सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ छियालीसवें अध्याय से एक सौ पचासवें अध्याय तक (From the 146 to the 150 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ छियालीसवाँ अध्याय

"भीमसेनका सौगन्धिक कमल लानेके लिये जाना और कदलीवन में उनकी हनुमान्जी से भेंट"

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय ! वे पुरुषसिंह वीर पाण्डव अर्जुनके दर्शन के लिये उत्सुक हो वहाँ परम पवित्रताके साथ छः रात रहे, तदनन्तर ईशानकोण की ओरसे अकस्मात् वायु चली उसने सूर्य के समान तेजस्वी एक दिव्य सहस्रदल कमल लाकर वहाँ डाल दिया ॥१-२॥

   जनमेजय वह कमल बड़ा मनोरम था, उससे दिव्य सुगन्ध फैल रही थी । शुभलक्षणा द्रौपदीने उसे देखा और वायुके द्वारा लाकर पृथ्वीपर डाले हुए उस पवित्र, शुभ एवं परम उत्तम सौगन्धिक कमलके पास पहुँचकर अत्यन्त प्रसन्न हो भीमसेनसे इस प्रकार कहा,

'भीम ! देखो तो, यह दिव्य पुष्प कितना अच्छा और कैसा सुन्दर है ! मानो सुगन्ध ही इसका स्वरूप है। यह मेरे मनको आनन्द प्रदान कर रहा है। परंतप ! मैं इसे धर्मराज- को भेंट करूँगी तुम मेरी इच्छा की पूर्ति के लिये काम्यकवन के आश्रम में इसे ले चलो 'कुन्तीनन्दन यदि मेरे ऊपर तुम्हारा ( विशेष ) प्रेम है, तो मेरे लिये ऐसे ही बहुत-से फूल ले आओ। मैं इन्हें काम्यक वनमें अपने आश्रम पर ले चलना चाहती हूँ' ।।३-७॥

   उस समय मनोहर नेत्रप्रान्तवाली अनिन्द्य सुन्दरी (सती-साध्वी) द्रौपदी भीमसेनसे ऐसा कहकर और वह पुष्प लेकर धर्मराज युधिष्ठिरको देने के लिये चली गयी, पुरुष शिरोमणि महाबली भीम अपनी प्यारी रानीके मनोभावको जानकर उसका प्रिय करनेकी इच्छासे वहाँसे चल दिये, वे उसी तरह के और भी फूल ले आनेकी अभिलापासे तुरंत पूर्वोक्त वायुकी ओर मुख करके उसी ईशान कोण में आगे बढ़े, जिधर से वह फूल आया था, उन्होंने हाथमें वह अपना धनुष ले लिया, जिसके पृष्ठ- भागमें सुवर्ण जड़ा हुआ था । साथ ही विषधर सपके समान भयंकर बाण भी तरकस में रख लिये । फिर क्रोधमें भरे हुए सिंह तथा मदकी धारा बहानेवाले मतवाले गजराजकी भाँति निर्भय होकर आगे बढ़े ॥८-११॥

     महान् धनुष-बाण लेकर जाते हुए भीमसेनको उस समय सब प्राणियोंने देखा । उन वायुपुत्र कुन्तीकुमारको कभी ग्लानि, विकलता, भय अथवा घबराहट नहीं होती थी ॥१२॥

   द्रौपदीका प्रिय करने की इच्छासे अपने बाहुबलका भरोसा करके भय और मोइसे रहित बलवान् भीमसेन सामने के शैल शिखरपर चढ़ गये वह पर्वत वृक्षों, लताओं और झाड़ियोंसे आच्छादित था। उसकी शिलाएँ नीले रंगकी थीं। वहाँ किन्नरलोग भ्रमण करते थे। शत्रुसंहारी भीमसेन उस सुन्दर पर्वतपर विचरने लगे बहुरंगे धातुओं, वृक्ष, मृर्गों और पक्षियोंसे उसकी विचित्र शोभा हो रही थी ।।१३-१५॥

    वह देखने में ऐसा जान पड़ता था, मानो पृथिवीके समस्त आभूषणोंसे विभूषित ऊँचे उठी हुई भुजा हो । गत्वमादन के शिखर सब ओरसे रमणीय थे । वहाँ कोयल पक्षियों की शब्दध्वनि हो रही थी और झुंड के झुंड भरे मड़रा रहे थे। भीमसेन उन्होंने आँखें गड़ाये मन-ही-मन अभिलषित कार्य- का चिन्तन करते जाते थे। अमितपराक्रमी भीमके कान, नेत्र और मन उन्हीं शिवरोंमें अटके रहे अर्थात् उनके कान वहाँके विचित्र शब्दों को सुनने में लग गये; आँखें वहाँके अद्भुत दृश्योंको निहारने लगीं और मन वहाँकी अलौकिक विशेषता के विषय में सोचने लगा और वे अपने गन्तव्य स्थानकी ओर अग्रसर होते चले गये ।।१६-१७।।

     वे महातेजस्वी कुन्तीकुमार सभी ऋतुओंके फूलोंके उत्कट मुगन्धका आस्वादन करते हुए वनमें उद्दामगतिसे विचरनेवाले मदोन्मत्त गजराजकी भाँति चले जा रहे थे। नाना प्रकार के सुमसे सुवासित गन्धमादनकी परम पवित्र वायु उन्हें पंखा बाल रही थीं। जैसे पिताको पुत्रका स्पर्श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है, वैसा ही सुख भीमसेनको उस पर्वतीय वायुके स्पर्शसे मिल रहा था। उनके पिता पवन- देव उनकी सारी थकावट हर लेते थे। उस समय हर्षातिरेक- से भीमके शरीर में रोमाञ्च हो रहा था ।।१८-२०॥

   शत्रुदमन भीमसेनने उस समय ( पूर्वोक्त पुष्पकी प्राप्तिके लिये एक बार ) यक्ष, गन्धर्व, देवता और ब्रह्मर्पियोंसे सेवित उस विशाल पर्वतपर ( सब ओर ) दृष्टिपात किया ।।२१॥

    उस समय अनेक धातुओंसे रँगे हुए सप्तवर्ग (छितवन) के पत्तोंद्वारा उनके ललाट में विभिन्न धातुओंके काले, पीले और सफेद रंग लग गये थे, जिससे ऐसा जान पड़ता था, मानो अंगुलियों द्वारा त्रिपुण्ड्र चन्दन लगाया गया हो। उस पर्वत शिखरके उभयपार्श्वमें लगे हुए मेघोंसे उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो वह पुनः पंखधारी होकर नृत्य कर रहा है ।।२२।।

   निरन्तर झरनेवाले झरनों के जल उस पहाड़के कण्टदेशमें अवलम्बित मोतियों के हार से प्रतीत हो रहे थे। उस पर्वतकी गुफा, कुञ्ज, निर्झर, सलिल और कन्दराएँ सभी मनोहर थे, वहाँ अप्सराओंके नूपुरोकी मधुर ध्वनिके साथ सुन्दर उस पर्वत के एक-एक रत्न मोर नाच रहे थे । और शिलाखण्डपर दिग्गजोंके दाँतोंकी रगड़का चिह्न अङ्कित था ।।२३-२४।।

    निम्नगामिनी नदियों से निकला हुआ क्षोभरहित जल नीचे की ओर इस प्रकार बह रहा था, मानो उस पर्वतका वस्त्र खिसककर गिरा जाता हो । भयसे अपरिचित और स्वस्थ हरिण मुँहमें हरे घासका कौर लिये पास ही खड़े होकर भीमसेनकी ओर कौतूहलभरी दृष्टिते देख रहे थे। उस समय मनोहर नेत्रोंवाले शोभाशाली वायुपुत्र भीम अपने महान् वेगसे अनेक लतासमूहों को विचलित करते हुए हर्षपूर्ण हृदयसे खेल-सा करते जा रहे थे। वे अपनी प्रिया द्रौपदीका प्रिय मनोरथ पूर्ण करनेको सर्वथा उद्यत थे ।।२५-२७॥

     उनकी कद बहुत ऊँची थी। शरीरका रंग स्वर्ण-सा दमक रहा था। उनके सम्पूर्ण अङ्ग सिंहके समान सुदृढ़ थे उन्होंने युवावस्था में पदार्पण किया था। वे मतवाले हाथी के समान मस्तानी चालसे चलते थे। उनका वेग मदोन्मत्त गजराजके समान था ॥२८॥

     मतवाले हाथी के समान ही उनकी लाल-लाल आँखें थीं । वे समरभूमिमें मदोन्मत्त हाथियों को भी पीछे हटाने में समर्थ थे। अपने प्रियतमके पार्श्वभागमें बैठी हुई यक्ष और गन्धयोंकी युवतियाँ सब प्रकारकी चेष्टाओंसे निवृत्त हो स्वयं अलक्षित रहकर भीमसेन की ओर देख रही थीं। वे उन्हें सौन्दर्य के नूतन अवतार से प्रतीत होते थे इस प्रकार पाण्डुनन्दन भीम गन्धमादन के रमणीय शिखरोंपर खेल-सा करते हुए विचरने लगे। वे दुर्योधनद्वारा दिये गये नाना प्रकार के असंख्य क्लेशका स्मरण करते हुए वनवासिनी द्रौपदीका प्रिय करनेके लिये उद्यत हुए थे । उन्होंने मन-ही-मन सोचा 'अर्जुन स्वर्गलोक में चले गये हैं और मैं फूल लेनेके लिये इधर चला आया हूँ। ऐसी दशामें आर्य युधिष्ठिर कोई कार्य कैसे करेंगे ? नरश्रेष्ठ महाराज युधिष्ठिर नकुल और सहदेवपर अत्यन्त स्नेह रखते हैं। उन दोनोंके बलपर उन्हें विश्वास नहीं है। अतः वे निश्चय ही उन्हें नहीं छोड़ेंगे, अर्थात् कहीं नहीं भेजेंगे । अब कैसे मुझे शीघ्र वह फूल प्राप्त हो जाय यह चिन्ता करते हुए नरश्रेष्ठ भीम पक्षिराज गरुड़ के समान वेगसे आगे बढ़े। उनके मन और नेत्र फूलोंसे भरे हुए पर्वतीय शिखरों- पर लगे हुए थे ।।२९-३५।।

     द्रौपदीका अनुरोधपूर्ण वचन ही उनका पाथेय ( मार्गका कलेवा ) था, वे उसीको लेकर शीघ्रतापूर्वक चले जा रहे थे। वायुके समान वेगशाली वृकोदर पर्वकालमें होनेवाले उत्पात ( भूकम्प और बिजली गिरने) के समान अपने पैरोंकी धमक से पृथ्वीको कम्पित और हाथियों के समूहोंको आतङ्कित करते हुए चलने लगे। वे महाबली कुन्तीकुमार सिंहों व्याघ्रों और मृगोंको कुचलते तथा अपने वेगसे बड़े-बड़े वृक्षोंको जड़ से उखाड़ते और विनाश करते हुए आगे चढ़ने लगे । पाण्डुनन्दन भीम अपने वेगसे लताओं और बल्लरियों को खींचे लिये जाते थे। वे ऊपर-ऊपर जाते हुए ऐसे प्रतीत होते थे, मानो कोई गजराज पर्वतकी सबसे ऊँची चोटी पर चढ़ना चाहता हो ।।३६-३८।।

   वे बिजलियोंसे सुशोभित मेघकी भाँति बड़े जोरसे गर्जना करने लगे। भीमसेनकी उस भयंकर गर्जनासे जगे हुए व्याघ्र अपनी गुफा छोड़कर भाग गये, वनवासी प्राणी वन में ही छिप गये, डरे हुए पक्षी आकाशमें उड़ गये और मृगोंके झुंड दूरतक भागते चले गये, रीछोंने वृक्षोंका आश्रय छोड़ दिया, सिंहोंने गुफाएँ त्याग दीं, बड़े-बड़े सिंह जंभाई लेने लगे और जंगली भैंसे दूर से ही उनकी ओर देखने लगे भीमसेनकी उस गर्जनासे डरे हुए हाथी उस बनको छोड़कर इविनियोंसे घिरे हुए दूसरे विशाल बनमें चले गये ॥३९-४२॥

    सूअर, मृगसमूह, जंगली भैंसे, बाबों तथा गीदड़ों के समुदाय और गवय- ये सब के सब एक साथ चीत्कार करने लगे । चक्रवाक, चातक, हंस, कारण्डव, लव, शुक, कोकिल और क्रौञ्च आदि पक्षियोंने अचेत होकर भिन्न-भिन्न दिशाओंकी शरण ली तथा हथिनियों के कटाक्ष-बाणसे पीड़ित हुए दूसरे बलोन्मत्त गजराज सिंह और व्याघ्र क्रोधमें भरकर भीमसेनपर टूट पड़े । वे मल-मूत्र छोड़ते हुए मन-ही-मन भयसे घबरा रहे थे और मुँह बाये हुए अत्यन्त भयानक रूपसे भैरव गर्जना कर रहे थे।

तब अपने बाहु-बलका भरोसा रखनेवाले श्रीमान् वायुपुत्र भीमने कुपित हो एक हाथीसे दूसरे हाथियोंको और एक सिंहसे दूसरे सिंहों को मार भगाया तथा उन महाबली पाण्डु कुमारने कितनीको तमाचके प्रहारसे मार डाला भीमसेनकी मार खाकर सिंह, व्याघ्र और चीते ( बोरे ) भयसे उन्हें छोड़कर भाग चलें तथा घबराकर मल-मूत्र करने लगे तदनन्तर महान् शक्तिशाली पाण्डुनन्दन भीमसेनने शीघ्र उन सबको छोड़कर नागर्जना से सम्पूर्ण दिशाओं को गुँजाते हुए एक वन में प्रवेश किया ।।४३-४९।।

   इसी समय गन्धमादन के शिखरोंपर महाबाहु भीमने एक परम सुन्दर केलेका बगीचा देखा, जो कई योजन दूर- तक फैला हुआ था । मदकी धारा बढ़ानेवाले महाबली गजराजकी भाँति उस कदलीवन में हलचल मचाते और भाँति-भाँति के वृक्षोंको तोड़ते हुए वे बड़े वेग से वहाँ गये । वहाँके केलेके वृक्ष खम्भों के समान मोटे थे। उनकी ऊँचाई कई ताड़ोंके बराबर थी । बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमने बड़े वेग से उन्हें उखाड़ उखाड़कर सब ओर फेंकना आरम्भ किया । वे महान तेजस्वी तो थे हीं, अपने बल और पराक्रमपर गर्व भी रखते थे; अतः भगवान् नृसिंहकी भाँति विकट गर्जना करने लगे । तत्पश्चात् और भी बहुत-से बड़े-बड़े जन्तुओंपर आक्रमण किया। रुरु, वानर, सिंह, भैंसे तथा जल-जन्तुओं- पर भी धावा किया। उन पशु-पक्षियोंके एवं भीमसेनके उस भयंकर शब्द से दूसरे वनमें रहनेवाले मृग और पक्षी भी थर्रा उठे मृगों और पक्षियोंके उस भयसूचक शब्दको सहसा सुनकर सहस्रों पक्षी आकाशमें उड़ने लगे। उन सबकी पाँखें जलसे भीगी हुई थीं ।।५०-५६।।

      भरतश्रेष्ठ भीमने यह देखकर कि ये तो जलके पक्षी हैं, उन्हीं के पीछे चलने लगे और आगे जानेपर एक अत्यन्त रमणीय विशाल सरोवर देखा, उस सरोवर के एक तीरसे लेकर दूसरे तीरतक फैले हुए सुवर्णमय केलेके वृक्ष मन्द वायुसे विकम्पित होकर मानो उस अगाध जलाशयको पंखा झल रहे थे, उसमें प्रचुर कमल और उत्पल खिले हुए थे । बन्धन- रहित महान् गजके समान बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेन सहसा उस सरोवर में उतरकर जलक्रीड़ा करने लगे, दीर्घ कालतक उस सरोवर में क्रीडा करनेके पश्चात् अमित तेजस्वी भीम जलसे बाहर निकले और असंख्य वृक्षोंसे सुशोभित उस कदलीवनमें वेगपूर्वक जानेको उद्यत हुए ॥ ५७-६० ॥

    उस समय बलवान् पाण्डुनन्दन भीमने अपनी सारी शक्ति लगाकर बड़े जोरसे शङ्ख बजाया और सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए ताल ठोंका। उस शङ्ख की ध्वनि, भीमसेन- की गर्जना और उनके ताल ठोंकनेके भयंकर शब्दसे मानो- पर्वतोंकी कन्दराएँ गूँज उठीं ।।६१-६२।।

    पर्वतोंपर वज्रपात होने के समान उस ताल ठोंकने के भयानक शब्दको सुनकर गुफाओंमें सोये हुए सिंहोंने भी जोर-जोर से दहाड़ना आरम्भ किया ।।६३॥

   भारत ! उन सिंहका दहाड़ना सुनकर भयसे डरे हुए हाथी भी चीत्कार करने लगे, जिससे वह विशाल पर्वत शब्दायमान हो उठा, बड़े-बड़े गजराजों का वह चीत्कार सुनकर कपिप्रवर हनुमान् जी, जो उस समय कदलीवन में ही रहते थे, यह समझ गये कि मेरे भाई भीमसेन इधर आये हैं। तब उन्होंने भीमसेनके हितके लिये स्वर्गकी ओर जाने वाला मार्ग रोक दिया। हनुमानजीने यह सोचकर कि भीमसेन इसी मार्गसे स्वर्गलोककी ओर न चले जायें, एक मनुष्य के आने-जाने योग्य उस संकुचित मार्गपर बैठ गये । वह मार्ग केलेके वृक्षोंसे घिरा होनेके कारण बड़ी शोभा पा रहा था। उन्होंने अपने भाई भीमकी रक्षाके लिये ही यह राह रोकी थी ॥६३-६७।।

   कदलीवनमें आये हुए पाण्डुनन्दन भीमसेनको इस मार्गपर आनेके कारण किसीसे शाप या तिरस्कार न प्राप्त हो जाय, यह विचारकर ही कपिप्रवर हनुमानजी उस वनके भीतर स्वर्गका रास्ता रोककर सो गये । उस समय उन्होंने अपने शरीरको बड़ा कर लिया था । निद्राके वशीभूत होकर जब वे जॅभाई लेते और इन्द्रकी ध्वजाके समान ऊँचे तथा विशाल लंगूरको फटकारते, उस समय वज्रकी गड़- गड़ाहटके समान आवाज होती थी ।।६८-७०।।

   वह पर्वत उनकी पूँछकी फटकार के उस महान् शब्दको सुन्दर कन्दरारूपी मुखोद्वारा सब ओर प्रतिध्वनिके रूपमें दुहराता था, मानो कोई साँड़ जोर-जोरसे गर्जना कर रहा हो, पूँछ के फटकारने की आवाजसे वह महान् पर्वत हिल उठा । उसके शिखर झूमते-से जान पड़े और वह सब ओर से टूट-फूटकर बिखरने लगा । वह शब्द मतवाले हाथी के चिघाड़ने की आवाजको भी दबाकर विचित्र पर्वत-शिखरों पर चारों ओर फैल गया ।।७१-७३।।

    उसे सुनकर भीमसेनके रोंगटे खड़े हो गये और उसके कारणको ढूँढनेके लिये वे उस केलेके बगीचेमें घूमने लगे, उस समय विशाल भुजाओंवाले भीमसेनने कदली-वन के भीतर ही एक मोटे शिलाखण्डपर लेटे हुए वानरराज हनुमान जी को देखा, विद्युत्पात के समान चकाचौंध पैदा करनेके कारण उनकी ओर देखना अत्यन्त कठिन हो रहा था। उनकी अङ्गकान्ति गिरती हुई बिजली के समान पिङ्गल वर्णकी थी। उनका गर्जन- वर्जन वज्रपातकी गड़गड़ाहटके समान था। वे विद्युत्पात- के सदृश चञ्चल प्रतीत होते थे ।।७४-७६॥

    उनके कंधे चौड़े और पुष्ट थे । अतः उन्होंने बाँके मूल- भागको तकिया बनाकर उसीपर अपनी मोटी और छोटी ग्रीवाको रख छोड़ा था और उनके शरीरका मध्यभाग एवं कटिप्रदेश पतला था। उनकी लंबी पूँछका अग्रभाग कुछ मुड़ा हुआ था । उसकी रोमावलि घनी थी तथा वह पूँछ ऊपरकी ओर उठकर फहराती हुई ध्वजा-सी सुशोभित होती थी ।।७७-७८।।

    उनके ओठ छोटे थे। जीभ और मुखका रंग ताँबेके समान था । कान भी लाल रंगके ही थे और भौंहें चञ्चल हो रही थीं। उनके खुले हुए मुखमें श्वेत चमकते हुए दाँत और दाढ़ें अपने सफेद और तीखे अग्रभागके द्वारा अत्यन्त शोभा पा रही थीं। इन सबके कारण उनका मुख किरणोंसे प्रकाशित चन्द्रमाके समान दिखायी देता था। मुखके भीतर- की श्वेत दन्तावलि उसकी शोभा बढ़ाने के लिये आभूषणका काम दे रही थी ।।७९-८०॥

    सुवर्णमय कदली वृक्षके बीच विराजमान महातेजस्वी इनुमानूजी ऐसे जान पड़ते थे, मानो केसरोंकी क्यारीमें अशोकपुष्पका गुच्छ रख दिया गया हो, वे शत्रुसुदन बानरवीर अपने कान्तिमान् शरीरसे प्रज्वलित अग्निके समान जान पड़ते थे और अपनी मधु के समान पीली आँखोंसे इधर-उधर देख रहे थे। परम बुद्धिमान् बलवान् महाबाहु भीमसेन उस महान् वनमें विशालकाय महाबली वानरराज हनुमानजीको अकेले ही स्वर्ग- का मार्ग रोककर हिमालय के समान स्थित देख निर्भय होकर वेगपूर्वक उनके पास गये और वज्र-गर्जना के समान भयंकर सिंहनाद करने लगे । भीमसेनके उस सिंहनादसे वहाँके मृग और पक्षी थर्रा उठे ।।८१-८५।।

   तत्र महान् धैर्यशाली हनुमानजीने आँखें कुछ खोलकर अपने मधुपिंगल नेत्रद्वारा अवहेलनापूर्वक उनकी ओर देखा और उन्हें निकट पाकर उनसे मुसकराते हुए इस प्रकार कहा ।।८६।।

  हनुमानजी बोले ;- भाई ! मैं तो रोगी हूँ और यहाँ सुखसे सो रहा था। तुमने क्यों मुझे जगा दिया ? तुम समझ- दार हो। तुम्हें सब प्राणियोंपर दया करनी चाहिये, हमलोग तो पशु-योनिके प्राणी हैं, अतः धर्मकी बात नहीं जानते; परंतु मनुष्य बुद्धिमान् होते हैं, अतः वे सब जीवोंपर दया करते हैं। किंतु पता नहीं, तुम्हारे जैसे बुद्धिमान् लोग धर्मका नाश करनेवाले तथा मन, वाणी और शरीर को भी दूषित कर देने - वाले क्रूर कम कैसे प्रवृत्त होते हैं ? ॥८७-८९ ॥

   तुम्हें धर्मका बिल्कुल ज्ञान नहीं है। मालूम होता है, तुमने विद्वानों की सेवा नहीं की है मन्दबुद्धि होनेके कारण अज्ञानवश तुम यहाँके मृगों को कष्ट पहुँचाते हो, बोलो तो, तुम कौन हो ? इस वनमें तुम क्यों और किस लिये आये हो ? यहाँ तो न कोई मानवीय भाव हैं और न मनुष्यों का ही प्रवेश है।  पुरुषश्रेष्ठ ! ठीक-ठीक बतलाओ, तुम्हें आज इधर कहाँ- तक जाना है ? यहाँसे आगे तो यह पर्वत अगम्य है इसपर चढ़ना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन है। वीर ! सिद्ध पुरुषोंके सिवा और किसीकी यहाँ गति नहीं है । यह देवलोकका मार्ग है, जो मनुष्योंके लिये सदा अगम्य है। वीरवर ! मैं दयावश ही तुम्हें आगे जानेसे रोकता हूँ । मेरी बात सुनो प्रभो ! यहाँ से आगे तुम किसी प्रकार जा नहीं सकते । इसपर विश्वास करो,

   मानवशिरोमणे ! आज यहाँ सब प्रकारसे तुम्हारा स्वागत है ये अमृत के समान मीठे फल-मूल खाकर यहीं से लौट जाओ, अन्यथा व्यर्थ ही तुम्हारे प्राण संकट में पड़ जायँगे नरपुङ्गव ! यदि मेरा कथन हितकर जान पड़े, तो इसे अवश्य मानो ॥९०-९६।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में भीमसेनका कदलीवन में प्रवेशविवयक एक सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ सैतालिसवाँ अध्याय

"श्रीहनुमान् और भीमसेनका संवाद"

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय उस समय परम बुद्धिमान् वानरराज हनुमानजी का यह वचन सुनकर शत्रुसूदन वीरवर भीमसेनने इस प्रकार कहा ।

  भीमसेनने पूछा ;- आप कौन हैं और किस लिये वानरका रूप धारण कर रखा है ! मैं ब्राह्मणके बादका वर्ण-क्षत्रिय हूँ और मैं आपसे आपका परिचय पूछता हूँ।

   मेरा परिचय इस प्रकार है-मैं चन्द्रवंशी क्षत्रिय हूँ मेरा जन्म कुरुकुल हुआ है। माता कुन्तीने मुझे गर्भ धारण किया था। मैं वायुपुत्र पाण्डव हूँ। मेरा नाम भीमसेन है ॥१-३॥

  कुरुवीर भीमसेनका यह वचन मन्द मुसकानके साथ सुनकर वायुपुत्र हनुमानूजो ने वायुके ही पुत्र भीमसेन से इस प्रकार कहा ।।४॥

   हनुमानजी बोले ;- भैया! मैं बानर हूँ। तुम्हें तुम्हारी इच्छा के अनुसार मार्ग नहीं दूँगा। अच्छा तो यह होगा कि तुम यहींसे लौट जाओ, नहीं तो तुम्हारे प्राण संकटमें पड़ जायेंगे,

    भीमसेन ने कहा ;– वानर ! मेरे प्राण संकट में पड़ें या और कोई दुष्परिणाम भोगना पढ़े इसके विपय तुमसे कुछ नहीं पूछता हूँ। उठो और मुझे आगे जानेके लिये रास्ता दो ऐसा होनेपर तुमको मेरे हाथोंसे किसी प्रकारका कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा ॥५-६॥

  भीमसेन ने कहा ;- निर्गुण परमात्मा समस्त प्राणियों के शरीरमै ब्यात होकर स्थित हैं। ये ज्ञान ही जानने में आते हैं। मैं उनका अपमान या उल्लङ्घन नहीं करूँगा, यदि शास्त्रोंके द्वारा मुझे उन भूतभावन भगवान् के स्वरूपका ज्ञान न होता तो मैं तुम्हींको क्या इस पर्वतको भी उसी प्रकार लाँघ जाता, जैसे हनुमानजी समुद्रको लाँच गये थे,

   हनुमानजी बोले ;- नरश्रेष्ठ! मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ, वह हनुमान कौन था? जो समुद्रको लाँघ गया था। उसके विषय में यदि तुम कुछ कह सको तो कहो ॥९-१०॥

  भीमसेन ने कहा ;- वानरमवर श्रीहनुमानजी मेरे बड़े भाई हैं! वे अपने सद्गुण के कारण सबके लिये प्रशंसनीय हैं । वे बुद्धि, बल, धैर्य एवं उत्साहसे युक्त है। रामायण में उनकी बड़ी ख्याति है। वे वानरश्रेष्ठ हनुमान् श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी सीताजीकी खोज करनेके लिये सौ योजन विस्तृत समुद्रको एक ही छलाँग लॉ गये थे।

    वे महापराक्रमी वानरवीर मेरे भाई लगते हैं। मैं भी उन्होंके समान तेजस्वी बलवान् और पराक्रमी हूँ तथा युद्धमें तुम्हें परास्त कर सकता हूँ ॥११-१३॥

   उठो और मुझे रास्ता दो तथा आज मेरा पराक्रम अपनी आँखों देख लो। यदि मेरी आशा नहीं मानोगे, तो तुम्हें यमलोक भेज दूँगा ।।१४।।

   वैशम्पायनजी कहते है ;- जनमेजय ! भीमसेनको बल के अभिमान से उन्मत्त तथा अपनी भुजाओंके पराक्रमसे घमंड से भरा हुआ जान हनुमानजीने मन ही मन उनका उपहास करते हुए उनसे इस प्रकार कहा ।।१५।।

   हनुमानजी बोले ;- अनघ ! मुझपर कृपा करो । बुढ़ापे के कारण मुझमें उठनेकी शक्ति नहीं रह गयी है। इसलिये मेरे ऊपर दया करके इस पूँछ को हटा दो और निकल जाओ ।।१६।।

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय । हनुमान् जीके ऐसा कहनेपर अपने बाहुबलका घमंड रखनेवाले भीमने मन-ही-मन उन्हें बल और पराक्रमसे दीन समझा, और भीतर-ही-भीतर यह संकल्प किया कि 'आज मैं इस बल और पराक्रमते शून्य वानरको वेगपूर्वक इसकी पूँछ पकड़कर यमराजके लोक में भेज देता हूँ'। ऐसा सोचकर उन्होंने बड़ी लापरवाही दिखाते और मुसकराते हुए अपने बायें हाथसे उस महाकपिकी पूँछ पकड़ी किंतु वे उसे हिला-डुला भी न सके , तब महाबली भीमसेनने उनकी इन्द्रधनुषके समान ऊँची पूँछ को दोनों हाथोंसे उठानेका पुनः प्रयत्न किया, परंतु दोनों हाथ लगा देनेपर भी वे उसे उठा न सके , फिर तो उनकी भौहें तन गयीं, आँखें फटी-सी रह गयीं, मुखमण्डलमें भ्रुकुटी स्पष्ट दिखायी देने लगी और उनके सारे अङ्क पसीने से तर हो गये। फिर भी भीमसेन हनुमानजी की पूँछको किञ्चित् भी हिला न सके ॥१७-२१॥

   यद्यपि श्रीमान् भीमसेन उस पूँछको उठाने में सर्वथा समर्थ थे और उसके लिये उन्होंने बहुत प्रयत्न भी किया, तथापि सफल न हो सके। इससे उनका मुँह लजासे झुक गया और वे कुन्तीकुमार भीम हनुमानजी के पास जाकर उनके चरणोंमें प्रणाम करके हाथ जोड़े हुए खड़े होकर बोले 'कपिप्रवर! मैंने जो कठोर बातें कही हो, उन्हें क्षमा कीजिये और मुझपर प्रसन्न होइये,

   आप कोई सिद्ध हैं या देवता ? गन्धर्व हैं या गुझक ? मैं परिचय जानने की इच्छा से पूछ रहा हूँ। बतलाइये, इस प्रकार वानरका रूप धारण करने वाले आप कौन हैं ? 

महाबाहो ! यदि कोई गुप्त बात न हो और वह मेरे सुनने- योग्य हो, तो बताइये। अनय ! मैं आपकी शरण में आया हूँ और शिप्यभावसे पूछता हूँ । अतः अवश्य बताने की कृपा करें ।।२२-२५।।

   हनुमानजी बोले ;- शत्रुदमन पाण्डुनन्दन ! तुम्हारे मनमें मेरा परिचय प्राप्त करनेके लिये जो कौतूहल हो रहा है, उसकी शान्तिके लिये सब बातें विस्तारपूर्वक सुनो ।।२६॥

   कमलनयन भीम ! मैं वानरश्रेष्ठ केसरीके क्षेत्रमें जगत् के प्राणस्वरूप वायुदेवसे उत्पन्न हुआ हूँ। मेरा नाम हनुमान् वानर है ।।२७।।

     पूर्वकालमें सभी वानरराज और वानरयूथपति, जो महान् पराक्रमी थे, सूर्यनन्दन सुग्रीव तथा इन्द्रकुमार वाली- की सेवामें उपस्थित रहते थे। शत्रुसूदन भीम ! उन दिनों सुग्रीवके साथ मेरी वैसी ही प्रेमपूर्ण मित्रता थी, जैसी वायुकी अग्निके साथ मानी गयी है ।।२८-२९।।

   किसी कारणान्तरसे वालीने अपने भाई सुग्रीवको घरसे निकाल दिया, तब बहुत दिनोंतक वे मेरे साथ ऋष्यमूक पर्वतपर रहे ॥३०॥

    उस समय महाबली वीर दशरथनन्दन श्रीराम, जो साक्षात् भगवान् विष्णु ही थे, मनुष्यरूप धारण करके इस भूतलपर विचर रहे थे ॥ ३१ ॥

     वे अपने पिताकी आशा पालन करनेके लिये पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ दण्डकारण्यमे चले आये, धनुर्धरो श्रेष्ठ रघुनाथजी सदा धनुष-बाण लिये रहते थे ।।३२।।

    अनघ ! दण्डकारण्य में आकर ये जनस्थानमें रहा करते थे। एक दिन अत्यन्त बलवान् दुरात्मा राक्षसराज रावण मावासे सुवर्ण रत्नमय विचित्र मृगका रूप धारण करनेवाले मारीच नामक राक्षसके द्वारा नरश्रेष्ठ श्रीरामको धोखेमें डालकर उनकी पत्नी सीताको छल-बलपूर्वक इर ले गया ।।३३-३४।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में हनुमानजी और भीमसेनका संवाद- विषयक एक सौ सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय

"हनुमानजीका भीमसेन को संक्षेपसे श्रीरामका चरित्र सुनाना"

   हनुमानजी कहते हैं ;- भीमसेन ! इस प्रकार स्त्रीका अपहरण हो जानेपर अपने भाई के साथ उसकी खोज करते हुए श्रीरघुनाथजी जनस्थान से आगे बढ़े। उन्होंने ऋष्यमूक पर्वत के शिखरपर रहनेवाले वानरराज सुग्रीवसे भेंट की ॥१॥

वहाँ सुग्रीवके साथ महात्मा श्रीरघुनाथजीकी मित्रता हो गयी। तब उन्होंने वालीको मारकर किष्किन्धाके राज्यपर सुग्रीवका अभिषेक कर दिया ॥ २ ॥

राज्य पाकर सुग्रीव ने सीताजीकी खोजके लिये सौ-सौ तथा हजार-हजार वानरोंकी टोली इधर-उधर भेजी ॥ ३ ॥

   नरश्रेष्ठ ! महाबाहो ! उस समय करोड़ों वानरोंके साथ मैं भी सीताजीका पता लगाता हुआ दक्षिण दिशाकी ओर गया तदनन्तर गृधजातीय महाबुद्धिमान् सम्पातिने सीताजीके सम्बन्धमें यह समाचार दिया कि वे रावण के नगरमें विद्यमान हैं ॥४-५॥

तब मैं अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीरघुनाथजी- की कार्यसिद्धि के लिये सहसा सौ योजन विस्तृत समुद्रको लाँघ गया ॥६॥

    भरतश्रेष्ठ ! मगर और ग्राद आदिसे भरे हुए उस समुद्रको अपने पर क्रमसे पार करके मैं रावण के नगर में देवकन्या के समान तेजखिनी जनकराजनन्दिनी सीतासे मिला । रघुनाथजी की प्रियतमा विदेहराजकुमारी सीतादेवीसे भेंट करके अट्टालिका, चहारदिवारी और नगरद्वारसहित समूची लङ्कापुरीको जलाकर वहाँ श्रीराम नामकी घोषणा करके मैं पुनः लौट आया, मेरी बात मानकर कमलनयन भगवान् श्रीरामने बुद्धिपूर्वक विचार करके सैनिकों की सलाहसे महासागरपर पुल बँधवाया और करोड़ों वानरोंसे घिरे हुए वे महासमुद्रको पार करके लङ्कापर जा चढ़े। तदनन्तर वीरवर श्रीरामने उन समस्त राक्षसों को मारकर युद्ध में समस्त लोकोंको रुलानेवाले राक्षस- राज रावणको भी भाई, पुत्र और बन्धु बान्धर्वोसहित मार डाला ।।७-१२॥

   तत्पश्चात् धर्मात्मा, भक्तिमान् तथा भक्तों और सेवकोंपर स्नेह रखनेवाले राक्षसराज विभीषणको लङ्काके राज्यपर अभिषिक्त किया और खोयी हुई वैदिकी श्रुतिकी भाँति अपनी पत्नीका वहाँसे उद्धार करके महायशस्वी रघुनन्दन श्रीराम अपनी उस साध्वी पत्नी के साथ ही बड़ी उतावली के साथ अपनी अयोध्यापुरीमें लौट आये। इसके बाद शत्रुओं- को भी वश में करनेवाले नृपश्रेष्ठ भगवान् श्रीराम अवधके राज्यसिंहासनपर आसीन हो उस अजेय अयोध्यापुरीमें रहने लगे । उस समय मैंने कमलनयन श्रीरामसे यह वर माँगा कि 'शत्रुसूदन ! जबतक आपकी यह कथा संसारमें प्रचलित रहे, तबतक मैं अवश्य जीवित रहूँ' । भगवान्ने 'तथास्तु' कहकर मेरी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली ॥ १३-१७ ॥

    शत्रुओं का दमन करनेवाले भीमसेन ! श्रीसीताजी की कृपासे यहाँ रहते हुए ही मुझे इच्छानुसार सदा दिव्य भोग प्राप्त हो जाते हैं, श्रीरामजीने ग्यारह हजार वर्षोंतक इस पृथ्वीपर राज्य किया, फिर वे अपने परम धामको चले गये, निष्पाप भीम ! इस स्थानपर गन्धर्व और अप्सराएँ वीरवर रघुनाथजी के चरित्रोंको गाकर मुझे आनन्दित करते रहते हैं ॥१८-२०॥

    कुरुनन्दन ! यह मार्ग मनुष्योंके लिये अगम्य है । अतः इस देवसेवित पथको मैंने इसीलिये तुम्हारे लिये रोक दिया था, कि इस मार्ग से जानेपर कोई तुम्हारा तिरस्कार न कर दे या शाप न दे दे; क्योंकि यह दिव्य देवमार्ग है । इसपर मनुष्य नहीं जाते हैं भारत! तुम जहाँ जानेके लिये आये हो, वह सरोवर तो यहीं है ॥२१-२२॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसङ्ग में हनुमानजी और भीमसेनका संवादनामक एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ उन्चासवाँ अध्याय

"हनुमानजी के द्वारा चारों युगों के धर्मो का वर्णन"

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय ! हनुमान्जीके ऐसा कहनेपर प्रतापी वीर महाबाहु भीमसेन के मनमें बड़ा वर्ष हुआ उन्होंने बड़े प्रेमसे अपने भाई वानरराज हनुमान् को प्रणाम करके मधुर वाणीमें कहा,,

   भीमसेन बोले ;- 'अहा ! आज मेरे समान बड़भागी दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि आज मुझे अपने ज्येष्ठ भ्राताका दर्शन हुआ है ।।१-२।।

   'आर्य ! आपने मुझपर बड़ी कृपा की है। आपके दर्शन से मुझे बड़ा सुख मिला है अब मैं पुनः आपके द्वारा अपना एक और प्रिय कार्य पूर्ण करना चाहता हूँ, वीरवर ! मकरालय समुद्रको लाँघते समय आपने जो अनुपम रूप धारण किया था, उसका दर्शन करनेकी मुझे बड़ी इच्छा हो रहीं है । उसे देखनेसे मुझे संतोष तो होगा ही, आपकी बातपर श्रद्धा भी हो जायगी। भीमसेन के ऐसा कहने- पर महातेजस्वी हनुमान् जीने हँसकर कहा- ।।३-५॥

  हनुमान जी बोले ;- 'भैया ! तुम उस स्वरूपको नहीं देख सकते, कोई दूसरा मनुष्य भी उसे नहीं देख सकता । उस समयकी अवस्था कुछ और ही थी, अब वह नहीं है ॥६॥

     'सत्ययुगका समय दूसरा था तथा त्रेता और द्वापरका दूसरा ही है । यह काल सभी वस्तुओंको नष्ट करनेवाला है। अब मेरा वह रूप है ही नहीं। पृथ्वी, नदी, वृक्ष, पर्वत, सिद्ध, देवता और महर्षि-ये सभी कालका अनुसरण करते हैं। प्रत्येक युगके अनुसार सभी वस्तुओंके शरीर, बल और प्रभाव- में न्यूनाधिकता होती रहती है अतः कुरुश्रेष्ठ ! तुम उस स्वरूपको देखने का आग्रह न करो। मैं भी युगका अनुसरण करता हूँ; क्योंकि कालका उल्लङ्घन करना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है! ।।७-९।।

  भीमसेन ने कहा ;- कपिप्रवर ! आप मुझे युगों की संख्या बताइये और प्रत्येक युगमें जो आचार धर्म, अर्थ एवं कामके तत्व शुभाशुभ कर्म, उन कमोंकी शक्ति तथा उत्पत्ति और विनाशादि भाव होते हैं, उनका भी वर्णन कीजिये ।।१०।।

   हनुमानजी बोले ;- तात ! सबसे पहला कृतयुग है । उसमें सनातन धर्मकी पूर्ण स्थिति रहती है। उसका कृतयुग नाम इसलिये पड़ा है, कि उस उत्तम युगके लोग अपना सब कर्तव्य कर्म सम्पन्न ही कर लेते थे। उनके लिये कुछ करना शेष नहीं रहता था ( अतः कृतम् एव सर्व शुभं यस्मिन् युगे' इस व्युत्पत्तिके अनुसार वह 'कृतयुग' कहलाया )।।११।।

    उस समय धर्मका ह्रास नहीं होता था । प्रजाका अर्थात् ( माता-पिता के रहते हुए ) संतानका नाश नहीं होता था तदनन्तर कालक्रम से उसमें गौणता आ गयी, तात ! कृतयुग में देवता दानव, गन्ध, यक्ष, राक्षस और नाग नहीं थे अर्थात् ये परस्पर भेद-भाव नहीं रखते थे। उस समय क्रय-विक्रयका व्यवहार भी नहीं था ॥१२-१३॥

    ऋक्, साम और यजुर्वेद के मन्त्रवर्णीका पृथक्-पृथक् विभाग नहीं था। कोई मानवी क्रिया ( कृषि आदि ) भी नहीं होती थी। उस समय चिन्तन करनेमात्र से सबको अभीष्ट फलकी प्राप्ति हो जाती थी । सत्ययुग में एक ही धर्म था, स्वार्थका त्याग ॥१४॥

उस युग में बीमारी नहीं होती थी । इन्द्रियोंमें भी क्षीणता नहीं आने पाती थी। कोई किसीके गुणोंमें दोष दर्शन नहीं करता था । किसीको दुःखसे रोना नहीं पड़ता था और न किसीमें घमंड था तथा न कोई अन्य विकार ही होता था ॥१५।।

   कहीं लड़ाई-झगड़ा नहीं था, आलसी भी नहीं थे । द्वेष, चुगली, भय, संताप, ईर्ष्या और मात्सर्य भी नहीं था, उस समय योगियों के परम आश्रय और सम्पूर्ण भूतकी अन्तरात्मा परब्रह्मस्वरूप भगवान् नारायणका वर्ण शुक्ल था, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी शम-दम आदि स्वभावसिद्ध शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थे । सत्ययुगमें समस्त प्रजा अपने-अपने कर्तव्यकम में तत्पर रहती थी ॥१६-१८।।

   उस समय परब्रह्म परमात्मा ही सबके एकमात्र आश्रय थे ! उन्हीं की प्राप्ति के लिये सदाचार का पालन किया जाता था। सब लोग एक परमात्माका ही ज्ञान प्राप्त करते थे। सभी वर्णोंके मनुष्य परब्रहा परमात्माके उद्देश्यसे ही समस्त सत्कमका अनुष्ठान करते थे और इस प्रकार उन्हें उत्तम धर्म-फलकी प्राप्ति होती थी ॥ १९ ॥

  सब लोग सदा एक परमात्मदेव में ही चित्त लगाये रहते थे सब लोग एक परमात्मा के ही नामका जप और उन्हीं की सेवा पूजा किया करते थे। सबके वर्णाश्रमानुसार पृथक-पृथक धर्म होनेपर भी वे एकमात्र वेदको ही माननेवाले 'थे और एक ही सनातनधर्म के अनुयायी थे ।।२०।।

    सत्ययुगके लोग समय-समयपर किये जानेवाले चार आश्रम सम्बन्धी सत्कम का अनुष्ठान करके कर्मफलकी कामना और आसक्ति न होनेके कारण परम गति प्राप्त कर लेते थे ।।२१।।

   चित्तवृत्तियों को परमात्मामें स्थापित करके उनके साथ एकताकी प्राप्ति करानेवाला यह योग नामक धर्म सत्ययुगका सूचक है सत्ययुग में चारों वर्णोंका यह सनातन धर्म चारों चरणोंसे सम्पन्न - सम्पूर्ण रूपसे विद्यमान था ॥२२॥

   यह तीनों गुणोंसे रहित सत्ययुगका वर्णन हुआ। अब ताका वर्णन सुनो, जिसमें यज्ञ-कर्मका आरम्भ होता है ॥२३॥

   उस समय धर्मके एक चरणका ह्रास हो जाता है और भगवान् अच्युतका स्वरूप लाल वर्णका हो जाता है । लोग सत्यमें तत्पर रहते हैं । शास्त्रोक्त यज्ञक्रिया तथा धर्मके पालनमें परायण रहते हैं ।।२४॥

   त्रेतायुगमें ही यश, धर्म तथा नाना प्रकारके सत्कर्म आरम्भ होते हैं। लोगोंको अपनी भावना तथा संकल्पके अनुसार वेदोक्त कर्म तथा दान आदिके द्वारा अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है ।।२५।।

    त्रेतायुगके मनुष्य तप और दानमें तत्पर रहकर अपने धर्मसे कभी विचलित नहीं होते थे। सभी स्वधर्मपरायण तथा क्रियावान् थे ॥२६॥

   द्वापर में हमारे धर्मके दो ही चरण रह जाते हैं, उस समय भगवान् विष्णुका स्वरूप पीले वर्णका हो जाता है और वेद (ऋक्, यजुः साम और अथर्व - इन ) चार भागों में बँट जाता है ।।२७।।

    उस समय कुछ द्विज चार वेदोंके ज्ञाता, कुछ तीन वेदोंके विद्वान्, कुछ दो ही वेदोंके जानकार कुछ एक ही वेद पण्डित और कुछ वेदकी ऋचाओं के ज्ञानसे सर्वथा शून्य होते हैं।  इस प्रकार भिन्न-भिन्न शास्त्रों के होनेसे उनके बताये हुए कमोंमें भी अनेक भेद हो जाते हैं तथा प्रजा तप और दान- इन दो ही धर्मोंमें प्रवृत्त होकर राजसी हो जाती है द्वापर में सम्पूर्ण एक वेदका भी ज्ञान न होनेसे वेद के बहुत- से विभाग कर लिये गये हैं। इस युग में सात्त्विक बुद्धिका क्षय होनेसे कोई विरला ही सत्यमें स्थित होता है ॥२८-३०॥

   सत्यसे भ्रष्ट होने के कारण द्वापरके लोगोंमें अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उनके मनमें अनेक प्रकारकी कामनाएँ पैदा होती हैं और वे बहुत-से दैवी उपद्रवोंसे भी पीड़ित हो जाते हैं ।।३१।।

    उन सबसे अत्यन्त पीड़ित होकर लोग तप करने लगते हैं। कुछ लोग भोग और स्वर्गकी कामनासे यशका अनुष्ठान करते हैं ॥३२॥

   इस प्रकार द्वापरयुगके आनेपर अधर्मके कारण प्रजा क्षीण होने लगती है ( तत्पश्चात् कलियुगका आगमन होता है ।) कुन्तीनन्दन ! कलियुग में धर्म एक ही चरणसे स्थित होता है ॥३३॥

   इस तमोगुणी युगको पाकर भगवान् विष्णुके श्रीविग्रहका रंग काला हो जाता है। वैदिक सदाचार, धर्म तथा यज्ञ-कर्म नष्ट हो जाते हैं ।।३४॥

    ईति, व्याधि, आलस्य, क्रोध आदि दोष, मानसिक रोग तथा भूख-प्यासका भय - ये सभी उपद्रव बढ़ जाते हैं,

    युगों के परिवर्तन होनेपर आनेवाले युगों के अनुसार धर्मका भी ह्रास होता जाता है इस प्रकार धर्मके क्षीण होने से लोक ( की सुख-सुविधा ) का भी क्षय होने लगता है ॥३५-३६॥

   लोकके क्षीण होनेपर उसके प्रवर्तक भावोंका भी क्षय हो जाता है । युग-क्षयजनित धर्म मनुष्यकी अभीष्ट कामनाओं- के विपरीत फल देते हैं ॥३७॥

   यह कलियुगका वर्णन किया गया, जो शीघ्र ही आने- वाला है। चिरजीवी लोग भी इस प्रकार युगका अनुसरण करते हैं ॥३८॥

     शत्रुदमन ! तुम्हें मेरे पुरातन स्वरूपको देखने या जानने के लिये जो कौतूहल हुआ है, वह ठीक नहीं है किसी भी समझदार मनुष्यका निरर्थक विषयोंके लिये आग्रह क्यों होना चाहिये ? ।।३९॥

     महाबाहो ! तुमने युगोंकी संख्या के विषयमें मुझसे जो प्रश्न किया है, उसके उत्तरमें मैंने यह सब बातें बतायी हैं। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम लौट जाओ ॥४०॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में कदलीवन के भीतर हनुमानजी और भीमसेनका संवादविषयक एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ पचासवाँ अध्याय

"हनुमानजी के द्वारा भीमसेनको अपने विशाल रूपका प्रदर्शन और चारों वर्णोंके धर्मोका प्रतिपादन"

  भीमसेन ने कहा ;- पियर ! मैं आपका वह पूर्वरूप देखे बिना किसी प्रकार नहीं जाऊँगा। यदि मैं आपका कृपापात्र होऊँ तो आप स्वयं ही अपने आपको मेरे सामने प्रकट कर दीजिये ॥१॥

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जननेजय ! भीमसेनके ऐसा कहनेवर हनुमानजीने गुसकराकर उन्हें अपना वह रूप दिखाया, जो उन्होंने समुद्र के समय धारण किया था,

    उन्होंने अपने भाईका प्रिय करने की इच्छा अत्यन्त विशाल शरीर धारण किया। उनका शरीर लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई में बहुत बड़ा हो गया। वे अमिततेजस्वी वानरवीर वृक्षसहित समूचे कदलीवनको आच्छादित करते हुए गन्धमादन पर्वतकी ऊँचाईको भी लॉकर वहाँ


खड़े हो गये, उनका वह उन्नत विशाल शरीर दूसरे पर्वतके समान प्रतीत होता था लाल आँखों, तीखी दाद और टेढ़ी भौहोस युक्त उनका मुख था, वे वानरवीर अपनी विशाल पूँछको हिलाते हुए सम्पूर्ण दिशाओंको पेरकर खड़े थे। भाईके उस विराट् रूपको देखकर कौरवनन्दन भीमको बड़ा आश्चर्य हुआ उनके शरीर में बार-बार हर्षसे रोमाञ्च होने लगा हनुमानजी तेज सूर्य के समान दिखायी देते थे। उनका शरीर सुबर्णनय मेरुपर्यत के समान था और उनकी प्रभासे सारा आकाश- मण्डल प्रज्वलित-सा जान पड़ता था। उनकी ओर देखकर भीमसेनने दोनों आँखे बंद कर लीं । तब हनुमानजी उनसे मुसकराते हुए-से बोले ।।२-८।।

    'अनघ ! तुम यहाँ मेरे इतने ही बड़े रूपको देख सकते हो, परंतु मैं इससे भी बड़ा हो सकता हूँ। मेरे मनने जितने बड़े स्वरूपकी भावना होती है, उतना ही मैं बढ़ सकता हूँ। भयानक शत्रुओंके समीप मेरी मूर्ति अत्यन्त ओजके साथ बढ़ती है ॥ ९ ॥

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय ! हनुमान्जीका वह विन्ध्य पर्वतकें समान अत्यन्त भयंकर और अद्भुत शरीर देखकर वायुपुत्र भीमसेन घबरा गये । उनके शरीर- में रोंगटे खड़े होने लगे। उस समय उदारहृदय भीमने हाथ जोड़कर अपने सामने खड़े हुए, हनुमानजी से कहा, प्रभो! आपके इस शरीरका विशाल प्रमाण प्रत्यक्ष देख लिया। महापराक्रमी वीर ! अब आप खयं ही अपने शरीर को सनेट लीजिये, 'आप तो सूर्य के समान उदित हो रहे हैं। मैं आपकी ओर देख नहीं सकता। आप अप्रमेय तथा दुर्धर्ष मैनाक पर्वत समान खड़े हैं ।।१०-१३।।

     "वीर ! आज मेरे मन में इस बात को लेकर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि आपके निकट रहते हुए भी भगवान् श्रीरामने स्वयं ही रावणका सामना किया, 'आप तो अकेले ही अपने बाहुवलका आश्रय लेकर योद्धाओं और वाहनों सहित समूची लङ्काको अनायास नष्ट कर सकते थे, 'मारुतनन्दन ! आपके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है । समरभूमिमें अपने सैनिकों सहित रावण अकेले आपका ही सामना करने में समर्थ नहीं था ॥१४-१६॥

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय । भीमके ऐसा कहनेपर कपिश्रेष्ठ हनुमान् जीने नेहयुक्त गम्भीर वाणी में इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ १७ ॥

   हनुमानजी बोले ;- भारत ! महाबाहु भीमसेन ! तुम जैसा कहते हो, ठीक ही है । वह अधम राक्षस वास्तव में मेरा सामना नहीं कर सकता था, किंतु सम्पूर्ण लोकोंको काँटेके समान कष्ट देनेवाला रावण यदि मेरे ही हाथों मारा जाता, तो भगवान् श्रीराम- चन्द्रजीकी कीर्ति नष्ट हो जाती। इसीलिये मैंने उसकी उपेक्षा कर दी, वीरवर श्रीरामचन्द्रजी सेनासहित उस अधम राक्षसका वध करके सीताजीको अपनी अयोध्यापुरीमै ले आये। इससे मनुष्योंमें उनकी कीर्तिका भी विस्तार हुआ ॥१८-२०॥

    अच्छा, महाप्राश ! अब तुम अपने भाईके प्रिय एवं हितमें तत्पर रहकर वायुदेवतासे सुरक्षित हो क्लेशरहित मार्ग से कुशलपूर्वक जाओ, कुरुश्रेष्ठ ! यह मार्ग सौगन्धिक बनको जाता है । इससे जानेपर तुम्हें कुबेरका बगीचा दिखायी देगा, जो यक्षों तथा राक्षसोंसे सुरक्षित है। वहाँ जाकर तुम जल्दीमे स्वयं ही उसके फूल न तोड़ने लगना मनुष्योंको तो विशेषरूपसे देवताओंका सम्मान ही करना चाहिये भरतश्रेष्ठ ! पूजा, होम, नमस्कार, मन्त्रजप तथा भक्ति- भावसे देवता प्रसन्न होकर कृपा करते हैं ॥२१-२४॥

    तात ! तुम दुःसाहस न कर बैठना, अपने धर्मका पालन करना, स्वधर्ममें स्थित रहकर तुम श्रेष्ठ धर्मको समझो और उसका पालन करो, क्योंकि धर्मको जाने बिना और वृद्ध पुरुषोंकी सेवा किये बिना बृहस्पति जैसे विद्वानोंके लिये भी धर्म और अर्थके तत्त्वको समझना सम्भव नहीं है। कहीं अधर्म ही धर्म कहलाता है और कहीं धर्म भी अधर्म कहा जाता है । अतः धर्म और अधर्मके स्वरूपका पृथक-पृथक ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । बुद्धिहीन लोग इसमें मोहित हो जाते हैं। आचारसे धर्मकी उत्पत्ति होती है । धर्म में वेदोंकी प्रतिष्ठा है। वेदोंसे यश प्रकट हुए हैं और यज्ञोंसे देवताओंकी स्थिति है ॥२५-२८॥

    वेदोक्त आचारके विधान से बतलाये हुए यज्ञद्वारा देवताओंकी आजीविका चलती है और बृहस्पति तथा शुक्रा- चार्यकी कही हुई नीतियाँ मनुष्योंके जीवन निर्वाहकी आधार- भूमि हैं ॥२९॥

   हाट-बाजार करना, कर ( लगान या टैक्स ) लेना, व्यापार, खेती, गोपालन, भेड़ और बकरोंका पोषण तथा विद्या पढ़ना-पढ़ाना – इन धर्मानुकूल वृत्तियोंद्वारा द्विजगण सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करते हैं ॥३०॥

     वेदत्रयी वार्ता ( कृषि-वाणिज्य आदि) और दण्ड- नीति ये तीन विद्याएँ हैं ( इनमें वेदाध्ययन ब्राह्मणकी, वार्ता वैश्यकी और दण्डनीति क्षत्रियकी जीविकावृत्ति है ) । विज्ञ पुरुषोंद्वारा इन वृत्तियोंका ठीक-ठीक प्रयोग होनेसे लोकयात्राका निर्वाह होता है ॥३१॥

    यदि लोकयात्रा धर्मपूर्वक न चलायी जाय इस पृथ्वी- पर वेदोक्त धर्मका पालन न हो और दण्डनीति भी उठा दी जाय तो यह सारा जगत् मर्यादाहीन हो जाय ॥३२॥

    यदि यह प्रजा वार्ता-धर्म (कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य ) में प्रवृत्त न हो तो नष्ट हो जायगी। इन तीनोंकी सम्यक् प्रवृत्ति होनेसे प्रजा धर्मका सम्पादन करती है ॥३३॥

    द्विजातियोंका मुख्य धर्म है सत्य ( सत्य भाषण, सत्य- व्यवहार, सद्भाव ) यह धर्मका एक प्रधान लक्षण है । यज्ञ, स्वाध्याय और दान- ये तीन धर्म द्विजमात्र के सामान्य धर्म माने गये हैं। यज्ञ कराना, वेद और शास्त्रोंको पढ़ाना तथा दान ग्रहण करना - यह ब्राह्मणका ही आजीविकाप्रधान धर्म है। प्रजापालन क्षत्रियोंका और पशु-पालन वैदयोंका धर्म है। ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोंकी सेवा करना शूद्रका धर्म बताया गया है। तीनों वर्णोंकी सेवामें रहनेवाले शूद्रोंके लिये भिक्षा, होम और व्रत मना है ॥३४-३६॥

    कुन्तीनन्दन ! सबकी रक्षा करना क्षत्रियका धर्म है, अतः तुम्हारा धर्म भी यही है। अपने धर्मका पालन करो। विनयशील बने रहो और इन्द्रियोंको वशमें रक्खो ॥३७॥

वेद-शास्त्रोंके विद्वान्, बुद्धिमान् तथा बड़े-बड़े श्रेष्ठ पुरुषोंसे सलाह करके उनका कृपापात्र बना हुआ राजा ही दण्डनीतिके द्वारा शासन कर सकता है। जो राजा दुर्व्यसनों आसक्त होता है, उसका पराभव हो जाता है। जब राजा निग्रह और अनुग्रहके द्वारा प्रजावर्ग के साथ यथोचित बर्ताव करता है, तभी लोककी सम्पूर्ण मर्यादाएँ सुरक्षित होती हैं। इसलिये राजाको उचित है कि वह देश और दुर्गमें अपने शत्रु और मित्रोंके सैनिकों की स्थिति वृद्धि और क्षयका गुप्तचरोंद्वारा सदा पता लगाता रहे ।।३८-४०॥

    साम, दान, दण्ड, भेद ये चार उपाय, गुप्तचर, उत्तम बुद्धि, सुरक्षित मन्त्रणा, पराक्रम, निग्रह, अनुग्रह और चतुरता - ये राजाओंके लिये कार्य सिद्धिके साधन हैं ॥४१।।

   साम, दान, भेद, दण्ड और उपेक्षा- इन नीतियोंमें- से एक-दोके द्वारा या सबके एक साथ प्रयोगद्वारा राजाओं को अपने कार्य सिद्ध करने चाहिये, भरतश्रेष्ठ ! सारी नीतियों और गुप्तचरोंका मूल आधार है मन्त्रणाको गुप्त रखना । उत्तम मन्त्रणा या विचारसे जो सिद्धि प्राप्त होती है, उसके लिये द्विजों के साथ गुप्त परामर्श करना चाहिये, स्त्री, मूर्ख, बालक, लोभी और नीच पुरुषोंके साथ तथा जिसमें उन्मादका लक्षण दिखायी दे उसके साथ भी गुप्त परामर्श न करे ।।४२-४४॥

    विद्वानों के साथ ही गुप्त मन्त्रणा करनी चाहिये। जो शक्ति- शाली हों, उन्हीं कार्य कराने चाहिये। जो स्नेही (सुहृद् ) हों, उन्हीं के द्वारा नीतिके प्रयोगका काम कराना चाहिये । मूर्खो- को तो सभी कार्यों से अलग रखना चाहिये ।।४५।।

   राजाको चाहिये कि वह धर्मके कार्यों में धार्मिक पुरुषों- को, अर्थसम्बन्धी कार्यों में अर्थ शास्त्र के पण्डितको स्त्रियों की देख-भालके लिये नपुंसकों को और कठोर कार्यमें क्रूर स्वभाव- के मनुष्यों को लगाये ।।४६।।

    बहुत से कार्यको आरम्भ करते समय अपने तथा शत्रु- पक्ष के लोगोंसे भी यह सलाह लेनी चाहिये कि अमुक काम करने योग्य है या नहीं। साथ ही शत्रुकी प्रबलता और दुर्बलता को भी जानने का प्रयत्न करना चाहिये ।।४७।।

    बुद्धिसे सोच-विचारकर अपनी शरण में आये हुए श्रेष्ठ कर्म करनेवाले पुरुषोंपर अनुग्रह करना चाहिये और मर्यादा भङ्ग करनेवाले दुष्ट पुरुषोंको दण्ड देना चाहिये, जब राजा निग्रह और अनुग्रहमें ठोक तौरसे प्रवृत्त होता है, तभी लोककी मर्यादा सुरक्षित रहती है। कुन्तीनन्दन ! यह मैंने तुम्हें कठोर राज्य धर्मका उपदेश दिया है । इसके मर्मको समझना अत्यन्त कठिन है । तुम अपने धर्म के विभागानुसार विनीत भाव से इसका पालन करो, जैसे तपस्या, धर्म, इन्द्रिय-संयम और यज्ञानुष्ठान के द्वारा ब्राह्मण उत्तम लोकमें जाते हैं तथा जिस प्रकार वैश्य दान और आतिथ्यरूप धर्मेंस उत्तम गति प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार इस लोक में निग्रह और अनुग्रहके यथोचित प्रयोगसे क्षत्रिय स्वर्गलोक में जाता है जिनके द्वारा दण्डनीतिका उचित रीति से प्रयोग किया गया है, जो राग-द्वेषसे रहित, लोभशून्य तथा क्रोधहीन है; वे क्षत्रिय सत्पुरुषोंको प्राप्त होनेवाले लोकों में जाते हैं ।।४८-५२॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापत्र में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में हनुमानजी और भीमसेनका संवादविषयक एक सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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