सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अजगर पर्व)
एक सौ छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत और पाण्डवों का गन्धमादन से प्रस्थान"
जनमेजय ने पूछा ;- भगवन्! रथियों में श्रेष्ठ महावीर अर्जुन जब इन्द्रभवन से दिव्यास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके लौट आये, तब उनसे मिलकर कुन्तीकुमारों ने पुनः कौन-सा कार्य किया?
वैशम्पायन जी बोले ;- राजन्! वे नरश्रेष्ठ वीर पाण्डव इन्द्रतुल्य पराक्रमी अर्जुन के साथ उस परम रमणीय शैलशिखर पर कुबेर की क्रीड़ापूर्वक भूमि के अन्तर्गत उन्हीं वनों में सुख से विहार करने लगे। वहाँ कुबेर के अनुपम भवन बने हुए थे। नाना प्रकार के वृक्षों के निकट अनेक प्रकार के खेल होते रहते थे। उन सबको देखते हुए किरीटधारी अर्जुन बहुधा वहाँ विचरा करते और हाथ में धनुष लेकर सदा अस्त्रों के अभ्यास में संलग्न रहते थे। राजन्! राजकुमार पाण्डवों को राजाधिराज कुबेर की कृपा से वहां का निवास प्राप्त हुआ था। वे वहाँ रहकर भूतल के अन्य प्राणियों के ऐश्वर्य-सुख की अभिलाषा नहीं रखते थे। उनका वह समय बड़े सुख से बीत गया था। वे अर्जुन के साथ वहाँ चार वर्षों तक रहे, परंतु उनको वह समय एक रात के समान ही प्रतीत हुआ। पहले के छः वर्ष तथा वहां के चार वर्ष इस प्रकार सब मिलाकर पाण्डवों के वनवास के दस वर्ष आनन्दपूर्वक बीत गये।
तदनन्तर एक दिन अर्जुन तथा वीरवर नकुल-सहदेव जो देवराज के समान पराक्रमी थे, एकान्त में राजा युधिष्ठिर के पास बैठे थे। उस समय वेगशाली वायुपुत्र भीमसेन यह हितकर एवं प्रिय वचन बोले,,
भीमसेन बोले ;- 'कुरुराज! आप की प्रतिज्ञा को सत्य करने की इच्छा से और आपका प्रिय करने की अभिलाषा रखने के कारण हम लोग यह वनवास छोड़कर दुर्योधन का अनुचरों सहित वध करने नहीं जा रहे हैं। अब हमारे निवास का यह ग्यारहवां वर्ष चल रहा है। हम लोग सुख भोगने के अधिकारी थे, परंतु दुर्योधन ने हमारा सुख छीन लिया। उसकी बुद्धि तथा स्वभाव अत्यन्त अधम है। उस दुष्ट को धोखा देकर हम अपने अज्ञातवास का समय भी सुखपूर्वक बिता लेंगे। भूपशिरोमणे! आपकी आज्ञा से हम मानापमान का विचार छोड़कर निःशंक हो वन में विचरते रहेंगे। पहले किसी निकटवर्ती स्थान में रहकर दुर्योधन आदि के मन में वहीं खोज करने का लोभ उत्पन्न करेंगे और फिर वहां से दूर देश में चले जायेंगे, जिससे उन्हें हमारा पता न लग सकेगा। वहाँ एक वर्ष तक गुप्त रूप से निवास करके जब हम लौटेंगे, तब अनायास ही उस नराधम दुर्योधन की जड़ उखाड़ देंगे।
नरेन्द्र! नीच दुर्योधन आज अपने अनुचरों से घिरकर सुखी हो रहा है। उसने जो वैर का वृक्ष लगा रखा है, उसे हम फूल-फल सहित उखाड़ फेंकेगे और उससे वैर का बदला लेंगे। अतः धर्मराज! आप यहां से चलकर पृथ्वी पर निवास करें। नरदेव! इसमें संदेह नहीं कि हम लोग इस स्वर्गतुल्य प्रदेश में विचरते रहने पर भी अपना सारा शोक अनायास ही निवृत्त कर सकते हैं। परंतु ऐसा होने पर चराचर जगत में आपकी पुण्यमयी कीर्ति नष्ट हो जायेगी। इसलिये कुरुवंशशिरोमणि अपने पूर्वजों के उस महान् राज्य को प्राप्त करके ही हम और कोई सत्कर्म करने योग्य हो सकते हैं। भरतकुलभूषण महाराज! आप कुबेर से जो सम्मान या अनुग्रह प्राप्त कर रहे हैं, इसे तो सदा ही प्राप्त कर सकते हैं। इस समय तो अपराधी शत्रुओं को मारने और दण्ड देने का निश्चय कीजिये।
राजन्! साक्षात् वज्रधारी इन्द्र भी आपसे भिड़कर आपके भयंकर तेज को नहीं सह सकते। धर्मराज! आपका कार्य सिद्ध करने के लिये दो वीर सदा प्रयत्न करते हैं! गरुड़ध्वज भगवान् श्रीकृष्ण और शिनि के नाती वीरवर सात्यकि। ये दोनों आपके लिये देवताओं से भी युद्ध करने में कभी कष्ट का अनुभव नहीं करेंगे। नरदेवशिरोमणि! इन्हीं दोनों के समान अर्जुन भी बल और पराक्रम में अपना सानी नहीं रखते। इसी प्रकार मैं भी बल में किसी से कम नहीं हूँ। जैसे भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण यादवों के साथ आपके प्रत्येक कार्य की सिद्ध के लिये उद्यत रहते हैं, उसी प्रकार मैं, अर्जुन तथा अस्त्रों के प्रयोग में कुशल वीर नकुल-सहदेव भी आपकी आज्ञा का पालन करने के लिये सदा संनद्ध रहा करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्सप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-23 का हिन्दी अनुवाद)
आपको धन की प्राप्ति हो और आपका ऐश्वर्य बढ़े, यही हमारा प्रधान लक्ष्य है। अतः हम लोग शत्रुओं से भिड़कर वैर की शान्ति करेंगे।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले उत्तम ओज से सम्पन्न श्रेष्ठ महात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने उस समय उन सबके अभिप्राय को जानकर कुबेर के निवासस्थान उस गन्धमादन पर्वत की प्रदक्षिणा की। फिर उन्होंने वहां के भवनों, नदियों, सरोवरों तथा समस्त राक्षसों से विदा ली। इसके बाद वे जिस मार्ग से आये थे, उसकी ओर देखने लगे। तदनन्तर उन विशुद्धबुद्धि महात्मा युधिष्ठिर ने पुनः गन्धमादन पर्वत की ओर देखते हुए उस श्रेष्ठ गिरिराज से इस प्रकार प्रार्थना की,,
युधिष्ठिर बोले ;- 'शैलेन्द्र! अब अपने मन और बुद्धि को संयम में रखने वाला मैं शत्रुओं को जीतकर अपना खोया हुआ राज्य पाने के बाद सुहृदों के साथ अपने सब कार्य सम्पन्न करके पुनः तपस्या के लिये लौटने पर आपका दर्शन करूंगा।' इस प्रकार युधिष्ठिर ने निश्चय किया।
तत्पश्चात् समस्त भाइयों और ब्रह्माणों से घिरे हुए कुरुराज युधिष्ठिर उसी मार्ग से नीचे उतरने लगे। जहाँ दुर्गम पर्वत और झरने पड़ते थे, वहाँ घटोत्कच अपने गणों सहित आकर पहले की तरह उन सबको पीठ पर बिठा वहां से पार कर देता था।
महर्षि लोमश ने जब पाण्डवों को वहां से प्रस्थान करते देखा, तब जिस प्रकार दयालु पिता अपने पुत्रों को उपदेश देता है, वैसे ही उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर सबको उत्तम उपदेश किया। फिर मन ही मन प्रसन्नता का अनुभव करते हुए वे देवताओं के परम पवित्र स्थान को चले गये। इसी प्रकार राजर्षि आर्ष्टिषेण ने भी उन सबको उपदेश दिया। तत्पश्चात् वे नरश्रेष्ठ पाण्डव पवित्र तीर्थों, मनोहर तपोवनों और अन्य बड़े-बड़े सरोवरों का दर्शन करते हुए आगे बढ़े।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत आजगरपर्व में गन्धमादन से प्रस्थान विषयक एक सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अजगर पर्व)
एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों का गन्धमादन से बदरिकाश्रम, सुबाहुनगर और विशाखयूप वन में होते हुए सरस्वति-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादन अनेकानेक निर्झरों से सुशोभित तथा दिग्गजों, किन्नरों और पक्षियों से सुसेवित होने के कारण भरतवंशियों में श्रेष्ठ पाण्डवों के लिये एक सुखदायक निवास था, उसे छोड़ते समय उनका मन प्रसन्न नहीं था। तत्पश्चात् कुबेर के प्रिय भूधर कैलास को, जो श्वेत बादलों के समान प्रकाशित हो रहा था, देखकर भरतकुलभूषण पाण्डुपुत्रों को पुनः महान हर्ष प्राप्त हुआ। नरश्रेष्ठ पाण्डव अपने हाथों में खड़ग और धनुष लिये हुए थे। वे ऊँचाई, पर्वतों के संकरे स्थान, सिंहों की मादें, पर्वतीय नदियों को पार करने के लिये बने हुए पुल, बहुत-से झरने और नीची भूमियों को जहाँ-तहाँ देखते हुए तथा मृग, पक्षी एवं हाथियों से सेवित दूसरे-दूसरे विशाल वनों का अवलोकन करते हुए विश्वासपूर्वक आगे बढ़ने लगे।
पुरुषरत्न पाण्डव कभी रमणीय वनों में, कभी सरोवरों के किनारे, कभी नदियों के तट पर और कभी पर्वतों की छोटी बड़ी गुफाओं में दिन या रात के समय ठहरते जाते थे। सदा ऐसे ही स्थानों में उनका निवास होता था। अनेक बार दुर्गम स्थानों में निवास करके अचिन्त्यरूप कैलास पर्वत को पीछे छोड़कर वे पुनः वृषपर्वा के अत्यन्त मनोरम उस श्रेष्ठ आश्रम में आ पहुँचे। वहाँ राजा वृषपर्वा से मिलकर और उनसे भली-भाँति पूजित होकर उन सबका शोक-मोह दूर हो गया। फिर उन्होंने वृषपर्वा से गन्धमादन पर्वत पर अपने रहने के वृत्तान्त का यथार्थ रूप से एवं विस्तारपूर्वक वर्णन किया। उस पवित्र आश्रम में देवता और महर्षि निवास किया करते थे। वहाँ एक रात सुखपूर्वक रहकर वे वीर पाण्डव फिर विशालपुरी के बदरिकाश्रम तीर्थ में चले आये और वहाँ बड़े आनन्द से रहे। तत्पश्चात् वहाँ भगवान् नर-नारायण के क्षेत्र में आकर सभी महानुभाव पाण्डवों ने सुखपूर्वक निवास किया और शोकरहित हो कुबेर की उस प्रिय पुष्करिणी का दर्शन किया, जिसका सेवन देवता और सिद्ध पुरुष किया करते हैं। सम्पूर्ण मनुष्यों में श्रेष्ठ वे पाण्डुपुत्र उस पुष्करिणी का दर्शन करके शोकरहित हो वहाँ इस प्रकार आनन्द का अनुभव करने लगे, मानो निर्मल ब्रह्मर्षिगण इन्द्र के नन्दनवन में सानन्द विचर रहे हों। इसके बाद वे सारे नरवीर जिस मार्ग से आये थे, क्रमशः उसी मार्ग से चल दिये। बदरिकाश्रम में एक मास तक सुखपूर्वक विहार करके उन्होंने किरात नरेश सुबाहु के राज्य की ओर प्रस्थान किया।
कुलिन्द के तुषार, दरद आदि धनधान्य से युक्त और प्रचुर रत्नों से सम्पन्न देशों को लांघते हुए हिमालय के दुर्गम स्थानों को पार करके उन नरवीरों ने राजा सुबाहु का नगर देखा। राजा सुबाहु ने जब सुना कि मेरे राज्य में राजपुत्र पाण्डवगण पधारे हुए हैं, तब बहुत प्रसन्न होकर नगर से बाहर आ उसने उन सबकी अगवानी की। फिर कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर आदि ने भी उनका बड़ा समादर किया। राजा सुबाहु से मिलकर वे विशोक आदि अपने सारथियों, इन्द्रसेन आदि परिचारकों, अग्रगामी सेवकों तथा रसोइयों से भी मिले। वहाँ उन सबने एक रात बड़े सुख से निवास किया। पाण्डवों ने अपने सारे सारथियों तथा रथों को साथ ले लिया और अनुचरों सहित घटोत्कच को विदा करके वहां से पर्वतराज को प्रस्थान किया, जहाँ यमुना का उद्गम स्थान है। झरनों से युक्त हिमराशि उस पर्वतरूपी पुरुष के लिये उत्तरीय का काम करती थी और उसका अरुण एवं श्वेत रंग का शिखर बालसूर्य की किरणें पड़ने से सफेद एव लाल पगड़ी के समान शोभा पाता था। उसके ऊपर विशाखयूप नामक वन में पहुँचकर नरवीर पाण्डवों ने उस समय निवास किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-24 का हिन्दी अनुवाद)
वह विशाल वन चैत्ररथ वन के सामन शोभायमान था। वहाँ सूअर, नाना प्रकार के मृग तथा पक्षी निवास करते थे। उन दिनों पाण्डवों का वहाँ हिंस्र जीवों को मारना ही प्रधान काम था। वहाँ वे एक वर्ष तक बड़े सुख से विचरते रहे। उसी यात्रा में भीमसेन एक दिन पर्वत की कन्दरा में भूख से पीड़ित एक अजगर के पास जा पहुँचे, जो अत्यन्त बलवान् होने के साथ ही मृत्यु के समान भयानक था। उस समय उनकी अन्तरात्मा विषाद एवं मोह से व्यथित हो उठी।
उस अवसर पर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ अत्यंत तेजस्वी युधिष्ठिर भीमसेन के लिए द्वीप की भाँति अवलम्ब हो गये। अजगर ने भीमसेन के सम्पूर्ण शरीर को लपेट लिया था, परंतु युधिष्ठिर ने (अजगर को उसके प्रश्नों के उत्तर द्वारा संतुष्ट करके) उन्हें छुड़ा लिया।
अब इन पाण्डवों के वनवास का बारहवां वर्ष आ पहुँचा था। उसे भी वन में सानन्द व्यतीत करने के लिये उनके मन में बड़ा उत्साह था। अपनी अद्भुत कान्ति से प्रकाशित होते हुए तपस्वी पाण्डव चैत्ररथ वन के समान शोभा पाने वाले उस वन से निकलकर मरुभूमि के पास सरस्वती के तट पर गये और वहीं निवास करने की इच्छा से द्वैतवन के द्वैत सरोवर के समीप गये। उस समय पाण्डवों का विशेष प्रेम सदा धनुर्वेद में ही लक्षित होता था। उन्हें द्वैतवन में आया देख वहां के निवासी उनके दर्शन के लिये निकट आये। वे सब के सब तपस्या, इन्द्रियसंयम, सदाचार और समाधि में तत्पर रहने वाले थे। तिनके की चटाई, जलपात्र, ओढ़ने का कपड़ा और सिल-लोढ़े-यही उनके पास सामग्री थी।
सरस्वती के तट पर पाकड़, बहेड़ा, रोहितक, बेंत, बेर, खैर, सिरस, इगंदी, पीलु, शमी और करीर आदि के वृक्ष खड़े थे। वह नदी यक्ष, गन्धर्व और महर्षियों को प्रिय थी। देवताओं की तो वह वह मानो बस्ती ही थी। राजपुत्र पाण्डव बड़ी प्रसन्नता और सुख से वहाँ विचरने और निवास करने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत आजगरपर्व में पाण्डवों का पुनः द्वैतवन में प्रवेश विषयक एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अजगर पर्व)
एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
"महाबली भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना और अजगर द्वारा पकड़ा जाना"
जनमेजय ने पूछा ;- मुने! भयानक पराक्रमी भीमसेन में तो दस हजार हाथियों का बल था। फिर उन्हें उस अजगर से इतना तीव्र भय कैसे प्राप्त हुआ? जो बल के घमंड में आकर पुलस्त्यनन्दन कुबेर को भी युद्ध के लिये ललकारते थे, जिन्होंने कुबेर की पुष्करिणी के तट पर कितने ही यक्षों तथा राक्षसों का संहार कर डाला था, उन्हीं शत्रुसूदन भीमसेन को आप भयभीत (और विपत्तिग्रस्त) बताते हैं। अतः मैं इस प्रसंग को विस्तार से सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल हो रहा है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! राजर्षि वृषपर्वा के आश्रम से आकर उग्र धनुर्धर पाण्डव अनेक आश्चर्यों से भरे हुए उस द्वैतवन में निवास करते थे। भीमसेन तलवार बांधकर हाथ में धनुष लिये अकस्मात् घूमने निकल जाते और देवताओं तथा गन्धर्वों से सेवित उस रमणीय वन की शोभा निहारते थे। उन्होंने हिमालय पर्वत के उन शुभ प्रदेशों का अवलोकन किया, जहाँ देवर्षि और सिद्ध पुरुष विचरण करते थे तथा अप्सराएं जिनका सदा सेवन करती थीं। वहाँ भिन्न-भिन्न स्थानों में चकोर, उपचक्र, जीवजीवक, कोकिल ओर भृंगराज आदि पक्षी कलरव करते थे। वहां के वृक्ष सदा फूल और फल देते थे। हिम के स्पर्श से उनमें कोमलता आ गयी थी। उनकी छाया बहुत घनी थी और वे दर्शनमात्र से मन एवं नेत्रों को आनन्द प्रदान करते थे। उन वृक्षों से सुशोभित प्रदेशों तथा वैदूर्यमणि के समान रंग वाले, हिमसदृश, स्वच्छ शीतल सलिलसमूह से संयुक्त पर्वतीय नदियों की शोभा निहारते हुए वे सब ओर घूमते थे। नदियों की उस जलराशि में हंस और कारण्डव आदि सहस्रों पक्षी किलोलें करते थे।
हरिचन्दन, तुंग और कालियक आदि वृक्षों से युक्त ऊंचे- ऊंचे देवदारू के वन ऐसे जान पड़ते थे, मानो बादलों को फंसाने के लिये फंदे हों। महाबली भीम सारे मरुप्रदेश में शिकार के लिये दौड़ते और केवल बाणों द्वारा हिंसक पशुओं को घायल करते हुए विचरा करते थे। भीमसेन अपने महान् बल के लिये विख्यात थे। उनमें सैकड़ों हाथियों की शक्ति थी। वे उस वन में विकराल दाढ़ों वाले बड़े से बड़े सिंह को भी पछाड़ देते थे। भीमसेन का पराक्रम भी उनके नाम के अनुसार ही भयानक था। उनकी भुजाएं विशाल थीं। वे मृगया में प्रवृत्त होकर जहाँ-तहाँ हिंसक पशुओं, वराहों और भैंसों को भी मारा करते थे। उनमे सैकड़ों मतवाले गजराजों के समान बल था। वे एक साथ सौ-सौ मनुष्यों का वेग रोक सकते थे। उनका पराक्रम सिंह और शार्दूल के समान था। महाबली भीम उस वन में वृक्षों को उखाड़ते और उन्हें वेगपूर्वक पुनः तोड़ डालते थे। वे अपनी गर्जना से उस वन्य भूमि के प्रदेशों तथा समूचे वन को गुंजाते रहते थे। वे पर्वतशिखरों को रौंदते, वृक्षों को तोड़कर इधर-उधर बिखेरते और निश्चित होकर अपने सिंहनाद से भूमण्डल को प्रतिध्वनि किया करते थे। वे निर्भय होकर बार-बार वेगपूर्वक कूदते-फांदते, ताल ठोंकते, सिंहनाद करते और तालियां बजाते थे।
वन में घूमते हुए भीमसेन का बलाभिमान दीर्घकाल से बहुत बढ़ा हुआ था। उस समय उनकी सिहंगर्जना से महान् बलशाली गजराज और मृगराज भी भय से अपना स्थान छोड़कर भाग गये। वे कहीं दौंड़ते, कहीं खड़े होते और कहीं बैठते हुए शिकार पाने की अभिलाषा से उस महाभयंकर वन में निर्भय विचरते रहते थे। वे नरश्रेष्ठ महाबली भीम उस वन में वनचर भीलों की भाँति पैदल ही चलते थे, उनका साहस और पराक्रम महान् था। वे गहन वन में प्रवेश करके समस्त प्राणियों को डराते हुए अद्भुत गर्जना करते थे। तदनन्तर एक दिन की बात है, भीमसेन के सिंहनाद से भयभीत हो गुफाओं में रहने वाले सारे सर्प बड़े वेग से भागने लगे और भीमसेन धीरे-धीरे उन्हीं का पीछा करने लगे। श्रेष्ठ देवताओं के समान कान्तिमान् महाबली भीमसेन ने आगे जाकर एक विशालकाय अजगर देखा, जो रोंगटे खड़े कर देने वाला था। वह अपने शरीर से एक (विशाल) कन्दरा को घेरकर पर्वत के एक दुर्गम स्थान में रहता था।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टसप्तत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 25-33 का हिन्दी अनुवाद)
उसका शरीर पर्वत के समान विशाल था। वह महाकाय होने के साथ ही अत्यन्त बलवान् भी था। उसका प्रत्येक अंग शारीरिक विचित्र चिह्नों से चिह्नित होने के कारण विचित्र दिखायी देता था। उसका रंग हल्दी के सामन पीला था। प्रकाशमान चारों दाढ़ों से युक्त उसका मुख गुफा-सा जान पड़ता था। उसकी आंखें अत्यन्त लाल और आग उगलती-सी प्रतीत होती थीं। वह बार-बार अपने दोनों गलफरों को चाट रहा था। कालान्तक तथा यम के समान समस्त प्राणियों को भयभीत करने वाला वह भयानक भुजंग अपने उच्छ्वास और सिंहनाद से दूसरों की भर्त्सना करता-सा प्रतीत होता था।
वह अजगर अत्यन्त क्रोध से भरा हुआ था। (मनुष्यों को) जकड़ने वाले उस सर्प ने सहसा भीमसेन के निकट पहुँचकर उनकी दोनों बांहों को बलपूर्वक जकड़ लिया। उस समय भीमसेन के शरीर का उससे
स्पर्श होते ही वे भीमसेन सहसा अचेत हो गये। ऐसा इसीलिये हुआ कि उस सर्प को वैसा ही वरदान मिला था। दस हजार गजराज जितना बल धारण करते हैं, उतना ही बल भीमसेन की भुजाओं में विद्यमान था। उनके बल की और कहीं समता नहीं थी। ऐसे तेजस्वी भीम भी उस अजगर के वश में पड़ गये।
वे धीरे-धीरे छटपटाते रहे, परंतु छूटने की अधिक चेष्टा करने में सफल न हो सके। उनकी प्राणशक्ति दस सहस्र हाथियों के समान थी। दोनों कंधे सिंह के कंधों के समान थे और भुजाएं बहुत बड़ी थीं। फिर भी सर्प को मिले हुए वरदान के प्रभाव से मोहित हो जाने के कारण सर्प की पकड़ में आकर वे अपना साहस खो बैठे। उन्होंने अपने को छुड़ाने के लिये घोर प्रयत्न किया, किंतु वीरवर भीमसेन किसी प्रकार भी उस सर्प को पराजित करने में सफलता नहीं प्राप्त कर सके।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत आजगरपर्व में भीमसेन का अजगर द्वारा ग्रहणसम्बन्धी एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अजगर पर्व)
एक सौ उनासीवाँ अध्याय
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (अजगर पर्व)
एक सौ अस्सीवाँ अध्याय
भीमसेन ने अपने पकड़े जाने आदि की सारी चेष्टाएं कह सुनायी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें