सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ छत्तिसवें अध्याय से एक सौ चालीसवें तक (From the 136 to the 140 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ छत्तिसवाँ अध्याय

"यवक्रीतका रैभ्यमुनि की पुत्रवधूके साथ व्यभिचार और रैभ्यमुनिके क्रोध से उत्पन्न राक्षसके द्वारा उसकी मृत्यु"

   लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! उन दिनों यवक्रीत सर्वथा भयशून्य होकर चारों ओर चक्कर लगाता था। एक दिन वैशाख मास में वह रैभ्यमुनिके आश्रम में गया ॥१॥

     भारत ! वह आश्रम खिले हुए वृक्षोंकी श्रेणियोंसे सुशोभित हो अत्यन्त रमणीय प्रतीत होता था । उस आश्रम में रैभ्य मुनिकी पुत्रवधू किन्नरीके समान विचर रही थी । यवक्रीत ने उसे देखा ॥२॥

देखते ही वह कामदेव के वशीभूत हो अपनी विचार शक्ति खो बैठा और लजाती हुई उस मुनिवधूसे निर्लज्ज होकर बोला,,

   यवक्रीत बोला ;- 'सुन्दरी ! तू मेरी सेवामें उपस्थित हो' ।।३।।

    वह यवक्रीत के शील स्वभाव को जानकर भी उसके शापसे डरती थी। साथ ही उसे रैभ्य मुनिकी तेजस्विता का भी स्मरण था। अतः 'बहुत अच्छा' कहकर उसके पास चली आयी ।।४।।

    शत्रुविनाशन भारत ! तब यवक्रीतने उसे एकान्त में ले जाकर पापके समद्र में डुबो दिया। (उसके साथ रमण किया ) इतनेही में रैभ्य मुनि अपने आश्रम में आ गये ॥५॥

   आकर उन्होंने देखा कि मेरी पुत्रवधू एवं परावसुकी पत्नी आर्त भाव से रो रही है युधिष्ठिर ! यह देखकर रैभ्यने मधुर वाणीद्वारा उसे सान्त्वना दी तथा रोनेका कारण पूछा । उस शुभलक्षणा बहूने यवक्रीतकी कही हुई सारी बातें श्वशुरके सामने कह सुनायी एवं स्वयं उसने भलीभाँति सोच-विचारकर यवक्रीत की बातें माननेसे जो अस्वीकार कर दिया था, वह सारा वृत्तान्त भी बता दिया ॥६-७॥

   यवक्रीतकी यह कुचेष्टा सुनते ही रैभ्यके हृदयमें क्रोध की प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित हो उठी, जो उनके अन्तःकरणको मानो भस्म किये दे रही थी ॥८॥

   तपस्वी रैभ्य स्वभावसे ही बड़े क्रोधी थे, तिसपर भी उस समय उनके ऊपर क्रोधका आवेश छा रहा था। अतः उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़कर संस्कारपूर्वक स्थापित की हुई अग्निमें होम दी ॥९॥

उससे एक नारीके रूपमें कृत्या प्रकट हुई, जो रूपमें उनकी पुत्रवधूके ही समान थी। तत्पश्चात् एक दूसरी जटा उखाड़कर उन्होंने पुनः उसी अग्नि में डाल दी ॥१०॥

उससे एक राक्षस प्रकट हुआ, जिसकी आँखें बड़ी डरावनी थीं। वह देखने में बड़ा भयानक प्रतीत होता था । उस समय उन दोनोंने रैभ्य मुनिसे पूछा - 'हम आपकी किस आशाका पालन करें ?' ॥ ११ ॥

तब क्रोधमें भरे हुए महर्षिने कहा,,

   रैभ्य मुनि बोले ;-- यवक्रीतको मार डालो।' उस समय ‘बहुत अच्छा' कहकर वे दोनों यवक्रीतके वधकी इच्छासे उसका पीछा करने लगे ॥१२॥

  भारत महामना रैभ्यकी रची हुई कृत्यारूप सुन्दरी नारीने पहले यवक्रीतके पास उपस्थित हो उसे मोह में डालकर उसका कमण्डलु हर लिया ।।१३।।

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   कमण्डलु खो जानेसे यवक्रीतका शरीर उच्छिष्ट ( जूठा या अपवित्र ) रहने लगा। उस दशामें वह राक्षस हाथमें त्रिशूल उठाये यवक्रीतकी ओर दौड़ा राक्षस शूल हाथमें लिये मुझे मार डालनेकी इच्छासे मेरी ओर दौड़ा आ रहा है, यह देखकर यवक्रीत सहसा उठे और उस मार्ग से भागे, जो एक सरोवर की ओर जाता था, इसके जाते ही सरोवरका पानी सूख गया। सरोवरको जलहीन हुआ देख यवक्रीत फिर तुरंत ही समस्त सरिताओंके पास गया; परंतु इसके जानेपर वे सब भी सूख गयीं ॥१४-१६॥

   तब हाथमें शूल लिये उस भयानक राक्षसके खदेड़ने पर यवक्रीत अत्यन्त भयभीत हो सहसा अपने पिता के अग्निहोत्र- गृहमें घुसने लगा ॥१७॥

   राजन् ! उस समय अग्निहोत्रगृहके अंदर एक शूद्र- जातीय रक्षक नियुक्त था, जिसकी दोनों आँखें अंधी थीं। उसने दरवाजेके भीतर घुसते ही यवक्रीतको बलपूर्वक पकड़ लिया और यवक्रीत वहीं खड़ा हो गया ॥१८॥

   शूद्रके द्वारा पकड़े गये यवक्रीतपर उस राक्षसने शूलसे प्रहार किया। इससे उसकी छाती फट गयी और वह प्राण- शून्य होकर वहीं गिर पड़ा ॥१९॥

    इस प्रकार यवक्रीतको मारकर राक्षस रैभ्यके पास लौट आया और उनकी आज्ञा ले उस कृत्यास्वरूपा रमणीके साथ उनकी सेवामें रहने लगा ॥२०॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में यवक्रीतोपाख्यानविषयक एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ सैतीसवाँ अध्याय

"भरद्वाजका पुत्रशोक विलाप करना, रेम्यमुनिको छाप देना एवं अधिमें प्रवेश करना"

   लोमशजी कहते हैं ;- कुन्तीनन्दन ! भरद्वाज मुनि प्रतिदिन का स्वाध्याय पूरा करके बहुत सी समिधाएँ लिये आश्रम आये। उस दिनसे पहले सभी अग्रियाँ उनको देखते ही उठकर स्वागत करती थीं. परंतु उस समय उनका पुत्र मारा गया था, इसलिये अशौचयुक्त होनेके कारण उनका अग्रियोने पूर्ववत् खड़े हो कर स्वागत नहीं किया,

   अग्निहोत्रगृहमें यह विकृति देखकर उन महातपस्वी भरद्वाजने यहाँ बैठे हुए अन्धे गृहरक्षक शुद्र से पूछा- ॥१-३॥

    भरद्वाज बोले ;- दास ! क्या कारण है कि आज अमियाँ पूर्ववत् नेरा दर्शन करके प्रसन्नता नहीं प्रकट करती हैं। इधर तुम भी पहले जैसे समादरका भाव नहीं दिखाते हो। इस आश्रम में कुशल तो है न ? कहीं मेरा मन्दबुद्धि पुत्र रैभ्यके पास तो नहीं चला गया ? यह शत मुझे शीघ्र बताओ; क्योंकि मेरा मन शान्त नहीं हो रहा है' ।।४-५।।

    शुद्र बोला ;-- भगवन् ! अवश्य ही आपका यह मन्दमति पुत्र रैम्यके वहाँ गया था उसीका यह फल है कि एक महाबली राक्षसके द्वारा मारा जाकर पृथ्वीपर पड़ा है ॥६॥

   राक्षस अपने हाथमें शूल लेकर इसका पीछा कर रहा था और यह अभिशाला में घुसा जा रहा था। उस समय मैंने दोनों हाथ पकड़कर इसे द्वापर ही रोक लिया ॥७॥

   निश्चय ही अपवित्र होनेके कारण यह शुद्धिके लिये जल लेनेकी इच्छा रखकर यहाँ आया था, परंतु मेरे रोक देनेसे यह हताश हो गया उस दशा में उस शूलधारी राक्षसने इसके ऊपर बड़े वेग से प्रहार करके इसे मार डाला ॥८॥

    शुद्र का कहा हुआ यह अत्यन्त अप्रिय वचन सुनकर भरद्वाज बड़े दुखी हो गये और अपने प्राणशून्य पुत्रको लेकर विलाप करने लगे ॥९॥

    भरद्वाजने कहा ;- बेटा ! तुमने ब्राह्मणोंके हितके लिये भारी तपस्या की थी। तुम्हारी तपस्याका यह उद्देश्य था कि द्विजोंको बिना पढ़े ही सब वेदका ज्ञान हो जाय ॥१०॥

    इस प्रकार महात्मा ब्राह्मणों के प्रति तुम्हारा स्वभाव अत्यन्त कल्याणकारी था। किसी भी प्राणी के प्रति तुम कोई अपराध नहीं करते थे। फिर भी तुम्हारा स्वभाव कुछ कठोर हो गया था ।।११।।

    तात ! मैंने तुम्हें बार-बार मना किया था कि तुम रैभ्यके आश्रमकी और न देखना, परंतु तुम उसे देखने चले ही गये और वह तुम्हारे लिये काल, अन्तक एवं यमराजके समान हो गया। महान् तेजखी होनेपर भी उसकी बुद्धि बड़ी खोटी है । वह जानता था कि मुझ बूढ़े के तुम एक ही पुत्र हो तो भी वह दुष्ट क्रोध के वशीभूत हो ही गया ।।१२-१३।।

    बेटा ! आज रैभ्यके इस कठोर कर्मसे मुझे पुत्रशोक प्राप्त हुआ है। तुम्हारे बिना मैं इस पृथ्वीपर अपने परम प्रिय प्राणोंका भी परित्याग कर दूँगा ।।१४।।

   जैसे मैं पापी अपने पुत्रके शोकसे व्याकुल हो अपने शरीरका त्याग कर रहा हूँ, उसी प्रकार रैभ्यका ज्येष्ठ पुत्र अपने निरपराध पिताकी शीघ्र हत्या कर डालेगा ।।१५।।

    संसार में वे मनुष्य सुखी हैं, जिन्हें पुत्र पैदा ही नहीं हुआ है। क्योंकि वे पुत्रशोकका अनुभव न करके सदा सुख- पूर्वक विचरते हैं ॥१६॥

    जो पुत्रशोक से मन-ही-मन व्याकुल हो गहरी व्यथाका अनुभव करते हुए अपने प्रिय मित्रों को भी शाप दे डालते हैं, उनसे बढ़कर महापापी दूसरा कौन हो सकता है ? ॥१७॥

   मैंने अपने पुत्रकी मृत्यु देखी और प्रिय मित्रको शाप दे दिया। मेरे सिवा संसारमें दूसरा कौन-सा मनुष्य है, जो ऐसी विपत्तिका अनुभव करेगा ॥ १८ ॥

    लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! इस तरह भाँति- भाँतिके विलाप करके भरद्वाजने अपने पुत्रका दाह-संस्कार किया तत्पश्चात् स्वयं भी वे जलती आग में प्रवेश कर गये ॥१९॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपत्रके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा प्रसंग यवक्रीतोपाख्यान विषयक एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय

"अर्वावसुकी तपस्या के प्रभावसे परावसुका ब्रह्महत्या से मुक्त होना और रैभ्य, भरद्वाज तथा यवक्रीत आदिका पुनर्जीवित होना"

   लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर इन्हीं दिनों महान् सौभाग्यशाली एवं प्रतापी नरेश बृहद्युम्नने एक यशका अनुष्ठान आरम्भ किया। वे रैभ्यके यजमान थे ॥१॥

   बुद्धिमान् वृहद्युम्नने यज्ञकी पूर्तिके लिये रैभ्य-के दोनों पुत्र अर्वावसु तथा परावसुको सहयोगी बनाया ॥२।।

    कुन्तीनन्दन ! पिताकी आशा पाकर वे दोनों भाई राजाके यज्ञमें चले गये। आश्रम में केवल रैभ्य मुनि तथा उनके पुत्र परावसुकी पत्नी रह गयी। एक दिन घरकी देख-भाल करने के लिये परावसु अकेले ही आश्रमपर आये । उस समय उन्होंने काले मृगचर्मसे ढके हुए अपने पिताको वनमें देखा ।।३-४।।

    रातका पिछला पहर बीत रहा था और अभी अन्धकार शेष था। परावसु नींद से अन्धे हो रहे थे, अतः उन्होंने गहन वनमें विचरते हुए अपने पिताको हिंसक पशु ही समझा ॥५॥

    और उसे हिंसक पशु समझकर धोखेसे ही उन्होंने अपने पिता की हत्या कर डाली। यद्यपि वे ऐसा करना नहीं चाहते थे, तथापि हिंसक पशुसे अपने शरीरकी रक्षाके लिये उनके द्वारा यह क्रूरतापूर्ण कार्य बन गया ॥६॥

   भारत ! उसने पिता के समस्त प्रेत-कर्म करके पुनः यज्ञमण्डपमें आकर अपने भाई अर्वावसुसे कहा भैया ! वह यज्ञकर्म तुम अकेले किसी प्रकार निभा नहीं सकते। इधर मैंने हिंसक पशु समझकर धोलेसे पिताजीकी हत्या कर डाली है; इसलिये तात ! तुम तो मेरे लिये ब्रह्महत्यानिवारणके हेतु मत करो और मैं राजाका यज्ञ कराऊँगा । मुने ! मैं अकेला भी इस कार्यका सम्पादन करने में समर्थ हूँ  ।।७-९।।

   अर्वावसु बोले ;-- भाई! आप परम बुद्धिमान् राजा बृहद् द्युम्न यज्ञकार्य सम्पन्न करें और मैं आपके लिये इन्द्रियसंयमपूर्वक ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त करूँगा,,

   लोमशजी कहते हैं ;-- युधिष्ठिर ! अर्वावसु मुनि भाईके लिये ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त पूरा करके पुनः उस यज्ञमें आये परावसुने अपने भाईको वहाँ उपस्थित देखकर राजा बृहद्युम्न से हर्षगद्गद बाणीमें कहा,,

   परावसु बोले ;- 'राजन् ! यह ब्रह्महत्यारा है। अतः इसे आपका यश देखने के लिये इस मण्डपमें प्रवेश नहीं करना चाहिये। ब्रह्मघाती मनुष्य अपनी दृष्टिमात्रसे भी आपको महान् कष्टमें डाल सकता है, इसमें संशय नहीं है' ॥१०-१३॥

   लोमशजी कहते हैं ;- प्रजानाथ परावसुकी यह बात सुनते ही राजाने अपने सेवकोंको यह आशा दी कि 'अर्वावसु को भीतर न आने दो। राजन् ! उस समय सेवकोंद्वारा हटाये जानेपर अर्वावसुने बार बार यह कहा कि 'मैंने ब्रह्महत्या नहीं की है ।' भारत ! तो भी राजाके सेवक उन्हें ब्रह्महत्यारा कहकर ही सम्बोधित करते थे ।।१४-१५।।      अर्वावसु किसी तरह उस ब्रह्महत्याको अपनी की हुई स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने बार-बार यही बताने की चेष्टा की कि 'मेरे भाईने ब्रह्महत्या की है। मैंने तो प्रायश्चित्त करके उन्हें पासे छुड़ाया है ।।१६।।

     उनके ऐसा कहनेपर भी राजाके सेवकोंने उन्हें क्रोध- पूर्वक फटकार दिया। तब वे महातपस्वी ब्रह्मर्षि चुपचाप वनको ही चले गये ॥१७॥

   वहाँ जाकर उन्होंने भगवान् सूर्यकी शरण ली और बड़ी उग्र तपस्या करके उन ब्राह्मणशिरोमणिने सूर्यसम्बन्धी रहस्यमय वैदिक मन्त्रका अनुष्ठान किया । तदनन्तर अग्रभोजी एवं अविनाशी साक्षात् भगवान् सूर्यने साकाररूपमें प्रकट हो अर्वावसुको दर्शन दिया ॥ १८॥

    लोमशजी कहते हैं ;- राजन् अर्वावसुके उस कार्य से सूर्य आदि सब देवता उसपर प्रसन्न हो गये । उन्होंने अर्वावसुका यज्ञमें वरण कराया एवं परावसुको निकलवा दिया। तत्पश्चात् अग्नि-सूर्य आदि देवताओंने उन्हें वर देनेकी इच्छा प्रकट की ।।१९-२०॥

    तब अर्वावसुने यह वर माँगा कि 'मेरे पिताजी जीवित हो जायँ । मेरे भाई निर्दोष हों और उन्हें पिताके वध की बात भूल जाय' ॥२१॥

साथ ही उन्होंने यह भी माँगा कि 'भरद्वाज तथा यवक्रीत दोनों जी उठे और इस सूर्यदेवतासम्बन्धी रहस्यमय 'वेदमन्त्र की प्रतिष्ठा हो ।' द्विजश्रेष्ठ अर्वावसुके इस प्रकार वर माँगनेपर देवता बोले,,

देवता बोले ;- 'ऐसा ही हो। इस प्रकार उन्होंने पूर्वोक्त सभी वर दे दिये ॥ २२ ॥ 

    युधिष्ठिर ! इसके बाद पूर्वोक्त सभी मुनि जीवित हो गये । उस समय यवक्रीतने अग्नि आदि सम्पूर्ण देवताओंसे पूछा,,

   यवक्रीत बोले ;-'देवेश्वरो ! मैंने वेदका अध्ययन किया है, वेदोक्त व्रतका अनुष्ठान भी किया है। मैं स्वाध्यायशील और तपस्वी भी हूँ, तो भी रैभ्यमुनि इस प्रकार अनुचित रीतिखे मेरा वध करनेमें कैसे समर्थ हो सके' ।।२३-२४।।

   देवताओंने कहा ;- मुनि यवक्रीत ! तुम जैसी बात कहते हो, वैसा न समझो तुमने पूर्वकालमें बिना गुरुके ही सुखपूर्वक सब वेद पढ़े हैं और इन रैभ्यमुनिने बड़े क्लेश उठाकर अपने व्यवहारसे गुरुजनों को संतुष्ट करके दीर्घकाल- तक कष्ट सहनपूर्वक उत्तम वेदोंका ज्ञान प्राप्त किया है। ।।२५-२६।।

   लोमशजी कहते हैं ;-- राजन् ! अग्नि आदि देवताओंने यवक्रीतसे ऐसा कहकर उन सबको नूतन जीवन प्रदान करके पुनः स्वर्गलोकको प्रस्थान किया ।।२७।।

     नृपश्रेष्ठ ! यह उन्हीं रैभ्यमुनिका पवित्र आश्रम है । यहाँके वृक्ष सदा फूल और फलोंसे लदे रहते हैं । यहाँ एक रात निवास करके तुम सब पापोंसे छूट जाओगे ॥२८॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंगम यवक्रीतोपाख्यानविषयक एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय

"पाण्डवोंकी उत्तराखण्ड यात्रा और लोमशजीद्वारा उसकी दुर्गमताका कथन"

   लोमशजी कहते हैं ;- भरतनन्दन युधिष्ठिर ! अब तुम उशीरवीज, मैनाक, श्वेत और कालशैल नामक पहाड़ोंको लाँघकर आगे बढ़ आये ॥१॥

   भरतश्रेष्ठ यह देखो गङ्गाजी सात धाराओंसे सुशोभित हो रही हैं। यह रजोगुणरहित पुण्यतीर्थ है, जहाँ सदा अग्निदेव प्रज्वलित रहते हैं ॥२॥

    यह अद्भुत तीर्थ कोई मनुष्य नहीं देख सकता, अतः तुम सब लोग एकाग्रचित्त हो जाओ व्यग्रताशून्य हृदयसे तुम इन सब तीर्थोंका दर्शन कर सकोगे ।।३।।

   यह देवताओंकी क्रीडास्थली है, जो उनके चरणचिह्नोंसे अंकित है एकाग्रचित्त होनेपर तुम्हें इसका भी दर्शन होगा। कुन्तीकुमार ! अब तुम कालशैल पर्वतको लाँघकर आगे बढ़ आये इसके बाद हम श्वेतगिरि ( कैलास ) तथा मन्दरा- चल पर्वत में प्रवेश करेंगे, जहाँ माणिवर यक्ष और यक्षराज कुबेर निवास करते हैं ।।४-५।।

   राजन् ! वहाँ तीव्रगतिसे चलनेवाले अट्ठासी हजार गन्धर्व और उनसे चौगुने किन्नर तथा यक्ष रहते हैं। उनके रूप एवं आकृति अनेक प्रकारकी हैं। वे भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र धारण करते हैं और यक्षराज माणिभद्रकी उपासनामें संलग्न रहते हैं ॥६-७।।

    यहाँ उनकी समृद्धि अतिशय बढ़ी हुई है। तीव्रगतिमें वे वायुकी समानता करते हैं । वे चाहें तो देवराज इन्द्रको भी निश्चय ही अपने स्थान से हटा सकते हैं ॥८॥

   तात युधिष्ठिर ! उन बलवान् यक्ष और राक्षसोंसे सुरक्षित रहने के कारण ये पर्वत बड़े दुर्गम हैं अतः तुम विशेषरूपसे एकाग्रचित्त हो जाओ ॥९॥

   कुबेरके सचिवगण तथा अन्य रौद्र और मैत्रनामक राक्षसका हमें सामना करना पड़ेगा अतः तुम पराक्रमके लिये तैयार रहो ॥१०॥

    राजन् ! उधर छः योजन ऊँचा कैलासपर्वत दिखायी देता है, जहाँ देवता आया करते हैं। भारत ! उसके निकट विशालापुरी (बदरिकाश्रम तीर्थ ) है।

  कुन्तीनन्दन ! कुबेर के भवनमें अनेक यक्ष, राक्षस, किन्नर, नाग, सुपर्ण तथा गन्धर्व निवास करते हैं ॥११-१२॥

महाराज कुन्तीनन्दन ! तुम भीमसेन के बल और मेरी तपस्या से सुरक्षित हो तप एवं इन्द्रियसंयमपूर्वक रहते हुए आज उन तीर्थों में स्नान करो, राजा वरुण युद्धविजयी यमराज, गङ्गा-यमुना तथा यह पर्वत तुम्हें कल्याण प्रदान करें ।।१३-१४।।

  महाद्युते ! मरुद्गण अश्विनीकुमार, सरिताएँ और सरोवर भी तुम्हारा मङ्गल करें । देवताओं, असुरों तथा वसुओंसे भी तुम्हें कल्याणकी प्राप्ति हो ।।१५।।

   देवि गङ्गे ! मैं इन्द्रके सुवर्णमय मेरुपर्वतसे तुम्हारा कल-कलनाद सुन रहा हूँ । सौभाग्यशालिनि! ये राजा युधिष्ठिर अजमीढवशी क्षत्रियोंके लिये आदरणीय हैं। तुम पर्वतों से इनकी रक्षा कराओ ॥१६॥

   'शैलपुत्रि ! ये इन पर्वतमालाओं में प्रवेश करना चाहते हैं। तुम इन्हें कल्याण प्रदान करो। समुद्रगामिनी गङ्गानदी से ऐसा कहकर विप्रवर लोमशने कुन्तीकुमार युधिष्ठिरको यह आदेश दिया कि अब तुम एकाग्रचित्त हो जाओ' ॥१७॥

    युधिष्ठिर बोले ;- बन्धुओ ! आज महर्षि लोमशको बड़ी घबराहट हो रही है। यह एक अभूतपूर्व घटना है। अतः तुम सब लोग सावधान होकर द्रौपदीकी रक्षा करो। प्रमाद न करना । लोमशजीका मत है कि यह प्रदेश अत्यन्त दुर्गम है। अतः यहाँ अत्यन्त शुद्ध आचार-विचारते रहो ।।१८।।

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय । तदनन्तर राजा युधिष्ठिर महाबली भीमसे इस प्रकार बोले- भैया भीमसेन ! तुम सावधान रहकर द्रौपदीकी रक्षा करो। तात ! किसी निर्जन प्रदेशमें जब कि अर्जुन हमारे समीप नहीं हैं, भयका अवसर उपस्थित होनेपर द्रौपदी तुम्हारा आश्रय लेती है' ॥१९॥

तत्पश्चात् महात्मा राजा युधिष्ठिरने नकुल सहदेव के पास जाकर उनका मस्तक सूँघा और शरीरपर हाथ फेरा। फिर नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए कहा,,

   युधिष्ठिर बोले ;- 'भैया! तुम दोनों भय न करो और सावधान होकर आगे बढ़ो' ॥२०॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में पाण्डवोंका कैलास आदि पर्वतमालाओं में प्रवेशविषयक एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ चालीसवाँ अध्याय

"भीमसेनका उत्साह तथा पाण्डवोंका कुलिन्दराज सुबाहुके राज्य में होते हुए गन्धमादन और हिमालय पर्वतको प्रस्थान"

   युधिष्ठिर बोले ;- भीमसेन ! यहाँ बहुत-से बलवान् और विशालकाय राक्षस छिपे रहते हैं; अतः अग्निहोत्र एवं तपस्याके प्रभावसे ही हमलोग यहाँसे आगे बढ़ सकते हैं ॥१॥

    वृकोदर ! तुम बलका आश्रय लेकर अपनी भूख-प्यास मिटा दो। फिर शारीरिक शक्ति और चतुरताका सहारा लो ॥२॥

   भैया कैलास पर्वतके विषय में महर्पिने जो बात कही. है, वह तुमने भी सुना ही है; अब स्वयं अपनी बुद्धिसे विचार करके देखो, द्रौपदी इस दुर्गम प्रदेशमें कैसे चल सकेगी ? ॥३॥

   अथवा विशालनेत्रोंवाले भीम ! तुम सहदेव, धौम्य, सारथि, रसोइये, समस्त सेवकगण, रथ, घोड़े तथा मार्गके कष्टको सहन न कर सकनेवाले जो अन्य ब्राह्मण हैं, उन सबके साथ यहीं से लौट जाओ ॥४-५॥

    केवल मैं, नकुल तथा महातपस्वी लोमशजी ये तीन व्यक्ति ही संयम और व्रतका पालन करते हुए यहाँसे आगेकी यात्रा करेंगे। हम तीनों ही स्वल्पाहारसे जीवन-निर्वाह करेंगे तुम गङ्गाद्वार (हरिद्वार) मैं एकाग्रचित्त हो मेरे आगमनकी प्रतीक्षा करो और जबतक मैं लौटकर न आऊँ, तबतक द्रौपदीकी रक्षा करते हुए वहीं निवास करो ॥६-७॥।        भीमसेन ने कहा ;- भारत ! राजकुमारी द्रौपदी यद्यपि रास्तेकी थकावटसे और मानसिक दुःखसे भी पीड़ित है। तो भी यह कल्याणमयी देवी अर्जुनको देखनेकी इच्छासे उत्साहपूर्वक हमारे साथ चल ही रही है ।।८॥

   संग्राममें कभी पीठ न दिखानेवाले निद्राविजयी महात्मा अर्जुनको न देखने के कारण आपके मनमें भी अत्यन्त खिन्नता हो रही है ॥९॥

फिर सहदेवके, मेरे तथा द्रौपदीके लिये तो कहना ही क्या है ? भारत ये ब्राह्मणलोग चाहें तो यहाँसे लौट सकते हैं। समस्त सेवक, सारथि, रसोइये तथा हममेंसे और जिस- जिसको आप लौटाना उचित समझें वे सभी जा सकते हैं। राक्षसोंसे भरे हुए इस पर्वतपर तथा ऊँचे-नीचे दुर्गम प्रदेशों में मैं आपको कदापि अकेला छोड़ना नहीं चाहता। नरश्रेष्ठ! यह परम सौभाग्यवती पतिव्रता राजकुमारी कृष्णा भी आपको छोड़कर लौटने को कभी तैयार न होंगी । इसी प्रकार यह सहदेव भी आपमें सदा अनुराग रखनेवाला है, आपको छोड़कर कभी नहीं लौटेगा मैं इसके मनकी बात जानता हूँ। महाराज ! सव्यसाची अर्जुनको देखनेकी इच्छासे हम सभी लालायित हो रहे हैं; अतः सब साथ ही चलेंगे। राजन् ! अनेक कन्दराओंसे युक्त इस पर्वतपर यदि रथोंके द्वारा यात्रा सम्भव न हो तो हम पैदल ही चलेंगे । आप इसके लिये उदास न हों । जहाँ-जहाँ द्रौपदी नहीं चल सकेगी, वहाँ-वहाँ मैं स्वयं इसे कंधेपर चढ़ाकर ले जाऊँगा ।।१०-१६॥

   राजन् मेरा ऐसा ही विचार है, आप उदास न हों । वीर माद्रीकुमार नकुल और सहदेव दोनों सुकुमार हैं। जहाँ कहीं दुर्गम स्थानमें ये असमर्थ हो जायेंगे, वहाँ मैं इन्हें पार लगाऊँगा ॥ १७ ॥

    युधिष्टिर बोले ;-- भीमसेन ! इस प्रकार ( उत्साहपूर्ण ) बातें करते हुए तुम्हारा बल बढ़े, क्योंकि तुम यशस्विनी द्रौपदी तथा नकुल सहदेवको भी वहन करके ले चलनेका उत्साह रखते हो। तुम्हारा कल्याण हो। यह साहस तुम्हारे सिवा और किसी में नहीं है । तुम्हारे बल, यश, धर्म और कीर्तिका विस्तार हो महाबाहो ! तुम द्रौपदीसहित दोनों भाई नकुल सहदेवको भी स्वयं ही ले चलनेकी शक्ति रखते हो, इसलिये कभी तुम्हें ग्लानि न हो तथा किसीसे भी तुम्हें तिरस्कृत न होना पड़े ॥१८-२०॥

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय ! तब सुन्दरी द्रौपदी ने हँसते हुए कहा,,

   द्रोपदी बोली ;- "भारत ! मैं आपके साथ ही चलूँगी। आप मेरे लिये चिन्ता न करें ॥ २१ ॥

   लोमशजी ने कहा ;— कुन्तीनन्दन ! गन्धमादन पर्वतपर तपस्या के बलसे ही जाया जा सकता है। हम सब लोगोंको तपःशक्तिका संचय करना होगा। महाराज ! नकुल, सहदेव, भीमसेन, मैं और तुम सभी लोग तपोबलसे ही अर्जुनको देख सकेंगे ।। २२-२३ ॥

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय ! इस प्रकार बातचीत करते हुए वे सब लोग आगे बढ़े। कुछ दूर जानेपर उन्हें कुलिन्दराज सुबाहुका विशाल राज्य दिखायी दिया, जहाँ हाथी घोड़ों की बहुतायत थी और सैकड़ों किरात, तङ्गण एवं कुलिन्द आदि जंगली जातियोंके लोग निवास करते थे। वह देवताओंसे सेवित देश हिमालय के अत्यन्त समीप था । वहाँ अनेक प्रकारकी आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखायी देती थीं। सुबाहुका वह राज्य देखकर उन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई । कुलिन्दोंके राजा सुबाहुको जब यह पता लगा कि मेरे राज्य में पाण्डव आये हैं, तब उसने राज्यकी सीमापर जाकर बड़े आदर- सत्कार के साथ उन्हें अपनाया। उसके द्वारा प्रेमसे पूजित होकर वे सब लोग बड़े सुखसे वहाँ रहे ।।२४-२६।।

    दूसरे दिन निर्मल प्रभावकालमें सूर्योदय होनेपर उन सबने हिमालय पर्वतकी ओर प्रस्थान किया । जनमेजय ! इन्द्रसेन आदि सेवकों, रसोइयों और पाकशाला के अध्यक्षको तथा द्रौपदीके सारे सामानोंको कुलिन्दराज सुबाहुके यहाँ सौंपकर वे महापराक्रमी महारथी कुरुकुलनन्दन पाण्डव द्रौपदीके साथ धीरे-धीरे पैदल ही चल दिये। उनके मनमें अर्जुनको देखनेकी बड़ी उत्कण्ठा थी। अतः वे बड़े हर्ष और उल्लास के साथ उस देशसे प्रस्थित हुए ।।२७-२९॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग गन्धमादनप्रवेशविषयक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)



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