सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ इकसठवें अध्याय से एक सौ पैसठवें अध्याय तक (From the 161 to the 165 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

एक सौ इकसठवाँ अध्याय

"कुबेरका गन्धमादन पर्वत पर आगमन और युधिष्ठिरसे उनकी भेंट"

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय ! उस समय उस पर्वत की गुफा नाना प्रकार के शब्दों प्रतिध्वनित हो रही थी। वह प्रतिध्वनि सुनकर अजातशत्रु कुन्ती कुमार युधिष्ठिर, दोनों माद्रीपुत्र नकुल सहदेव पुरोहित धौम्य, द्रौपदी और समस्त ब्राह्मण तथा सुहृद् - ये सभी भीमसेनको न देखने के कारण बहुत उदास हो गये, तब वे महारथी शूरवीर द्रौपदीको आर्ष्टिषेणकी देख. रेख में सौंपकर हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र लिये एक साथ पर्वतपर चढ़ गये, तदनन्तर शत्रुओं का दमन


करनेवाले वे महाधनुर्धर एवं महारथी वीर उस पर्वत के शिखरपर पहुँचकर जब इधर-उधर दृष्टिपात करने लगे, तब उन्हें भीमसेन दिखायी दिये, साथ ही उन्होंने भीमसेनके द्वारा मार गिराये हुए महान् शक्तिशाली तथा परम उत्साही विशालकाय राक्षस भी देखे, जिनमें से कुछ छटपटा रहे थे और कुछ मरे पड़े थे। उस समय गदा, खड्त और धनुष धारण किये महाबाहु भीमसेन समरभूमिमें सम्पूर्ण दानवोंका संहार करके खड़े हुए देवराज इन्द्रके समान शोभा पा रहे थे ॥१-६॥

    तब वे उत्तम आश्रयको प्राप्त हुए महारथी पाण्डव भाई भीमसेनको हृदय से लगाकर उनके पास ही बैठ गये, जैसे महान् भाग्यशाली देवश्रेष्ठ इन्द्र आदि लोकपालोंके द्वारा स्वर्गलोककी शोभा होती है, उसी प्रकार उन चार महा- धनुर्धर बन्धुओंसे उस समय वह पर्वत शिखर सुशोभित हो रहा था, राजा युधिष्ठिरने कुबेरका भवन देखकर और मारे गये राक्षसकी ओर दृष्टिपात करके अपने पास बैठे हुए भाई भीमसेनसे कहा।

   युधिष्टिर बोले ;- वीर भीमसेन ! तुमने दुःसाहसवश अथवा मोहके कारण जो यह पापकर्म किया है, वह मुनि- वृत्तिसे रहनेवाले तुम्हारे अनुरूप नहीं है। राक्षसका यह संहार व्यर्थ ही किया गया है।

    भीमसेन ! धर्मज्ञ पुरुष यह जानते और मानते हैं कि राजद्रोहका कार्य नहीं करना चाहिये; परंतु तुमने तो न केवल राजद्रोहका अपितु देवताओंके भी द्रोहका कार्य किया है।।७-११।।

     पार्थ! जो अर्थ और धर्मका अनादर करके पापमें मन लगाता है, उसे अपने पापकर्म का फल अवश्य प्राप्त होता है। यदि तुम वही कार्य करना चाहते हो जो मुझे प्रिय लगे, तो आजसे फिर कभी ऐसा काम तुम्हें नहीं करना चाहिये ॥१२॥

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय ! धर्मात्मा भाई महातेजस्वी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर अर्थतत्त्व के विभागको ठीक- ठीक जाननेवाले थे। वे धर्मसे कभी च्युत न होने वाले अपने भाई भीमसेनसे उपर्युक्त बातें कहकर चुप हो गये और उसी विषय पर बारबार विचार करने लगे,


उधर भीमसेनकी मार से बचे हुए राक्षस एक साथ हो कुबेरके भवनमें गये, वे महान् वेगशाली तो थे ही, तीव्र गतिसे धनाध्यक्ष के महलमें पहुँचकर भयंकर आर्तनाद करने लगे। भीमसेनका भय उस समय भी उन्हें पीड़ा दे रहा था। वे अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़ चुके थे एवं थके हुए थे । उनके कवच खून से लथपथ हो गये थे ।।१३-१६।।

राजन् अपने सिरके बाल बिखेरे हुए वे राक्षस यक्ष- राज कुबेर से इस प्रकार बोले,,

   राक्षस यक्ष बोले ;- देव ! आपके भी सभी राक्षसः जो युद्धमें सदा आगे रहते और गदा, परिध, खड्ग, तोमर तथा प्रास आदिके युद्धमें कुशल थे, मार डाले गये, 'वनेश्वर ! एक मनुष्यने बलपूर्वक इस पर्वतको रौंद डाला है और युद्धमें क्रोधवश नामक राक्षसगणोंको मार भगाया है। नरेश्वर ! राक्षसों और यक्षोंमें जो प्रमुख वीर थे, वे आज उत्साहशून्य तथा निम्प्राण होकर रणभूमिमें सो रहे हैं। हमलोग उसके कृपा-प्रसादसे छूट गये हैं; परंतु आपके सखा राक्षस मणिमान् मार डाले गये हैं ।। १७-२० ॥

     'यह सब कार्य एक मनुष्यने किया है। इसके बाद जो करना उचित हो, वह कीजिये ।' राक्षसोंकी यह बात सुनकर समस्त यक्षगणों के स्वामी कुबेर कुपित हो उठे। क्रोधसे उनकी आँखें लाल हो गयीं । वे सहसा बोल उठे "यह कैसे सम्भव हुआ ? ।।२१।।

     भीमने यह दूसरा अपराध किया है, यह सुनकर धना ध्यक्ष यक्षराज के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने तुरंत आज्ञा दी, रथ जोतकर ले आओ', फिरतो सेवकोंने सुनहरे बादलोंकी घटाके सदृश विशाल पर्वत शिखरके समान ऊँचा रथ जोतकर तैयार किया । उसमें सुबर्णमालाओंसे विभूषित गन्धर्वदेशीय घोड़े जुते हुए थे । वे सर्वगुणसम्पन्न उत्तम अव तेजस्वी, बलवान् और अश्वोचित गुणोंसे युक्त थे। उनकी आँखें निर्मल थीं और उन्हें नाना प्रकारके रत्नमय आभूषण पहनाये गये थे। रथमें जुते हुए वे शोभाशाली अश्व शीघ्रगामी थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो वे अभी सब कुछ लॉंच जायेंगे ।।२२-२५।।

     उन अश्वोंके हिनहिनानेकी आवाज विजयकी सूचना देनेवाली थी। उनमें से प्रत्येक अश्व स्वयं हिनहिनाकर दूसरेको भी इसके लिये प्रेरणा देता था। उस विशाल रथपर आरूढ़ हो महातेजस्वी राजाधिराज भगवान् कुबेर देवताओं और गन्धवोंके मुखते अग्नो स्तुति सुनते हुए चले ।।२६।।

     धनाध्यक्ष महामना कुबेर के प्रस्थान करनेपर समस्त यक्ष भी उसके साथ चले, उन सबके नेत्र लाल थे। शरीरकी कान्ति सुवर्णके समान थी। वे सभी महाकाय और महाबली थे । वे सब तलवार बाँधे अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसजित थे। उनकी संख्या एक हजारसे कम नहीं थी, वे महान् वेगशाली यक्ष आकाशमें उड़ते हुए गन्धमादन पर्वत पर आये, मानो समूचे आकाश मण्डलको खींचे ले रहे हों ॥२६-२९।।

   धनाध्यक्ष कुबेर के द्वारा पालित घोड़ोंके उस महा- समुदायको तथा यक्ष राक्षसोंसे घिरे हुए प्रियदर्शन महामना कुबेरको भी पाण्डवोंने देखा । देखकर उनके अङ्गोंमें रोमाञ्च हो आया। इधर कुबेर भी धनुष और तलवार लिये शक्ति- शाली महारथी पाण्डु पुत्रोंको देखकर बड़े प्रसन्न हुए । कुबेर देवताओंका कार्य सिद्ध करना चाहते थे, इसलिये मन-ही-मन पाण्डवों से बहुत संतुष्ट हुए ।।३०-३२॥

     वे कुबेर आदि तीव्र वेगशाली यक्ष राक्षस पक्षीकी तरह उड़कर गन्धमादन पर्वतके शिखरपर आये और पाण्डवोंके समीप खड़े हो गये, जनमेजय ! पाण्डवों के प्रति कुवेरका मन प्रसन्न देखकर यक्ष और गन्धर्व निर्विकार भावसे खड़े रहे, धर्मज्ञ धर्मपुत्र युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव -ये महारथी महामना पाण्डव भगवान् कुबेरको प्रणाम करके अपने को अपराधी-सा मानते हुए उन्हें सब ओरसे घेरकर हाथ जोड़े खड़े रहे ।।३३-३६॥

   धनाध्यक्ष कुबेर विश्वकर्माके बनाये हुए सुन्दर एवं श्रेष्ठ विमान पुष्पकपर विराजमान थे। वह विमान विचित्र निर्माणकौशल की पराकाष्ठा था, विमानपर बैठे हुए कुबेर के पास कील जैसी कानवाले ती वेगशाली विशालकाय सहस्रों यक्ष-राक्षस भी बैठे थे। जैसे देवता इन्द्रको घेरकर खड़े होते हैं, उसी प्रकार सैकड़ों गन्धर्व और अप्सराओंके गण कुबेरको सब ओरसे घेरकर खड़े थे, ।।३४-३९॥

अपने मस्तकपर सुवर्णकी सुन्दर माला धारण किये और हाथोंमें खड्ग, पाश तथा धनुष लिये भीमसेन धनाध्यक्ष कुबेरकी ओर देख रहे थे ॥ ४० ॥

भीमसेनको राक्षसोंने बहुत घायल कर दिया था। उस अवस्थामें भी कुबेरको देखकर उनके मनमें तनिक भी ग्लानि नहीं होती थी ॥ ४१ ॥

भीमसेन हाथोंमें तीखे बाण लिये उस समय भी युद्ध के लिये तैयार खड़े थे यह देख नरवाहन कुबेरने धर्मपुत्र युधिष्ठिरसे कहा,,

   कुबेर बोले ;- 'कुन्तीनन्दन ! तुम सदा सब प्राणियोंके हितमें तत्पर रहते हो, यह बात सब प्राणी जानते हैं। अतः तुम अपने भाइयोंके साथ इस शैल-शिखरपर निर्भय होकर रहो, 'पाण्डुनन्दन ! तुम्हें भीमसेनपर क्रोध नहीं करना चाहिये ये यक्ष और राक्षस कालके द्वारा पहले ही मारे गये थे। तुम्हारे भाई तो इसमें निमित्तमात्र हुए हैं ।।४२-४३॥

   'भीमसेनने जो यह दुःसाहस का कार्य किया है, इसके लिये तुम्हें लज्जित नहीं होना चाहिये; क्योंकि यक्ष तथा राक्षसों- का यह विनाश देवताओंको पहले ही प्रत्यक्ष हो चुका था, 'भरतश्रेष्ठ ! भीमसेनपर मेरा क्रोध नहीं है। मैं इनपर प्रसन्न हूँ । भीमसेनके कार्यसे मुझे पहले भी प्रसन्नता प्राप्त हो चुकी है' ।।४५-४६।।

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय ! राजा युधिष्ठिर- से ऐसा कहकर कुबेरने भीमसेन से कहा,,

   कुबेर बोले ;- 'तात ! कुरुश्रेष्ठ भीम ! तुमने द्रौपदी के लिये जो यह साहसपूर्ण कार्य किया है, इसके लिये मेरे मनमें कोई विचार नहीं है । तुमने मेरी तथा देवताओंकी अवहेलना करके अपने बाहुबल के भरोसे यक्षों तथा राक्षसों का विनाश किया है, इससे तुमपर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। वृकोदर ! आज मैं एक भयंकर शापसे छूट गया हूँ ॥४७-४९।।

   "पूर्वकाल की बात है, महर्षि अगस्त्यने किसी अपराध- पर कुपित हो मुझे शाप दे दिया था; उसका तुम्हारे द्वारा निराकरण हुआ, पाण्डव -नन्दन ! मुझे पूर्वकालसे ही यह दुःख देखना बदा था। इसमें तुम्हारा किसी तरह भी कोई अपराध नहीं है',

   युधिष्ठिरने पूछा ;- भगवन् ! महात्मा अगस्त्यने आपको कैसे शाप दे दिया ? देव ! आपको शाप मिलने का  क्या कारण है ? यह मैं सुनना चाहता हूँ ॥५०-५२॥

   मुझे इस बात के लिये बड़ा आश्चर्य होता है कि उन बुद्धिमान् महर्षि क्रोधसे आप उसी समय अपने सेवकों और सैनिकों सहित जलकर भस्म क्यों नहीं हो गये ? ॥५३॥

   कुबेर बोले ;- नरेश्वर ! प्राचीन कालमें कुशवतीमै देवताओंकी मन्त्रणा-सभा बैठी थी। उसमें मुझे भी बुलाया गया था। मैं तीन सो महापद्म यक्षोंके साथ वहाँ गया, 

    वे भयानक यक्ष नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। रास्ते में मुझे मुनिश्रेठ अगस्त्यजी दिखायी दिये, जो यमुना के तट पर कठोर तपस्या कर रहे थे। वह प्रदेश भाँति-भाँति- के पक्षियों व्याप्त और विकसित वृक्षावलियोंसे सुशोभित था। महर्षि अगस्त्य अपनी दोनों बाँधे ऊपर उठाये सूर्यकी ओर मुँह करके खड़े थे। वे तेजोराशि महात्मा प्रज्वलित अग्रिके समान उद्दीत हो रहे थे ।।५४-५७।।

    राजन् ! उन्हें देखकर ही मेरे एक मित्र राक्षसराज श्री- मणिमान्ने मूर्खता, अज्ञान, अभिमान एवं मोहके कारण आकाश- से उन महर्षि के मस्तकपर थूक दिया। तब वे क्रोधसे मानो सारी दिशाओंको दग्ध करते हुए मुझसे इस प्रकार बोले,,

     महर्षि अगस्त्य बोले ;- धनेश्वर ! तुम्हारे इस दुष्टात्मा सखाने मेरी अवहेलना करके तुम्हारे देखते-देखते जो मेरा इस प्रकार तिरस्कार किया है, उसके फलस्वरूप इन समस्त सैनिकों के साथ यह एक मनुष्य के हाथ से मारा जायगा। तुम्हारी बुद्धि खोटी हो गयी है, अतः इन सब सैनिकों के मारे जानेपर उनके लिये दुःख उठाने के पश्चात् तुम फिर उसी मनुष्यका दर्शन करके मेरे शाप एवं पाप से छुटकारा पा सकोगे ।।५८-६१।।

    इन सैनिकोंमेंसे जो तुम्हारी आज्ञा का पालन करेगा, वह पुत्र, पौत्र तथा सेनापर लागू होनेवाले इस भयंकर शापके प्रभावसे अलग रहेगा', महाराज युष्ठिधिर ! पूर्वकालमें उन मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य से यही शाप मुझे प्राप्त हुआ था, जिससे तुम्हारे भाई भीमसेनने छुटकारा दिलाया है ॥६३॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्व में कुबेरदर्शनविषयक एक सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

एक सौ बासठवाँ अध्याय

"कुबेरका युधिष्ठिर आदिको उपदेश और सान्त्वना देकर अपने भवनको प्रस्थान"

   कुबेर बोले ;-- युधिष्ठिर धैर्य दक्षता, देश, काल और पराक्रम-ये पाँच लौकिक कार्योंकी सिद्धिके हेतु हैं। भारत ! सत्ययुगमें सब मनुष्य धैर्यवान्, अपने-अपने कार्य में कुशल तथा पराक्रम-विधिके ज्ञाता थे,

   क्षत्रियश्रेष्ठ ! जो क्षत्रिय धैर्यवान्, देश-कालको समझने- वाला तथा सम्पूर्ण धर्मों के विधानका ज्ञाता है, वह दीर्घकाल- तक इस पृथ्वीका शासन कर सकता है ॥१-३॥

   वीर पार्थ ! जो पुरुष इसी प्रकार सब कमोंमें प्रवृत्त होता है, वह लोक सुयश और परलोकमें उत्तम गति पाता है । देश कालके अन्तरपर दृष्टि रखनेवाले वृत्रा- सुरविनाशक इन्द्रने वसुओं सहित पराक्रम करके स्वर्गका राज्य प्राप्त किया है। जो केवल क्रोधके वशीभूत हो अपने पतनको नहीं देखता है, वह पापबुद्धि पापात्मा पुरुष पापका ही अनुसरण करता है॥४-६।।

    जो कर्मों के विभागको नहीं जानता, समयको नहीं पहचानता और कार्योंके वैशिष्टयको नहीं समझता है, वह खोटी बुद्धिवाला मनुष्य इह लोक तथा परलोकमें भी नष्ट ही होता है। साहसके कार्यों में लगे हुए ठग एवं दुरात्मा पुरुषोंके उत्तम कर्मोंका अनुष्ठान इस लोक और परलोकमें भी व्यर्थं नष्टप्राय ही है। सब प्रकारकी (सांसारिक ) सामर्थ्य के इच्छुक मनुष्यों का निश्चय पापपूर्ण होता है पुरुप्ररत्न युधिष्ठिर ! ये भीमसेन धर्मको नहीं जानते, इन्हें अपने बलका बड़ा अभिमान है, इनकी बुद्धि अभी बालकोंकी-सी है तथा ये अत्यन्त क्रोधी और निर्भय हैं, अतः तुम इन्हें उपदेश देकर काबू रक्खो ॥७-९॥

     नरेश्वर ! अब पुनः तुम यहाँसे राजर्षि आष्र्ष्टिषेणके आश्रम- पर जाकर कृष्णपक्ष भर शोक और भयसे रहित होकर रहो, महाबाहु नरश्रेष्ठ ! वहाँ अलकानिवासी यक्ष तथा इस पर्वतपर रहनेवाले सभी प्राणी मेरी आज्ञाके अनुसार गन्धर्वो और किन्नरोंके साथ सदा इन श्रेष्ठ ब्राह्मणसहित तुम्हारी रक्षा करेंगे ।।१०-१२॥

   धर्मात्माओं में श्रेष्ठ नरेश ! भीमसेन यहाँ दुःसाहस- पूर्वक आये हैं, यह बात समझाकर इन्हें अच्छी तरह मना कर दो, (जिससे ये पुनः कोई अपराध न कर बैठें ) राजन् अबसे इस वनमें रहनेवाले सब यक्ष तुमलोगों-की देख-भाल करेंगे, तुम्हारी सेवामें उपस्थित होंगे और सदा तुम सब लोगोंके संरक्षण में तत्पर रहेंगे, पुरुषरत्न पाण्डवो ! इसी प्रकार हमारे सेवक तुम्हारे लिये वहाँ सदा स्वादिष्ठ अन्न-पान प्रचुर मात्रा में प्रस्तुत करते रहेंगे ॥१३-१५।।

   तात युधिष्ठिर ! जैसे अर्जुन देवराज इन्द्रके, भीमसेन वायुदेवके और तुम धर्मराज के योगवलसे उत्पन्न किये हुए निजी पुत्र होनेके कारण उनके द्वारा रक्षणीय हो तथा ये दोनों आत्मबलसम्पन्न नकुल सहदेव जैसे दोनों अश्विनीकुमारों- से उत्पन्न होने के कारण उनके पालनीय हैं, उसी प्रकार यहाँ मेरे लिये भी तुम सब लोग रक्षणीय हो ।।१६-१७।।

   अर्थतत्वकी विधि ज्ञाता और सम्पूर्ण धर्म के विधानमें कुशल अर्जुन, जो भीमसेनसे छोटे हैं, इस समय कुशलपूर्वक स्वर्गलोक में विराज रहे हैं। तात ! संसारमें जो कोई भी स्वर्गीय श्रेष्ठ सम्पत्तियाँ मानी गयी हैं, वे सब अर्जुनमें जन्म कालसे ही स्थित हैं। अमित तेजस्वी और महान् सत्त्वशाली अर्जुनमें दम (इन्द्रिय-संयम ), दान, बल, बुद्धि, लज्जा, धैर्य तथा उत्तम तेज-- ये सभी सद्गुण विद्यमान हैं ॥१८-२०॥

    पाण्डुनन्दन ! तुम्हारे भाई अर्जुन कभी मोहवश निन्दित कर्म नहीं करते । मनुष्य आपसमें कभी अर्जुनके मिथ्या- भाषणकी चर्चा नहीं करते हैं। भारत ! कुरुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले अर्जुन इन्द्र भवन- में देवताओं, पितरों तथा गन्धबैँसे सम्मानित हो अस्त्र- विद्याका अभ्यास करते हैं ॥२१-२२॥

    पार्थ ! जिन्होंने सब राजाओंको धर्मपूर्वक अपने अधीन कर लिया था, वे महातेजस्वी, महापराक्रमी तथा सदाचारपरायण महाराज शान्तनु जो तुम्हारे पिताके पितामह थे, स्वर्गलोक में कुरुकुलधुरीण गाण्डीवधारी अर्जुन से बहुत प्रसन्न रहते हैं। महातपस्वी शान्तनुने देवताओं, पितरों, ऋषियों तथा ब्राह्मणोंकी पूजा करके यमुना-तटपर सात बड़े-बड़े अश्वमेध यर्शोका अनुष्ठान किया था राजन् ! वे तुम्हारे प्रस्तिामह राजाधिराज शान्तनु स्वर्गलोकको जीतकर उसीमें निवास करते हैं। उन्होंने मुझसे तुम्हारी कुशल पूछी थी ।।२३-२६।।

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय कुबेरकी कही हुई ये बातें सुनकर पाण्डवोंको बड़ी प्रसन्नता हुई तदनन्तर भरतकुल भूषण भीमसेनने उठायी हुई शक्ति, गदा, खन और धनुपको नीचे करके कुबेरको नमस्कार किया ।।२७-२८।।

    तब शरण देनेवाले धनाध्यक्ष कुबेरने अपनी शरणमें आये हुए भीमसेनसे कहा ,,

   कुबेर बोले ;- 'पाण्डुनन्दन तुम शत्रुओंका मान मर्दन और सुहृदका आनन्द वर्धन करनेवाले बनो, 'शत्रुओंको संताप देनेवाले भरतकुल भूषण पाण्डवो ! तुम सब लोग अपने रमणीय आश्रमों में निवास करो।


यक्ष लोग तुम्हारी अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्तिमें बाधा नहीं डालेंगे, 'निद्राविजयी अर्जुन अस्त्र-विद्या सीखकर साक्षात् इन्द्र के भेजने पर शीघ्र ही यहाँ आयेंगे और तुम सब लोगों से मिलेंगे', इस प्रकार उत्तम कर्म करनेवाले युधिष्ठिरको उपदेश देकर यक्षराज कुबेर गिरिश्रेष्ठ कैलासको चले गये ।।२९-३२॥

    उनके पीछे सहस्रों यक्ष और राक्षस भी अपने-अपने वाहनोंपर आरूढ़ हो चल दिये। उनके वे वाहन नाना प्रकारके रत्नोंसे विभूषित थे और उनकी पीठपर बहुरंगे कम्बल आदि कसे हुए थे, जैसे इन्द्रपुरीके मार्गपर चलनेवाले विविध वाहनों का कोलाहल सुनायी पड़ता है, उसी प्रकार कुबेरभवन के प्रति यात्रा करनेवाले उत्तम अर्धीका शब्द ऐसा जान पड़ता था, मानो पक्षी उड़ रहे हों ।।३३-३४।।

    धनाध्यक्ष कुबेरके वे घोड़े अपने साथ बादलोंको खींचते और वायुको पीते हुए-से तीव्र गतिसे आकाश में उड़ चले, तदनन्तर कुबेरकी आज्ञासे राक्षसोंके वे निर्जीव शरीर उस पर्वत-शिखरसे दूर हटा दिये गये, बुद्धिमान् अगस्त्यने यक्षोंके लिये शापकी वही अवधि निश्चित की थी। जब वे युद्धमें मारे गये, तब उनके शापका अन्त हो गया । महामना पाण्डव अपने उन आश्रमों में सभ्पूर्ण राक्षसोंसे पूजित एवं उद्वेग-शून्य होकर सुखसे रात्रि व्यतीत करने लगे ।।३५-३८।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्व में कुबेर वाक्य विषयक एक सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

एक सौ तिरसठवाँ अध्याय

"धौम्य का युधिष्ठिर को मेरु पर्वत तथा उसके शिखरोंपर स्थित ब्रह्मा, विष्णु आदिके स्थानोंका लक्ष्य कराना और सूर्य चन्द्रमाकी गति एवं प्रभावका वर्णन"

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;— शत्रुदमन नरेश तदनन्तर सूर्योदय होनेपर आर्ष्टिषेणसहित धौम्यजी नित्यकर्म पूरा करके पाण्डवोंके पास आये तब समस्त पाण्डवौ ने आर्ष्टिषेण तथा धौम्य के चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर सब ब्राह्मणों का पूजन किया, तदनन्तर महर्षि धौम्य ने युधिष्ठिरका दाहिना हाथ पकड़कर पूर्व दिशा की ओर देखते हुए कहा-॥३॥

   महर्षि धौम्य बोले ;- 'महाराज ! वह पर्वतराज मन्दराचल प्रकाशित हो रहा है, जो समुद्र तक की भूमि को घेरकर खड़ा है ॥१-४॥

    'पाण्डुनन्दन ! पर्वतों बनान्त प्रदेशों और काननोंसे सुशोभित इस पूर्व दिशाकी रक्षा इन्द्र और कुबेर करते हैं। 'तात ! सब धर्मों के ज्ञाता मनीषी महर्षि इस दिशाको देवराज इन्द्र तथा कुबेरका निवासस्थान कहते हैं। इधरसे ही उदित होनेवाले सूर्यदेवकी समस्त प्रजा, धर्मश ऋषि, सिद्ध महात्मा तथा साध्य देवता उपासना करते हैं ।।५-७।।

   'समस्त प्राणियों के ऊपर प्रभुत्व रखने वाले धर्मश राजा यम इस दक्षिण दिशाका आश्रय लेकर रहते हैं। इसमें मरे हुए प्राणी ही जा सकते हैं। 'प्रेतराजका यह निवासस्थान अत्यन्त समृद्धिशाली, परम पवित्र तथा देखने में अद्भुत है। राजन् ! इसका नाम संयमन ( या संयमनीपुरी ) है। 'राजन् ! जहाँ जाकर भगवान् सूर्य सत्यसे प्रतिष्ठित होते हैं, उस पर्वतराजको मनीषी पुरुष अस्ताचल कहते हैं। गिरि-राज अस्ताचल और महान् जलराशिसे भरे हुए समुद्र में रहकर राजा वरुण समस्त प्राणियों की रक्षा करते हैं ।।८-११।।

     महाभाग ! यह अत्यन्त प्रकाशमान महामेरु पर्वत दिखायी देता है, जो उत्तर दिशाको उद्भासित करता हुआ खड़ा है। इस कल्याणकारी पर्वतपर ब्रहावेत्ताओंकी ही पहुँच हो सकती है। 'इसीपर ब्रह्मा जी की सभा है, जहाँ समस्त प्राणियों के आत्मा ब्रह्मा स्थावरजङ्गम समस्त प्राणियोंकी सृष्टि करते हुए नित्य निवास करते हैं। जिन्हें ब्राजीका मानस पुत्र बताया जाता है और जिनमें दक्षप्रजापतिका स्थान सातवाँ है, उन समस्त प्रजापतियों का भी यह महामेरु पर्वत ही रोग-शोक से रहित सुखद स्थान है। 'तात! वसिष्ठ आदि सात देवर्षि इन्हीं प्रजापतिमें लीन होते और पुनः इन्हीं प्रकट होते हैं ।।१२-१५।।

     'युधिष्ठिर ! का वह उत्तम शिखर देखो, जो रजोगुण रहित प्रदेश है, वहाँ अपने आपमें तृप्त रहनेवाले देवताओंके साथ पितामह ब्रह्मा निवास करते हैं। 'जो समस्त प्राणियोंकी पञ्चभूतमयी प्रकृतिके अक्षय उपा दान है, जिन्हें ज्ञानी पुरुष अनादि अनन्त दिव्य स्वरूप परम प्रभु नारायण कहते हैं, उनका उत्तम स्थान उस ब्रह्मलोकसे भी ऊपर प्रकाशित हो रहा है। देवता भी उन सर्वतेजोमय शुभस्वरूप भगवान्का सहज ही दर्शन नहीं कर पाते । राजन् ! परमात्मा विष्णुका वह स्थान सूर्य और अग्निसे भी अधिक तेजस्वी है और अपनी ही प्रभासे प्रकाशित होता है। देवताओं और दानवोंके लिये उसका दर्शन अत्यन्त कठिन है ।।१६-१९॥

    'तात ! पूर्व दिशा में मेरुपर ही भगवान् नारायणका स्थान सुशोभित हो रहा है, जहाँ सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी तथा सबके उपादान कारण स्वयंभू भगवान् विष्णु अपने उत्कृष्ट तेजसे सम्पूर्ण भूतको प्रकाशित करते हुए विराजमान होते हैं। वहाँ यत्नशील ज्ञानी महात्माओंकी ही पहुँच हो सकती है। उस नारायण धाममें ब्रह्मर्पियोंकी भी गति नहीं है। फिर महर्षि तो वहाँ जा ही कैसे सकते हैं। पाण्डुनन्दन ! सम्पूर्ण ज्योतिर्मय पदार्थ भगवान् के निकट जाकर अपना तेज खो बैठते हैं उनमें पूर्ववत् प्रकाश नहीं रद्द जाता है ।।२०-२२॥

   'साक्षात् अचिन्त्यस्वरूप भगवान् विष्णु ही वहाँ विराजित होते हैं यत्नशील महात्मा भक्ति के प्रभावसे वहाँ भगवान् नारायणको प्राप्त होते हैं।

    'भारत ! जो उत्तम तपस्यासे युक्त हैं और पुण्यकर्मोंके अनुष्ठानसे पवित्र हो गये हैं, वे अज्ञान और मोहसे रहित योग- सिद्ध महात्मा उस नारायण धाम में जाकर फिर इस संसार में नहीं लौटते हैं। अपि तु स्वयंभू एवं सनातन परमात्मा देवदेव विष्णुमें लीन हो जाते हैं ॥२३-२५।।

    'महाभाग युधिष्ठिर ! यह परमेश्वरका नित्य, अविनाशी और अधिकारी स्थान है। तुम यहींसे इसको प्रणाम करो, 'कुरुनन्दन ! सूर्य और चन्द्रमा प्रतिदिन इस निश्चल मेरुगिरिकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं । पापशून्य महाराज ! सम्पूर्ण नक्षत्र भी गिरिराज मेरुकी सर्वतोभावेन परिक्रमा करते हैं ।।२६-२८॥

    'अन्धकार का निवारण करना ही जिनका मुख्य कर्म है, वे भगवान् सूर्य भी सम्पूर्ण ज्योतियों को अपनी ओर खींचते हुए इस मेरुगिरि की प्रदक्षिणा करते हैं।।  तदनन्तर अस्ताचलको पहुँचकर संध्याकालकी सीमाको लाँचकर ये भगवान् सूर्य उत्तर दिशाका आश्रय लेते हैं। पाण्डुनन्दन ! मेरु पर्वतका अनुसरण करके उत्तर दिशाकी सीमातक पहुँचकर ये समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहनेवाले भगवान् सूर्य पुनः पूर्वाभिमुख होकर चलते हैं ।।२९-३१॥

    'उसी प्रकार भगवान् चन्द्रमा भी नक्षत्रोंके साथ मेरु पर्वतकी परिक्रमा करते हैं और पर्वसंधिके समय विभिन्न मासका विभाग करते रहते हैं। 'इस तरह आलस्यरहित हो इस महामेरुका उल्लङ्घन करके समस्त प्राणियोंका पोषण करते हुए वे पुनः मन्दराचलको चले जाते हैं। उसी प्रकार अन्धकारनाशक भगवान् सूर्य अपनी किरणों से सम्पूर्ण जगत्का पालन करते हुए इस बाधारहित मार्गपर सदा चक्कर लगाते रहते हैं ।।३२-३४॥

      'शीतकी सृष्टि करने की इच्छासे ही सूर्यदेव दक्षिण दिशाका आश्रय लेते हैं, इसलिये समस्त प्राणियोंपर शीतकालका प्रभाव पड़ने लगता है । दक्षिणायनसे निवृत्त होनेपर वे भगवान् सूर्य स्थावरजङ्गम सभी प्राणियोंका तेज अपने तेजसे हर लेते हैं, यही कारण है कि मनुष्योंको पसीना, थकावट, आलस्य और ग्लानिका अनुभव होता है यथा प्राणी सदा निद्राका ही बार-बार सेवन करते हैं। इस प्रकार इस अन्तरिक्ष मार्गको आवृत करके समस्त प्रजाकी पुष्टि करते हुए भगवान् सूर्य पुनः वर्षाकी सृष्टि करते हैं ।।३५-३८॥

     'महातेजस्वी सूर्यदेव वृष्टि, वायु और तापद्वारा सुखपूर्वक चराचर जीवोंकी पुष्टि करते हुए पुनः अपने स्थानपर लौट आते हैं।

     'कुन्तीनन्दन ! इस प्रकार ये भगवान् सूर्य सावधान हो समस्त प्राणियोंका आकर्षण और पोषण करते हुए विचरते और कालचक्रका संचालन करते हैं।

      युधिष्ठिर ! यह सूर्यदेवकी निरन्तर चलनेवाली गति है। सूर्य कभी एक क्षणके लिये भी रुकते नहीं हैं वे सम्पूर्ण भूत के रसमय तेजको ग्रहण करके पुनः उसे वर्षाकालमें बरसा देते हैं। भारत ! ये भगवान् सविता सम्पूर्ण भूतोंकी आयु और कर्मका विभाग करते हुए दिन-रात, कला-काष्ठा आदि समयकी निरन्तर सृष्टि करते रहते हैं ।।३९-४२॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्व में मेरुदर्शनविषयक एक सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

एक सौ चौसठवाँ अध्याय

"पाण्डवों की अर्जुनके लिये उत्कण्ठा और अर्जुनका आगमन"

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय ! उस पर्वतराज गन्धमादनपर उत्तम व्रतका आश्रय ले निवास करते हुए अर्जुन के दर्शनकी इच्छा रखनेवाले महामना पाण्डवोंके मनमें अत्यन्त प्रेम और आनन्दका प्रादुर्भाव हुआ, वे सब के सब बड़े पराक्रमी थे। उनकी कामनाएँ अत्यन्त विशुद्ध थीं। वे तेजस्वी तो थे ही, सत्य और धैर्य उनके प्रधान गुण थे, अतः बहुत-से गन्धर्व तथा महर्षिगण उनसे प्रेमपूर्वक मिलने-जुलने के लिये आने लगे, वह श्रेष्ठ पर्यंत विकसित वृक्षावलियोंसे विभूषित था । वहाँ पहुँच जानेसे महारथी पाण्डवोंके मनमें बड़ी प्रसन्नता रहने लगी । ठीक उसी तरह, जैसे मरुद्रणको स्वर्गलोक में पहुँचने- पर प्रसन्नता होती है ॥१-३॥

    उस महान् पर्वतके शिखर मयूरों और हंसोंके कलनाद से गूँजते रहते थे यहाँ सब ओर सुन्दर पुष्प व्याप्त हो रहे थे। उन मनोहर शिखरोंको देखते हुए पाण्डवलोग बड़े हर्ष के साथ वहाँ रहने लगे, उस श्रेष्ठ दौलवर साक्षात् भगवान् कुबेरने अनेक सुन्दर सरोवर बनवाये थे, जो कमल-समूह से आच्छादित रहते थे । उनके जल शैवाल आदिसे ढके होते थे और उन सबमें हंस, कारण्डव आदि पक्षी सानन्द निवास करते थे। पाण्डवोंने उन सरोवरोंको देखा, धनाध्यक्ष राजा कुबेर के लिये जैसे होने चाहिये, वैसे ही समृद्धिशाली क्रीडा- प्रदेश वहाँ बने हुए थे। विचित्र मालाओं- से समावृत होनेके कारण उनकी शोभा बहुत बढ़ गयी थी। उनको मणि तथा रत्नोंसे अलंकृत किया गया था, जिससे वे क्रीडा स्थल मनको मोहे लेते थे ॥४-६॥

    अनेक वर्णवाले विशाल सुगन्धित वृक्षों तथा मेघ- समूहों से व्याप्त उस पर्वत शिखरपर विचरते हुए सदा तपस्या- में ही संलग्न रहनेवाले पाण्डव उस पर्वतकी महत्ताका चिन्तन नहीं कर पाते थे, वीरवर जनमेजय ! पर्वतराज गन्धमादनके अपने तेजसे तथा वहाँकी तेजस्विनी महौषधियों के प्रभावसे वहाँ सदा प्रकाश व्याप्त रहनेके कारण दिन-रात का कोई विभाग नहीं हो पाता था, जिन भगवान् सूर्यका आश्रय लेकर अमित तेजस्वी अग्नि- देव सम्पूर्ण स्थावरजङ्गम प्राणियोंका पोषण करते हैं, उनके उदय और अस्तकी लीलाको पुरुपसिंह वीर पाण्डव वहाँ रहकर स्पष्ट देखते थे ॥७-९॥

   वे वीर पाण्डव वहाँसे अन्धकार के आगमन और निर्गमन को, अन्धकारविनाशक भगवान् सूर्यके उदय और अस्तकी लीलाको तथा उनके किरणसमूहोंसे व्याप्त हुई सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओंको देखकर स्वाध्याय में संलग्न रहते थे । सदा शुभ कर्मों के अनुष्ठानमें तत्पर रहकर प्रधानरूपसे धर्मका ही आश्रय लेते थे। उनका आचार व्यवहार अत्यन्त पवित्र था। वे सत्यमें स्थित होकर सत्यव्रतपरायण महारथी अर्जुनके आगमनकी प्रतीक्षा करते थे ।।१०-११॥

     'इस पर्वतपर आये हुए हम सब लोगों को यहीं अस्त्र-विद्या सीखकर पधारे हुए अर्जुनके दर्शनसे शीघ्र ही अत्यन्त हर्षकी प्राप्ति हो;' इस प्रकार परस्पर शुभ-कामना प्रकट करते हुए वे सभी कुन्तीपुत्र तप और योगके साधनमें संलग्न रहते थे, उस पर्वतपर विचित्र वन-कुओंकी शोभा देखते और निरन्तर अर्जुनका चिन्तन करते हुए पाण्डवोंको एक दिन- रातका समय एक वर्षके समान प्रतीत होता था ॥१२-१३॥

     जबसे धौम्य मुनिकी आज्ञा लेकर महामना अर्जुन सिरपर जटा धारण करके तपस्या के लिये प्रस्थित हुए थे, तभी से उन पाण्डवों के मनमें रचमात्र भी दर्पं नहीं रह गया था । उनका मन निरन्तर अर्जुन में ही लगा रहता था। ऐसी दशा में उन्हें सुख कैसे प्राप्त हो सकता था ? गजराज के समान मस्तानी चालसे चलनेवाले वे अर्जुन जब बड़े भाई युधिष्ठिरकी आशा लेकर काम्यक वनसे प्रस्थित हुए थे, तभी समस्त पाण्डव शोकसे पीडित हो गये थे ।।१४-१५॥

     जनमेजय ! अस्त्र-विद्याकी अभिलाषासे देवराज इन्द्रके समीप गये हुए श्वेतवाहन अर्जुनका चिन्तन करनेवाले पाण्डवोंका एक मास उस पर्वतपर बड़ी कठिनाई से व्यतीत हुआ, इधर अर्जुनने इन्द्र-भवनमें पाँच वर्ष रहकर देवेश्वर इन्द्रसे सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये इस प्रकार अग्नि, वरुण, सोम, वायु, विष्णु, इन्द्र, पशुपति, ब्रह्मा, परमेष्ठी, प्रजापति, यम, धाता, सविता, त्वष्टा तथा कुबेरसम्बन्धी अस्त्रों को भी देवेन्द्र से ही प्राप्त करके उन्हें प्रणाम किया । तदनन्तर उनसे अपने भाइयोंके पास लौटने की आज्ञा पाकर उनकी परिक्रमा करके अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए और हर्षोल्लास में भरकर गन्ध- मादनपर आये ।।१६-२०॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्व में अर्जुनाभिगमनविषयक एक सौ चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(समाप्तं यक्षयुद्ध पर्व)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

एक सौ पैसठवाँ अध्याय

"अर्जुनका गन्धमादन पर्वत पर आकर अपने भाइयोंसे मिलना"

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय ! तदनन्तर किसी समय हरे रंगके घोड़ों जुता हुआ देवराज इन्द्रका रथ सहसा आकाशमें प्रकट हुआ, मानो विजली चमक उठी हो । उसे देखकर अर्जुनका चिन्तन करते हुए महारथी पाण्डवों को बड़ा हर्ष हुआ, उस रथका संचालन मातलि कर रहे थे। वह दीप्तिमान् रथ सहसा अन्तरिक्षलोकको प्रकाशित करता हुआ इस प्रकार सुशोभित होने लगा मानो बादलों के भीतर बड़ी भारी उल्का प्रकट हुई हो अथवा अग्निकी धूमरहित ज्वाला प्रज्वलित हो उठी हो ॥१-२॥

     उस दिव्य रथपर बैठे हुए किरीटधारी अर्जुन स्पष्ट दिखायी देने लगे। उनके कण्टमें दिव्य हार शोभा पा रहा था और उन्होंने स्वर्गलोकके नूतन आभूषण धारण कर रक्खे थे। उस समय धनंजयका प्रभाव वज्रधारी इन्द्रके समान जान पड़ता था। वे अपनी दिव्य कान्तिसे प्रकाशित होते हुए गन्धमादन पर्वतपर आ पहुँचे, पर्वतपर


पहुँचकर बुद्धिमान् किरीटधारी अर्जुन देवराज इन्द्र के उस दिव्य रथसे उतर पड़े। उस समय सबसे पहले उन्होंने महर्षि धौम्यके दोनों चरणोंमें मस्तक झुकाया । तदनन्तर अजातशत्रु युधिष्ठिर तथा भीमसेनके चरणों प्रणाम किया । इसके बाद नकुल और सहदेवने आकर अर्जुनको प्रणाम किया तत्पश्चात् द्रौपदीसे मिलकर अर्जुनने उसे बहुत आश्वासन दिया और अपने भाई युधिष्ठिर के समीप आकर वे विनीत भावसे खड़े हो गये ।।३-५।।

    अप्रमेय वीर अर्जुनसे मिलकर सब पाण्डवोंको बड़ा हर्ष हुआ अर्जुन भी उन सबसे मिलकर बड़े प्रसन्न हुए तथा राजा युधिष्ठिरकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे, नमुचिनाशक इन्द्रने जिसपर बैठकर दैत्योंके सात यूथका संहार किया था, उस इन्द्ररथके समीप जाकर उदार हृदयवाले कुन्तीपुत्रोंने उसकी परिक्रमा की, साथ ही, उन्होंने अत्यन्त हर्षमें भरकर मातलिका देवराज इन्द्रके समान सर्वोत्तम विधिसे सत्कार किया। इसके बाद उन पाण्डवों ने मातलिसे सम्पूर्ण देवताओं का यथावत् कुशल- समाचार पूछा ॥६-८॥

     मातलिने भी पाण्डवों का अभिनन्दन किया और जैसे पिता पुत्रको उपदेश देता है, उसी प्रकार पाण्डवों को कर्तव्य-की शिक्षा देकर वे पुनः अपने अनुपम कान्तिशाली रथके द्वारा स्वर्गलोक के स्वामी इन्द्रके समीप चले गये, मातलिके चले जानेपर इन्द्रशत्रुओं का संहार करने वाले देवेन्द्रकुमार नृपश्रेष्ठ महात्मा श्रीमान् अर्जुन ने, जो साक्षात् सहस्रलोचन इन्द्रके समान प्रतीत होते थे, अपने शरीर से उतारकर इन्द्र के दिये हुए बहुमूल्य, उत्तम तथा सूर्यके समान देदीप्यमान दिव्य आभूषण अपनी प्रियतमा सुतसोमकी माता द्रौपदीको समर्पित कर दिये ।।९-१०।।

   तदनन्तर उन कुरुश्रेष्ठ पाण्डवों तथा सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी ब्रहार्पियोंके बीच में बैठकर अर्जुनने अपना सब समाचार यथावत् रूपसे कह सुनाया । मैंने अमुक प्रकारसे इन्द्र, वायु और साक्षात् शिवसे दिव्यास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की है ।।११-१२॥

   'मेरे शील स्वभाव तथा चित्तकी एकाग्रतासे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता मुझपर बहुत प्रसन्न रहते थे ।' निर्दोष कर्म करने वाले अर्जुन ने अपने स्वर्गीय प्रवासका सब समाचार उन सबको संक्षेपते बताकर नकुल सहदेवके साथ निश्चिन्त होकर उस आश्रम में शयन किया ।।१३-१४॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत निवातकवचयुद्धपर्व में अर्जुनसमागमविषयक एक सौ पैसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)



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