष्ठ ब्राह्मणों को धन दान करूँ, शत्रुओं के लिये दुर्जय बना रहूं, भगवान विष्णु के साथ सख्य-भाव से मेरा प्रेम हो और किसी भी प्राणी के प्रति मेरे मन में द्रोह न रह जाये। धर्म में मेरा सदा अनुराग हो और अन्त में मेरा स्वर्गलोक में नित्य निवास हो।' यह सुनकर देवताओं ने बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा कुवलाश्व से कहा,
देवगण बोले ;- ‘महाराज! ऐसा ही होगा।' राजन्! तदनन्तर ऋषियों, गन्धर्वों और बुद्धिमान महर्षि उत्तंक ने भी नाना प्रकार के आशीर्वाद देते हुए राजा से वार्तालाप किया। युधिष्ठिर- इसके बाद देवता और महर्षि अपने-अपने स्थान को चले गये। उस युद्ध में राजा कुवलाश्व के तीन ही पुत्र शेष रह गये थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरधिकद्विशततक अध्याय के श्लोक 40-45 का हिन्दी अनुवाद)
भारत! उनके नाम थे- दृढाश्व, कपिलाश्व और चन्द्राश्व। राजन्! महाभाग! उन्हीं से अमित तेजस्वी इक्ष्वाकुवंशी महामना नरेशों की वंश परम्परा चालू इुई।
सज्जनशिरोमणे! इस प्रकार मधुकैटभ-कुमार महादैत्य धुन्धु कुवलाश्व के हाथ से मारा गया और राजा कुवलाश्व की धुन्धुमार नाम से प्रसिद्धि हुई। तभी से वे नरेश अपने नाम के अनुसार वीरता आदि गुणों से युक्त हो भूमण्डल में विख्यात हो गये।
युधिष्ठिर! तुमने मुझसे जो पूछा था, वह सारा धुन्धुमारोपाख्यान मैंने तुम से कह सुनाया। जिनके पराक्रम से इस उपाख्यान की प्रसिद्धि हुई है, उन नरेश का भी परिचय दे दिया।
जो मनुष्य भगवान विष्णु के कीर्तनरूप इस पवित्र उपाख्यान को सुनता है, वह धर्मात्मा और पुत्रवान् होता है। जो पर्वों पर इस कथा को सुनता है, वह दीर्घायु तथा ऐश्वर्यशाली होता है। उसे रोग आदि का कुछ भी भय नहीं होता। उसकी सारी चिन्ताएं दूर हो जाती हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में धुन्धुमारोपाख्याय विषयक दो सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ पाचवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्चाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"पतिव्रता स्त्री तथा पिता-माता की सेवा का माहात्म्य"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ जनमेजय! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने महातेजस्वी मार्कण्डेय मुनि से धर्म विषयक प्रश्न किया, जो समझने में अत्यन्त कठिन था। वे बोले,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘भगवन्! मैं आपके मुख से (पतिव्रता) स्त्रियों के सूक्ष्म, धर्मसम्मत एवं उत्तम माहात्म्य का यथार्थ वर्णन सुनना चाहता हूँ। भगवन! श्रेष्ठ ब्रह्मर्षे! इस जगत् में सूर्य, चन्द्रमा, वायु, पथ्वी, अग्नि, पिता, माता और गुरु-ये प्रत्यक्ष देवता दिखायी देते हैं। भृगुनन्दन! इसके सिवा अन्य जो देवतारूप से स्थापित देवविग्रह हैं, वे भी प्रत्यक्ष देवताओं की ही कोटि में हैं। समस्त गुरुजन और पतिव्रता नारियां भी समादर के योग्य हैं। पतिव्रता स्त्रियां अपने पति की जैसी सेवा-शुश्रूषा करती हैं; वह दूसरे किसी के लिये मुझे अत्यन्त कठिन प्रतीत होती है। प्रभो! आप अब हमें पतिव्रता स्त्रियों की महिमा सुनावें। निष्पाप महर्षे! जो अपनी इन्द्रियों को संयम में रखती हुई मन को वश में करके अपने पति का देवता के समान ही चिन्तन करती रहती हैं, वे नारियां धन्य हैं। प्रभो! भगवन्! उनका वह त्याग और सेवाभाव मुझे तो अत्यन्त कठिन जान पड़ता है।
ब्रह्मन! पुत्रों द्वारा माता-पिता की सेवा तथा स्त्रियों द्वारा की हुई पति की सेवा बहुत कठिन है। स्त्रियों के इस कठोर धर्म से बढ़कर और कोई दुष्कर कार्य मुझे नहीं दिखायी देता है। ब्रह्मन्! समाज में सदा आदर पाने वाली सदाचारिणी स्त्रियां जो महान् कार्य करती हैं, वह अत्यन्त कठिन है। जो लोग पिता-माता की सेवा करते हैं, उनका कर्म भी बहुत कठिन है। पतिव्रता तथा सत्यवादिनी स्त्रियां अत्यन्त कठोर धर्म का पालन करती हैं। स्त्रियां अपने उदर में दस महीने तक जो गर्भ धारण करती हैं और यथा समय उसको जन्म देती हैं, इससे अद्भुत कार्य और कौन होगा। भगवन्! अपने को भारी प्राण संकट में डालकर और अतुल वेदना को सहकर नारियां बड़े कष्ट से संतान उत्पन्न करती हैं। विप्रवर! फिर बड़े स्नेह से उनका पालन भी करती हैं।
जो सती-साध्वी स्त्रियां क्रूर स्वभाव के पतियों की सेवा में रहकर उनके तिरस्कार का पात्र बनकर भी सदा अपने सती-धर्म का पालन करती रहती हैं, वह तो मुझे और भी अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है। ब्रह्मन! आप मुझे क्षत्रियों के धर्म और आचार का तत्व भी विस्तारपूर्वक बताइये। विप्रवर! जो क्रूर स्वभाव के मनुष्य हैं, उनके लिये महात्माओं का धर्म अत्यन्त दुर्लभ है। भगवन्! भृगकुलशिरोमणे! आप उत्तम व्रत के पालक और प्रश्न का समाधान करने वाले विद्वानों में श्रेष्ठ हैं। मैंने जो प्रश्न आप के सम्मुख उपस्थित किया है, उसी का उत्तर मैं आपसे सुनना चाहता हूं’।
मार्कण्डेय जी बोले ;- भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे इस प्रश्न की विवेचना करना यद्यपि बहुत कठिन है, तो भी मैं अब इसका यथावत् समाधान करूँगा। तुम मेरे मुख से सुनो। कुछ लोग माताओं को गौरव की दृष्टि से बड़ी मानते हैं। दूसरे लोग पिता को महत्व देते हैं। परंतु माता जो अपनी संतानों को पाल-पोसकर बड़ा बनाती है, वह उसका कठिन कार्य है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्चाधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 18-23 का हिन्दी अनुवाद)
माता-पिता तपस्या, देवपूजा, वन्दना, तितिक्षा तथा अन्य श्रेष्ठ उपायों द्वारा भी पुत्रों को प्राप्त करना चाहते हैं। वीर! इस प्रकार बड़ी कठिनाई से परम दुलर्भ पुत्र को पाकर लोग सदा इस चिन्ता में डूबे रहते हैं कि न जाने यह किस तरह का होगा।
भारत! पिता और माता अपने पुत्रों के लिये यश, कीर्ति और संतान तथा धर्म की शुभकामना करते हैं। राजेन्द्र! जो उन दोनों की आशा को सफल करता है, वही पुत्र धर्मज्ञ है। जिसके माता-पिता उससे सदा संतुष्ट रहते हैं, उसे इहलोक और परलोक में अक्षय कीर्ति और शाश्वत धर्म की प्राप्ति होती है।
नारी के लिये किसी यज्ञ कर्म, श्राद्ध और उपवास की आवश्यकता नहीं है। वह जो पति की सेवा करती है, उसी के द्वारा स्वर्गलोक पर विजय प्राप्त कर लेती है।
राजा युधिष्ठिर! इसी प्रकरण में पतिव्रताओं के नियत धर्म का वर्ण्न किया जायेगा। तुम सावधान होकर सुनो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में पतिव्रतो पाख्यान विषयक दो सौ पांचवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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