सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ इक्यावनवें अध्याय से एक सौ पचपनवें अध्याय तक (From the 150 to the 155 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय

"हनुमानजी का भीमसेनको आश्वासन और विदा देकर अन्तर्धान होना"

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय ! तदनन्तर अपनी इच्छा से बढ़ाये हुए उस विशाल शरीरका उपसंहार कर वानरराज हनुमानजीने अपनी दोनों भुजाओं द्वारा भीमसेन- को हृदय से लगा लिया, भारत ! भाईका आलिङ्गन प्राप्त होनेपर भीमसेनकी सारी थकावट तत्काल


नष्ट हो गयी और सब कुछ उन्हें अनुकूल प्रतीत होने लगा अत्यन्त बलशाली भीमसेनको यह अनुभव हुआ कि मेरा बल बहुत बढ़ गया। अब मेरे समान दूसरा कोई महान् नहीं है । फिर हनुमान जी ने अपने नेत्रोंमें आँसू भरकर सौहार्द - से गद्गदवाणीद्वारा भीमसेनको सम्बोधित करके कहा,

   हनुमानजी बोले ;-'वीर ! अब तुम अपने निवासस्थानपर जाओ। बातचीत के प्रसङ्गमें कभी मेरा भी स्मरण करते रहना ।।१-४।।

    'कुरुश्रेष्ठ ! मैं इस स्थानपर रहता हूँ, यह बात कभी किसीसे न कहना महाबली वीर ! अब कुबेरके भवन से भेजी हुई देवाङ्गनाओं तथा गन्धर्व-सुन्दरियों के यहाँ आनेका समय हो गया है। भीम ! तुम्हें देखकर मेरी भी आँखें सफल हो गयीं । तुम्हारे साथ मिलकर तुम्हारे मानवशरीरका स्पर्श करके मुझे उन भगवान् रामचन्द्रजीका स्मरण हो आया है, जो श्रीराम-नाम से प्रसिद्ध साक्षात् विष्णु हैं। जगत्‌के हृदयको आनन्द प्रदान करनेवाले, मिथिलेश-नन्दिनी सीता के मुखार विन्दको विकसित करने के लिये सूर्य के समान तेजस्वी तथा दशमुख रावणरूपी अन्धकार राशिको नष्ट करने के लिये साक्षात् भुवन- भास्कररूप हैं। वीर कुन्तीकुमार ! तुमने जो मेरा दर्शन किया है, वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये ।।५-८॥

     भारत ! तुम मुझे अपना बड़ा भाई समझकर कोई बर माँगो यदि तुम्हारी इच्छा हो कि मैं हस्तिनापुर में जाकर तुच्छ धृतराष्ट्र-पुत्रोंको मार डालूँ तो मैं यह भी कर सकता हूँ अथवा यदि तुम चाहो कि मैं पत्थरोंकी वर्षा सारे नगरको रौंइकर धूलमें मिला दूँ अथवा दुर्योधनको बाँधकर अभी तुम्हारे पास ला दूँ तो यह भी कर सकता हूँ। महाबली वीर ! तुम्हारी जो इच्छा हो, वहीं पूर्ण कर दूंगा' ।।९-११।।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय ! महात्मा हनुमान्- जीका यह वचन सुनकर भीमसेनने हर्षोल्लासपूर्ण हृदयसे हनुमानजीको इस प्रकार उत्तर दिया,,

   भीमसेन बोले ;- 'वानरशिरोमणे ! आपने मेरा यह सब कार्य कर दिया। आपका कल्याण हो महाबाहो ! अब आपसे मेरी इतनी ही कामना है कि आप मुझपर प्रसन्न रहिये मुझ पर आपकी कृपा बनी रहे, 'शक्तिशाली वीर ! आप जैसे नाथ ( संरक्षक ) को पाकर सब पाण्डव सनाथ हो गये। आपके ही प्रभाव से हम- लोग अपने सब शत्रुओं को जीत लेंगे', भीमसेन के ऐसा कहने पर हनुमानजी ने उनसे कहा,,- 

   हनुमानजी बोले ;- "तुम मेरे भाई और सुहृद् हो, इसलिये मैं तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा ।।१२-१५॥

   महाबली वीर ! जब तुम बाण और शक्तिके आघातसे व्याकुल हुई शत्रुओंकी सेनामें घुसकर सिंहनाद करोगे, उस समय मैं अपनी गर्जनासे तुम्हारे उस सिंहनादको और बढ़ा दूँगा उसके सिवा अर्जुनकी ध्वजापर बैठकर मैं ऐसी भीषण गर्जना करूँगा, जो शत्रुओंके प्राणोंको हरनेवाली होगी, जिससे तुमलोग उन्हें सुगमता से मार सकोगे ।' पाण्डवों- का आनन्द बढ़ानेवाले भीमसेनसे ऐसा कहकर हनुमानजीने उन्हें जाने के लिये मार्ग बता दिया और स्वयं वहीं अन्तर्धान हो गये ।।१६-१९॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमश तीर्थयात्रा के प्रसगन्धमादन पर्वतपर हनुमान जी और भीमसेनका संवादविषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ बावनवाँ अध्याय

"भीमसेन का सौगन्धिकवन में पहुँचना"

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय ! उन कपिप्रवर हनुमानजी के चले जानेपर बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेन भी उनके बताये हुए मार्ग से विशाल गन्धमादन पर्वतपर विचरने लगे, मार्ग में वे हनुमानजी के उस अद्भुत विशाल विग्रह और अनुपम शोभाका तथा दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजी के अलौकिक माहात्म्य एवं प्रभावका बारंबार स्मरण करते जाते थे, सौगन्धिक वनको प्राप्त करने की इच्छासे उन्होंने उस समय वहाँके सभी रमणीय वन और उपवनका अवलोकन किया। विकसित वृक्षोंके कारण विचित्र शोभा धारण करने- वाले कितने ही सरोवर और सरिताओंपर दृष्टिपात किया तथा अनेक प्रकारके कुसुमों से अद्भुत प्रतीत होने वाले खिले फूलों से युक्त काननौ का भी निरीक्षण किया ॥१-४॥

  भारत ! उस समय बहते हुए मदके पङ्कते भीगे मतवाले गजराजोंके अनेकानेक यूथ वर्षा करनेवाले मेघोंके समूहके समान दिखलायी देते थे, शोभाशाली भीमसेन मुँहमें हरी घासका कौर लिये हुए चञ्चल नेत्रयाले हरिणों और हरिणियोंसे युक्त उस वनकी शोभा देखते हुए बड़े वेग से चले जा रहे थे ॥५-६॥

    उन्होंने अपनी अद्भुत शूरता से निर्भय होकर भैंसों वराहों और सिंहाँसे सेवित गहन वनमें प्रवेश किया, फूलोंकी अनन्त सुगन्धसे वासित तथा लाल-लाल पल्लवी- के कारण कोमल प्रतीत होनेवाले वृक्ष दवाके वेग से हिल- हिलकर मानो उस वनमें भीमसेनसे याचना कर रहे थे ॥७-८॥

     मार्ग में उन्हें अनेक ऐसी पुष्करिणियोंको लाँचना पड़ा जिनके घाट और वन देखने में बहुत प्रिय लगते थे मतवाले भ्रमर उनका सेवन करते थे तथा वे सम्पुटित कमलकोर्षो से अलंकृत हो ऐसी जान पड़ती थीं, मानो उन्होंने कमलों की अञ्जलि बाँध रक्खी थी, भीमसेनका मन और उनके नेत्र कुसुमसे अलंकृत पर्वतीय शिखरोंपर लगे थे। द्रौपदीका अनुरोधपूर्ण वचन ही उनके लिये पाथेय था और इस अवस्थामें वे अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक चले जा रहे थे । दिन बीतते-बीतते भीमसेनने एक वनमें, जहाँ चारों ओर बहुतसे हरिण विचर रहे थे सुन्दर सुवर्णमय कमलों से सुशोभित विशाल नदी देखी ॥९-११॥

    उसमें हंस और कारण्डव आदि जलपक्षी निवास करते थे चक्रवाक उसकी शोभा बढ़ाते थे। वह नदी क्या थी उस पर्वत के लिये स्वच्छ सुन्दर कमलों की माला-सी रची गयी थी ।।१२।।

    महान् धैर्य और उत्साहसे सम्पन्न वीरवर भीमसेनने उसी नदीमें विशाल सोगन्धिक वन देखा, जो उनकी प्रसन्नता- को बढ़ानेवाला था। उस बनसे प्रभातकालीन सूर्यकी भाँति प्रभा फैल रही थी, उस वनको देखकर पाण्डुनन्दन भीमने मन-ही-मन यह अनुभव किया कि मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया। फिर उन्हें वनवासके क्लेशोंसे पीड़ित अपनी प्रियतमा द्रौपदीकी याद आ गयी ।।१३-१४।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग सौगन्धिक कमलको लानेसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ तिरपनवाँ अध्याय

"क्रोधवश नामक राक्षसों का भीमसेनसे सरोवर के निकट आनेका कारण पूछना"

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- इस प्रकार आगे बढ़नेपर भीमसेनने कैलास पर्वतके निकट कुबेरभवन के समीप एक रमणीय सरोवर देखा, जिसके आस-पास सुन्दर मनाली शोमा पा रही थी बहुत उनकी राके लिये नियुक्त थे। वह सरोवर पर्वतीय झरनोंके जलसे भरा था। वह देखनेमें बहुत ही सुन्दर, घनी छाया से सुशोभित तथा अनेक प्रकारके वृक्षों और लताओंसे व्याप्त था ।।१-२।।

   हरे रङ्गके कमलों से वह दिव्य सरोवर ढका हुआ था। उसमें मुवर्णमय कमल खिले थे। वह नाना प्रकारके पक्षियों- से युक्त था । उसका किनारा बहुत सुन्दर था और उसमें कीचड़ नहीं था । यह सरोवर अत्यन्त रमणीय, सुन्दर जलसे परिपूर्ण, पर्वतीय शिखरोंके झरनोंसे उत्पन्न, देखने में विचित्र, लोकके लिये मङ्गलकारक तथा अद्भुत दृश्यसे सुशोभित था, उस सरोवरमै कुन्तीकुमार पाण्डुपुत्र भीमने अमृतके समान स्वादिष्ट, शीतल, इल्का, शुभकारक और निर्मल जल देखा तथा उसे भरपेट पीया ॥३-५॥

   वह सरोवर दिव्य सौगन्धिक कमलोंसे आवृत तथा रमणीय था परम सुगन्धित सुवर्णमय कमल उसे ढँके हुए थे उन कमलों की नाल उत्तम वैदूर्यमणिमय थी। वे कमल देखने में अत्यन्त विचित्र और मनोरम थे। हंस और कारण्डव आदि पक्षी उन कमलोंको हिलाते रहते थे, जिससे वे निर्मल पराग प्रकट किया करते थे ।।६-७।।

      वह सरोवर राजाधिराज महाबुद्धिमान् कुबेरका क्रीडा- स्थल था। गन्धर्क अप्सरा और देवता भी उसकी बड़ी प्रशंसा करते थे, दिव्य ऋषि-मुनि, यक्ष, किम्पुरुष, राक्षस और किन्नर उसका सेवन करते थे तथा साक्षात् कुबेरके द्वारा उसके संरक्षणकी व्यवस्था की जाती थीं। कुन्तं नन्दन महाबली भीमसेन उस दिव्य सरोवरको देखते ही अत्यन्त प्रसन्न हो गये, महाराज कुबेर के आदेश से क्रोधवा नामक राक्षस, जिनकी संख्या एक लाख थी, विचित्र आयुध और वेश-भूषासे सुसजित हो उसकी रक्षा करते थे, उस समय भयानक पराक्रमी कुन्तीकुमार बीरवर भीम अपने अङ्ग मृगचर्म लपेटे हुए थे । भुजाओंगे सोनेके अङ्गद (बाजूबंद) पहन रखे थे। ये धनुष और गदा आदि आयुधों से युक्त थे। उन्होंने कमर में तलवार बाँध रखी थी। वे शत्रुओं का दमन करने में समर्थ और निर्भीक थे। उन्हें कमल लेने की इच्छासे वहाँ आते देख वे पहरा देनेवाले राक्षस आपसमें कोलाहल करने लगे, उनमें परस्पर इस प्रकार बातचीत हुई— 'देखो यह नरश्रेष्ठ मृगचर्मसे आच्छादित होनेपर भी हाथमें आयुध लिये हुए है। यह यहाँ जिस कार्य के लिये आया है, उसे पूछो'

   तब वे सब राक्षस परम तेजस्वी महाबाहु भीमसेन के पास आकर पूछने लगे,,

  राक्षस बोले ;- तुम कौन हो ?' यह बताओ, 

  'महामते ! तुमने वेष तो मुनियोंका-सा धारण कर रखा  है; परंतु आयुधसे सम्पन्न दिखायी देते हो। तुम किसलिये यहाँ आये हो ।' बताओ ॥८-१६।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्र के प्रसङ्गमे सौगन्धिकाहरणविषयक एक सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ चौवनवाँ अध्याय

"भीमसेन के द्वारा क्रोधवश नामक राक्षसों की पराजय और द्रौपदी के लिये सौगन्धिक कमलोंका संग्रह करना"

     भीमसेन बोले ;-- राक्षसो ! मैं धर्मराज युधिष्ठिरका छोटा भाई पाण्डुपुत्र भीमसेन हूँ और भाइयोंके साथ विशाला बदरी नामक तीर्थ में आकर ठहरा हूँ। वहाँ पाञ्चालराज- कुमारी द्रौपदीने सौगन्धिक नामक एक परम उत्तम कमल देखा । उसे देखकर वह उसी तरहसे और भी बहुत-से पुष्प प्राप्त करना चाहती है, जो निश्चय ही यहींसे हवा में उड़कर वहाँ पहुँचा होगा ।। १-२ ॥

     निशाचरो ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि मैं उसी अनिन्द्य सुन्दरी धर्मपत्नीका प्रिय मनोरथ पूर्ण करने के लिये उद्यत हो बहुत से सौगन्धिक पुष्पोंका अपहरण करने के लिये ही यहाँ आया हूँ।

   राक्षसोंने कहा ;- नरश्रेष्ठ ! यह सरोवर कुबेरकी परम प्रिय क्रीडास्थली है । इसमें मरणधर्मा मनुष्य विहार नहीं कर सकता ॥३-४॥

     वृकोदर ! देवर्षि, यक्ष तथा देवता भी यक्षराज कुबेर- की अनुमति लेकर ही यहाँका जल पीते और इसमें बिहार करते हैं । पाण्डुनन्दन ! गन्धर्व और अप्सराएँ भी इसी नियमके अनुसार यहाँ विहार करती हैं। जो कोई दुराचारी पुरुष धनाध्यक्ष कुबेरकी अवहेलना करके अन्यायपूर्वक यहाँ विहार करना चाहेगा, वह नष्ट हो जायगा इसमें संशय नहीं है।

    भीमसेन ! तुम अपने बलके घमंड में आकर कुबेरकी अवहेलना करके यहाँसे कमलपुष्पोंका अपहरण करना चाहते हो। ऐसी दशा में अपने-आपको धर्मराजका भाई कैसे बता रहे हो ? पहले यक्षराजकी आज्ञा ले लो, उसके बाद इस सरोवरका जल पीओ और यहाँ से कमल के फूल ले जाओ ऐसा किये बिना तुम यहाँके किसी कमलकी ओर देख भी नहीं सकते ।।५-८।।

   भीमसेन बोले ;- राक्षसो ! प्रथम तो मैं यहाँ आस- पास कहीं भी धनाध्यक्ष कुबेर को देख नहीं रहा हूँ, दूसरे यदि मैं उन महाराजको देख भी लूँ तो भी उनसे याचना नहीं कर सकता, क्योंकि क्षत्रिय किसीसे कुछ माँगते नहीं हैं, यही उनका सनातन धर्म है। मैं किसी तरह क्षात्र धर्मको छोड़ना नहीं चाहता ।।९-१०॥

    यह रमणीय सरोवर पर्वतीय झरनोंसे प्रकट हुआ है, यह महामना कुबेर के घर में नहीं है। अतः इसपर अन्य सब प्राणियोंका और कुबेरका भी समान अधिकार है। ऐसी सार्वजनिक वस्तुओंके लिये कौन किससे याचना करेगा ? ॥११-१२॥

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय ! सभी राक्षसोंसे ऐसा कहकर अर्धमें भरे हुए महाबली महाबाहु भीमसेन उस सरोवर में प्रवेश करने लगे ॥१३॥

उस समय क्रोधमें भरे राक्षस चारों ओरसे प्रतापी भीम- को फटकारते हुए वाणीद्वारा रोकने लगे- नहीं नहीं, ऐसा न करो', परंतु भयंकर पराक्रमी महातेजस्वी भीम उन सब राक्षसों- की अवहेलना करके उस जलाशयमें उतर ही गये। यह देख सब राक्षस उन्हें रोकने की चेष्टा करते हुए चिल्ला उठे -- ॥१४-१५॥

   राक्षस बोले ;- 'अरे ! इसे पकड़ो, बाँध लो काट डालो, हम सब लोग इस भीमको पकायेंगे और खा जायेंगे।' क्रोधपूर्वक उपर्युक्त बातें कहते और आँखें फाड़-फाड़कर देखते हुए वे सभी राक्षस शस्त्र उठाकर तुरंत उनकी ओर दौड़े ॥१६॥

तब भीमसेनने यमदण्डके समान विशाल और भारी गदा उठा ली, जिस पर सोनेका पत्र मढ़ा हुआ था उसे लेकर वे बड़े वेग से उन राक्षसोंपर टूट पड़े और ललकारते हुए बोले,,

  भीमसेन बोले ;- 'खड़े रहो, खड़े रहो'!

     यह देख वे भयंकर क्रोधवश नामक राक्षस भीमसेन को मार डालने की इच्छासे शत्रुओंके शस्त्रोंको नष्टकर देनेवाले तोमर, पट्टिश


आदि आयुधौको लेकर सहसा उनकी ओर दौड़े और उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। वे सब के सब बड़े उग्र स्वभाव के थे। इधर भीमसेन कुन्तीदेवी के गर्भ से वायु देवता के द्वारा उत्पन्न होने के कारण बड़े बलवान्, शूर- वीर, वेगशाली एवं शत्रुओं का वध करनेमें समर्थ थे। वे सदा ही सत्य एवं धर्म में रत थे। पराक्रमी तो वे ऐसे थे कि अनेक शत्रु मिलकर भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते थे ।।१७-१९।।

   महामना भीमने शत्रुओंके भाँति-भाँति के पैंतरों तथा अस्त्र- शस्त्रोंको विफल करके उनके सौ से भी अधिक प्रमुख वीरोंको उस सरोवर के समीप मार गिराया। भीमसेनका पराक्रम, शारीरिक बल, विद्याबल और बाहु- चल देखकर वे वीर राक्षस एक साथ संगठित होकर भी उनका वेग सहने में असमर्थ हो गये और सहसा सब ओरसे युद्ध छोड़कर निवृत्त हो गये ॥२०-२१॥

    भीमसेन की मारसे क्षत-विक्षत एवं पीड़ित हो वे क्रोधवश नामक राक्षस अपनी सुध-बुध खो बैठे थे। अतः उनके पाँव उखड़ गये और वे तुरंत वहाँसे आकाशमें उड़कर कैलास के शिखरौपर भाग गये, शत्रुविजयी भीम इन्द्रकी भाँति पराक्रम करके दानव और दैत्योंके दलको युद्ध में हराकर उस सरोवर में प्रविष्ट हो इच्छानुसार कमलका संग्रह करने लगे ॥२२-२३॥

     तदनन्तर उस सरोबरका अमृत के समान मधुर जलपीकर वे पुनः उत्तम बल और तेजसे सम्पन्न हो गये और श्रेष्ठ सुगन्धसे युक्त सौगन्धिक कमलोको उखाड़ उखाड़कर संग्रहीत करने लगे, तब भीमसेन के बलसे पीड़ित और अत्यन्त भयभीत हुए क्रोधवशों ने धनाध्यक्ष कुबेर के पास जाकर युद्ध में भीमके बल और पराक्रमका यथावत् वृत्तान्त कह सुनाया, उनकी बातें सुनकर देवप्रवर कुबेरने हँसकर उन राक्षसों से कहा,,

   कुबेरदेव बोले ;--'मुझे यह मालूम है। भीमसेनको द्रौपदीके लिये इच्छानुसार कमल ले लेने दो' ॥२४-२६॥

  तब धनाध्यक्षकी आज्ञा पाकर वे राक्षस रोषरहित हो कुरुप्रवर भीमके पास गये और उन्हें अकेले ही उस सरोवर में इच्छानुसार बिहार करते देखा ॥२७॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसङ्गसमन्धिकाहरणविषयक एक सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ पचपनवाँ अध्याय

"भयंकर उत्पात देखकर युधिष्ठिर आदि की चिन्ता और सबका गन्धमादनपर्यंतपर सौगन्धिकवन में भीमसेनके पास पहुँचना"

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर भीमसेनने अनेक प्रकारके बहुमूल्य दिव्य और निर्मल बहुतसे सौगन्धिक कमल संग्रहीत कर लिये, इसी समय गन्धमादन पर्वतपर तंत्र वेगसे बड़े जोरकी आँधी उठी, जो नीचे कंकड़-बालूकी वर्षा करनेवाली थी। उसका स्पर्श तीक्ष्ण था। वह किसी भारी संग्रामकी सूचना देनेवाली थी, वज्रकी गड़गड़ाहट के साथ अत्यन्त भयदायक भारी उल्कापात होने लगा सूर्य अन्धकारसे आवृत्त हो प्रभा शून्य हो गये। उनकी किरणें आच्छादित हो गयीं ॥१-३॥

   जिस समय भीम राक्षसोंके साथ युद्धमें भारी पराक्रम दिखा रहे थे, उस समय पृथ्वी हिलने लगी, आकाश में भीषण गर्जना होने लगी और धूलकी वर्षा आरम्भ हो गयी ।  सम्पूर्ण दिशाएँ लाल हो गयीं, मृग और पक्षी कठोर शब्द करने लगे, सारा जगत् अन्धकारसे आच्छन हो गया और किसीको कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था ॥४-५॥

  इसके सिवा और भी बहुत-से भयानक उत्पात वहाँ प्रकट होने लगे यह अद्भुत घटना देखकर वक्ताओं में श्रेष्ठ धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने कहा,,

    युधिष्ठिर बोले ;- कौन हम लोगों को पराजित कर सकेगा ? रणोन्मत्त पाण्डवो ! तुम्हारा भला हो, तुम युद्धके लिये तैयार हो जाओ। मैं जैसे लक्षण देख रहा हूँ, उससे पता लगता है कि हमारे लिये पराक्रम दिखानेका समय अत्यन्त निकट आ गया है। ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिरने चारों ओर दृष्टिपात किया ।।६-८।।

जय भीम नहीं दिखायी दिये तब शत्रुदन धर्मनन्दन युधिष्ठिरने द्रौपदी तथा पास ही बैठे हुए नकुल सहदेव से अपने भाई भीमके सम्बन्धमें, जो रण भूमिमें भयानक कर्म करनेवाले थे पूछा,,

  युधिष्ठिर ने पूछा ;- पाञ्चालराजकुमारी ! भीमसेन कहाँ है ? क्या वे कोई काम करना चाहते हैं ? ।।९-१०॥

'अथवा साहसप्रेमी वीरवर भीमने कोई साहसका कार्य तो नहीं कर डाला ? यह अकस्मात् प्रकट हुए उत्पात महान् युद्धके सूचक हैं। ये चारों ओर तीव्र भयका प्रदर्शन करते हुए प्रकट हो रहे हैं।' धर्मराज युधिष्ठिरको ऐसी बातें करते देख मनोहर मुस्कानवाली मनस्विनी महारानी पतिप्रिया द्रौपदीने उनका प्रिय करनेकी इच्छासे इस प्रकार उत्तर दिया ।।११-१२।।

   द्रौपदी बोली ;- राजन् ! आज जो सौगन्धिक पुष्प वायु उड़ा लायी थी, उसे मैंने प्रसन्नतापूर्वक भीमसेनको दिया और उन वीर शिरोमणिसे यह भी कहा कि यदि इसी तरहके बहुत-से पुष्प तुम्हें दिखायी दें तो उन सबको लेकर शीघ्र यहाँ लौट आना',

    महाराज ! मालूम होता है कि वे महाबाहु पाण्डुकुमार निश्चय ही मेरा प्रिय करनेके लिये उन्हीं फूलों को लाने के निमित्त यहाँसे पूर्वोत्तर दिशाको गये हैं ।। १३-१५ ।।

द्रोपदी के ऐसा कहने पर राजा युधिष्ठिर ने नकुल-सहदेव इस प्रकार कहा,,

    युधिष्ठिर बोले ;- अब हम लोग भी एक साथ शीघ्र ही उसी मार्गपर चलें' जिससे भीमसेन गये हैं । 'देवताओंके समान तेजस्वी घटोत्कच ! तुम्हारे साथी राक्षस लोग इन ब्राह्मणोंको, जो जैसे थके और दुर्बल हों, उसके अनुसार कंधे पर बिठाकर ले चलें और तुम भी द्रौपदीको ले चलो ॥१६-१७॥

     "यह स्पष्ट जान पड़ता है कि भीमसेन यहाँ से बहुत दूर चले गये हैं, मेरा यही विश्वास है क्योंकि उनको गये बहुत समय हो गया है तथा वे बेगमें वायुके समान हैं और इस पृथ्वीको लाँघने में गरुड़ के समान शीघ्रगामी हैं । आकाशमें छलाँग मार सकते हैं और इच्छानुसार कहीं भी कूद सकते हैं ।।१८-१९॥

    "निशाचरो ! भीमसेन ब्रह्मवादी सिद्धों का कुछ अपराध न कर पायें, इसके पहले ही तुम्हारे प्रभाव से हम उन्हें ढूँढ निकालें ॥२०॥

   जनमेजय ! तब कुबेर के उस सरोवरका पता जाननेवाले उन घटोत्कच आदि सब राक्षसों ने 'तथास्तु' कहकर पाण्डवों तथा उन अनेकानेक ब्राह्मणों को कंधेपर बैठाकर लोमशजी के साथ वहाँसे प्रसन्नतापूर्वक प्रस्थान किया, उन सबने शीघ्रतापूर्वक जाकर सुन्दर वनस्थली से सुशोभित वह अत्यन्त मनोरम सरोवर देखा, जिसमें सौगन्धिक कमल थे ।।२१-२३।।

    उसके तटपर मनखी महामना भीमको तथा उनके द्वारा मारे गये बड़े-बड़े नेत्रोंवाले यक्षको भी देखा, जिनके शरीर, नेत्र, भुजाएँ और जाँघें छिन्न-भिन्न हो गयी थीं, गर्दन कुचल दी गयी थी, महात्मा भीम उस सरोवर के तटपर खड़े थे ।।२४-२५।।

   उनका क्रोध शान्त नहीं हुआ था। उनकी आँखें स्तब्ध हो रही थीं । वे दोनों हाथोंसे गदा उठाये और दाँतोंसे ओठ दबाये नदी के तटपर खड़े थे ।।२६॥

उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो प्रजाके संहार- कालमें दण्ड हाथमें लिये यमराज खड़े हों। भीमसेन को उस अवस्थामें देखकर धर्मराजने उन्हें बार-बार हृदयसे लगाया और मधुर वाणीमें कहा,,

    युधिष्ठिर बोले ;- 'कुन्तीनन्दन ! यह तुमने क्या कर डाला ? तुम्हारा कल्याण हो। खेदके साथ कहना पड़ता है तुम्हारा यह कार्य साहसपूर्ण है और देवताओं- के लिये अप्रिय है ।।२७-२८॥

      यदि मेरा प्रिय करना चाहते हो तो फिर ऐसा काम न करना । भीमसेन को ऐसा उपदेश देकर उन्होंने पूर्वोक्त सौगन्धिक कमल ले लिये और वे देवोपम पाण्डव उसी सरोवर के तटपर इधर-उधर भ्रमण करने लगे। इसी समय शिलाओंको आयुधरूप में ग्रहण किये, बहुत-से विशालकाय उद्यानरक्षक वहाँ प्रकट हो गये भारत! उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर, महर्षि लोमश, नकुल सहदेव तथा अन्यान्य श्रेष्ठ ब्रह्मणों को विनयपूर्वक नतमस्तक होकर प्रणाम किया। फिर: धर्मराज युधिष्ठिरने उन्हें सान्त्वना दी। इससे वे निशाचर (राक्षस) प्रसन्न हो गये । तदनन्तर वे कुछ प्रवर पाण्डव धनाध्यक्ष कुबेरकी जानकारी में कुछ कालतक वहाँ आनन्दपूर्वक टिके रहे और गन्धमादन पर्वत के शिखरोंपर अर्जुनके आगमन की प्रतीक्षा करते रहे ।।२९-३४।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसङ्ग में सौगन्धिकाहरणविवयक एक सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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