सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अजगर पर्व)
एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर द्वारा अपने प्रश्नों का उचित उत्तर पाकर संतुष्ट हुए सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ देना तथा युधिष्ठिर के साथ वार्तालाप करने के प्रभाव से सर्पयोनि से मुक्त होकर स्वर्ग जाना"
युधिष्ठिर ने पूछा ;- तुम सम्पूर्ण वेद-वेदांग के पारगामी हो। लोक में तुम्हारी ऐसी ही ख्याति है। बताओ, किस कर्म के आचरण से सर्वोत्तम गति प्राप्त हो सकती है?
सर्प ने कहा ;- भारत! इस विषय में मेरा विचार यह है कि मनुष्य सत्पात्र को दान देने से, सत्य और प्रिय वचन बोलने से तथा अहिंसा-धर्म में तत्पर रहने से स्वर्ग (उत्तम गति) पा सकता है।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- नागराज! दान और सत्य में किसका पलड़ा भारी देखा जाता है? अहिंसा और प्रियभाषण-इनमें से किसका महत्त्व अधिक है और किसका कम? यह बताओ।
सर्प ने कहा ;- महाराज! दान, सत्य-तत्त्व, अहिंसा और प्रियभाषण-इनकी गुरुता और लघुता कार्य की महत्ता के अनुसार देखी जाती है। राजेन्द्र! किसी दान से सत्य का ही महत्त्व बढ़ जाता है और कोई-कोई दान ही सत्यभाषण से अधिक महत्त्व रखता है। महान् धनुर्धर भूपाल! उसी प्रकार कहीं तो प्रिय वचन की अपेक्षा अहिंसा का गौरव अधिक देखा जाता है और कहीं अहिंसा से भी बढ़कर प्रियभाषण का महत्त्व दृष्टिगोचर होता है। राजन्! इस प्रकार इनके गौरव-लाघव का निश्चय कार्य की अपेक्षा से ही होता है। अब और जो कुछ भी प्रश्न तुम्हें अभीष्ट हो, वह पूछो। मैं यथासम्भव उतर देता हूँ।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- सर्प! मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति और कर्मों का निश्चयरूप से मिलने वाला फल किस प्रकार देखने में आता है एवं देहाभिमान से रहित पुरुष की गति किस प्रकार होती है? इन विषयों को मुझसे भलीभाँति कहिये।
सर्प ने कहा ;- राजन्! अपने-अपने कर्मों के अनुसार जीवों की तीन प्रकार की गतियां देखी जाती हैं- स्वर्गलोक की प्राप्ति, मनुष्य योनि में जन्म लेना और पशु-पक्षी आदि योनियों में (तथा नरकों) उत्पन्न होना। बस, ये तीन ही योनियां हैं। इनमें से जो जीव मनुष्य-योनि में उत्पन्न होता है, पर यदि आलस्य और प्रमाद का त्याग करके अहिंसा का पालन करते हुए दान आदि शुभ कर्म करता है, तो उसे इन पुण्य कर्मों के कारण स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। राजेन्द्र! इसके विपरीत कारण उपस्थित होने पर मनुष्ययोनि में तथा पशु-पक्षियों आदि की योनि में जन्म लेना पड़ता है। तात्! पशु-पक्षी आदि योनियों में जन्म लेने का जो विशेष करण है, उसे भी यहाँ बतलाया जाता है। जो काम, क्रोध, लोभ और हिंसा में तत्पर होकर मानवता से भ्रष्ट हो जाता है, अपनी मनुष्य होने की योग्यता को भी खो देता है, वही पशु-पक्षी आदि योनियों में जन्म पाता है। फिर मनुष्य जन्म की प्राप्ति के लिये उसका तिर्यकयोनि से उद्धार होता है। गौओं तथा अश्वों को भी उस योनि से छुटकारा मिलकर देवत्व की प्राप्ति होती है, यह बात देखी जाती है।
तात! प्रयोजनवश वही यह जीव इन्हीं तीन गतियों में भटकता रहता है। कर्मफल को चाहने वाला देहाभिमानी सुख का उपभोग करता है। किंतु तात! जो कर्मफल में आसक्त नहीं है, वह प्रजाजनों के पालन की भावना वाला द्विज अपने आत्मा को नित्य परब्रह्म परमात्मा में भलीभाँति स्थित कर देता है।
युधिष्ठिर ने पूछा ;- सर्प! शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-इनका आधार क्या है? आप शांतचित्त होकर इसे यथार्थ रूप से बताइये। महामते! पन्नगश्रेष्ठ! मन विषयों का एक ही साथ ग्रहण क्यों नहीं करता? इन उपर्युक्त सब बातों को बताइये।
सर्प ने कहा ;- आयुष्मन्! स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का आश्रय लेने वाला और इन्द्रियों से युक्त जो आत्मा नामक द्रव्य है, वही विधिपूर्वक नाना प्रकार के भोगों को भोगता है। भरतश्रेष्ठ! ज्ञान, बुद्धि और मन-ये ही शरीर में उसके करण समझो। तात! पाँचों विषयों के आधारभूत पंचभूतों से बने हुए शरीर में स्थित जीवात्मा इस शरीर में स्थित हुआ ही मन के द्वारा क्रमशः इन पांचों विषयों का उपभोग करता है।
(महाभारत (वन पर्व) एकाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद)
नरश्रेष्ठ! विषयों के उपभोग के समय (बुद्धि के द्वारा) इस जीवात्मा का मन किसी एक ही विषय में नियंत्रित कर दिया जाता है। इसीलिये उसके द्वारा एक ही साथ अनेक विषयों का ग्रहण सम्भव नहीं हो पाता है। पुरुषसिंह! वही आत्मा दोनों भौंहों के बीच स्थित होकर उत्तम-अधम बुद्धि को भिन्न-भिन्न द्रव्यों की ओर प्रेरित करता है। बुद्धि की क्रिया के उत्तर-काल में भी विद्वान् पुरुषों को एक अनुभूति दिखायी देती है। नृपश्रेष्ठ! यही क्षेत्रज्ञ आत्मा को प्रकाशित करने वाली विधि है।
युधिष्ठिर ने कहा ;- सर्प! मुझे मन और बुद्धि का उत्तम लक्षण बतलाओ। अध्यात्म-शास्त्र के विद्वानों के लिये इनको जानना परम कर्तव्य कहा गया है। तात! आत्मा के भोग और मोक्ष का सम्पादन करना ही बुद्धि का प्रयोजन है तथा आत्मा का आश्रय लेकर ही बुद्धि विषयों की ओर जाती है। इस कारण वह आत्मा का अनुसरण करने वाली मानी जाती है। वह भी आत्मा की चेतनशक्ति के सम्बन्ध से ही है तथा बुद्धि के गुणविधान से अर्थात् उसकी ज्ञानशक्ति के प्रभाव से ही मन उस गुण से सम्पन्न होता है यानि इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है। अतः बुद्धि तो कार्य के आरम्भ से प्रकट होती है और मन सदैव प्रकट होता है। (कार्य को देखकर ही कारण की सत्ता व्यक्त होती है-यह न्याय है)। तात! मन और बुद्धि की यह विशेषता ही उन दोनों का अन्तर है। तुम भी तो इस विषय के अच्छे ज्ञाता हो, अतः बताओ, तुम्हारी कैसी मान्यता है?
युधिष्ठिर बोले ;- बुद्धिमानों में श्रेष्ठ! तुम्हारी यह बुद्धि बड़ी उत्तम है। तुम तो जानने योग्य वस्तु को जान चुके हो। फिर मुझसे क्यों पूछते हो? तुम तो सर्वज्ञ तथा स्वर्ग के निवासी थे। तुमने बड़े अद्भुत कर्म किये थे। भला, तुम्हें कैसे मोह हो गया? (अर्थात ब्राह्मणों का अपमान कैसे कर बैठे?) इस बात को लेकर मेरे मन में बड़ा संशय हो रहा है।
सर्प ने कहा ;- राजन्! यह धन-सम्पत्ति बड़े-बड़े बुद्धिमान ओर शूरवीर मनुष्य को भी मोह में डाल देती है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि सुख-विलास में डूबे हुए सभी लोग मोहित हो जाते हैं। युधिष्ठिर! इसी तरह मैं भी ऐश्वर्य के मोह से मदोन्मत्त हो गया और मुझे उस समय चेत हुआ, जबकि मेरा अधःपतन हो चुका। अतः अब तुम्हें सचेत कर रहा हूँ। परंतप महाराज! आज तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य किया। इस समय तुम-जैसे श्रेष्ठ पुरुष से वार्तालाप करने के कारण मेरा वह अत्यन्त कष्टदायक शाप निवृत्त हो गया। पूर्वकाल में (जब मैं स्वर्ग का राजा था) दिव्य विमान पर चढ़कर आकाश में विचरता रहता था। उस समय अभिमान से मत्त होकर मैं दूसरे किसी को कुछ नहीं समझता था। ब्रह्मर्षि, देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग आदि, जो भी इस त्रिलोकी में निवास करने वाले प्राणी थे, वे सब मुझे कर देते थे।
राजन्! उन दिनों मैं जिस प्राणी की ओर आंख उठाकर देखता था, उसका तेज तत्काल हर लेता था। यह थी मेरी दृष्टि की शक्ति। हजारों ब्रह्मर्षि मेरी पालकी ढोते थे। महाराज! मेरे इसी अत्याचार ने मुझे स्वर्ग की राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट कर दिया। स्वर्ग में मुनिवर अगस्त्य जब मेरी पालकी ढो रहे थे, तब मैंने उन्हें लात मारी, इसलिये उन्होंने मुझे ऐसा कहा कि 'तू निश्चय ही सर्प हो जा'। उनके इतना कहते ही मेरे सभी राजचिह्न लुप्त हो गये। मैं (सर्प होकर) उस उत्तम विमान से नीचे गिरा। उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि मैं सर्प होकर नीचे मुंह किये गिर रहा हूं; तब मैंने शाप का अन्त होने के उद्देश्य से उन ब्रह्मर्षि से याचना करते हुए कहा।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 39-49 का हिन्दी अनुवाद)
सर्प ने कहा ;- भगवन्! मैं प्रमादवश विवेकशून्य हो गया था। इसीलिये मुझसे यह घोर अपराध हुआ है। आप कृपया क्षमा करें। तब मुझे गिरते देख वे महर्षि दया से द्रवित होकर बोले,
महर्षि अगस्त्य बोले ;- 'राजन्! धर्मराज युधिष्ठिर तुम्हें इस शाप से मुक्त करेंगे। महाराज! जब तुम्हारे इस अभिमान और घोर पाप का फल क्षीण हो जायेगा, तब तुम्हें फिर तुम्हारे पुण्यों का फल प्राप्त होगा'।
उस समय मुझे उनकी तपस्या का महान् बल देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। राजन्! उनका ब्रह्म-ज्ञान और ब्राह्मणत्व देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ। इसीलिये इस विषय में मैंने तुमसे पहले प्रश्न किया। राजन्! सत्य, इन्द्रियसंयम, तपस्या, दान, अहिंसा और धर्मपरायण -ये सद्गुण ही सदा मनुष्यों को सिद्धि की प्राप्ति कराने वाले हैं, जाति और कुल नहीं। ये रहे तुम्हारे भाई महाबली भीमसेन, जो सर्वथा सकुशल हैं। महाराज! तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं पुनः स्वर्गलोक को जाऊँगा। पुरुषसिंह! पार्थ! तुम्हारे शुभागमन से ही यह पुण्यकाल प्राप्त हुआ है, इस कारण तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य सिद्ध कर दिया।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर उसी मुहूर्त में एक इच्छानुसार चलने वाला उत्तम विमान बड़े जोर की उड़ान के साथ वहाँ आ पहुँचा। युधिष्ठिर से पूर्वोक्त बातें कहकर राजा नहुष ने अजगर
का शरीर त्याग दिया और दिव्य शरीर धारण करके वे पुनः स्वर्गलोक को चले गये। धर्मात्मा युधिष्ठिर भी भाई भीमसेन से मिलकर उनके और धौम्य मुनि के साथ फिर अपने आश्रम पर लौट आये।
तब धर्मराज युधिष्ठिर ने वहाँ एकत्र हुए सब ब्राह्मणों को भीमसेन के सर्प के चंगुल से छूटने का वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया। राजन्! यह सुनकर सब ब्राह्मण, उनके तीनों भाई और यशस्विनी द्रौपदी सब-के-सब बड़े लज्जित हुए। तब पाण्डवों के हित की इच्छा से वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण भीमसेन को उनके दुःसाहस की निन्दा करते हुए बोले- 'अब कभी ऐसा न करना'। पाण्डव लोग महाबली भीमसेन को भय से मुक्त हुआ देख हर्ष से उल्लसित हो उठे और प्रसन्नतापूर्वक वहाँ विचरने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अजगरपर्व में भीमसेन के सर्प के भय से छूटने से सम्बन्ध रखने वाला एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"वर्षा और शरद्-ऋतु का वर्णन एवं युधिष्ठिर आदि का पुनः द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति सूचित करने वाला वर्षाकाल आया, जो समस्त प्राणियों को सुख पहुँचाने वाला था। पाण्डव अभी द्वैतवन में ही थे, उसी समय वर्षा ऋतु आ गयी। तब काले-काले मेघ जोर-जोर से गर्जना करते हुए आकाश और दिशाओं में छा गये और दिन-रात निरन्तर जल की वर्षा करने लगे। वे वर्षा में तम्बू के समान जान पड़ते थे। उनकी संख्या सैकड़ों और हजारों तक पहुँच गयी थी। उन्होंने सूर्य के प्रभापंच को तो ढंक दिया था और विद्युत की निर्मल प्रभा धारण कर ली थी। धरती पर घास जम गयी। मतवाले डांस और सर्प आदि विचरने लगे। पृथ्वी जल से अभिषिक्त होकर शांत और सबके लिये मनोरम हो गयी। सब ओर इतना पानी भर गया कि ऊँचा-नीचा, समतल, नदी अथवा पेड़-पौधे आदि का पता नहीं चलता था। वर्षा ऋतु की नदियां बड़े वेग से छूटने वाले शीघ्रगामी बाणों की भाँति सनसनाती हुई चलती थीं। उनके जल में हिलोरें उठती रहती थीं और वे कितने ही काननों की शोभा बढ़ाती थी।
वन के भीतर वर्षा की बौछारों से भीगते और बोलते हुए वराह, मृग और पक्षियों की भाँति-भाँति की बोलियां सुनायी देती थीं। पपीहा और मोर नर-कोकिलों के साथ आनन्दोन्मत्त होकर इधर-उधर उड़ने लगे और मेढ़क भी घमण्डों में आकर इधर-उधर कूदते और टर्र-टर्र करते थे। पाण्डव अभी मरु-प्रदेश में ही विचरते थे, तभी मेघों की गर्जना से गूंजती तथा अनेक प्रकार के रूप-रंग लिये प्रकट हुई मंगलमयी वर्षा ऋतु भी बती गयी। तत्पश्चात् आनन्दमयी शरद्-ऋतु का शुभागमन हुआ। क्रौंच और हंस आदि पक्षी चारों ओर विचरने लगे। वनों में और पर्वतीय शिखरों पर कास, कुश आदि बहुत बढ़ गये थे। नदियों का जल स्वच्छ हो गया। आकाश निर्मल होने से नक्षत्रों का आलोक और उज्ज्वल हो उठा। सब ओर मृग और पक्षी किलोल करने लगे। महात्मा पाण्डवों के लिये यह शरद्-ऋतु अत्यन्त सुखदायिनी थी। उस समय की रातें धूलरहित एवं निर्मल दिखायी देती थीं। बादलों के समान उनमें शीतलता थी।
ग्रहों और नक्षत्रों के समुदाय तथा चन्द्रमा उनकी शोभा बढ़ाते हैं। पाण्डवों ने देखा, नदियां और पोखरियां कुमुदों तथा कमल-पुष्पों से अलंकृत हैं। उनमें शीतल जल भरा हुआ है और वे सबके लिये सुखदायिनी प्रतीत होती हैं। पावन तीर्थों से विभूषित सरस्वती नदी का तट आकाश के समान निर्मल दिखायी देता था। उसके दोनों किनारे बेंत की लहलहाती हुई लताओं से आच्छादित थे। वहाँ विचरते हुए पाण्डवों को बड़ा आनन्द मिलता था। वीर पाण्डव सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले थे। उन्होंने स्वच्छ जल से भरी हुई कल्याणमयी सरस्वती का दर्शन करके बड़े आनन्द का अनुभव किया। जनमेजय! उनके वहीं रहते समय पर्व की संधिवेला में कार्तिक की शरत्-पूर्णिमा की परम पुण्यमयी रात्रि आयी। उस समय भरतश्रेष्ठ पाण्डवों ने महान् सत्त्वगुण से सम्पन्न, पुण्यात्मा, तपस्वी मुनियों के साथ स्नान-दानादि के द्वारा उस उत्तम योग को पूर्णतः सफल बनाया। फिर कृष्ण पक्ष का उदय होने पर पाण्डव लोग धौम्य मुनि, सारथिगण तथा पाकशालाध्यक्ष के साथ काम्यकवन की ओर चल दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में काम्यकवन गमन विषयक एक सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ तिरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"काम्यकवन में पाण्डवों के पास भगवान् श्रीकृष्ण, मुनिवर मार्कण्डेय तथा नारद जी का आगमन एवं युधिष्ठिर के पूछने पर मार्कण्डेय जी के द्वारा कर्मफल-भोग का विवेचन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- कुरुनन्दन जनमेजय! काम्यकवन में पहुँचने पर वहाँ के मुनियों ने युधिष्ठिर आदि पाण्डवों का यथोचित आदर-सत्कार किया। फिर वे द्रौपदी के साथ वहाँ रहने लगे। जब वे विश्वासपात्र पाण्डव निवास करने लगे, तब बहुत-से ब्राह्मणों ने आकर सब ओर से उन्हें घेर लिया (और उन्हीं के साथ रहने लगे)। तदनन्तर एक दिन एक ब्राह्मण आया। उसने यह सूचना दी कि सबको वश में
रखने वाले उदारबुद्धि महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण, जो अर्जुन के प्रिय सखा हैं, अभी यहाँ पधारेंगे। कुरुश्रेष्ठ पाण्डवो! आप लोगों का यहाँ आना भगवान् श्रीकृष्ण को ज्ञात हो चुका है। वे सदा आप लोगों को देखने के लिये उत्सुक रहते हैं और आपके कल्याण की बात सोचते रहते हैं। एक शुभ समाचार और है, चिरंजीवी महातपस्वी मार्कण्डेय मुनि, जो स्वाध्याय और तपस्या में संलग्न रहा करते हैं, शीघ्र ही आप लोगों से मिलेंगे।
ब्राह्मण इस प्रकारकी बातें कह ही रहा था कि शैब्य और सुग्रीव नामक अश्वों से जुते हुए रथ द्वारा रथियों में श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण आते हुए दिखायी दिये। जैसे शची के साथ इन्द्र आये हों, उसी प्रकार सत्यभामा के साथ देवकीनन्दन श्रीहरि उन कुरुकुलशिरोमणि पाण्डवों से मिलने वहाँ आये। परम बुद्धिमान् श्रीकृष्ण ने रथ से उतरकर बड़ी प्रसन्नता के साथ धर्मराज युधिष्ठिर तथा बलवानों में श्रेष्ठ भीम को विधिपूर्वक प्रणाम किया। फिर धौम्य मुनि का पूजन किया। तत्पश्चात् नकुल-सहदेव ने आकर उनके चरणों में मस्तक झुकाये। इसके बाद निद्राविजयी अर्जुन को हृदय से लगाकर श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को भलीभाँति सान्त्वना दी। परमप्रिय वीरवर अर्जुन को दीर्घकाल के बाद आया देख शत्रुदमन श्रीकृष्ण ने उन्हें बार-बार हृदय से लगाया। इसी प्रकार श्रीकृष्ण की प्यारी रानी सत्यभामा ने भी पाण्डवों की प्रियपत्नी पांचाली का आलिंगन किया। तदनन्तर पत्नी और पुरोहित सहित समस्त पाण्डवों ने कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन किया और सब-के-सब उन्हें घेरकर बैठ गये। सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण असुरों को भयभीत करने वाले कुन्तीनन्दन अर्जुन से मिलकर उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे परम महात्मा साक्षात् भगवान् भूतनाथ शंकर कार्तिकेय से मिलकर शोभा पाते हैं। तदनन्तर किरीटधारी अर्जुन ने गद के बड़े भाई भगवान् श्रीकृष्ण को वनवास के सारे वृत्तान्त यथार्थरूप से बताकर पुनः उनसे पूछा,,
अर्जुन बोले ;- 'सुभद्रा और अभिमन्यु कैसे हैं?'
भगवान् मधुसूदन ने अर्जुन, द्रौपदी तथा पुरोहित धौम्य का सम्मान करके सबके साथ बैठकर राजा युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए कहा,
श्री कृष्ण बोले ;- 'राजन्! पाण्डुनन्दन! राज्यलाभ की अपेक्षा धर्म महान् है। धर्म की वृद्धि के लिये तप को ही प्रधान साधन बताया गया है। आप सत्य और सरलता आदि सद्गुणों के साथ स्वधर्म का पालन करते हैं, अतः आपने इस लोक और परलोक दोनों को जीत लिया है। आपने सबसे पहले ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करते हुए सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन किया है। तत्पश्चात् सम्पूर्ण धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की है। इसके बाद क्षत्रिय-धर्म के अनुसार धन का उपार्जन करके समस्त प्राचीन यज्ञों का अनुष्ठान किया है।
नरेश्वर! जिसमें गंवारों की आसक्ति हुआ करती है, उसी स्त्री-सम्बन्धी भोग में आपका अनुराग नहीं है। आप कामनाओं से प्रेरित होकर कुछ नहीं करते हैं और धन के लोभ से धर्म का पालन नहीं करते हैं। इसी प्रभाव से धर्मराज कहलाते हैं। राजन्! आपने राज्य, धन और भोगों को पाकर भी सदा दान, सत्य, तप, श्रद्धा, बुद्धि, क्षमा तथा घृति-इन सद्गुणों से ही प्रेम किया है। पाण्डुनन्दन! कुरुजांगल देश की जनता ने द्यूतसभा में द्रौपदी को जिस विवश-अवस्था में देखा था और उस समय उसके साथ जो पापपूर्ण बर्ताव किया गया था, उसे आपके सिवा दूसरा कौन सह सकता था?
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद)
'धर्मराज! अब शीघ्र ही आपके सारे मनोरथ पूर्ण होंगे और आप राजसिंहासन पर आरूढ़ होकर न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करेंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। यदि आपकी वनवास विषयक प्रतिज्ञा पूरी हो जाये, तो हम सब लोग आपके विरोधी कौरवों को दण्ड देने के लिये उद्यत हैं'। तदनन्तर युदकुलसिंह भगवान् श्रीकृष्ण ने धौम्य, युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी की ओर देखते हुए कहा,,
श्री कृष्ण बोले ;- 'सौभाग्य की बात है कि आप लोगों द्वारा की हुई मंगलकामना से किरीटधारी अर्जुन अस्त्रविद्या के पारंगत विद्वान् होकर सानन्द लौट आये हैं'।
इसके बाद दशार्हकुल के स्वामी श्रीकृष्ण, जो अपने सुहृदों से घिरे हुए थे, यज्ञसेनकुमारी द्रौपदी से बोले,,
श्री कृष्ण फिर बोले ;- 'कृष्णे! अर्जुन से मिलकर तेरी सारी कामना सफल हो गयी, यह बड़े आनन्द की बात है। तेरे पुत्र बड़े सुशील हैं। धनुर्वेद में उनका विशेष अनुराग है। वे अपने सुहृदों सहित सत्पुरुषों द्वारा आचरित सदाचार और धर्म का पालन करते हैं। कृष्णे! तुम्हारे पिता और भाइयों ने राज्य तथा राजकीय उपकरणों-यानवाहन आदि की सुविधा दिखाकर अनेक बार आमंत्रित किया, तो भी तुम्हारे बच्चे अपने नाना यज्ञसेन और मामा धृष्टद्युम्न आदि के घरों में रहना पसंद नहीं करते हैं-वहाँ उनका मन नहीं लगता है। कृष्णे! उनका धनुर्वेद में विशेष प्रेम है। वे आनर्त देश में ही कुशलपूर्वक जाकर वृष्णिपुरी द्वारिका में रहते हैं। वहाँ रहकर उन्हें देवताओं के लोक में भी जाने की इच्छा नहीं होती। उन बालकों को तुम सदाचार की जैसी शिक्षा दे सकती हो, आर्या कुन्ती भी उन्हें जैसा सदाचार सिखा सकती हैं, वैसी शिक्षा देने की योग्यता सुभद्रा में भी है। वह बड़ी सावधानी के साथ वैसी ही शिक्षा देकर उन सब बालकों को सदाचार में प्रतिष्ठित करती है।
कृष्णे! रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न जिस प्रकार अनिरुद्ध, अभिमन्य, सुनीथ और भानु को धनुर्वेद की शिक्षा देते हैं, उसी प्रकार वे तुम्हारे पुत्रों के भी शिक्षक और संरक्षक हैं। शिक्षा देने में निपुण और आलस्यरहित कुमार अभिमन्यु तुम्हारे शूरवीर पुत्रों को गदा और ढाल-तलवार के दांव-पेंच सिखाते हैं। अन्यान्य अस्त्रों की भी शिक्षा देते हैं। साथ ही रथ चलाने और घोड़े हांकने की कला भी सिखाते हैं। वे सदा उनकी शिक्षा-दीक्षा में संलग्न रहते हैं। अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग की उत्तम शिक्षा दे उनके लिये उन्होंने विधिपूर्वक नाना प्रकार के शस्त्र भी दे रखे हैं। तुम्हारे पुत्रों और अभिमन्यु के पराक्रम को देखकर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न बहुत संतुष्ट रहते हैं। याज्ञसेनी! तुम्हारे पुत्र जब नगर की शोभा देखने के लिये घूमने निकलते हैं। उस समय उनमें से प्रत्येक के लिये रथ, घोड़े, हाथी और पालकी आदि सवारियां पीछे-पीछे जाती हैं।'
तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- 'राजन्! दशार्ह, कुकूर और अंधक वंश के योद्धा जहाँ आप चाहें, वहीं आपकी आज्ञा का पालन करते हुए खड़े रह सकते हैं। नरेन्द्र! जिसके धनुष का वेग वायु-वेग के समान है, हल धारण करने वाले बलराम जी जिसके सेनापति हैं, वह सवारों सहित हाथी, घोडे़, रथ और पैदल सैनिकों से भरी हुई मथुरा-प्रांत वाली गोपों की चतुरंगिणी सेना सदा युद्ध के लिये संनद्ध हो आपकी अभीष्ट-सिद्धि के लिये निरन्तर तत्पर रहती है। पाण्डुनन्दन! अब आप पापात्माओं के शिरोमणि धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन को उसके सुहृदों और सम्बन्धियों सहित उसी मार्ग पर भेज दीजिये, जहाँ भौमासुर और शाल्व गये हैं। महाराज! आप चाहें तो सभा में जो प्रतिज्ञा आपने की है, उसी के पालन में लगे रहें। यदि आपकी आज्ञा हो तो युदवंशी योद्धा आपके समस्त शत्रुओं को मार डालें और हस्तिनापुर नगर आपके शुभागमन की प्रतीक्षा करता रहे। राजन्! आप क्रोध, दीनता और दुःख से दूर रहकर जहां-जहाँ आपकी इच्छा हो वहां-वहाँ घूम लीजिये। तत्पश्चात् शोकरहित हो अपनी प्रसिद्ध और उत्तम राजधानी हस्तिनापुर में प्रवेश कीजियेगा।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 38-58 का हिन्दी अनुवाद)
पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना मत अच्छी तरह व्यक्त कर दिया था। उसे जानकर महात्मा धर्मराज ने भगवान् केशव की भूरि-भूरि प्रशंसा की और हाथ जोड़कर उनकी ओर देखते हुए कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- केशव! इसमें संदेह नहीं कि आप ही पाण्डवों के अवलम्ब हैं। कुन्ती के हम सभी पुत्र आपकी ही शरण में हैं। जब समय आयेगा, तब आप पुनः अपने इस कथन के अनुसार सब कार्य करेंगे, इसमें संदेह नहीं है। भवगन्! हमने अपनी प्रतीक्षा के अनुसार बारह वर्षों का सारा समय निर्जन वनों में घूमकर बिता दिया है। अब अज्ञातवास की अवधि भी विधिपूर्वक पूर्ण कर लेने पर हम समस्त पाण्डव आपकी आज्ञा के अधीन हो जायेंगे। नाथ! आपकी भी बुद्धि सदा ऐसी ही बनी रहे। ये पाण्डव सदा सत्य के पालन में संलग्न रहे हैं। प्रभो! दान धर्म से युक्त हम सभी कुन्तीपुत्र सेवक, परिजन, स्त्री, पुत्र तथा बन्धु-बान्धवों सहित केवल आपकी ही शरण में हैं'।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भारत! भगवान् श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर जब इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी समय अनेक सहस्र वर्षों की अवस्था वाले तपोवृद्ध धर्मात्मा महातपस्वी मार्कण्डेय मुनि आते दिखायी दिये। वे रूप और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न तथा अजर-अमर थे। वैसे बड़े बूढ़े होने पर भी वे ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो पच्चीस वर्ष की अवस्था के तरुण हों। हजारों वर्षों की अवस्था वाले उन वृद्ध महर्षि के पधारने पर पाण्डवों सहित भगवान् श्रीकृष्ण तथा समस्त ब्राह्मणों ने उनका पूजन किया। पूजित होने पर जब वे अत्यन्त विश्वास करने योग्य मुनिश्रेष्ठ आसन पर विराजमान हो गये, तब वहाँ आये हुए ब्राह्मणों और पाण्डवों की सम्मति से भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा।
श्रीकृष्ण बोले ;- मार्कण्डेय जी! आपके उपदेश सुनने की इच्छा से यहाँ पाण्डवों के साथ-साथ बहुत-से ब्राह्मण भी पधारे हुए हैं। द्रौपदी, सत्यभामा तथा मैं, सब लोग आपकी उत्तम वाणी का रसास्वादन करना चाहते हैं। आप प्राचीन काल के नरेशों, नारियों तथा महर्षि की पुरातन पुण्य कथाएं सुनाइये और हम लोगों से सनातन सदाचार का वर्णन कीजिये।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! वे सब लोग वहाँ बैठे ही थे कि विशुद्ध अन्तःकरण वाले देवर्षि नारद भी पाण्डवों से मिलने के लिये वहाँ आये। तब उन सभी श्रेष्ठ मनीषी पुरुषों ने और उन महात्मा
नारद जी को भी पाद्य और व्यर्थ आदि देकर उनका यथायोग्य सत्कार किया। तब देवर्षि नारद ने उन सबको कथा सुनने के लिये अवसर निकालकर तैयार हुआ जान वक्ता मार्कण्डेय मुनि की उस कथा सुनने के विचार का अनुमोदन किया। उस समय उपर्युक्त अवसर के ज्ञाता सनातन भगवान् श्रीकृष्ण ने मार्कण्डेय जी से मुसकराते हुए कहा,,
श्री कृष्ण बोले ;- 'महर्षे! आप पाण्डवों से जो कुछ कहना चाहते थे, वह कहिये'। उनके ऐसा कहने पर महातपस्वी मार्कण्डेय मुनि ने कहा,
मार्कण्डेय मुनि बोले ;- 'पाण्डवो! तुम सब लोग क्षणभर के लिये चुप हो जाओ; क्योंकि मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है'। उनके इस प्रकार आज्ञा देने पर उन ब्राह्मणों सहित पाण्डव मध्याह्न काल के सूर्य के भाँति तेजस्वी उन महामुनि को देखते हुए उनके वक्तव्य को सुनने के लिये चुप हो गये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! महामुनि मार्कण्डेय जी को बोलने के लिये उद्यत देख कुरुराज पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ने कथा प्रारम्भ करने के लिये इस प्रकार प्रेरित किया,
युधिष्ठिर बोले ;- 'महामुने! आप देवताओं, दैत्यों, ऋषियों, महात्माओं तथा समस्त राजर्षियों के चरित्रों को जानने वाले प्राचीन महर्षि हैं। हमारे मन में दीर्घकाल से यह इच्छा थी कि हमें आपकी सेवा और सत्संग का शुभ अवसर मिले। ये देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण भी हमसे मिलने के लिये यहाँ पधारे हैं। ब्राह्मन्! जब मैं अपने को सुख से वंचित पाता हूँ और दुराचारी धृतराष्टपुत्रों को सब प्रकार से समृद्धिशाली होते देखता हूं, तब स्वभावतः ही मेरे मन में एक विचार उठता है। मैं सोचता हूं, शुभ और अशुभ कर्म करने वाला जो पुरुष है, वह अपने उन कर्मों का फल कैसे भोगता है तथा ईश्वर उन कर्मफलों का रचयिता कैसे होता है? ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ मुनीश्वर! सुख और दु:ख की प्राप्ति कराने वाले कर्मों में मनुष्यों की प्रवृत्ति कैसे होती है? मनुष्य का किया कर्म इस लोक में ही उसका अनुसरण करता है अथवा पारलौकिक शरीर में भी?
(सम्पूर्ण सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 59-77 का हिन्दी अनुवाद)
द्विजश्रेष्ठ! देहधारी जीव अपने शरीर का त्याग करके जब परलोक में चला जाता है, तब उसके शुभ और अशुभ कर्म उसको कैसे प्राप्त करते हैं और इहलोक और परलोक में जीव का उन कर्मों के फल से किस प्रकार संयोग होता है? भृगुनन्दन! कर्मों का फल इसी लोक में प्राप्त होता है या परलोक में? प्राणी की मृत्यु हो जाने पर उसके कर्म कहाँ रहते हैं।'
मार्कण्डेय जी बोले ;- वक्ताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुम्हारा यह प्रश्न यथार्थ और युक्तिसंगत है। तुम्हें जानने योग्य सभी बातों का ज्ञान है, तो भी तुम केवल लोक-मर्यादा की रक्षा के लिये यह प्रश्न उपस्थित करते हो। मनुष्य इहलोक या परलोक में जिस प्रकार सुख और दुःख भोगता है, इसके विषय में तुम्हें अपना विचार बताऊँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। उन्होंने जीवों के लिये निर्मल तथा विशुद्ध शरीर बनाये। साथ ही धर्म का ज्ञान कराने वाले धर्मशास्त्रों को प्रकट किया। उस समय के सब मनुष्य उत्तम व्रत का पालन करने वाले तथा सत्यवादी थे। उनका अभीष्ट-फल विषयक संकल्प कभी व्यर्थ नहीं होता था। कुरुश्रेष्ठ! वे सभी मनुष्य ब्रह्मस्वरूप पुण्यात्मा और चिरजीवी थे। सभी स्वच्छापूर्वक आकाशमार्ग से उड़कर देवताओं से मिलने जाते और स्वेच्छाचारी होने के कारण इच्छा होते ही पुनः वहां से लौट आते थे। वे अपनी इच्छा होने पर ही मरते और इच्छा के अनुसार ही जीवित रहते थे। स्वतंत्रतापूर्वक सर्वत्र विचरण करते थे। उनके मार्ग में बाधाएं बहुत कम आती थीं। उन्हें कोई भय नहीं होता था। वे उपद्रवशून्य तथा पूर्णकाम थे। देवताओं तथा महात्मा ऋषियों के समुदाय का उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन होता था। वे सभी धर्मों को प्रत्यक्ष करने वाले, जितेन्द्रिय तथा ईर्ष्यारहित होते थे। उनकी आयु हजारों वर्षों की होती थी और वे हजार-हजार पुत्र उत्पन्न करते थे।
तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् भूतल पर विचरने वाले मनुष्य काम और क्रोध के वशीभूत हो गये। वे छल-कपट और दम्भ से जीविका चलाने लगे। उनके मन को लोभ और मोह ने दबा लिया। इन दोषों के कारण उन्हें इच्छा न होते हुए भी अपना शरीर त्यागने के लिये विवश होना पड़ा। वे पापपरायण हो अपने अशुभ कर्मों के फलस्वरूप पशु-पक्षी आदि की योनियों में जाने और नरक में गिरने लगे। विचित्र सांसारिक योनियों में बारंबार जन्म लेकर दुःख से संतप्त होने लगे। उनकी कामनाएं, उनके संकल्प और उनके ज्ञान सभी निष्फल थे। उनकी स्मरणशक्ति क्षीण हो गयी थी। वे सभी परस्पर संदेह करते हुए एक-दूसरे के लिये क्लेशदायक बन गये। उनके शरीर में प्रायः उनके अशुभ कर्मों के चिह्न (कोढ़ आदि) प्रकट होने लगे। कोई अधम-कुल में जन्म लेते, कोई बहुत-से रोगों के शिकार बने रहते ओर कोई दुष्ट स्वभाव के हो जाते थे। उनमें से कोई भी प्रतापी नहीं होता था। इस प्रकार पापकर्मों में प्रवृत्त होने वाले पापियों की आयु उनके कर्मानुसार बहुत कम हो गयी। उनके पापकर्मों के भयंकर फल प्रकट होने लगे। वे अपनी सभी अभीष्ट वस्तुओं के लिये दूसरे के सामने हाथ फैलाकर याचना करने लगे। कितने ही नास्तिक ओर विचलित हो गये।
कुन्तीनन्दन! इस संसार में मृत्यु के पश्चात् जीव की गति उनके अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही होती है। परंतु मरने के बाद ज्ञानी और अज्ञानी की कर्मराशि कहाँ रहती है? कहाँ रहकर वह पुण्य अथवा पाप का फल भोगता है? इस दृष्टि से जो तुमने प्रश्न किया है, उसके उत्तर में मैं सिद्धांत बता रहा हूँ। यह मनुष्य ईश्वर के रचे हुए पूर्व शरीर के द्वारा (अन्तःकरण में) शुभ और अशुभ कर्मों की बहुत बड़ी राशि संचित कर लेता है। फिर आयु पूरी होने पर वह इस जरा-जर्जर स्थूल शरीर का त्याग करके उसी क्षण किसी दूसरी योनि (शरीर) में प्रकट होता है। एक शरीर को छोड़ने और दूसरे को ग्रहण करने के बीच में क्षणभर के लिये भी वह असंसारी नहीं होता।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 78-95 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ दूसरे स्थूल शरीर में उसके पूर्वजन्म का किया हुआ कर्म छाया की भाँति सदा उसके पीछे लगा रहता और यथा समय अपना फल देता है। इसलिये जीव सुख अथवा दुःख भोगने के लिये योग्य होकर जन्म लेता है। यमराज के विधान (पुण्य और पाप के फल भोग) में नियुक्त हुआ जीव अपने शुभ अथवा अशुभ लक्षणों द्वारा अपने को मिले हुए सुख अथवा दुःख का निवारण करने में असमर्थ है। यह बात ज्ञान दृष्टि वाले महात्मा पुरुषों द्वारा देखी जाती है। युधिष्ठिर! यह तत्त्व ज्ञानशून्य मूढ़ मनुष्यों की स्वर्ग-नरक रूप गति बतायी गयी है। अब इसके बाद विवेकी पुरुषों को प्राप्त होने वाली उत्तम गति का वर्णन सुनो। ज्ञानी मनुष्य तपस्वी, सम्पूर्ण शास्त्रों के स्वाध्याय में तत्पर, स्थिरतापूर्वक व्रत का पालन करने वाले, सत्यपरायण, गुरुसेवा में जितेन्द्रिय ओर अत्यन्त तेजस्वी होते हैं। वे शुद्ध योनि में जन्म लेते और प्रायः शुभ लक्षणों से सुशोभित होते हैं।
जितेन्द्रिय होने के कारण वे मन को वश में रखते हैं और सात्त्विक अन्तःकरण होने के कारण नीरोग होते हैं। दुःख और त्रास के क्षीण होने के कारण वे उपद्रवरहित होते हैं। विवेकी पुरुष गर्भ से गिरते, जन्म लेते अथवा गर्भ में ही रहते समय भी ज्ञान-दृष्टि से अपने आपका और परमात्मा का सर्वथा यथार्थ अनुभव करते हैं। लौकिक तथा शास्त्रीय ज्ञान को प्रत्यक्ष करने वाले वे महामना ऋषि इस कर्मभूमि में आकर फिर देवलोक में चले जाते हैं। राजन्! विवेकी मनुष्य कर्मों का कुछ फल प्रारब्धवश प्राप्त करते हैं, कुछ कर्मों का फल हठात् प्राप्त होता है और कुछ कर्मों का फल अपने उद्योग से ही प्राप्त होता है। इस विषय में तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।
वक्ताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! मनुष्यलोक में मैं जिसे परम कल्याण की बात समझता हूं, उसके विषय में यह उदाहरण सुनो। कोई मनुष्य इस लोक में ही परम सुख पाता है, परलोक में नहीं। किसी को परलोक में ही परम कल्याण की प्राप्ति होती है, इस लोक में नहीं। किसी को इहलोक और परलोक दोनों में परम श्रेय की प्राप्ति होती है तथा किसी को न तो परलोक में उत्तम सुख मिलता है और न इस लोक में ही। जिनके पास बहुत धन होता है, वे अपने शरीर को हर तरह से सजाकर नित्य विषयों में रमण करते अर्थात् विषय-सुख भोगते हैं। शत्रुदमन! सदा अपने शरीर के ही सुख में आसक्त हुए उन मनुष्यों को केवल इसी लोक में सुख मिलता है, परलोक में उनके लिये सुख का सर्वथा अभाव है।
शत्रुदमन! जो लोग इस लोक में योगसाधन करते हैं, तपस्या में संलग्न होते हैं ओर स्वाध्याय में तत्पर रहते हैं तथा इस प्रकार प्राणियों की हिंसा से दूर रहकर इन्द्रियों को संयम में रखते हुए (तपस्या द्वारा) अपने शरीर को दुर्बल कर देते हैं, उनके लिये इस लोक में सुख नहीं हैं। वे परलोक में ही परम कल्याण के भागी होते हैं। जो लोग कर्तव्य-बुद्धि से पहले धर्म का ही आचरण करते हैं और उस धर्म से ही (न्याययुक्त) धन का उपार्जन कर यथासमय स्त्री से विवाह करके उसके साथ यज्ञ-याग और ईश्वर भक्ति आदि का अनुष्ठान करते हैं, उनके लिये इहलोक और परलोक दोनों ही सुखद हैं। जो मूढ़ न विद्या के लिये, न तप के लिये और न दान के लिये ही प्रयत्न करते हैं एवं न धर्मपूर्वक संतानोत्पादन के लिये ही यत्नशील होते हैं, वे न तो सुख पाते हैं और न भोग ही भोगते हैं। उनके लिये न तो इस लोक में सुख है और न परलोक में।
राजा युधिष्ठिर! तुम सब लोग बड़े पराक्रमी और धैर्यवान् हो। तुम में अलौकिक ओज भरा है। तुम सुदृढ़ शरीर से सम्पन्न हो और देवताओं के कार्य सिद्ध करने के लिये परलोक से इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हो। यही कारण है कि तुमने सभी उत्तम विद्याएं सीख ली हैं। तुम सभी शूरवीर तथा तपस्या, इन्द्रियसंयम और उत्तम आचार-व्यवहार में सदा ही तत्पर रहने वाले हो। अतः (इस संसार में बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य करके) देवताओं, ऋषियों और समस्त पितरों को उत्तम विधि से तृप्त करोगे। तत्पश्चात् अपने सत्कर्मों के फलस्वरूप तुम सब लोग क्रम से पुण्यात्माओं के निवासस्थान परम स्वर्गलोक को चले जाओगे। इसलिये कौरवराज! तुम (अपने वर्तमान कष्ट को देखकर) मन में किसी प्रकार की शंका को स्थान न दो। यह क्लेश तो तुम्हारे भावी सुख का ही सूचक है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में एक सौ तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ चौरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय पाण्डुपुत्रों ने महात्मा मार्कण्डेय जी से कहा,
पाण्डव बोले ;- 'मुने! हम श्रेष्ठ ब्राह्मणों का माहात्म्य सुनना चाहते हैं, आप उसका वर्णन कीजिये'। उनके ऐसा कहने पर महातपस्वी, महान् तेजस्वी और सम्पूर्ण शास्त्रों के निपुण विद्वान् भगवान् मार्कण्डेय ने इस प्रकार कहा।
मार्कण्डेय जी बोले ;- हैहयवंशी क्षत्रियों की वंश परम्परा को बढ़ाने वाला राजा परपुंजय, जो अभी कुमारावस्था में था, बड़ा ही सुन्दर और बलवान् था, एक दिन वन में हिंसक पशुओं को मारने के लिये गया। तृण और लताओं से भरे हुए उस वन में घूमते-घूमते उस राजकुमार ने एक मुनि को देखा, जो काले हिंसक-पशु के चर्म की ओढ़नी ओढ़े थोड़ी ही दूर पर बैठे थे। राजकुमार ने उन्हें हिंसक पशु ही समझा और उस वन में अपने बाणों से उन्हें मार डाला। अज्ञानवश यह पापकर्म करके वह राजकुमार व्यथित हो शोक से मूर्च्छित हो गया। तत्पश्चात् होश में आकर वह सुविख्यात हैहयवंशी राजाओं के पास गया।
वहाँ पृथ्वी का पालन करने वाले उस कमलनयन राजकुमार ने उन सबके सामने इस दुर्घटना का यथावत् समाचार कहा। तात! फल-मूल का आहार करने वाले एक मुनि की हिंसा हो गयी, यह सुनकर और देखकर वे सभी क्षत्रिय मन-ही-मन बहुत दु:खी हुए। फिर वे सब-के-सब जहाँ-तहाँ यह पता लगाते हुए कि ये मुनि किसके पुत्र हैं, शीघ्र ही कश्यपनन्दन अरिष्टनेमि के आश्रम पर गये। वहाँ नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले उन महात्मा मुनि को प्रणाम करके वे सब खड़े हो गये। तब मुनि ने उनके लिये अर्घ्य आदि पूजन-सामग्री अर्पित की। यह देखकर उन्होंने उन महात्मा से कहा,,
सभी क्षत्रिय बोले ;- 'मुने! हम अपने दूषित कर्म के कारण आप से सत्कार पाने योग्य नहीं रह गये हैं। हमसे एक ब्राह्मण की हत्या हो गयी है।'
यह सुनकर उन ब्रह्मर्षि ने कहा ;- 'आप लोगों से ब्राह्मणों की हत्या कैसे हुई? और वह मरा हुआ ब्राह्मण कहाँ है? बताइये। फिर सब लोग एक साथ मेरी तपस्या का बल देखियेगा'। उनके इस प्रकार पूछने पर क्षत्रियों ने मुनि के वध का सारा समाचार उनसे ठीक-ठीक कह सुनाया और उन्हें साथ लेकर सभी उस स्थान पर आये, जहाँ मुनि की हत्या हुई थी। किंतु उन्होंने वहाँ मरे हुए मुनि की लाश नहीं देखी।
फिर तो वे लज्जित होकर इधर-उधर उसकी खोज करने लगे। स्वप्न की भाँति उनकी चेतना लुप्त-सी हो गयी।
तब मुनिवर अरिष्टनेमि ने उनसे कहा ;- 'परपुरंजय! तुम लोगों ने जिसे मार डाला था, वह यही ब्राह्मण तो नहीं है? राजाओ! यह मेरा तपोबलसम्पन्न पुत्र है'। राजन्! उन महर्षि को जीवित हुआ देख वे सभी क्षत्रिय बड़े विस्मित हुए और कहने लगे 'यह तो बड़े आश्चर्य की
बात है। मरे हुए मुनि यहाँ कैसे लाये गये और किस प्रकार इन्हें जीवन मिला? क्या यह तपस्या की ही शक्ति है, जिससे फिर ये जीवित हो गये?
ब्रह्मन्! हम यह सब रहस्य सुनना चाहते हैं। यदि सुनने योग्य हो तो कहिये'।
तब महर्षि ने उन क्षत्रियों से कहा ;- 'राजाओ! हम लोगों पर मृत्यु का वश नहीं चलता। इसका क्या कारण है? यह मैं तर्क और युक्ति के साथ संक्षेप से बता रहा हूँ। श्रेष्ठ नृपतिगण्! हम लोगों पर मृत्यु का प्रभाव क्यों नहीं पड़ता-यह बताते हैं, सुनिये-हम शुद्ध आचार-विचार से रहते हैं। आलस्य से रहित हैं, प्रतिदिन संध्योपासना के परायण रहते हैं, शुद्ध अन्न खाते हैं और शुद्ध रीति से न्यायपूर्वक धनोपार्जन करते हैं; यही नहीं हम लोग सदा ब्रह्मचर्य व्रत के पालन में लगे रहते हैं। हम लोग केवल सत्य को ही जानते हैं। कभी झूठ में मन नहीं लगाते और सदा अपने धर्म का पालन करते रहते हैं। इसलिये हमें मृत्यु से भय नहीं हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-23 का हिन्दी अनुवाद)
ब्राह्मण के जो शुभ कर्म हैं, उन्हीं की हम चर्चा करते हैं। उनके दोषों का बखान नहीं करते हैं। इसलिये हमें मृत्यु से भय नहीं है। हम अतिथियों को अन्न और जल से तृप्त करते हैं। हमारे ऊपर जिनके भरण-पोषण का भार है, उन्हें हम पूरा भोजन देते हैं। उन्हें भोजन कराने से बचा हुआ अन्न हम स्वयं भोजन करते हैं, अतः हमें मृत्यु से भय नहीं है।
हम सदा शम, दम, क्षमा, तीर्थ-सेवन और दान में तत्पर रहने वाले हैं तथा पवित्र देश में निवास करते हैं। इसलिये भी हमें मृत्यु से भय नहीं है। इतना ही नहीं हम लोग तेजस्वी पुरुषों के देश में निवास करते हैं अर्थात् सत्पुरुषों के समीप रहा करत हैं। इस कारण से भी हमें मृत्यु से भय नहीं होता है।
ईर्ष्यारहित राजाओ! ये सब बाते मैंने तुम्हें संक्षेप से सुनायी हैं। अब तुम सब लोग एक साथ यहाँ से जाओ, तुम्हें ब्रह्महत्या के पाप से भय नहीं रहा'।
भरतश्रेष्ठ! यह सुनकर उन हैहयवंशी क्षत्रियों ने 'एवमस्तु' कहकर महामुनि अरिष्टनेमि का सम्मान एवं पूजन किया और प्रसन्न होकर अपने स्थान को चले गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में ब्राह्मणमाहात्म्य-वर्णन विषयक एक सौ चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
एक सौ पचासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"ब्राह्मण की महिमा के विषय में अत्रि मुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! ब्राह्मणों का और भी माहात्म्य मुझसे सुनो। पूर्वकाल में वेन के पुत्र राजर्षि पृथु ने, जो यहाँ वैन्य के नाम से प्रसिद्ध थे, किसी समय अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा ली। उन दिनों महात्मा अत्रि ने धन मांगने की इच्छा से उनके पास जाने का विचार किया, यह बात हमारे सुनने में आयी है; परंतु ऐसा करने से उनको अपना धर्मात्मापन प्रकट करना पड़ता। इसलिये फिर उन्होंने धन के लिये अनुरोध नहीं किया। महातेजस्वी अत्रि ने मन-ही-मन कुछ सोच-विचार कर (तपस्या के लिये) वन में ही जाने का निश्चय किया और अपनी धर्मपत्नी तथा पुत्रों को बुलाकर इस प्रकार कहा,,
अत्रि मुनी बोले ;- 'हम लोग वन में रहकर (तप द्वारा) धर्म का बहुत अधिक उपद्रवशून्य फल पा सकते हैं। अतः शीघ्र वन में चलने का विचार तुम सब लोगों को रुचिकर होना चाहिये; क्योंकि ग्राम्य-जीवन की अपेक्षा वन में रहना अधिक लाभप्रद है'।
अत्रि की पत्नी भी धर्म का ही अनुसरण करने वाली थी। उसने यज्ञ-यागादि के रूप में धर्म के ही विस्तार पर दृष्टि रखकर पति को उत्तर दिया,,
अत्रि की धर्म पत्नी बोली ;- 'प्राणनाथा! आप धर्मात्मा राजा वैन्य के पास जाकर अधिक धन की याचना कीजिये। वे राजर्षि इन दिनों यज्ञ कर रहे हैं, अतः इस अवसर पर यदि आप उनसे मांगेंगे तो वे आपको अधिक धन देंगे। ब्रह्मर्षे! वहां से प्रचुर धन लाकर भरण-पोषण करने योग्य इन पुत्रों को बांट दीजिये; फिर इच्छानुसार वन को चलिये। धर्मज्ञ महात्माओं ने यही परम धर्म बताया है'।
अत्रि बोले ;- महाभागे! महात्मा गौतम ने मुझसे कहा है कि 'वेनपुत्र राजा पृथु धर्म और अर्थ को साधन में संलग्न रहते हैं। वे सत्यव्रती हैं। परंतु एक बात विचारणीय है। वहाँ उनके यज्ञ में जितने ब्राह्मण रहते हैं, वे सभी मुझसे द्वेष रखते हैं, यही बात गौतम ने भी कही है। इसीलिये मैं वहाँ जाने का विचार नहीं कर रहा हूँ। यदि मैं वहाँ जाकर धर्म, अर्थ और काम से युक्त कल्याणमयी वाणी भी बोलूंगा तो वे उसे धर्म और अर्थ के विपरीत ही बतायेंगे; निरर्थक सिद्ध करेंगे। तथापि महाप्राज्ञे! मैं वहाँ अवश्य जाऊँगा, मुझे तुम्हारी बात ठीक जंचती है। राजा पृथु मुझे बहुत-सी गौएं तो देंगे ही, पर्याप्त धन भी देंगे।' ऐसा कहकर महातपस्वी अत्रि शीघ्र ही राजा पृथु के यज्ञ में गये।
यज्ञमण्डप में पहुँचकर उन्होंने उस राजा का मांगलिक वचनों द्वारा स्तवन किया और उनका समादर करते हुए इस प्रकार कहा।
अत्रि बोले ;- 'राजन्! तुम इस भूतल के सर्वप्रथम राजा हो; अतः धन्य हो, सब प्रकार के ऐश्वर्य से सम्पन्न हो। महर्षिगण तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नरेश धर्म का ज्ञाता नहीं है।' उनकी यह बात सुनकर महातपस्वी गौतम मुनि ने कुपित होकर कहा।
गौतम बोले ;- 'अत्रे! फिर कभी ऐसी बात मुंह से न निकालना। तुम्हारी बुद्धि एकाग्र नहीं है। यहाँ हमारे प्रथम प्रजापति के रूप में साक्षात् इन्द्र उपस्थित हैं।' राजेन्द्र! तब अत्रि ने भी गौतम को उत्तर देते हुए कहा,,
अत्रि जी बोले ;- 'मुने! ये पृथु ही विधाता हैं, ये ही प्रजापति इन्द्र के समान हैं। तुम्हीं मोह से मोहित हो रहे हो; तुम्हें उत्तम बुद्धि नहीं प्राप्त है'।
गौतम बोले ;- 'मैं नहीं मोह में पड़ा हूं, तुम्हीं यहाँ आकर मोहित हो रहे हो। मैं खूब समझता हूं, तुम राजा से मिलने की इच्छा लेकर ही भरी सभा में स्वार्थवश उनकी स्तुति कर रहे हो। उत्तम धर्म का तुम्हें बिल्कुल ज्ञान नहीं है। तुम धर्म का प्रयोजन भी नहीं समझते हो। मेरी दृष्टि में तुम मूढ़ हो, बालक हो; किसी विशेष कारण से बूढ़े बने हुए हो अर्थात् केवल अवस्था से बूढ़े हो।' मुनियों के सामने खड़े होकर जब वे दोनों इस प्रकार विवाद कर रहे थे, उस समय उन्हें देखकर जिनका यज्ञ में पहले से वरण हो चुका था, वे ब्राह्मण पूछने लगे,,
ब्राह्मण बोले ;- 'ये दोनों कैसे लड़ रहे हैं?'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचाशीत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)
'किसने इन दोनों को महाराज पृथु के यज्ञमण्डप में घुसने दिया है? ये दोनों जोर-जोर से बातें करते और झगड़ते यहाँ किस काम से खड़े हैं?' उस समय परम धर्मात्मा एवं सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता कणाद ने सब सदस्यों को बताया कि ये दोनों किसी विषय को लेकर परस्पर विवाद कर रहे हैं और उसी के निर्णय के लिये यहाँ आये हैं'। तब गौतम ने सदस्यरूप से बैठे हुए उन श्रेष्ठ मुनियों से कहा,
गौतम बोले ;- 'श्रेष्ठ ब्राह्मणो! हम दोनों के प्रश्न को आप लोग सुनें। अत्रि ने राजा पृथु को विधाता कहा है। इस बात को लेकर हम दोनों में महान् संशय एवं विवाद उपस्थित हो गया है।' यह सुनकर वे महात्मा मुनि उक्त संशय का निवारण करने के लिये तुरंत ही धर्मज्ञ सनत्कुमार जी के पास दौड़े गये। उन महातपस्वी ने उनकी सब बातें यथार्थ रूप से सुनकर उनसे यह धर्म एवं अर्थयुक्त वचन कहा।
सनत्कुमार बोले ;- ब्राह्मण क्षत्रिय से और क्षत्रिय ब्राह्मण से संयुक्त हो जायें तो वे दोनों मिलकर शत्रुओं को उसी प्रकार दग्ध कर ड़ालते हैं, जैसे अग्नि और वायु परस्पर सहयोगी होकर कितने ही वनों को भस्म कर डालते हैं। राजा धर्मरूप से विख्यात है। वही प्रजापति, इन्द्र, शुक्राचार्य, धाता और बृहस्पति भी है। जिस राजा की प्रजापति, विराट्, सम्राट्, क्षत्रिय, भूपति, नृप आदि शब्दों द्वारा स्तुति की जाती है, उसकी पूजा कौन नहीं करेगा? पुरायोनि (प्रथम कारण), युधाजित् (संग्रामविजयी), अभिया (रक्षा के निये सर्वत्र गमन करने वाला), मुदित (प्रसन्न), भव (ईश्वर), स्वर्णेता (स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला), सहजित् (तत्काल विजय करने वाला) तथा बभु्र (विष्णु)-इन नामों द्वारा राजा का वर्णन किया जाता है। राजा सत्य का कारण, प्राचीन बातों को जानने वाला तथा सत्यधर्म में प्रवृत्ति कराने वाला है। अधर्म से डरे हुए ऋषियों ने अपना ब्राह्मबल भी क्षत्रियों में स्थापित कर दिया था। जैसे देवलोक में सूर्य अपने तेज से सम्पूर्ण अन्धकार का नाश करता है, उसी प्रकार राजा इस पृथ्वी पर रहकर अधर्मों को सर्वथा हटा देता है। अतः शास्त्र-प्रमाण पर दृष्टिपात करने से राजा की प्रधानता सूचित होती है। इसलिये जिसने राजा को प्रजापति बतलाया है, उसी का पक्ष उत्कृष्ट सिद्ध होता है।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- तदनन्तर एक पक्ष की उत्कृष्टता सिद्ध हो जाने पर महामना राजा पृथु बड़े प्रसन्न हुए और जिन्होंने उनकी पहले स्तुति की थी, उन अत्रि मुनि से इस प्रकार बोले,,
राजा पृथु बोले ;- 'ब्रह्मर्षे! आपने यहाँ मुझे मनुष्यों में प्रथम (भूपाल), श्रेष्ठ, ज्येष्ठ तथा सम्पूर्ण देवताओं के समान बताया है, इसलिये मैं आपको प्रचुर मात्रा में नाना प्रकार के रत्न और धन दूंगा, सुन्दर वस्त्राभूषणों से विभूषित, सहस्रों युवती दासियां अर्पित करूंगा तथा दस करोड़ स्वर्ण मुद्रा और दस भार सोना भी दूंगा। विप्रर्षे! ये सब वस्तुएं आपको अभी दे रहा हूं, मैं समझता हूं, आप सर्वज्ञ हैं'। तब महान् तपस्वी और तेजस्वी अत्रि मुनि राजा से समाहत हो न्यायपूर्वक मिले हुए उस सम्पूर्ण धन को लेकर अपने घर को चले गये। फिर मन पर संयम रखने वाले वे महामुनि पुत्रों को प्रसन्नतापूर्वक वह सारा धन बांटकर तपस्या का शुभ संकल्प मन में लेकर वन में ही चले गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में ब्राह्मण माहात्म्य विषयक एक सौ पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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