सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ छाछठवें अध्याय से एक सौ सत्तरवें अध्याय तक (From the 166 to the 170 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

एक सौ छाछठवाँ अध्याय

"इन्द्रका पाण्डवोंके पास आना और युधिष्ठिरको सान्त्वना देकर स्वर्गको लौटना"

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय ! तदनन्तर रात बिताने पर प्रातःकाल उठकर समस्त भाइयों सहित अर्जुन ने धर्मराज युधिष्ठिर को प्रणाम किया, इसी समय अन्तरिक्षमें देवताओंके सम्पूर्ण वाद्यों की तुमुल ध्वनि गूँज उठी, भारत ! रथके पहियोकी पराहट, घंटानाद तथा सर्प, मृग एवं पक्षियोंके कोलाहल सब और पृथक-पृथक सुनायी दे रहे थे। पाण्डवों ने प्रसन्नतापूर्वक उस ध्वनिकी ओर आँख उठाकर देखा तो उन्हें देवराज इन्द्र दृष्टिगोचर हुए जो सम्पूर्ण मद्रण आदि देवताओं के साथ आकाश मार्ग से आ रहे थे गन्धर्वो और अप्सराओं के समूह सूर्य के समान तेजस्वी विमानद्वारा शत्रुदमन देवराज को चारों ओर से घेरकर उन्हीं के पथका अनुसरण कर रहे थे ।।१-४।।

थोड़ी ही देरमें हरे रंगके घोड़ेंसि जुते हुए, मेघ गर्जनाके समान गम्भीर घोष करनेवाले, जाम्बूनद नामक सुवर्णसे अलंकृत रथपर आरूढ


देवराज इन्द्र पाण्डवोंके पास आ पहुँचे उस समय वे अपनी उत्कृष्ट प्रभाते अत्यन्त उद्भासित हो रहे थे, निकट आनेपर सहस्रलोचन इन्द्र रथसे उतर गये । उन महामना देवराजको देखते ही भाइयोसहित श्रीमान् धर्मराज युधिष्ठिर उनके पास गये ।।५-७॥

    यशोंमें प्रचुर दक्षिणा देनेवाले युधिष्ठिरने शास्त्रवर्णित पद्धति से अमितबुद्धि इन्द्रका विधिवत् स्वागत-सत्कार किया, तेजस्वी अर्जुन भी इन्द्रको प्रणाम करके उनके समीप सेवककी भाँति विनीत भावसे खड़े हो गये, महातेजस्वी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर अर्जुनको देवराजके समीप विनीतभाव से स्थित देख बड़े प्रसन्न हुए। अर्जुनके सिरपर जटा बँध गयी थी। वे देवराजके आदेश के अनुसार तपस्या में लगे रहते थे; अतः सर्वथा निष्पाप हो गये थे। अर्जुनको देखनेसे उन्हें महान् हर्ष हुआ था ।।८-११।।

अतः देवराजका पूजन करके वे बड़े प्रसन्न हुए । उदारचित्त राजा युधिष्ठिरको इस प्रकार हर्षमें मग्न देखकर परम बुद्धिमान् देवराज इन्द्र ने कहा,,

    देवराज इंद्र बोले ;- पाण्डुनन्दन ! तुम इस पृथ्वीका शासन करोगे । कुन्तीकुमार ! अब तुम पुनः काम्यक वनके कल्याणकारी आश्रम में चले जाओ ।।१२-१३।।

    'राजन् ! पाण्डुनन्दन अर्जुनने एकाग्रचित्त होकर, मुझसे सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये हैं। साथ ही इन्होंने मेरा बड़ा प्रिय कार्य सम्पन्न किया है। तीनों लोकोंके समस्त प्राणी इन्हें युद्ध में परास्त नहीं कर सकते। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर से ऐसा कहकर इन्द्र महर्षियोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए सानन्द स्वर्गलोकको चले गये, धनाध्यक्ष कुबेर के घर में टिके हुए पाण्डवोंका जो इन्द्रके साथ समागम हुआ था, उस प्रसङ्गको जो विद्वान् एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन पढ़ता है और संयम-नियमसे रहकर कटोर व्रतका आश्रय ले एक वर्षतक ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह सब प्रकारकी बाधाओंसे रहित हो सौ वर्षोंतक सुखपूर्वक जीवन धारण करता है ।।१४-१७।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में इन्द्रागमनविषयक एक सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

एक सौ सड़सठवाँ अध्याय

"अर्जुन के द्वारा अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्तका वर्णन, भगवान् शिवके साथ संग्राम और पाशुपतास्त्र प्राप्तिकी कथा"

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय ! देवराज इन्द्रके चले जानेपर भाइयों तथा द्रौपदीके साथ मिलकर अर्जुनने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको प्रणाम किया, पाण्डुनन्दन अर्जुनको प्रणाम करते देख युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए एवं उनका मस्तक सूंघ कर हर्षगद्गद वाणी में इस प्रकार बोले,,

   युधिष्ठिर बोले ;- 'अर्जुन ! स्वर्ग में तुम्हारा वह समय किस प्रकार बीता ? कैसे तुमने दिव्यास्त्र प्राप्त किये और कैसे देवराज इन्द्रको संतुष्ट किया ? 'पाण्डुनन्दन ! क्या तुमने सभी अस्त्र अच्छी तरह सीख लिये ? क्या देवराज इन्द्र अथवा भगवान् रुद्रने प्रसन्न होकर तुम्हें अस्त्र प्रदान किये हैं ? ॥१-४॥

     'शत्रुदमन ! तुमने जिस प्रकार देवराज इन्द्रका दर्शन किया है अथवा जैसे पिनाकधारी भगवान् शिवको देखा है, जिस प्रकार तुमने सब अस्त्रोंकी शिक्षा प्राप्त की है और जैसे तुम्हारेद्वारा देवाराधनका कार्य सम्पादित हुआ है, वह सब बताओ भगवान् इन्द्रने अभी-अभी कहा था कि 'अर्जुनने मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न किया है' सो वह उनका कौन-सा प्रिय कार्य था, जिसे तुमने सम्पन्न किया है ? ।।५-६।।

      'महातेजस्वी वीर ! मैं ये सब बातें विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ शत्रुओंका दमन करनेवाले निष्पाप अर्जुन ! जिस प्रकार तुम्हारे ऊपर महादेवजी तथा देवराज इन्द्र संतुष्ट हुए और वज्रधारी इन्द्रका जो प्रिय कार्य तुमने सम्पन्न किया है, वह सब पूर्णरूपसे बताओ' ।।७-८।।

   अर्जुन बोले ;- महाराज ! मैंने जिस विधि से देवराज इन्द्र तथा भगवान् शङ्करका दर्शन किया था, वह सब बतलाता हूँ, सुनिये ! शत्रुओंका मर्दन करनेवाले नरेश ! आपको बतायी हुई विद्याको ग्रहण करके आपहीके आदेश से मैं तपस्या करने के लिये वनकी ओर प्रस्थित हुआ, काम्यक वन से चलकर तपस्या में पूरी आशा रखकर मैं भृगुतुङ्ग पर्वतपर पहुँचा और वहाँ एक रात रहकर जब आगे बढ़ा, तब मार्गमें किसी ब्राह्मणदेवताका मुझे दर्शन हुआ ।।९-११।।

उन्होंने मुझसे कहा,,

    ब्राह्मण देव बोले ;- "कुन्तीनन्दन कहाँ जाते हो ? मुझे ठीक-ठीक बताओ।' कुरुनन्दन ! तब मैंने उनसे सब कुछ सच सच बता दिया।

      "नृपश्रेउ ! ब्राह्मणदेवताने मेरी यथार्थ बातें सुनकर मेरी प्रशंसा की और मुझपर बड़े प्रसन्न हुए, तपश्चात् उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कहा,,

   ब्राम्हण देव बोले ;- 'भारत ! तुम तपस्याका आश्रय लो ! तपमें प्रवृत्त होनेपर तुम्हें शीघ्र ही देवराज इन्द्रका दर्शन होगा, महाराज ! उनके इस आदेशको मानकर मैं हिमालय पर्वतपर आरूढ़ हो तपस्या में संलग्न हो गया और एक मासतक केवल फल-फूल खाकर रहा ॥१२-१५॥

       इसी प्रकार मैंने दूसरा महीना भी केवल जल पीकर बिताया । पाण्डवनन्दन ! तीसरे महीने में मैं पूर्णतः निराहार रहा ! चौथे महीने में मैं ऊपरको हाथ उठाये खड़ा रहा। इतनेपर भी मेरा बल क्षीण नहीं हुआ, यह एक आश्चर्य की-सी बात हुई ।। १६-१७ ।।

   पाँचवाँ महीना प्रारम्भ होनेपर जब एक दिन बीत गया तब दूसरे दिन एक शुकर रूपधारी जीव मेरे निकट आया,

     वह अपनी थूथुन से पृथ्वीपर चोट करता और पैरोंसे धरती खोदता था। बार-बार लेटकर वह अपने पेटसे वहाँकी भूमिको ऐसी स्वच्छ कर देता था मानो उसपर झाड़ दिया गया हो। उसके पीछे किरात जैसी आकृति में एक महान् पुरुषका दर्शन हुआ। उसने धनुष-बाण और खड्न ले रखे थे । उसके साथ स्त्रियोंका एक समुदाय भी था, तब मैंने धनुष तथा अक्षय तरकस लेकर एक चाणके द्वारा उस रोमाञ्चकारी सूकरपर आघात किया ॥१८-२१।।

   साथ ही किरातने भी अपने सुहृद धनुपको खींचकर उसपर गहरी चोट की, जिससे मेरा हृदय कम्पित-सा हो उठा, राजन् ! फिर वह किरात मुझ से बोला,,

   किरात बोला ;- यह सूअर तो पहले मेरा निशाना बन चुका था, फिर तुमने आखेटके नियमको छोड़कर उसपर प्रहार क्यों किया ?

      इतना ही नहीं उस विशालकाय एवं धनुर्धर किरातने उस समय मुझसे यह भी कहा-अच्छा, ठहर जाओ । मैं अपने पैने बाणोंसे अभी तुम्हारा घमंड चूर-चूर किये देता हूँ'। ऐसा कहकर उस भीलने जैसे पर्वतपर वर्षा हो, उस प्रकार महान् बाणोंकी बौछार करके मुझे सब ओरसे ढक दिया; तब मैंने भी भारी बाणवर्षा करके उसे सब ओरसे आच्छादित कर दिया। तदनन्तर जैसे वज्रमे पर्वतपर आघात किया जाय उसी प्रकार प्रज्वलित मुखवाले अभिमन्त्रित और खूब खींचकर छोड़े हुए बाणोंद्वारा मैंने उसे बार-बार घायल किया, उस समय उसके सैकड़ों और सहस्रों रूप प्रकट हुए और मैंने उसके सभी शरीरोपर बाणोंसे गहरी चोट पहुँचायी ॥२२-२७।।

      भारत ! फिर उसके वे सारे शरीर एकरूप दिखायी दिये महाराज ! उस एकरूपमें भी मैंने उसे पुनः अच्छी तरह घायल किया, कभी उसका शरीर तो बहुत छोटा हो जाता, परंतु मस्तक बहुत बड़ा दिखायी देता था। फिर वह विशाल शरीर धारण कर लेता और मस्तक बहुत छोटा बना लेता था । राजन् ! अन्तमें वह एक ही रूपमें प्रकट होकर युद्धमें मेरा सामना करने लगा, भरतर्षभ ! जब मैं बाणोंकी वर्षा करके भी युद्धमें उसे परास्त न कर सका, तब मैंने महान् वायव्यास्त्र - का प्रयोग किया ।।२८-३०॥

      किंतु उससे भी उसका वध न कर सका। यह एक अद्भुत-सी घटना हुई । वायव्यास्त्र के निष्फल हो जानेपर मुझे महान् आश्चर्य हुआ।

     महाराज ! तब मैंने पुनः विशेष प्रयत्न करके रणभूमि में किरातरूपधारी उस अद्भुत पुरुषपर महान् अस्त्रसमूहकी वर्षा की, स्थूणाकर्ण, वारुणास्त्र, भयंकर शरवर्षस्त्र, शलभास्त्र तथा अश्मैवर्ष इन अस्त्रोंका सहारा ले मैं उस किरातपर टूट पड़ा, राजन् ! उसने मेरे उन सभी अस्त्रोंको बलपूर्वक अपना ग्रास बना लिया। उन सबके भक्षण कर लिये जानेपर मैंने महान् ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया, तब प्रज्वलित बाणोंद्वारा वह अस्त्र सब ओर बढ़ने लगा मेरे महान् अस्त्रसे बढ़ने की प्रेरणा पाकर वह ब्रह्मास्त्र अधिक वेगसे बढ़ चला, तदनन्तर मेरे द्वारा प्रकट किये हुए ब्रह्मास्त्र के तेजसे वहाँ के सब लोग संतप्त हो उठे। एक ही क्षण में सम्पूर्ण दिशाएँ और आकाश सब ओरसे आग की लपटोंसे उदीप्त हो उठे, परंतु उस महान् तेजस्वी वीरने क्षणभर में ही मेरे उस ब्रह्मास्त्रको भी शान्त कर दिया । राजन् ! उस ब्रह्मास्त्र के नष्ट होनेपर मेरे मनमें महान् भय समा गया ॥३१-३७॥

   तब मैं धनुष और दोनों अक्षय तरकस लेकर सहसा उस दिव्य पुरुषपर आघात करने लगा, किंतु उसने उन सबको भी अपना आहार बना लिया, जब मेरे सारे अस्त्र-शस्त्र नष्ट होकर उसके आहार बन गये, तब मेरा उस अलौकिक प्राणीके साथ मल्लयुद्ध प्रारम्भ हो गया ।।३८-३९।।

टिका टिप्पणी,,,---

  • आचार्य नीलकण्ठके मतसे स्थूणाकर्ण नाम है शङ्कुकर्णका जो भगवान् रुद्रके एक अवतार है वे जिस अखके देवता हैं, उसका नाम भी स्थूणाकर्ण है।
  • मूलमें जाल शब्द आया है, जिसका अर्थ है, जालसम्बन्धी। यह जलवर्षक अन ही वारुणास्त्र है।
  • जैसे बादल पानीकी वर्षा करता है, उसी प्रकार निरन्तर बाणवर्षा करनेवाला अन शरवर्ष कहलाता है ।
  • जैसे असंख्य टिड्डियाँ आकाश में मँडराती और पौदोंपर टूट पड़ती है, उसी प्रकार जिस अस्त्रसे असंख्य बाण आकाशको माच्छा- दित करते और शत्रुको अपना लक्ष्य बनाते हैं, उसीका नाम शलभास्त्र है।
  • पत्थरोंकी वर्षा करनेवाले अस्त्रको अश्मवत्र कहते है।

      पहले मुकों और थप्पड़ोंसे मैंने उससे टक्कर लेने की चेष्टा की, परंतु उसपर मेरा कोई वश नहीं चला और मैं निश्चेष्ट होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा । महाराज ! तब वह अकिक प्राणी हँसकर मेरे देखते-देखते स्त्रियों सहित वहीं अन्तर्धान हो गया, राजन् ! वास्तवमे वे भगवान् शंकर थे। उन्होंने पूर्वोत बर्ताव करके दूसरा रूप धारण कर लिया। देवताओं के स्वामी भगवान् महेश्वर किरातरूप छोड़कर दिव्य स्वरूपका आश्रय ले अलौकिक एवं अद्भुत वस्त्र धारण किये वहाँ खड़े हो गये ।।४०-४३॥

इस प्रकार उमासहित साक्षात् भगवान् नृपमध्वजका दर्शन हुआ उन्होंने अपने अङ्ग सर्प और हाथमें पिनाक धारण कर रक्खे थे अनेक रूपधारी भगवान् शूलपाणि उस रणभूमिमें मेरे निकट आकर पूर्ववत् सामने खड़े हो गये और बोले,,

   भगवान शंकर बोले ;- परंतप ! मैं तुमपर संतुष्ट हूँ',

  तदनन्तर मेरे धनुष और अक्षय वाणोंसे भरे हुए दोनों तरकस लेकर भगवान् शिवने मुझे ही दे दिये और कहा,

   भगवान शिव फिर बोले ;- परंतप ! ये अपने अत्र ग्रहण करो।' कुन्तीकुमार मैं तुमसे संतुष्ट हूँ बोलो, तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ ? वीर ! तुम्हारे मनमें जो कामना हो, बताओ। मैं उसे पूर्ण कर दूँगा। अमरत्वको छोड़कर और तुम्हारे मनमें जो भी कामना हो, बताओ' ॥४३-४७।।

मेरा मन तो अस्त्र-शस्त्रोंमें लगा हुआ था। उस समय मैंने हाथ जोड़कर मन-ही-मन भगवान् शङ्करको प्रणाम किया और यह बात कही,,

   अर्जुन बोले ;- 'यदि मुझपर भगवान् प्रसन्न हैं, तो मेरा मनोवाञ्छित वर इस प्रकार है-देवताओंके पास जो कोई भी दिव्यास्त्र हैं, उन्हें मैं जानना चाहता हूँ ।" यह सुनकर भगवान् शङ्कर ने मुझसे कहा,

   भगवान शंकर बोले ;- पाण्डुनन्दन ! मैं तुम्हें सम्पूर्ण दिव्यास्त्रोंकी प्राप्तिका वर देता हूँ।

   'पाण्डुकुमार ! मेरा रौद्रास्त्र स्वयं तुम्हें प्राप्त हो जायगा ।" यह कहकर भगवान् पशुपतिने बड़ी प्रसन्नता के साथ मुझे अपना महान् पाशुपतास्त्र प्रदान किया ।।४८-५१।।

अपना सनातन अस्र मुझे देकर,,

     महादेवजी फिर बोले ;-- तुम्हें मनुष्योपर किसी प्रकार इस अस्त्र का प्रयोग नहीं करना चाहिये। अपने से अलशक्तिवाले विपक्षीपर यदि इसका प्रहार किया जाय, तो यह सम्पूर्ण विश्वको दग्ध कर देगा धनंजय ! जब शत्रुके द्वारा अपने को बहुत पीड़ा प्राप्त होने लगे, उस दशामें आत्मरक्षा के लिये इसका प्रयोग करना चाहिये। शत्रुके अस्त्रों का विनाश करने के लिये सर्वथा इसका प्रयोग उचित है'। इस प्रकार भगवान् वृषभध्वज के प्रसन्न होनेपर सम्पूर्ण अस्त्रोंका निवारण करनेवाला और कहीं भी कुण्ठित न होनेवाला दिव्य पाशुपतास्त्र मूर्तिमान् हो मेरे पास आकर खड़ा हो गया। वह शत्रुओंका संहारक और विपक्षियोंकी सेना का विध्वंसक है । उसकी प्राप्ति बहुत कठिन है। देवता दानव तथा राक्षस किसीके लिये भी उसका वेग सहन करना अत्यन्त कठिन है। फिर भगवान् शिवकी आज्ञा होनेपर मैं वहीं बैठ गया और वे मेरे देखते-देखते अन्तर्धान हो गये ॥५२-५७॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वन के अन्तर्गत निवातकवचयुद्ध में गन्धनादन निवासकालिक युधिष्ठिर अर्जुन संवाद विषयक एक सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

एक सौ अड़सठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टषष्टयधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन द्वारा स्वर्गलोक में अपनी अस्त्रशिक्षा और निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन"

   अर्जुन कहते हैं ;- भारत! देवाधिदेव परमात्मा भगवान् त्रिलोचन के कृपाप्रसाद से मैंने प्रसन्नतापूर्वक वह रात वहीं व्यतीत की। सवेरा होने पर पूर्वाह्णकाल की क्रिया पूरी करके मैंने पुनः उन्हीं श्रेष्ठ ब्राह्मण को अपने समक्ष पाया, जिनका दर्शन मुझे पहले भी हो चुका था। भरतकुलभूषण! उनसे मैंने अपना सारा वृत्तान्त यथावत् कह सुनाया और बताया कि मैं भगवान् महादेव जी से मिल चुका हूँ। राजेन्द्र! तब वे विप्रवर बड़े प्रसन्न होकर मुझसे बोले,

   ब्राह्मण देव बोले ;- 'कुन्तीकुमार! जिस प्रकार तुमने महादेव जी का दर्शन किया है, वैसा दर्शन और किसी ने नही किया है। अनघ! अब तुम यम आदि सम्पूर्ण लोकपालों के साथ देवराज इन्द्र का दर्शन करोगे और वे भी तुम्हें अस्त्र प्रदान करेंगे'। राजन्! ऐसा कहकर सूर्य के समान तेजस्वी ब्राह्मण देवता ने मुझे बार-बार हृदय से लगाया और फिर वे इच्छानुसार अपने अभीष्ट स्थान को चले गये।

     शत्रुविजयी नरेश! तदनन्तर जब वह दिन ढलने लगा, तब पुनः इस जगत में नूतन जीवन का संचार-सा करती हुई पवित्र वायु चलने लगी और उस हिमालय के पार्श्‍ववर्ती प्रदेश में दिव्य, नवीन और सुगन्धित पुष्पों की वर्षा होने लगी। चारों ओर अत्यन्त भयंकर प्रतीत होने वाले दिव्य वाद्यों और इन्द्रसम्बन्धी स्‍तोत्रों के मनोहर शब्द सुनायी देने लगे। सब गन्धर्वों और अप्सराओं के समूह वहाँ देवराज इन्द्र के आगे रहकर गीत गा रहे थे। देवताओं के अनेक गण भी दिव्य विमानों पर बैठकर वहाँ आये थे। जो महेन्द्र के सेवक थे और जो इन्द्रभवन में ही निवास करते थे, वे भी वहाँ पधारे। तदनन्तर थोड़ी ही देर में विविध आभूषणों से विभूषित हरे रंग के घोड़ों से जुत हुए एक सुन्दर रथ के द्वारा शची सहित इन्द्र ने सम्पूर्ण देवताओं के साथ वहाँ पदार्पण किया।

     राजन्! इसी समय सर्वोत्कृष्ट ऐश्वर्य-लक्ष्मी से सम्पन्न नरवाहन कुबेर ने भी मुझे दर्शन दिया। दक्षिण दिशा की ओर दृष्टिपात करने पर मुझे साक्षात् यमराज खड़े दिखायी दिये। वरुण और देवराज इन्द्र भी क्रमश: पश्चिम और पूर्व दिशा में यथास्थान खड़े हो गये। महाराज! नरश्रेष्ठ! उन सब लोकपालों ने मुझे सान्त्वना देकर कहा,,

    लोकपाल बोले ;- 'सव्यसाची अर्जुन! देखो, हम सब लोकपाल यहाँ खड़े हैं। देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिये ही तुम्हें भगवान् शंकर का दर्शन प्राप्त हुआ था। अब तुम चारों ओर घूमकर हम लोगों से भी दिव्यास्त्र ग्रहण करो'। प्रभो! तब मैंने एकाग्रचित्त हो उन उत्तम देवताओं को प्रणाम करके उन सबसे विधिपूर्वक महान् दिव्यास्त्र प्राप्त किये। भारत! जब मैं अस्त्र ग्रहण कर चुका, तब देवताओं ने मुझे जाने की आज्ञा दी।

   शत्रुदमन! तदनन्तर सब देवता जैसे आये थे, वैसे अपने-अपने स्थान को चले गये। देवेश्वर भगवान् इन्द्र ने भी अपने अत्यन्त प्रकाशपूर्ण रथ पर आरूढ़ हो मुझसे कहा,,

     देवराज इंद्र बोले ;- 'अर्जुन! तुम्हें स्वर्गलोक की यात्रा करनी होगी। भरतश्रेष्ठ! धनंजय यहाँ आने से पहले ही मुझे तुम्हारे विषय में सब कुछ ज्ञात हो गया था। इसके बाद मैंने तुम्हें दर्शन दिया है।               पाण्डुनन्दन! तुमने पहले अनेक बार बहुत-से तीर्थों में स्नान किया है और इस समय इस महान् तप का भी अनुष्ठान कर लिया है, अतः तुम स्वर्गलोक में सशरीर जाने के अधिकारी हो गये हो। शत्रुसूदन! अभी तुम्हें और भी उत्तम तपस्या करनी है और स्वर्गलोक में अवश्य पदार्पण करना है। मेरी आज्ञा से मातलि तुम्हें स्वर्ग में पहुँचा देगा। पाण्डवश्रेष्ठ! यहाँ रहकर जो तुम अत्यन्त दुष्कर तप कर रहे हो, इसके कारण देवताओं तथा महात्मा मुनियों में तुम्हारी ख्याति बहुत बढ़ गयी है'।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टषष्टयधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 24-46 का हिन्दी अनुवाद)

       तब मैंने देवराज इन्द्र से कहा,,

   अर्जुन बोले ;- 'भगवन्! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। देवेश्वर! मैं अस्त्रविद्या की प्राप्ति के लिये आपको अपना आचार्य बनाता हूँ।' 

   इन्द्र ने कहा ;- 'परंतप तात अर्जुन! दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर तुम भयंकर कर्म करने लगोगे। अतः पाण्डुनन्दन! मेरी इच्छा है कि तुम जिसके लिये अस्त्रों की शिक्षा प्राप्त करना चाहते हो, तुम्हारा वह उद्देश्य पूर्ण हो। यह सुनकर मैंने उत्तर दिया,,

   अर्जुन बोले ;- 'शत्रुघाती देवेश्वर! मैं शत्रुओं द्वारा प्रयुक्त दिव्यास्त्रों का निवारण करने के सिवा अन्य किसी अवसर पर मनुष्यों के ऊपर दिव्यास्त्रों का प्रयोग नहीं करूंगा। देवराज! सुरश्रेष्ठ! आप मुझे वे दिव्य अस्त्र प्रदान करें। अस्त्रविद्या सीखने के पश्चात् मैं उन्हीं अस्त्रों के द्वारा जीते हुए लोकों पर अधिकार प्राप्त करना चाहता हूँ।'

    इन्द्र बोले ;- 'धनंजय! मैंने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिये उपर्युक्त बात कही है। तुमने जो अस्त्रविद्या के प्रति अत्यन्त उत्सुकता प्रकट की है, वह तुम्हारे जैसे मेरे पुत्र के अनुरूप ही है। भारत! तुम मेरे भवन में चलकर सम्पूर्ण अस्त्रों की शिक्षा प्राप्त करो। कुरुश्रेष्ठ! वायु, अग्नि, वसु, वरुण, मरुद्गण, साध्यगण, ब्रह्मा, गन्धर्वगण, नाग, राक्षस, विष्णु तथा निऋति के और स्वयं मेरे भी सम्पूर्ण अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करो। मुझसे ऐसा कहकर इन्द्र वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर थोड़ी ही देर में मुझे हरे रंग के घोड़ों से जुता हुआ देवराज इन्द्र का रथ वहाँ उपस्थित दिखायी दिया। राजन्! वह दिव्य मायामय पवित्र रथ मातलि के द्वारा नियंत्रित था। जब सभी लोकपाल चले गये, 

     तब मातलि ने मुझसे कहा,,

    मातलि बोले ;- 'महातेजस्वी वीर! देवराज इन्द्र तुमसे मिलना चाहते हैं। महाबाहो! तुम उनसे मिलकर कृतार्थ होओ और अब आवश्यक कार्य करो। इसी शरीर से देवलोक में चलो तथा पुण्यात्मा पुरुषों के लोकों का दर्शन करो। भरतनन्दन! सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र तुम्हें देखना चाहते हैं। मातलि के ऐसा कहने पर मैं हिमालय से आज्ञा ले रथ की परिक्रमा करके उस श्रेष्ठ रथ में सवार हुआ।

    मातलि अश्व संचालन की कला के मर्मज्ञ थे। सारथि के कार्य में अत्यन्त कुशल थे। उन्होंने मन तथा वायु के समान वेगशाली अश्वों को यथोचित रीति से आगे बढ़ाया। राजन्! उस समय देवसारथि मातलि ने आकाश में चक्कर लगाते हुए रथ पर स्थिरतापूर्वक बैठे हुए मेरे मुख की ओर दृष्टिपात किया और आश्चर्यचकित होकर कहा,,

   मातलि बोले ;- 'भरतश्रेष्ठ! आज मुझे यह बड़ी विचित्र और अद्भुत बात दिखायी दे रही है कि इस दिव्य रथ पर बैठकर तुम अपने स्थान से तनिक भी हिल-डुल नहीं रहे हो। कुरुकुलभूषण भरतश्रेष्ठ! जब घोड़े पहली बार उड़ान भरते हैं, उस समय मैंने सदा यह देखा है कि देवराज इन्द्र भी विचलित हुए बिना नहीं रह पाते, परंतु तुम चक्कर


काटते हुए रथ पर भी स्थिर भाव से बैठे हो। कुरुश्रेष्ठ! तुम्हारी ये सब बातें मुझे इन्द्र से भी बढ़कर प्रतीत हो रही हैं। भरतकुलभूषण नरेश! ऐसा कहकर मातलि ने अन्तरिक्षलोक में प्रविष्ट होकर मुझे देवताओं के घरों और विमानों का दर्शन कराया, फिर हरे रंग के घोड़ों से जुता हुआ वह रथ वहां से भी ऊपर की ओर बढ़ चला। 

      नरश्रेष्ठ! ऋषि और देवता भी उस स्थान का समादर करते थे। तदनन्तर मैंने देवर्षियों के अनेक समुदायों का दर्शन किया, जो अपनी इच्छा के अनुसार सर्वत्र जाने की शक्ति रखते हैं। अमित तेजस्वी गन्धर्वों और अप्सराओं का प्रभाव भी मुझे प्रत्यक्ष दिखायी दिया। फिर इन्द्रसारथि मातलि ने मुझे शीघ्र ही देवताओं के नन्दन आदि वन और उपवन दिखाये। तत्पश्चात् मैंने अमरावतीपुरी तथा इन्द्रभवन का दर्शन किया। वह पुरी इच्छानुसार फल देने वाले दिव्य वृक्षों तथा रत्नों से सुशोभित थी। वहाँ सूर्य का ताप नहीं होता, सर्दी या गर्मी का कष्ट नहीं रहता और न किसी को थकावट ही होती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टषष्टयधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 47-68 का हिन्दी अनुवाद)

     नरेश्वर! वहाँ रजोगुणजनित विकार नहीं सताते, बुढ़ापा नहीं आता; शोक, दीनता और दुर्बलता का दर्शन नहीं होता। महाराज! शत्रुसूदन! स्वर्गवासी देवताओं को कभी ग्लानि नहीं होती। उनमें क्रोध और लोभ का भी अभाव होता है। राजन्! स्वर्ग में निवास करने वाले प्राणी सदा संतुष्ट रहते हैं। वहां के वृक्ष सर्वदा फल-फूल से सम्पन्न और हरे पत्तों से सुशोभित रहते हैं। वहाँ सहस्रों सौगन्धिक कमलों से अलंकृत नाना प्रकार के सरोवर शोभा पाते हैं और शीतल, पवित्र, सुगन्धित एवं नवजीवनदायक वायु सदा बहती रहती है। वहां की भूमि सब प्रकार के रत्नों से विचित्र शोभा धारण करती है और (सब ओर बिखरे हुए) पुष्प उस भूमि के लिये आभूषण का काम देते हैं। स्वर्गलोक में बहुत-से मनोहर पशु और पक्षी देखे जाते हैं, जिनकी बोली बड़ी मधुर प्रतीत होती है। वहाँ अनेक देवता आकाश में विमानों पर विचरते दिखायी देते हैं। तदनन्तर मुझे वसु, रुद्र, साध्य, मरुद्गण, आदित्य और अश्विनीकुमारों के दर्शन हुए। मैंने उन सबके आगे मस्तक झुकाकर उनका स्वागत किया। उन सबने मुझे पराक्रमी, यशस्वी, तेजस्वी, बलवान्, अस्त्रवेत्ता और संग्राम-विजयी होने का आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् देवगन्धपर्वपूजित दिव्य अमरवतीपुरी में प्रवेश करके मैंने हाथ जोड़कर सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र को प्रणाम किया। दाताओं में श्रेष्ठ देवराज इन्द्र ने प्रसन्न होकर मुझे अपने आधे सिंहासन पर स्थान दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने बड़े आदर के साथ मेरे अंगों पर हाथ फेरा। यज्ञों में पूरी दक्षिणा देने वाले भरतश्रेष्ठ! उस स्वर्गलोक में मैं देवताओं और गन्धर्वों के साथ अस्त्रविद्या की प्राप्ति के लिये रहने लगा और प्रतिदिन अस्त्रों का अभ्यास करने लगा। उस समय गन्धर्वराज विश्वावसु के पुत्र चित्रसेन के साथ मेरी मैत्री हो गयी थी।

      नरेश्वर! उन्होंने मुझे सम्पूर्ण गान्धर्ववेद (संगीत-विद्या) का अध्ययन कराया। राजन्! वहाँ इन्द्रभवन में अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा ग्रहण करते हुए मैं बड़े सम्मान और सुख से रहने लगा। वहाँ सभी मनोवांछित पदार्थ मेरे लिये सुलभ थे। भरतश्रेष्ठ! मै वहाँ कभी मनोहर गीत सुनता, कभी पर्याप्त रूप से दिव्य वाद्यों का आनन्द लेता और कभी-कभी श्रेष्ठ अप्सराओं का नृत्य भी देख लेता था। भारत! इन समस्त सुख-सुविधाओं की अवहेलना न करते हुए उन्हें स्वीकार करके भी मैं इनके असली रूप को जानकर-इनकी निःसारता को भलीभाँति समझकर अधिकतर अस्त्रों के अभ्यास में ही संलग्न रहता था। (गीत आदि में कभी आसक्त नहीं हुआ)। अस्त्र-विद्या की ओर मेरी ऐसी अभिरुचि होने से सहस्र नेत्रधारी भगवान् इन्द्र मुझ पर बहुत संतुष्ट रहते थे। राजन्! इस प्रकार स्वर्ग में रहकर मेरा यह समय सुखपूर्वक बीतने लगा। धीरे-धीरे मैं अस्त्र-विद्या में निपुण हो गया। मेरी विज्ञता पर सबको अधिक विश्वास था।

    एक दिन भगवान् इन्द्र ने अपने दोनों हाथों से मेरे मस्तक का स्पर्श करते हुए मुझसे इस प्रकार कहा,,

    देवराज इंद्र बोले ;- 'अर्जुन! अब तम्हें युद्ध में देवता भी परास्त नहीं कर सकते। फिर मर्त्यलोक में रहने वाले बेचारे असंयमी मनुष्यों की तो बात ही क्या है? तुम युद्ध में अप्रमेय, अजेय और अनुपम हो। संग्रामभूमि में सम्पूर्ण देवता और असुर भी तुम्हें पराजित नहीं कर सकते।' इतना कहते-कहते देवराज के शरीर में रोमांच हो आया। तदनन्तर वे फिर बोले, 

   इंद्र फिर बोले ;- 'वीर! अस्त्र-युद्ध में तुम्हारा सामना कर सके, ऐसा कोई योद्धा नहीं होगा। कुरुश्रेष्ठ! तुम सर्वदा सावधान रहते हो, प्रत्येक कार्य में कुशल हो। जितेन्द्रिय, सत्यवादी और ब्राह्मणभक्त हो; तुम्हें अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान है और तुम अद्भुत शौर्य से सम्पन्न हो। पार्थ! तुमने पांच विधियों सहित पंद्रह अस्त्र प्राप्त किये हैं, अतः इस भूतल पर तुम्हारे-जैसा शूर दूसरा कोई नहीं है। परंतप धनंजय! प्रयोग, उपसंहार, आवृत्ति, प्रायश्चित और प्रतिघात-ये अस्त्रों की पांच विधियां हैं; तुम इन सबका पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर चुके हो। अतः अब गुरुदक्षिणा देने का समय आ गया है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टषष्टयधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 69-86 का हिन्दी अनुवाद)

   'तुम उसे देने की प्रतिज्ञा करो, तब मैं अपने महान् कार्य को तुम्हें बताऊँगा।' राजन्! यह सुनकर मैंने देवराज से कहा,,

   अर्जुन बोले ;- 'भगवन्! जो कुछ मैं कर सकता हूं, उसे किया हुआ ही समझिये।' नरेश्वर! तब बल और वृत्रासुर के शत्रु इन्द्र ने मुझसे हंसते हुए कहा,,

   देवराज इंद्र बोले ;- 'वीरवर! तीनों लोकों में ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो तुम्हारे लिये असाध्य हो। निवातकवच नामक दानव मेरे शत्रु हैं। वे समुद्र के भीतर दुर्गम स्थान का आश्रय लेकर रहते हैं। उनकी संख्या तीन करोड़ बतायी जाती है और उन सभी के रूप, बल और तेज एक समान हैं। कुन्तीनन्दन! तुम उन दानवों का संहार कर डालो। इतने से ही तुम्हारी गुरु-दक्षिणा पूरी हो जायेगी।' ऐसा कहकर इन्द्र ने मुझे एक अत्यन्त कान्तिमान् दिव्य रथ प्रदान किया, जिसे मातलि जोतकर लाये थे। उसमें मयूरों के समान रोम वाले घोड़े जुते हुए थे। रथ आ जाने पर देवराज ने यह उत्तम किरीट मेरे मस्तक पर बांध दिया। फिर उन्होंने मेरे स्वरूप के अनुरूप प्रत्येक अंग में आभूषण पहना दिये।

     इसके बाद यह अभेद्य उत्तम कवच धारण कराया, जिसका स्पर्श तथा रूप मनोहर है। तत्पश्चात् मेरे गाण्डीव धनुष में उन्होंने यह अटूट


प्रत्यंचा जोड़ दी। इस प्रकार युद्ध की सामग्रियों से सम्पन्न होकर उस तेजस्वी रथ के द्वारा में संग्राम के लिये प्रस्थित हुआ, जिस पर आरूढ़ होकर पूर्वकाल में देवराज ने विरोचनकुमार बलि को परास्त किया था। 

     महाराज! तब उस रथ की घर्घराहट से सजग हो सब देवता मुझे देवराज समझकर मेरे पास आये और मुझे देखकर पूछने लगे,

   देवता बोले ;- 'अर्जुन! तुम क्या करने की तैयारी में हो?' तब मैंने उनसे सब बातें बताकर कहा,,

   अर्जुन बोले ;- 'मैं युद्ध में यही करने जा रहा हूँ। आपको यह ज्ञात होना चाहिये कि मैं निवातकवच नामक दानवों के वध की इच्छा से प्रस्थित हुआ हूँ। अतः निष्पाप एवं महाभाग देवताओ! आप मुझे ऐसा आशीर्वाद दें, जिससे मेरा मंगल हो।'

     राजन्! तब वे देवता लोग प्रसन्न हो देवराज इन्द्र की भाँति श्रेष्ठ एंव मधुर वाणी द्वारा मेरी स्तुति करते हुए बोले,

    देवता गण बोले ;- 'इस रथ के द्वारा इन्द्र ने युद्ध में शम्बरासुर पर विजय पायी है। नमुचि, बल, वृत्र, प्रह्लाद और नरकासुर को परास्त किया है। इनके सिवा अन्य बहुत-से दैत्यों को भी इस रथ के द्वारा पराजित किया है, जिनकी संख्या सहस्रों, लाखों और अरबों तक पहुँच गयी है। कुन्तीनन्दन! जैसे पूर्वकाल में सब को वश में करने वाले इन्द्र ने असुरों पर विजय पायी थी, उसी प्रकार तुम भी इस रथ के द्वारा युद्ध में पराक्रम करके निवातकवचों को परास्त करोगे। यह श्रेष्ठ शंख है, जिसे बजाने से तुम्हें दानवों पर विजय प्राप्त हो सकती है। महामना इन्द्र ने भी इसके द्वारा सम्पूर्ण लोकों पर विजय पायी है। वही यह शंख है, जिसे मैंने अपनी विजय के लिये ग्रहण किया था। देवताओं ने उसे दिया था, इसलिये इसका नाम देवदत्त है।' शंख लेकर देवताओं के मुख से अपनी स्तुति सुनता हुआ मैं कवच, बाण तथा धनुष से सज्जित हो युद्ध की इच्छा से अत्यन्त भयंकर दानवों के नगर की ओर चल दिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनवाक्य विषयक एक सौ अड़सवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनसप्तत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन का पाताल में प्रवेश और निवातकवचों के साथ युद्धारम्भ"

   अर्जुन बोले ;- राजन्! तदनन्तर मार्ग में जहाँ-तहाँ महर्षि के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए मैंने जल के स्वामी समुद्र के पास पहुँचकर उसका निरीक्षण किया। वह देखने में अत्यन्त भयंकर था। उसका पानी कभी घटता-बढ़ता नहीं है। उसमें फेन से मिली हुई पहाड़ों के समान ऊँची-ऊँची लहरें उठकर नृत्य करती-सी दिखायी दे रही थीं। वे कभी इधर-उधर फैल जाती थीं और कभी आपस में टकरा जाती थीं। वहाँ सब ओर रत्नों से भरी हुई हजारों नावें चल रही थीं, जो आकाश में विचरते हुए विमानों-की सी शोभा पाती थीं तथा तिमिगिंल, तिमितिमिगिंल, कछुए और मगर पानी में डूबे हुए पर्वत के समान दृष्टिगोचर होते थे। सहस्रों शंख सब ओर जल में निमग्न थे। जैसे रात में झीने बादलों के आवरण से सहस्रों तारे चमकते दिखायी देते हैं, उसी प्रकार समुद्र के जल में स्थित हजारों रत्नसमूह तैरते हुए से प्रतीत हो रहे थे। औरों की तो बात ही क्या है, वहाँ भयानक वायु भी पथ-भ्रान्त की भाँति भटकने लगती है।

    वायु का वह चक्कर काटना अद्भुत-सा प्रतीत हो रहा था। इस प्रकार अत्यन्त वेगशाली जलराशि महासागर को देखकर उसके पास ही मैंने दानवों से भरा हुआ वह दैत्य नगर भी देखा। रथ-संचालन में कुशल सारथि मातलि तुरंत वहाँ पहुँचकर पाताल में उतरे तथा रथ पर सावधानी से बैठकर आगे बढ़े। उन्होंने रथ की घर्घराहट से सबको भयभीत करते हुए उस दैत्यपुरी की ओर धावा किया। आकाश में होने वाली मेघ-गर्जना के समान उस रथ का शब्द सुनकर दानव लोग मुझे देवराज इन्द्र समझकर भय से अत्यन्त व्याकूल हो उठे। सभी मन-ही-मन घबरा गये। सभी अपने हाथों में धनुष-बाण, तलवार, शूल, फरसा, गदा और मूसल आदि अस्त्र-शस्त्र लेकर खड़े हो गये। दानवों के मन में आतंक छा गया था। इसलिये उन्होंने नगर की रक्षा का प्रबन्ध करके सारे दरवाजे बंद कर लिये। नगर के बाहर कोई भी दिखायी नहीं देता था। तब मैंने बड़ी भयंकर ध्वनि करने वाले देवदत्त नामक शंख को हाथ में लेकर अत्यन्त प्रसन्न हो धीरे-धीरे उसे बजाया। वह शंखनाद स्वर्गलोक से टकराकर प्रतिध्वनि उत्पन्न करने लगा। उसकी आवाज सुनकर बड़े-बड़े प्राणी भी भयभीत हो इधर-उधर छिप गये।

    भारत! तदनन्तर निवातकवच नामक सभी दैत्य आभूषणों से विभूषित हो भाँति-भाँति के कवच धारण किये, हाथों में विचित्र आयुध लिये, लोहे के बने हुए बड़े-बड़े शूल, गदा, मूसल, पट्टिश, करवाल, रथचक्र, शतध्नी (तोप) भुशुण्डि (बंदूक) तथा रत्नजटित विचित्र खंड आदि लेकर सहस्रों की संख्या में नगर से बाहर आये। भरतश्रेष्ठ! उस समय मातलि ने बहुत सोच-विचार कर समतल प्रदेश में रथ जाने योग्य मार्गों पर अपने उन घोड़ों को हांका। उनके हांकने पर उन शीघ्रगामी अश्वों की चाल इतनी तेज हो गयी कि मुझे उस समय कुछ भी दिखायी नहीं देता था। यह एक अद्भुत बात थी। तदनन्तर उन दानवों ने वहाँ भीषण स्वर और विकराल आकृति वाले विभिन्न प्रकार के सहस्रों बाजे जोर-जोर से बजाने आरम्भ किये। वाद्यों की उस तुमुल-ध्वनि से सहसा समुद्र के लाखों बड़े-बड़े पर्वताकार मत्स्य मर गये और उनकी लाशें पानी के ऊपर तैरने लगीं। तत्पश्चात् उन सब दानवों ने सैकड़ों और हजारों तीखे बाणों की वर्षा करते हुए बड़े वेग से मुझ पर आक्रमण किया। भारत! तब उन दानवों का और मेरा महाभयंकर तुमुल संग्राम आरम्भ हो गया, जो निवातकवचों के लिये विनाशकारी सिद्ध हुआ। उस समय बहुत-से देवर्षि तथा अन्य महर्षि एवं ब्रह्मार्षि और सिद्धगण उस महायुद्ध में (देखने के लिये) आये। वे सब-के-सब मेरी विजय चाहते थे। अतः उन्होंने जैसे तारकामय संग्राम के अवसर पर इन्द्र की स्तुति की थी, उसी प्रकार अनुकूल एवं मधुर वचनों द्वारा मेरा भी स्तवन किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में युद्धारम्भ विषयक एक सौ उनहरत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

एक सौ सत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध"

   अर्जुन बोले ;- भारत! तदनन्तर सारे निवातकवच संगठित हो हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये युद्धभूमि में वेगपूर्वक मेरे ऊपर टूट पड़े। उन महारथी दानवों ने मेरे रथ का मार्ग रोककर भीषण गर्जना करते हुए मुझे सब ओर से घेर लिया और मुझ पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। फिर कुछ अन्य महापराक्रमी दानव शूल और पट्टिश आदि हाथों में लिये मेरे सामने आये और मुझ पर शूल तथा भुशुण्डियों का प्रहार करने लगे। दानवों द्वारा की गयी वह शूलों की बड़ी भारी वर्षा निरन्तर मेरे रथ पर होने लगी। उसके साथ ही गदा और शक्तियों का भी प्रहार हो रहा था। कुछ दूसरे निवातकवच हाथों में तीखे अस्त्र-शस्त्र लिये उस युद्ध के मैदान में मेरी ओर दौड़े। वे प्रहार करने में कुशल थे। उनकी आकृति बड़ी भयंकर थी और देखने में वे कालरूप जान पड़ते थे। तब मैंने उनमें से एक-एक को युद्ध में गाण्डीव धनुष से छूटे हुए सीधे जाने वाले विविध प्रकार के दस-दस वेगवान् बाणों द्वारा बींध डाला। मेरे छोड़े हुए बाण पत्थर पर तेज किये हुए थे। उनकी मार खाकर सभी दानव युद्धभूमि से भाग चले। तब मातलि ने उस रथ के घोड़ों को तुरंत ही तीव्र वेग से हांका। सारथि से प्रेरित होकर वे अश्व नाना प्रकार की चालें दिखाते हुए वायु के समान वेग से चलने लगे। मातलि ने उन्हें अच्छी तरह काबू में कर रखा था। उन सब ने वहाँ दिति के पुत्रों को रौंद डाला।

     अर्जुन के उस विशाल रथ में दस हजार घोड़े जुते हुए थे, तो भी मातलि ने उन्हें इस प्रकार वश में कर रखा था कि वे अल्पसंख्यक अश्वों की भाँति शान्त-भाव से विचरते थे। उन घोड़ों के पैरों की मार पड़ने से, रथ के पहिये की घर्घराहट होने से तथा मेरे बाणों की चोट खाने से सैकड़ों दैत्य मर गये। इसी प्रकार वहाँ दूसरे बहुत-से असुर हाथ में धनुष-बाण लिये प्राणरहित हो गये थे और उनके सारथि भी मारे गये थे, उस दशा में सारथिशून्य घोड़े उनके निर्जीव शरीर को खींचे लिये जाते थे। तब वे समस्त दानव सारी दिशाओं और विदिशाओं को रोककर भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा मुझ पर घातक प्रहार करने लगे। इससे मेरे मन में बड़ी व्यथा हुई। उस समय मैंने मातलि की अत्यन्त अद्भुत शक्ति देखी। उन्होंने वैसे वेगशाली अश्वों को बिना किसी प्रयास के ही काबू में कर लिया। राजन्! तब मैंने उस रणभूमि में अस्त्र-शस्त्रधारी सैकड़ों तथा सहस्रों असुरों को विचित्र एवं शीघ्रगामी बाणों द्वारा मार गिराया।

    शत्रुदमन नरेश! इस प्रकार पूर्ण प्रयत्नपूर्वक युद्ध में विचरते हुए मेरे ऊपर इन्द्रसारथि वीरवर मातलि बड़े प्रसन्न हुए। मेरे उन घोड़ों तथा उस दिव्य रथ से कुचल जाने के कारण भी कितने ही दानव मारे गये और बहुत-से युद्ध छोड़कर भाग गये। निवातकवचों ने संग्राम में हम लोगों से होड़-सी लगा रखी थी। मैं बाणों के आघात से पीड़ित था, तो भी उन्होंने बड़ी भारी बाणवर्षा करके मेरी प्रगति को रोकने की चेष्टा की। तब मैंने अद्भुत और शीघ्रगामी बाण को ब्रह्मास्त्र से अभियंत्रित करके चलाया और उनके द्वारा शीघ्र ही सैकड़ों तथा हजारों दानवों का संहार करने लगा। तदनन्तर मेरे बाण से पीड़ित होकर वे महारथी दैत्य क्रोध से आग-बबूला हो उठे और एक साथ संगठित हो खड्ग, शूल तथा बाणों की वर्षा द्वारा मुझे घायल करने लगे। भारत! यह देख मैंने देवराज इन्द्र के परमप्रिय माधव नामक प्रचण्ड तेजस्वी अस्त्र का आश्रय लिया। तब उस अस्त्र के प्रभाव से मैंने दैत्यों के चलाये हुए सहस्रों खड्ग, त्रिशूल और तोमरों के सौ-सौ टुकड़े कर डाले। तत्पश्चात् उन दानवों के समस्त अस्त्र-शस्त्रों का उच्छेद करके मैंने रोषवश उन सबको भी दस-दस बाणों से घायल करके बदला चुकाया। उस समय मेरे गाण्डीव धनुष से बड़े-बड़े बाण उस युद्धभूमि में इस प्रकार छूटते थे, मानो वृक्ष से झुंड-के-झुंड भौंरे उड़ रहे हों। मातलि ने मेरे इस कार्य की बड़ी प्रशंसा की।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तत्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 24-29 का हिन्दी अनुवाद)

     तदनन्तर उन दानवों के भी बाण मेरे ऊपर जोर-जोर से गिरने लगे। मातलि ने उनकी उस बाण-वर्षा की भी सराहना की। फिर मैंने अपने बाणों द्वारा शत्रुओं के उन सब बाणों को छिन्न-भिन्न कर डाला।

     इस प्रकार मार खाते और मरते रहने पर भी निवातकवचों ने पुनः भारी बाण-वर्षा के द्वारा मुझे सब ओर से घेर लिया। तब मैंने अस्त्र-विनाशक अस्त्रों द्वारा उनकी बाण-वर्षा के वेग को शान्त करके अत्यन्त शीघ्रगामी एवं प्रज्वलित बाण द्वारा सहस्रों दैत्यों को घायल कर दिया। उनके कटे हुए अंग उसी प्रकार रक्त की धारा बहाते थे, जैसे वर्षा-ऋतु में वृष्टि के जल से भीगे हुए पर्वतों के शिखर (गेरू आदि धातुओं से मिश्रित) जल की धारा बहाते हैं।

     मेरे बाणों का स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान था। वे बड़े वेग से छूटते और सीधे जाकर शत्रु को अपना निशाना बनाते थे। उनकी चोट खाकर वे समस्त दानव भय से व्याकुल हो उठे। उन दैत्यों के शरीर के सौ-सौ टुकड़े हो गये थे। उनके अस्त्र-शस्त्र कट गये और उत्साह नष्ट हो गया था। ऐसी अवस्था में निवातकवचों ने मेरे साथ माया युद्ध आरम्भ कर दिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में एक सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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