सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ इकतालीसवें अध्याय से एक सौ पैतालीसवें तक (From the 141 to the 145 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय

"युधिष्ठिर का भीमसेन से अर्जुनको न देखने के कारण मानसिक चिन्ता प्रकट करना एवं उनके गुणों का स्मरण करते हुए गन्धमादन पर्वतपर जानेका दृढ़ निश्चय करना"

   युधिष्ठिर बोले ;- भीमसेन, नकुल सहदेव और द्रौपदी ! तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो। यह निश्चय है कि पूर्वकृत कर्मोंका बिना भोगे कभी नाश नहीं होता देखो, उन्हींके कारण आज हम राजकुमार होकर भी वन- वन में भटक रहे हैं ॥१॥

    यद्यपि हमलोग दुर्बल हैं, क्लेशमें पड़े हुए जो एक-दूसरे से उत्साहपूर्वक बातें करते हैं और जहाँ जाना सम्भव नहीं, उस मार्गपर भी आगे बढ़ते जा रहे हैं उसमें एक ही कारण है, हम सबके हृदयमें अर्जुनको देखनेके लिये प्रबल उत्कण्ठा है। इतना प्रयास करनेपर भी मैं वीर धनंजयको जो अबतक अपने समीप नहीं देख पा रहा हूँ, इसकी चिन्ता मेरे सम्पूर्ण अङ्गको उसी प्रकार दग्ध कर रही है, जैसे आग रूईके ढेरको जलाती रहती है ॥२-३॥

   उसीके दर्शन की प्यास लेकर मैं भाइयोसहित इस वन में आया हूँ। वीर भीमसेन ! दुःशासनने जो द्रौपदीके केश पकड़ लिये थे, वह घटना याद आकर मुझे और भी शोकसे दग्ध कर देती है,

   वृकोदर ! भयंकर धनुष धारण करनेवाले अजेय वीर अमित तेजस्वी अर्जुनको, जो नकुलसे पहले उत्पन्न हुआ है, मैं अबतक नहीं देख रहा हूँ, इसके कारण मुझे बड़ा संताप हो रहा है। अर्जुनको देखनेकी ही अभिलाषासे मैं तुमलोगों के साथ विभिन्न तीर्थों में, रमणीय वनोंमें और सुन्दर सरोवरों के तटपर विचर रहा हूँ, भीमसेन ! आज पाँच वर्ष हो गये, मैं अपने वीर भाई सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन के दर्शन से वञ्चित हो गया हूँ। इसके कारण मुझे बड़ी चिन्ता हो रही है ॥४-७॥

    वृकोदर ! सिंहके समान मस्तानी चालसे चलनेवाले निद्राविजयी, श्यामवर्ण महाबाहु अर्जुनको नहीं देख पा रहा हूँ, इसलिये मेरे मनमें बड़ा संताप हो रहा है ॥८॥

     कुरुश्रेष्ठ भीमसेन ! अस्त्रविद्या में प्रवीण, युद्धकुशल और अनुपम धनुर्धर उस अर्जुनको नहीं देखता हूँ, इस कारण मुझे बड़ा कष्ट होता है ॥९॥

   जो युद्धके समय शत्रुओंके समूहमें कुपित यमराजकी भाँति विचरता है, जिसके कंधे सिंहके समान हैं तथा जो मदकी धारा बहाने वाले मत्त गजराजके समान शोभा पाता है, उस वीर धनंजयसे अबतक भेंट न हो सकी; इसका मुझे बड़ा दुःख है ।।१०।।

    वृकोदर ! जो पराक्रम और सम्पत्ति में देवराज इन्द्रसे तनिक भी कम नहीं है, जिसके रथ के घोड़े श्वेत रंगके हैं, जो नकुल सहदेवसे अवस्था में बड़ा है, जिसके पराक्रमकी कोई सीमा नहीं है तथा जो उग्रधनुर्धर एवं अजेय है, उस वीरवर अर्जुन के दर्शन से मैं वञ्चित हूँ, इसके लिये मुझे महान् कष्ट हो रहा है। मैं चिन्ताकी आग में जला जा रहा हूँ ।।११-१२।।

   जो छोटे लोगों के आक्षेप करनेपर भी सदा क्षमाशील होने के कारण उस आक्षेपको सह लेता है तथा सरल मार्ग से अपनी शरणमें आनेवाले लोगोंको सुख पहुँचाकर उन्हें अभयदान देता है, वही अर्जुन, जब कोई कुटिल मार्गका आश्रय ले छल-कपटसे उसपर आघात करना चाहता है, तब वह वज्रधारी इन्द्र ही क्यों न हो, उसके लिये काल और विपके समान भयंकर हो जाता है ।।१३-१४॥

    यदि शत्रु भी शरण में आ जाय तो वह प्रतापी वीर उसके प्रति दयालु हो जाता और उसे निर्भय कर देता है। वह महाबली महामना अर्जुन ही हमलोगोंका सहारा है। वही समराङ्गण में हमारे शत्रुओंको रौंद डालने की शक्ति रखता है । उसीने हमारे लिये सब प्रकारके रत्न लाकर सुलभ किये थे और वही हम सबको सदा सुख पहुँचानेवाला है ।।१५-१६।।

जिसके पराक्रम से हमारे पास पहले अनेक प्रकारकी असंख्य रत्नराशि संचित हो गयी थी, जिसे सुयोधनने ले लिया, वीर भीमसेन ! जिसके बाहुबलसे पहले मेरे अधिकार में सम्पूर्ण रत्नोंकी बनी हुई त्रिभुवनविख्यात सभा थी ॥१७-१८॥

   जो पराक्रममें भगवान् श्रीकृष्ण और युद्धमें कार्तवीर्य अर्जुन के समान है तथा जो समरभूमिमें एक होकर भी असंख्य- सा प्रतीत होता है, उस अजेय वीर अर्जुनको मैं बहुत दिनोंसे नहीं देख पाता हूँ ।।१९॥

  भीमसेन ! शत्रुनाशक अर्जुन अपने पराक्रमसे महाबली बलरामकी, तुझ अपराजित वीरकी और वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णकी समानता कर सकता है ।।२०।।

  महाबाहो ! जो बाहुबल और प्रभावमें देवराज इन्द्रके समान है, जिसके वेगमें वायुः मुखमें चन्द्रमा और क्रोधमें सनातन मृत्युका निवास है, उसी नरश्रेष्ठ अर्जुनको देखनेके लिये उत्सुक होकर हम सब लोग आज गन्धमादन पर्वतकी घाटियोंमें प्रवेश करेंगे ।।२१-२२।।

   गन्धमादन वही है, जहाँ विशाल बदरीका वृक्ष और भगवान् नर-नारायणका आश्रम है; उस उत्तम पर्वतपर सदा यक्षगण निवास करते हैं; हमलोग उसका दर्शन करेंगे। इसके सिवा राक्षसोंद्वारा सेवित कुबेरकी सुरम्य पुष्करिणी भी है, जहाँ हमलोग भारी तपस्या करते हुए पैदल ही चलेंगे ।।२३-२४॥

भरतनन्दन ! वृकोदर उस प्रदेशमें किसी सवारीसे नहीं जाया जा सकता तथा जो क्रूर, लोभी और अशान्त है, ऐसे मनुष्य के लिये श्रद्धाकी कमी के कारण उस स्थानपर जाना असम्भव है ॥२५।।

भीमसेन ! हम सब लोग अर्जुनकी खोज करते हुए तलवार बाँधकर अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसजित हो इन महान् व्रतधारी ब्राह्मणों के साथ वहाँ चलेंगे ॥२६॥

   भीमसेन ! जो अपने मन और इन्द्रियोंपर संयम नहीं रखता, ऐसे मनुष्यको वहाँ जानेपर मक्खी, डाँस, मच्छर, सिंह, व्याघ्र और सर्पका सामना करना पड़ता है, परंतु जो संयम-नियमसे रहनेवाला है, उसे उन जन्तुओंका दर्शन तक नहीं होता, अतः हमलोग भी अर्जुनको देखनेकी इच्छासे अपने मनको संयम में रखकर स्वल्पाहार करते हुए गन्धमादनकी पर्वतमालाओं में प्रवेश करेंगे ॥२७-२८॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ बयालीसवाँ अध्याय

"पाण्डवों द्वारा गङ्गाजी की वन्दना, लोमशजी का नरकासुर के वध और भगवान् वाराहद्वारा वसुधा के उद्धार की कथा कहना"

   सब पर्वतोंके दर्शन कर लिये । नगरों और वनोंसहित नदियोंका भी अवलोकन किया। शोभाशाली तीर्थों के भी दर्शन किये और उन सबके जलका अपने हाथोंसे स्पर्श भी कर लिया ॥१॥

   पाण्डवो ! यह मार्ग दिव्य मन्दराचलकी ओर जायगा अब तुम सब लोग उद्वेगशून्य और एकाग्रचित्त हो जाओ । यह देवताओंका निवासस्थान है, जिसपर तुम्हें चलना होगा । यहाँ पुण्यकर्म करनेवाले दिव्य ऋषियोंका भी निवास है ।।२-३।।

   सौम्य स्वभाववाले नरेश ! यह कल्याणमय जलसे भरी हुई पुण्यस्वरूपा महानदी अलकनन्दा (गङ्गा ) प्रवाहित होती है, जो देवर्षियों के समुदायसे सेवित है । इसका प्रादुर्भाव बदरिकाश्रमसे ही हुआ है, आकाशचारी महात्मा बालखिल्य तथा महामना गन्धर्वगण भी नित्य इसके तटपर आते-जाते हैं और इसकी पूजा करते हैं। सामगान करनेवाले विद्वान् वेदमन्त्रोंकी पुण्यमयी ध्वनि फैलाते हुए यहाँ सामवेद की ऋचाओंका गान करते हैं। मरीचि, पुलह, भृगु तथा अङ्गिरा भी यहाँ जप एवं स्वाध्याय करते हैं ।।४-६।।

   देवश्रेष्ठ इन्द्र भी मरुद्गणोंके साथ यहाँ आकर प्रति- दिन नियमपूर्वक जप करते हैं । उस समय साध्य तथा अश्विनीकुमार भी उनकी परिचर्या में रहते हैं। चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह और नक्षत्र भी दिन-रातके विभाग- पूर्वक इस पुण्य नदीकी यात्रा करते हैं, महाभाग ! गङ्गाद्वार ( हरिद्वार) में साक्षात् भगवान् शंकर ने इसके पावन जलको अपने मस्तकपर धारण किया है, जिससे जगत्की रक्षा हो ॥७-९॥

   तात ! तुम सब लोग मनको संयम में रखते हुए इस ऐश्वर्यशालिनी दिव्य नदीके तटपर चलकर इसे सादर प्रणाम करो ॥१०॥

  महात्मा लोमशका यह वचन सुनकर सब पाण्डवोंने संयतचित्तसे भगवती आकाशगङ्गा (अलकनन्दा ) को प्रणाम किया ।।११।।

  प्रणाम करके धर्मका आचरण करनेवाले वे समस्त पाण्डव पुनः सम्पूर्ण ऋषि-मुनियों के साथ हर्षपूर्वक आगे बढ़े ।।१२।।

   तदनन्तर उन नरश्रेष्ठ पाण्डवोंने एक श्वेत पर्वत-सा देखा, जो मेरुगिरिके समान दूरसे ही प्रकाशित हो रहा था । वह सम्पूर्ण दिशाओं में बिखरा जान पड़ता था ॥१३॥

लोमशजी ताड़ गये कि पाण्डव लोग उस श्वेत पर्वताकार वस्तुके विषय में कुछ पूछना चाहते हैं, तब प्रवचनकी कला जाननेवाले उन महर्षिने कहा,,

  लोमश जी बोले ;- 'पाण्डवो ! सुनो, ! यह जो सब ओर बिखरी हुई कैलास शिखर के समान सुन्दर प्रकाशयुक्त पर्वताकार वस्तु देख रहे हो, ये सब विशालकाय नरकासुरकी हड्डियाँ हैं । पर्वत और शिलाखण्डोंपर स्थित होनेके कारण ये भी पर्वत के समान ही प्रतीत होती हैं ।।१५-१६॥

   'पुरातन परमात्मा श्रीविष्णुदेवने देवराज इन्द्रका हित करने की इच्छासे उस दैत्यका वध किया था, 'वह महामना दैत्य दस हजार वर्षोंतक कठोर तपस्या करके तप, स्वाध्याय और पराक्रम से इन्द्रका स्थान लेना चाहता था ॥१७-१८॥

   अपने महान् तपोबल तथा वेगयुक्त बाहुबलसे वह देवताओं के लिये सदा अजेय बना रहता था और स्वयं सब देवताओंको सताया करता था ॥१९॥

'निष्पाप युधिष्ठिर ! नरकासुर बलवान् तो था ही, धर्मके लिये भी उसने कितने ही उत्तम व्रतोंका आचरण किया था, यह सब जानकर इन्द्रको बड़ा भय हुआ, वे घबरा उठे ॥२०॥

   "तब उन्होंने मन-ही-मन अविनाशी भगवान् विष्णुका चिन्तन किया, उनके स्मरण करते ही सर्वव्यापी भगवान् श्रीपति वहाँ उपस्थित हो प्रकाशित हुए ॥२१॥

    'उस समय सभी देवताओं तथा ऋषियोंने उनकी स्तुति की। उन्हें देखते ही प्रज्वलित कान्तिसे सुशोभित भगवान् अग्निदेवका तेज नष्ट-सा हो गया। वे श्रीहरिके तेजसे तिरस्कृत हो गये। समस्त देवसमुदाय के स्वामी एवं वरदायक भगवान् विष्णुका दर्शन करके वज्रधारी इन्द्रने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और बार बार मस्तक झुकाया तदनन्तर वे सारी बातें भगवान् से कह सुनायीं, जिनके कारण उन्हें उस दैत्यसे भय हो रहा था' ।।२२-२४॥

   तब भगवान् विष्णु ने कहा ;-- इन्द्र ! मैं जानता हूँ, तुम्हें दैत्यराज नरकासुरसे भय प्राप्त हुआ है। वह अपने तपः- सिद्ध कर्मीद्वारा इन्द्रपदको लेना चाहता है ।।२५।।

देवेन्द्र ! यद्यपि तपस्याद्वारा उसे सिद्धि प्राप्त हो चुकी है तो भी मैं तुम्हारे प्रेमवश निश्चय ही उस दैत्यको मार डालूँगा, तुम थोड़ी देर और प्रतीक्षा करो, ऐसा कहकर महातेजस्वी भगवान् विष्णुने हाथसे मार- कर उस दैत्य के प्राण हर लिये और वह वज्रके मारे हुए गिरिराजकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २६-२७।।

    इस प्रकार मायाद्वारा मारे गये उस दैत्यकी हड्डियोंका यह समूह दिखायी देता है। अब मैं भगवान् विष्णुका यह दूसरा पराक्रम बता रहा हूँ, जो सर्वत्र प्रकाशमान है ॥२८॥

एक समय सारी पृथ्वी एकार्णवके जलमें डूबकर अदृश्य हो गयी, पातालमें डूब गयी। उस समय भगवान् विष्णुने पर्वत शिखरके सदृश एक दाँतवाले वाराहका रूप धारण करके पुनः इसका उद्धार किया था ।।२९।।

युधिष्ठिर ने पूछा ;- भगवन् ! देवेश्वर भगवान् विष्णुने पातालमें सैकड़ों योजन नीचे डूबी हुई इस पृथ्वीका पुनरुद्धार किस प्रकार किया ? आप इस कथाको यथार्थरूपसे और विस्तारपूर्वक कहिये, जगत्का भार धारण करनेवाली इस अचला पृथ्वीका उद्धार करने के लिये उन्होंने किस उपायका अवलम्बन किया ? ।।३०-३१॥

  सम्पूर्ण सस्यों का उत्पादन करनेवाली यह कल्याणमयी महाभागा वसुधादेवी किसके प्रभाव से सैकड़ों योजन नीचे धँस गयी थी, परमात्मा के उस अद्भुत पराक्रमका दर्शन ( ज्ञान ) किसने कराया था ? द्विजश्रेष्ठ यह सब मैं यथार्थरूपसे विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ । आप इस वृत्तान्तके आश्रय ( ज्ञाता ) हैं ॥३२-३३॥

   लोमशजीने कहा ;-- युधिष्ठिर ! तुमने जिसके विषय में मुझसे प्रश्न किया है, वह कथा वह सारा वृत्तान्त में बता रहा हूँ, सुनो ॥३४॥

   तात ! इस कल्पके प्रथम सत्ययुगकी बात है, एक समय बड़ी भयंकर परिस्थिति उत्पन्न हो गयी थी। उस समय आदिदेव पुरातन पुरुष भगवान् श्रीहरि ही यमराजका भी कार्य सम्पन्न करते थे ।।३५।।

  युधिष्ठिर परम बुद्धिमान् देवदेव भगवान् श्रीहरिके यमराजका कार्य सँभालते समय किसी भी प्राणी की मृत्यु नहीं होती थी; परंतु उत्पत्तिका कार्य पूर्ववत् चलता रहा ॥३६॥

  फिर तो पक्षियों के समूह बढ़ने लगे। गाय, बैल, भेड़- बकरे आदि पशु, घोड़े, मृग तथा मांसाहारी जीव सभी बढ़ने लगे ॥३७॥

  शत्रुओंको संताप देनेवाले नरश्रेष्ठ ! जैसे बरसातमें पानी बढ़ता है, उसी प्रकार मनुष्य भी हजार एवं दस हजार गुनी संख्या में बढ़ने लगे ।।३८॥

   तात ! इस प्रकार सब प्राणियों की वृद्धि होनेसे जब बड़ी भयंकर अवस्था आ गयी, तब अत्यन्त भारसे दबकर यह पृथ्वी सैकड़ों योजन नीचे चली गयी ॥३९॥

  भारी भारके कारण पृथ्वी देवीके सम्पूर्ण अङ्गोंमें बड़ी पीड़ा हो रही थी। उसकी चेतना लुप्त होती जा रही थी। अतः वह सर्वश्रेष्ठ देवता भगवान् नारायणकी शरण में गयी ।।४०।।

  पृथ्वी बोली ;- भगवन् ! आप ऐसी कृपा करें, जिससे मैं दीर्घ कालतक यहाँ स्थिर रह सकूँ । इस समय मैं भारसे इतनी दब गयी हूँ कि जीवन धारण नहीं कर सकती ॥४१॥

  भगवन् ! मेरे इस भारको आप दूर करने की कृपा करें देव! मैं आपको शरण में आयी हूँ। विभो ! मुझपर कृपाप्रसाद कीजिये ॥४२॥

  पृथ्वीका यह वचन सुनकर अविनाशी भगवान् नारायण-ने प्रसन्न होकर श्रवणमधुर अक्षरोंसे युक्त मीठी वाणीमें कहा ।।४३।।

  भगवान् विष्णु बोले ;- वसुधे ! तू भारसे पीडित है; किंतु अब उसके लिये भय न कर मैं अभी ऐसा उपाय करता हूँ, जिससे तू हल्की हो जायगी ॥ ४४ ॥

  लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर पर्वतरूनी कुण्डलोंसे विभूषित वसुधादेवीको विदा करके महातेजस्वी भगवान् विष्णुने वाराहका रूप धारण कर लिया। उस समय उनके एक ही दाँत था, जो पर्वत शिखर के समान सुशोभित होता था ॥४५।।

    वे अपने लाल-लाल नेत्रोंसे मानो भय उत्पन्न कर रहे थे और अपनी अङ्गकान्तिसे धूम प्रकट करते हुए उस स्थानपर बढ़ने लगे, वीर युधिष्ठिर ! अविनाशी भगवान् विष्णुने अपने एक ही तेजस्वी दाँतके द्वारा पृथ्वी को थामकर उसे सौ योजन ऊपर उठा दिया पृथ्वी को उठाते समय सब ओर भारी हलचल मच गयी । सम्पूर्ण देवता तथा तपस्वी ऋषिक्षुब्ध हो उठे ॥४६-४८॥

   स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूलोक सबमे अत्यन्त हाहाकार मच गया। कोई भी देवता या मनुष्य स्थिर नहीं रह सका तब अनेक देवता और ऋषि ब्रह्माजी के समीप गये । उस समय वे अपने आसनपर बैठकर दिव्य कान्तिसे प्रकाशित हो रहे थे ।।४९-५०॥

लोकसाक्षी देवेश्वर ब्रह्मा के निकट पहुँचकर सबने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा,, -- ॥५१॥

   देवगण बोले ;- देवेश्वर सम्पूर्ण लोकोंमें हलचल मच गयी है। चर और अचर सभी प्राणी व्याकुल हैं समुद्रोंमें बड़ा भारी क्षोभ दिखायी दे रहा है ॥५२॥

   "यह सारी पृथ्वी सैकड़ों योजन नीचे चली गयी थी, अब यह किसके प्रभाव से कौन-सी अद्भुत घटना घटित हो रही है, जिससे सारा संसार व्याकुल हो उठा है आप शीघ्र हमें इसका कारण बताइये। हम सब लोग अचेत-से हो रहे हैं ।।५३।।

   ब्रह्माजीने कहा ;- देवताओ ! तुम्हें असुरोंसे कभी और कोई भय नहीं है। यह जो चारों ओर क्षोभ फैल रहा हैं, इसका क्या कारण है ? वह सुनो। वे जो सर्वव्यापी अक्षर- स्वरूप श्रीमान् भगवान् नारायण हैं, उन्हींके प्रभावसे यह स्वर्गलोक में क्षोभ प्रकट हो रहा है ।। ५४-५५ ।।

   यह सारी पृथ्वी, जो सैकड़ों योजन नीचे चली गयी थी, इसे परमात्मा श्री विष्णुने पुनः ऊपर उठाया है ॥५६॥

   इस पृथ्वीका उद्धार करते समय ही सब ओर यह महान् क्षोभ प्रकट हुआ है। इस प्रकार तुम्हें इस विश्वव्यापी हलचलका यथार्थ कारण ज्ञात होना और तुम्हारा आन्तरिक संशय दूर हो जाना चाहिये ॥ ५७ ॥

   देवता बोले ;- भगवन् ! वे वराहरूपधारी भगवान् प्रसन्न से होकर कहाँ पृथ्वीका उद्धार कर रहे हैं, उस प्रदेशका पता हमें बताइये; हम सब लोग वहाँ जायेंगे ।।५८।।

ब्रह्माजी ने कहा ;- देवताओ ! बड़े हर्षकी बात है, जाओ तुम्हारा कल्याण हो। भगवान् नन्दनवनमें विराज- मान हैं। वहीं उनका दर्शन करो। उस बनके निकट ये स्वर्ण- के समान सुन्दर रोमवाले परम कान्तिमान् विश्वभावन भगवान् श्रीविष्णु वाराहरूपसे प्रकाशित हो रहे हैं। भूतलका उद्धार करते हुए वे प्रलयकालीन अभिके समान उद्भासित होते हैं ।।५९-६०।।

इनके वक्षःस्थल में स्पष्टरूपसे श्रीवत्सचिह्न प्रकाशित हो रहा है। देवताओ ! ये रोग-शोक से रहित साक्षात् भगवान् ही वाराहरूपसे प्रकट हुए हैं, तुम सब लोग इनका दर्शन करो ।।६१।।

   लोमशजी कहते हैं ;-- युधिष्ठिर ! तदनन्तर देवताओंने जाकर वाराहरूपधारी परमात्मा श्रीविष्णुका दर्शन किया, उनकी महिमा सुनी और उनकी आज्ञा लेकर वे ब्रह्माजीको आगे करके जैसे आये थे, वैसे लौट गये ॥६२॥

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय ! यह कथा सुन कर सब पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए और लोमशजीके बताये हुए मार्गसे शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ गये ।।६३।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमश तीर्थयात्राके प्रसंग गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ तैतालिसवाँ अध्याय

"गन्धमादन की यात्रा के समय पाण्डवोंका आँधी-पानी से सामना"

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय तदनन्तर सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें अग्रगण्य वे अमिततेजस्वी शूरवीर पाण्डव धनुष, बाण, तरकश ढाल और तलवार लिये, हाथोंमें गोहके चमड़े के बने दस्ताने पहने और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको आगे किये द्रौपदीके साथ गन्धमादन पर्वतकी ओर प्रस्थितं हुए ॥१-२॥

   पर्वतके शिखरपर उन्होंने बहुत-से सरोवर, सरिताएँ, पर्वत, वन तथा घनी छायावाले वृक्ष देखे, उन्हें कितने ही ऐसे स्थान दृष्टिगोचर हुए, जहाँ सदा फल और फूलों की बहुतायत रहती थी। उन प्रदेशों में देवर्षियों के समुदाय निवास करते थे वीर पाण्डव अपने मनको परमात्मा के चिन्तनमें लगाकर फलमूलका आहार करते हुए ऊँचे-नीचे विषम-संकटपूर्ण स्थानोंमें विचर रहे थे। मार्ग उन्हें नाना प्रकारके मृगसमूह दिखायी देते थे, जिनकी संख्या बहुत थी ॥३-५॥

    इस प्रकार उन महात्मा पाण्डवोंने गन्धवों और अप्सराओकी प्रिय भूमि, किन्नरों की क्रीडास्थली तथा ऋषियों, सिद्धों और देवताओंके निवासस्थान गन्धमादन पर्वतकी घाटी में प्रवेश किया,

राजन् ! वीर पाण्डवोंके गन्धमादन पर्वतपर पदार्पण करते ही प्रचण्ड आँधी के साथ बड़े जोरकी वर्षा होने लगी ।।६-७।।

  फिर धूल और पति भरा हुआ बड़ा भारी बवंडर (आँधी) उठा, जिसने पृथ्वी अन्तरिक्ष तथा स्वर्गको भी सहसा आच्छादित कर दिया ॥ ८ ॥

   धूल से आकाशके ढक जाने से कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था; इसलिये वे एक दूसरे से बातचीत भी नहीं कर पाते थे; अन्धकारने आँखोंपर पर्दा डाल दिया था। जिससे पाण्डवलोग एक दूसरेके दर्शन से भी वञ्चित हो गये थे । भारत ! पत्थरोंका चूर्ण बिखेरती हुई वायु उन्हें कहीं से कहीं खींच लिये जाती थी ।।९-१०।।

   प्रचण्ड वायुके वेग से टूटकर निरन्तर धरती पर गिरनेवाले वृक्षों तथा अन्य झाड़ोंका भयंकर शब्द सुनायी पड़ता था, हवा के झोंके से मोहित होकर वे सब के सब मन-ही-मन सोचने लगे कि आकाश तो नहीं फट पड़ा है। पृथ्वी तो नहीं विदीर्ण हो रही है अथवा कोई पर्वत तो नहीं फटा जा रहा है ।।११-१२।।

   तत्यपश्चात ये रास्तेके आस-पास के वृक्षों: मिट्टी के ढेरों और ऊँचे-नीचे स्थानोंको हाथ से टटोलते हुए हवा से डरकर यत्र-तत्र छिपने लगे ॥१३॥ 

  उस समय महाबली भीमसेन हाथ में धनुष लिये द्रौपदी- को अपने साथ रखकर एक वृक्ष के सहारे खड़े हो गये ।।१४।।

धर्मराज युधिष्ठिर और पुरोहित धौम्य अग्निहोत्रकी सामग्री लिये उस महान् वनमें कहीं जा छिपे सहदेव पर्वत- पर ही ( कहीं सुरक्षित स्थान में ) छिप गये ॥ १५।।

   नकुल, अन्यान्य ब्राह्मणलोग तथा महातपस्वी लोमशजी भी भयभीत होकर जहाँ-तहाँ वृक्षोंकी आड़ लेकर छिपे रहे ॥१६।।

   थोड़ी देर में जब वायुका वेग कुछ कम हुआ और धूल उड़नी बंद हो गयी, उस समय बड़ी भारी जलधारा बरसने लगी । तदनन्तर वज्रपातके समान मेघोंकी गड़गड़ाहट होने लगी और मेघमाला ओंमें चारों ओर चञ्चल चमकवाली बिजलियाँ संचरण करने लगीं ।।१७-१८।।

   तत्पश्चात् तीव्र वायुसे प्रेरित हो समस्त दिशाओंको आच्छादित करती हुई ओर्लोसहित जलकी धाराएँ अविराम गति से गिरने लगीं ॥१९॥

   महाराज ! वहाँ चारों ओर बिखरी हुई जलराशि समुद्र- गामिनी नदियोंके रूपमें प्रकट हो गयी, जो मिट्टी मिल जाने से मलिन दीख पड़ती थी। उसमें झाग उठ रहे थे ॥२०॥

   फेनरूपी नौकासे व्याप्त अगाध जलसमूहको बहाती हुई सरिताएँ टूट कर गिरे हुए वृक्षों को अपनी लहरोंसे समेटकर जोर-जोर से 'हर-हर' ध्वनि करती हुई यह रहीं थीं ॥२१॥

भारत ! थोड़ी देर बाद जब तूफानका कोलाहल शान्त हुआ वायुका वेग कम एवं सम हो गया, पर्वतका सारा जल बहकर नीचे चला गया और बादलोंका आवरण दूर हो जानेसे सूर्यदेव प्रकाशित हो उठे उस समय वे समस्त वीर पाण्डव धीरे-धीरे अपने स्थानसे निकले और गन्धमादन पर्वतकी ओर प्रस्थित हो गये ।।२२-२३।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसङ्ग गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १४३ ।।

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय

"द्रौपदी की मूर्छा, पाण्डवों के उपचार से उसका सचेत होना तथा भीमसेन के स्मरण करने पर घटोत्कच का आगमन"

वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! महात्मा पाण्डव अभी कोसभर ही गये होंगे कि पाञ्चालराजकुमारी तपस्विनी द्रौपदी सुकुमारताके कारण थककर बैठ गयी।

वह पैदल चलने योग्य कदापि नहीं थी। उस भयानक वायु और वर्षा पीडित हो दुःखमग्न होकर वह मूर्छित होने लगी थी ।। १-२ ।।

घबराहटसे काँपती हुई कजरारे नेत्रोंवाली कृष्णाने अपने गोल-गोल और सुन्दर हाथोंसे दोनों जाँघको थाम लिया ॥३।।

हाथीकी सूँड़के समान चढ़ाव उतारवाली परस्पर सटी हुई जाँघों का सहारा ले केलेके वृक्षकी भाँति काँपती हुई वह सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी सुन्दर अङ्गोंवाली द्रौपदीको टूटी हुई लताकी भाँति गिरती देख बलशाली नकुलने दौड़- कर थाम लिया ॥ ४-५ ॥

तत्पश्चात् नकुल ने कहा- भरतकुलभूषण महाराज ! यह श्याम नेत्रवाली पाञ्चालराजकुमारी द्रौपदी थककर धरतीपर गिर पड़ी है, आप आकर इसे देखिये ।।६ ।।

राजन् यह मन्दगति से चलनेवाली देवी दुःख सहन करने के योग्य नहीं है; तो भी इसपर महान् दुःख आ पड़ा है रास्तेके परिश्रमसे यह दुर्बल हो गयी है। आप आकर इसे सान्त्वना दें ॥ ७ ॥

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! नकुलकी यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर अत्यन्त दुखी हो गये और भीम तथा सहदेव के साथ सहसा वहाँ दौड़े आये ॥ ८ ॥

धर्मात्मा कुन्तीनन्दनने देखा - द्रौपदी के मुखको कान्ति फीकी पड़ गयी है और उसका शरीर कृश हो गया है। तब वे उसे अङ्कमें लेकर शोकातुर हो विलाप करने लगे ॥ ९ ॥

युधिष्ठिर बोले- अहो ! जो सुरक्षित सदनोंमें सुसजित सुकोमल शय्या पर शयन करने योग्य है, वह सुख भोगनेकी अधिकारिणी परम सुन्दरी कृष्णा आज पृथ्वीपर कैसे सो रही है ? ।।१०।।

जो सुख श्रेष्ठ साधनका उपभोग करनेयोग्य है। उसी द्वीपदाके से दोनों सुकुमार चरण और कमलकी कान्ति से सुशोभित मुख आज मेरे कारण कैसे काले पड़ गये हैं ? ।।११।।

मुझे मूर्खने की कामनामें फँसकर यह क्या कर डाला ? अहो ! सहस्रों मृगसमूहों से भरे हुए इस भयानक वनमें द्रौपदीको साथ लेकर हमें विचरना पड़ा है ॥ १२ ॥

इसके पिता राजा द्रुपद ने इस विशाललोचना द्रौपदीको यह कहकर हमें प्रदान किया था कि कल्याणि ! तुम पाण्डवों को पतिरूपमें पाकर सुखी होगी । परंतु मुझ पापीकी करतूतोंसे वह सब न पाकर यह परिश्रम, शोक और मार्गके कष्टते कृश होकर आज पृथ्वीपर पड़ी सो रही है ।। १३-१४।।

वैशम्पायनजी कहते है-जनमे धर्मराज युधिष्ठिर जब इस प्रकार विलाप कर रहे थे, उसी समय धौम्य आदि समस्त श्रेष्ठ ब्राह्मण भी वहाँ आ पहुँचे || १५ ॥

उन्होंने महाराजको आश्वासन दिया और अनेक प्रकारके आशीर्वाद देकर उन्हें सम्मानित किया । तत्पश्चात् वे राक्षसों- का विनाश करनेवाले मन्त्रोंका जप तथा शान्तिकर्म करने लगे ।। १६ ।।

महर्षियोंद्वारा शान्तिके लिये मन्त्रपाठ होते समय पाण्डवोंने अपने शीतल हाथोंसे बारवार द्रौपदी के अङ्गको सहलाया ॥ १७ ॥

जलका स्पर्श करके बहती हुई शीतल वायुने भी उसे सुख पहुँचाया। इस प्रकार कुछ आराम मिलनेपर पाञ्चाल- राजकुमारी द्रौपदीको धीरे-धीरे चेत हुआ ।। १८ ।।

होश में आनेपर दीनावस्था में पड़ी हुई तपस्विनी


द्रौपदीको पकड़कर पाण्डवोंने मृगचर्म के विस्तरपर सुलाया और उसे विश्राम कराया । नकुल और सहदेवने धनुषकी रगड़के चिह्नले सुशोभित दोनों हाथद्वारा उसके लाल तलबोंसे युक्त और उत्तम लक्षणोंसे अलङ्कृत दोनों चरणोंको धीरे-धीरे दबाया ।। १९-२० ।।

फिर कुरुश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर ने भी द्रौपदीको बहुत आश्वासन दिया और भीमसेनसे इस प्रकार कहा ॥ २१ ॥

'महाबाहु भीम ! यहाँ बहुत से ऊँचे-नीचे पर्वत हैं, जिनपर चलना बर्कके कारण अत्यन्त कठिन है उनपर द्रौपदी कैसे जा सकेगी ११ ॥ २२ ॥

भीमसेन ने कहा- पुरुषरत्न ! महाराज ! आप मनमें खेद न करें। मैं स्वयं राजकुमारी द्रौपदी, नकुल सहदेव और आपको भी ले चलूँगा || २३ ॥

हिडिम्बाका पुत्र घटोत्कच भी महान पराक्रमी है। वह मेरे ही समान बलवान् है और आकाश में चल-फिर सकता है। अनघ ! आपकी आज्ञा होनेपर वह हम सबको अपनी पीठपर बिठाकर ले चलेगा ॥ २४ ॥

वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! तदनन्तर धर्मराज- की आज्ञा पाकर भीमसेनने अपने राक्षसपुत्रका स्मरण किया । पिताके स्मरण करते ही धर्मात्मा घटोत्कच हाथ जोड़े हुए वहाँ उपस्थित हुआ। उस महाबाहु वीरने पाण्डवों तथा ब्राह्मणको प्रणाम करके उनके द्वारा सम्मानित हो अपने भयंकर पराक्रमी पिता भीमसेनसे कहा,,

  घटोत्कच बोला ;- महाबाहो ! आपने मेरा स्मरण किया है और में शीघ्र ही सेवाकी भावनासे आया हूँ, आज्ञा कीजिये मैं आपका सब कार्य अवश्य ही पूर्ण करूँगा ।' यह सुनकर भीमसेनने राक्षस घटोत्कचको हृदयसे लगा लिया ।।२५-२८।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपत्र के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ पैतालीसवाँ अध्याय

"घटोत्कच और उसके साथियोंकी सहायता से पाण्डवोंका गन्धमादन पर्वत एवं बदरिकाश्रम में प्रवेश तथा वदरीवृक्ष, नरनारायणाश्रम और गङ्गाका वर्णन"

   युधिष्ठिर बोले ;– अत्यन्त भयानक पराक्रम दिखानेवाले भीम ! तुम्हारा औरस पुत्र राक्षसश्रेष्ठ घटोत्कच धर्मश, बलवान्, शूरवीर, सत्यवादी तथा हमलोगोंका भक्त है । यह हमें शीघ्र उठा ले चले जिससे भीमसेन ! तुम्हारे पुत्र घटोत्कचद्वारा शरीरसे किसी प्रकारकी क्षति उठाये बिना ही मैं द्रौपदीसहित गन्धमादन पर्वतपर पहुँच जाऊँ ।।१-२।।

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन् ! भाईकी इस आज्ञाको शिरोधार्य करके नरश्रेष्ठ भीमसेनने अपने पुत्र शत्रु- सूदन घटोत्कचको इस प्रकार आज्ञा दी ॥३॥

  भीमसेन बोले ;- अपराजित और आकाशचारी हिडिम्बा नन्दन ! तुम्हारी माता द्रौपदी बहुत थक गयी है । तुम बलवान् एवं इच्छानुसार सर्वत्र जाने में समर्थ हो; अतः इसे (आकाशमार्गसे) ले चलो ॥४॥

  बेटा ! तुम्हारा कल्याण हो। इसे कंधेपर बैठाकर हम लोगों के बीच रहते हुए आकाशमार्ग से इस प्रकार धीरे-धीरे ले चलो, जिससे इसे तनिक भी कष्ट न हो ॥५॥

    घटोत्कच बोला ;- अनघ ! मैं अकेला रहूँ तो भी धर्मराज युधिष्ठिर, पुरोहित धौम्य, माता द्रौपदी और चाचा नकुल सहदेवको भी वहन कर सकता हूँ; फिर आज तो मेरे और भी बहुत-से संगी साथी मौजूद हैं। इस दशामें आप लोगों को ले चलना कौन बड़ी बात है ? मेरे सिवा दूसरे भी सैकड़ों शूरवीर, आकाशचारी और इच्छानुसार रूप धारण करने- वाले राक्षस मेरे साथ हैं। वे ब्राह्मणोंसहित आप सब लोगों- को एक साथ वहन करेंगे ।।६-७।।

   ऐसा कहकर वीर घटोत्कच तो द्रौपदीको लेकर पाण्डवोंके बीचमें चलने लगा और दूसरे राक्षस पाण्डवों को भी (अपने-अपने कलेवर बिठाकर ) ले चले ॥८।।

अनुपम तेजस्वी महर्षि लोमश अपने ही प्रभावसे दूसरे सूर्य की भाँति सिद्धमार्ग अर्थात् आकाशमार्ग से चलने लगे, राक्षसराज घटोत्कचकी आज्ञासे अन्य सब ब्राह्मणको भी अपने-अपने कंधेपर चढ़ाकर वे भयंकर पराक्रमी राक्षस साथ-साथ चलने लगे ॥१०॥

इस प्रकार अत्यन्त रमणीय वन और उपवनोंका अवलोकन करते हुए वे सब लोग विशाला बदरी (बदरिकाश्रम तीर्थ) की ओर प्रस्थित हुए ॥ ११॥

उन महावेगशाली और तीव्र गति से चलनेवाले राक्षसोंपर सवार हो बीर पाण्डवोंने उस विशाल मार्गको इतनी शीघ्रता से तय कर लिया, मानो वह बहुत छोटा हो ॥ १२ ॥

उस यात्रामें उन्होंने म्लेच्छसि भरे हुए बहुत से ऐसे देश देखे, जो नाना प्रकारकी रत्नोंकी खानोंसे युक्त थे । वहाँ उन्हें नाना प्रकार के धातुओंसे व्याप्त कितने ही शाखा पर्वत दृष्टिगोचर हुए। उन पर्वतीय शिखरोंपर बहुत-से विद्याधर, वानर, किन्नर, किम्पुरुष और गन्धर्व चारों ओर निवास करते थे ।।१३-१४।।

  मोर, चमरी गाय, बंदर, रुरुमृग, सूअर, गवय और भैंस आदि पशु वहाँ विचर रहे थे, वहाँ सब ओर बहुत-सी नदियाँ बह रही थीं। अनेक प्रकार- के असंख्य पक्षी विचर रहे थे । वह स्थान नाना प्रकारके मृगोंसे सेवित और वानरोंसे सुशोभित था ॥१५-१६॥

    वह पर्वतीय प्रदेश मतवाले विहंगों और अगणित वृक्षोंसे युक्त था । पाण्डवौने उत्तम समृद्धि से सम्पन्न बहुत-से देशोंको लाँघकर भाँति-भाँति के आश्चर्यजनक दृश्योंसे सुशोभित पर्वतश्रेष्ठ कैलासका दर्शन किया। उसीके निकट उन्हें भगवान् नर-नारायणका आश्रम दिखायी दिया, जो नित्य फल-फूल देने वाले दिव्य वृक्षोंसे अलंकृत था। वहीं वह विशाल एवं मनोरम बदरी भी दिखायी दी, जिसका स्कन्ध (तना ) गोल था। वह वृक्ष बहुत ही चिकना, घनी छायासे युक्त और उत्तम शोभासे सम्पन्न था। उस शुभ वृक्षके सघन कोमल पत्ते भी बहुत चिकने थे ।।१७-२०।।

   उसकी डालियाँ बहुत बड़ी और बहुत दूरतक फैली हुई थीं। वह वृक्ष अत्यन्त कान्ति से सम्पन्न था। उसमें अत्यन्त स्वादिष्ठ दिव्य फल अधिक मात्रामें लगे हुए थे। उन फलोंसे मधुकी धारा बहती रहती थी। उस दिव्य वृक्षके नीचे महर्षियोंका समुदाय निवास करता था । वह वृक्ष सदा मदोन्मत्त एवं आनन्दविभोर पक्षियोंसे परिपूर्ण रहता था ।।२१-२२।।

     उस प्रदेशमें डाँस और मच्छरोंका नाम नहीं था। फल- मूल और जलकी बहुतायत थी । वहाँकी भूमि हरी हरी घाससे ढकी हुई थी। देवता और गन्धर्व वहाँ वास करते थे। उस प्रदेशका भूभाग स्वभावतः समतल और मङ्गलमय था । उस हिमाच्छादित भूमिका स्पर्श अत्यन्त मृदु था । उस देशमें ॥ काँटोंका कहीं नाम नहीं था। ऐसे पावन प्रदेशमें वह विशाल बदरी वृक्ष उत्पन्न हुआ था, उसके पास पहुँचकर ये सब महात्मा पाण्डव उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ राक्षसोंके कंधोंसे धीरे-धीरे उतरे ।।२३-२५।।

   राजन् ! तदनन्तर ब्राह्मणसहित पाण्डवोंने एक साथ भगवान् नर-नारायणके उस रमणीय स्थानका दर्शन किया ।।२६।।

   जो अधिकार एवं तमोगुणसे रहित तथा पुण्यमय था ( वृक्षों की सघनता के कारण ) सूर्यकी किरणें उसका स्पर्श नहीं कर पाती थीं। वह आश्रम भूख प्यास, सदीं और गर्मी आदि दोषोंसे रहित और सम्पूर्ण शोकोंका नाश करनेवाला था ।।२७।।

  महाराज वह पावन तीर्थ महर्षियोंके समुदाय से भरा हुआ और ब्राह्मी श्री सुशोभित था। धर्महीन मनुष्यों का वहाँ प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन था ॥२८॥

    वह दिव्य आश्रम देव-पूजा और होमसे अर्चित था। उसे झाड़-बुहारकर अच्छी तरह लीपा गया था। दिव्य पुष्पों  के उपहार सब ओरसे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥२९॥

   विशाल अग्निहोत्रगृहों और खुक, खुवा आदि सुन्दर यश- पात्रोंसे व्याप्त वह पावन आश्रम जलसे भरे हुए बड़े-बड़े कलशों और बर्तनोंसे सुशोभित था ॥३०॥

  वह सब प्राणियोंके शरण लेने योग्य था । वहाँ वेद- मन्त्रोंकी ध्वनि गूँजती रहती थी वह दिव्य आश्रम सबके रहने योग्य और थकावटको दूर करनेवाला था ॥३१॥

   वह शोभासम्पन्न आश्रम अवर्णनीय था । देवोचित कार्योंका अनुष्ठान उसकी शोभा बढ़ाता था। उस आश्रम में फल-मूल खाकर रहनेवाले, कृष्णमृगचर्मधारी, जितेन्द्रियः अग्नि तथा सूर्यके समान तेजस्वी और तपःपूत अन्तःकरणवाले महर्षि मोक्षपरायणः इन्द्रिय-संयमी संन्यासी तथा महान् सौभाग्यशाली ब्रह्मवादी ब्रह्मभूत महात्मा निवास करते थे महातेजवी, बुद्धिमान् धर्मपुत्र युधिष्ठिर पवित्र और एकाग्र- चित्त होकर भाइयोंके साथ उन आश्रमवासी महर्षियोंके पास गये युधिष्ठिरको आश्रम में आया देख वे दिव्यज्ञानसम्पन्न सब महर्षि अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे मिले और उन्हें अनेक प्रकार के आशीर्वाद देने लगे। सदा वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर रहनेवाले उन अमितुल्य तेजस्वी महात्माओंने प्रसन्न होकर युधिष्ठिरका विधिपूर्वक सत्कार किया और उनके लिये पवित्र फल-मूल, पुण्प और जल आदि सामग्री प्रस्तुत की ।।३२-३७।।

   महर्षियोंद्वारा प्रेमपूर्वक प्रस्तुत किये हुए उस आतिथ्य- सत्कारको शुद्ध हृदयसे ग्रहण करके धर्मराज युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए ।।३८।।

   उन्होंने भाइयों तथा द्रौपदीके साथ इन्द्रभवनके समान मनोरम और दिव्य सुगन्धसे परिपूर्ण उस स्वर्गसदृश शोभा- शाली पुण्यमय नर-नारायण आश्रम में प्रवेश किया। अनघ ! उनके साथ ही वेद-वेदाङ्गों के पारङ्गत विद्वान् सहस्रों ब्राह्मण भी प्रविष्ट हुए ।।३९-४०।।

  धर्मात्मा युधिष्ठिरने वहाँ भगवान् नरनारायणका स्थान देखा, जो देवताओं और देवर्धियों से पूजित तथा भागीरथी गङ्गासे सुशोभित था ॥४१॥

    नरश्रेष्ठ पाण्डव उस स्थानका दर्शन करते हुए वहाँ सब ओर सुखपूर्वक घूमने-फिरने लगे । ब्रह्मर्पियोंद्वारा सेवित जो अपने फलोंसे मधुकी धारा बहानेवाला दिव्य वृक्ष था उसके निकट जाकर महात्मा पाण्डव ब्राह्मणोंके साथ वहाँ निवास करने लगे उस समय वे सब महात्मा बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे ।।४२-४३॥

वहाँ सुवर्णमय शिखरोंसे सुशोभित और अनेक प्रकारके पक्षियोंसे युक्त मैनाक पर्वत था। वहीं शीतल जलसे सुशोभित विन्दुसर नामक तालाब था। वह सब देखते हुए पाण्डव द्रौपदीके साथ उस मनोहर उत्तम वनमें विचरने लगे, जो सभी ऋतुओं के फूलों से सुशोभित हो रहा था ।।४४-४५।।

    उस वनमें सब ओर सुरम्य वृक्ष दिखायी देते थे, जो विकसित फूलोंसे युक्त थे। उनकी शाखाएँ फलोंके बोझसे झुकी हुई थीं । कोकिल पक्षियोंसे युक्त बहुसंख्यक वृक्षोंके कारण उस वनकी बड़ी शोभा होती थी ॥४६॥

   उपर्युक्त वृक्षोंके पत्ते चिकने और सघन थे। उनकी छाया शीतल थी। वे मनको बड़े ही रमणीय लगते थे । उस वनमें कितने ही विचित्र सरोवर भी थे, जो स्वच्छ जलसे भरे हुए ये ॥४७॥

    खिले हुए उत्पल और कमल सब ओरसे उनकी शोभा का विस्तार करते थे । उन मनोहर सरोवरों का दर्शन करते हुए पाण्डव वहाँ सानन्द विचरने लगे ॥४८॥

   जनमेजय ! गन्धमादन पर्वत पर पवित्र सुगन्धसे वासित सुखदायिनी वायु चल रही थी, जो द्रौपदीसहित पाण्डवौको आनन्द- निमग्न किये देती थी ॥४९॥

    पूर्वोक्त विशाल बदरीवृक्ष के समीप उत्तम तीर्थों सुशोभित शीतल जलवाली भागीरथी गङ्गा यह रहीं थी उसमें सुन्दर कमल खिले हुए थे। उसके घाट मणियों और मूँगों से आबद्ध थे । अनेक प्रकारके वृक्ष उसके तटप्रान्त की शोभा बढ़ा रहे थे। वह दिव्य पुष्पोंसे आच्छादित हो हृदयके हर्षोल्लास की वृद्धि कर रही थी । उसका दर्शन करके महात्मा पाण्डवों ने उस अत्यन्त दुर्गम देवर्षिसेवित प्रदेश में भागीरथी के पवित्र जलमें स्थित हो परम पवित्रता के साथ देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण किया । इस प्रकार प्रतिदिन तर्पण और जप आदि करते हुए वे पुरुषश्रेष्ठ कुरु कुलशिरोमणि वीर पाण्डव वहाँ ब्राह्मणों के साथ रहने लगे देवताओं के समान कान्तिमान् नरश्रेष्ठ पाण्डव वहाँ द्रौपदी की विचित्र क्रीड़ाएँ देखते हुए सुखपूर्वक रमण करने लगे ॥५०-५४॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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