सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ छियानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षण्णवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय जी से पुन: यह अनुरोध किया,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘भगवन्! फिर मुझे क्षत्रियों का माहात्म्य सुनाइये’।
तब मार्कण्डेय जी ने कहा ;- ‘महाराज! पूर्वकाल में वृषदर्भ और सेदुक, ये दो राजा थे। दोनों ही नीति के मार्ग पर चलने वाले और अस्त्र तथा उपास्त्रों की विद्या में निपुण थे। वृषदर्भ ने बचपन से ही एक गुप्त व्रत ले रखा था कि ‘ब्रह्मण को सोना-चांदी के सिवा और कुछ नहीं देना चाहिये (तात्पर्य यह कि उसे सुवर्ण तथा रजत ही प्रदान करना चाहिये)’। उनके इस व्रत को सेदुक जानते थे।
एक दिन कोई वेदाध्ययन सम्पन्न ब्राह्मण राजा सेदुक के पास आया और उन्हें आशीर्वाद देकर गुरु-दक्षिणा के लिये भिक्षा मांगता हुआ बोला,
ब्राह्मण बोले ;- ‘राजन्! आप मुझे एक हजार घोड़े दीजिये।' तब सेदुक ने उस ब्रह्मण से कहा,,
राजा सेदूक बोले ;- ‘ब्रह्मन! आपकी अभीष्ट गुरु-दक्षिणा देना मेरे लिये सम्भव नहीं है। अत: आप वृषदर्भ के पास चले जाइये। ब्राह्मण! राजा वृषदर्भ बड़े धर्मज्ञ हैं। आप उन्हीं से याचना कीजिये। वे आपकी अभीष्ट वस्तु दे देंगे। यह उनका गुप्त नियम है’।
तब ब्राह्मण देवता ने वृषदर्भ के पास जाकर एक हजार घोड़े मांगे। यह सुनकर राजा उन्हें कोड़े से पीटने लगे। यह देख ब्राह्मण ने पूछा,
ब्राह्मण बोले ;- ‘राजन्! मुझ निरपराध को आप क्यों मार रहे हैं।' ऐसा कहकर ब्रह्मण देवता शाप देने को उद्यत हो गये।
तब राजा ने उनसे कहा ;- ‘विप्रवर! क्या जो आपको अपना धन न दे, उसको शाप देना ही उचित है? अथवा यही ब्रह्मणोचित कर्म है।'
ब्राह्मण ने कहा ;- ‘राजाधिराज! आपके पास राजा सेदुक ने मुझे भेजा है, तभी आपसे गुरु-दक्षिणा मांगने आया हूँ। उनके उपदेश के अनुसार ही मैंने आपसे याचना की है।'
राजा बोले ;- 'ब्रह्मन्! आज जो भी राजकीय कर मेरे पास आयेगा, उसे कल पूर्वाह्ण में ही आपको दे दूंगा। जिसे कोड़े से पीटा जाये, उसे खाली हाथ कैसे लौटाया जा सकता है?' ऐसा कहकर राजा ने ब्राह्मण को एक दिन की आय दे दी। इस प्रकार उन्होंने एक हजार से अधिक घोड़ों का मूल्य ही दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में सेदुक-वृषदर्मचरित विषयक एक सौ छियानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"इन्द्र और अग्नि द्वारा शिबि की परीक्षा"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! एक समय देवताओं में परस्पर यह बातचीत हुई कि ‘पृथ्वी पर चलकर हम उशीनर के पुत्र राजा शिबि की श्रेष्ठता की परीक्षा करें।' 'ऐसा ही हो’ यह कहकर अग्नि और इन्द्र वहाँ जाने के लिये उद्यत हुए। अग्नि देव कबूतर का रूप धारण करके मानो अपने प्राण बचाने के लिये राजा के पास भागते हुए गये और इन्द्र ने बाज पक्षी का रूप धारण कर मांस के लिये उस कबूतर का पीछा किया। राजा शिबि अपने दिव्य सिंहासन पर बैठे हुए थे। कबूतर उनकी गोद में जा गिरा। यह देखकर पुरोहित ने राजा से कहा,
पुरोहित बोला ;- ‘महाराज! यह कबूतर बाज के डर से अपने प्राणों की रक्षा के लिये आपकी शरण में आया है। किसी तरह प्राण
बच जायें-यही इसका प्रयोजन है। परंतु विद्वान् पुरुष कहते हैं कि ‘इस तरह कबूतर का आकर गिरना भयंकर अनिष्ट का सूचक है।’ आपकी मृत्यु निकट जान पड़ती है; अत: आपको इस उत्पात की शान्ति करनी चाहिये। आप धन दान करें’।
तदनन्तर कबूतर ने राजा से कहा ;- ‘महाराज! मैं बाज के डर से प्राण बचाने के लिये प्राणार्थी होकर आपकी शरण में आया हूँ। मैं वास्तव में कबूतर नहीं, ऋषि हूँ। मैंने स्वेच्छा से पूर्व शरीर से यह शरीर बदल लिया है। प्राणरक्षक होने के कारण आप ही मेरे प्राण हैं। मैं आपकी शरण में हूं, मुझे बचाइये। मुझे ब्रह्मचारी समझिये। मैंने वेदों का स्वाध्याय करते हुए अपने शरीर को दुर्बल किया है। मैं तपस्वी और जितेन्द्रिय हूँ। आचार्य के प्रतिकूल कभी कोई बात नहीं करता। इस प्रकार मुझे योगयुक्त और निष्पाप जानिये। मैं वेदों का प्रवचन और छन्दों का संग्रह करता हूँ। मैंने सम्पूर्ण वेदों के एक-एक अक्षर का अध्ययन किया है। मैं श्रोत्रिय विद्वान हूँ। मुझ जैसे व्यक्ति को किसी भूखे प्राणी की भूख बुझाने के लिये उसके हवाले कर देना उत्तम दान नहीं है। अत: मुझे बाज को न सौंपिये। मैं कबूतर नहीं हूं’।
तदनन्तर बाज ने राजा से कहा ;- ‘महाराज! प्राय: सभी जीवों को बारी-बारी से विभिन्न योनियों में जन्म लेकर रहना पड़ता है। मालूम होता है, आप इस सृष्टि परम्परा में पहले कभी इस कबूतर से जन्म ग्रहण कर चुके हैं; तभी तो इसे अपने आश्रय में ले रहे हैं। राजन्! मैं आग्रह पूर्वक कहता हूं, आप इस कबूतर को लेकर मेरे भोजन के कार्य में विघ्न न डालें’।
राजा बोले ;- अहो! आज से पहले किसने कभी भी किसी पक्षी के मुख से ऐसी उत्तम संस्कृत भाषा का उच्चारण देखा या सुना है, जैसी कि ये कबूतर और बाज बोल रहे हैं। किस प्रकार इन दोनों का स्वरूप जानकर इनके प्रति न्यायोचित बर्ताव किया जा सकता है। जो राजा अपनी शरण में आये हुए भयभीत प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में दे देता है, उसके देश में समय पर वर्षा नहीं होती। उसके बोये हुए बीज भी समय पर नहीं उगते हैं। वह कभी संकट के समय जब अपनी रक्षा चाहता है, तब उसे कोई रक्षक नहीं मिलता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तवत्यधिकशततमो अध्याय के श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद)
जो राजा अपनी शरण में आये हुए भयभीत प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में दे देता है, उसकी पैदा हुई संतान छोटी अवद्था में ही मर जाती है। उसके पितरों को कभी पितृलोक में रहने के लिये स्थान नहीं मिलता और देवता उसका दिया हुआ हविष्य नहीं ग्रहण करते हैं। जो राजा अपनी शरण में आये हुए भयभीत प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में दे देता है, उसका खाना-पीना निष्फल है। वह अनुदार हृदय का मनुष्य शीघ्र ही स्वर्गलोक से भ्रष्ट हो जाता है और इन्द्र आदि देवता उसके ऊपर वज्र का प्रहार करते हैं। अत: बाज! इस कबूतर के बदले मेरे सेवक ले जायें। तुम्हारी पुष्टि के लिये भात के साथ ऋषभकन्द पकाकर दूंगा। तुम जिस स्थान पर प्रसन्नतापूर्वक रह सको, वहीं चलकर रहो। ये शिबिवंशी क्षत्रिय वहीं तुम्हारे लिये भात और ऋषभकन्द का गूदा पहुँचा दें।'
बाज बोला ;- 'राजन्! मैं आप से ऋषभकन्द नहीं मांगता और न मुझे इस कबूतर से अधिक कोई दूसरा मांस ही चाहिये। आज दूसरे पक्षियों के अभाव में यह कबूतर ही मेरे लिये देवताओं का दिया हुआ भोजन है। अत: यही मेरा आहार होगा। इसे ही मुझे दे दीजिये।'
राजा ने कहा ;- 'बाज! उक्षा (ऋषभकन्द) अथवा वेहत नामक ओषधियां बड़ी पुष्टिकारक होती हैं। मेरे सेवक जाकर उनकी खोज करें और पर्याप्त मात्रा में भात के साथ उन्हें पकाकर तुम्हारे पास पहुँचा दें। भयभीत कपोत के बदले में मेरे पास से मिलने वाला यह उचित मूल्य होगा। इसे ले लो, किंतु इस कबूतर को न मारो। मैं अपने प्राण दे दूंगा, किंतु इस कबूतर को नही दूंगा। बाज! क्या तुम नहीं जानते, यह कितना सुन्दर स्वयं कैसा भोला-भाला है? सौम्य! अब तुम यहाँ व्यर्थ कष्ट न उठाओ। मैं इस कबूतर को किसी तरह तुम्हारे हाथ में नहीं दूंगा। बाज! जिस कर्म से शिबि देश के लोग प्रसन्न होकर मुझे साधुवाद देते हुए मेरी भूरि-भूरि प्रशंसा करें और जिससे मेरे द्वारा तुम्हारा भी प्रिय कार्य बन सके, वह बताओ। उसी के लिये मुझे आज्ञा दो। मैं वही करूँगा।'
बाज बोला ;- 'राजन्! अपनी दायीं जांघ से उतना ही मांस काटकर दो, जितना इस कबूतर के बराबर हो सके। ऐसा करने से कबूतर की भली-भाँति रक्षा हो सकती है। इसी से शिबि देश की प्रजा आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा करेगी और मेरा भी प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायेगा।'
तब राजा ने अपनी दायीं जांघ से मांस काटकर उसे तराजू के एक पलड़े पर रखा। किंतु कबूतर के साथ तौलने पर वही अधिक भारी निकला। राजा ने फिर दूसरी बार अपने शरीर का मांस काटकर रखा, तो भी कबूतर का ही पलड़ा भारी रहा। इस प्रकार क्रमश: उन्होंन अपने सभी अंगों का मांस काट-काटकर तराजू पर चढ़ाया तो भी कबूतर ही भारी रहा। तब राजा स्वयं ही तराजू पर चढ़ गये। ऐसा करते समय उनके मन में क्लेश नहीं हुआ। यह घटना देखकर बाज बोल उठा,
बाज बोला ;- ‘हो गयी कबूतर की प्राण रक्षा।‘ ऐसा कहकर वह वहीं अन्तर्धान हो गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तवत्यधिकशततमो अध्याय के श्लोक 24-28 का हिन्दी अनुवाद)
अब राजा शिबि कबूतर से बोले ;- 'कपोत! ये शिबि लोग तो तुम्हें कबूतर ही समझते थे। पक्षिप्रवर! मैं तुमसे पूछता हूं, बताओ, यह बाज कौन था? ईश्वर के सिवा दूसरा कोई कभी ऐसा चमत्कार पूर्ण कार्य नहीं कर सकता। भगवन्! मेरे इस प्रश्न का यथावत् उत्तर दो’।
कबूतर बोला ;- राजन्! मैं धूममयी ध्वजा से विभूषित वैश्वानर अग्नि हूँ और उस बाज के रूप में साक्षात् वज्रधारी शचीपति इन्द्र थे। सुरथानन्दन! तुम एक श्रेष्ठ पुरुष हो। हम दोनों तुम्हारी श्रेष्ठता की परीक्षा के लिये यहाँ आये थे। राजन्! तुमने मेरी रक्षा के लिये जो तलवार से काटकर अपना यह मांस दिया है, इसके घाव को मैं अभी अच्छा कर देता हूँ। यहाँ की चमड़ी का रंग सुन्दर और सुनहला हो जायेगा तथा इससे बड़ी पवित्र सुगन्ध फैलती रहेगी, यह तुम्हारा राजचिह्न होगा।
तुम्हारे इस दक्षिण पार्श्व से एक पुत्र उत्पन्न होगा, जो इन प्रजाओं का पालक और यशस्वी होने के साथ ही देवर्षियों के अत्यन्त आदर का पात्र होगा। उसका नाम होगा, ‘कपोतरोमा’। राजन्! तुम्हारे द्वारा उत्पन्न किया हुआ वह पुत्र, जिसे तुम भविष्य में प्राप्त करोगे, तुम्हारी जांघ का भेदन करके प्रकट होगा; इसीलिये औद्भिद कहलायेगा। उसके शरीर के रोएं कबूतर के समान होंगे। उसका शरीर सांड़ के समान हष्ट-पुष्ट होगा। तुम देखोगे कि वह सुयश से प्रकाशित हो रहा है। सुरथा के वंशजों में वह सर्वश्रेष्ठ शूरवीर होगा। (इतना कहकर अग्नि देव अन्तर्धान हो गये)
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तगर्त मार्कण्डेयसमास्यापर्व में शिबिचरित्र विषयक एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)
"देवर्षि नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन"
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय। पाण्डुनन्दन युधिष्ठर ने मार्कण्डेयजी से पुन: प्रार्थना की,
युधिष्ठिर बोले ;– ‘मुने। क्षत्रिय नरेशों के महात्म्यका पुन: वर्णन कीजिये।
तब मार्कण्डेयजी ने कहा ;- ‘धर्मराज। विश्वामित्र के पुत्र अष्टक के अश्वमेघ यज्ञ में सब राजा पधारे थे। ‘अष्टक के तीन भाई प्रतर्दन, वसुमना तथा उशीनर पुत्र शिवि भी उस यज्ञ में आये थे। यज्ञ समाप्त होने पर एक दिन अष्टक अपने भाइयों के साथ रथ पर आरुढ़ हो (स्वर्गकी और ) जा रहे थे। इसी समय रास्ते में देवर्षि नारदजी आते दिखायी दिये। तब उन तीनों ने उन्हें प्रणाम करके कहा,,
अष्टक ओर दोनों भाई बोले ;- ‘भगवान आप भी रथ पर आ जाइये’। ‘तब नारदजी ‘तथास्तु’ कहकर उस रथ पर बैठ गये। तदननतर उन में से एक ने देवर्षि नारद से कहा-‘भगवन्। मैं आपको प्रसन्न करके कुछ पूछना चाहता हूं’।
‘देवर्षि ने कहा ;-‘ पूछो’ तब उसने इस प्रकार कहा,
अष्टक बोले ;-‘भगवन्। हम सब लोग दीर्घायु तथा सर्वगुणसम्पन्न होने के कारण सदा प्रसन्न रहते हैं। हम चारों को दीर्घकाल तक उपभोग में आने वाले स्वर्गलोक में जाना है, किंतु वहाँ से सर्वप्रथम कौन इस भुतल पर उतर आयेगा ?
देवर्षि ने कहा ;-‘सबसे पहले अष्टक उतरेगा’।
अष्टक ने‘फिर उसने पूछा ;-‘क्या कारण है कि अष्टक ही उतरेगा,
तब नारदजी ने कहा ;- ‘एक दिन मैं अष्टक के घर ही ठहरा था। उस दिन अष्टक मुझे रथ पर बिठाकर भ्रमण के लिये ले जा रहे थे। मैंने रास्ते में देखा, भिन्न-भिन्न रंग की कई हजार गौएं पृथक-पृथक चर रही हैं। उन्हें देखकर मैंने अष्टक से पूछा,,-‘ये किसकी गौएं हैं?
अष्टक ने उत्तर दिया ;- ‘ये मेरी दान की हुई गौएं हैं। इस प्रकार से स्वयं अपने किये हुए दान का बखान करके आत्मश्रलाघा करते हैं। इसी लिये इन्हें स्वर्ग से पहले उतरना पड़ेगा।
तत्पचात् उन लोगों ने पुन: प्रश्र किया ;- ‘यदि हम शेष तीनों भाई स्वर्ग में जायं, तो सबसे पहले किसको उतरना पड़ेगा।
‘देवर्षि ने उत्तर दिया ;-‘प्रतर्दन को। इसमें क्या कारण है ऐसा प्रश्र होने पर देवर्षि ने उत्तर दिया,
देवर्षि फिर बोले ;- ‘एक दिन मैं प्रतर्दन के घर भी ठहरा था। ये मुझे रथ से ले जा रहे थे। उस समय एक ब्राह्मण को उत्तर दिया ‘लौटने पर दे दूंगा।
ब्राह्मण ने कहा ;- ‘नहीं, तुरंत दे दीजिये। ‘अच्छा तो तुरंत ही लीजिये, यों कहकर इन्होंने रथ के दाहिने पार्श्व का घोड़ा खोलकर उसे दे दिया। ‘इतनेही में एक दूसरा ब्राह्मण आया। उसे भी घोड़े की ही आवश्यकता थी। जब उसने याचना की, तब राजा ने पूर्ववत् उससे भी यही कहा,,
‘लौटने पर दूंगा। परंतु उसके आग्रह करने पर उन्होंने रथ के वाम पार्श्रव का एक घोड़ा दिया। फिर वे आगे बढ़ गये। तदनन्तर एक घोड़ा मांगनेवाला दूसरा ब्राह्मण आया। उसने भी जल्दी ही मांगा। तब राजा ने उसे बायें धुरे का बोझ ढोने वाला अश्व खोल करके दे दिया। ‘तत्पचात् जब वे आगे बढ़े, तब फिर एक अश्व का इच्छुक ब्राह्मण आ पहुँचा। उसके मांगने पर राजा ने कहा,,
राजा प्रतदर्न ने कहा ;-‘मैं शीघ्र ही अपने लक्ष्य तक पहुँचकर घोड़ा दे दूंगा। ब्राह्मण बोला ‘मुझे तुरंत दीजिये। तब उन्होंन ब्राह्मण को अश्व देकर स्वयं रथ का धुरा पकड़ लिया और कहा,,
‘ब्रह्मणों के लिये ऐसा करना सर्वथा उचित नहीं है’।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 10-20 का हिन्दी अनुवाद)
‘ये प्रतर्दन दान देते हैं और ब्राह्मण की निन्दा भी करते हैं, अत: वह निन्दायुक्त वचन बोलने के कारण पहले इन्हीं को स्वर्ग से उतरना पड़ेगा।'
तब पुन: अष्टक ने प्रश्न किया ;- , ‘हम शेष दो भाई जा रहे हैं, उनमें से कौन पहले स्वर्ग से नीचे उतरेगा?'
देवर्षि ने उत्तर दिया ;- ‘वसुमना पहले उतरेंगे।'
तब उन्होंने पूछा ;- ‘इसका क्या कारण है?'
नारद जी बोले ;- ‘एक दिन मैं घूमता-घामता वसुमना के घर पर जा पहुँचा। उस दिन उनके यहाँ स्वस्तिवाचन हो रहा था। राजा के यहाँ एक ऐसा रथ था, जो पर्वत, आकाश और समुन्द्र आदि दुर्गम स्थानों पर भी सुगमता से आ-जा सकता था। उसका नाम था ‘पुष्परथ’। मैं उसी के प्रयोजन से राजा के यहाँ गया था। जब ब्राहण लोग स्वस्तिवाचन कर चुके, तब राजा ने ब्राह्मणों को अपना वह रथ दिखाया। उस समय मैंने उस रथ की बड़ी प्रशंसा की।
राजा बोले ;- ‘भगवन्! आपने इस रथ की प्रशंसा की है। अत: यह रथ आप ही का है।'
तदनन्तर एक दिन और मैं राजा के यहाँ उपस्थित हुआ। पुन: मेरे जाने का उद्देश्य पुष्परथ को प्राप्त करना ही था। उस दिन भी राजा ने बड़ी आवभगत के साथ कहा,- ‘भगवन्! यह रथ आपका ही है।' फिर तीसरी बार मैंने उनके यहाँ जाकर स्वस्तिवाचन का कार्य सम्पन्न किया। राजा ने ब्राह्मणों को उस रथ का दर्शन कराते हुए मेरी ओर देखकर कहा,- ‘भगवन्! आपने पुष्परथ के लिये अच्छे स्वस्तिवाचन किये। (ऐसा कहकर भी उन्होंने रथ नहीं दिया) इस (छल-युक्त) वचन से वसुमना ही पहले स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरेंगे।'
'यदि आपके साथ हममें से एकमात्र शिबि को ही स्वर्गलोक में जाना हो, तो वहाँ से पहले कौन उतरेगा?' ऐसा प्रश्न होने पर नारद जी ने फिर कहा,,
नारदजी बोले ;- ‘शिबि जायेंगे और मैं उतरूगा।'
'इसमें क्या कारण है?' यह पूछे जाने पर देवर्षि नारद ने कहा,
नारदजी बोले ;- ‘मैं राजा शिबि के समान नहीं हूं, क्योंकि एक दिन एक ब्रह्मण ने शिबि से कहा,
ब्राह्मण बोले ;- ‘शिबि! मैं भोजन करना चाहता हूँ।
राजा ने पूछा ;- ‘आपके लिये क्या रसोई बनायी जाये? आज्ञा कीजिये।'
तब इनसे ब्रह्मण ने कहा ;- ‘यह जो तुम्हारा पुत्र बृहद्गर्भ है, इसे मार डालो। फिर उसका दाह-संस्कार करो। तत्पश्चात् अन्न तैयार करो और मेरी प्रतीक्षा करो।' तब राजा ने पुत्र को मारकर उसका दाह-संस्कार कर दिया और फिर विधिपूर्वक अन्न तैयार करके उसे बटलोई में डालकर (और ढक्कन से ढककर) अपने सिर पर रख लिया, फिर वे उस ब्राह्मण की खोज करने लगे। खोज करते समय किसी मनुष्य ने उनके पास आकर कहा,
मनुष्य बोला ;- ‘राजन! आपका ब्रह्मण इधर है। यह नगर में प्रवेश करके आपके भवन, कोषागार, शस्त्रागार, अन्त:पुर, अश्वशाला और गजशाला सबमें कुपित होकर आग लगा रहा है।‘ यह सब सुनकर भी राजा शिबि के मुख की कान्ति पूर्ववत् बनी रही। उसमें तनिक भी विकार न आया। वे नगर में घुसकर ब्राह्मण से बोले,
राजा शिबि बोले ;- ‘भगवन्! आपका भोजन तैयार है।' ब्राह्मण कुछ न बोला। वह आश्चर्य से मुंह नीचा किये देखता रहा।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-27 का हिन्दी अनुवाद)
तब राजा ने ब्राह्मण को मनाते हुए कहा,,
राजा बोले ;- ‘भगवन्! भोजन कर लीजिये।' ब्राह्मण ने दो घड़ी तक ऊपर की ओर देखने के पश्चात् शिबि से कहा,,
ब्राह्मण बोले ;- ‘तुम्हीं यह सब खा जाओ।' शिबि ने उसी प्रकार मन को प्रसन्न रखते हुए,
राजा बोले ;- ‘बहुत अच्छा‘ कहकर ब्राह्मण की आज्ञा स्वीकार की और उनका पूजन करके (सिर पर रखे हुए) ढक्कन को उघाड़कर वह सब खाने की इच्छा की। तब ब्राह्मण ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहा,
ब्राह्मण बोले ;- ‘राजन्! तुमने क्रोध को जीत लिया है। तुम्हारे पास कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे तुम ब्राह्मण के लिये न दे सको।' ऐसा कहकर ब्राह्मण ने भी उन महाभाग नरेश का समादर किया।
राजा ने जब आंख उठाकर देखा, तब उनका पुत्र आगे खड़ा था। वह देवकुमार की भाँति दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित था। उसके शरीर से पवित्र सुगन्ध निकल रही थी। ब्राह्मण देवता सब वस्तुओं को पूर्ववत् ठीक करके अन्तर्धान हो गये। साक्षात् विधाता ब्राह्मण के वेश में राजर्षि शिबि की परीक्षा लेने आये थे। उनके अन्तर्धान हो जाने पर राजा के मन्त्रियों ने उनसे पुछा,
मंत्री बोले ;- ‘महाराज! आप क्या चाहते हैं? जिसके लिये सब कुछ जानते हुए भी ऐसा दु:साहसपूर्ण कार्य किया है?'
शिबि बोले ;- मैं यश के लिये यह दान नहीं देता। धन के लिये अथवा भोग की लिप्सा से भी दान नहीं करता। यह धर्मात्माओं का मार्ग है। पापी मनुष्य इस पर नहीं चल सकते। ऐसा समझकर ही मैं यह सब कुछ करता रहता हूँ। श्रेष्ठ पुरुष सदा जिस मार्ग से चले हैं, वही उत्तम मार्ग है। इसीलिये मेरी बद्धि सदा उस उत्तम पथ का ही आश्रय लेती है।'
यह है राजा शिबि की सर्वश्रेष्ठ महिमा, जिसे मैं (अच्छी तरह) जानता हूँ। इसलिये इन सब बातों का यथावत् वर्णन किया है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में क्षत्रिय माहात्म्य के प्रकरण में शिबिचरित्र विषयक एक सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ निन्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)
"राजा इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा"
वैश्म्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऋषियों तथा पाण्डवों ने मार्कण्डेय जी से पूछा,
पाण्डव बोले ;- ‘भगवन्! कोई आपसे भी पहले का उत्पन्न चिरजीवी इस जगत् में है या नहीं?'
मार्कण्डेय जी ने कहा ;- 'है क्यों नहीं, सुनो। एक समय राजर्षि इन्द्रद्युम्न अपना पुण्य क्षीण हो जाने के कारण यह कहकर स्वर्गलोक से नीचे गिरा दिये गये थे कि ‘जगत में तुम्हारी कीर्ति नष्ट हो गयी है।' स्वर्ग से गिरने पर वे मेरे पास आये और बोले,
इन्द्रद्युम्न बोले ;- ‘क्या आप मुझे पहचानते हैं?'
मैंने उनसे कहा ,
मार्कण्डेय जी बोले ;- ‘हम लोग तीर्थयात्रा आदि भिन्न-भिन्न पुण्य कार्यों की चेष्टाओं में व्यग्र रहते हैं, अत: किसी एक स्थान पर सदा नहीं रहते। एक गांव में केवल एक रात निवास करते हैं। अपने कार्यों का अनुष्ठान भी हमें भूल जाता है। व्रत-उपवास आदि में लगे रहने से अपने शरीर को सदा कष्ट पहुँचाने के कारण आवश्यक कार्यों का आरम्भ भी हम से नहीं हो पाता है, ऐसी दशा में हम आपको कैसे जान सकते हैं?'
मेरे ऐसा कहने पर राजर्षि इन्द्रद्युम्न ने पुन: मुझसे पूछा,
इन्द्रद्युम्न बोले ;- ‘क्या आपसे भी पहले का पैदा हुआ कोई पुरातन प्राणी है?'
तब मैंने उन्हें पुन: उत्तर दिया,
मार्कण्डेय जी बोले ;- ‘हिमालय पर्वत पर प्रावारकर्ण नाम से प्रसिद्ध एक उलूक निवास करता है। वह मुझसे भी पहले का उत्पन्न हुआ है। सम्भव है, वह आपको जानता हो। यहाँ से बहुत दूर की यात्रा करने पर हिमालय पर्वत मिलेगा। वहीं वह रहता है।' तब इन्द्रद्युम्न अश्व बनकर मुझे वहाँ तक ले गये, जहाँ उलूक रहता था। वहाँ जाकर राजा ने उससे पूछा,
इन्द्रद्युम्न बोले ;- ‘क्या आप मुझे जानते हैं?' उसने दो घड़ी सोच-विचार कर उनसे कहा,,
उलूक बोला ;- 'मैं आपको नहीं जानता हूँ।' उलूक के ऐसा कहने पर राजर्षि इन्द्रद्युम्न ने पुन: उससे पूछा,,
इन्द्रद्युम्न बोले ;- ‘क्या आपसे भी पहले का उत्पन्न हुआ कोई चिरजीवी प्राणी है?' उनके ऐसा पूछने पर उलूक ने कहा,,
उलूक बोले ;- 'इन्द्रयद्युम्न नाम से प्रसिद्ध एक एक सरोवर है। जहाँ नाडीजंघ नाम से प्रसिद्ध एक बक निवास करता है। वह हमसे बहुत पहले का उत्पन्न हुआ है। उससे पूछिये।'
तब इन्द्रद्युम्न मुझको और उलूक को भी साथ लेकर उस सरोवर पर गये, जहाँ नाडीजंघ बक निवास करता था। हम लोगों ने उस,,
बक से पूछा ;- ‘क्या आप राजा इन्द्रद्युम्न को जानते हैं?' उसने दो घड़ी तक सोचकर उत्तर दिया,
बक बोला ;- 'मैं राजा इन्द्रद्युम्न को नहीं जानता हूँ।'
तब हम लोगों ने उनसे पूछा ;- ‘क्या कोई प्राणी ऐसा है, जिसका जन्म आपसे भी पहले हुआ हो?' उसने हमसे कहा,
बक बोला ;- ‘है; इसी सरोवर में अकूपार नामक एक कछुआ रहता है। वह मुझसे भी पहले उत्पन्न हुआ है। आप लोग उस अकूपार से ही पूछिये। सम्भव है, वह इन राजर्षि को किसी तरह जानता हो।' तब उस बक ने अकूपार नामक कछुए को यह सूचना दी कि ‘हम लोग आपसे कुछ अभीष्ट प्रश्न पूछना चाहते हैं। कृपया आइये।' यह संदेश सुनकर वह कछुआ उस सरोवर से निकलकर वहीं आया, जहाँ हम लोग तट पर खड़े थे। आने पर उससे,,
हम लोगों ने पूछा ;- ‘क्या आप राजा इन्द्रद्युम्न को जानते हैं?'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 10-18 का हिन्दी अनुवाद)
उसने दो घड़ी तक ध्यान करके नेत्रों में आंसू भरकर, उद्विग्न हृदय से कांपते हुए अचेत की सी दशा में हाथ जोड़कर कहा,
कछुआ बोला ;- ‘मैं इन्हें क्यों नहीं पहचानूंगा। इन्होंने एक हजार बार अग्निस्थापन के समय यज्ञ-यूपों की स्थापना की है। इनके द्वारा दक्षिणा में दी गई गौओं के जाने-आने से यह सरोवर बन गया है, जिसमें मैं निवास करता हूं’। कच्छप के मुँह से ये सारी बातें सुन लेने के पश्चात् देवलोक से एक दिव्य रथ आकर प्रकट हुआ और उसमें से इन्द्रद्युम्न के प्रति कही हुई कुछ बातें सुनायी देने लगीं,
देवदूत बोले ;- ‘राजन्! आपके लिये स्वर्गलोक प्रस्तुत है। वहाँ चलकर यथोचित स्थान ग्रहण करें। आप कीर्तिमान् हैं। अत: निश्चिन्त होकर स्वर्गलोक की यात्रा करें’।
इस विषय में ये श्लोक हैं,- ‘जब तक मनुष्य के पुण्यकर्म का शब्द भूलोक और देवलोक का स्पर्श करता है, जब तक दोनों लोकों में उसकी कीर्ति बनी रहती है, तभी तक वह पुरुष स्वर्गलोक का निवासी बताया जाता है। संसार में जिस किसी प्राणी की अपकीर्ति कही जाती है-जब तक उसके अपयश का शब्द गूंजता रहता है, तब तक के लिये वह नीचे के लोकों में गिर जाता है। इसलिये मनुष्य को सदा कल्याणकारी सत्कर्मों में ही लगे रहना चाहिये। इससे अनन्त फल की प्राप्ति होती है। पापपूर्ण चित्त (चिन्तन या विचार) का परित्याग करके सदा धर्म का ही आश्रय लेना चाहिये’।
देवदूत की यह बात सुनकर राजा ने कहा,
राजा इन्द्रद्युम्न बोले ;- ‘जब तक इन दोनों वृद्धों को इनके स्थान पर पहुँचा न दूं, तब तक ठहरे रहो’। यह कहकर राजा ने मुझे तथा प्रावारकर्ण नामक उलूक को यथोचित स्थान पर पहुँचा दिया और उसी रथ से स्वर्ग की ओर प्रस्थान करके वहाँ यथोचित स्थान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार मैंने चिरजीवी होकर अनुभव किया है’-यह बात पाण्डवों से मार्कण्डेय जी ने कही।
पाण्डव बोले ;- 'आपने यह बहुत अच्छा किया कि स्वर्गलोक से भ्रष्ट हुए राजा इन्द्रद्युम्न को पुन: अपने स्थान की प्राप्ति करवा दी।'
तब इनसे मार्कण्डेय जी ने कहा ;- ‘देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने भी नरक में डूबते हुए राजर्षि नृग को उस भारी संकट से छुड़ाकर फिर स्वर्ग में पहुँचा दिया।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में इन्द्रद्युम्नोपाख्यान विषयक एक सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
दौ सौ वाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"निन्दित दान, निन्दित जन्म, योग्य दानपात्र, श्राद्ध में ग्राह्य और अग्राह्य ब्राह्मण, दानपात्र के लक्षण, अतिथि-सत्कार, विविध दानों का महत्त्व, वाणी की शुद्धि, गायत्री जप, चित्तशुद्धि तथा इन्द्रिय-निग्रह आदि विविध विषयों का वर्णन"
वैश्म्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! महाभाग मार्कण्डेय जी के मुख से राजर्षि इन्द्रद्युम्न को पुन: स्वर्ग की प्राप्ति वृत्तान्त सुनकर राजा युधिष्ठिर ने उन मुनीश्वर से फिर प्रश्न किया,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘महामुने! किन अवस्थाओं में दान देकर मनुष्य इन्द्रलोक का सुख भोगता है? यह मुझे बताने की कृपा करें। मनुष्य बाल्यावस्था या ग्रहस्थाश्रम में, जवानी में अथवा बुढ़ापे में दान देने से जैसा फल पाता है? उसका मुझसे वर्णन कीजिये।'
मार्कण्डेय जी ने कहा ;- (नीचे लिखे अनुसार) चार प्रकार के जीवन व्यर्थ हैं और सोलह प्रकार के दान व्यर्थ हैं। जो पुत्र-हीन हैं, जो धर्म से बहिष्कृत (भ्रष्ट) हैं, जो सदा दूसरों की ही रसोई में भोजन किया करते हैं तथा जो केवल अपने लिये ही भोजन बनाते एवं देवता और अतिथियों को न देकर अकेले ही भोजन कर लेते हैं, उनका वह भोजन असत् कहा गया है। अत: उनका जन्म वृथा है। (इस प्रकार इन चार प्रकार के मनुष्यों का जन्म व्यर्थ है)। जो वानप्रस्थ या संन्यास-आश्रम से पुन: ग्रहस्थ-आश्रम में लौट आया हो, उसे ’आरूढ़-पतित’ कहते हैं। उसको दिया हुआ दान व्यर्थ होता है। अन्याय से कमाये हुए धन का दान भी व्यर्थ ही है। पतित ब्राह्मण तथा चोर को दिया हुआ दान भी व्यर्थ होता है। पिता आदि गुरुजन, मिथ्यावादी, पापी, कृतघ्न, ग्राम-पुरोहित, वेदविक्रय करने वाले, शूद्र से यज्ञ कराने वाले, नीच ब्राह्मण, शूद्रा के पति, ब्राह्मण, सांप को पकड़कर व्यवसाय करने वाले तथा सेवकों और स्त्री-समूह को दिया हुआ दान व्यर्थ है। इस प्रकार ये सोलह दान निष्फल बताये गये हैं।
जो तमोगुण से आवृत्त हो भय और क्रोधपूर्वक दान देता है, वह मनुष्य वैसे सब प्रकार के दानों का फल भावी जन्म में गर्भावस्था में भोगता है, अर्थात् तामसी दान करने के कारण वह उसका फल दु:ख के रूप में भोगता है तथा (श्रेष्ठ) ब्राह्मणों को दान देने वाला मानव उस दान का फल बड़ा होने पर (कामना के अनुसार) भोगता है।
राजन्! इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह स्वर्ग-मार्ग पर अधिकार पाने की इच्छा से सभी अवस्थाओं में (श्रेष्ठ) ब्राह्मणों को ही सब प्रकार के दान दे।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- महामुने! जो ब्राह्मण चारों वर्णों में से सभी के दान ग्रहण करते हैं, वे किसी विशेष धर्म का पालन करने से दूसरों को तारते और स्वयं भी तरते हैं।
मार्कण्डेय जी ने कहा ;- राजन्! ब्राह्मण जप, मन्त्र, (पाठ) होम, स्वाध्याय और वेदाध्ययन के द्वारा वेदमयी नौका का निर्माण करके दूसरों को भी तारते हैं और स्वयं भी तर जाते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद)
जो ब्राह्मणों को संतुष्ट करता है, उस पर सब देवता संतुष्ट रहते हैं। ब्राह्मणों के वचन से अर्थात् आशीर्वाद से भी मनुष्य स्वर्गलोक पा सकता है। राजन्! तुम पितरों और देवताओं की पूजा से तथा ब्राह्मणों का आदर-सत्कार करने से अक्षय पुण्यलोक में जाओगे, इसमें संशय नहीं है। जिसका शरीर कफ आदि से भर गया हो, जो मर रहा हो और अचेत हो गया हो, उसे पुण्यमय स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट हो तो ब्राह्मणों की पूजा भी करनी चाहिये। श्राद्ध काल में प्रयत्न करके उत्तम ब्राह्मणों को ही भोजन कराना चाहिये। जिनके शरीर का रंग घृणाजनक हो, नख काले पड़ गये हों, जो कोढ़ी और धूर्त हो, पिता की जीवित अवस्था में ही माता के व्यविचार से जिनका जन्म हुआ हो अथवा जो विधवा माता के पेट से पैदा हुए हों और जो पीठ पर तरकस बांधे क्षत्रियवृत्ति से जीविका चलाते हों, ऐसे ब्राह्मणों को श्राद्धा में प्रयत्नपूर्वक त्याग दे, क्योंकि उनको भोजन कराने से श्राद्ध निन्दित हो जाता है और निन्दित श्राद्ध यजमान को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे अग्नि काष्ठ को जला डालती है। किंतु अंधे, गूंगे, बहरे आदि जिन-जिन ब्राह्मणों को श्राद्ध में वर्जित बताया गया है, उन सबको वेद-पारंगत ब्राह्मणों के साथ श्राद्ध में सम्मिलित किया जा सकता है।
युधिष्ठिर! अब मैं तुम्हें यह बताता हूँ कि कैसे व्यक्ति को दान देना चाहिये। जो दाता को और अपने आपको भी तारने की शक्ति रखता हो। सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता मानव उसी ब्राह्मण को दान दे, जो दाता का तथा अपना भी संसार सागर से उद्धार कर सके। वही शक्तिशाली ब्राह्मण है। कुन्तीनन्दन! अतिथियों को भोजन कराने से अग्निदेव जितने संतुष्ट होते हैं, उतना संतोष उन्हें हविष्य का हवन करने तथा पुष्प और चन्दन चढ़ाने से भी नहीं होता। इसलिये तुम सभी अतिथियों को भोजन देने का प्रयत्न करो। राजन्! जो लोग अतिथि को चरण धोने के लिये जल, पैर में मलने के लिये तेल, उजाले के लिये दीपक, भोजन के लिये अन्न तथा रहने के लिये स्थान देते हैं, वे कभी यमराज के यहाँ नहीं जाते।
नृपश्रेष्ठ! देवविग्रहों पर चढ़े हुए चन्दन-पुष्प आदि को यथा समय उतारना, ब्राह्मणों की जूठन साफ करना, उन्हें चन्दन-माला आदि से अंलकृत करना, उनकी सेवा-पूजा करना और उनके पैर आदि अंगों को दबाना, इनमें से एक-एक कार्य गोदान से भी अधिक महत्व रखता है। कपिला गौ का दान करने से मनुष्य नि:सन्देह सब पापों से मुक्त्त हो जाता है। इसलिये कपिला गौ को अलंकृत करके ब्राह्मण को दान करना चाहिये। दान लेने वाला ब्राह्मण श्रोत्रिय हो, निर्धन हो, ग्रहस्थ हो, नित्य अग्निहोत्र करता हो, दरिद्रता के कारण जिसे स्त्री और पुत्रों के तिरस्कार सहने पड़ते हों तथा दाता ने न तो जिससे प्रत्युपकार प्राप्त किया हो और न आगे प्रत्युपकार प्राप्त होने की सम्भावना ही हो। भारत! ऐसे ही लोगों को गोदान करना चाहिये, धनवानों को नहीं। भरतश्रेष्ठ! धनवानों को देने से क्या लाभ है?
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 29-45 का हिन्दी अनुवाद)
एक गौ एक ही ब्राह्मण को देनी चाहिये; बहुतों को कभी नहीं (क्योंकि एक ही गौ यदि बहुतों को दी गयी, तो वे उसे बेचकर उसकी कीमत बांट लेंगे)। दान की हुई गौ यदि बेच दी गयी, तो वह दाता की तीन पीढ़ियों को हानि पहुँचाती है। वह न तो दाता को ही पार उतारती है न ब्राह्मण को ही। जो उत्तम वर्ण वाले विशुद्ध ब्राह्मण को सुवर्ण-दान करता है, उसे निरन्तर सौ स्वर्ण मुद्राओं के दान का फल प्राप्त होता है। जो लोग कंधे पर जुआ उठाने में समर्थ बलवान् बैल ब्राह्मणों को दान करते हैं, वे दु:ख और संकटों से पार होकर स्वर्गलोक में जाते हैं। जो विद्वान् ब्राह्मण को भूमि दान करता है, उस दाता के पास सभी मनोवांच्छित भोग स्वत: आ जाते हैं। यदि कोई रास्ते के थके-मांदे, दुबले-पतले पथिक धूल भरे पैरों से भूखे-प्यासे आ जायें और पूछें कि 'क्या यहां कोई भोजन देने वाला है?' उस समय उन्हें जो विद्वान अन्न मिलने का पता बता देता है, वह भी अन्न दाता के समान ही कहा जाता है, इसमें संशय नहीं है।
अत: युधिष्ठिर! तुम सारे दानों को छोड़कर केवल अन्नदान करते रहो। इस संसार में अन्नदान के समान विचित्र एवं पुण्यदायक दूसरा कोई दान नहीं है। जो अपनी शक्ति के अनुसार अच्छे ढंग से तैयार किया हुआ भोजन ब्राह्मणों को अर्पित करता है, वह उस पुण्यकर्म के प्रभाव से प्रजापति के लोक में जाता है। अत: अन्न ही सबसे महत्व की वस्तु है। उससे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। वेद में अन्न को प्रजापति कहा गया है। प्रजापति संवत्सर माना गया है। संवत्सर यज्ञ रूप है और यज्ञ में सबकी स्थिति है। यज्ञ से समस्त चराचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। अत: अन्न ही सब पदार्थो से श्रेष्ठ है। यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है। जो लोग अगाध जल से भरे हुए तालाब और पोखरे खुदवाते हैं, बावली, कुएं तथा धर्मशालाएं तैयार कराते हैं, अन्न का दान करते और मीठी बातें बोलते हैं, उन्हें यमराज की बात भी नहीं सुननी पड़ती है अर्थात् यमराज उसे वचनमात्र से भी दण्ड नहीं दे सकते। जो अपने परिश्रम से उपार्जित और संचित किया हुआ धन-धान्य सुशील ब्राह्मण को दान करता है, उसके ऊपर वसुधा देवी अत्यन्त संतुष्ट होती और उसके लिये धन की धारा-सी बहाती हैं। अन्न दान करने वाले पुरुष पहले स्वर्ग में प्रवेश करते हैं। उसके बाद सत्यवादी जाता है। फिर बिना मांगे ही दान करने वाला पुरुष जाता है। इस प्रकार ये तीनों पुण्यात्मा मानव समान गति को प्राप्त होते हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर भाइयों सहित धर्मराज युधिष्ठिर के मन में बड़ा कौतूहल हुआ और उन्होंने महात्मा मार्कण्डेय जी से पुन: इस प्रकार प्रश्न किया,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘महामुने! इस मनुष्य लोक से यमलोक कितनी दूर है, कैसा है, कितना बड़ा है? और किस उपाय से मनुष्य वहाँ के संकटों से पार हो सकते हैं? ये मुझे बतलाइये’।
मार्कण्डेय जी ने कहा ;- धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुमने ऐसे विषय के लिये प्रश्न किया है, जो सबसे अधिक गोपनीय, पवित्र, धर्मसम्मत तथा ऋषियों के लिये भी आदरणीय है। सुनो, मैं इस विषय का वर्णन करता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 46-61 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! मनुष्य लोक और यमलोक के मार्ग में छियासी हजार योजनों का अन्तर है। उसके मार्ग में जलरहित शून्य आकाशमात्र है। वह देखने में बड़ा भयानक और दुर्गम है। वहाँ न तो वृक्षों की छाया है, न पानी है और न कोई ऐसा स्थान ही है, जहाँ रास्ते का थका-मांदा जीव क्षणभर भी विश्राम कर सके। यमराज की आज्ञा का पालन करने वाले यमदूत इस पृथ्वी पर आकर यहाँ के पुरुषों, स्त्रियों तथा अन्य जीवों को बलपूर्वक पकड़ ले जाते हैं।
राजन्! जिनके द्वारा यहाँ ब्राह्मणों को नाना प्रकार के अश्व आदि वाहनों का उत्कृष्ट दान किया गया है, वे उस मार्ग पर (उन्हीं वाहनों द्वारा सुख से) यात्रा करते हैं। छत्र-दान करने वाले मनुष्य वहाँ प्राप्त हुए छत्र के द्वारा ही धूप का निवारण करते हुए चलते हैं। अन्न दान करने वाले जीव वहाँ भोजन से तृप्त होकर यात्रा करते हैं; किंतु जिन्होंने अन्न दान नहीं किया है, वे भूख का कष्ट सहते हुए चलते हैं। वस्त्र देने वाले लोग कपड़े पहनकर जाते हैं और जिन्होंने वस्त्र दान नहीं किया है, उन्हें नंगे होकर जाना पड़ता है। सुवर्ण का दान करने वाले मनुष्य उस मार्ग पर नाना प्रकार के आभुषणों से विभूषित हो बड़े सुख से यात्रा करते हैं। भूमि का दान करने वाले दाता सम्पूर्ण मनोवांच्छित भोगों से तृप्त हो वहाँ बड़े आनन्द से जाते हैं। खेत में लगी हुई खेती दान करने वाले मनुष्य बिना किसी कष्ट के जाते हैं। गृह दान करने वाले मानव विमानों पर बैठकर अत्यन्त सुख सुविधा के साथ जाते हैं। जिन्होंने जल-दान किया है, उन्हें प्यास का कष्ट नहीं भोगना पड़ता, वे लोग प्रसन्नचित्त होकर वहाँ जाते हैं। दीपदान करने वाले मनुष्य उस मार्ग को प्रकाशित करते हुए सुख से यात्रा करते हैं।
गोदान करने वाले मनुष्य सब पापों से मुक्त हो सुखपूर्वक जाते हैं। एक मास तक उपवास व्रत करने वाले लोग हंस से जुते हुए विमानों द्वारा यात्रा करते हैं। जो लोग छठी रात तक उपवास करते हैं, वे मोर से जुते हुए विमानों द्वारा जाते हैं। पाण्डुनन्दन! जो लोग एक बार भोजन करके उसी पर तीन रात काट ले जाते हैं और बीच में भोजन नहीं करते, उन्हें रोग-शोक से रहित पुण्यलोक प्राप्त होते हैं। जलदान करने का प्रभाव अत्यन्त अलौकिक है। वह परलोक में सुख पहुँचाने वाला है। जो जलदान करते हैं, उन पुण्यात्माओं के लिये उस मार्ग में पुष्पोदका नाम वाली नद प्राप्त होती है। वे उसका शीतल और अमृत के समान मधुर जल पीते हैं।
महाराज्! इस प्रकार वह नदी सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली है; किंतु जो पापी जीव हैं, उनके लिये उस नदी का जल पीब बन जाता है। अत: राजेन्द्र! तुम भी इन ब्राह्मणों का विधिपूर्वक पूजन करो। जो रास्ता चलने से थककर दुबला हो गया है, जिसका शरीर धूल से भरा है और जो अन्नदाता का पता पूछता हुआ भोजन की आशा से घर पर आ जाता है, उसका तुम यत्नपूर्वक सत्कार करो; क्योंकि वह अतिथि है, इसलिये ब्राह्मण ही है अर्थात् ब्राह्मण के ही तुल्य है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 62-77 का हिन्दी अनुवाद)
ऐसा अतिथि जब किसी के घर पर जाता है, तब उसके पीछे इन्द्रादि सम्पूर्ण देवता भी वहाँ तक जाते हैं। यदि वहाँ उस अतिथि का आदर होता है, तो वे देवता भी प्रसन्न होते हैं और यदि आदर नहीं होता, तो वे देवगण भी निराश लौट जाते हैं। अत: राजेन्द्र! तुम भी अतिथि का विधिपूर्वक सत्कार करते रहो। यह बात मैं तुम से कई बार कह चुका हूं, अब और क्या सुनना चाहते हो।
युधिष्ठिर ने कहा ;- धर्मज्ञ विभो! आपके द्वारा कही हुई पुण्यमय धर्म की चर्चा मैं बारंबार सुनना चाहता हूँ।
मार्कण्डेय जी बोले ;- राजन्! अब मैं धर्मसम्बन्धी दूसरी बातें बता रहा हूं, जो सदा सब पापों का नाश करने वाली हैं। तुम सावधान होकर सुनो। भरतश्रेष्ठ! ज्येष्ठ पुष्कर तीर्थ में कपिला गौ दान करने से जो फल मिलता है, वही ब्राह्मणों का चरण धोने से प्राप्त होता है। ब्राह्मणों के चरण पखारने के जल से जब तक पृथ्वी भीगी रहती है, तब तक पितर लोग कमल के पत्ते से जल पीते हैं। ब्राह्मण का स्वागत करने से अग्नि, उसे आसन देने से इन्द्र, उसके पैर धोने से पितर और उसको भोजन के योग्य अन्न प्रदान करने से ब्रह्माजी तृप्त होते हैं। गर्भिणी गौ जिस समय बच्चा दे रही हो और उस बछड़े का केवल मुख तथा दो पैर ही बाहर निकले दिखायी देते हों, उसी समय पवित्र भाव से प्रयत्नपूर्वक उस गौ का दान कर देना चाहिये। जब तक बछड़ा योनि से निकलते समय आकाश में ही लटकता दिखायी दे, जब तक गाय अपने बछड़े को पूर्णत: योनि से अलग न कर दे, तब तक उस गौ को पृथ्वी रूप ही समझना चाहिये।
युधिष्ठिर! उसका दान करने से उस गौ तथा बछड़े के शरीर में जितने रोएं होते हैं, उतने हजार युगों तक दाता स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। भारत! जो सोने की नाक और सुन्दर चांदी के खुरों से विभूषित, सब प्रकार के रत्नों से अलंकृत, काली गौ को तिलों से प्रच्छादित करके उसका दान करता है और जो उस दान को लेकर पुन: किसी दूसरे श्रेष्ठ पुरुष को अर्पित कर देता है, वह सर्वोत्तम फल का भागी होता है। उस गौ के दान से समुद्र, गुफा, पर्वत, वन और काननों सहित चारों दिशाओं की भूमि के दान का पुण्य प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है। जो द्विज अपने हाथों को घुटनों के भीतर किये मौन भाव से पात्र में एक हाथ लगाये रखकर भोजन करता है, वह अपने को और दूसरों को तारने में समर्थ होता है। जो मदिरा नहीं पीते, जिन पर किसी प्रकार का दोष नहीं लगाया गया है तथा जो अन्य द्विज विधिपूर्वक वेदों की संहिता का पाठ करते हैं, वे सदा दूसरों को तराने में समर्थ होते हैं। हव्य (यज्ञ) और कव्य (श्राद्ध) की जितनी भी वस्तुएं हैं, श्रोत्रिय उन सबको पाने का अधिकारी है। श्रेष्ठ श्रोत्रिय को दिया हुआ दान उतना ही सफल होता है, जैसे प्रज्वलित अग्नि में दी हुई आहुति।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 78-95 का हिन्दी अनुवाद)
ब्राह्मणों का क्रोध ही अस्त्र-शस्त्र है। ब्राह्मण लोहे के हथियारों से नहीं लड़ा करते हैं। जैसे हाथ में वज्र लिये हुए इन्द्र असुरों का संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण क्रोध से ही अपराधी को नष्ट कर देते हैं।
निष्पाप युधिष्ठिर! यह मैंने धर्मयुक्त कथा कही है। इसे सुनकर नैमिषारण्यनिवासी मुनि बड़े प्रसन्न हुए थे। राजन्! इस कथा को सुनकर मनुष्य शोक, भय, क्रोध और पाप से रहित हो फिर इस संसार में जन्म नहीं लेते हैं।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाप्राज्ञ महर्षे! वह शौच क्या है? जिससे ब्राह्मण सदा शुद्ध बना रहता है। मैं उसे सुनना चाहता हूँ।
मार्कण्डेय जी ने कहा ;- राजन्! शौच तीन प्रकार का होता है- वाक्शौच (वाणी की पवित्रता), कर्मशौच (क्रिया की पवित्रता) तथा जलशौच (जल से शरीर की शुद्धि)। जो इस तीन प्रकार के शौच से सम्पन्न है, वह स्वर्गलोक का अधिकारी है, इसमें संशय नहीं। जो ब्राह्मण प्रात: और सांय-इन दोनों समय की संध्या और सबको पवित्र करने वाली वेदमाता गायत्री देवी के मन्त्र का जप करता है; वह ब्राह्मण उन्हीं गायत्री देवी की कृपा से परम पवित्र और निष्पाप हो जाता है। वह समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी का भी दान ग्रहण कर ले, तो भी किसी संकट में नहीं पड़ता। इतना ही नहीं, आकाश के सूर्य आदि ग्रहों में से जो कोई भी उसके लिये भंयकर होते हैं, वे उपर्युक्त गायत्री-जप के प्रभाव से उसके लिये सदा सौम्य, सुखद एवं परम मंगलकारी हो जाते हैं।
भयंकर रूप और विशाल शरीर वाले, समस्त क्रूरकर्मा, मांसभक्षी राक्षस भी गायत्री जप परायण उस श्रेष्ठ द्विज पर आक्रमण नहीं कर सकते। वे संध्योपासक ब्राह्मण प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी होते हैं। पढ़ाने, यज्ञ कराने अथवा दूसरे से दान लेने के कारण भी उन्हें दोष नहीं छू सकता (क्योंकि वे उनकी जीविका के कर्म हैं)। ब्राह्मण अच्छी तरह वेद पढ़े हों या न पढ़े हों, उत्तम संस्कारों से युक्त हों या प्राकृत मनुष्यों की भाँति संस्कारशून्य हों, उनका अपमान नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे राख में छिपी हुई आग के समान हैं। जैसे प्रज्वलित अग्नि श्मशान में भी दूषित नहीं होती, उसी प्रकार ब्राह्मण विद्वान् हो या अविद्वान्, उसे महान् देवता ही मानना चाहिये। चहारदीवारियों, नगरद्वारों और भिन्न-भिन्न महलों से भी नगरों की तब तक शोभा नहीं होती, जब तक वहाँ श्रेष्ठ ब्राहण न रहें।
राजन्! वेदज्ञ, सदाचारी, ज्ञानी और तपस्वी ब्राह्मण जहाँ निवास करते हों, उसी का नाम नगर है। कुन्तीनन्दन्! व्रज (गौओं के रहने का स्थान) हो या वन, जहाँ बहुश्रुत विद्वान् रहते हों, उसे ‘नगर’ कहा गया है, वह तीर्थ भी माना गया है। प्रजा की रक्षा करने वाले राजा और तपस्वी ब्राह्मण के पास जाकर उनकी सेवा-पूजा करके मनुष्य तत्काल सब पापों से मुक्त हो जाता है। पुण्यतीर्थो में स्नान, पवित्र मन्त्रों का वर्णन-कीर्तन और श्रेष्ठ पुरुषों से वार्तालाप-इन सबको विद्वान पुरुषों ने उत्तम बताया है। सत्संग से पवित्र किये हुए वाणी के सुन्दर सम्भाषणरूप जल से अभिषिक्त श्रेष्ठ पुरुष अपने को सदा पवित्र हुआ मानते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 96-110 का हिन्दी अनुवाद)
त्रिदण्ड धारण करना, मौन रहना, सिर पर जटा का बोझ ढोना, मूंछ मुड़ाना, शरीर में वल्कल और मृगचर्म लपेटे रहना, व्रत का आचरण करना, नहाना, अग्निहोत्र करना, वन में रहना और शरीर को सुखा देना-ये सभी भाव यदि शुद्ध न हों तो व्यर्थ हैं।
राजेन्द्र! चक्षु आदि इन्द्रियों के आहार को छोड़ देना कठिन नहीं है; क्योंकि इन्द्रियों के छहों विषयों का उपभोग न करने से वह अपने आप सुगमता से हो जाता है, परंतु उनमें से मन बड़ा विकारी है, इस कारण भाव की शुद्धि के बिना उसको वश में करना अत्यन्त दुष्कर है। जो मन, वाणी, क्रिया और बुद्धि द्वारा कभी पाप नहीं करते हैं, वे ही महात्मा तपस्वी हैं। शरीर को सुखा देना ही तपस्या नहीं है। जिसने व्रत, उपवास आदि के द्वारा शरीर को तो शुद्ध कर लिया और जो नाना प्रकार के पापकर्म भी नहीं करता, किंतु जिसके मन में अपने कुटुम्बीजनों के प्रति दया नहीं आती, उसकी वह निर्दयता उसके तप का नाश करने वाली है; केवल भोजन छोड़ देने का ही नाम तपस्या नहीं है। जो निरन्तर घर पर रहकर भी पवित्र भाव से रहता है, सद्गुणों से विभूषित होता है और जीवन भर सब प्राणियों पर दया रखता है, उसे मुनि ही समझना चाहिये; वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। भोजन छोड़ने आदि से पापकर्मों का शोधन हो जाता हो, ऐसी बात नहीं है। हां, भोजन त्याग देने से यह रक्त मांस से लिपा हुआ शरीर अवश्य क्षीण हो जाता है।
शास्त्रों द्वारा जिनका विधान नहीं किया गया है, ऐसे कार्य करने से केवल क्लेश ही हाथ लगता है, उनसे पाप नष्ट नहीं किये जा सकते। अग्निहोत्र आदि शुभकर्म भावशून्य अर्थात् श्रद्धारहित मनुष्य के पापकर्मों को दग्ध नहीं कर सकते। मनुष्य पुण्य के प्रभाव से ही उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। उपवास भी पुण्य से अर्थात निष्काम भाव से ही शुद्धि का कारण होता है। (बिना शुद्ध भाव के) केवल फल-मूल खाने, मौन रहने, हवा पीने, सिर मुंड़ाने, एक स्थान पर कुटी बनाकर रहने, सिर पर जटा रखाने, वेदी पर सोने, नित्य उपवास, अग्निसेवन, जलप्रवेश तथा भूमिशयन करने से भी शुद्धि नहीं होती है।
तत्त्वज्ञान या सत्कर्म से ही जरा, मृत्यु तथा रोगों का नाश होता है और उत्तम पद (मुक्ति) की प्राप्ति होती है। जैसे आग में जले हुए बीज फिर नहीं उगते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के द्वारा अविद्या आदि क्लेशों के नष्ट हो जाने पर आत्मा का पुन: उनसे संयोग नहीं होता। जीवात्मा से परित्यक्त होने पर सारे शरीर काठ और दीवार की भाँति जड़वत् होकर महासागर में उठे हुए फेनों की तरह नष्ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। एक या आधे श्लोक से भी यदि सम्पूर्ण भूतों के हृदयदेश में शयन करने वाले परमात्मा का ज्ञान हो जाये, तो उसके लिये सम्पूर्ण शास्त्रों के अध्ययन का प्रयोजन समाप्त हो जाता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 111-122 का हिन्दी अनुवाद)
कोई ‘तत्वम्’ अथवा राम, कृष्ण, शिव आदि दो अक्षरों से ही परमात्म तत्व का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। कोई श्लोक और पदों से अंकित अन्य सैकड़ों तथा सहस्रों शास्त्र वाक्यों से परमात्मा के स्वरूप को जानते हैं। जैसे भी हो, बोध ही मोक्ष का लक्षण है। जिसके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है। ‘ज्ञान ही मोक्ष का लक्षण है’-यह वृद्ध, ज्ञानी पुरुषों का कथन है। जब मनुष्य वेदों के वास्तविक प्रयोजन को जान जाता है, तब वह वेदवेत्ता मानव (कर्म विधायक) समस्त वेदों से उसी प्रकार उपरत हो जाता है, जैसे मनुष्य दावानल से हट जाते हैं।
प्रणव से सम्बन्ध रखने वाले परमात्म तत्व को यदि तुम युक्तिपूर्वक अर्थात नि:संदेह भाव से समझना चाहते हो, तो कोरा तर्कवाद छोड़कर श्रुति तथा स्मृति के वचनों का आश्रय लो; क्योंकि जो उपर्युक्त साधन का आश्रय नहीं लेता, उसकी बुद्धि तत्व का निश्चय करने में समर्थ नहीं हो सकती। इसलिये जानने योग्य परमात्म तत्व का ज्ञान वेदों के द्वारा ही यत्नपूर्वक प्राप्त करना चाहिये; क्योंकि वह परमात्म तत्व वेदस्वरूप है। वेद उसका शरीर है। उस परमात्म तत्व को सहज भाव से प्राप्त कराने में वेद हेतु है। यह जीवात्मा स्वयं समर्थ नहीं है; क्योंकि वह तत्व वेद्य का भी वेद्य है अर्थात् जानने में बड़ा ही गहन है। देवताओं की आयु और कर्मों का शुभाशुभ फल आदि बातें वेद में कही गयी हैं। उसके अनुसार ही देहधारियों का प्रभाव संसार में प्रत्येक युग में फलित होता है। अत: मनुष्यों को इन्द्रियों की शुद्धि के द्वारा इन विषयभोगों को त्याग देना चाहिये। यह इन्द्रियों की निर्मलता और निरोध से होने वाला अनशन (विषयों का अग्रहण) दिव्य होता है। तप से स्वर्गलोक में जाने का सौभाग्य प्राप्त होता है। दान से भोगों की प्राप्ति होती है। ज्ञान से मोक्ष मिलता है, यह जानना चाहिये तथा तीर्थ स्नान से पापों का क्षय हो जाता है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! मार्कण्डेय जी के ऐसा कहने पर महायशस्वी युधिष्ठिर बोले,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘भगवन्! अब मैं (दान की) उत्तम एवं प्रधान विधि सुनना चाहता हूँ।
मार्कण्डेय जी ने कहा ;- महाराज युधिष्ठिर! तुम मुझसे जिस दान-धर्म को सुनना चाहते हो, वह गौरवयुक्त होने के कारण मुझे सदा ही प्रिय है। श्रुतियों और स्मृतियों में जो दान के रहस्य बताये गये हैं, उनका वर्णन सुनो- युधिष्ठिर! गुरुवार को अमावस्या के योग में पीपल के वृक्ष की छाया को गजच्छाया-पर्व कहते हैं। गजच्छाया में जहाँ पीपल के पत्तों की हवा लगती हो, उस प्रदेश में जल के समीप जो श्राद्ध किया जाता है, वह एक लाख कल्पों तक नष्ट नहीं होता। जो जीविका के लिये रांधा हुआ अन्न का दान करता है, वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो आश्रय की खोज करने वाले राहगीर-अतिथि को ठहरने के लिये जगह दे, वह सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण कर लेता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विशततम अध्याय के श्लोक 123-129 का हिन्दी अनुवाद)
पूर्व की ओर बहने वाली नदी का प्रवाह जहाँ पश्चिम की ओर मुड़ गया हो, वह प्रतिस्रोत तीर्थ कहलाता है, उसमें किया हुआ उत्तम अश्वों का दान अक्षय पुण्य को देने वाला होता है। अन्न के लिये विचरने वाले अतिथिरूपी इन्द्र को यदि भोजन से संतुष्ट किया जाये तो वह भी अक्षय पुण्य का जनक होता है। नदियों के महान् प्रवाह में ग्रहण के समय ब्राह्मणों को दिये हुए दधिमण्ड तथा पूर्वोक्त पदार्थ भी अक्षय पुण्य की प्राप्ति कराने वाले होते हैं।
इसी प्रकार नदियों के महान् प्रवाह में स्नान करने वाला पुरुष बड़े-बड़े पापों से मुक्त हो जाता है। पर्व के अवसर पर दिया हुआ दान दुगुना तथा ऋतु आरम्भ होने के समय दिया हुआ दान दस गुना पुण्यदायक होता है। उत्तरायण या दक्षिणायन आरम्भ होने के दिन, विष्णुयोग (तुला और मेष की संक्रान्ति) में, मिथुन, कन्या, धनु और मीन की संक्रान्तियों में तथा चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के अवसर पर दिया हुआ दान अक्षय बताया गया है। विद्वान् पुरुष प्रारम्भ होने के दिन दिये हुए दान को दस गुना तथा अयन आदि के दिन सौ गुना बताते हैं। इसी प्रकार ग्रहण के दिन दिये हुए दान का फल सहस्र गुना होता है और विषुवयोग में दान करने से मनुष्य उसके अक्षय पुण्य-फल का उपभोग करता है।
राजन्! जिसने भूमिदान नहीं किया है, वह परलोक में पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। जिसने सवारी का दान नहीं किया है, वह सवारी चढ़कर नहीं जा सकता। इस जन्म में मनुष्य जिन-जिन पदार्थों का ब्राह्मणों को दान करता है, भावी जन्म में वह उन-उन पदार्थों को उपभोग के लिये पाता है। सुवर्ण अग्नि की प्रथम संतान है। भूमि भगवान विष्णु की पत्नी है तथा गौएं भगवान सूर्य की कन्याएं हैं, अत: जो कोई सुवर्ण, गौ और पृथ्वी का दान करता है, उसके द्वारा तीनों लोकों का दान सम्पन्न हो जाता है।
त्रिलोकी में दान से बढ़कर शाश्वत पुण्यदायक कर्म दूसरा पहले कभी नहीं हुआ, अब कैसे हो सकता है? इसीलिये उत्तम बुद्धि वाले पुरुष संसार में दान को सर्वोत्कृष्ट पुण्यकर्म बताते हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तगर्त मार्कण्डयसमास्यापर्व में दान माहात्म्य-विषयक दो सौवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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