सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ छियासीवें अध्याय से एक सौ नब्बेवें अध्याय तक (From the 186 to the 190 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

एक सौ छियासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"तार्क्ष्‍य मुनि और सरस्वती का संवाद"

    मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले पाण्डुनन्दन! इसी विषय में परम बुद्धिमान् तार्क्ष्‍य मुनि ने सरस्वती देवी से कुछ प्रश्न किया था, उसके उत्तर में सरस्वती देवी ने जो कुछ कहा था, वह तुम्हें सुनाता हूं, सुनो।

    तार्क्ष्‍य ने पूछा ;- भद्रे! इस संसार में मनुष्य का कल्याण करने वाली वस्तु क्या है? किस प्रकार आचरण करने वाला पुरुष अपने धर्म से भ्रष्ट नहीं होता है? सर्वांग-सुन्दरी देवि! तुम मुझसे इसका वर्णन करो। मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूंगा। मुझे विश्वास है कि तुमसे उपदेश ग्रहण करके मैं अपने धर्म से गिर नहीं सकता। मैं कैसे और किस समय अग्नि में हवन अथवा उसका पूजन करूं? क्या करने से धर्म का नाश नहीं होता है? सुभगे! तुम सारी बातें मुझसे बताओ। जिससे मैं रजोगुणरहित होकर सम्पूर्ण लोकों में विचरण करूं।

      मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! उनके इस प्रकार प्रेमपूर्वक पूछने पर सरस्वती देवी ने ब्रह्मर्षि तार्क्ष्‍य को धर्मात्मा, उत्तम बुद्धि से युक्त एवं श्रवण के लिये उत्सुक देखकर उनसे यह हितकर वचन कहा। 

   सरस्वती बोली ;- मुने! जो प्रमाद छोड़कर पवित्र भाव से नित्य स्वाध्याय करता है और अर्चि आदि मार्गों से प्राप्त होने योग्य सगुण ब्रह्मा को जान लेता है, वह देवलोक से उठकर ब्रह्मलोक में जाता है और देवताओं के साथ प्रेमसम्बन्ध स्थापित कर लेता है। वहाँ सुन्दर, विशाल, शोकरहित, अत्यन्त पवित्र तथा सुन्दर पुष्पों से सुशोभित छोटे-छोटे सरोवर हैं। उनमें कीचड़ का नाम नहीं है। उनमें मछलियां निवास करती हैं। उन सरोवरों में उतरने के लिये मनोहर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं और वे सभी सरोवर सुवर्णमय कमल-पुष्पों से आच्छादित रहते हैं। उनके तटों पर पूजनीय पुण्यात्मा पुरुष पृथक्-पृथक् अप्सराओं के साथ सानन्द प्रतिष्ठित होते हैं। वे अप्सराएं अत्यन्त पवित्र सुगन्ध से सुवासित, विविध आभूषणों से विभूषित तथा स्वर्ण की-सी कान्ति से प्रकाशित होती हैं। गोदान करने वाले मनुष्य उत्तम लोक में जाते हैं। छकड़े ढोने वाले बलवान् बैलों का दान करने से दाताओं को सूर्यलोक की प्राप्ति होती है।

    वस्त्रदान से चन्द्रलोक और सुवर्णदान से अमरत्व की प्राप्ति होती है। जो अच्छे रंग की हो, सुगमता से दूध दुहा लेती हो, सुन्दर बछड़े देने वाली हो और बन्धन तुड़वाकर भागने वाली न हो, ऐसी गौ का जो लोग दान करते हैं, वे गौ के शरीर में जितने रोएं हों, उतने वर्ष तक देवलोक में निवास करते हैं। जो मनुष्य अच्छे स्वभाव वाले, अत्यन्त शक्तिशाली, हल खींचने वाले, गाड़ी का बोझ ढोने में समर्थ, बलवान् और तरुण अवस्था वाले बैल का दान करता है, वह धेनूदान करने वाले पुरुष से दस गुने पुण्यलोक प्राप्त करता है। जो कांसे की दोहनी, वस्त्र, उत्तरकालिक दक्षिणाद्रव्य के साथ कपिला गौ का दान करता है, उसकी दी हुई वह गौ उन-उन गुणों के साथ कामधेनू बनकर परलोक में दाता के पास पहुँच जाती है। उस धेनु के शरीर में जितने रोएं होते हैं, उतने वर्षों तक दाता गोदान के पुण्यफल का उपभोग करता है। साथ ही वह गौ परलोक में दाता के पुत्रों, पौत्रों एवं सात पीढ़ी तक के समूचे कुल का उद्धार करती है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद)

     जो सोने के बने हुए सुन्दर सींग, कांस के दुग्धपात्र, द्रव्य तथा ओढ़ने के वस्त्र और दक्षिणा सहित तिल की धेनु का ब्राह्मण को दान करता है, उसके लिये वसुओं के लोक सुलभ हो जाते हैं। जैसे महासागर में डूबते हुए मनुष्य को अनुकूल वायु के सहयोग से चलने वाली नाव बचा लेती है, उसी प्रकार जो अपने कर्मों द्वारा काम, क्रोध आदि दानवों से घिरे हुए घोर अज्ञानान्धकार से परिपूर्ण नरक में गिर रहा है, उसे गोदानजनित पुण्य परलोक में उबार लेता है। जो ब्राह्म विवाह की विधि से दान करने योग्य कन्या का (श्रेष्ठ वर को) दान करता है, ब्राह्मण को भूदान देता है और विधिपूर्वक अन्यान्य वस्तुओं का दान सम्पन्न करता है, वह इन्द्रलोक में जाता है। तार्क्ष्‍य! जो सदाचारी पुरुष संयम-नियम का पालन करते हुए सात वर्षों तक अग्नि में आहुति देता है, वह अपने सत्कर्मों द्वारा अपने साथ ही सात पीढ़ी तक की भावी संतानों को और सात पीढ़ी पूर्व तक के पितामहों को भी पवित्र कर देता है।

   तार्क्ष्‍य ने पूछा ;- मनोहर रूपवाली देवि! मैं पूछता हूँ कि अग्निहोत्र का प्राचीन नियम क्या है? यह बताओ। तुम्हारे उपदेश करने पर आज मुझे यहाँ अग्निहोत्र के प्राचीन नियम का ज्ञान हो जाये।

    सरस्वती ने कहा ;- मुने! जो अपवित्र है, जिसने हाथ-पैर (भी) नहीं धोये हैं, जो वेद के ज्ञान से वंचित है, जिसे वेदार्थ का कोई अनुभव नहीं है, ऐसे पुरुष को अग्नि में आहुति नहीं देनी चाहिये। देवता दूसरों के मनोभाव को जानने की इच्छा रखते हैं, वे पवित्रता चाहते हैं, अतः श्रद्धाहीन मनुष्य के दिये हुए हविष्य को ग्रहण नहीं


करते हैं। वेद-मंत्रों का ज्ञान न रखने वाले पुरुष को देवताओं के लिये हविष्य प्रदान करने के कार्य में नियुक्त न करें; क्योंकि वैसा मनुष्य जो हवन करता है, वह व्यर्थ हो जाता है। तार्क्ष्‍य! अश्रोत्रिय पुरुष को वेद में अपूर्व (कुलशील से अपरिचित) कहा गया है। अतः वैसा पुरुष अग्निहोत्र का अधिकारी नहीं है। जो तप से कृश हो सत्य व्रत का पालन करते हुए प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक हवन करते हैं और हवन से बचे हुए अन्न का भोजन करते हैं, वे पवित्र सुगन्ध से भरे हुए गौओं के लोक में जाते हैं और वहाँ परम सत्य परमात्मा का दर्शन करते हैं।

    तार्क्ष्‍य ने पूछा ;- सुन्दर रूप वाली सौभाग्यशालिनी देवि! तुम आत्मस्वरूपा हो तथा परलोक के विषय में एवं कर्म-फल के विचार में प्रविष्ट हुई अत्यन्त उत्कृष्ट बुद्धि हो। प्रज्ञा देवी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं को इन दोनों रूपों में जानकर मैं पूछता हूं, बताओ, वास्तव में तुम क्या हो?

    सरस्वती बोली ;- मुने! मैं विद्यारूपा सरस्वती हूँ और श्रेष्ठ ब्राह्मणों के अग्निहोत्र से यहाँ तुम्हारे संशय का निवारण करने के लिये आयी हूँ। (तुम श्रद्धालु हो) तुम्हारा सांनिध्य पाकर ही मैंने यहाँ से पूर्वोक्त सत्य बातें यथार्थ रूप से बतायी हैं; क्योंकि आन्तरिक श्रद्धाभाव में ही मेरी स्थिति है।

   तार्क्ष्‍य ने पूछा ;- सुभगे! तुम्हारी-जैसी दूसरी कोई नारी नहीं है। तुम साक्षात् लक्ष्मी जी की भाँति अत्यन्त प्रकाशमान दिखायी देती हो। तुम्हारा यह परम कान्तिमान् स्वरूप अत्यन्त दिव्य है। साथ ही तुम दिव्य प्रज्ञा भी धारण करती हो (इसका क्या कारण है?)

    सरस्वती बोली ;- नरश्रेष्ठ! विद्वन्! याज्ञिक लोग यज्ञों में जो श्रेष्ठ कार्य करते हैं अथवा श्रेष्ठ वस्तुओं का संकलन करते हैं, उन्हीं से मेरी पुष्टि तथा तृप्ति होती है और विप्रवर! उन्हीं से मैं रूपवती होती हूँ। विद्वन्! उन यज्ञों में जो समिधा-स्रुवा आदि वृक्ष से उत्पन्न होने वाली वस्तुएं, सुवर्ण आदि तैजस वस्तुएं तथा व्रीहि आदि पार्थिव वस्तुएं उपयोग में लायी जाती हैं, उन्हीं के द्वारा दिव्य रूप तथा प्रज्ञा से सम्पन्न मेरे स्वरूप की पुष्टि होती है, यह बात तुम अच्छी तरह समझ लो।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 26-30 का हिन्दी अनुवाद)

   तार्क्ष्‍य ने पूछा ;- देवि! जिसे परम कल्याणस्वरूप मानते हुए मुनिजन अत्यन्त विश्वासपूर्वक इन्द्रियों आदि का निग्रह करते हैं तथा जिस परम मोक्ष-स्वरूप में और धीर पुरुष प्रवेश करते हैं, उस शोकरहित परम मोक्ष पद का वर्णन करो; क्योंकि जिस परम मोक्ष पद को सांख्ययोगी और कर्मयोगी जानते हैं, उस सनातन मोक्ष-तत्त्व को मैं नहीं जानता।

    सरस्वती बोली ;- स्वाध्यायरूप योग में लगे हुए तथा तप को ही धन मानने वाले योगी व्रत-पुण्य और योग के साधनों से जिसे प्रख्यात, परात्पर एवं पुरातन पद को प्राप्त कर शोकरहित तथा मुक्त हो जाते हैं, वही सनातन ब्रह्मपद है। वेदवेत्ता उसी परमपद का आश्रय लेते हैं। उस परब्रह्म में ब्रह्माण्डरूपी एक विशाल बेंत का वृक्ष है, जो भोग-स्थानरूपी अनन्त शाखाओं से युक्त तथा शब्दादि विषयरूपी पवित्र सुगन्ध से सम्पन्न है। (उस ब्रह्माण्डरूपी वृक्ष का मूल अविद्या है।) उस अविद्यारूपी मूल से भोगवासनामयी निरन्तर बहने वाली अनन्त नदियां उत्पन्न होती हैं।

    वे नदियां ऊपर से तो रमणीय और पवित्र सुवास से युक्त प्रतीत होती हैं तथा मधु के समान मधुर एवं जल के समान तृप्तिकारक विषयों को बहाया करती हैं। परंतु वास्तव में वे सब भूने हुए जौ के समान फल देने में असमर्थ, पूओं के समान अनेक छिद्रों वाली, हिंसा से मिल सकने वाली अर्थात् मांस के समान अपवित्र, सूखे शाक के समान सारशून्य और खीर के समान रुचिकर लगने वाली होने पर बालू के कीचड़ के समान चित्त में मलिनता उत्पन्न करने वाली हैं।

    बालू के कणों के समान परस्पर विलग एवं ब्रह्माण्डरूपी बेंत के वृक्ष की शाखाओं में बहने वाली हैं। मुने! इन्द्र, अग्नि और पवन आदि मरुद्गणों के साथ देवता लोग जिस ब्रह्म को प्राप्त करने के लिये श्रेष्ठ यज्ञों द्वारा पूजन करते हैं, वह मेरा परमपद है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में सरस्वती-तार्क्ष्‍य संवाद विषयक एक सौ छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

एक सौ सत्तासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

"वैवस्वत मनु का चरित्र तथा मत्स्यावतार की कथा"

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इसके बाद पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय जी से कहा,,

   युधिष्ठिर बोले ;- 'अब आप हमसे वैवस्वत मनु के चरित्र कहिये'।

    मार्कण्डेय जी बोले ;- नरश्रेष्ठ नरेश! विवस्वान् (सूर्य) के एक अत्यन्त प्रतापी पुत्र हुआ, जो प्रजापति के समान कान्तिमान् और महान् ऋषि था। वह बालक मनु ओज, तेज, कांति और विशेषतः तपस्या द्वारा अपने पिता भगवान् सूर्य तथा पितामह महर्षि कश्यप से भी आगे बढ़ गया। महाराज! उसने बदरिकाश्रम में जाकर दोनों बांहें ऊपर उठाये एक पैर से खड़ा हो दस हजार वर्षों तक बड़ी भारी तपस्या की। उस समय उसका सिर नीचे की ओर झुका हुआ था और वह एकटक नेत्रों से निरन्तर देखता रहता था। इस प्रकार बड़ी दृढ़ता के साथ बालक ने घोर तप किया। (वही बालक वैवस्वत मनु के नाम से प्रसिद्ध हुआ।)

    एक दिन की बात है, मनु भीगे चीर और जटा धारण किये चीरिणी नदीके तट पर तपस्या कर रहे थे। उस समय एक मत्स्य आकर इस प्रकार बोला,

    मत्स्य बोला ;- 'भगवन्! मैं एक छोटा-सा मत्स्य हूँ। मुझे (अपनी जाति के) बलवान् मत्स्यों से बराबर भय बना रहता है। अतः उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! आप उससे मेरी रक्षा करें। बलवान्


मत्स्य विशेषतः दुर्बल मत्स्य को अपना आहार बना लेते हैं, यह सदा से हमारी मत्स्य जाति की नियत वृत्ति है। इसलिये भय के महान् समुद्र में मैं डूब रहा हूँ। आप विशेष प्रयत्न करके मुझे बचाने का कष्ट करें। आपके इस उपकार के बदले मैं भी प्रत्युपकार करूंगा।' मत्स्य की यह बात सुनकर वैवस्वत मनु को बड़ी दया आयी। उन्होंने स्वयं अपने हाथ से चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत रंग वाले उस मत्स्य को उठा लिया और पानी के बाहर लाकर मटके में डाल दिया। राजन्! वहाँ उन्होंने बड़े आद रके साथ उसका पालन-पोषण किया और वह दिन-दिन बढ़ने लगा। मनु ने उसके प्रति पुत्र के समान विशेष वात्सल्य भाव प्रकट किया। तदनन्तर दीर्घकाल बीतने पर वह मस्त्य इतना बड़ा हो गया कि मटके में उसका रहना असम्भव हो गया। तब एक दिन मत्स्य ने मनु को देखकर फिर कहा,

     मत्स्य फिर बोला ;- 'भगवन्! अब आप मेरे लिये इससे अच्छा कोई दूसरा स्थान दीजिये'। तब वे भगवान् मनु उस मत्स्य को उस मटके से निकालकर एक बहुत बड़ी बावली के पास ले गये। शत्रुविजयी युधिष्ठिर! मनु ने उसे वहीं डाल दिया। अब वह मत्स्य अनेक वर्षों तक उसी में क्रमशः बढ़ता रहा।

     कमलनयन! उस बावली की लम्बाई दो योजन और चौड़ाई एक योजन की थी; परंतु उसमें भी उस मत्स्य का रहना कठिन हो गया। नराधिप कुन्तीनन्दन! वह उस बावली में हिलडुल भी नहीं पाता था। अतः मनु को देखकर वह पुनः बोला,,

   मत्स्य फिर बोला ;- 'भगवन्! साधुबाबा! अब आप मुझे समुद्र की प्यारी पटरानी गंगाजी में ले चलिये। मैं वही निवास करूंगा अथवा तात! आप जहाँ उचित समझें, ले चलें। अनघ! मुझे दोषदृष्टि का परित्याग करके सदा आपके आज्ञापालन में स्थिर रहना है; क्योंकि आपके कारण ही मैं भलीभाँति पुष्ट होकर इतना बड़ा हुआ हूं'। मत्स्य के ऐसा कहने पर जितेन्द्रिय, अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले भगवान् मनु ने उसे स्वयं ले जाकर गंगा में डाल दिया। शत्रुदमन! फिर वह मत्स्य वहाँ कुछ काल तक बढ़ता रहा। फिर एक दिन मनु को देखकर उसने कहा,,

    मत्स्य बोला ;- 'प्रभो! मेरा शरीर अब इतना बड़ा हो गया है कि मैं गंगाजी में हिलडुल नहीं सकता। अतः मुझे शीघ्र ही समुद्र में ले चलिये। भगवन्! आप प्रसन्न होकर मुझ पर इतनी कृपा अवश्य कीजिये।' कुन्तीनन्दन! तब मनु ने स्वयं उस मत्स्य को गंगाजी के जल से निकालकर समुद्र तक पहुँचाया और उसमें छोड़ दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 25-50 का हिन्दी अनुवाद)

    राजन्! यद्यपि वह मत्स्य बहुत विशाल था, तो भी जब मनु उसे ले जाने लगे, तब वह ऐसा बन गया, जिससे आसानी से ले जाया जा सके। उसका स्पर्श और गन्ध दोनों मनु के लिये बड़े सुखकर थे। जब मनु ने उस मत्स्य को समुद्र में डाल दिया, तब उसने उनसे मुसकराते हुए से कहा,,

    मत्स्य बोला ;- 'भगवन्! आपने विशेष मनोयोग के साथ सब प्रकार से मेरी रक्षा की है, अब आपके लिये जिस कार्य का अवसर प्राप्त हुआ है, वह बताता हूं, सुनिये। भगवन्! यह सारा-का-सारा चराचर पार्थिव जगत् शीघ्र ही नष्ट होने वाला है। महाभाग! सम्पूर्ण जगत् का प्रलय हो जायेगा। यह सब लोकों के सम्प्रक्षालन (एकार्णव के जल से घुलकर नष्ट होने) का समय आ गया है। इसलिये मैं आपको सचेत करता हूँ और आपके लिये जो परम उत्तम हित की बात है, उसे बताता हूँ।

    सम्पूर्ण जंगमों तथा स्थावर पदार्थों में जो हिलडुल सकते हैं और जो हिलने-डुलने वाले नहीं हैं, उन सबके लिये अत्यन्त भयंकर समय आ पहुँचा है। आपको एक मजबूत नाव बनवानी चाहिये, जिसमें (मजबूत) रस्सी जुटी हो। महामुने! फिर आप सप्तर्षि के साथ उस नाव पर बैठ जाइये। पूर्वकाल में ब्राह्मणों ने जो सब प्रकार के बीज बताये हैं, उनका पृथक्-पृथक् संग्रह करके उन्हें सुरक्षित रूप से उस नाव पर रख लें। मुनिजनों के प्रेमी तपस्वी नरेश! उस नाव में बैठे रहकर आप मेरी प्रतीक्षा कीजियेगा। मैं आपके पास अपने मस्तक में सींग धारण किये आऊँगा। उसी से आप मुझे पहचान लेंगे। इस प्रकार यह सब कार्य आपको करना है। अब मैं आपसे आज्ञा चाहता हूँ और यहां से जाता हूँ। उस महान् जलराशि को आप लोग मेरी सहायता के बिना पार नहीं कर सकेंगे। प्रभो! आप मेरी इस बात में तनिक भी संदेह न करें।' 

    तब राजा ने उस मत्स्य से कहा ;- 'बहुत अच्छा! मैं ऐसा ही करूंगा।'

    शत्रुदमन! वे दोनों एक-दूसरे से विदा लेकर इच्छानुसार वहां से चले गये। महाराज! तदनन्तर मनु मत्स्य भगवान् के कथनानुसार सम्पूर्ण बीज लेकर एक सुन्दर नौका द्वारा उत्ताल तरंगों से भरे हुए महासागर में तैरने लगे। शत्रुदमन विजयी नरेश्वर! तदनन्तर मनु ने भगवान् मत्स्य का चिन्तन किया। यह जानकर श्रृंगधारी भगवान् मत्स्य वहाँ शीघ्र आ पहुँचे। नरश्रेष्ठ भरतकुलशिरोमणि! समुद्र में अपने पूर्वकथित रूप से


ऊँचे पर्वत की भाँति श्रृंगधारी मत्स्य भगवान् को आया देख उनके मस्तकवर्ती सींग में उन्होंने बंटी हुई रस्सी बांध दी। शत्रु की राजधानी पर विजय पाने वाले पुरुषसिंह! मनु ने वह नाव उस सींग में अटका दी। रस्सी में बंधे हुए मत्स्य भगवान् उन सबको नौका द्वारा पार उतारने के लिये उस खारे पानी के समुद्र में बड़े वेग से नाव खींचने लगे। मनुजेश्वर! उस समय समुद्र अपनी लहरों से नृत्य करता-सा जान पड़ता था।

    शत्रुविजयी नरेश्वर! उस महासागर में प्रचण्ड वायु के झोंकों से विक्षुब्ध होकर हिलती-डुलती हुई वह नौका चंचल चित्त वाली मतवाली स्त्री के समान झूम रही थी। उस समय न तो भूमि का पता लगता था और न दिशाओं तथा विदिशाओं का ही भान होता था। भरतकुलभूषण नरेश्वर! आकाश और द्युलोक सब कुछ जलमय ही प्रतीत होता था। इस प्रकार जब सारा विश्व एकार्णव के जल में डूबा हुआ था, उस समय केवल सप्तर्षि, मनु और मत्स्य भगवान्-ये ही नौ व्यक्ति दृष्टिगोचर होते थे। राजन्! इस तरह बहुत वर्षों तक भगवान् मत्स्य आलस्यरहित होकर उस अगाध जलराशि में उस नौका को खेंचते रहे। भरतकुलतिलक! तदनन्तर हिमालय का जो सर्वोच्च शिखर था, वहाँ मत्स्य भगवान् उस नाव को खींचकर ले गये। कुरुनन्दन! तब वे धीरे-धीरे हंसते हुए उन समस्त ऋषियों से बोले- 'आप लोग हिमालय के इस शिखर में इस नाव को शीघ्र बांध दें।' भरतश्रेष्ठ! मत्स्य का वह वचन सुनकर उन महर्षियों ने तुरंत वहाँ हिमालय के शिखर में वह नौका बांध दी। तभी से हिमालय का वह उत्तम शिखर 'नौकाबन्धन' के नाम से विख्यात हुआ।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 51-58 का हिन्दी अनुवाद)

    भरतश्रेष्ठ कुन्तीनन्दन! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि वह शिखर आज भी उसी नाम से प्रसिद्ध है।

तदनन्तर एकटक दृष्टि वाले भगवान् मत्स्य एक साथ उन सब ऋषियों से बोले,

   मत्स्य बोले ;- 'मैं प्रजापति ब्रह्मा हूँ। मुझसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु नहीं उपलब्ध होती। मैंने ही मत्स्य रूप धारण करके इस महान् भय से तुम लोगों की रक्षा की है। अब मनु को चाहिये कि ये देवता, असुर और मनुष्य आदि समस्त प्रजा की, सब लोकों की और सम्पूर्ण चराचर की सृष्टि करें। इन्हें तीव्र तपस्या के द्वारा जगत की सृष्टि करने की प्रतिभा प्राप्त हो जायेगी। मेरी कृपा से प्रजा की सृष्टि करते समय इन्हें मोह नहीं होगा।'

    ऐसा कहकर भगवान् मत्स्य क्षणभर में अदृश्य हो गये। तदनन्तर स्वयं वैवस्वत मनु को प्रजाओं की सृष्टि करने की इच्छा हुई, किंतु प्रजा की सृष्टि करने में उनकी बुद्धि मोहाच्छन्न हो गयी थी। तब उन्होंने बड़ी भारी तपस्या की और महान् तपोबल से सम्पन्न होकर उन्होंने सृष्टि का कार्य आरम्भ किया। भरतकुलभूषण! फिर वे पूर्वकल्प के अनुसार सारी प्रजा की यथावत् सृष्टि करने लगे।

    इस प्रकार यह संक्षेप से मत्स्यपुराण का वृत्तान्त बताया गया है। मेरे द्वारा वर्णित यह उपाख्यान सब पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रारम्भ से ही मनु के इस चरित्र को सुनता है, वह सुखी हो सम्पूर्ण मनोरथों को पा लेता ओर सब लोकों में जा सकता है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में मत्स्योपाख्यान विषयक एक सौ सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

एक सौ अट्ठासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

"चारों युगों की वर्ष-संख्या एवं कलियुग के प्रभाव का वर्णन, प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय जी को बालमुकुन्द जी के दर्शन, मार्कण्डेय जी का भगवान् के उदर में प्रवेश कर ब्रह्माण्डदर्शन करना और फिर बाहर निकलकर उनसे वार्तालाप करना"

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर विनयशील धर्मराज युधिष्ठिर ने यशस्वी मार्कण्डेय मुनि से पुनः इस प्रकार प्रश्न किया। महामुने! आपने हजार-हजार युगों के अन्त में होने वाले अनेक महाप्रलय के दृश्य देखे हैं। इस संसार में आपके समान बड़ी आयु वाला दूसरा कोई पुरुष नहीं दिखायी देता। ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षें! परमेष्ठी महात्मा ब्रह्माजी को छोड़कर दूसरा कोई आपके समान दीर्घायु नहीं है। ब्रह्मन्! जब यह संसार देवता, दानव तथा अन्तरिक्ष आदि लोकों से शून्य हो जाता है, उस प्रलयकाल में केवल आप ही ब्रह्माजी के पास रहकर उनकी उपासना करते हैं। ब्रह्मर्षे! फिर प्रलयकाल व्यतीत होने पर जब पितामह ब्रह्मा जागते हैं, तब सम्पूर्ण दिशाओं में वायु को फैलाकर उसके द्वारा समस्त जलराशि को इधर-उधर छितराकर (सूखे स्थानों में) ब्रह्माजी के द्वारा जो जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज नामक चार प्रकार के प्राणी रचे जाते हैं, उन्हें एकमात्र आप ही (सबसे पहले) अच्छी तरह देख पाते हैं।                 द्विजश्रेष्ठ! आपने तत्परतापूर्वक चित्तवृत्तियों का निरोध करके सम्पूर्ण लोकों के पितामह साक्षात् लोकगुरु ब्रह्माजी की आराधना की है। विप्रवर! आपने अनेक बार इस जगत् की प्रारम्भिक सृष्टि को प्रत्यक्ष किया है और घोर तपस्या द्वारा (मरीचि आदि) प्रजापतियों को भी जीत लिया है। आप भगवान् नारायण के समीप रहने वाले भक्तों में सबसे श्रेष्ठ हैं। परलोक में आपकी महिमा का सर्वत्र गान होता है। आपने पहले स्वेच्छा से प्रकट होने वाले सर्वव्यापक ब्रह्मा की उपलब्धि के स्थानभूत हृदयकमल की कर्णिका का (योग की कला से) अलौकिक उद्घाटन कर वैराग्य और अभ्यास से प्राप्त हुई दिव्य दृष्टि द्वारा विश्वरचयिता भगवान् का अनेक बार साक्षात्कार किया है। इसीलिये सबको मारने वाली मृत्यु तथा शरीर को जर्जर बना देने वाली जरा आपका स्पर्श नहीं करती है। ब्रह्मार्षें! इसमें भगवान् परमेष्ठी का कृपाप्रसाद ही कारण है।

      (महाप्रलय के समय) जब सूर्य, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, अन्तरिक्ष और पृथ्वी आदि में से कोई भी शेष नहीं रह जाता, समस्त चराचर जगत् उस एकार्णव के जल में डूबकर अदृश्य हो जाता है, देवता और असुर नष्ट हो जाते हैं तथा बड़े-बड़े नागों का संहार हो जाता है, उस समय कमल और उत्पल में निवास तथा शयन करने वाले सर्वभूतेश्वर अमितात्मा ब्रह्माजी के पास रहकर केवल आप ही उनकी उपासना करते हैं। द्विजोत्तम! यह सारा पुरातन इतिहास आपका प्रत्यक्ष देखा हुआ है। इसलिये मैं आपके मुख से सबके हेतुभूत काल का निरूपण करने वाली कथा सुनना चाहता हूँ। विप्रवर! केवल आपने ही अनेक कल्पों की श्रेष्ठ रचना का बहुत बार अनुभव किया है। सम्पूर्ण लोकों में कभी कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो।'

     मार्कण्डेय जी बोले ;- राजन्! मैं स्वयं प्रकट होने वाले सनातन, अविनाशी, अव्यक्त, सूक्ष्म, निर्गुण एवं गुणस्वरूप पुराणपुरुष को नमस्कार करके तुम्हें वह कथा अभी सुनाता हूँ। पुरुषसिंह! ये जो हम लोगों के पास बैठे हुए पीताम्बरधारी भगवान् जनार्दन हैं, ये ही संसार की सृष्टि और संहार करने वाले हैं। ये ही भगवान् समस्त प्राणियों के अन्तर्यामी आत्मा और उनके रचियता हैं। ये पवित्र, अचिन्त्य एवं महान्-आश्चर्यमय तत्त्व कहे जाते हैं। इनका न आदि हैं, न अन्त! ये सर्वभूतस्वरूप, अव्यय और अक्षय हैं। ये ही सबके कर्ता हैं, इनका कोई कर्ता नहीं है। पुरुषार्थ की प्राप्ति में भी ये ही कारण हैं। ये अन्तर्यामी आत्मा होने से सबको जानते हैं, परंतु इन्हें वेद भी नहीं जानते हैं। नृपशिरोमणे! नरश्रेष्ठ! सम्पूर्ण जगत् का प्रलय होने के पश्चात् इन आदिभूत परमेश्वर से ही यह सम्पूर्ण आश्चर्यमय जगत् पुनः उत्पन्न हो जाता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 22-42 का हिन्दी अनुवाद)

     चार हजार दिव्य वर्षों का एक सत्ययुग बताया गया है, उतने ही सौ वर्ष उसकी संध्या और संध्यांश के होते हैं (इस प्रकार कुल अड़तालीस सौ दिव्य वर्ष सत्ययुग के हैं)। तीन हजार द्रिव्य वर्षों का त्रेतायुग बताया जाता है, उसकी संध्या और संध्यांश के भी उतने ही (तीन-तीन) सौ दिव्य वर्ष होते हैं (इस तरह यह युग छत्तीस सौ दिव्य वर्षों का होता है)। द्वापर का मान दो हजार दिव्य वर्ष है तथा उतने ही सौ दिव्य वर्ष उसकी संध्या और संध्यांश के हैं (अतः सब मिलकर चौबीस सौ दिव्य वर्ष द्वापर के हैं)। तदनन्तर एक हजार दिव्य वर्ष कलियुग का मान कहा गया है, सौ वर्ष उसकी संध्या के और सौ वर्ष संध्यांश के बताये गये हैं (इस प्रकार कलियुग बारह सौ दिव्य वर्षों का होता है)। संध्या और संध्यांश का मान बराबर-बराबर ही समझो। कलियुग के क्षीण हो जाने पर पुनः सत्ययुग का आरम्भ होता है। इस तरह बारह हजार दिव्य वर्षों की एक चतुर्युगी बतायी गयी है।

     नरश्रेष्ठ! एक हजार चतुर्युग बीतने पर ब्रह्माजी का एक दिन होता है। यह सारा जगत् ब्रह्मा के दिनभर ही रहता है (और वह दिन समाप्त होते ही नष्ट हो जाता है।) इसी को विद्वान् पुरुष लोकों का प्रलय मानते हैं। भरतश्रेष्ठ! सहस्र युग की समाप्ति में जब थोड़ा-सा ही समय शेष रह जाता है, उस समय कलियुग के अन्तिम भाग में प्रायः सभी मनुष्य मिथ्यावादी हो जाते हैं। पार्थ! उस समय यज्ञ, दान और व्रत के प्रतिनिधि कर्म चालू हो जाते हैं अर्थात् यज्ञ, दान, तप मुख्य विधि से न होकर गौण विधि से नाममात्र होने लगते हैं। युग की समाप्ति के समय ब्राह्मण शूद्रों के कर्म करते हैं और शूद्र वैश्यों की भाँति धनोपार्जन करने लगते हैं अथवा क्षत्रियों के कर्म से जीविका चलाने लगते हैं।

    (सहस्र चतुर्युग के अन्तिम) कलियुग के अन्तिम भाग में ब्राह्मण यज्ञ, स्वाध्याय, दण्ड और मृगचर्म का त्याग कर देंगे और (भक्ष्याभक्ष्य का विचार छोड़कर) सब कुछ खाने-पीने वाले हो जायेंगे। तात! ब्राह्मण तो जप से दूर भागेंगे और शूद्र वैदिक मंत्रों के जप में संलग्न होंगे। नरेश्वर! इस प्रकार जब लोगों के विचार और व्यवहार विपरीत हो जाते हैं, तब प्रलय का पूर्वरूप आरम्भ हो जाता है। उस समय इस पृथ्वी पर बहुत-से म्लेच्छ राजा राज्य करने लगते हैं। छल से शासन करने वाले, पापी और असत्यवादी आन्ध्र, शक, पुलिन्द, यवन, काम्बोज, बाह्लीक तथा शौर्यसम्पन्न आभीर इस देश के राजा होंगे। नरश्रेष्ठ! उस समय कोई ब्राह्मण अपने धर्म के अनुसार जीविका चलाने वाला न होगा। नरेश्वर! क्षत्रिय और वैश्य भी अपना-अपना धर्म छोड़कर दूसरे वर्णों के कर्म करने लगेंगे। सबकी आयु कम होगी, सबके बल, वीर्य और पराक्रम घट जायेंगे। मनुष्य नाटे कद के होंगे। उनकी शारीरिक शक्ति बहुत कम हो जायेगी और उनकी बातों में सत्य का अंश बहुत कम होगा।

       बहुधा सारे जनपद जनशून्य होंगे। सम्पूर्ण दिशाएं पशुओं और सर्पों से भरी होंगी। युगान्तकाल उपस्थित होने पर अधिकांश मनुष्य (अनुभव न होते हुए भी) वृथा ही ब्रह्मज्ञान की बातें कहेंगे। शूद्र द्विजातियों को भी (ऐ) कहकर पुकारेंगे और ब्राह्मण लोग शूद्रों को आर्य अर्थात् आप कहकर सम्बोधन करेंगे। पुरुषसिंह राजन्! युगान्तकाल में बहुत-से जीव-जन्तु उत्पन्न हो जायेंगे। सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थ नासिका को उतने गन्धयुक्त नहीं प्रतीत होंगे। नरव्याघ्र! इसी प्रकार रसीले पदार्थ भी जैसे चाहिये वैसे स्वादिष्ट नहीं होंगे। राजन्! उस समय की स्त्रियां नाटे कद की और बहुत संतान (बच्चा) पैदा करने वाली होंगी। उनमें शील और सदाचार का अभाव होगा। युगान्तकाल में स्त्रियां मुख से भगसम्बन्धी यानि व्यभिचार की ही बातें करने वाली होंगी। राजन्! युगान्तकाल में हर देश के लोग अन्न बेचने वाले होंगे। ब्राह्मण वेद बेचने वाले तथा (प्रायः) स्त्रियां वेश्यावृत्ति को अपनाने वाली होंगी'।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 43-68 का हिन्दी अनुवाद)

     जनेश्वर! युगान्तकाल में गायों के थनों में बहुत कम दूध होगा। वृक्ष पर फल और फूल बहुत कम होंगे और उन पर (अच्छे पक्षियों की अपेक्षा) कौए ही अधिक बसेरे लेंगे। भूपाल! ब्राह्मण लोग (लोभवश) ब्रह्महत्या-जैसे पापों से लिप्त और मिथ्यावादी नरेशों से ही दान-दक्षिणा लेंगे।। राजन्! वे ब्राह्मण लोभ और मोह में फंसकर झूठे धर्म का ढोंग रचने वाले होंगे, इतना ही नहीं, वे भिक्षा के लिये सारी दिशाओं के लोगों को पीड़ित करते रहेंगे। गृहस्थ लोग कर के भार से डरकर लुटेरे बन जायेंगे। ब्राह्मण मुनियों-जैसी कपटपूर्ण आकृति धारण किये वैश्यवृत्ति से जीविका चलायेंगे और झूठे दिखावे के लिये नख तथा दाढ़ी-मूंछ धारण करेंगे। नरश्रेष्ठ! धन के लोभ से ब्रह्मचारी भी आश्रमों में दम्भपूर्ण आचार को अपनायेंगे और मद्यपान करके गुरुपत्नीगमन करेंगे।

      लोग अपने शरीर के मांस और रक्त बढ़ाने वाले इहलौकिक कर्मों में ही लगे रहेंगे। नरश्रेष्ठ! युगान्तकाल में सभी आश्रम अनेक प्रकार के पाखण्डों से व्याप्त और दूसरों से मिले हुए भोजन का ही गुणगान करने वाले होंगे। भगवान् इन्द्र भी ठीक वर्षा ऋतु के समय जल की वर्षा नहीं करेंगे। भारत! भूमि में बोये हुए सभी बीज ठीक से नहीं जमेंगे। कलियुग में सब लोग हिंसा में ही सुख मानने वाले तथा अपवित्र रहेंगे। निष्पाप! उस समय अधर्म का फल बहुत अधिक मात्रा में मिलेगा। भूपाल! उस समय जो भी धर्म में तत्पर रहेगा, उसकी आयु बहुत थोड़ी देखने में आयेगी; क्योंकि उस समय कोई भी धर्म टिक नहीं सकेगा। लोग बाजार में झूठे माप-तौल बनाकर बहुत-सा माल बेचते रहेंगे। नरश्रेष्ठ! उस समय के बनिये भी बहुत माया जानने वाले (धूर्त) होंगे।

      धर्मात्मा पुरुष हानि उठाते दीखेंगे और बड़े-बड़े पापी लौकिक दृष्टि से उन्नतिशील होंगे। धर्म का बल घटेगा और अधर्म बलवान् होगा। युगान्तकाल में धर्मिष्ठ मानव अल्पायु तथा दरिद्र देखे जायेंगे और अधर्मीं मनुष्य दीर्घायु तथा समृद्धिशाली देखे जायेंगे। युगान्त के समय नगरों के उद्यानों में पापी पुरुष अड्डा जमायेंगे और पापपूर्ण उपायों द्वारा प्रजा के साथ दुर्व्यवहार करेंगे। राजन्! थोड़े से धन का संग्रह हो जाने पर लोग धनाढ्यता के मद से उन्मत्त हो उठेंगे। यदि किसी ने विश्वास करके अपने धन को धरोहर के रूप में रख दिया तो अधिकांश पापचारी और निर्लज्ज मनुष्य उस धरोहर को हड़प लेने की चेष्टा करेंगे और उससे साफ कह देंगे कि हमारे यहाँ तुम्हारा कुछ भी नहीं है। मनुष्य का मांस खाने वाले हिंसक जीव तथा पशु-पक्षी नागरिकों के बगीचों और देवालयों में भी शयन करेंगे। राजन्! युगान्तकाल में सात-आठ वर्ष की स्त्रियां गर्भ धारण करेंगी और दस-बारह वर्ष की अवस्था वाले पुरुषों के भी पुत्र होंगे। सोलहवें वर्ष में मनुष्यों के बाल पक जायेंगे और उनकी आयु शीघ्र ही समाप्त हो जायेगी।

      महाराज! उस समय के तरुणों की आयु क्षीण होगी और उनका शील-स्वभाव बूढ़ों का सा हो जायेगा और तरुणों का जो शील-स्वभाव होना चाहिये, वह बूढ़ों में प्रकट होगा। उस समय की विपरीत स्वभाव वाली स्त्रियां अपने योग्य पतियों को भी धोखा देकर बुरे शील-स्वभाव की हो जायेंगी और सेवकों तथा पशुओं के साथ भी व्यभिचार करेंगी। राजन्! वीर पुरुषों की पत्नियां भी परपुरुषों का आश्रय लेंगी और पति के जीते हुए भी दूसरों से व्यभिचार करेंगी। महाराज! इस प्रकार आयु को क्षीण करने वाले सहस्र युगों के अन्तिम भाग की समाप्ति होने पर बहुत वर्षों तक वृष्टि बंद हो जाती है। पृथ्वीपते! तदनन्तर प्रचण्ड तेज वाले सात सूर्य उदित होकर सरिताओं और समुद्रों का सारा जल सोख लेते हैं। भरतकुलभूषण! उस समय जो भी तृण-काष्ठ अथवा सूखे-गीले पदार्थ होते हैं, वे सभी भस्मीभूत दिखाई देने लगते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 69-93 का हिन्दी अनुवाद)

     भारत! इसके बाद 'संवर्तक' नाम की प्रलयकालीन अग्नि वायु के साथ उन सम्पूर्ण लोकों में फैल जाती है, जहां का जल पहले सात सूर्यों द्वारा सोख लिया गया है। तत्पश्चात् पृथ्वी का भेदन कर वह अग्नि रसातल तक पहुँच जाती है तथा देवता, दानव और यक्षों के लिये महान् भय उपस्थित कर देती है। राजन्! वह नागलोक को जलाती हुई इस पृथ्वी के नीचे जो कुछ भी है, उस सबको क्षणभर में नष्ट कर देती है। इसके बाद वह अमंगलकारी प्रचण्ड वायु और वह संवर्तक अग्नि बाईस योजन तक के लोगों को भस्म कर डालती है। इस प्रकार सर्वत्र फैली हुई वह प्रज्वलित अग्नि देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग तथा राक्षसों सहित सम्पूर्ण विश्व को भस्म कर डालती है। इसके बाद आकाश में महान् मेघों की घोर घटा घिर आती है, जो अद्भुत दिखायी देती है। उनमें से प्रत्येक मेघसमूह हाथियों के झुंड की भाँति विशालकाय और श्यामवर्ण तथा बिजली की मालाओं से विभूषित होता है। कुछ बादल नीलकमल के समान श्याम और कुछ कुमुद-कुसुम के समान सफेद होते हैं।

      कुछ जलधरों की कान्ति केसरों के समान दिखायी देती है। कुछ मेघ हल्दी के सदृश पीले और कुछ कारण्डव पक्षी के समान दृष्टिगोचर होते हैं। कोई-कोई कमलदल के समान और कुछ हिंगुल जैसे जान पड़ते हैं। कुछ श्रेष्ठ नगरों के समान, कुछ हाथियों के झुंड-जैसे कुछ काजल के रंग वाले और कुछ मगरों की सी आकृति वाले होते हैं। वे सभी बादल विद्युन्मालाओं से अलंकृत होकर घिर आते हैं। महाराज! भयंकर गर्जना करने के कारण उनका स्वरूप बड़ा भयानक जान पड़ता है। धीरे-धीरे वे सभी जलधर समूचे आकाशमण्डल को ढक लेते हैं। महाराज! उनके वर्षा करने पर पर्वत, वन और खानों सहित यह सारी पृथ्वी अगाध जलराशि में डूबकर सब ओर से भर जाती है।

     पुरुषरत्न! तदनन्तर विधाता से प्रेरित हो गर्जन-तर्जन करने वाले वे भयंकर मेघ शीघ्र सब ओर वर्षा करके सबको जल से आप्लावित कर देते हैं। महान् जल-समूह की वर्षा करके वसुन्धरा को जल में डुबोने वाले वे समस्त मेघ उस अत्यन्त घोर, अमंगलकारी और भयानक अग्नि को बुझा देते हैं। तदनन्तर प्रलयकाल के वे पयोधर महात्मा ब्रह्माजी की प्रेरणा पाकर पृथ्वी को परिपूर्ण करने के लिये बारह वर्षों तक धारावाहिक वृष्टि करते हैं। भारत! तदनन्तर समुद्र अपनी सीमा को लांघ जाता है, पर्वत फट जाते और पृथ्वी पानी में डूब जाती है। तत्पश्चात् समस्त आकाश को घेरकर सब ओर फैले हुए वे मेघ वायु के प्रचण्ड वेग से छिन्न-भिन्न होकर सहसा अदृश्य हो जाते हैं। नरेश्वर! इसके बाद कमल में निवास करने वाले आदिदेव स्वयं ब्रह्माजी उस भयंकर वायु को पीकर सो जाते हैं। इस प्रकार चराचर प्राणियों, देवताओं तथा असुर आदि के नष्ट हो जाने पर यक्ष, राक्षस, मनुष्य, हिंसक जीव, वृक्ष तथा अन्तरिक्ष से शून्य उस घोर एकार्णवमय जगत् में मैं अकेला ही इधर-उधर मारा-मारा फिरता हूँ।

      नृपश्रेष्ठ! एकार्णव के उस भयंकर जल में विचरते हुए जब मैंने किसी भी प्राणी को नहीं देखा, तब मुझे बड़ी व्याकुलता हुई। नरेश्वर! उस समय आलस्यशून्य होकर सुदीर्घ काल तक तैरता हुआ मैं दूर जाकर बहुत थक गया। परंतु कहीं भी मुझे कोई आश्रम नहीं मिला। राजन्! तदनन्तर एक दिन एकार्णव की उस अगाध जलराशि में मैंने एक बहुत विशाल बरगद का वृक्ष देखा। नराधिप! उस वृक्ष की चौड़ी शाखा पर एक पलंग था, जिसके ऊपर दिव्य बिछौने बिछे हुए थे। महाराज! उस पलंग पर एक सुन्दर बालक बैठा दिखायी दिया, जिसका मुख कमल के समान कमनीय शोभा धारण करने वाला तथा चन्द्रमा के समान नेत्रों को आनन्द देने वाला था। उसके नेत्र प्रफुल्ल पद्मदल के समान विशाल थे। पृथ्वीनाथ! उसे देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ। 

    मैं सोचने लगा,,- 'सारे संसार के नष्ट हो जाने पर भी यह बालक यहाँ कैसे सो रहा है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 94-123 का हिन्दी अनुवाद)

    नरेश्वर! मैं भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का ज्ञाता होने पर भी तपस्या से भली-भाँति चिन्तन करता (ध्यान लगाता) रहा, तो भी


उस शिशु के विषय में कुछ न जान सका। उसकी अंग-कान्ति अलसी के फूल की भाँति श्याम थी। उसका वक्षःस्थल श्रीवत्स-चिह्न से विभूषित था। वह उस समय मुझे साक्षात् लक्ष्मी का निवासस्थान-सा प्रतीत होता था। मुझे विस्मय में पड़ा देख कमल के समान नेत्र वाले उस श्रीवत्सधारी कान्तिमान् बालक ने मुझसे इस प्रकार श्रवणसुखद वचन कहा,,

    बालक बोला ;- 'भृगुवंशी मार्कण्डेय! मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम बहुत थक गये हो और विश्राम चाहते हो। तुम्हारी जब तक इच्छा हो यहाँ बैठो। मुनिश्रेष्ठ! मैंने तुम पर कृपा की है। तुम मेरे शरीर के भीतर प्रवेश करके विश्राम करो। वहाँ तुम्हारे रहने के लिये व्यवस्था की गयी हैं'। उस बालक के ऐसा कहने पर उस समय मुझे अपने दीर्घ जीवन और मानव-शरीर पर बड़ा खेद और वैराग्य हुआ।

      तदनन्तर उस बालक ने सहसा अपना मुख खोला और मैं दैवयोग से परवश की भाँति उसमें प्रवेश कर गया। राजन्! उसमें प्रवेश करते ही मैं सहसा उस बालक के उदर में जा पहुँचा। वहाँ मुझे समस्त राष्ट्रों और नगरों से भरी हुई यह सारी पृथ्वी दिखायी दी। नरश्रेष्ठ! फिर तो मैं उस महात्मा बालक के उदर में घूमने लगा। घूमते हुए मैंने वहाँ गंगा, सतलज, सीता, यमुना, कोसी, चम्बल, वेत्रवती, चिनाव, सरस्वती, सिन्धु, व्यास, गोदावरी, वस्वोकसारा, नलिनी, नर्मदा, ताम्रपर्णीं, वेणा, शुभदायिनी पुण्यतोया, सुवेणा, कृष्णवेणा, महानदी इरामा, वितस्ता, (झेलम), महानदी कावेरी, शोणभद्र, विशल्या तथा किम्पुना- इन सबको तथा इस पृथ्वी पर जो अन्य नदियां हैं, उनको भी देखा। शत्रुदमन! इसके बाद जलजन्तुओं से भरे हुए अगाध जल के भण्डार परम उत्तम रत्नाकर समुद्र को भी देखा। वहाँ मुझे चन्द्रमा और सूर्य से सुशोभित आकाशमण्डल दिखायी दिया, जो अनन्त तेज से प्रज्वलित तथा अग्नि एवं सूर्य के समान देदीप्यमान था। राजन्! वहां की भूमि विविध काननों से सुशोभित, पर्वत, वन और द्वीपों से उपलक्षित तथा सैकड़ों सरिताओं से संयुक्त दिखायी देती थी।

      ब्राह्मण लोग नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना करते थे। नरेश्वर! क्षत्रिय राजा सब वर्णों की प्रजा का अनुरंजन करते-सबको सुखी और प्रसन्न रखते थे। वैश्य न्यायपूर्वक खेती का काम और व्यापार करते थे। शूद्र तीनों द्विजातियों की सेवा-शुश्रूषा में लगे रहते थे। राजन्! यह सब देखते हुए जब मैं उस महात्मा बालक के उदर में भ्रमण करता आगे बढ़ा, तब हिमवान्, हेमकूट, निषेध, रजतयुक्त श्वेतगिरि, गन्धमादन, मन्दराचल, महागिरि नील, सुवर्णमय पर्वत मेरु, महेन्द्र, उत्तम विन्ध्यगिरि, मलय तथा पारियात्र पर्वत देखे। ये तथा और भी बहुत-से पर्वत मुझे उस बालक के उदर में दिखायी दिये। ये सब-के-सब नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित थे। राजन्! वहाँ घूमते हुए मैंने सिंह, व्याघ्र और वराह आदि पशु भी देखे।

      पृथ्वीपते! भूमण्डल में जितने प्राणी हैं, उन सबको देखते हुए मैं उस समय उस बालक के उदर में विचरता रहा। नरश्रेष्ठ! उस शिशु के उदर में प्रविष्ट हो सम्पूर्ण दिशाओं में भ्रमण करते हुए मुझे इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं के भी दर्शन हुए। पृथ्वीपते! साध्य, रुद्र, आदित्य, गुह्यक, पितर, सर्प, नाग, सुपर्ण, वसु, अश्विनीकुमार, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष तथा ऋषियों का भी मैंने दर्शन किया। दैत्य-दानव समूह, नाग, सिंहिका के पुत्र (राहु आदि) तथा अन्य देवशत्रुओं को भी देखा। राजन्! इस लोक में मैंने जो कुछ भी स्थावर-जंगम पदार्थ देखे थे, वे सब मुझे उस महात्मा की कुक्षि में दृष्टिगोचर हुए। महाराज! मैं प्रतिदिन फलाहार करता और इस सम्पूर्ण जगत् में घूमता रहता। उस बालक के शरीर के भीतर मैं सौ वर्ष से अधिक काल तक घूमता रहा, तो भी कभी उसके शरीर का अन्त नहीं दिखायी दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाशीत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 124-143 का हिन्दी अनुवाद)

     युधिष्ठिर! मैं निरन्तर दौड़ लगाता और चिन्ता में पड़ा रहता था। महाराज! जब बहुत वर्षों तक भ्रमण करने पर भी उस महात्मा के शरीर का अन्त नहीं मिला, तब मैंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा उन वरदायक एवं वरेण्य देवता की ही विधिपूर्वक शरण ली। पुरुषरत्न युधिष्ठिर! उनकी शरण लेते ही मैं वायु के समान वेग से उक्त महात्मा बालक के खुले हुए मुख की राह से सहसा बाहर निकल आया। नरश्रेष्ठ राजन्! बाहर आकर देखा तो उसी बरगद की शाखा पर उसी बाल वेष से सम्पूर्ण जगत् को अपने उदर में लेकर श्रीवत्स चिह्न से सुशोभित वह अमित तेजस्वी बालक पूर्ववत् बैठा हुआ है। तब महातेजस्वी पीताम्बरधारी श्रीवत्सभूषित कान्तिमान् उस बालक ने प्रसन्न होकर हंसते हुए से मुझसे कहा,,

    बालक बोला ;- 'मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेय! क्या तुम मेरे इस शरीर में रहकर विश्राम कर चुके? मुझे बताओ'। फिर दो ही घड़ी में मुझे एक नवीन दृष्टि प्राप्त हुई, जिससे मैं अपने आपको माया से मुक्त और सचेत अनुभव करने लगा।

      तात! तदनन्तर मैंने कोमल और लाल रंग की अंगुलियों से सुशोभित लाल-लाल तलवे वाले उस बालक के सुन्दर एवं सुप्रतिष्ठित चरणों को प्रयत्नपूर्वक पकड़कर उन्हें अपने मस्तक से प्रणाम किया। उस अमित तेजस्वी शिशु का अनन्त प्रभाव देखकर मैं यत्नपूर्वक उसके समीप गया और विनीत भाव से हाथ जोड़कर सम्पूर्ण भूतों के आत्मा उस कमलनयन देवता का दर्शन किया। फिर हाथ जोड़ नमस्कार करके मैंने उससे इस प्रकार कहा,

     मार्कण्डेय जी बोले ;- 'देव! मैं आपको और आपकी इस उत्तम माया को जानना चाहता हूँ। भगवन्! मैंने आपके मुख की राह से शरीर में प्रवेश करके आपके उदर में समस्त सांसारिक पदार्थों का अवलोकन किया है। देव! आपके शरीर में देवता, दानव, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, नाग तथा समस्त स्थावर-जंगमरूप जगत् विद्यमान है। प्रभो! आपकी कृपा से आपके शरीर के भीतर निरन्तर शीघ्र गति से घूमते रहने पर भी मेरी स्मरण शक्ति नष्ट नहीं हुई है।

      महाप्रभो! मैं अपनी अभिलाषा न रहने पर भी केवल आपकी इच्छा से बाहर निकल आया हूँ। कमलनयन! आप सर्वोंत्कृष्ट देवता को मैं जानना चाहता हूँ। आप इस सम्पूर्ण जगत को पी करके यहाँ साक्षात् बालक वेष में क्यों विराजमान हैं? यह सब बताने की कृपा करें। अनघ! यह सारा संसार आपके शरीर में किसलिये स्थित है? शत्रुदमन! आप कितने समय तक यहाँ इस रूप में रहेंगे। देवेश्वर! कमलनयन! ब्राह्मण में जो सहज जिज्ञासा होती है, उससे प्रेरित होकर मैं आपसे यह सब बातें यथाविधि विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। प्रभो! मैंने जो कुछ देखा है, यह अगाध और अचिन्त्य है। मेरे इस प्रकार पूछने पर वे वक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी देवाधिदेव श्रीभगवान् मुझे सान्त्वना देते हुए इस प्रकार बोले।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में एक सौ अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

एक सौ नवासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोननवत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान् बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना तथा मार्कण्डेय द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का प्रतिपादन और पाण्डवों का श्रीकृष्ण की शरण में जाना"

   भगवान् बोले ;- विप्रवर! देवता भी मेरे स्वरूप को यथेष्ट और यथार्थरूप से नहीं जानते। मैं जिस प्रकार इस जगत् की रचना करता हूं, वह तुम्हारे प्रेम के कारण तुम्हें बताऊँगा। ब्रह्मर्षें! तुम पितृभक्त हो, मेरी शरण में आये हो और तुमने महान् ब्रह्मचर्य का पालन किया है। इन्हीं सब कारणों से तुम्हें मेरे साक्षात् स्वरूप का दर्शन हुआ। पूर्वकाल में मैंने ही जल का 'नारा' नाम रखा था। वह 'नारा' मेरा सदा अयन (वासस्थान) है, इसलिये मैं 'नारायण' नाम से विख्यात हूँ। मैं नारायण ही सबकी उत्पत्ति का कारण, सनातन और अविनाशी हूँ। द्विजश्रेष्ठ! सम्पूर्ण भूतों की सृष्टि और संहार करने वाला भी मैं ही हूँ। मैं ही विष्णु हूं, मैं ही ब्रह्मा हूं, मैं ही देवराज इन्द्र हूँ और मैं ही राजा कुबेर तथा प्रेतराज यम हूँ। विप्रवर! मैं ही शिव, चन्द्रमा, प्रजापति कश्यप, धाता, विधाता और यज्ञ हूँ। अग्नि मेरा मुख है, पृथ्वी चरण है, चन्द्रमा और सूर्य नेत्र हैं। द्युलोक मेरा मस्तक है। आकाश और दिशाएं मेरे कान हैं तथा जल मेरे शरीर के पसीने से प्रकट हुआ है। दिशाओं सहित आकाश मेरा शरीर है। वायु मेरे मन में स्थित है। मैने पर्याप्त दक्षिणाओं से युक्त अनेक शतयज्ञों द्वारा यजन किया है।

     वेदवेत्ता ब्राह्मण देवयज्ञ में स्थित मुझ यज्ञपुरुष का यजन करते हैं। पृथ्वी का पालन करने वाले क्षत्रिय नरेश स्वर्ग प्राप्ति की अभिलाषा से इस भूतल पर यज्ञों द्वारा मेरा यजन करते हैं। इसी प्रकार वैश्य भी स्वर्गलोक पर विजय पाने की इच्छा से मेरी सेवा-पूजा करते हैं। मैं ही शेषनाग होकर मेरुमन्दर से विभूषित तथा चारों समुद्रों से घिरी हुई इस वसुन्धरा को अपने सिर पर धारण करता हूँ। विप्रवर! पूर्वकाल में जब यह पृथ्वी जल में डूब गयी थी, उस समय मैंने ही वराह रूप धारण करके इसे बलपूर्वक जल से बाहर निकाला था। विद्वन्! मैं ही बड़वामुख अग्नि होकर सदा समुद्र के जल को पीता हूँ और फिर उस जल को बरसा देता हूँ। ब्राह्मण मेरा मुख है, क्षत्रिय दोनों भुजाएं हैं और वैश्य मेरी दोनों जांघों के रूप में स्थित हैं। ये शूद्र मेरे दोनों चरण हैं। मेरी शक्ति से क्रमशः इनका प्रादुर्भाव हुआ है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद -ये मुझसे ही प्रकट होते और मुझसे ही लीन हो जाते हैं।

     शान्तिपरायण, संयमी, जिज्ञासु, काम-क्रोध-द्वेषरहित आसक्तिशून्य, निष्पाप, सात्त्विक, नित्य अहंकारशून्य तथा अध्यात्म ज्ञानकुशल यति एवं ब्राह्मण सदा मेरा ही चिन्तन करते हुए उपासना करते हैं। मैं ही संवर्तक (प्रलय का कारण) वह्नि हूँ। मैं ही संवर्तक अनल हूँ। मैं ही संवर्तक सूर्य हूँ और मैं ही संवर्तक वायु हूँ। द्विजश्रेष्ठ! आकाश में जो ये तारे दिखायी देते हैं, उन सबको मेरे ही रोमकूप समझो। रत्नाकर समुद्र और चारों दिशाओं को मेरे वस्त्र, शय्या और निवासस्थान जानो। मैंने ही देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिये इनकी पृथक्-पृथक् रचना की है। साधुशिरोमणे! काम, क्रोध, हर्ष, भय और मोह-इन सभी विकारों को मेरी ही रोमावली समझो। ब्रह्मन्! जिन शुभ कर्मों के आचरण से मनुष्य को कल्याण की प्राप्ति होती है, वे सत्य, दान, उग्र तपस्या और किसी भी प्राणी की हिंसा न करने का स्वभाव-ये सब मेरे ही विधान से निर्मित हुए हैं और मेरे ही शरीर में विहार करते हैं। मैं समस्त प्राणियों के ज्ञान को जब प्रकट कर देता हूं, तभी वे चेष्टाशील होते हैं, अन्यथा अपनी इच्छा से वे कुछ नहीं कर सकते। जो द्विजाति अच्छी तरह वेदों का अध्ययन करके शांतचित्त और क्रोधशून्य होकर नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा मेरी आराधना करते हैं, उन्हें ही मेरी प्राप्ति होती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोननवत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 25-50 का हिन्दी अनुवाद)

      विद्वन्! पापकर्मा, लोभी, कृपण, अनार्य और अजितात्मा मनुष्य जिसे कभी नहीं पा सकते, वह महान् फल मुझे ही समझो। मैं ही शुद्ध अन्तःकरण वाले मानवों को सुलभ होने वाला योगसेवित मार्ग हूँ। मूढ़ मनुष्यों के लिये मैं सर्वथा दुर्लभ हूँ। महर्षें! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं अपने आपको प्रकट करता हूँ। जब हिंसाप्रेमी दैत्य श्रेष्ठ देवताओं के लिये अवध्य हो जाते हैं तथा भयानक राक्षस जब इस संसार में उत्पन्न हो अत्याचार करने लगते हैं, तब मैं पुण्यात्मा पुरुषों के घरों पर मानव-शरीर में प्रविष्ट होकर प्रकट होता हूँ और उन दैत्यों एवं राक्षसों का सारा उपद्रव शांत कर देता हूँ। मैं ही अपनी माया से देवता, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस तथा स्थावर प्राणियों की सृष्टि करके समय आने पर पुनः उनका संहार कर डालता हूँ। फिर सृष्टि-रचना के लिये मैं अचिन्त्य स्वरूप धारण करता हूँ तथा मर्यादा की स्थापना एवं रक्षा के लिये मानव-शरीर से अवतार लेता हूँ।

      सत्ययुग में मेरे शरीर का रंग श्वेत, त्रेता में पीला, द्वापर में लाल और कलियुग में काला होता है। उस कलियुग में तीन हिस्सा अधर्म और एक ही हिस्सा धर्म करता है। प्रलयकाल आने पर मैं ही अत्यन्त दारुण कालरूप होकर अकेला ही सम्पूर्ण चराचर त्रिलोकी का नाश करता हूँ। मैं तीनों लोकों में व्याप्त, सम्पूर्ण विश्व का आत्मा, सब लोगों को सुख पहुँचने वाला, सबकी उत्पत्ति का कारण, सर्वव्यापी, अनन्त, इन्द्रियों का नियन्ता और महान् विक्रमशाली हूँ। ब्रह्मन्! यह जो सम्पूर्ण भूतों का संहार करने वाला और सबको उद्योगशील बनाने वाला अव्यक्त कालचक्र है, इसका संचालन केवल मैं ही करता हूँ। मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार मेरा स्वरूपभूत आत्मा ही सर्वत्र सब प्राणियों के भीतर भलीभाँति स्थित है। विप्रवर! इतने पर भी मुझे कोई जानता नहीं है। समस्त जगत् में भक्त पुरुष सब प्रकार से मेरी आराधना करते हैं। तुमने मेरे निकट आकर जो कुछ भी क्लेश उठाया है, ब्रह्मन्! वह सब तुम्हारे भावी कल्याण और सुख का साधक है। अनघ! लोक में तुमने जो कोई भी स्थावर-जंगम पदार्थ देखा है, उसके रूप में सर्वथा मेरा भूत-भावन आत्मा ही प्रकट हुआ है।

    सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मा मेरा आधा अंग हैं। ब्रह्मर्षें! मैं शंख, चक्र और गदा धारण करने वाला विश्वात्मा नारायण हूं, सहस्र युग के अन्त में जो प्रलय होता है, वह जब तक रहता है, तब तक सब प्राणियों को (महानिद्रारूप माया से) मोहित करके मैं (जल में) शयन करता हूँ। मुनिश्रेष्ठ! यद्यपि मैं बालक नहीं हूँ, तो भी जब तक ब्रह्मा नहीं जागते, तब तक सदा इसी प्रकार बालक रूप धारण करके यहाँ रहता हूँ। विप्रशिरोमणे! तुम ब्रह्मर्षियों द्वारा पूजित हो। मैंने ही ब्रह्मरूप से तुम्हारे ऊपर बार-बार संतुष्ट हो तुम्हें अभीष्ट वर प्रदान किया है। मैंने समझ लिया था कि तुम सम्पूर्ण चराचर जगत् को नष्ट तथा एकार्णव में निमग्न हुआ देखकर व्याकुल हो रहे हो। इसीलिये तुम्हें पुनः जगत् का दर्शन कराया है। ब्रह्मर्षें! जब तुम मेरे शरीर के भीतर प्रविष्ट हुए थे और समस्त संसार को देखकर विस्मय-विमुग्ध हो फिर सचेत नहीं हो पा रहे थे, तब मैंने तुरंत मुख से बाहर निकाल दिया था। ब्रह्मर्षे! इस प्रकार मैंने तुम्हें अपने स्वरूप का उपदेश किया है, जिसको जानना देवता और असुरों के लिये भी कठिन है। जब तक महातपस्वी भगवान् ब्रह्मा का जागरण न हो, तब तक तुम श्रद्धा और विश्वासपूर्वक सुख से विचरते रहो। द्विजश्रेष्ठ! सर्वलोक पितामह ब्रह्मा के जागने पर मैं उनसे एकीभूत हो समस्त शरीरों की सृष्टि करूंगा। आकाश, पृथ्वी, अग्नि, वायु और जल का तथा इस संसार में जो अन्य चराचर वस्तुएं अवशिष्ट हैं, उन सबका निर्माण करूंगा।'

      मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- तात युधिष्ठिर! ऐसा कहकर वे परम अद्भुत देवता भगवान् बालमुकुन्द अन्तर्धान हो गये। उनके अन्तर्धान होते ही मैंने देखा कि यह नाना प्रकार की विचित्र प्रजा ज्यों-की-ज्यों उत्पन्न हो गयी है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोननवत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 51-59 का हिन्दी अनुवाद)

      सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भरतकुलतिलक युधिष्ठिर! इस प्रकार उस प्रलयकाल के आने पर मुझे यह आश्चर्यजनक अनुभव हुआ था। नरश्रेष्ठ! पुरातन प्रलय के समय मुझे जिन कमलदललोचन देवता भगवान् बालमुकुन्द का दर्शन हुआ था, तुम्हारे सम्बन्धी ये भगवान् श्रीकृष्ण वे ही हैं।

     कुन्तीनन्दन! इन्हीं के वरदान से मुझे पूर्वजन्म की स्मृति भूलती नहीं है। मेरी दीर्घकालीन आयु और स्वच्छंद मृत्यु भी इन्हीं की कृपा का प्रसाद है। ये वृष्णिकुलभूषण महाबाहु श्रीकृष्ण ही वे सर्वव्यापी, अचिन्त्यस्वरूप, पुराणपुरुष श्रीहरि हैं, जो पहले बाल रूप में मुझे दिखायी दिये थे। वे ही यहाँ अवतीर्ण हो भाँति-भाँति की लीलाएं करते हुए से दीख रहे हैं। श्रीवत्स चिह्न जिनके वक्षःस्थल की शोभा बढ़ाता है, वे भगवान् गोविन्द ही इस विश्व की सृष्टि, पालन और संहार करने वाले, सनातन प्रभु और प्रजापतियों के भी पति हैं।

     इन आदिदेवस्वरूप, विजयशील, पीताम्बरधारी पुरुष, वृष्णिकुलभूषण श्रीकृष्ण को देखकर मुझे इस पुरातन घटना की स्मृति हो आयी है। कुरुकुलश्रेष्ठ पाण्डवो! ये माधव ही समस्त प्राणियों के पिता और माता हैं। ये ही सबको शरण देने वाले हैं। अतः तुम सब लोग इन्हीं की शरण में जाओ।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! मार्कण्डेय मुनि के ऐसा कहने पर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तथा पुरुषरत्न नकुल-सहदेव -इन सब ने द्रौपदी सहित उठकर भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया। नरश्रेष्ठ! फिर सम्माननीय श्रीकृष्ण ने भी इन सबका विधिपूर्वक समादर करते हुए परम मधुर सान्त्वनापूर्ण वचनों द्वारा इन्हें सब प्रकार का आश्वासन दिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में भविष्य कथन विषयक एक सौ नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

एक सौ नब्बेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

"युगान्तकालिक कलियुग के समय के बर्ताव का तथा कल्कि-अवतार का वर्णन"

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने महामुनि मार्कण्डेय से अपने साम्राज्य में जगत् की भावी गतिविधि के विषय में पुनः इस प्रकार प्रश्न किया। युधिष्ठिर बोले- वक्ताओं में श्रेष्ठ! भृगुवंशविभूषण महर्षे! हमने आपके मुख से युग के आदि में संघटित हुई उत्पति और प्रलय के सम्बन्ध में बड़े आश्चर्य की बातें सुनी हैं। अब मुझे इस कलियुग के विषय में पुनः विशेष रूप से सुनने का कुतूहल हो रहा है। जब सारे धर्मों का उच्छेद हो जायेगा, उस समय क्या शेष रह जायेगा? युगान्तकाल में कलियुग के मनुष्यों का बल-पराक्रम कैसा होगा? उनके आहार-विहार कैसे होंगे? उनकी आयु कितनी होगी और उनके परिधान-वस्त्राभूषण कैसे होंगे? कलियुग के किस सीमा तक पहुँच जाने पर पुनः सत्ययुग आरम्भ हो जायेगा? मुने! इन सब बातों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये; क्योंकि आपकी कथा बड़ी विचित्र होती है।

     युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर मुनिश्रेष्ठ महर्षि मार्कण्डेय ने वृष्णिप्रवर श्रीकृष्ण तथा पाण्डवों को आनन्दित करते हुए पुनः इस प्रकार कहा। 

    मार्कण्डेय बोले ;- भरतश्रेष्ठ राजन्! मैंने देवाधिदेव भगवान् बालमुकुन्द की कृपा से पूर्वकाल में, निकृष्ट कलिकाल के प्राप्त होने पर सम्पूर्ण लोकों के भावी वृत्तान्त के विषय में जो कुछ देखा-सुना या अनुभव किया है, वह बताता हूं, सुनो और समझो। भरतश्रेष्ठ! सत्ययुग में मनुष्यों के भीतर वृषरूप धर्म अपने चारों पादों से युक्त होने के कारण सम्पूर्ण रूप में प्रतिष्ठित होता है। उसमें छल-कपट या दम्भ नहीं होता। किंतु त्रेता में वह धर्म अधर्म के एक पाद से अभिभूत होकर अपने तीन अंशों से ही प्रतिष्ठित होता है। द्वापर में धर्म आधा ही रह जाता है। आधे में अधर्म आकर मिल जाता है। परंतु भरतश्रेष्ठ! कलियुग आने पर अधर्म अपने तीन अंशों द्वारा सम्पूर्ण लोकों को आक्रान्त करके स्थित होता है और धर्म केवल एक पाद से मनुष्यों में प्रतिष्ठित होता है। पाण्डुनन्दन! प्रत्येक युग में मनुष्यों की आयु, वीर्य, बुद्धि, बल तथा तेज क्रमशः घटते जाते हैं।

     युधिष्ठिर! अब कलियुग के समय का वर्णन सुनो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी जातियों के लोग कपटपूर्वक धर्म का आचरण करेंगे और धर्म का जाल बिछाकर दूसरे लोगों को ठगते रहेंगे। अपने को पण्डित मानने वाले लोग सत्य का त्याग कर देंगे। सत्य की हानि होने से उनकी आयु थोड़ी हो जायेगी और आयु की कमी होने के कारण वे अपने जीवन-निर्वाह के योग्य विद्या प्राप्त नहीं कर सकेंगे। विद्या के बिना ज्ञान न होने से उन सबको लोभ दबा लेगा। फिर लोभ और क्रोध के वशीभूत हुए मूढ़ मनुष्य कामनाओं में फंसकर आपस में वैर बांध लेंगे और एक-दूसरे के प्राण लेने की घात में लगे रहेंगे। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-ये आपस में संतानोत्पादन करके वर्णसंकर हो जायेंगे। वे सभी तपस्या और सत्य से रहित हो शूद्रों के समान हो जायेंगे। अन्त्यज (चाण्डाल आदि) क्षत्रिय वैश्य आदि के कर्म करेंगे और क्षत्रिय-वैश्य आदि चाण्डालों के कर्म अपना लेंगे, इसमें संशय नहीं हैं।

       युगान्तकाल आने पर लोगों की ऐसी ही दशा होगी। वस्त्रों में सन के बने हुए वस्त्र अच्छे समझे जायेंगे। धानों में कोदो का आदर होगा। उस युगक्षय के समय पुरुष केवल स्त्रियों से ही मित्रता करने वाले होंगे। कितने ही लोग मछली के मांस से जीविका चलायेंगे। गायों के नष्ट हो जाने के कारण मनुष्य भेड़ और बकरी का भी दूध दुहकर पीयेंगे। जो लोग सदा व्रत धारण करके रहने वाले हैं, वे भी युगान्त काल में लोभी हो जायेंगे। लोग एक-दूसरे को लूटेंगे और मारेंगे। युगान्तकाल के मनुष्य जपरहित, नास्तिक और चोरी करने वाले होंगे। नदियों के किनारे की भूमि को कुदालों से खोदकर लोग वहाँ अनाज बोयेंगे। उन अनाजों में भी युगान्तकाल के प्रभाव से बहुत कम फल लगेंगे। जो सदा (परान्न का त्याग करके) व्रत का पालन करने वाले लोग हैं, वे भी उस समय लोभवश देवयज्ञ तथा श्राद्ध में एक-दूसरे के यहाँ भोजन करेंगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 25-46 का हिन्दी अनुवाद)

     कलियुग के अन्तिम भाग में पिता पुत्र की और पुत्र पिता की शय्या आदि का उपभोग करने लगेंगे। उस समय त्याज्य (अभक्ष्य) पदार्थ भी भोजन के योग्य समझे जायेंगे। ब्राह्मण लोग व्रत और नियमों का पालन तो करेंगे नहीं, उलटे वेदों की निन्दा करने लग जायेंगे। कोरे तर्कवाद से मोहित होकर वे यज्ञ और होम छोड़ बैठेंगे। वे केवल तर्कवाद से मोहित होकर नीच-से-नीच कर्म करने के लिये प्रयत्नशील रहेंगे। मनुष्य नीची भूमि में (अर्थात् गायों के जल पीने और चरने की जगह में) खेती करेंगे। दूध देने वाली गायों को भी बोझ ढोने के काम में लगा देंगे और सालभर के बछड़ों को भी हल में जोतेंगे। पुत्र पिता का और पिता पुत्र का वध करके भी उद्विग्न नहीं होंगे। अपनी प्रशंसा के लिये लोग बड़ी-बड़ी बातें बनायेंगे, किंतु समाज में उनकी निन्दा नहीं होगी। सारा संसार म्लेच्छों की भाँति शुभ कर्म और यज्ञ-यागादि छोड़ देगा तथा आनन्दशून्य और उत्सवरहित हो जायेगा। लोग प्रायः दीनों, असहायों तथा विधवाओं का भी धन हड़प लेंगे। उनके शारीरिक बल और पराक्रम क्षीण हो जायेंगे। वे उदण्ड होकर लोभ और मोह में डूबे रहेंगे। वैसे ही लोगों की चर्चा करने और उनसे दान लेने में प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। कपटपूर्ण आचार को अपनाकर वे दुष्टों के दिये हुए दान को भी ग्रहण कर लेंगे।

       कुन्तीनन्दन! पापबुद्धि राजा एक-दूसरे को युद्ध के लिये ललकारते हुए परस्पर एक-दूसरे के प्राण लेने को उतारू रहेंगे और मूर्ख होते हुए अपने को पण्डित मानेंगे। इस प्रकार युगान्तकाल के सभी क्षत्रिय जगत् के लिये कांटे बन जायेंगे। कलियुग की समाप्ति के समय वे प्रजा की रक्षा तो करेंगे नहीं, उनसे रुपये ऐंठने के लिये लोभ अधिक रखेंगे। सदा मान और अहंकार के मद से चूर रहेंगे। वे केवल प्रजा को दण्ड देने के कार्य में ही रुचि रखेंगे। भारत! लोग इतने निर्दयी हो जायेंगे कि सज्जन पुरुषों पर भी बार-बार आक्रमण करके उनके धन और स्त्रियों का बलपूर्वक उपभोग करेंगे तथा उनके रोने-बिलखने पर भी दया नहीं करेंगे। कलियुग का अन्त आने पर न तो कोई किसी से कन्या की याचना करेगा और न कोई कन्यादान ही करेगा। उस समय के वर-कन्या स्वयं ही एक-दूसरेको चुन लेंगे। कलियुग की समाप्ति के समय असंतोषी तथा मूढ़-चित्त राजा भी सब तरह के उपायों से दूसरों के धन का अपहरण करेंगे। उस समय सारा जगत् म्लेच्छ हो जायेगा-इसमें संशय नहीं। एक हाथ दूसरे हाथ को लूटेगा-सगा भाई भी भाई के धन को हड़प लेगा। अपने को पण्डित मानने वाले मनुष्य संसार में सत्य को मिटा देंगे।

     बूढ़ों की बुद्धि बालकों-जैसी होगी और बालकों की बूढ़ों-जैसी। युगान्तकाल उपस्थित होने पर कायर अपने को शूर-वीर मानेंगे और शूर-वीर कायरों की भाँति विषाद में डूबे रहेंगे। कोई एक-दूसरे का विश्वास नहीं करेंगे। युग के सब लोग लोभ और मोह में फंसकर भक्ष्याभक्ष्य का विचार किये बिना ही एक साथ सम्मिलित होकर भोजन करने लगेंगे। अधर्म बढ़ेगा और धर्म विदा हो जायेगा। नरेश्वर! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का नाम ही नहीं रह जायेगा। युगान्तकाल में सारा विश्व एक वर्ण, एक जाति का हो जायेगा। युगक्षय-काल में पिता पुत्र के अपराध को क्षमा नहीं करेंगे और पुत्र भी पिता की बात नहीं सहेगा। स्त्रियां अपने पतियों की सेवा छोड़ देंगी। युगान्तकाल आने पर (लोग) उन प्रदेशों में चले जायेंगे जहाँ जौ और गेहूँ आदि अनाज अधिक पैदा होते हैं (चाहे वह देश निषिद्ध ही क्यों न हो)। महाराज! युगान्तकाल आने पर पुरुष और स्त्रियां स्वेच्छाचारी होकर एक-दूसरे के कार्य और विचार को नहीं सहेंगे। युधिष्ठिर! उस समय सारा जगत् म्लेच्छ हो जायेगा। मनुष्य श्राद्ध और यज्ञ-कर्मों द्वारा पितरों और देवताओं को संतुष्ट नहीं करेंगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 47-73 का हिन्दी अनुवाद)

     राजन्! उस समय कोई किसी का उपदेश नहीं सुनेगा और न कोई किसी का गुरु ही होगा। सारा जगत् अज्ञानमय अन्धकार से आच्छादित हो जायेगा। उस समय युगान्तकाल उपस्थित होने पर लोगों की आयु अधिक-से-अधिक सोलह वर्ष की होगी, उसके बाद वे प्राणत्याग कर देंगे। पांचवें या छठे वर्ष में स्त्रियां बच्चे पैदा करने लगेंगी और सात-आठ वर्ष के पुरुष संतानोत्पादन में प्रवृत्त हो जायेंगे। नृपश्रेष्ठ! युगान्तकाल आने पर स्त्री अपने पति से और पति अपनी स्त्री से संतुष्ट नहीं होंगे। कलियुग के अन्त भाग में लोगों के पास धन थोड़ा रहेगा और लोग दिखावे के लिये साधुवेष धारण करेंगे। हिंसा का जोर बढ़ेगा और कोई किसी को कुछ देने वाला नहीं रहेगा। युगक्षय काल में सभी देशों के लोग अन्न बेचेंगे। ब्राह्मण वेद विक्रय करेंगे और स्त्रियां वेश्यावृत्ति अपना लेंगी। युगान्तकाल के मनुष्य म्लेच्छों-जैसे आचार वाले और सर्वभक्षी यानि अभक्ष्य का भी भक्षण करने वाले हो जायेंगे। वे प्रत्येक कर्म में अपनी क्रूरता का परिचय देंगे, इसमें संशय नहीं है। भरतश्रेष्ठ! युगान्तकाल में धन के लिये क्रय-विक्रय के समय सभी सबको ठगेंगे।

     क्रिया के तत्त्व को न जानकर भी लोग उसे करने में प्रवृत्त होंगे। युगान्तकाल के सभी मानव स्वेच्छाचारी हो जायेंगे। सभी स्वभावतः क्रूर और एक-दूसरे पर मिथ्या कलंक लगाने वाले होंगे। युगान्तकाल उपस्थित होने पर सब लोग बगीचों और वृक्षों को कटवा देंगे और ऐसा करते समय उनके मन में पीड़ा नहीं होगी। प्रत्येक मनुष्य के जीवन धारण में भी शंका हो जायेगी। अर्थात् प्रत्येक मनुष्य का जीवन धारण करना कठिन हो जायेगा। राजन्! सब लोग लोभ के वशीभूत होंगे और ब्राह्मणों का धन उपभोग करने का जिनका स्वभाव पड़ गया है, वे धन के लिये ब्राह्मणों को मार भी डालेंगे। शूद्रों के सताये हुए ब्राह्मण भय से पीड़ित हो हाहाकार करने लगेंगे और अपने लिये कोई रक्षक न मिलने के कारण सारी पृथ्वी पर निश्चय ही भटकते फिरेंगे। जब दूसरों के जीवन का विनाश करने वाले क्रूर, भयंकर तथा जीवहिंसक मनुष्य पैदा होने लगें, तब समझ लेना चाहिये कि युगान्तकाल उपस्थित हो गया। कुरुकुलतिलक युधिष्ठिर! अत्याचारियों से डरे हुए ब्राह्मण इधर-उधर भागकर नदियों, पर्वतों तथा दुर्गम स्थानों का आश्रय लेंगे। राजन्! श्रेष्ठ ब्राह्मण भी लुटेरों से पीड़ित होकर कौओं की तरह कांव-कांव करते फिरेंगे। दुष्ट राजाओं के लगाये हुए करों के भार से सदा पीड़ित होने के कारण वे धैर्य छोड़कर चल देंगे और शूद्रों की सेवा-शुश्रूषा में लगे रहकर धर्मविरुद्ध कार्य करेंगे।

      भूपाल! भयंकर कलियुग के अन्त में जगत की यही दशा होगी। शूद्र धर्मोंपदेश करेंगे ओर ब्राह्मण लोग उनकी सेवा में रहकर उसे सुनेंगे तथा उसी को प्रामाणिक मानकर उसका पालन करेंगे। समस्त लोक का व्यवहार विपरीत और उलट-पुलट हो जायेगा। ऊँच नीच और नीच-ऊँच हो जायेंगे। लोग हड्डी जड़ी हुई दीवारों की तो पूजा करेंगे और देवविग्रहों को त्याग देंगे। युगान्तकाल में शूद्र द्विजातियों की सेवा नहीं करेंगे। वह समय आने पर महर्षियों के आश्रमों में, ब्राह्मणों के घरों में, देवस्थानों में, चैत्यवृक्षों के आस-पास और नागालयों में जो भूमि होगी, उस पर हड्डी जड़ी हुई दीवारों का चिह्न तो उपलब्ध होगा; परंतु देवमन्दिर उस भूमि की शोभा नहीं बढ़ायेंगे। यह सब युगान्त का लक्षण समझना चाहिये। जब सब मानव सदा भयंकर स्वभाव वाले, धर्महीन, मांसखोर और शराबी हो जायेंगे, उस समय युग का संहार होगा। महाराज! जब फूल-में-फूल फल-में-फल लगने लगेगा, उस समय युग का संहार होगा। युगान्तकाल में मेघ असमय में ही वर्षा करेंगे। मनुष्यों की सारी क्रियाएं क्रम से विपरीत होंगी। शूद्र ब्राह्मणों के साथ विरोध करेंगे। सारी पृथ्वी थोड़े ही समय में म्लेच्छों से भर जायेगी। ब्राह्मण लोग करों के भार से भयभीत होकर दसों दिशाओं की शरण लेंगे। सारे जनपद एक-जैसे आचार और वेशभूषा बना लेंगे। लोग बेगार लेने वालों और कर लेने वालों से पीड़ित हो एकान्त आश्रमों में चले जायेंगे और फल-मूल खाकर जीवन निर्वाह करेंगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 74-97 का हिन्दी अनुवाद)

      इस तरह उथल-पुथल मच जाने पर संसार में कोई मर्यादा नहीं रह जायेगी। शिष्य गुरु के उपदेश पर नहीं चलेंगे। वे उल्टे उनका अहित करेंगे। अपने कुल का आचार्य भी यदि निर्धन हो तो उसे निरन्तर शिष्यों की डाँट-फटकार सुननी पड़ेगी। मित्र, सम्बन्धी या भाई-बन्धु धन के लालच से ही अपने पास रहेंगे। युगान्तकाल आने पर समस्त प्राणियों का अभाव हो जायेगा। सारी दिशाएं प्रज्वलित हो उठेंगी और नक्षत्रों की प्रभा विलुप्त हो जायेगी। ग्रह उल्टी गति से चलने लगेंगे। हवा इतनी जोर से चलेगी कि लोग व्याकुल हो उठेंगे। महान् भय की सूचना देने वाले उल्कापात बार-बार होते रहेंगे। एक सूर्य तो है ही, छः और उदय होंगे और सातों एक साथ तपेंगे। सब ओर बिजली की भयानक गड़गड़ाहट होगी, सब दिशाओं में आग लगेगी। उदय और अस्त के समय सूर्य राहु से ग्रस्त दिखायी देगा। भगवान् इन्द्र समय पर वर्षा नहीं करेंगे। युगान्तकाल उपस्थित होने पर बोयी हुई खेती उगेगी ही नहीं; स्त्रियां कठोर स्वभाव वाली और सदा कटुवादिनी होंगी। उन्हें रोना ही अधिक पसंद होगा। वे पति की आज्ञा में नहीं रहेंगी। युगान्तकाल में पुत्र माता-पिता की हत्या करेंगे। नारियां अपने बेटों से मिलकर पति की हत्या करा देंगी।

     महाराज! अमावस्या के बिना ही राहु सूर्य पर ग्रहण लगायेगा। युगान्तकाल आने पर सब ओर आग भी जल उठेगी। उस समय पथियों को मांगने पर कहीं अन्न, जल या ठहरने के लिये स्थान नहीं मिलेगा। वे सब ओर से कोरा जवाब पाकर निराश हो सड़कों पर ही सो रहेंगे। युगान्तकाल उपस्थित होने पर बिजली की कड़क के समान कड़वी बोली बोलने वाले कौवे, हाथी, शकुन, पशु और पक्षी आदि बड़ी कठोर वाणी बोलेंगे। उस समय के मनुष्य अपने मित्रों, सम्बन्धियों, सेवकों तथा कुटुम्बीजनों को भी अकारण त्याग देंगे। प्रायः लोग स्वदेश छोड़कर दूसरे देशों, दिशाओं, नगरों और गांवों का आश्रय लेंगे और 'हा तात! हा पुत्र!' इत्यादि रूप से अत्यन्त दुःखद वाणी में एक-दूसरे को पुकारते हुए इस पृथ्वी पर विचरेंगे। युगान्तकाल में संसार की यही दशा होगी। उस समय एक ही साथ समस्त लोकों का भयंकर संहार होगा। तदन्तर कालान्तर में सत्ययुग का आरम्भ होगा और फिर क्रमशः ब्राह्मण आदि वर्ण प्रकट होकर अपने प्रभाव का विस्तार करेंगे। उस समय लोक के अभ्युदय के लिये पुनः अनायास दैव अनुकूल होगा।

     जब सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति एक साथ पुष्य नक्षत्र एवं तदनुरूप एक राशि कर्क में पदार्पण करेंगे, तब सत्ययुग का प्रारम्भ होगा। उस समय मेघ समय पर वर्षा करेगा। नक्षत्र शुभ एवं तेजस्वी हो जायेंगे। ग्रह प्रदक्षिणा भाव से अनुकूल गति का आश्रय ले अपने पथ पर अग्रसर होंगे। उस समय सबका मंगल होगा। देश में सुकाल आ जायेगा। आरोग्य का विस्तार होगा तथा रोग-व्याधि का नाम भी नहीं रहेगा। राजन्! युगान्त के समय काल की प्रेरणा से सम्भल नामक ग्राम में किसी ब्राह्मण के मंगलमय गृह में एक महान् शक्तिशाली बालक प्रकट होगा, जिसका नाम होगा विष्णुयशा कल्कि। वह महान् बुद्धि एवं पराक्रम से सम्पन्न महात्मा, सदाचारी तथा प्रजावर्ग का हितैषी होगा। (वह बालक ही भगवान् का कल्की अवतार कहलायेगा)। मन के द्वारा चिन्तन करते ही उसके पास इच्छानुसार वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और कवच उपस्थित हो जायेंगे। वह धर्म-विजयी चक्रवर्ती राजा होगा। वह उदारबुद्धि, तेजस्वी ब्राह्मण, दुःख से व्याप्त हुए इस जगत् को आनन्द प्रदान करेगा। कलियुग का अन्त करने के लिये ही उसका प्रादुर्भाव होगा। वही सम्पूर्ण कलियुग का संहार करके नूतन सत्ययुग का प्रवर्तक होगा। वह ब्राह्मणों से घिरा हुआ सर्वत्र विचरेगा और भूमण्डल में सर्वत्र फैले हुए नीच स्वभाव वाले सम्पूर्ण म्लेच्छों का संहार कर डालेगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में भविष्य वर्णंन विषयक एक सौ नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें