सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ इक्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
"भगवान् कल्की के द्वारा सत्ययुग की स्थापना और मार्कण्डेयजी का युधिष्ठिर के लिये धर्मोपदेश"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! उस समय चोर-डाकुओं एवं म्लेच्छों का विनाश करके भगवान् कल्की अश्वमेध नामक महायज्ञ का अनुष्ठान करेंगे और उसमें यह सारी पृथ्वी विधिपूर्वक ब्राह्मणों को दे डालेंगे। उनका यश तथा कर्म सभी परम पावन होंगे। वे ब्रह्माजी की चलायी हुई मंगलमयी मर्यादाओं की स्थापना करके (तपस्या के लिये) रमणीय वन में प्रवेश करेंगे। फिर इस जगत के निवासी मनुष्य उनके शील-स्वभाव का अनुकरण करेंगे। इस प्रकार सत्ययुग में ब्राह्मणों द्वारा दस्युदल का विनाश हो जाने पर संसार का मंगल होगा। द्विजश्रेष्ठ कल्की सदा दस्युवध में तत्पर रहकर समस्त भूतल पर विचरते रहेगे और अपने द्वारा जीते हुए देशों में काले मृगचर्म, शक्ति, त्रिशूल तथा अन्य अस्त्र-शस्त्रों की स्थापना करते हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा अपनी स्तुति सुनेंगे और स्वयं भी उन ब्राह्मणशिरोमणियों को यथोचित सम्मान देंगे। उस समय चोर और लुटेरे दर्दभरी वाणी में 'हाय मैया' 'हाय बप्पा' और 'हाय बेटा' इत्यादि कहकर जोर-जोर से चीत्कार करेंगे और उन सबका भगवान् कल्की विनाश कर डालेंगे।
भारत! दस्युओं के नष्ट हो जाने पर अधर्म का भी नाश हो जायेगा और धर्म की वृद्धि होने लगेगी। इस प्रकार सत्ययुग आ जाने पर सब मनुष्य सत्यकर्मपरायण होंगे। उस युग में नये-नये बगीचे लगाये जायेंगे। चैत्यवृक्षों की स्थापना होगी। पोखरों और धर्मशालाओं का निर्माण होगा। भाँति-भाँति की पोखरियां तैयार होंगी। कितने ही देवमन्दिर बनेंगे और नाना प्रकार के यज्ञकर्मों का अनुष्ठान होगा। ब्राह्मण साधु-स्वभाव के होंगे। मुनि लोग तपस्या में तत्पर रहेंगे। आश्रम पाखण्डियों से रहित होंगे और सारी प्रजा सत्यपरायण होगी। खेतों में बोये जाने वाले सब प्रकार के बीज अच्छी तरह उगेंगे। राजेन्द्र! सभी ऋतुओं में सभी प्रकार के अनाज पैदा होंगे। सब लोग दान, व्रत और नियमों में लगे रहेंगे। ब्राह्मण प्रसन्नतापूर्वक जपयज्ञ में तत्पर रहेंगे और धर्म में ही उनकी रुचि होगी। क्षत्रिय नरेश धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करेंगे। सत्ययुग के वैश्य सदा न्यायपूर्वक व्यापार करने वाले होंगे। ब्राह्मण यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह-इन छः कर्मों में तत्पर रहेंगे। क्षत्रिय बल-पराक्रम में अनुराग रखेंगे तथा शूद्र ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों की सेवा में लगे रहेंगे। धर्म का यह स्वरूप सत्ययुग में अक्षुण्ण रहेगा। त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में धर्म की जैसी स्थिति रहेगी, उसका वर्णन तुमसे किया जा चुका है। पाण्डुनन्दन! तुम्हें सम्पूर्ण लोक की युग-संख्या का ज्ञान भी हो चुका है।
राजन्! ऋषियों द्वारा प्रशंसित तथा वायुदेव द्वारा वर्णित पुराण की बातों का स्मरण करके मैंने तुमसे यह भूतभविष्य का सारा वृतान्त बताया है। इस प्रकार चिरंजीवी होने के कारण मैंने संसार के मार्गों का अनेक बार दर्शन और अनुभव किया है, जिनका तुम्हारे समक्ष वर्णन कर दिया है। धर्ममर्यादा से कभी च्युत न होने वाले युधिष्ठिर! तुम अपने भाइयों सहित यह मेरी एक बात और सुनो। धर्म विषयक संदेह का निवारण करने के लिये मेरे वचन को ध्यान देकर सुनो। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाराज! तुम्हें अपने आपको सदा धर्म में ही लगाये रखना चाहिये; क्योंकि धर्मात्मा मनुष्य इस लोक और परलोक में भी बड़े सुख से रहता है। निष्पाप नरेश! मेरी इस कल्याणमयी वाणी को समझो, जिसे मैं अभी तुम्हें सुना रहा हूँ। युधिष्ठिर! तुम्हें कभी किसी ब्राह्मण का तिरस्कार नहीं करना चाहिये; क्योंकि यदि ब्राह्मण कुपित हो जाये और किसी बात की प्रतिज्ञा कर ले, तो वह उस प्रतिज्ञा के अनुसार सम्पूर्ण लोकों का विनाश कर सकता है।
वैशम्पयान जी कहते हैं ;- जनमेजय! मार्कण्डेय जी की यह बात सुनकर परम तेजस्वी और बुद्धिमान् कुरुकुलरत्न राजा युधिष्ठिर ने यह उत्तम वचन कहा,
युधिष्ठिर बोले ;- 'मुने! प्रजा की रक्षा करते हुए किस धर्म में स्थित रहना चाहिये। मेरा व्यवहार और बर्ताव कैसा हो, जिससे मैं स्वधर्म से कभी च्युत न होऊँ?'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-35 का हिन्दी अनुवाद)
मार्कण्डेय जी ने कहा ;- राजन्! तुम सब प्रणियों पर दया करो। सबके हितैषी बने रहो। सब पर प्रेमभाव रखो और किसी में दोषदृष्टि मत करो। सत्यवादी, कोमल स्वभाव, जितेन्द्रिय और प्रजापालन में तत्पर रहकर धर्म का आचरण करो। अधर्म को दूर से ही त्याग दो तथा देवता और पितरों की आराधना करते रहो। यदि प्रमादवश तुम्हारे द्वारा किसी के प्रति कोई अनुचित व्यवहार हो गया हो तो उसे अच्छी प्रकार दान से संतुष्ट करके वश में करो। मैं सबका स्वामी हूं, ऐसे अहंकार को कभी पास में न आने दो। तुम अपने को सदा पराधीन समझते रहो। सारी पृथ्वी को जीतकर सदा आनन्द और सुखी रहो।
तात युधिष्ठिर! मैंने तुम्हें जो यह धर्म बताया है, इसका पालन भूतकाल में भी हुआ है और भविष्य काल में भी इसका पालन होना चाहिये। भूत और भविष्य की ऐसी कोई बात नहीं है, जो तुम्हें ज्ञात न हो; अतः इस समय जो यह क्लेश तुम्हें प्राप्त हुआ है, इसके लिये हृदय में कोई विचार न करो। तात! विद्वान् पुरुष काल से पीड़ित होने पर भी कभी मोह में नहीं पड़ते। महाबाहो! यह काल सम्पूर्ण देवताओं पर भी अपना प्रभाव डालता है। युधिष्ठिर! काल से प्रेरित होकर ही यह सारी प्रजा मोहग्रस्त होती है। अनघ! मैंने तुम्हारे सामने जो कुछ भी कहा है, उसमें तुम्हें किसी प्रकार की शंका नहीं होनी चाहिये। मेरे इस वचन में संदेह करने पर तुम्हारे धर्म का लोप होगा। भरतकुलभूषण! तुम कौरवों के प्रख्यात कुल में उत्पन्न हुए हो; अतः मन, वाणी और क्रिया द्वारा इन सब बातों का पालन करो।
युधिष्ठिर ने कहा ;- द्विजश्रेष्ठ! आपने मुझे जो उपदेश दिया है, वह मेरे कानों को मधुर एवं मन को प्रिय लगा है। विभो! मैं आपकी आज्ञा का यत्नपूर्वक पालन करूंगा। ब्राह्मणश्रेष्ठ! मेरे मन में लोभ, भय और ईर्ष्या नहीं है। प्रभो! आपने मेरे लिये जो कहा है, इसका अवश्य पालन करूंगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! उन परम बुद्धिमान् मार्कण्डेय जी का वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण सहित पांचों पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए। साथ ही जो श्रेष्ठ ब्राह्मण वहाँ पधारे थे, उन सबको भी बड़ी प्रसन्नता हुई। बुद्धिमान् मार्कण्डेय जी के मुख से वह मंगलमयी कथा सुनकर पुराणोक्त बातों का ज्ञान हो जाने से सब लोग बड़े ही विस्मित और प्रसन्न हुए।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में युधिष्ठिर के लिये उपदेश विषयक एक सौ इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ बियानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह, शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने मुनिवर मार्कण्डेय से कहा,
युधिष्ठिर बोले ;- 'ब्रह्मन्! पुनः ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन कीजिये'।
तब मार्कण्डेय जी ने कहा ;- 'राजन्! ब्राह्मणों के इस अद्भुत चरित्र का श्रवण करो। अयोध्यापुरी में इक्ष्वाकु कुल में धुरंधर वीर राजा परीक्षित् रहते थे। वे एक दिन शिकार खेलने के लिये गये। उन्होंने एकमात्र अश्व की सहायता से एक हिंसक पशु का पीछा किया। वह पशु उन्हें बहुत दूर हटा ले गया। मार्ग में उन्हें बड़ी थकावट हुई और वे भूख-प्यास से व्याकुल हो गये। उसी समय उन्हें एक ओर नीले रंग का एक दूसरा वन दिखायी दिया, जो और भी घना था। तत्पश्चात् राजा ने उसके भीतर प्रवेश किया। उस वनस्थली के मध्य भाग में एक अत्यन्त रमणीय सरोवर था। उसे देखकर राजा घोडे़ सहित सरोवर के जल में घुस गये। जल पीकर जब वे कुछ आश्वस्त हुए, तब घोड़े के आगे कुछ कमल की नालें डालकर स्वयं उस सरोवर के तट पर लेट गये। लेटे-ही-लेटे उनके कानों में कहीं से मधुर गीत की ध्वनि सुनायी पड़ी। उसे सुनकर राजा सोचने लगे कि 'यहाँ मनुष्यों की गति तो नहीं दिखायी देती। फिर यह किसके गीत का शब्द सुनायी देता हैं'।
इतने ही में उनकी दृष्टि एक कन्या पर पड़ी, जो अपने परम सुन्दर रूप के कारण देखने ही योग्य थी। वह वन के फूल चुनती हुई गीत गा रही थी। धीरे-धीरे भ्रमण करती हुई वह राजा के समीप आ गयी। तब राजा ने उससे पूछा,,
राजा परीक्षित् बोले ;- 'कल्याणी! तुम कौन और किसकी हो?' उसने उत्तर दिया,
कन्या बोली ;- 'मैं कन्या हूं-अभी मेरा विवाह नहीं हुआ है।'
तब राजा ने उससे कहा ;- 'भद्रे! मैं तुझे चाहता हूँ।'
कन्या बोली ;- 'तुम मुझे एक शर्त के साथ पा सकते हो अन्यथा नहीं।'
राजा ने वह शर्त पूछी।
कन्या ने कहा ;- 'मुझे कभी जल का दर्शन न कराना'।
तब राजा ने उससे 'बहुत अच्छा' कहकर उससे (गान्धर्व) विवाह किया। विवाह के पश्चात् राजा परीक्षित् अत्यन्त आनन्दपूर्वक उसके साथ क्रीड़ा-विहार करने लगे और एकान्त में मिलकर उसके साथ चुपचाप बैठे रहे। राजा अभी वहीं बैठे थे, इतने ही में उनकी सेना आ पहुँची। वह सेना अपने बैठे हुए राजा को चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गयी। अच्छी तरह सुस्ता लेने के पश्चात् राजा एक साफ-सुथरी चिकनी पालकी में उसी के साथ बैठकर अपने नगर को चल दिये और वहाँ पहुँचकर उस नवविवाहिता सुन्दरी के साथ एकान्तवास करने लगे। वहाँ निकट होते हुए भी कोई उनका दर्शन नहीं कर पाता था।
तब एक दिन प्रधानमंत्री ने राजा के पास रहने वाली स्त्रियों से पूछा,,
मंत्री बोले ;- 'यहाँ तुम्हारा क्या काम है?' उनके ऐसा पूछने पर उन स्त्रियों ने कहा,,
स्त्रियां बोली ;- 'हमें यहाँ एक अद्भूत-सी बात दिखायी देती है। महाराज के अन्तःपुर में पानी नहीं जाने पाता है। (हम लोग इसी की चैकसी करती हैं।)' उनकी यह बात सुनकर प्रधानमंत्री ने एक बाग लगवाया, जिसमें प्रत्यक्ष रूप से कोई जलाशय नहीं था। उसमें बड़े सुन्दर और ऊँचे-ऊँचे वृक्ष लगवाये गये थे। वहाँ फल-फूल और कन्द-मूल की भी बहुतायत थी। उस उपवन के मध्य भाग में एक किनारे की ओर सुधा के समान स्वच्छ जल से भरी हुई एक बावली भी बनवायी थी, जो मोतियों के जाल से निर्मित थी। उस बावली को (लताओं द्वारा) बाहर से ढक दिया गया था। उस उद्यान के तैयार हो जाने पर मंत्री ने किसी दिन राजा से मिलकर कहा,,
मंत्री बोले ;- 'महाराज! यह वन बहुत सुन्दर है, आप इसमें भलीभाँति विहार करें'। मंत्री के कहने से राजा ने उसी नवविवाहिता रानी के साथ उस वन में प्रवेश किया।
एक दिन महाराज परीक्षित् उस रमणीय उद्यान में अपनी उसी प्रियतमा के साथ विहार कर रहे थे। विहार करते-करते जब वे थक गये और भूख-प्यास से बहुत पीड़ित हो गये, तब उन्हें वासन्ती लता द्वारा निर्मित एक मनोहर मण्डप दिखायी दिया। उस मण्डप में प्रियासहित प्रवेश करके राजा ने सुधा के समान स्वच्छ जल से परिपूर्ण वह बावली देखी।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद)
उसे देखकर वे अपनी रानी के साथ उसी के तट पर खड़े हुए। उस समय राजा ने उस रानी से कहा,
राजा परीक्षीत् बोले ;- 'देवि! सावधानी के साथ इस बावली के जल में उतरो।' राजा की यह बात सुनकर उसने बावली में घुसकर गोता लगाया और फिर बाहर नहीं निकली। राजा ने उस बावली में रानी की बहुत खोज की, परंतु वह कहीं दिखायी न दी। तब उन्होंने बावली का सारा जल निकलवा दिया। इसके बाद एक बिल के मुंह पर कोई मेढक दीख पड़ा। इससे राजा को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने आज्ञा दे दी कि 'सर्वत्र मेढकों का वध किया जाये। जो मुझसे मिलना चाहे, वह मरे हुए मेढक का ही उपहार लेकर मेरे पास आवे'। इस आज्ञा के अनुसार चारों और मेढकों का भयंकर संहार आरम्भ हो गया। इससे सब दिशाओं के मेढकों के मन में भय समा गया। वे डरकर मण्डूकराज के पास गये और उनसे सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बता दिया। तब मण्डूकराज तपस्वी का वेष धारण करके राजा के पास गया और निकट पहुँचकर उससे इस प्रकार बोला,
मण्डूकराज बोले ;- 'राजन्! आप क्रोध के वशीभूत न हों। हम पर कृपा करें। निरपराध मेढकों का वध न करावें।'
इस विषय में ये दो श्लोक भी प्रसिद्ध हैं- अच्युत! आप मेढकों को मारने की इच्छा न करें। अपने क्रोध को रोकें; क्योंकि अविवेक से काम लेने वाले मनुष्यों के धन की वृद्धि नष्ट हो जाती है। प्रतिज्ञा करें कि इन मेढकों को पाकर आप क्रोध नहीं करेंगे; यह अधर्म करने से आपको क्या लाभ है? मण्डूकों की हत्या से आपको क्या मिलेगा?' राजा का हृदय अपनी प्यारी रानी के विनाश के शोक से दग्ध हो रहा था। उन्होंने उपर्युक्त बातें कहने वाले मण्डूकराज से कहा,,
राजा परिक्षित बोले ;- 'मैं क्षमा नहीं कर सकता। इन मेढकों को अवश्य मारूंगा। इन दुरात्माओं ने मेरी प्रियतमा को खा लिया है। अतः ये मेढक मेरे लिये सर्वथा वध्य ही हैं। विद्वन्! आप मुझे उनके वध से न रोकें'। राजा की बात सुनकर मण्डूकराज का मन और इन्द्रियां व्यथित हो उठीं।
वह बोला(मण्डूकराज बोले) ;- 'महाराज! प्रसन्न होइये। मेरा नाम आयु है। मैं मेढकों का राजा हूँ। जिसे आप अपनी प्रियतमा कहते हैं, वह मेरी ही पुत्री है। उसका नाम सुशोभना है। वह आपको छोड़कर चली गयी, यह उसकी दुष्टता है। उसने पहले भी बहुत-से राजाओं को धोखा दिया है'। तब राजा ने मण्डूकराज से कहा,
परीक्षित बोले ;- 'मैं तुम्हारी उस पुत्री को चाहता हूं, उसे मुझे समर्पित कर दो'। पिता मण्डूकराज ने अपनी पुत्री सुशोभना महाराज परीक्षित् को समर्पित कर दी और उससे कहा,
मण्डूकराज बोले ;- 'बेटी! सदा राजा की सेवा करती रहना।' ऐसा
कहकर मण्डूकराज ने जब अपनी पुत्री के अपराध को याद किया, तब उसे क्रोध हो आया और उसने उसे शाप देते हुए कहा,
मण्डूकराज फिर बोले ;- 'अरी! तूने बहुत-से राजाओं को धोखा दिया है, इसलिये तेरी संतानें ब्राह्मण-विरोधी होंगी; क्योंकि तू बड़ी झूठी है'।
सुशोभना के रतिकाल सम्बन्धी गुणों ने राजा के मन को बांध लिया था। वे उसे पाकर ऐसे प्रसन्न हुए, मानो उन्हें तीनों लोकों का राज्य मिल गया हो। उन्होंने आनन्द के आंसू बहाते हुए मण्डूकराज को प्रणाम किया और उसका यथोचित सत्कार करते हुए हर्षगद्गद वाणी में कहा,,
राजा परिक्षीत् बोले ;- 'मण्डूकराज! तुमने मुझ पर बड़ी कृपा की है'। तत्पश्चात् कन्या से विदा लेकर मण्डूकराज जैसे आया था, वैसे ही अपने स्थान को चला गया। कुछ काल के पश्चात् सुशोभना के गर्भ से राजा परीक्षित् के तीन पुत्र हुए- शल, दल और बल। इनमें शल सबसे बड़ा था। समय आने पर पिता ने शल का राज्याभिषेक करके स्वयं तपस्या में मन लगाये तपोवन को प्रस्थान किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 39-50 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर एक दिन महाराज शल शिकार खेलने के लिये वन को गये। वहाँ उन्होंने एक हिंसक पशु को सामने पाकर रथ के द्वारा ही उसका पीछा किया और सारथि से कहा,,
राजा शल बोले ;- 'शीघ्र मुझे मृग के निकट पहुँचाओ'। उनके ऐसा कहने पर ,,
सारथि बोला ;- 'महाराज! आप इस पशु को पकड़ने का आग्रह न करें। यह आपकी पकड़ में नहीं आ सकता। यदि आपके रथ में दोनों वाम्य घोड़े जुते होते, तब आप इसे पकड़ लेते।' यह सुनकर राजा ने सूत से पूछा,,
राजा शल बोले ;- 'सारथे! बताओ, वाम्य घोड़े कौन हैं, अन्यथा मैं तुम्हें अभी मार डालूंगा।' राजा के ऐसा कहने पर सारथि भय से कांप उठा। उधर घोड़ों का परिचय देने पर उसे वामदेव ऋषि के शाप का भी डर था। अतः उसने राजा से कुछ नहीं कहा। तब राजा ने पुनः तलवार उठाकर कहा,,
राजा शल फिर बोले ;- 'अरे! शीघ्र बता, नहीं तो तुझे अभी मार डालूंगा।'
तब उसने राजा के भय से त्रस्त होकर कहा,
सारथी बोला ;- 'महाराज! वामदेव मुनि के पास दो घोड़े हैं, जिन्हें 'वाम्य' कहते हैं। वे मन के समान वेगशाली हैं'। 'सारथि के ऐसा कहने पर राजा ने उसे आज्ञा दी, चलो वामदेव के आश्रम पर।' वामदेव के आश्रम पर पहुँचकर राजा ने उन महर्षि से कहा,,
राजा शल बोले ;- 'भगवन्! मेरे बाणों से घायल हुआ हिंसक पशु भागा जा रहा है। आप अपने वाम्य अश्व मुझे देने की कृपा करें।'
तब महर्षि ने कहा ;- 'मैं तुम्हें वाम्य अश्व दिये देता हूँ, परंतु जब तुम्हारा कार्य सिद्ध हो जाये, तब तुम शीघ्र ही ये दोनों अश्व मुझे ही लौटा देना।' राजा ने दोनों अश्व पाकर ऋषि की आज्ञा ले वहां से प्रस्थान किया। वामी घोड़ों से जुते हुए रथ के द्वारा हिंसक पशु का पीछा करते हुए वे सारथि से बोले,,
राजा शल बोले ;- 'सूत! ये दोनों अश्वरत्न ब्राह्मणों के पास रहने योग्य नहीं हैं।' ऐसा कहकर राजा हिंसक पशु को साथ ले अपनी राजधानी को चल दिये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने उन दोनों अश्वों को अन्तःपुर में बांध दिया।
उधर वामदेव मुनि मन-ही-मन इस प्रकार चिन्ता करने लगे- 'अहो! वह तरुण राजकुमार मेरे अच्छे घोड़ों को लेकर मौज कर रहा है, उन्हें लौटाने का नाम ही नहीं लेता है। यह तो बड़े कष्ट की बात है'। मन-ही-मन सोच-विचार करते हुए जब एक मास पूरा हो गया, तब वे अपने शिष्य से बोले,
वामदेव मुनि बोले ;- 'आत्रेय! जाकर राजा से कहो कि यदि काम पूरा हो गया हो तो गुरुजी के दोनों वाम्य अश्व लौटा दीजिये।' शिष्य ने जाकर राजा से यही बात दुहरायी। तब राजा ने उसे उत्तर देते हुए कहा,,
राजा शल बोले ;- 'यह सवारी राजाओं के योग्य है। ब्राह्मणों को ऐसे रत्न रखने का अधिकार नहीं है। भला, ब्राह्मणों को घोड़े लेकर क्या करना है? अब आप सकुशल पधारिये'। शिष्य ने लौटकर ये सारी बातें उपाध्याय से कहीं। वह अप्रिय वचन सुनकर वामदेव मन-ही-मन क्रोध से जल उठे और स्वयं ही उस राजा के पास जाकर उन्हें घोड़े लौटा देने के लिये कहा, परंतु राजा ने वे घोड़े नहीं दिये।
तब वामदेव ने कहा ;- 'राजन्! मेरे वाम्य अश्वों को अब मुझे लौटा दो। निश्चय ही उन घोड़ों द्वारा तुम्हारा असाध्य कार्य पूरा हो गया है। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी असत्यवादिता के कारण राजा वरुण तुम्हें अपने भयंकर पाशों से बांध ले।'
राजा बोले ;- वामदेव जी! ये दो अच्छे स्वभाव के सीखे-सिखाये हष्ट-पुष्ट बैल हैं, जो गाड़ी खींच सकते हैं, ये ही ब्राह्मणों के लिये उचित वाहन हो सकते हैं। अतः महर्षे! इन्हीं को गाड़ी में जोतकर आप जहाँ चाहें जायें। आप जैसे महात्मा का भार तो वेद-मंत्र ही वहन करते हैं।'
वामदेव ने कहा ;- 'राजन्! इसमें संदेह नहीं कि हम-जैसे लोगों के लिये वेद के मंत्र ही वाहन का काम देते हैं, परंतु वे परलोक में ही उपलब्ध होते हैं। इस लोक में तो हम-जैसे लोगों के तथा दूसरों के लिये भी ये अश्व ही वाहन होते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 51-63 का हिन्दी अनुवाद)
राजा ने कहा ;- 'ब्रह्मन्! तब चार गधे, अच्छी जाति की खच्चरियां या वायु के समान वेगशाली दूसरे घोड़े आपकी सवारी के लिये प्रस्तुत हो सकते हैं। इन्हीं वाहनों द्वारा आप यात्रा करें। यह वाहन, जिसे आप मांगने आये हैं, क्षत्रिय नरेश के ही योग्य हैं। इसलिये आप यह समझ लें कि ये वाम्य अश्व मेरे ही हैं, आपके नहीं हैं।'
वामदेव बोले ;- 'राजन्! तुम ब्राह्मणों के इस धन को हड़प कर जो अपने उपयोग में लाना चाहते हो, यह बड़ा भयंकर कर्म कहा गया है। यदि मेरे घोड़े वापस न दोगे तो मेरी आज्ञा पाकर विकराल रूपधारी तथा लौह-शरीर वाले अत्यन्त भयंकर चार बड़े-बड़े राक्षस हाथों में तीखे त्रिशूल लिये तुम्हारे वध की इच्छा से टूट पड़ेंगे और तुम्हारे शरीर के चार टुकड़े करके उठा ले जायेंगे।'
राजा ने कहा ;- 'वामदेव जी! आप ब्राह्मण हैं तो भी मन, वाणी एवं क्रिया द्वारा मुझे मारने को उद्यत हैं, इसका पता हमारे जिन सेवकों को चल गया है, वे मेरी आज्ञा पाते ही हाथों में तीखे त्रिशूल तथा तलवार लेकर शिष्यों सहित आपको पहले ही यहाँ मार गिरावेंगे।'
वामदेव बोले ;- 'राजन्! तुमने जब ये मेरे दोनों घोड़े लिये थे, उस समय यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं इन्हें पुनः लौटा दूंगा। ऐसी दशा में यदि अपने आपको तुम जीवित रखना चाहते हो, तो मेरे दोनों वाम्यसंज्ञक घोड़े वापस दे दो।'
राजा बोले ;- 'ब्रह्मन्! (ये घोड़े शिकार के उपयोग-में आने योग्य हैं और) ब्राह्मणों के लिये शिकार खेलने की विधि नहीं है। यद्यपि आप मिथ्यावादी हैं, तो भी मैं आपको दण्ड नहीं दूंगा और आज से आपके सारे आदेशों का पालन करूंगा, जिससे मुझे पुण्यलोक की प्राप्ति हो (परंतु ये घोड़े आपको नहीं मिल सकते)।'
वामदेव ने कहा ;- 'राजन्! मन, वाणी अथवा क्रिया द्वारा कोई भी अनुशासन या दण्ड ब्राह्मणों पर लागू नहीं हो सकता। जो इस प्रकार जानकर कष्ट सहनपूर्वक ब्राह्मण की सेवा करता है; वह उस ब्राह्मण-सेवारूप कर्म से ही श्रेष्ठ होता और जीवित रहता है।'
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! वामदेव की यह बात पूर्ण होते ही विकराल रूपधारी चार राक्षस वहाँ प्रकट हो गये। उनके हाथ में त्रिशूल थे। जब वे राजा पर चोट करने लगे, तब राजा ने उच्च स्वर से यह बात कही,
राजा शल बोले ;- 'यदि ये इक्ष्वाकु वंश के लोग तथा मेरे आज्ञापालक प्रजावर्ग के मनुष्य भी मेरा त्याग कर दें, तो भी मैं वामदेव के इन वाम्यसंज्ञक घोड़ों को कदापि नहीं दूंगा; क्योंकि इनके-जैसे लोग धर्मात्मा नहीं होते हैं'। ऐसा कहते ही राजा शल उन राक्षसों से मारे जाकर तुरंत धराशायी हो गये। इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियों को जब यह मालूम हुआ कि राजा मार गिराये गये, तब उन्होंने उनके छोटे भाई दल का राज्याभिषेक कर दिया। तब पुनः उस राज्य में जाकर विप्रवर वामदेव ने राजा दल से यह बात कही,
वामदेव बोले ;- 'महाराज! ब्राह्मणों की वस्तु उन्हें दे दी जाये, यह बात सभी धर्मों में देखी गयी है। नरेन्द्र! यदि तुम अधर्म से डरते हो तो मुझे अभी शीघ्रतापूर्वक मेरे वाम्य अश्वों को लौटा दो।'
वामदेव की यह बात सुनकर राजा ने रोषपूर्वक अपने सारथि से कहा,
राजा दल बोले ;- 'सूत! एक अद्भुत बाण ले आओ, जो विष में बुझाकर रखा गया हो। जिससे घायल होकर यह वामदेव धरती पर लोट जाये। इसे कुत्ते नोच-नोचकर खायें और यह पृथ्वी पर पड़ा-पड़ा पीड़ा से छटपटाता रहे'।
वामदेव ने कहा ;- 'नरेन्द्र! मैं जानता हूं, तुम्हारी रानी के गर्भ से श्येनजित् नामक एक पुत्र पैदा हुआ है, जो तुम्हें बहुत प्रिय है और जिसकी अवस्था दस वर्ष की हो गयी है। तुम मेरी आज्ञा से प्रेरित होकर इन भयंकर बाणों द्वारा अपने उसी पुत्र का शीघ्र वध करोगे।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 64-72 का हिन्दी अनुवाद)
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! वामदेव के ऐसा कहते ही उस प्रचण्ड तेजस्वी बाण ने धनुष से छूटकर रनवास के भीतर जा राजकुमार का वध कर डाला। यह समाचार सुनकर दल ने वहां पुनः इस प्रकार कहा।
राजा दल ने कहा ;- 'इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियो! मैं अभी तुम्हारा प्रिय करता हूं। आज इस ब्राह्मण को रौंदकर मार डालूंगा। एक दूसरा तेजस्वी बाण ले आओ और आज मेरा पराक्रम देखो।'
वामदेव जी ने कहा ;- 'नरेश्वर! तुम विष के बुझाये हुए इस विकराल बाण को मुझे मारने के लिये धनुष पर चढ़ा रहे हो, परंतु कहे देता हूं 'इस बाण को न तो तुम धनुष पर रख सकोगे और न छोड़ ही सकोगे'।
राजा बोले ;- 'इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियो! देखो, मैं फंस गया। अब यह बाण नहीं छोड़ सकूंगा। इसलिये वामदेव को नष्ट करने का उत्साह जाता रहा। अतः यह महर्षि दीर्घायु होकर जीवित रहे।'
वामदेव जी ने कहा ;- 'राजन्! तुम इस बाण से अपनी रानी का स्पर्श कर लेने पर ब्रह्महत्या के पाप से छूट जाओगे।' तब राजा ने ऐसा ही किया। तदनन्तर राजपुत्री ने मुनि से कहा।
राजपुत्री बोली ;- 'वामदेव जी! मैं इन कठोर स्वभाव वाले अपने स्वामी को प्रतिदिन सावधन रहकर मीठे वचन बोलने की सलाह देती रहती हूं और स्वयं ब्राह्मणों की सेवा का अवसर ढूंढ़ती हूं। ब्रह्मन्! इन सत्कर्मों के कारण मुझे पुण्यलोक की प्राप्ति हो।'
वामदेव ने कहा ;- 'शुभ दृष्टि वाली अनिन्द्य राजकुमारी! तुमने इस राजकुल को ब्राह्मण के कोप से बचा लिया। इसके लिये कोई अनुपम वर मांगो। मैं तुम्हें अवश्य दूंगा। तुम इन स्वजनों के हृदय और विशाल इक्ष्वाकु राज्य पर शासन करो।'
राजकुमारी बोली ;- 'भगवन! में यही चाहती हूँ कि मेरे ये पति आज सब पापों से छुटकारा पा जाएँ। आप ये आशीर्वाद दें कि ये पुत्र और बन्धु-बान्धवों सहित सुख से रहें। विप्रवर! मैंने आप से यही वर माँगा है।'
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- 'कुरु कुल के प्रमुख वीर युधिष्ठिर! राजपुत्री की यह बात सुनकर वामदेव मुनि ने कहा,
वामदेव बोले ;- ‘ऐसा ही होगा।‘ तब राजा दल बड़े प्रसन्न हुए और महर्षि को प्रणाम करके वे दोनों वाम्य अश्व उन्हें लौटा दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभरत वनपर्व के अंतर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में मण्डूकोपाख्यान विषयक एक सौ बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिनवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"इन्द्र और बक मुनि का संवाद"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! एक दिन ऋषियों, ब्राह्मणों तथा युधिष्ठिर ने पाण्डेय मार्कण्डेय मुनि से पूछा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘ब्रह्मन्! महर्षि बक कैसे दीर्घायु हुए थे?' तब मार्कण्डेय जी ने उन सबसे कहा,
मार्कण्डेय जी बोले ;- ‘राजन्! बक महान् तपस्वी होने के कारण दीर्घायु हुए थे। इस विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये’। भरतनन्दन जनमेजय! मार्कण्डेय जी का कथन सुनकर भाइयों सहित कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय जी से पुन: पूछा,
युधिष्ठिर बोले ;- महाभाग मुनिश्रेष्ठ! दल्भ के पुत्र महातपस्वी बक ऋषि चिरजीवी तथा देवराज इन्द्र के प्रिय मित्र सुने जाते हैं। भगवन्! बक और इन्द्र का यह समागम (चिरजीवी पुरुषों के) सुख और दु:ख की वार्ता से युक्त कहा गया है। मैं इसे सुनना चाहता हूं; आप यथार्थ रूप से इसका वर्णन करें’।
मार्कण्डेय जी बोले ;- राजन्! जब रोंगटे खड़े कर देने वाला देवासुर संग्राम समाप्त हो गया, उस समय लोकपाल इन्द्र तीनों लोकों के अधिपति बना दिये गये। इन्द्र के शासन काल में मेघ ठीक समय पर अच्छी वर्षा करते और खेती की उपज अच्छी होती थी। सारी प्रजा रोग-व्याधि रहित, धर्म में स्थित तथा धर्म को ही अपना परम आश्रय मानने वाली थी। सब लोग बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने-अपने धर्मों में स्थित रहते थे। अपनी उन सारी प्रजा को आनन्दित देखकर बलासुर के शत्रु देवराज इन्द्र बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करते थे। एक दिन की बात है, इन्द्र ऐरावत हाथी पर आरुढ़ हो चैन से दिन बिताती हुई अपनी प्रजा को देखने के लिये भ्रमण करने लगे। राजन्! विचित्र आश्रमों, नाना प्रकार की कल्याणकारिणी नदियों, समृद्धिशाली नगरों, गांवों, जनपदों, प्रजापालन कुशल धर्मात्मा नरेशों, कुओं, पौंसलों, बावलियों, तालाबों तथा ब्रह्मणों द्वारा सेवित अनेकानेक सरोवरों का अवलोकन करते हुए शतक्रतु इन्द्र एक रमणीय भूभाग में उतरे।
राजन्! परम सुन्दर पूर्व दिशा में समुद्र के निकट एक मनोहर एवं सुखद स्थान में, जो बहुत-से वृक्षों से घिरा हुआ था, एक रमणीय आश्रम दिखायी दिया, जहाँ बहुत-से पशु और पक्षी निवास करते थे। देवराज इन्द्र ने उस रमणीय आश्रम में जाकर बक मुनि का दर्शन किया। देवराज इन्द्र को उपस्थित देख बक के हृदय में दृढ़ प्रेम उत्पन्न
हुआ। उन्होंने पाद्य, आसन, अर्ध्य और फल मूलादि देकर देवराज का पूजन किया। सबको वर देने वाले बलनिषूदन देवेश्वर इन्द्र जब सुखपूर्वक आसन पर बैठ गये, तब वे मुनिवर बक से इस प्रकार बोले,
देवराज इंद्र बोले ;- ‘निष्पाप मुने! आपकी अवस्था एक लाख वर्ष की हो गयी। ब्रह्मन्! आप अपने अनुभव के आधार पर यह बताइये कि चिरजीवी मनुष्यों को क्या दु:ख होता है?'
बक ने कहा ;- देवेश्वर! अप्रिय मनुष्यों के साथ रहना पड़ता है। प्रियजनों की मृत्यु हो जाने पर उनके वियोग का दु:ख सहते हुए जीवन व्यतीत करना पड़ता है और दुष्ट मनुष्यों का संग प्राप्त होता है। चिरजीवी मनुष्यों के लिये यही महान् दु:ख है। अपनी आंखों के सामने स्त्री और पुत्रों की मृत्यु होती है। भाई-बन्धु आदि जाति के लोगों और सुहृदों का सदा के लिये वियोग हो जाता है तथा जीवन निर्वाह के लिये दूसरों के अधीन रहकर उनके तिरस्कार का कष्ट भोगना पड़ता है। इससे बढ़कर महान् दु:ख और क्या हो सकता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिनवत्यधिकशततमो अध्यय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)
निर्धन मनुष्यों को जो दूसरों से तिरस्कृत होना पड़ता है, इससे बढ़कर महान कष्ट की बात संसार में मुझे और कोई नहीं जान पड़ती है। चिरजीवी मनुष्य अकुलीनों के कुल की उन्नति, कुलीनों के कुल का संहार तथा संयोग और वियोग देखते रहते हैं। देव शतक्रतो! आप भी तो यह प्रत्यक्ष ही देख रहे हैं कि किस प्रकार समृद्धिशाली अकुलीन मनुष्यों के कुल में उलटफेर हो जाता है। देवता, दानव, गन्धर्व, मनुष्य, नाग तथा राक्षस-ये सभी विपरीत अवस्था में पहुँचकर क्या से क्या हो जाते हैं। इससे बढ़कर महान् दु:ख और क्या होगा। कुलीन मनुष्य भी नीच कुल के लोगों के वश में पड़कर क्लेश उठा रहे हैं और धनी लोग दरिद्रों को सताते हैं। इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या हो सकती है। लोक में यह विपरीत अवस्था बहुत अधिक दिखायी देती है। ज्ञानहीन मूढ़ मनुष्य तो मौज करते हैं और श्रेष्ठ ज्ञानी मनुष्य क्लेश भोग रहे हैं। यहाँ मानव योनि में दु:ख और क्लेश की अधिकता ही दृष्टिगोचर होती है।
इन्द्र ने पूछा ;- महाभाग! देवता तथा ऋषियों के समुदाय आपकी सेवा में उपस्थित रहते हैं। ब्रह्मन! अब मुझसे फिर यह बताइये कि चिरजीवी मनुष्यों को क्या सुख मिलता है?
बक ने कहा ;- जो दिन के आठवें या बारहवें भाग में अपने घर पर भोजन के लिये केवल शाक पका लेता है, परंतु कुमित्रों की शरण में नहीं जाता, उस पुरुष को जो सुख प्राप्त है, उससे बढ़कर सुख और क्या हो सकता है। जहाँ दिन नहीं गिने जाते-जहाँ प्रतिदिन अन्न की प्राप्ति कि लिये चिन्ता नहीं करनी पड़ती है; वही सुखी है। उसे लोग अधिक खाने वाला अथवा पेटू नहीं कहते हैं। इन्द्र! जो अपने पराक्रम से उपार्जन करके घर में केवल शाक बनाकर खाता है, पंरतु दूसरे किसी का सहारा नहीं लेता, उसे ही सुख है। दूसरे के सामने दीनता न दिखाकर अपने घर में फल और शाक खाकर रहना अच्छा है। परंतु दूसरे के घर में सदा तिरस्कार सहकर मीठे पकवान खाना भी अच्छा नहीं है; अत: दूसरे के आश्रित रहकर जीवन-निर्वाह करने के सम्बन्ध में साधु पुरुषों का सदा से ही विरोध रहा है। जो पराया अन्न खाना चाहता है, वह कुत्ते की भाँति खून चाटता है। उस दुरात्मा और कृपण के वैसे भोजन को धिक्कार है।
जो श्रेष्ठ द्विज सदा अतिथियों, भूत-प्राणियों तथा पितरों को अर्पण करके अर्थात् बलि-वैश्वदेव करके शेष अन्न स्वयं भोजन करता है, उससे बढ़कर महान् सुख और क्या हो सकता है। देवेन्द्र! इस यज्ञशेष अन्न से बढ़कर अत्यन्त मधुर और पवित्र दूसरा कोई भोजन नहीं है। जो प्रतिदिन अतिथियों को देकर शेष अन्न से ही भोजन का काम चलाता है, उसके अन्न के जितने ग्रास अतिथि ब्राह्मण नित्य भोजन करता है, उतने ही हजार गौओं के दान का पुण्य उस दाता को प्राप्त होता है तथा उसके द्वारा युवावस्था में जो पाप हुए होते हैं, वे सब निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। ब्राह्मण के भोजन कर लेने पर जो उसे दक्षिणा दी जाती है, उस समय उसके हाथ में जो प्रतिग्रह का जल रहता है, उसे दाता पुन: उत्सर्ग के जल से सींचे। ऐसा करने से वह तत्काल सब पापों से छूट जाता है। इस प्रकार देवराज इन्द्र बक के साथ ये तथा और बहुत-सी उत्तम कथा-वार्ताएं करके उनसे आज्ञा लेकर स्वर्ग लोक को चले गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में ब्राह्मणों के माहात्म्य के सम्बंध में बक-इंद्र संवाद विषयक एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ चौरानवेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्नवत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)
"क्षत्रिय राजाओं का महत्त्व-सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर पाण्डवों ने पुन: मार्कण्डेय जी से प्रश्न किया,
पाण्डव बोले ;- ‘मुनिवर! आपने ब्रह्मणों के माहात्म्य का तो वर्णन किया, अब हम क्षत्रियों की महत्ता के विषय में इस समय कुछ सुनना चाहते हैं।' यह बात सुनकर महर्षि मार्कण्डेय ने कहा,
मार्कण्डेय जी बोले ;- 'अच्छा सुनो। अब मैं क्षत्रियों के माहात्म्य का वर्णन करता हूँ। कुरुवंशी क्षत्रियों में सुहोत्र नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। एक दिन वे महर्षियों का सत्संग करके जब वहाँ से लौट रहे थे, उस समय उन्होंने अपने सामने ही रथ पर बैठे हुए उशीनर पुत्र राजा शिबि को देखा। निकट आने पर उन दोनों ने अवस्था के अनुसार एक-दूसरे का सम्मान किया। पंरतु गुण में अपने बराबर
समझकर एक ने दूसरे के लिये राह नहीं दी। इतने में वहाँ देवर्षि नारद जी प्रकट हो गये और पूछ बैठे,
नारद जी बोले ;- ‘यह क्या बात है, जो कि तुम दोनों इस तरह एक-दूसरे का मार्ग रोककर खड़े हो।'
तब उन दोनों ने नारद जी से कहा ;- ‘भगवन्! ऐसी बात नहीं है। पहले के कर्म-कर्ताओं (धर्म-व्यवस्थापकों) ने यह उपदेश दिया है कि जो अपने से सभी बातों में बढ़ा-चढ़ा हो या अधिक शक्तिशाली हो, उसी को मार्ग देना चाहिये। हम दोनों एक-दूसरे से मित्रभाव रखकर मिले हैं। विचार करने पर हम यह निर्णय नहीं कर पाते कि हम दोनों में से कौन अत्यन्त श्रेष्ठ है और कौन उसकी उपेक्षा अधिक छोटा है।' उनके ऐसा कहने पर नारद जी ने तीन श्लोक पढ़े। उनका सारांश इस प्रकार है,,
नारद जी बोले ;- कौरव! अपने साथ कोमलता का बर्ताव करने वाले के लिये क्रूर मनुष्य भी कोमल बन जाता है। क्रूरतापूर्ण बर्ताव तो वह क्रूर मनुष्यों के प्रति ही करता है। पंरतु साधु पुरुष दुष्टों के प्रति भी साधुता का ही बर्ताव करता है। फिर वह साधु पुरुषों के साथ साधुता का बर्ताव कैसे नहीं अपनायेगा। मनुष्य भी चाहे तो वह अपने ऊपर किये हुए उपकार का बदला सौ गुना करके चुका सकता है।
देवताओं में ही यह प्रत्युपकार का भाव होता है, ऐसा नियम नहीं है। सुहोत्र! उशीनरपुत्र राजा शिबि का शील-स्वभाव तुम से कहीं अच्छा है। नीच प्रकृति वाले मनुष्यों को दान देकर वश में करे। असत्यवादी को सत्य भाषण से जीते। क्रूर को क्षमा से और दुष्ट को उत्तम व्यवहार से अपने वश में करे। अत: तुम दोनों ही उदार हो; इस समय तुम दोनों में से एक, जो अधिक उदार हो, वह मार्ग छोड़कर हट जाये; यही उदारता का आदर्श है।’ ऐसा कहकर नारद जी चुप हो गये।
यह सुनकर कुरुवंशी राजा सुहोत्र ने शिबि को अपनी दायीं ओर करके मार्ग दे दिया और उनके अनेक सत्कर्मों का उल्लेख करके उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए वे अपनी राजधानी को चले गये। इस प्रकार साक्षात् नारद जी ने राजा शिबि की महत्ता का अपने मुख से वर्णन किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तगर्त मार्कण्डेयसमास्यापर्व में शिबिचरित विषयक एक सौ चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ पंचानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पच्च्वत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद)
"राजा ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! अब एक दूसरे क्षत्रिय नरेश का महत्त्व सुनो। नहुष के पुत्र राजा ययाति जब पुरवासी मनुष्यों से घिरे हुए राजसिंहासन पर विराजमान थे, उन्हीं दिनों की बात है, एक ब्राह्मण गुरु-दक्षिणा देने के लिये भिक्षा मांगने की इच्छा से उनके पास आकर बोला,
ब्राह्मण बोले ;- ‘राजन! मैं गुरु-दक्षिणा देने के लिये भिक्षा चाहता हूं, किंतु उसके साथ एक शर्त है’।
राजा ने कहा ;- 'भगवन्! आप अपनी शर्त बताइये।'
ब्राह्मण बोला ;- 'भूपाल! इस संसार में प्राय: देखा जाता है कि जब किसी मनुष्य से कोई वस्तु मांगी जाती है, तब वह उस मांगने वाले से अत्यन्त द्वेष करने लगता है। अत: राजन्! मैं आप से पूछता हूँ कि आज आप मुझे मेरी प्रिय वस्तु कैसे दे सकते हैं?'
राजा ने कहा ;- 'दान लेने के अधिकारी ब्राह्मण देव! मैं कोई वस्तु देकर उसकी बार-बार चर्चा नहीं करता और यह प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि मेरे पास कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो आपके मांगने योग्य न हो। जो वस्तु प्राप्त हो सकती है, उसे देने की प्रतिज्ञा कर लेने पर मैं उसे देकर ही अधिक सुखी होता हूँ।
मैं आपको लाल रंग की एक हजार गौएं देता हूं; क्योंकि न्यायुक्त याचना करने वाला ब्राह्मण मुझे बहुत प्रिय है। मेरे मन में याचक पर कभी क्रोध नहीं आता है और न मैं कभी दिये हुए धन के लिये पश्चात्ताप ही करता हूँ।' ऐसा कहकर राजा ने ब्राह्मण को एक हजार गौएं दे दीं और ब्राह्मण ने उन सहस्रों गौओं को ग्रहण कर लिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तगर्त मार्कण्डेयसमास्यापर्व में ययातिचरित विषयक एक सौ पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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