सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ छप्पनवें अध्याय से एक सौ साठवें अध्याय तक (From the 156 to the 160 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ छप्पनवाँ अध्याय

 "पाण्डवोंका आकाशवाणीके आदेश से पुनः नरनारायणाश्रम में लौटना"

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय ! उस सौगन्धिक सरोवर के तटपर निवास करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने एक दिन ब्राह्मणों तथा द्रौपदी सहित अपने भाइयोंसे इस प्रकार कहा 'हम लोगों ने अनेक पुण्यदायक एवं कल्याणस्वरूप तीर्थों के दर्शन किये । मनको आह्लाद प्रदान करनेवाले भिन्न- भिन्न वन का भी अवलोकन किया, 'वे तीर्थ और वन ऐसे थे, जहाँ पूर्वकाल में देवता और महात्मा मुनि विचरण कर चुके हैं तथा क्रमशः अनेक द्विजोंने उनका समादर किया है ॥१-३॥

   'हमने ऋषियोंके पूर्वचरित्र, कर्म और चेष्टाओंकी कथा सुनी है । राजर्षियोंके भी चरित्र और भाँति-भाँति की शुभ कथाएँ सुनते हुए मङ्गलमय आश्रमोंमें विशेषतः ब्राह्मणोंके साथ तीर्थस्नान किया है। 'हमने सदा फूल और जलसे देवताओंकी पूजा की है और यथाप्राप्त फल- मूलसे पितरोंको भी तृप्त किया है। 'रमणीय पर्वतों और समस्त सरोवरोंमें विशेषतः परम पुण्यमय समुद्रके जल में इन महात्माओंके साथ भली- भाँति स्नान एवं आचमन किया है ॥४-७॥

     'इला, सरखती, सिंधु, यमुना तथा नर्मदा आदि नाना रमणीय तीर्थोंमें भी ब्राह्मणोंके साथ विधिवत् स्नान और आचमन किया है। गङ्गाद्वार (हरिद्वार) को लाँधकर बहुत से मङ्गलमय पर्वत देखे तथा बहुसंख्यक ब्राह्मणोंसे युक्त हिमालय पर्वत- का भी दर्शन किया, 'विशाल बदरीतीर्थ, भगवान् नर-नारायणके आश्रम तथा सिद्धों और देवर्षियोंसे पूजित इस दिव्य सरोबरका भी दर्शन किया, 

   'विप्रवरो ! महात्मा लोमशजीने हमें सभी पुण्यस्थानोंके क्रमशः दर्शन कराये हैं।

     भीमसेन ! यह सिद्धसेवित पुण्य-प्रदेश कुबेर का निवासस्थान है। अब हम कुवेर के भवन में कैसे प्रवेश करेंगे? इसका उपाय सोचो' ॥८-१२॥

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- महाराज युधिष्ठिर के ऐसा कहते ही आकाशवाणी बोल उठी-कुबेर के इस आश्रम से आगे जाना सम्भव नहीं है। यह मार्ग अत्यन्त दुर्गम है। 'राजन् ! जिससे तुम आये हो, उसी मार्ग से विशाला बदरी के नामसे विख्यात भगवान् नर-नारायणके स्थानको लौट जाओ, 'कुन्तीकुमार ! वहाँसे तुम प्रचुर फल-फूल से सम्पन्न वृषपर्वा के रमणीय आश्रम पर जाओ, जहाँ सिद्ध और चारण निवास करते हैं। उम्र आश्रमको भी लाँघकर आर्ष्टिषेणके आश्रमपर जाना और वहाँ निवास करना। तदनन्तर तुम्हें धनदाता कुबेर के निवासस्थानका दर्शन होगा? ।।१३-१६।।

  इसी समय दिव्य सुगन्धसे परिपूर्ण पवित्र वायु चलने लगी, जो शीतल तथा सुख और आह्लाद देनेवाली थी । साथ ही वहाँ फूलों की वर्षा होने लगी, वह दिव्य आकाशवाणी सुनकर सबको बड़ा विस्मय हुआ। ऋषियों, ब्राह्मणों और विशेषतः राजर्पियोंको अधिक आश्चर्य हुआ ।।१५-१८।।

वह महान् आश्चर्यजनक बात सुनकर विप्रर्षि धौम्य ने कहा,

  धौम्य ऋषि बोले ;- 'भारत ! इसका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। ऐसा ही होना चाहिये ॥१९॥

   तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने वह आकाशवाणी स्वीकार कर ली और पुनः नर-नारायण के आश्रम में लौटकर भीमसेन आदि सब भाइयों और द्रौपदी के साथ वहीं रहने लगे उस समय साथ आये हुए ब्राह्मण लोग भी वहीं सुखपूर्वक निवास करने लगे ॥२०-२१॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत बनके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा प्रसङ्ग पाण्डवों का पुनः नर-नारायणके आश्रम में आगमनविषयक एक सौ छप्पन अध्याय पूरा हुआ)

(समाप्तं तीर्थयात्रा पर्व)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (जटासुरवध पर्व)

एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय

"जटासुर के द्वारा द्रौपदीसहित युधिष्ठिर, नकुल, सहदेवका हरण तथा भीमसेनद्वारा जटासुरका वध"

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय ! तदनन्तर पर्वतराज गन्धमादनपर सब पाण्डव अर्जुन के आने की प्रतीक्षा करते हुए ब्राह्मणोंके साथ निःशङ्क रहने लगे । उन्हें पहुँचाने- के लिये आये हुए राक्षस चले गये । भीमसेनका पुत्र घटोत्कच भी विदा हो गया तत्पश्चात् एक दिनकी बात है, भीमसेनकी अनुपस्थितिमें अकस्मात् एक राक्षसने धर्मराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव तथा द्रौपदीको हर लिया वह ब्राह्मणके वेपमें प्रतिदिन उन्हींके साथ रहता था और सब पाण्डवोंसे कहता था कि 'मैं सम्पूर्ण शास्त्रज्ञोंमें श्रेष्ठ और मन्त्र-कुशल ब्राह्मण हूँ ।' वह कुन्ती कुमारों के तरकस और धनुपको भी हर लेना चाहता था और द्रौपदीका अपहरण करनेके लिये सदा अवसर ढूँढ़ता रहता था। उस दुष्टात्मा एवं पापबुद्धि राक्षसका नाम जटासुर था ॥१-५॥

    जनमेजय ! पाण्डवोंको आनन्द प्रदान करनेवाले युधिष्ठिर अन्य ब्राह्मणोंकी तरह उसका भी पालन-पोषण करते थे । परंतु राखमें छिपी हुई आगकी भाँति उस पापी- के असली स्वरूपको वे नहीं जानते थे,

    शत्रुसूदन ! हिंसक पशुओंको मारने के लिये भीमसेनके आश्रमसे बाहर चले जानेपर उस राक्षसने देखा कि घटोत्कच अपने सेवकसहित किसी अज्ञात दिशाको चला गया, लोमश आदि महर्षि ध्यान लगाये बैठे हैं तथा दूसरे तपोधन स्नान करने और फूल लानेके लिये कुटियासे


बाहर निकल गये हैं तब उस दुष्टात्माने विशाल, विकराल एवं भयंकर दूसरा रूप धारण करके पाण्डवोंके सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र, द्रौपदी तथा तीनों पाण्डवोंको भी लेकर वहाँसे प्रस्थान कर दिया। उस समय पाण्डु कुमार सहदेव प्रयत्न करके उस राक्षसकी पकड़से छूट गये और पराक्रम करके म्यानसे निकली हुई अपनी तलवारको भी उससे छुड़ा लिया। फिर वे महाबली भीमसेन जिस मार्ग से गये थे, उधर ही जाकर उन्हें जोर- जोर से पुकारने लगे ॥६-११॥

इधर जिन्हें वह जटासुर हरकर लिये जा रहा था, वे धर्मराज युधिष्ठिर उससे इस प्रकार बोले,

  युधिष्ठिर बोले ;- 'अरे मूर्ख ! इस प्रकार ( विश्वासघात करनेसे ) तो तेरे धर्मका ही नाश हो रहा है। किंतु उधर तेरी दृष्टि नहीं जाती है। 'दूसरे भी जहाँ कहीं मनुष्य अथवा पशु-पक्षीकी योनि-में स्थित प्राणी हैं, वे सभी धर्मपर दृष्टि रखते हैं। राक्षस तो (पशु-पक्षी की अपेक्षा भी) विशेषरूपसे धर्मका विचार करते हैं।

   'राक्षस धर्मके मूल हैं। वे उत्तम धर्मका ज्ञान रखते हैं। इन सब बातोंका विचार करके तुझे हमलोगोंके समीप ही रहना चाहिये। राक्षस ! देवता, ऋषि, सिद्ध, पितर, गन्धर्व, नाग, राक्षस, पशु, पक्षी, तिर्यग्योनि के सभी प्राणी और कीड़े- मकोड़े, चींटी आदि भी मनुष्योंके आश्रित हो जीवन-निर्वाह करते हैं। इस दृष्टिसे तू भी मनुष्यों से ही जीविका चलाता है । 'इस मनुष्यलोक की समृद्धि से ही तुम सब लोगों का लोक समृद्धिशाली होता है । यदि इस लोक की दशा शोचनीय हो तो देवता भी शोक में पड़ जाते हैं। 'क्योंकि मनुष्यद्वारा हव्य और कव्यसे विधिपूर्वक पूजित होनेपर उनकी वृद्धि होती है। राक्षस हम लोग राष्ट्रके पालक और संरक्षक हैं। 'हमारे द्वारा रक्षित न होनेपर राष्ट्रको कैसे समृद्धि प्राप्त होगी और कैसे उसे सुख मिलेगा ? राक्षसको भी उचित है कि वह बिना अपराधके कभी किसी राजाका अपमान न करे ॥१२-१९॥

     'नरभक्षी निशाचर! तेरे प्रति हमलोगोंकी ओरसे थोड़ा- सा भी अपराध नहीं हुआ है। हम देवता आदिको समर्पित करके बचे हुए प्रसादस्वरूप अन्नका यथाशक्ति गुरुजनों और ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं । गुरुजनों तथा ब्राह्मणों के सम्मुख हमारा मस्तक सदा झुका रहता है। किसी भी पुरुषको कभी अपने मित्रों और विश्वासी पुरुषोंके साथ द्रोह नहीं करना चाहिये, ‘जिनका अन्न खाये और जहाँ अपनेको आश्रय मिला हो, उनके साथ भी द्रोह या विश्वासघात करना उचित नहीं है। तू हमारे आश्रय में हमलोगोंसे सम्मानित होकर सुख- पूर्वक रहा है ।।२०-२२।।

      'खोटी बुद्धिवाले राक्षस! तू हमारा अन्न खाकर हमें ही हर ले जानेकी इच्छा कैसे करता है ? इस प्रकार तो अबतक तूने ब्राह्मणरूपसे जो आचार दिखाया था, वह सब व्यर्थ ही था । तेरा बढ़ना या वृद्ध होना भी व्यर्थ ही है । तेरी बुद्धि भी व्यर्थ है। ‘ऐसी दशार्मे तू व्यर्थं मृत्युका ही अधिकारी है और आज व्यर्थ ही तुम्हारे प्राण नष्ट हो जायँगे यदि तेरी बुद्धि दुष्टतापर ही उतर आयी है और तू सम्पूर्ण धर्मोंको भी छोड़ बैठा है, तो हमें हमारे अस्त्र देकर युद्ध कर तथा उसमें विजयी होनेपर द्रौपदीको ले जा यदि तू अज्ञानवश यह विश्वासघात या अपहरण कर्म करेगा, तो संसारमें तुझे केवल अधर्म और अकीर्ति ही प्राप्त होगी। निशाचर! आज तूने इस मानव जाति की स्त्रीका स्पर्श करके जो पाप किया है, यह भयंकर विष है, जिसे तूने घड़े में घोलकर पी लिया है ।' इतना कहकर युधिष्ठिर उसके लिये बहुत भारी हो गये ।।२३-२७।।

भार से उसका शरीर दबने लगा, इसलिये अब वह पहले की तरह शीघ्रतापूर्वक न चल सका। तब युधिष्ठिरने नकुल और द्रौपदीसे कहा,

  युधिष्ठर बोले ;- 'तुमलोग इस मूढ राक्षससे डरना मत। मैंने इसकी गति कुण्ठित कर दी है। वायुपुत्र महाबाहु भीमसेन यहाँसे अधिक दूर नहीं होंगे, 'इस आगामी मुहूर्तके आते ही इस राक्षसके प्राण नहीं रहेंगे।' इधर सहदेवने उस मूढ़ राक्षसकी ओर देखते हुए कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरसे कहा,

  सहदेव बोले ; – “राजन् ! क्षत्रियके लिये इससे अधिक सत्कर्म क्या होगा कि वह युद्धमें शत्रुका सामना करते हुए प्राणका त्याग कर दे अथवा शत्रुको ही जीत ले राजन् ! इस प्रकार यह हमें अथवा हम इसे युद्ध करते हुए मार डालें परंतप महाबाहु नरेश ! यह क्षत्रियधर्मके अनुकूल देश-काल प्राप्त हुआ है। यह समय यथार्थ पराक्रम प्रकट करनेके लिये है ।।२८-३३॥

   'भारत ! हम विजयी हो या मारे जायें, सभी दशाओंमें उत्तम गति प्राप्त कर सकते हैं। यदि इस राक्षसके जीते-जी सूर्य डूब गये, तो मैं फिर कभी अपनेको क्षत्रिय नहीं कहूँगा । अरे ओ निशाचर ! खड़ा रह, मैं पाण्डुकुमार सहदेव हूँ, या तो तू मुझे मारकर द्रौपदीको ले जा या स्वयं मेरे हाथों मारा जाकर आज यहीं सदाके लिये सो जा' माद्रीनन्दन सहदेव जब ऐसी बात कह रहे थे, उसी समय अकस्मात् गदा हाथ में लिये भीमसेन दिखायी दिये, मानो वज्रधारी इन्द्र आ पहुँचे हों। उन्होंने वहाँ (राक्षसके अधिकारमें पड़े हुए) अपने दोनों भाइयों तथा यशस्विनी द्रौपदीको देखा ।।३४-३७॥

   उस समय सहदेव धरतीपर खड़े होकर राक्षसपर आक्षेप कर रहे थे और वह मूढ़ राक्षस मार्गसे भ्रष्ट होकर वहीं चक्कर काट रहा था। कालसे उसकी बुद्धि मारी गयी थी। दैवने ही उसे वहाँ रोक रक्खा था। भाइयों और द्रौपदीका अपहरण होता देख महाबली भीमसेन कुपित हो उठे और जटासुरसे बोले,,

   भीमसेन बोले ;- 'ओ पापी ! पहले जब तू शस्त्रोंकी परीक्षा कर रहा था, तभी मैंने तुझे पहचान लिया था ।।३८-४०॥

   'तुझपर मेरा विश्वास नहीं रह गया था। तो भी तू ब्राह्मणके रूपमें अपने असली स्वरूपको छिपाये हुए था और हमलोगों से कोई अप्रिय बात नहीं कहता था । इसीलिये मैंने तुम्हें तत्काल नहीं मार डाला, 'तू हमारे प्रिय कार्यों में मन लगाता था। जो हमें प्रिय न लगे, ऐसा काम नहीं करता था। ब्राह्मण अतिथि के रूपमें आया था और कभी कोई अपराध नहीं किया था। ऐसी दशामें मैं तुझे कैसे मारता ? जो राक्षसको राक्षस जानते हुए भी बिना किसी अपराधके उसका वध करता है, वह नरकमें जाता है। अभी तेरा समय पूरा नहीं हुआ था, इसलिये भी आजसे पहले तेरा वध नहीं किया जा सकता था ।।४२-४३।।

    'आज निश्चय ही तेरी आयु पूरी हो चुकी है, तभी तो अद्भुत कर्म करनेवाले कालने तुझे इस प्रकार द्रौपदी के अप- हरणकी बुद्धि दी है। 'कालरूपी डोरेसे लटकाया हुआ वंशीका काँटा तूने निगल लिया है तेरा मुँह जलकी मछलीके समान उस काँटे गुँथ गया है, अतः अब तू कैसे जीवन धारण करेगा ! जिस देशकी ओर तू प्रस्थित हुआ है और जहाँ तेरा मन पहले से ही जा पहुँचा है, वहाँ अब तू न जा सकेगा । तुझे तो बक और हिडिम्बके मार्गपर जाना है, ।।४४-४६॥

भीमसेन के ऐसा कहने पर वह राक्षस भयभीत हो उन सबको छोड़कर कालकी प्रेरणा से युद्ध के लिये उद्यत हो गया। उस समय रोष से उसके ओठ फड़क रहे थे। उसने भीमसेनको उत्तर देते हुए कहा,

   राक्षस बोला ;- 'ओ पापी ! मुझे दिग्भ्रम नहीं हुआ था। मैंने तेरे ही लिये विलम्ब किया था ।।४७-४८।।

    'तूने जिन-जिन राक्षसको युद्धमें मारा है, उन सबके नाम मैंने सुने हैं। आज तेरे रक्त से ही मैं उनका तर्पण करूँगा', राक्षसके ऐसा कहनेपर भीमसेन अपने मुखके दोनों कोने चाटते हुए कुछ मुस्कराते से प्रतीत हुए। फिर क्रोधसे साक्षात् काल और यमराज के समान जान पड़ने लगे । रोष से उनकी आँखें लाल हो गयी थीं और 'खड़ा रह, खड़ा रह कहते हुए ताल ठोंककर राक्षसकी ओर दृष्टि गड़ाये उसपर टूट पड़े। राक्षस भी उस समय भीमसेनको युद्धके लिये उपस्थित देख बार-बार मुँह फैलाकर मुँहके दोनों कोने चाटने लगा और जैसे बलिराजा वज्रधारी इन्द्रपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार कुपित हो उसने भीमसेनपर धावा किया ।।४९-५२॥

    भीमसेन भी स्थिर होकर उससे युद्ध के लिये खड़े हो गये और वह राक्षस भी निश्चिन्त हो उनके साथ बाहु-युद्धकी इच्छा करने लगा । उस समय उन दोनोंमें बड़ा भयंकर बाहु-युद्ध होने लगा। यह देख माद्रीपुत्र नकुल और सहदेव अत्यन्त क्रोधमें भरकर उसकी ओर दौड़े ॥ ५३ ॥

परंतु कुन्तीकुमार भीमसेनने हँसकर उन दोनों को रोक दिया और कहा,,

   भीमसेन बोले ;- 'मैं अकेला ही इस राक्षसके लिये पर्याप्त हूँ। तुमलोग चुप-चाप देखते रहो' ॥५४॥

    फिर वे युधिष्ठिरसे बोले ;– “महाराज ! मैं अपनी, सब भाइयोंकी, धर्मकी, पुण्य कर्मोकी तथा यज्ञकी शपथ खाकर कहता हूँ, इस राक्षसको अवश्य मार डालूँगा', ऐसा कहकर वे दोनों वीर राक्षस और भीम एक दूसरेसे स्पर्धा रखते हुए बासे बाहें मिलाकर गुथ गये भीमसेन तथा राक्षस दोनोंमें देवताओं और दानवोंके समान युद्ध होने लगा दोनों ही रोप और अमर्थमें भरकर एक दूसरेपर प्रहार करने लगे, दोनोंका बल महान् था वे गर्जते हुए दो मेत्रोंकी भाँति सिंहनाद करके वृक्षोंको तोड़-तोड़कर परस्पर चोट करते थे ।।५५-५८॥

    बलवानोंमें श्रेष्ठ वे दोनों वीर अपनी जाँघोंके धक्के से बड़े-बड़े वृक्षको तोड़ डालते थे और परस्पर कुपित हो एक दूसरेको मार डालने की इच्छा रखते थे। जैसे पूर्वकालमें स्त्रीकी इच्छावाले दो भाई बालि और सुग्रीवमे भयंकर संग्राम हुआ था, उसी प्रकार भीमसेन और राक्षस होने लगा । उन दोनोंका वह वृक्षयुद्ध उस वनके वृक्षसमूहोंके लिये मद्दान् विनाशकारी सिद्ध हुआ, वे दोनों बड़े-बड़े वृक्षों को हिला-हिलाकर बार-बार विकट गर्जना करते हुए दो घड़ी तक एक दूसरेपर प्रहार करते रहे। ।।५९-६१।।

    भारत ! जब उस प्रदेशके सारे वृक्ष गिरा दिये गये, तब एक दूसरेका वध करने की इच्छासे उन महाबली वीरोंने वहाँ ढेर-की ढेर पड़ी हुई सैकड़ों शिलाएँ लेकर दो घड़ीतक इस प्रकार युद्ध किया, मानो दो पर्वतराज बड़े-बड़े मेघखण्डद्वारा परस्पर युद्ध कर रहे हों । वहाँकी शिलाएँ विशाल और अत्यन्त भयंकर थीं। वे देखने में महान् वेगशाली वज्रोंके समान जान पड़ती थीं। अमर्ष में भरे हुए वे दोनों योद्धा उन्हीं शिलाओंद्वारा एक दूसरेको मारने लगे ।। ६२-६४ ॥

     तत्पश्चात् अपने-अपने बलके घमंड भरे हुए वे दोनों वीर एक दूसरे की ओर झपटकर पुनः अपनी भुजाओंसे करते हुए विपक्षीको उसी प्रकार खींचने लगे, जैसे दो गजराज परस्पर भिड़कर एक दूसरेको खींच रहे हों,, अपने अत्यन्त भयानक मुक्कोंद्वारा ने परस्पर चोट करने लगे तब उन दोनों महाकाय वीरोंमें जोर-जोर से कटकटाने की आवाज होने लगी तदनन्तर भीमसेनने पाँच सिरपाले सर्पकी भाँति अपने पाँच अङ्गुलियोंसे युक्त हाथ की मुट्ठी बाँधकर उसे राक्षसकी


गर्दन पर बड़े वेग से दे मारा, भीमसेन की भुजाओं के आघात से वह राक्षस थक गया था । तदनन्तर उसे अधिक थका हुआ देख भीमसेन आगे बढ़ते गये, तत्पश्चात् देवताओंके समान तेजस्वी महाबाहु भीमसेनने उस राक्षसको दोनों भुजाओंसे बलपूर्वक उठा लिया और उसे पृथ्वीपर पटककर पीस डाला, उस समय पाण्डुनन्दन भीमने उसके सारे अङ्गको दबा- कर चूर-चूर कर दिया और थप्पड़ मारकर उसके सिरको धड़ से अलग कर दिया, भीमसेनके बलसे कटकर अलग हुआ जटासुरका वह सिर वृक्षसे टूटकर गिरे हुए फलके समान जान पड़ता था उसका ओठ दाँतोंसे दबा हुआ था और आँखें बहुत फैली हुई थीं ॥६५-७१॥

    दाँतोंसे दबे हुए ओठवाला वह मस्तक खून से लथपथ होकर गिर पड़ा था। इस प्रकार जटासुरको मारकर महान् धनुर्धर भीमसेन युधिष्ठिर के पास आये। उस समय श्रेष्ठ द्विज उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे, मानो मरुद्रण देवराज इन्द्रके गुण गा रहे हों ॥७२॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत जटासुरवधपर्व में एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

॥ समाप्तं जटासुरवधपर्व ॥

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

एक सौ अठावनवाँ अध्याय

"नर-नारायण आश्रम से वृषपर्वाके यहाँ होते हुए राजर्षि आर्ष्टिषेणके आश्रम पर जाना"

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- उस राक्षस को मारे जाने पर कुन्तीकुमार शक्तिशाली राजा युधिष्ठिर पुनः नर-नारायण-आश्रममें आकर रहने लगे। एक दिन उन्होंने द्रौपदीसहित सब भाइयों को एकत्र करके अपने प्रियबन्धु अर्जुनका स्मरण करते हुए कहा। हम लोगों को कुलपूर्वक उनमें विचरते हुए चार वर्ष हो गये । अर्जुनने यह संकेत किया था कि मैं पाँचवें वर्ष में लौट आऊँगा, पर्वती श्रेष्ठ गिरिराज कैलासपर आकर अर्जुनसे मिलने के शुभ अवसरकी प्रतीक्षा में हमने यहाँ डेरा डाला है। ( क्योंकि यहीं मिलने का उनकी ओरसे संकेत प्राप्त हुआ था।) वह श्वेत कैलास-शिखर पुपित वृक्षावलियों से सुशोभित है। वहाँ मतवाले कोकिलोंकी काकली, भ्रमरोंके गुञ्जारव तथा मोर और पपीहोंकी मीठी वाणी से नित्य उत्सव-सा होता रहता है, जो उस पर्वतको शोभाको यदा देता है। यहाँ व्याघ्र वराह, महिय हरिण, हिंसक जन्तु, सर्प तथा मृग निवास करते हैं। खिले हुए महलदल, शतदल, उत्पल, प्रफुल्ल कमल तथा नीलोत्पल आदिसे उन पर्वतकी रमणीयता और भी बढ़ गयी है। वह परम पुण्यमय और पवित्र है देवता और असुर दोनों ही उसका सेवन करते हैं ।।१-७।।

  अमिततेजस्वी अर्जुनने वहाँ भी अपना आगमन देखने के लिये उत्सुक हुए हमलोगोंके साथ संकेतपूर्वक यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं अविद्या अध्ययन करनेके लिये पाँच तक देवलोक में निवास करूँगा ॥८॥

    शत्रुओंका दमन करनेवाले गाण्डीवधारी अर्जुन अन्न- विद्या प्राप्त करके पुनः देवलोक इस मनुष्यलोक में आनेवाले हैं। हमलोग शीघ्र ही उनसे मिलेंगे' ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने सब ब्राह्मणोंको आमन्त्रित किया, और उन तपस्वियों के सामने उन्हें बुला भेजने का कारण बताया। उन कठोर तपस्वियोंको प्रसन्न करके कुन्तीकुमारोंने उनकी परिक्रमा की ।।९-११॥

तब उन ब्राह्मणोंने कुल मङ्गल के साथ उन सबके अभीष्ट मनोरथ की पूर्तिका अनुमोदन किया और कहा,

  ब्राह्मण बोले ;-- भरतश्रेष्ठ ! आजका यह क्लेश शीघ्र ही सुखद भविष्यके रूपमें परिणत हो जायगा ।।१२।।

     धर्मज्ञ ! तुम क्षत्रियधर्मके अनुसार इस संकटसे पार होकर सारी पृथ्वीका पालन करोगे । राजा युधिष्ठिरने उन तपस्वी ब्राह्माणों का यह आशीर्वाद शिरोधार्य किया और वे परंतर नरेश उन ब्राह्मणों तथा भाइयोंके साथ वहाँसे प्रस्थित हुए घटोत्कच आदि राक्षस भी उनकी सेवा के लिये पीछे-पीछे चले। राजा बुधिष्ठिर महर्षि लोमा के द्वारा सर्वथा सुरक्षित थे ।।१३-१४।।

    उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ये महातेजस्वी भूपाल कहीं तो भाइयोसहित पैदल चलते और कहीं राक्षस लोग उन्हें पीठ पर बैठाकर ले जाते थे। इस प्रकार वे अनेक स्थानों में गये। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर अनेक क्लेशोंका चिन्तन करते हुए सिंह, व्याघ्र और हाथियोंसे भरी हुई उत्तर दिशाकी ओर चल दिये, कैलास, मैनाकपर्यंत, गन्धमादनकी घाटियों और वेत (हिमालय) पर्वतका दर्शन करते हुए उन्होंने पर्वतमालाओंके ऊपर-ऊपर बहुत-सी कल्याणमयी सरिताएँ देखीं तथा सत्रहवें दिन वे हिमालय के एक पावन पृष्ठभागपर जा पहुँचे ।। १६-१८ ।।

     राजन् ! वहाँ पाण्डवने गन्धमादन पर्वतका निकटसे दर्शन किया। हिमालयका वह पावन पृष्ठभाग नाना प्रकार के वृक्ष और लताओंसे आवृत था । वहाँ जलके आवर्त से सींचकर उत्पन्न हुए फूलवाले वृक्षोंसे घिरा हुआ वृषपर्वा का परम पवित्र आश्रम था। शत्रुदमन पाण्डवोंने उन धर्मात्मा राजर्षि वृषपर्व के पास जाकर क्लेशरहित हो उन्हें प्रणाम किया ।।१९-२१।।

   उन राजर्षिने भरतकुलभूषण पाण्डवका पुत्रके समान अभिनन्दन


किया और उनसे सम्मानित होकर वे शत्रुदमन पाण्डव वहाँ सात रात ठहरे रहे, आठवें दिन उन विश्वविख्यात राजर्षि वृषपर्वाकी आज्ञा ले उन्होंने वहाँसे प्रस्थान करनेका विचार किया,

   अपने साथ आये हुए ब्राह्मणोंको उन्होंने एक-एक करके वृषपर्वा के यहाँ धरोहरकी भाँति सौंपा। उन सबका पाण्डवों समय-समयपर सगे बन्धुकी भाँति सत्कार किया था। ब्राह्मणों- को सौंपने के पश्चात् पाण्डवों ने अपनी शेष सामग्री भी उन्हीं महामना को दे दी। तदनन्तर पाण्डुपुत्रों ने वृषपर्वा के ही आश्रम में अपने यज्ञपात्र तथा रत्नमय आभूषण भी रख दिये ।।२२-२५।।

   वृषपर्वा भूत और भविष्य के ज्ञाता, कार्यकुशल और सम्पूर्ण धर्मो के मर्मज्ञ थे । उन धर्मज्ञ नरेशने भरतश्रेष्ठ पाण्डवको पुत्रकी भाँति उपदेश दिया। उनकी आज्ञा पाकर महामना पाण्डव उत्तर दिशाको ओर चले ।।२६-२७॥

    उस समय उनके प्रस्थान करनेपर महातेजस्वी राजर्षि वृपपवने पाण्डवको ( उस देश के जानकार अन्य ) ब्राह्मणों- के सुपुर्द कर दिया और कुछ दूर पीछे-पीछे जाकर उन कुन्तीकुमारोंको आशीर्वाद देकर प्रसन्न किया तत्पश्चात् उन्हें रास्ता बताकर वृषपर्वा लौट आये, फिर सत्यपराक्रमी कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ पैदल ही ( वृषपर्वाके बताये हुए मार्गपर) चले, जो अनेक जातिके मृगोंके झुंडोंसे भरा हुआ था ॥२८-३०॥

     वे सभी पाण्डव नाना प्रकारके वृक्षोंसे हरे-भरे पर्वतीय शिखरोंपर डेरा डालते हुए चौथे दिन श्वेत (हिमालय) पर्वतपर जा पहुँचे, जो महामेघ के समान शोभा पाता था। वह सुन्दर दौल शीतल सलिलराशिसे सम्पन्न था और मणि, सुवर्ण, रजत तथा शिलाखण्डका समुदायरूप था। हिमालयका वह रमणीय प्रदेश अनेकानेक कन्दराओं और निर्झरोंसे सुशोभित शिलाखण्डोंके कारण दुर्गम तथा लताओं और वृक्षोंसे व्याप्त था पाण्डव वृषपर्वाके बताये हुए मार्गका आश्रय ले नाना प्रकारके वृक्षोंका अवलोकन करते हुए अपने अभीष्ट स्थानकी ओर अग्रसर हो रहे थे ।।३१-३३॥

      उस पर्वत के ऊपर बहुत-सी अत्यन्त दुर्गम गुफाएँ थीं और अनेक दुर्गम्य प्रदेश थे पाण्डव उन सबको सुखपूर्वक लॉंचकर आगे बढ़ गये। पुरोहित धौम्य, द्रौपदी, चारों पाण्डव तथा महर्षि लोमश – ये सब लोग एक साथ चल रहे थे। कोई पीछे नहीं छूटता था, आगे बढ़ते हुए वे महाभाग पाण्डव पुण्यमय माल्यवान् नामक महान् पर्वतपर जा पहुँचे, जो अनेक प्रकारके वृक्षों और लताओंसे सुशोभित तथा अत्यन्त मनोरम था वहाँ मृगके झुंड विचरते और भाँति-भाँति के पक्षी कलरव कर रहे थे। बहुतसे वानर भी उस पर्वतका सेवन करते थे उसके शिखर पर कमलमण्डित सरोवर, छोटे-छोटे जलकुण्ड और विशाल वन थे ।।३४-३७।।

     वहाँ से उन्हें गन्धमादन पर्वत दिखायी दिया, जो किम्पुरुष- का निवासस्थान है सिद्ध और चारण उसका सेवन करते हैं। उसे देखकर पाण्डवका रोम-रोम हर्षसे खिल उठा, उस पर्वतपर विद्याधर विहार करते थे। किन्नरियाँ क्रीड़ा करती थीं । झुंड के झुंड हाथी, सिंह और व्याघ्र निवास करते थे, शरभोंके सिंहनादसे वह पर्वत गूँजता रहता था । नाना प्रकारके मृग वहाँ निवास करते थे । गन्धमादन पर्वतका वह वन नन्दनवन के समान मन और हृदयको आनन्द देनेवाला था। वे वीर पाण्डुकुमार बड़े प्रसन्न होकर क्रमशः उस सुन्दर काननमें प्रविष्ट हुए, जो सबको शरण देनेवाला था  ।।३८-४१।।

      उनके साथ द्रौपदी तथा पूर्वोक्त महामना ब्राह्मण भी थे । वे सब लोग विहंगोंके मुखसे निकले हुए अत्यन्त मधुर सुन्दर, श्रवण- सुखद मादक एवं मोदजनक शुभ शब्द सुनते हुए तथा सभी ऋतुओंके पुष्पों और फलोंसे सुशोभित एवं उनके भारसे झुके वृक्षों को देखते हुए आगे बढ़ रहे थे । आम, आमड़ा, भव्य नारियल, तेंदू, मुञ्जातक, अञ्जीर, अनार, नीबू, कटहल, लकुच (बड़हर ), मोच (केला), खजूर, अम्लवेत, पारावत, क्षौद्र, सुन्दर कदम्ब, बेल, कैथ, जामुन, गम्भारी, बेर, पाकड़, गूलर, बरगद, पीपल, पिंड खजूर, भिलावा, आँवला, हरें, बहेड़ा, इङ्गुद, करौंदा तथा बड़े-बड़े फलवाले तिंदुक-ये और दूसरे भी नाना प्रकारके वृक्ष गन्धमादनके शिखरोंपर लहलहा रहे थे, जो अमृत के समान स्वादिष्ट फलसे लदे हुए थे । (इन सबको देखते हुए पाण्डव लोग आगे बढ़ने लगे ।) इसी प्रकार चम्पा, अशोक, केतकी, बकुल ( मौलशिरी), पुन्नाग ( सुल्ताना चंपा ), सप्तपर्ण (छितवन), कनेर, केवड़ा, पाटल ( पाइरि या गुलाब) कुटज, सुन्दर, मन्दार, इन्दीवर ( नीलकमल ), पारिजात, कोविदार, देवदारु, शाल, ताल, तमाल, पिप्पल, हिब्रुक ( हींगका वृक्ष), सेमल, पलाश, अशोक, शीशम तथा सरल आदि वृक्षोंको देखते हुए पाण्डव- लोग अग्रसर हो रहे थे ।।४२-५१।।

     इन वृक्षोंपर निवास करनेवाले चकोर, मोर, भृङ्गराजः तोते, कोयल, कलविङ्क ( गौरैया - चिड़िया ), हारीत ( हारिल), चकवा, प्रियक, चातक तथा दूसरे नाना प्रकारके पक्षी, श्रवणसुखद मधुर शब्द बोल रहे थे। वहाँ चारों ओर जलचर जन्तुओंसे भरे हुए मनोहर सरोवर दृष्टिगोचर होते थे। जिनमें कुमुद, पुण्डरीक, कोकनद, उत्पल, कहार और कमल सब ओर व्याप्त थे। कादम्ब, चक्रवाक, कुरर, जल- कुक्कुट, कारण्डव, प्लव, हंस, बक, मद्दु तथा अन्य कितने ही जलचर पक्षी कमलों के मकरन्दका पान करके मदसे मतवाले और हर्षसे मुग्ध हुए उन सरोवरों में सब ओर फैले थे ।।५२-५७॥

   कमलों से भरे हुए तालाचोंमें मीठे स्वरसे बोलनेवाले भ्रमरोंके शब्द गूँज रहे थे। वे भ्रमर कमलके भीतरसे निकली हुई रज तथा केसरोंसे लाल रंग में रंगे से जान पड़ते थे, इस प्रकार वे नरश्रेष्ठ गन्धमादनके शिखरोंपर पद्मषण्ड- मण्डित तालाबोंको सब ओर देखते हुए आगे बढ़ रहे थे । वहाँ लता-मण्डयोंमें मोरिनियोंके साथ नाचते हुए मोर दिखायी देते थे। जो मेघौकी मृदङ्गतुल्य गम्भीर गर्जना सुन- कर उद्दाम कामसे अत्यन्त उन्मत्त हो रहे थे। वे अपनी मधुर के काध्वनिका विस्तार करके मीठे स्वरमें संगीतकी रचना करते थे और अपनी विचित्र पाँखें फैलाकर विलासयुक्त मदालस भावसे वनविहारके लिये उत्सुक हो प्रसन्नता के साथ नाच रहे थे कुछ मोर लतावलरियोंसे व्याप्त कुटज वृक्षोंके कुलोंमें स्थित हो अपनी प्यारी मोरिनियोंके साथ रमण करते थे और कुछ कुटजोंकी डालियोंपर मदमत्त होकर बैठे थे तथा अपनी सुन्दर पाँखोंके घटाटोपसे युक्त हो मुकुटके समान जान पड़ते थे। कितने ही सुन्दर मोर वृक्षोंके कोटरोंमें बैठे थे । पाण्डवोंने उन सबको देखा ।।५८-६४॥

    पर्वतके शिखरोंपर अधिकाधिक संख्या में सुनहरे कुसुमसे सुशोभित सुन्दर दशेफालिकाके पौधे दिखायी देते थे, जो कामदेव के तोमर नामक बाग से प्रतीत होते थे ॥६५॥

   खिले हुए कनेर के फूल उत्तम कर्णपूरके समान प्रतीत होते थे इसी प्रकार बन श्रेणियों में विकसित कुरबक नामक वृक्ष भी उन्होंने देखे, जो कामासक्त पुरुषको उत्कण्ठित करनेवाले कामदेव के बाण समूहों के समान जान पड़ते थे। इसी प्रकार उन्हें तिलक के वृक्ष दृष्टिगोचर हुए, जो वन- श्रेणियोंके ललाटमें रचित सुन्दर तिलक के समान शोभा पा रहे थे। कहीं मनोहर मञ्जरियों से विभूषित मनोरम आम्र वृक्ष दीख पड़ते थे, जो कामदेवके वाणों की-सी आकृति धारण करते थे उनकी डालियोंपर भौरोंकी भीड़ गूँजती रहती थी। उन पर्वतों के शिखरोंपर कितने ही ऐसे वृक्ष थे, जिनमें सुवर्णके समान सुन्दर पुष्प खिले थे । कुछ वृक्षोंके पुष्प देखने में दावानलका भ्रम उत्पन्न करते थे । किन्हीं वृक्षोंके फूल लाल, काले तथा वैदूर्यमणि सदृश धूमिल थे । इस प्रकार पर्वतीय शिखरोंपर विभिन्न प्रकारके पुष्पोंसे विभूषित वृक्ष बड़ी शोभा पा रहे थे ।।६६-७०॥

     इसी तरह शाल, तमाल, पाटल और बकुल आदि वृक्ष उन शैल-शिखरों पर धारण की हुई मालाकी भाँति शोभा पा रहे थे। पाण्डवोंने पर्वतीय शिखरोंपर बहुत से ऐसे सरोवर देखे, जो निर्मल स्फटिकमणिके समान सुशोभित थे। उनमें सफेद पाँखवाले पक्षी कलहंस आदि विचरते तथा सारस कलरव करते थे । कमल और उत्पल पुष्पोंसे संयुक्त उन सरोवरोंमें सुखद एवं शीतल जल भरा था । इस प्रकार वे वीर पाण्डव चारों ओर सुगन्धित पुष्प- मालाएँ, सरस फल, मनोहर सरोवर और मनोरम वृक्षावलियों को क्रमशः देखते हुए गन्धमादन पर्वतके वनमें प्रविष्ट हुए। वहाँ पहुँचनेपर उन सबकी आँखें आश्चर्य से खिल उठीं ।।७१-७५॥

उस समय कमल, उत्पल, कहार और पुण्डरीक की सुन्दर गन्ध लिये मन्द मधुर वायु उस वन में मानो उन्हें व्यजन डुलाती थी ।।७६।।

तदनन्तर युधिष्ठिर ने भीमसेन से प्रसन्नतापूर्ण यह बात कही,,

  युधिष्ठिर बोले ;—'भीम ! यह गन्धमादन कानन कितना सुन्दर और कैसा अद्भुत है ? इस मनोरम बनके वृक्ष और नाना प्रकारकी लताएँ दिव्य हैं । इन सबमें पत्र पुप्प और फलौकी बहुतायत है। ये सभी वृक्ष फूलोंसे लदे हैं। कोकिल कुलसे अलंकृत हैं। इस वनमें कोई भी वृक्ष ऐसे नहीं है, जिनमें काँटे हों और जो खिले न हों ॥७७-७९।।

  गन्धमादन के शिखरों पर जितने वृक्ष हैं, उन सबके पत्र और फल चिकने हैं। सभी भ्रमरोके मधुर गुञ्ज वसे मनोहर जान पड़ते हैं । यहाँ के सरोवरों में कमल खिले हुए हैं।

     'देखो, हथिनियों सहित हाथी इन तालाबोंमें घुसकर इन्हें मथे डालते हैं और इस दूसरी पुष्करिणीपर दृष्टिपात करो, जो कमल और उत्सलकी मालाओंसे अलङ्कृत है यह कमलमालाधारिणी साक्षात् दूसरी लक्ष्मीके समान मानो साकार विग्रह धारण करके प्रकट हुई है । गन्धमादनके इस उत्तम वनमें नाना प्रकारके कुसुमकी सुगन्ध से सुवासित ये छोटी-छोटी वनश्रेणियाँ भ्रमरोंके गीतों से मुखरित हो कैसी शोभा पा रही हैं ? भीमसेन ! देखो, यहाँके सुन्दर प्रदेशोंमें चारों ओर देवताओं की क्रीडास्थली है ॥८०-८३।।

     'वृकोदर ! हमलोग ऐसे स्थानपर आ गये है, जो मानवों- के लिये अगम्य है । जान पड़ता है, हम सिद्ध हो गये हैं। कुन्ती- नन्दन ! गन्धमादनके शिखरोंपर ये फूलोंसे भरे हुए उत्तम वृक्ष इन पुष्पित लताओंसे अलंकृत होकर कैसी शोभा पा रहे हैं ?  ।।८४।।

   भीम ! इन पर्वत-शिखरोपर मोरिनियों के साथ विचरते बोलते हुए मोरोंका यह मधुर केकारव तो सुनो, ये चकोर शतपत्र, मदोन्मत्त कोकिल और सारिका आदि पक्षी इन पुष्पमण्डित विशाल वृक्षोंकी ओर कैसे उड़े जा रहे हैं ? ।।८५-८६।।

     'पार्थ! वृक्षों की ऊँची शिखाओ पर बैठे हुए लाल, गुलाबी और पीले रङ्गके चकोर पक्षी एक दूसरेकी ओर देख रहे हैं। उधर हरी और लाल धासोंके समीप पर्वतीय झरनोंके पास सारस दिखायी देते हैं। 'भृङ्गराज, उपचक्र (चक्रवाक ) और लोहपृष्ठ ( कङ्क ) नामक पक्षी ऐसी मीठी बोली बोलते हैं, जो समस्त प्राणियों के मनको मोह लेती है। इधर देखो ये कमल के समान कान्तिवाले गजराज, जिनके चार दाँत शोभा पा रहे हैं, थिनियोंके साथ आकर वैदूर्यमणि- के समान सुशोभित इस महान् सरोवरको मधे डालते हैं ।।८७-९०॥

   'अनेक शरनोंसे जलकी धाराएँ गिर रही हैं। जिनकी ऊँचाई कई ताड़के बराबर है और ये पर्वतके सर्वोच्च शिखर से नीचे गिरती हैं। 

     नाना प्रकार के रजतमय धातु इस महान् पर्वतकी शोभा बढ़ा रहे हैं। इनमें से कुछ तो अपनी प्रभाओंसे भगवान् भास्करके समान प्रकाशित होते हैं और कुछ शरद ऋतुके श्वेत बादलों के समान सुशोभित हो रहे हैं। कहीं काजल के समान काले और सुवर्णके समान पीले रङ्गके धातु दीख पड़ते हैं । 'कहीं हरितालसम्बन्धी धातु हैं और कहीं हिङ्गुलसम्बन्धी । कहीं मैनसिल की गुफाएँ हैं, जो संध्याकालीन लाल बादलों के समान जान पड़ती है। 'कहीं गेरु नामक धातु हैं, जिनकी कान्ति लाल खरगोश के समान दिखायी देती है। कोई धातु श्वेत बादलों के समान हैं, तो कोई काले मेघों के समान कोई प्रातः काल के सूर्यकी भाँति लाल रङ्गके हैं ।।९१-९५॥

'ये नाना प्रकारकी परम कान्तिमान् धातु समूचे शैलकी शोभा बढ़ाती हैं। पार्थ! जिस प्रकार वृपपत्राने कहा था उसी प्रकार इन पर्वतीय शिखरोंपर अपनी प्रेयसी अप्सराओं तथा किम्पुरुषों के साथ गन्धर्व दृष्टिगोचर होते हैं ।

     'भीमसेन ! यहाँ सम तालसे गाते हुए गीवों तथा साम मन्त्रका विविध स्वर सुनायी पड़ता है, जो सम्पूर्ण भूतों के चित्त- को आकर्षित करनेवाला है। यह परम पवित्र एवं कल्याणमयी देवनदी महागङ्गा हैं, इनका दर्शन करो, 'यहाँ हंसों के समुदाय निवास करते हैं तथा ऋषि एवं किन्नर- गण सदा इन (गङ्गाजी ) का सेवन करते हैं। शत्रुदमन भीम ! भाँति-भाँति के धातुओं, नदियों, किन्नरों, मृर्गों, पक्षियों, गन्धर्वो, अप्सराओं, मनोरम काननों तथा सौ मस्तकवाले भाँति-भाँति के सर्पोंसे सम्पन्न इस पर्वतराजका दर्शन करो'

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- इस प्रकार वे शूरवीर पाण्डव   हर्षपूर्ण हृदयसे अपने परम उत्तम लक्ष्य स्थानको पहुँच गये, गिरिराज गन्धमादनका दर्शन करने से उन्हें तृप्ति नहीं होती थी । तदनन्तर परंतप पाण्डवोंने पुष्पमालाओं तथा फलवान् वृक्षोंसे सम्पन्न राजर्षि आर्ष्टिषेणका आश्रम देखा, फिर वे कठोर तपस्वी दुर्बलकाय तथा नस-नाड़ियों से ही व्याप्त राजर्षि आर्ष्टिषेण के समीप गये, जो सम्पूर्ण धर्म के पारङ्गत विद्वान् थे ।।९६-१०३॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्व गन्धमादनप्रवेशविश्यक एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

एक सौ उनसठवाँ अध्याय

"प्रश्नके रूपमें आर्ष्टिषेणका युधिष्ठिरके प्रति उपदेश"

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय ! राजर्षि आर्ष्टिषेणने तपस्याद्वारा अपने सारे पाप दग्ध कर दिये थे। राजा युधिष्ठिरने उनके पास जाकर बड़ी प्रसन्नताके साथ अपना नाम बताते हुए उनके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया,  तदनन्तर द्रौपदी, भीमसेन और परम तपस्वी नकुल-सहदेव--ये सभी मस्तक झुकाकर उन राजर्षिको चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये, उसी प्रकार पाण्डवोंके पुरोहित धर्मज्ञ धौम्यजी कठोर व्रतका पालन करनेवाले राजर्षि आर्ष्टिषेके पास यथोचित शिष्टाचार के साथ उपस्थित हुए ॥१-३॥

उन धर्मज्ञ मुनि आर्ष्टिषेणने अपनी दिव्यदृष्टिसे कुरुश्रेष्ठ पाण्डवोंको जान लिया और कहा,

   मुनि आर्ष्टिषेण बोले ;- 'आप सब लोग बैठें,

     महातपस्वी आर्ष्टिषेण ने भाइयों सहित कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर- का यथोचित आदर-सत्कार किया और जब वे बैठ गये, तब उनसे कुशल- समाचार पूछा,- 

    मुनि आर्ष्टिषेण बोले ;- 'कुन्तीनन्दन ! कभी झूठ की ओर तो तुम्हारा मन नहीं जाता ? तुम धर्ममें लगे रहते हो न ? माता-पिता के प्रति जो तुम्हारी सेवा वृत्ति होनी चाहिये, वह है न ? उसमें शिथिलता तो नहीं आती है ? ॥४-६॥

   “क्या तुमने समस्त गुरुजनों, बड़े-बूढ़ों और विद्वानोंका सदा समादर किया है ? पार्थ कभी पापमोंमें तो तुम्हारी रुचि नहीं होती ? "कुरुश्रेष्ठ ! क्या तुम अपने उपकारीको उसके उपकारका यथोचित बदला देना जानते हो ? क्या तुम्हें अपना अपकार करनेवाले मनुष्यकी उपेक्षा कर देनेकी कलाका ज्ञान है ? तुम अपनी बढ़ाई तो नहीं करते ? ॥७-८॥

     क्या तुमसे यथायोग्य सम्मानित होकर साधु पुरुष तुमपर प्रसन्न रहते हैं ? क्या तुम वनमें रहते हुए भी सदा धर्मका ही अनुसरण करते हो ? ।।९।।

   पार्थ! तुम्हारे आचार-व्यवहारसे पुरोहित धौम्यजीको क्लेश तो नहीं पहुँचता है ? कुन्तीनन्दन ! क्या तुम दान धर्म, तप, शौच, सरलता और क्षमा आदि के द्वारा अपने बाप-दादोंमें आचार-व्यवहारका अनुसरण करते हो ? पाण्डु- नन्दन ! प्राचीन राजर्षि जिस मार्ग से गये हैं, उसीपर तुम भी चलते हो न ? ॥१०-११॥

     'कहते हैं, जब-जब अपने-अपने कुल में पुत्र अथवा नाती- का जन्म होता है, तब-तब पितृलोकमें रहनेवाले पितर शोक- मग्न होते हैं और हँसते भी हैं। शोक तो उन्हें यह सोचकर होता है कि क्या हमें इसके पापमें हिस्सा बँटाना पड़ेगा ? और हँसते इसलिये हैं कि क्या हमें इसके पुण्यका कुछ भाग मिलेगा ? यदि ऐसा हो तो बड़ी अच्छी बात है' ।।१२-१३।।

    पार्थ! जिसके द्वारा पिता, माता, अग्नि, गुरु और आत्मा--इन पाँचोंका आदर होता है वह यह ठोक और परलोक दोनों को जीत लेता है' ॥१४॥

   युधिष्ठिर ने कहा ;- भगवन् ! आर्यचरण ! आपने मुझे यह धर्मका निचोड़ बताया है मैं अपनी शक्तिके अनुसार यथोचित रीति से विधिपूर्वक इसका पालन करता हूँ ।।१५।।

   आर्ष्टिषेण बोले ;-- पार्थ! पर्वोकी संधिवेलामै ( पूर्णिमा तथा प्रतिपदाकी संधिमैं ) बहुत-से ऋषिगण आकाश- मार्गसे उड़ते हुए आते हैं और इस श्रेष्ठ पर्वतका सेवन करते हैं। उनमें से कितने तो केवल जल पीकर जीवन निर्वाह करते हैं और कितने केवल वायु पीकर रहते हैं ॥१६॥

     राजन् ! कितने ही किम्पुरुष जातिके कामी अपनी कामिनियोंके साथ परस्पर अनुरक्तभावसे यहाँ क्रीडाके लिये आते हैं और पर्वत के शिखरोंपर घूमते दिखायी देते हैं ॥१७॥

    कुन्तीकुमार ! गन्धयों और अप्सराओंके बहुत-से गण यहाँ देखने में आते हैं, उनमेंसे कितने ही स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं और कितने ही रेशमी वस्त्रोंसे सुशोभित होते हैं। विद्याधरोंके गण भी सुन्दर फूलोंके हार पहने अत्यन्त मनोहर दिखायी देते हैं। इनके सिवा बड़े-बड़े नागगण, सुपर्णजातीय पक्षी तथा सर्प आदि भी दृष्टिगोचर होते हैं। पर्योकी संधिवेलामै इस पर्वतके ऊपर मेरी, पणक श और मृदङ्गकी ध्वनि सुनायी देती है ॥१८-२०॥

    भरतकुलभूषण पाण्डवो ! तुम्हें यहीं रहकर वह सब कुछ देखना या सुनना चाहिये। वहाँ पर्वत के ऊपर जानेका विचार तुम्हें किसी प्रकार भी नहीं करना चाहिये। भरतश्रेष्ठ ! इससे आगे जाना असम्भव है। वहाँ देवता ओं की विहार स्थली है। वहाँ मनुष्योंको गति नहीं हो सकती ।।२१-२२।।

  भारत ! यहाँ थोड़ी-सी भी चपलता करनेवाले मनुष्य से सब प्राणी द्वेष करते हैं तथा राक्षसलोग उसपर प्रहार कर बैठते हैं। युधिष्ठिर ! इस कैलास शिखरको लाँघ जानेपर परम सिद्ध देवर्षियोंकी गति प्रकाशित होती है ॥२३-२४॥

   शत्रुसूदन पार्थ! चपलतावश इससे आगे के मार्गपर जाने वाले मनुष्यको राक्षसगण लोहे के शूल आदिसे मारते हैं। तात ! पर्वोकी संधिके समय यहाँ मनुष्योंपर सवार होने- वाले कुबेर अप्सराओंसे विरकर अपने अतुल वैभवके साथ दिखायी देते हैं ॥२५-२६॥

   यक्ष तथा राक्षसोंके अधिपति कुबेर जब इस कैलाश- शिखरपर विराजमान होते हैं, उस समय उदित हुए सूर्य की भाँति शोभा पाते हैं उस अवसर पर सब प्राणी उनका दर्शन करते हैं ।।२७।।

    भरतश्रेष्ठ ! पर्वतका यह शिखर देवताओं, दानव, सिद्धों तथा कुबेरका क्रीड़ा-कानन है। तात ! पर्व संधिके समय गन्धमादन पर्वतपर कुबेरकी सेवामें उपस्थित हुए तुम्बुरु गन्धर्व के सामगानका स्वर स्पष्ट सुनायी पड़ता है।

   तात युधिष्ठिर ! इस प्रकार पर्वसंधिकाल में सब प्राणी यहाँ अनेक बार ऐसे-ऐसे अद्भुत दृश्योंका दर्शन करते हैं।

   श्रेष्ठ पाण्डवो ! जबतक तुम्हारी अर्जुनसे भेंट न हो, तब-तक मुनियोंके भोजन करनेयोग्य सरस फलका उपभोग करते हुए तुम सब लोग यहाँ ( सानन्द ) निवास करो ।।२८-३१॥

    तात ! यहाँ आनेवाले लोगोंको किसी प्रकार चपल नहीं होना चाहिये । तुम यहाँ अपनी इच्छा के अनुसार रहकर और श्रद्धाके अनुसार घूम-फिरकर लौट जाओगे और शस्त्रद्वारा जीती हुई पृथ्वीका पालन करोगे ॥३२॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्व में आष्टिषेण युधिष्ठिरसंवादविषयक एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

एक सौ साठवाँ अध्याय

"पाण्डवोंका आर्ष्टिषेणके आश्रमपर निवास, द्रौपदीके अनुरोधसे भीमसेनका पर्वतके शिखर पर जाना और यक्षों तथा राक्षसोंसे युद्ध करके मणिमान्का वध करना"

   जनमेजयने पूछा ;-- ब्रह्मन् ! गन्धमादन पर्वतपर आर्ष्टिषेणके आश्रम में मेरे समस्त पूर्वपितामह दिव्य पराक्रमी महामना पाण्डव कितने समयतक रहे ? वे सभी महान् पराक्रमी और अत्यन्त बल-पौरुपसे सम्पन्न थे वहाँ रहकर उन्होंने क्या किया ? ॥१-२॥

     साधुशरोमणे ! वहाँ निवास करते समय विश्वविख्यात वीर महामना पाण्डर्वोके भोज्य पदार्थ क्या थे? यह बतानेकी कृपा करें । आप मुझसे भीमसेनका पराक्रम विस्तारपूर्वक बतावें । उन महाबाहुने हिमालय पर्वत के शिखरपर रहते समय कौन- कौन-सा कार्य किया था ? ॥३-४॥

   द्विजश्रेष्ठ ! उनका यक्षोंके साथ फिर कोई युद्ध हुआ था या नहीं । क्या कुबेर के साथ कभी उनकी भेंट हुई थी ? क्योंकि आर्ष्टिषेणने जैसा बताया था, उसके अनुसार वहाँ कुबेर भवश्य आते रहे होंगे तपोधन ! मैं यह सब विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ; क्योंकि पाण्डवोंका चरित्र सुनने से मुझे तृप्ति नहीं होती, 

   वैशम्पायनजी ने कहा ;- राजन् अप्रतिम तेजस्वी आर्ष्टिषेणका यह अपने लिये हितकर वचन सुनकर भरत -कुल- भूषण पाण्डवोंने सदा उनके आदेशका उसी प्रकार पालन किया ॥५-७॥

   वे हिमालय के शिखरपर निवास करते हुए मुनियों के खाने योग्य सरस फलोंका और नाना प्रकारके पवित्र ( बिना हिंसा के प्राप्त ) मधुका भी भोजन करते थे इस प्रकार भरतश्रेष्ठ पाण्डव वहाँ निवास करते थे ।।८-९।।

    वहाँ निवास करते हुए उनका पाँचवाँ वर्ष बीत गया । उन दिनों वे लोमशजीकी कही हुई नाना प्रकारकी कथाएँ सुना करते थे। राजन् घटोत्कच यह कहकर कि 'मैं आवश्यकता के समय स्वयं उपस्थित हो जाऊँगा" सब राक्षसोंके साथ पहले ही चला गया था। आष्टिंपेणके आश्रम में रहकर अत्यन्त अद्भुत दृश्योंका अवलोकन करते हुए महासना पाण्डवों के अनेक मास व्यतीत हो गये। यहाँ रहकर क्रीडा-विहार करते हुए उन पाण्डवोंसे महाभाग मुनि और चारण बहुत प्रसन्न थे ।।१०-१३।।

   उनका अन्तःकरण शुद्ध था और वे संयम-नियम के साथ उत्तम व्रत का पालन करनेवाले थे। एक दिन वे भी पाण्डबसे मिलनेके लिये आये । भरतशिरोमणि पाण्डवोंने उनके साथ दिव्य चर्चाएँ कीं, तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद एक महान् जलाशय में निवास करनेवाले महानाग श्रृद्धिमान्‌को गरुडने सहसा झपाटा मारकर पकड़ लिया। उस समय वह महान् पर्वत हिलने लगा, बड़े-बड़े वृक्ष मिट्टी में मिल गये वहाँके समस्त प्राणियों तथा पाण्डवने उस अद्भुत घटनाको प्रत्यक्ष देखा ॥१५-१६॥

   तत्पश्चात् उस उत्तम पर्वत के शिखरसे पाण्डवोंकी ओर हवाका एक झोका आया, जिसने वहाँ सब प्रकार के सुगन्धित पुष्पोंकी बनी हुई बहुत-सी सुन्दर मालाएँ लाकर बिखेर दीं, पाण्डवोंने अपने सुहृदोंके साथ जाकर उन मालाओं में गूँथे हुए दिव्य पुष्प देखे जो पाँच रंगके थे । यशस्विनी द्रौपदीने भी उन फूलों को देखा था, तदनन्तर उसने समय पाकर पर्वतके एकान्त प्रदेश में सुखपूर्वक बैठे हुए महाबाहु भीमसेनने कहा,, ॥१७-१९॥

   भीमसेन बोले ;- 'भरतश्रेष्ठ गरुड के पंख से उठी हुई वायुके वेगसे उस दिन उस महान् पर्वतसे जो पाँच रंगके फूल अवस्था नदी के तटपर गिराये गये थे, उन्हें सब प्राणियोंने प्रत्यक्ष देखा । मुझे याद है, खाण्डव वनमें तुम्हारे महामना भाई सत्यप्रति अर्जुन- ने गन्धव, नाग राक्षसों तथा देवराज इन्द्रको भी युद्धमें आगे बढ़ने से रोक दिया था। बहुत-से भयंकर मायावी राक्षस उनके हाथों मारे गये और उन्होंने गाण्डीय नामक धनुष भी प्राप्त कर लिया ।।२०-२२॥

     'आर्यपुत्र ! तुम्हारा पराक्रम भी इन्द्रके ही समान है । तुम्हारा तेज और बाहुबल भी महान् है । वह दूसरोंके लिये दुःसह एवं दुर्धर्ष है। 'भीमसेन ! मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे बाहुबलके वेगसे थकर सम्पूर्ण राक्षस इस पर्वतको छोड़ दें और दसों दिशाओंकी शरण लें, 'तत्पश्चात् विचित्र मालाधारी एवं शिवस्वरूप इस उत्तम शैल-शिखरको तुम्हारे सब सुहृद् भय और मोहसे रहित होकर देखें। भीम ! दीर्घकालसे में अपने मनमें यही सोच ही रही हूँ। मैं तुम्हारे बाहुबल से सुरक्षित हो इस शैल-शिखरका दर्शन करना चाहती हूँ' ।।२३-२६।।

    द्रौपदीकी यह बात सुनकर परंतप महाबाहु भीमसेनने इसे अपने ऊपर आक्षेप हुआ-सा समझा। जैसे अच्छा बैल अपने ऊपर चाबुककी मार नहीं सह सकता, उसी प्रकार यह आक्षेप उनसे नहीं सहा गया,

     उनकी चाल श्रेष्ठ सिंहके समान थी। वे सुन्दर, उदार और कनकके समान कान्तिमान् थे । पाण्डुनन्दन भीम मनस्वी, बलवान्, अभिमानी, मानी और शूर-वीर थे । उनकी आँखें लाल थीं। दोनों कंधे हृष्ट-पुष्ट थे उनका पराक्रम मतवाले गजराज के समान था। दाँत सिंहकी दाढ़ की समानता करते थे कंधे विशाल थे वे शालवृक्ष- की भाँति ऊँचे जान पड़ते थे,  उनका हृदय महान् था, सभी अङ्ग मनोहर जान पड़ते थे, ग्रीवा शङ्खके समान थी और भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं। वे सुवर्णकी पीठवाले धनुष, खड्ग तथा तरकसपर बार-बार हाथ फेरते थे, ।।२७-३०॥

  बलवान् भीमसेन मदोन्मत्त सिंह और मदकी धारा बहानेवाले गजराजकी भाँति भय और मोहसे रहित हो उस पर्वतपर चढ़ने लगे, पाण्डुनन्दन भीम गदा हाथमें लेकर द्रौपदीका हर्ष चढ़ाते हुए भय और घबराहट छोड़कर उस पर्वतराजपर चढ़ गये। वायु-पुत्र कुन्तीकुमार भीमसेनको कभी ग्लानि, कातरता, व्याकुलता और मत्सरता आदि भाव नहीं छूते थे। वह पर्वत ऊँची-नीची भूमियोंसे युक्त और देखने में भयंकर था उसकी ऊँचाई कई ताड़ों के बराबर थी और उसपर चढ़नेके लिये एक ही मार्ग था, तो भी महाबली भीमसेन उसके शिखर पर चढ़ गये, पर्वत के शिखरपर आरूढ़ हो महाबली भीम किन्नर, महानाग, मुनि, गन्धर्व तथा राक्षसों का हर्ष बढ़ाने लगे तदनन्तर भरतश्रेष्ठ भीमसेनने कुबेरका निवासस्थान देखा, जो सुवर्ण और स्फटिक मणिके बने हुए भवनों से विभूषित था ।।३१-३७॥

    उसके चारों ओर सोनेकी चहारदीवारी बनी थी। उसमें सब प्रकारके रत्न जड़े होनेसे उनकी प्रभा फैलती रहती थी चहारदीवारीके सब ओर सुन्दर बगीचे थे। उस चहारदीवारीकी ऊँचाई पर्वतसे भी अधिक थी। बहुत- से भवनों और अट्टालिकाओंसे उसकी बड़ी शोभा हो रही थी । द्वार, तोरण (गोपुर ), बुर्ज और ध्वजसमुदाय उसकी शोभा बढ़ा रहे थे ।।३८-३९।।

     उस भवन में सब और कितनी ही विलासिनी अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं और हवासे फहराती हुई पताकाएँ उस भवनका अलंकार बनी हुई थीं। अपनी तिरछी की हुई बाहुसे धनुषकी नोकको स्थिर करके भीमसेन उस धनाध्यक्ष कुबेरके नगरको बड़े खेदके साथ देख रहे थे, गन्धमादनसे उठी हुईं वायु सम्पूर्ण सुगन्धकी राशि लेकर समस्त प्राणियोंको आनन्दित करती हुई सुखद मन्द गति से बह रही थी ।।४०-४२॥

     वहाँ के अत्यन्त शोभाशाली विविध वृक्ष नाना प्रकारकी कान्तिसे प्रकाशित हो रहे थे। उनकी मञ्जरियाँ विचित्र दिखायी देती थीं वे सब के सब अद्भुत और अकथनीय जान पड़ते थे भरतश्रेष्ठ भीमने राक्षसराज कुबेरके उस स्थानको रत्नोंके समुदायसे सुशोभित तथा विचित्र मालाओं से विभूषित देखा ।।४३-४४।।

   उनके हाथ में गदा, खड्न और धनुष शोभा पा रहे थे। उन्होंने अपने जीवनका मोह सर्वथा छोड़ दिया था। वे महाबाहु भीमसेन वहाँ पर्वतकी भाँति अविचल भावसे कुछ देर खड़े रहे । तत्पश्चात् उन्होंने बड़े जोरसे शङ्ख बजाया, जिसकी आवाज शत्रुओंके रोंगटे खड़े कर देनेवाली थी। फिर धनुषकी टंकार करके समस्त प्राणियोंको मोहित कर दिया ।।४५-४६।।

     तब यक्ष, राक्षस और गन्धर्व रोमाञ्चित होकर उस शब्दको लक्ष्य करके पाण्डुनन्दन भीमसेनके समीप दौड़े आये, उस समय गदापरिघ, खड्न, शूल, शक्ति और फरसे आदि अस्त्र-शस्त्र उन यक्ष तथा राक्षसोंके हाथोंमें आकर बड़ी चमक पैदा कर रहे थे, भारत ! तदनन्तर उन यक्षों और गन्धवोंका भीमसेनके साथ युद्ध प्रारम्भ हो गया। वे यक्ष और राक्षस बड़े मायावी थे। उनके चलाये हुए शूल, शक्ति और फरसोको भीमसेनने भयानक वेगशाली भs नामक वार्णोद्वारा काट गिराया। वे राक्षस आकाशमै उड़कर तथा भूतलपर खड़े होकर जोर-जोर से गर्जना कर रहे थे। महाबली भीमने वाण-की झड़ी लगाकर उनके शरीरोंको अच्छी प्रकार छेद डाला गदा और परिघ हाथमें लिये हुए राक्षसोंके शरीर से महाबली भीमपर खूनकी बड़ी भारी वर्षा होने लगी तथा चारों और राक्षसोंके शरीरसे रक्तकी कितनी ही धाराएँ बह चलीं ।।४७-५२।।

   भीमके बाहुबलसे छूटे हुए अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा यक्षों तथा राक्षसोंके शरीर और सिर कटे दिखायी दे रहे थे, जैसे बादल सूर्यको ढक लेते हैं, उसी प्रकार प्रियदर्शन पाण्डुपुत्र भीमको राक्षस ढके लेते हैं, यह सब प्राणियोंने प्रत्यक्ष देखा, तब सत्यपराक्रमी बलवान् महाबाहु भीमसेनने अपने शत्रुनाशक बार्णोद्वारा समस्त शत्रुओंको उसी प्रकार ढक लिया, जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे संसारको ढक लेते हैं। सब ओरसे गर्जन-तर्जन करते हुए तथा बड़ी भयानक आवाजसे चिग्वाड़ते हुए सब राक्षसोंने भीमसेनके चित्तमें तनिक भी घबराहट नहीं देखी, जिनके सारे अङ्ग विकृत एवं विकराल थे, वे यक्ष भीमसेनके मयसे पीड़ित हो अपने बड़े-बड़े आयुधोंको इधर- उधर फेंककर भयंकर आर्तनाद करने लगे ॥५३-५७॥

    सुदृढ़ धनुषवाले भीमसेन से आतङ्कित हो वे यक्ष-राक्षस आदि योद्धा गदा, शूल, खड्ग, शक्ति तथा परशु आदि अस्त्रों को वहीं छोड़कर दक्षिण दिशाकी ओर भाग गये, वहाँ कुबेरके सथा राक्षसप्रवर मणिमान् भी मौजूद थे । उनके हाथोंमें त्रिशूल और गदा शोभा पा रही थी उनकी छाती चौड़ी और चाहें विशाल थीं। उन महाबली वीर ने वहाँ अपने अधिकार और पौरुष दोनों को प्रकट किया। उस समय अपने सैनिकों को रण से विमुख होते देख वे मुसकराते हुए उनसे बोले,, - ॥६०॥

  राक्षस मणिमान् बोला ;- 'अरे तुम बहुत बड़ी संख्या में होकर भी आज एक मनुष्यद्वारा युद्धमें पराजित हो गये । कुबेर-भवन में धना- ध्यक्षके पास जाकर क्या कहोगे ?' ऐसा कहकर राक्षस मणिमान्ने उन सबको लौटाया और हाथोंमें शक्ति, शूल तथा गदा लेकर भीमसेनपर धावा किया, मदकी धारा बहानेवाले गजराजकी भाँति मणिमान्‌को बड़े वेगसे आता देख भीमसेनने वत्सदन्त नामक तीन बार्णो- द्वारा उनकी पसली में प्रहार किया, यह देख मद्दाबली मणिमान् भी रोषसे आगबबूला हो उठे और बहुत बड़ी गदा लेकर उन्होंने भीमसेनपर चलायी ।।६१-६४।।

     वह विशाल एवं महाभयंकर गदा आकाशमै विद्युत्की भाँति चमक उठी। यह देख भीमसेनने पत्थरपर रगड़कर तेज किये हुए बहुत-से चार्णोद्वारा उसपर आघात किया, परंतु वे सभी बाण मणिमान्की


गदासे टकराकर नष्ट हो गये यद्यपि चे बड़े बेगसे छूटे थे, तथापि गदा चलाने के अभ्यासी मणिमान्की गदाके वेगको न सह सके, भयंकर पराक्रमी महाबली भीमसेन गदायुद्धकी कला- को जानते थे । अतः उन्होंने शत्रुके उस प्रहारको व्यर्थ कर दिया, तदनन्तर बुद्धिमान् राक्षसने उसी समय स्वर्णमय दण्डसे विभूषित एवं लोहेकी बनी हुई बड़ी भयानक शक्तिका प्रहार किया ॥६५-६८॥

    वह अमिकी ज्वालाके समान अत्यन्त भयंकर शक्ति भयानक गड़गड़ाहट के साथ भीमकी दाहिनी भुजाको छेदकर सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी ॥६९॥

    शक्तिकी गहरी चोट लगने से महान् धनुर्धर एवं अत्यन्त पराक्रमी कुन्तीकुमार भीमके नेत्र क्रोधसे व्याकुल हो उठे और उन्होंने एक ऐसी गदा हाथमें ली, जो शत्रुओंका भय बढ़ानेवाली थी । उसके ऊपर सोनेके पत्र जड़े थे । वह सारी की सारी लोहेकी बनी हुई और शत्रुओं को नष्ट करने में समर्थ थी। उसे लेकर भीमसेन विकट गर्जना करते हुए बड़े वेग से मद्दाबली मणिमान की ओर दौड़े ।।७०-७१॥

      उधर मणिमान्ने भी सिंहनाद करते हुए एक चम- चमाता हुआ महान् त्रिशूल हाथमें लिया और बड़े वेग से भीमसेनपर चलाया, परंतु गदायुद्धमें कुशल भीमने गदाके अग्रभागते उस त्रिशूलके टुकड़े-टुकड़े करके मणिमान्को मारने के लिये उसी प्रकार धावा किया, जैसे किसी सर्पके प्राण लेने के लिये गरुड उसपर टूट पड़ते हैं। महाबाहु भीमने युद्ध के मुहानेपर गर्जना करते हुए सहसा आकाशमै उछलकर गदा घुमानी और उसे वायुके समान वेगसे मणिमानूपर दे मारा, मानो देवराज इन्द्रने किसी दैत्यपर वज्रका प्रहार किया हो ॥६९-७४॥

     वह गदा उस राक्षसके प्राण लेकर भूमिवर मूर्तिमती कृपा के समान गिर पड़ी। भीमसेन के द्वारा मारे गये उस भयानक शक्तिशाली राक्षसको सब प्राणियोंने प्रत्यक्ष देखा, मानो सिंहने किसी साँड़को मार गिराया हो उसे मरकर पृथ्वीपर गिरा देख मरने से बचे हुए निशाचर भयंकर आर्तनाद करते हुए पूर्व दिशाकी और भाग चले ।।७६-७७।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत यक्षयुद्धपर्व में मणिमान् वध से सम्बन्ध रखने वाला एक सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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