सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ इकहत्तरवें अध्याय से एक सौ पचहत्तरवें अध्याय तक (From the 171 to the 175 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकसप्तत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

"दानवों के मायामय युद्ध का वर्णन"

   अर्जुन बोले ;- महाराज! तदनन्तर चारों ओर से पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा आरम्भ हो गयी। वृक्षों के बराबर ऊँचे शिलाखण्ड भूमि में गिरने लगे, इससे मुझे बड़ी पीड़ा हुई। तब मैंने महेन्द्रास्त्र से अभिमन्त्रित वज्रतुल्य वेगवान बाणों द्वारा उस महासमर में गिरने वाले समस्त शिलाखण्डों को चूर-चूर कर दिया। पत्थरों की वर्षा के चूर्ण होते ही सब ओर आग प्रकट हो गयी। फिर तो वहाँ आग की चिनगारियों के समूह की भाँति पत्थर का चूर्ण पड़ने लगा। तदनन्तर मेरे बाणों से वह पत्थरों की वर्षा शान्त होने पर महत्तर जल-वृष्टि आरम्भ हो गयी। मेरे पास ही सर्पों के समान मोटी जलधाराएं गिरने लगीं। आकाश से प्रचण्ड शक्तिशाली सहस्रों धाराएं बरसने लगीं, जिन्होंने न केवल आकाश को ही, अपितु सम्पूर्ण दिशाओं और उपदिशाओं को भी सब ओर से ढक लिया। धाराओं की वर्षा, हवा के झकोरों और दैत्यों की गर्जना से कुछ भी जान नहीं पड़ता था। स्वर्ग से लेकर पृथ्वी तक एक सूत्र में आबद्ध-सी होकर पृथ्वी पर सब ओर जल की धाराएं लगातार गिर रहीं थीं, जिन्होंने वहाँ मुझे मोह में डाल दिया था।

     तब मैंने वहाँ देवराज इन्द्र के द्वारा प्राप्त हुए दिव्य विशोषणास्त्र का प्रयोग किया, जो अत्यन्त तेजस्वी और भयंकर था। उससे वर्षा का वह सारा जल सूख गया। भारत! जब मैंने पत्थरों की वर्षा शान्त कर दी औ पानी की वर्षा को भी सोख लिया, तब दानव लोग मुझ पर मायामय अग्नि और वायु का प्रयोग करने लगे। फिर तो मैंने वारुणास्त्र से वह सारी आग बुझा दी और महान् शैलास्त्र का प्रयोग करके मायामय वायु का वेग कुण्डित कर दिया। भारत! उस माया का निवारण हो जाने पर वे रणोन्मत दानव एक ही समय अनेक प्रकार की माया का प्रयोग करने लगे। फिर तो भयानक अस्त्रों की तथा अग्नि, वायु और पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी, जो रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। उस मायामयी वर्षा ने युद्ध में मुझे बड़ी पीड़ा दी। तदनन्तर चारों ओर महाभयानक अन्धकार छा गया। घोर एवं दुःसह तिमिरराशि से सम्पूर्ण लोकों के आच्छादित हो जाने पर मेरे रथ के घोड़े युद्ध से विमुख हो गये और मातलि भी लड़खड़ाने लगे। उनके हाथ से घोड़ों के लगाम और चाबुक पृथ्वी पर गिर पड़े और वे भयभीत होकर बार-बार मुझसे पूछने लगे,

   मातलि बोले ;- 'भरतश्रेष्ठ अर्जुन! तुम कहाँ हो?' मातलि के बेसुध होने पर मेरे मन में भी अत्यन्त भय समा गया।

    तब सुध-बुध खोये हुए मातलि ने मुझ भयभीत योद्धा से इस प्रकार कहा,,

    मातलि फिर बोले ;- 'निष्पाप कुन्तीकुमार! प्राचीन काल में अमृत की प्राप्ति के लिये देवताओं और दैत्यों में अत्यन्त घोर संग्राम हुआ था, जिसे मैंने अपनी आंखों देखा है। शम्बरासुर के वध के समय भी अत्यन्त भयानक युद्ध हुआ था। उसमें भी मैंने देवराज इन्द्र के सारथि का कार्य संभाला था। इसी प्रकार वृत्रासुर के वध के समय भी मैंने ही घोड़ों की बागडोर हाथ में ली थी। विरोचनकुमार बलि का अत्यन्त भयंकर महासंग्राम भी मेरा देखा हुआ है। ये बड़े-बड़े भयानक युद्ध मैंने देखे हैं, उनमें भाग लिया है, परंतु पाण्डुनन्दन! आज से पहले कभी भी मैं इस प्रकार अचेत नहीं हुआ था। जान पड़ता है, विधाता ने आज समस्त प्रजा का संहार निश्चित किया है, अवश्य ऐसी ही बात है। जगत के संहार के अतिरिक्त अन्य समय में ऐसे भयानक युद्ध का होना सम्भव नहीं हैं'। मातलि का यह वचन सुनकर मैंने स्वयं ही अपने-आपको संभाला और दानवों के उस महान् मायाबल का निवारण करते हुए भयभीत मातलि से कहा,,

   अर्जुन बोले ;- 'सूत! आप डरें मत। स्थिरतापूर्वक रथ पर बैठे रहें और देखें, मेरी इन भुआजों में कितना बल है? मेरे गाण्डीव धनुष तथा अस्त्रों का कैसा प्रभाव है? आज मैं अपने अस्त्रों की माया से इन दानवों की इस भयंकर माया तथा घोर अन्धकार का विनाश किये देता हूं'।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकसप्तत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 25-30 का हिन्दी अनुवाद)

     नरेश्वर! ऐसा कहकर मैंने देवताओं के हित के लिये अस्त्रसम्बन्धिनी माया की सृष्टि की, जो समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली थी। उससे असुरों की वे सारी मायाएं नष्ट हो गयीं। तब उन अमित तेजस्वी दानव राजाओें ने पुनः नाना प्रकार की मायाएं प्रकट कीं।

    इससे कभी तो प्रकाश छा जाता था और कभी सब कुछ अन्धकार में विलीन हो जाता था। कभी सम्पूर्ण जगत् अदृश्य हो जाता और कभी जल में डूब जाता था।

     तदनन्तर प्रकाश होने पर मातलि ने घोड़ों को काबू में करके अपने श्रेष्ठ रथ के द्वारा उस रोमांचकारी संग्राम में विचरना प्रारम्भ किया। तब भयानक निवातकवच चारों ओर से मेरे ऊपर टूट पड़े।

   उस समय मैंने अवसर देख-देखकर उन सब को यमलोक भेज दिया। वह युद्ध निवातकवचों के लिये विनाशकारी था। अभी युद्ध हो ही रहा था कि सहसा सारे दानव अन्तर्धानी माया से छिप गये। अतः मैं किसी को भी देख न सका।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में मायायुद्ध विषयक एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विसप्तत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"निवातकवचों का संहार"

    अर्जुन बोले ;- राजन्! इस प्रकार अदृश्य रहकर ही वे दैत्य माया द्वारा युद्ध करने लगे तथा मैं भी अपने अस्त्रों की अदृश्य शक्ति के द्वारा ही उनका सामना करने लगा। मेरे गाण्डीव धनुष से छूटे हुए बाण विधिवत् प्रयुक्त दिव्यास्त्रों से प्रेरित हो जहाँ-जहाँ वे दैत्य थे, वहीं जाकर उनके सिर काटने लगे। जब मैं इस प्रकार युद्धक्षेत्र में उनका संहार करने लगा, तब वे निवातकवच दानव अपनी माया को समेटकर सहसा नगर में घुस गये। दैत्यों के भाग जाने से वहाँ सब कुछ स्पष्ट दिखायी देने लगा, तब मैंने देखा, लाखों दानव वहाँ मरे पड़े थे। उनके अस्त्र-शस्त्र और आभूषण भी पिसकर चूर्ण हो गये थे। दानवों के शरीरों और कवचों के सौ-सौ टुकड़े दिखायी देते थे। वहाँ दैत्यों की इतनी लाशें पड़ी थीं कि घोड़ों के लिये एक के बाद दूसरा पैर रखने के लिये कोई स्थान नहीं रह गया था। अतः वे अन्तरिक्षचारी अश्व वहां से सहसा उछलकर आकाश में खड़े हो गये। तदनन्तर निवातकवचों ने अदृश्यरूप से ही आक्रमण किया ओर केवल आकाश को आच्छादित करके पत्थरों की वर्षा आरम्भ कर दी।

     भरतनन्दन! कुछ भयंकर दानवों ने, जो पृथ्वी के भीतर घुसे हुए थे, मेरे घोड़ों के पैर तथा रथ के पहिये पकड़ लिये। इस प्रकार युद्ध करते समय मेरे हरे रंग के घोड़ों तथा रथ को पकड़कर उन दानवों ने रथसहित मेरे ऊपर सब ओर से शिलाखण्डों द्वारा प्रहार आरम्भ किया। नीचे पर्वतों के ढेर लग रहे थे और ऊपर से नयी-नयी चट्टानें पड़ रही थीं। इससे वह प्रदेश जहाँ हम लोग मौजूद थे, एक गुफा के समान बन गया। एक ओर तो मैं शिलाखण्डों से आच्छादित हो रहा था, दूसरी ओर मेरे घोड़े पकड़ लिये जाने से रथ की गति कुण्ठित हो गयी थी। इस विवशता की दशा में मुझे बड़ी पीड़ा होने लगी, जिसे मातलि ने जान लिया। इस प्रकार मुझे भयभीत हुआ देख मातलि ने कहा,,

   मातलि बोले ;- 'अर्जुन! अर्जुन! तुम डरो मत। इस समय वज्रास्त्र का प्रयोग करो'।

   महाराज! मातलि का वह वचन सुनकर मैंने देवराज के परम प्रिय तथा भयंकर अस्त्र वज्र का प्रयोग किया। अविचल स्थान का आश्रय ले गाण्डीव धनुष को वज्रास्त्र से अभिमंत्रित करके मैंने लोहे के तीखे बाण छोड़े, जिनका स्पर्श वज्र के समान कठोर था। तदनन्तर वज्रास्त्र से प्रेरित हुए वे वज्रस्वरूप बाण पूर्वोक्त सारी मायाओं तथा निवातकवच दानवों के भीतर घुस गये। फिर तो वज्र से मारे गये वे पर्वताकार दानव एक-दूसरे का आलिंगन करते हुए धराशायी हो गये। पृथ्वी के भीतर घुसकर जिन दानवों ने मेरे रथ के घोड़ों को पकड़ रखा था, उनके शरीर में भी घुसकर मेरे बाणों ने उन सबको यमलोक भेज दिया। वहाँ मरकर गिरे हुए पर्वताकार निवातकवच इधर-उधर बिखरे हुए पर्वतों के समान जान पड़ते थे। वहां का सारा प्रदेश उनकी लाशों से पट गया था। उस समय के युद्ध में न तो घोड़ों को कोई हानि पहुँची, न रथ का ही कोई सामान टूटा, न मातलि को ही चोट लगी और न मेरे ही शरीर में कोई आघात दिखायी दिया, यह एक अद्भुत-सी बात थी।

  तब मातलि ने हंसते हुए मुझसे कहा,

    मातलि बोले ;- 'अर्जुन! तुममें जो पराक्रम दिखायी देता है, वह देवताओं में भी नहीं है'। उन असुर समूहों के मारे जाने पर उनकी सारी स्त्रियां उस नगर में जोर-जोर से करुण-क्रन्दन करने लगीं, मानो शरत्काल में सारस पक्षी बोल रहे हों। तब मैं मातलि के साथ रथ की घर्घराहट से निवातकवचों की स्त्रियों को भयभीत करता हुआ उस दैत्य-नगर में गया। मोर के समान सुन्दर उन दस हजार घोड़ों को तथा सूर्य के समान तेजस्वी उस दिव्य रथ को देखते ही झुंड-की-झुंड दानव-स्त्रियां इधर-उधर भाग चलीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विसप्तत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 24-35 का हिन्दी अनुवाद)

    उन डरी हुई निशाचरियों के आभूषणों के द्वारा उत्पन्न हुआ शब्द पर्वतों पर पड़ती हुई शिलाओं के समान जान पड़ता था। तत्पश्चात् वे भयभीत हुई दैत्यनारियां अपने-अपने घरों में घुस गयीं। उनके महल सोने के बने हुए थे और अनेक प्रकार के रत्नों से उनकी विचित्र शोभा होती थी। वह उत्तम एवं अद्भुत नगर देवपुरी से भी श्रेष्ठ दिखायी देता था। तब उसे देखकर मैंने मातलि से पूछा,,

   अर्जुन बोले ;- 'सारथे! देवता लोग ऐसा नगर क्यों नहीं बसाते हैं? यह नगर तो मुझे इन्द्रपुरी से भी बढ़कर दिखायी देता है'।

    मातलि बोले ;- पार्थ! पूर्वकाल में यह नगर हमारे देवराज के ही अधिकार में था। फिर निवातकवचों ने आकर देवताओं को यहां से निकाल दिया। उन्होंने अत्यन्त तीव्र तपस्या करके पितामह ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और उनसे अपने रहने के लिये यही नगर मांग लिया। साथ ही यह भी मांगा कि 'हमें युद्ध में देवताओं से भय न हो।' तब इन्द्र ने भगवान् ब्रह्माजी से इस प्रकार निवेदन किया,

    इंद्र बोले ;- 'प्रभो! अपने (और हमारे) हित के लिये आप ही इन दानवों का अन्त कीजिये'। भरतनन्दन! उनके ऐसा कहने पर भगवान् ब्रह्मा ने कहा,,

    ब्रह्मा जी बोले ;- 'शत्रुदमन देवराज! इसमें दैव का यही विधान है कि तुम्हीं दूसरा शरीर धारण करके इन दानवों का अन्त कर सकोगे'। (अर्जुन! तुम्हीं इन्द्र के दूसरे स्वरूप हो) इन दैत्यों के वध के लिये ही इन्द्र ने तुम्हें दिव्यास्त्र प्रदान किये हैं। आज जो ये दानव तुम्हारे हाथों मारे गये हैं, इन्हें देवता नहीं मार सकते थे। भारत! समय के फेर से ही तुम इनका विनाश करने के लिये यहाँ आ पहुँचे हो और तुमने जैसा दैव का विधान था, उसके अनुसार इनका संहार कर डाला है। पुरुषोत्तम! देवराज इन्द्र ने इन दानवों के विनाश के उद्देश्य से ही तुम्हें परम उत्तम अस्त्र-बल की प्राप्ति करायी है।'

    अर्जुन कहते हैं ;- महाराज! इस प्रकार उन दानवों का संहार करके नगर में शान्ति स्थापित करने के पश्चात् मैं मातलि के साथ पुनः उस देवलोक को लौट आया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में निवातकवच युद्ध विषयक एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिसप्तत्यधिशततम अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध और इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन"

   अर्जुन बोले ;- राजन्! तत्पश्चात् लौटते समय मार्ग में मैंने एक दूसरा दिव्य विशाल नगर देखा, जो अग्नि और सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। वह अपने निवासियों की इच्छा के अनुसार सर्वत्र आ-जा सकता था। विचित्र रत्नमय वृक्ष और मधुर स्वर में बोलने वाले पक्षी उस नगर की शोभा बढ़ाते थे। पौलोम और कालकंज नामक दानव सदा प्रसन्नतापूर्वक वहाँ निवास करते थे। उस नगर में ऊँचे-ऊँचे गोपुरों सहित सुन्दर अट्टालिकाएं सुशोभित थीं। उसमें चारों दिशाओं में एक-एक करके चार फाटक लगे थे। शत्रुओं के लिये उस नगर में प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन था। सब प्रकार के रत्नों से निर्मित वह दिव्य नगर अद्भुत दिखायी देता था। फल और फूलों से भरे हुए सर्वरत्नमय वृक्ष उस नगर को सब ओर से घेरे हुए थे तथा वह नगर दिव्य एवं अत्यन्त मनोहर पक्षियों से युक्त था। सदा प्रसन्न रहने वाले बहुत-से असुर गले में सुन्दर माला धारण किये और हाथों में शूल, ऋष्टि, मूसल, धनुष तथा मुद्गर आदि अस्त्र-शस्त्र लिये सब ओर से घेरकर उस नगर की रक्षा करते थे।

   राजन्! दैत्यों के उस अद्भुत दिखायी देने वाले नगर को देखकर मैंने मातलि से पूछा,,

   अर्जुन बोले ;- 'सारथे! यह कौन-सा अद्भुत नगर है?' 

    मातलि ने कहा ;- 'पार्थ! दैत्यकुल की कन्या पुलोमा तथा महान् असुरवश की कन्या कालका-उन दोनों ने एक हजार दिव्य वर्षों तक बड़ी भारी तपस्या की। तदनन्तर तपस्या पूर्ण होने पर भगवान् ब्रह्माजी ने उन दोनों को वर दिया। उन्होंने यही वर मांगा कि 'हमारे पुत्रों का दुःख दूर हो जाये'। राजेन्द्र! उन दोनों ने यह भी प्रार्थना की कि 'हमारे पुत्र देवता, राक्षस तथा नागों के लिये भी अवध्य हों। इनके रहने के लिये एक सुन्दर नगर होना चाहिये, जो अपनी महान् प्रभा-पुंज से जगमगा रहा हो। वह नगर विमान की भाँति आकाश में विचरने वाला होना चाहिये, उसमें सब प्रकार के रत्नों का संचय रहना चाहिये, देवता, महर्षि, यक्ष, गन्धर्व, नाग, असुर तथा राक्षस कोई भी उसका विध्वंस न कर सके। वह नगर समस्त मनोवांछित गुणों से सम्पन्न, शोकशून्य तथा रोग आदि से रहित होना चाहिये। भरतश्रेष्ठ! ब्रह्माजी ने कालकेयों के लिये वैसे ही नगर का निर्माण किया था। यह वही आकाशचारी दिव्य नगर है, जो सर्वत्र विचरता है। इसमें देवताओं का प्रवेश नहीं है। वीरवर! इसमें पौलोम और कालकंज नामक दानव ही निवास करते हैं। यह विशाल नगर हिरण्यपुर के नाम से विख्यात है। कालकेय तथा पौलोम नामक महान् असुर इसकी रक्षा करते हैं। राजन्! ये वे ही दानव हैं, जो सम्पूर्ण देवताओं से अवध्य रहकर उद्वेग तथा उत्कण्ठा से रहित हो यहाँ प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने मनुष्य के हाथ से इनकी मृत्यु निश्चित की थी। कुन्तीकुमार! ये कालकंज और पौलोम अत्यन्त बलवान् तथा दुर्धर्ष हैं। तुम युद्ध में वज्रास्त्रों के द्वारा इनका भी शीघ्र ही संहार कर डालो।'

   अर्जुन बोले ;- राजन्! उस हिरण्यपुर को देवताओं और असुरों के लिये अवध्य जानकर मैंने मातलि से प्रसन्नतापूर्वक कहा,,

   अर्जुन ने कहा ;- 'आप यथाशीघ्र इस नगर में अपना रथ ले चलिये। जिससे देवराज के द्रोहियों को मैं अपने अस्त्रों द्वारा नष्ट कर डालूं? जो देवताओं से द्वेष रखते हैं, उन पापियों को मैं किसी प्रकार मारे बिना नहीं छोड़ सकता'। मेरे ऐसा कहने पर मातलि ने घोड़ों से युक्त उस दिव्य रथ के द्वारा मुझे शीघ्र ही हिरण्यपुरके निकट पहुँचा दिया। मुझे देखते ही विचित्र वस्त्राभूषणों से विभूषित वे दैत्य कवच पहनकर अपने रथों पर जा बैठे और बड़े वेग से मेरे ऊपर टूट पड़े। तत्पश्चात् क्रोध में भरे हुए उन प्रचण्ड पराक्रमी दानवेन्द्रों ने नालीक, नाराच, भल्ल, शक्ति, ऋष्टि तथा तोमर आदि अस्त्रों द्वारा मुझे मारना आरम्भ किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिसप्तत्यधिशततम अध्‍याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)

    राजन्! उस समय मैंने विद्या-बल का आश्रय लेकर महती बाण-वर्षा के द्वारा उनके अस्त्र-शस्त्रों की भारी बौछार को रोका और युद्ध-भूमि में रथ के विभिन्न पैंतरें बदलकर विचरते हुए उन सबको मोह में डाल दिया। वे ऐसे किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे कि आपस में ही लड़कर एक-दूसरे दानवों को धराशायी करने लगे। इस प्रकार मूढ़चित्त हो आपस में ही एक-दूसरे पर धावा करने वाले उन दानवों के सौ-सौ मस्तकों को मैं अपने प्रज्वलित बाणों द्वारा काट-काटकर गिराने लगा। वे दैत्य जब इस प्रकार मारे जाने लगे, तब पुनः अपने उस नगर में ही घुस गये और दानवी माया का सहारा ले नगर सहित आकाश में ऊँचे उड़ गये। कुरुनन्दन! तब मैंने बाणों की भारी बौछार करके दैत्यों का मार्ग रोक लिया और उनकी गति कुण्ठित कर दी। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला दैत्यों का वह आकाशचारी दिव्य नगर उनकी इच्छा के अनुसार चलने-वाला था और दैत्य लोग वरदान के प्रभाव से उसे सुखपूर्वक आकाश में धारण करते थे। वह दिव्यपुर कभी पृथ्वी पर अथवा पाताल में चला जाता, कभी ऊपर उड़ जाता, कभी तिरछी दिशाओं में चलता ओर कभी शीघ्र ही जल में डूब जाता था। परंतप! इच्छानुसार विचरने वाला वह विशाल नगर अमरावती के ही तुल्य था; परंतु मैंने नाना प्रकार के अस्त्रों द्वारा उसे सब ओर से रोक लिया।

     नरश्रेष्ठ! फिर दिव्यास्त्रों से अभिमंत्रित बाण समूहों की वृष्टि करते हुए मैंने दैत्यों सहित उस नगर को क्षत-विक्षत करना आरम्भ किया। राजन्! मेरे चलाये हुए लोहनिर्मित बाण सीधे लक्ष्य तक पहुँचने वाले थे। उनसे क्षतिग्रस्त हुआ वह दैत्य-नगर तहस-नहस होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। महाराज! लोहे के बने हुए मेरे बाणों का वेग वज्र के समान था। उनकी मार खाकर वे कालप्रेरित असुर चारों ओर चक्कर काटने लगते थे। तदनन्तर मातलि आकाश में ऊँचे चढ़कर सूर्य के समान तेजस्वी रथ द्वारा उन राक्षसों के सामने गिरते हुए से शीघ्र ही पृथ्वी पर उतरे। भरतनन्दन! उस समय युद्ध की इच्छा से अमर्ष में भरे हुए उन दानवों के साठ हजार रथ मेरे साथ लड़ने के लिये डट गये। यह देख मैंने गृद्धपंख से सुशोभित तीखे बाणों द्वारा उन सबको घायल करना आरम्भ किया। परंतु वे दानव युद्ध के लिये इस प्रकार मेरी ओर चढ़े आ रहे थे, मानो समुद्र की लहरें उठ रही थीं। तब मैंने यह सोचकर कि मानवोचित युद्ध के द्वारा इन पर विजय नहीं पायी जा सकती, क्रमशः दिव्यास्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया। परंतु विचित्र युद्ध करने वाले वे सहस्रों रथारूढ़ दानव धीरे-धीरे मेरे दिव्यास्त्रों का भी निवारण करने लगे। वे महान् बलवान् तो थे ही, रथ के विचित्र पैंतरें बदलकर रण-भूमि में विचर रहे थे।

   उस युद्ध के मैदान में उनके सौ-सौ और हजार-हजार के झुंड दिखायी देते थे। उनके मस्तकों पर विचित्र मुकूट और पगड़ी देखी जाती थीं। उनके कवच ओर ध्वज भी विचित्र ही थे। वे अद्भुत आभूषण से विभूषित हो मेरे लिये मनोरंजन की-सी वस्तु बन गये थे। उस युद्ध में दिव्यास्त्रों द्वारा अभिमंत्रित बाणों की वर्षा करके भी मैं उन्हें पीड़ित न कर सका; परंतु वे मुझे बहुत पीड़ा देने लगे। वे अस्त्रों के ज्ञाता तथा युद्धकुशल थे, उनकी संख्या भी बहुत थी। उस महान् संग्राम में उन दानवों से पीड़ित होने पर मेरे मन में महान् भय समा गया। तब मैंने एकाग्रचित्त हो मस्तक झुकाकर देवाधिदवे महात्मा रुद्र को प्रणाम किया और 'समस्त भूतों का कल्याण हो' ऐसा कहकर उनके महान् पाशुपतास्त्र का प्रयोग किया। इसी को 'रौद्रास्त्र' भी कहते हैं। वह समस्त शत्रुओं का विनाश करने वाला है। वह महान् एवं दिव्य पाशुपतास्त्र सम्पूर्ण विश्व के लिये वन्दनीय है। उसका प्रयोग करते ही मुझे एक दिव्य पुरुष का दर्शन हुआ, जिनके तीन मस्तक, तीन मुख, नौ नेत्र तथा छः भुजाएं थीं। उनका स्वरूप बड़ा तेजस्वी था। उनके मस्तक के बाल सूर्य के समान प्रज्वलित हो रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिसप्तत्यधिशततम अध्‍याय के श्लोक 43-65 का हिन्दी अनुवाद)

    शत्रुदमन नरेश! लपलपाती जीभ वाले बड़े-बड़े नाग उन दिव्य पुरुष के लिये चीर (वस्त्र) बने हुए थे। भक्तों पर अनुग्रह करने वाले उन महादेव जी ने सर्पों का ही यज्ञोपवित धारण कर रखा था। उनके दर्शन से मेरा सारा भय जाता रहा। भरतश्रेष्ठ! फिर तो मैंने उस भयंकर एवं सनातन पाशुपतास्त्रों को गाण्डीव धनुष पर संयोजित करके अमित तेजस्वी त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर को नमस्कार किया और उन दानवेन्द्रों के विनाश के लिये उन पर चला दिया। उस अस्त्र के छूटते ही उससे सहस्रों रूप प्रकट हो गये। महाराज! मृग, सिंह, व्याघ्र, रीछ, भैंस, नाग, गौ, शरभ, हाथी, वानर, बैल, सूअर, बिलाव, भेड़िये, प्रेत, भूरुण्ड, गिद्ध, गरुड़, चमरी गाय, देवता, ऋर्षि, गन्धर्व, पिशाच, यक्ष, देवद्रोही राक्षस, गुह्यक, निशाचर, मत्स्य, गजमुख, उल्लू, मीन तथा अश्व जैसे रूप वाले नाना प्रकार के जीवों का प्रादुर्भाव हुआ। उन सब के हाथ में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र एवं खड्ग थे। इसी प्रकार गदा और मुद्गर धारण किये बहुत-से यातुधान भी प्रकट हुए। इन सबके साथ दूसरे भी बहुत-से जीवों का प्राकट्य हुआ, जिन्होंने नाना प्रकार के रूप धारण कर रखे थे। उन सबके द्वारा यह सारा जगत व्याप्त-सा हो गया था। पाशुपतास्त्र का प्रयोग होते ही कोई तीन मस्तक, कोई चार दाढें, कोई चार मुख ओर कोई चार भुजा वाले अनेक रूपधारी प्राणी प्रकट हुए, जो मांस, मेदा, वसा और हड्डियों से संयुक्त थे। उन सबके द्वारा गहरी मार पड़ने से वे सारे दानव नष्ट हो गये।

     भारत! उस समय सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी तथा वज्र और अशनि के समान प्रकाशित होने वाले शत्रुविनाशक लोहमय बाणों द्वारा भी मैंने दो ही घड़ी में सम्पूर्ण दानवों का संहार कर डाला। गाण्डीव धनुष से छूटे हुए अस्त्रों द्वारा क्षत-विक्षत हो समस्त दानव प्राण त्यागकर आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े हैं। यह देखकर मैंने पुनः त्रिपुरनाशक भगवान् शंकर को प्रणाम किया। दिव्य आभूषणों से विभूषित दानव पाशुपतास्त्र से पिस गये हैं, यह देखकर देवसारथि मातलि को बड़ा हर्ष हुआ। जो कार्य देवताओं के लिये भी दुष्कर और असह्य था, वह मेरे द्वारा पूरा हुआ देख इन्द्रसारथि मातलि ने मेरा बड़ा सम्मान किया और अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़कर कहा,

    मातलि बोले ;- 'अर्जुन! आज तुमने वह कार्य कर दिखाया है, जो देवताओं और असुरों के लिये भी असाध्य था। साक्षात् देवराज इन्द्र भी युद्ध में यह सब कार्य करने की शक्ति नहीं रखते हैं। हिरण्यपुर का विनाश करने वाले वीरवर धनंजय! निश्चय ही देवराज इन्द्र आज तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न होंगे। वीर! तुमने अपने पराक्रम और तपस्या के बल से इस आकाशचारी विशाल नगर को तहस-नहस कर डाला; जिसे सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी नष्ट नहीं कर सकते थे।'

     उस आकाशवर्ती नगर का विध्वंस और दानवों का संहार हो जाने पर वहां की सारी स्त्रियां विलाप करती हुई नगर से बाहर निकल आयीं। उनके केश बिखरे हुए थे। वे दुःख और व्यथा में डूबी हुई कुररी की भाँति करुण-क्रन्दन करती थीं। अपने पुत्र, पिता और भाइयों के लिये शोक करती हुई वे सब-की-सब पृथ्वी पर गिर पड़ीं। जिनके पति मारे गये थे, वे अनाथ अबलाएं दीनतापूर्ण कण्ठ से रोती-चिल्लाती हुई छाती पीट रही थीं। उनके हार और आभूषण इधर-उधर गिर पड़े थे। दानवों का वह नगर शोकमग्न हो अपनी सारी शोभा खो चुका था। वहाँ दुःख और दीनता व्याप्त हो रही थी। अपने प्रभुओं के मारे जाने से वह दानवनगर निष्प्रभ और अशोभनीय हो गया था। गन्धर्वनगर की भाँति उसका अस्तित्व अयथार्थ जान पड़ता था। जिसका हाथी मर गया हो, उस सरोवर और जहां के वृक्ष सूख गये हों, उस वन के समान वह नगर अदर्शनीय हो गया था।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिसप्तत्यधिशततम अध्‍याय के श्लोक 66-75 का हिन्दी अनुवाद)

    मेरे मन में तो हर्ष ओर उत्साह भरा हुआ था। मैंने देवताओं का कार्य पूरा कर दिया था। अतः मातलि उस रण-भूमि से मुझे शीघ्र ही देवराज इन्द्र के भवन में ले आये। इस प्रकार मैं निवातकवच नामक महादानवों को (तथा पौलोम और कालिकेयों की) मारकर तथा उजड़े हुए हिरण्यपुर को उसी अवस्था में छोड़कर वहां से इन्द्र के पास आया।

    महाद्युते! मतलि ने मेरा सारा कार्य, जो कुछ जैसे हुआ था, देवराज इन्द्र से विस्तारपूर्वक कह सुनाया। हिरण्यपुर का विध्वंस, दानवी माया का निवारण तथा महाबलवान् निवातकवचों का युद्ध में वध सुनकर मरुत् आदि देवताओं सहित भगवान् सहस्रलोचन इन्द्र अत्यन्त प्रसन्न हो मुझे साधुवाद देने लगे और मुझे प्रेमपूर्वक हृदय से लगाकर मुसकराते हुए मेरा मस्तक सूंघा।

तत्पश्चात् देवराज ने बार-बार मुझे सान्त्वना देते हुए देवताओं के साथ यह मधुर वचन कहा,

    देवराज इंद्र बोले ;- 'पार्थ! तुमने युद्ध में वह कार्य किया है, जो देवताओं ओर असुरों के लिये भी असम्भव है। आज तुमने मेरे महान् शत्रुओं का संहार करके गुरुदक्षिणा चुका दी है। धनंजय! इसी प्रकार तुम्हें सदा युद्धभूमि में अविचल रहना चाहिये और मोहशून्य होकर अस्त्रों का प्रयोग करना चाहिये। देवता, दानव तथा राक्षस कोई भी युद्ध में तुम्हारा सामना नहीं कर सकता। यक्ष, असुर, गन्धर्व, पक्षी तथा नाग भी तुम्हारे सामने नहीं टिक सकते। कुन्तीकुमार! धर्मात्मा कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर तुम्हारे बाहुबल से जीती हुई पृथ्वी का पालन करेंगे।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में हिरण्यपुरवासी दैत्यों के वध से सम्बन्ध रखने वाला एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

एक सौ चहोत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुःसप्तत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन के मुख से यात्रा का वृत्तान्त सुनकर युधिष्ठिर द्वारा उनका अभिनन्दन और दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा प्रकट करना"

   अर्जुन कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर मैं देवराज का अत्यन्त विश्वासपात्र बन गया। धीर-धीरे शरीर के सब घाव भर गये। तब एक दिन देवराज इन्द्र ने मेरा हाथ पकड़कर कहा,,

   देवराज इंद्र बोले ;- 'भरतनन्दन! तुम में सब दिव्यास्त्र विद्यमान हैं। भूमण्डल का कोई भी मनुष्य तुम्हें पराजित नहीं कर सकता। बेटा! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा राजाओं सहित शकुनि -ये सब-के-सब संग्राम में खड़े होने पर तुम्हारी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते'। महाराज! उन देवेश्वर इन्द्र ने स्वयं मेरे शरीर की रक्षा करने वाला यह अभेद्य दिव्य कवच और यह सुवर्णमयी माला मुझे दी। फिर उन्होंने बड़े जोर की आवाज करने वाला यह देवदत्त नामक शंख प्रदान किया। स्वयं देवराज इन्द्र ने ही यह दिव्य किरीट मेरे मस्तक पर रखा था। तत्पश्चात् देवराज ने मुझे ये मनोहर एवं विशाल दिव्य वस्त्र तथा दिव्य आभूषण दिये। महाराज! इस प्रकार सम्मानित होकर मैं उस पवित्र इन्द्रभवन में गन्धर्वकुमारों के साथ सुखपूर्वक रहने लगा।

   तदनन्तर देवताओं सहित इन्द्र ने प्रसन्न होकर मुझसे कहा,,

   इंद्र बोले ;- 'अर्जुन! अब तुम्हारे जाने का समय आ गया है, क्योंकि तुम्हारे भाई तुम्हें बहुत याद करते हैं'। भारत! इस प्रकार द्यूतजनित कलह का स्मरण करते हुए मैंने इन्द्रभवन में पांच वर्ष व्यतीत किये हैं। इसके बाद इस गन्धमादन की शाखाभूत इस पर्वत के शिखर पर भाइयों सहित आपका दर्शन किया है।

   युधिष्ठिर बोले ;- धनंजय! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुमने दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये। भारत! यह भी भाग्य की ही बात है कि तुमने देवताओं के स्वामी राजराजेश्वर इन्द्र को आराधना द्वारा प्रसन्न कर लिया। निष्पाप परंतप! सबसे बड़ी सौभाग्य की बात तो यह है कि तुमने देवी पार्वती के साथ साक्षात् भगवान् शंकर का दर्शन किया और उन्हें अपनी युद्धकला से संतुष्ट कर लिया। भरतश्रेष्ठ! समस्त लोकपालों के साथ तुम्हारी भेंट हुई, यह भी हमारे लिये सौभाग्य का सूचक है। हमारा अहोभाग्य है कि हम उन्नति के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं। अर्जुन! हमारे भाग्य से ही तुम पुनः हमारे पास लौट आये। आज मुझे यह विश्वास हो गया कि हम नगरों से सुशोभित समूची वसुधा देवी को जीत लेंगे। अब हम धृतराष्ट्र के पु़त्रों को भी अपने वश में पड़ा हुआ ही मानते हैं। भारत! अब मेरी इच्छा उन दिव्यास्त्रों को देखने की हो रही है, जिनके द्वारा तुमने उस प्रकार के अनेक महापराक्रमी निवातकवचों का विनाश किया है।'

   अर्जुन बोले ;- महाराज! कल सबेरे आप उन सब दिव्यास्त्रों को देखियेगा, जिनके द्वारा मैंने भयानक निवातकवचों को मार गिराया है।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार अपने आगमन का वृत्तान्त सुनाकर सब भाइयों सहित अर्जुन ने वहाँ वह रात व्यतीत की।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में अस्त्रदर्शन के लिये संकेत विषयक एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचसप्तत्यविकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)

"नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्रों के प्रदर्शन से रोकना"

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब वह रात बीत गयी, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने भाइयों सहित उठकर आवश्यक नित्यकर्म पूरे किये। तत्पश्चात उन्होंने भाइयों को सुख पहुँचाने वाले अर्जुन को आज्ञा दी,

   युधिष्ठिर बोले ;- 'कुन्तीनन्दन! अब तुम उन दिव्यास्त्रों का दर्शन कराओ, जिनसे तुमने दानवों पर विजय पायी है।' राजन्! तब पाण्डुनन्दन अर्जुन ने देवताओं के दिये हुए उन दिव्य अस्त्रों को दिखाने का आयोजन किया। महातेजस्वी अर्जुन पहले तो विधिपूर्वक स्नान करके शुद्ध हुए। फिर त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर और इन्द्र को नमस्कार करके उन्होंने वह अत्यन्त तेजस्वी दिव्य कवच धारण किया। तत्पश्चात् वे पृथ्वीरूपी रथ पर आरूढ़ हो बड़ी शोभा पाने लगे। पर्वत ही उस रथ का कूबर था, दोनों पैर ही पहिये थे और सुन्दर बांसों का वन ही त्रिवेणु (रथ के अंगविशेष) का काम देता था। तदनन्तर महाबाहु कुन्तीनन्दन अर्जुन ने एक हाथ में गाण्डीव धनुष और दूसरे में सुशोभित हो उन्होंने क्रमशः उन दिव्यास्त्रों को दिखाना आरम्भ किया।

    जिस समय उन दिव्यास्त्रों का प्रयोग प्रारम्भ होने जा रहा था, उसी समय अर्जुन के पैरों से दबी हुई पृथ्वी वृक्ष सहित कांपने लगी। नदियों और समुद्रों में उफान आ गया। पर्वत विदीर्ण होने लगे और हवा की गति रुक गयी। सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी और आग का जलना बंद हो गया। द्विजातियों को किसी प्रकार भी वेदों का भान नहीं हो पाता था। जनमेजय! भूमि के भीतर जो प्राणी निवास करते थे, वे भी पीड़ित हो उठे और अर्जुन को सब ओर से घेरकर खड़े हो गये। उन सबके मुख पर विकृति आ गयी थी। वे हाथ जोड़े हुए थर-थर कांप रहे थे और अस्त्रों के तेज से संतप्त हो धनंजय से प्राणों की भिक्षा मांग रहे थे। इसी समय ब्रह्मर्षि, सिद्ध महर्षि, समस्त जंगम प्राणी, श्रेष्ठ देवर्षि, देवता, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, पक्षी तथा आकाशचारी प्राणी सभी वहाँ आकर उपस्थित हो गये। इसके बाद ब्रह्माजी, समस्त लोकपाल तथा भगवान् महादेव अपने गणों सहित वहाँ आये।

   महाराज! तदनन्तर वायुदेव पाण्डुनन्दन अर्जुन पर सब ओर से विचित्र सुगन्धित दिव्य मालाओं की वृष्टि करने लगे। राजन्! देवप्रेरित गन्धर्व नाना प्रकार की गाथाएं गाने लगे और झुंड-की-झुंड अप्सराएं नृत्य करने लगीं। नराधिप! उस समय देवताओं के कहने से महर्षि नारद अर्जुन के पास आये और उनसे यह सुनने योग्य बात कहने लगे,

    महर्षि नारद बोले ;- 'अर्जुन! अर्जुन! इस समय दिव्यास्त्रों का प्रयोग न करो। भारत! ये दिव्य अस्त्र किसी लक्ष्य के बिना कदापि नहीं छोड़े जाते। कोई लक्ष्य मिल जाये तो भी ऐसा मनुष्य कभी इनका प्रयोग न करे, जो स्वयं संकट में न पड़ा हो। कुरुनन्दन! इन दिव्यास्त्रों का अनुचित रूप में प्रयोग करने पर महान् दोष प्राप्त होता है।


धनंजय! शास्त्र के अनुसार सुरक्षित रखे जाने पर ही ये अस्त्र सबल और सुखदायक होते हैं, इसमें संशय नहीं है। पाण्डुपुत्र! इनकी समुचित रक्षा न होने पर ये दिव्यास्त्र तीनों लोकों के विनाश के कारण बन जाते हैं। अतः फिर कभी इस तरह इनके प्रदर्शन का साहस न करना। अजातशत्रु युधिष्ठिर! (आप भी इस समय इन्हें देखने का आग्रह छोड़ दें), जब रणक्षेत्र में शत्रुओं के संहार का अवसर आयेगा, उस समय अर्जुन के द्वारा प्रयोग में लाये जाने पर इन दिव्यास्त्रों का दर्शन कीजियेगा।'

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- नरश्रेष्ठ! इस प्रकार अर्जुन को दिव्यास्त्रों के प्रदर्शन से रोककर सम्पूर्ण देवता तथा अन्य सभी प्राणी जैसे आये थे, वैसे लौट गये। कुरुनन्दन! उन सबके चले जाने पर सब पाण्डव द्रौपदी के साथ बड़े हर्षपूर्वक उसी वन में रहने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में अस्त्रदर्शन विषयक एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(निवातकवचयुद्ध पर्व समाप्त)


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