सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ इकत्तीसवें अध्याय से एक सौ पैतीसवें तक (From the 131 to the 135 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ इकत्तीसवाँ अध्याय

"राजा उशीनरद्वारा बाजको अपने शरीरका मांस देकर शरणमें आये हुए कबूतरके प्राणों की रक्षा करना"

   तब बाजने कहा ;- राजन्! समस्त भूपाल केवल आपको ही धर्मात्मा बताते हैं। फिर आप यह सम्पूर्ण धर्मों से विरुद्ध कर्म कैसे करना चाहते हैं। महाराज! मैं भूखसे कष्ट पा रहा हूँ और कबूतर मेरा आहार नियत किया गया है आप धर्म के लोभ से इसकी रक्षा न करें। वास्तव में इसे आश्रय देकर आपने धर्म का परित्याग ही किया है ।। १-२ ॥

   राजा बोले ;- पक्षिराज ! यह कबूतर तुमसे डरकर घबराया हुआ है और अपने प्राण बचानेकी इच्छासे मेरे समीप आया है। यह अपनी रक्षा चाहता है। बाज ! इस प्रकार अभय चाहने वाले इस कबूतर को यदि मैं तुमको नहीं सौंप रहा हूँ, यह तो परम धर्म है। इसे तुम कैसे नहीं देख रहे हो? ।।३-४।।

   बाज देखो तो यह बेचारा कबूतर किस प्रकार भय से व्याकुल हो थर-थर काँप रहा है । इसने अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये ही मेरी शरण ली है। ऐसी दशा में इसे त्याग देना बड़ी ही निन्दाकी बात है जो मनुष्य ब्राह्मणों की हत्या करता है, जो जगन्माता गौ का वध करता है तथा जो शरण में आये हुए को त्याग देता है, इन तीनों को समान पाप लगता है ।। ५-६ ।।

   बाज ने कहा ;-- महाराज ! सत्र प्राणी आहार से ही उत्पन्न होते हैं, आहार से ही उनकी वृद्धि होती है और आहार से ही जीवित रहते हैं ॥ ७ ॥

   जिसको त्यागना बहुत कठिन है, उस अर्थके बिना भी मनुष्य बहुत दिनों तक जीवित रह सकता है, परंतु भोजन छोड़ देने पर कोई भी अधिक समय तक जीवन धारण नहीं कर सकता ॥ ८ ॥

   प्रजानाथ! आज आपने मुझे भोजनसे वंचित कर दिया है, इसलिये मेरे प्राण इस शरीर को छोड़कर अकुतोभय-पथ (मृत्यु) को प्राप्त हो जायँगे । धर्मात्मन् ! इस प्रकार मेरी मृत्यु हो जानेपर मेरे स्त्री-पुत्र आदि भी ( असहाय होने के कारण ) नष्ट हो जायेंगे। इस तरह आप एक कबूतर की रक्षा करके बहुत से प्राणियों की रक्षा नहीं कर रहे हैं ॥९-१०।।

    सत्यपराक्रमी नरेश ! जो धर्म दूसरे धर्मका बाधक हो वह धर्म नहीं, कुधर्म है। जो दूसरे किसी धर्मका विरोध न करके प्रतिष्ठित होता है, वही वास्तविक धर्म है ॥ ११ ॥

  परस्परविरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्म में गौरव लाधव का विचार करके, जिसमें दूसरोंके लिये बाधा न हो, उसी धर्मका आचरण करना चाहिये ॥ १२।।

    राजन् ! धर्म और अधर्मका निर्णय करते समय पुण्य और पापके गौरव लाघवपर ही दृष्टि रखकर विचार कीजिये तथा जिसमें अधिक पुण्य हो, उसीको आचरण में लाने योग्य धर्म ठहराइये ।।१३।।

  राजाने कहा ;- पक्षिश्रेष्ठ! तुम्हारी बातें अत्यन्त कल्याणमय गुणोंसे युक्त हैं। तुम साक्षात् पक्षिराज गरुड़ तो नहीं हो ? इसमें संदेह नहीं कि तुम धर्मके ज्ञाता हो ।।१४।।

   तुम जो बातें कह रहे हो, वे बड़ी ही विचित्र और धर्मसंगत है। मुझे लक्षणोंसे ऐसा जान पड़ता है कि ऐसी कोई बात नहीं है, जो तुम्हें ज्ञात न हो ॥ १५ ॥

   तो भी तुम शरणागत के त्याग को कैसे अच्छा मानते हो ? यह मेरी समझमें नहीं आता विहङ्गम वास्तवमें तुम्हारा यह उद्योग केवल भोजन प्राप्त करने के लिये है ॥ १६ ॥

परंतु तुम्हारे लिये आहारका प्रबन्ध तो दूसरे प्रकार से भी किया जा सकता है और वह इस कबूतर की अपेक्षा अधिक हो सकता है। सूअरु हिरन, भैसा या कोई उत्तम पशु अथवा अन्य जो कोई भी वस्तु तुम्हें अभीष्ट हो, वह तुम्हारे लिये प्रस्तुत की जा सकती है ॥ १७ ॥

   बाज बोला ;- महाराज ! मैं न सूअर खाऊंगा, न कोई उत्तम पशु और न भाँति-भाँति के मृगों का ही आहार करूँगा दूसरी किसी वस्तु से भी मुझे क्या लेना है ? ॥ १८ ॥

  क्षत्रियशिरोमणे ! विधाताने मेरे लिये जो भोजन नियत किया है, वह तो यह कबूतर ही है; अतः भूपाल ! इसी को मेरे लिये छोड़ दीजिये ।।१९।।

   यह सनातन काल से चला आ रहा है कि बाज कबूतरों- को खाता है । राजन् ! धर्मके सारभूत तत्त्वको न जानकर आप केले के खम्भे ( जैसे सारहीन धर्म ) का आश्रय न लीजिये ॥ २० ॥

   राजाने कहा ;- विहङ्गम ! मैं शिविदेश का समृद्धि- शाली राज्य तुम्हें सौंप दूंगा, और भी जिस वस्तुकी तुम्हें इच्छा होगी वह सब दे सकता हूँ ॥ २१ ॥

   किंतु शरण लेने की इच्छासे आये हुए इस पक्षीको नहीं त्याग सकता। पक्षिश्रेष्ठ श्येन ! जिस काम के करने से तुम इसे छोड़ सको, वह मुझे बताओ, मैं वही करूँगा, किंतु इस कबूतरको तो नहीं दूँगा ॥ २२ ॥

   बाज बोला ;- महाराज उशीनर ! यदि आपका इस कबूतर पर स्नेह है तो इसीके बराबर अपना मांस काटकर तराजूमें रखिये। नृपश्रेष्ठ ! जब वह तौल में इस कबूतरके बराबर हो जाय तब वही मुझे दे दीजियेगा, उससे मेरी तृप्ति हो जायगी ।। २३-२४ ।।

  राजाने कहा ;- बाज ! तुम जो मेरा मांस माँग रहे हो, इसे मैं अपने ऊपर तुम्हारी बहुत बड़ी कृपा मानता हूँ, अतः मैं अभी अपना मांस तराजूपर रखकर तुम्हें दिये देता हूँ ॥ २५ ॥

   लोमशजी कहते हैं ;- कुन्तीनन्दन ! तत्पश्चात् परम धर्मज्ञ राजा उशीनर ने स्वयं अपना मांस काटकर उस कबूतरके साथ तौलना आरम्भ किया ॥ २६ ॥

    किंतु दूसरे पलड़े में रखा हुआ कबूतर उस मांसकी अपेक्षा अधिक भारी निकला, तब महाराज उशीनरने पुनः अपना मांस काटकर चढ़ाया। इस प्रकार बार-बार करने पर भी जब वह मांस कबूतर के बराबर न हुआ, तब सारा मांस काट लेनेके पश्चात् वे स्वयं ही तराजू पर चढ़ गये ।। २७-२८ ॥

   बाज बोला ;- धर्मज्ञ नरेश ! मैं इन्द्र हूँ और यह कबूतर साक्षात् अग्निदेव हैं। हम दोनों आपके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये इस यज्ञशाला में आपके निकट आये थे ॥ २९ ॥

   प्रजानाथ ! आपने अपने अङ्गोंसे जो मांस काटकर चढ़ाये हैं, उससे फैली हुई आपकी प्रकाशमान कीर्ति सम्पूर्ण लोगों से बढ़कर होगी ॥ ३० ॥

    राजन् ! संसारके मनुष्य इस जगत् में जबतक आपकी चर्चा करेंगे, तब तक आपकी कीर्ति और सनातन लोक स्थिर रहेंगे ॥ ३१ ॥

राजासे ऐसा कहकर इन्द्र फिर देवलोक में चले गये तथा धर्मात्मा राजा उशीनर भी अपने धर्म से पृथ्वी और आकाश- को व्याप्त कर वे दिव्यमान शरीर धारण करके स्वर्गलोक में चले गये । राजन् ! यही उन महात्मा राजा उशीनर का आश्रम है, जो पुण्यजनक होने के साथ ही समस्त पापोंसे छुटकारा दिलाने वाला है। तुम मेरे साथ इस पवित्र आश्रमका दर्शन करो। महाराज ! वहाँ पुण्यात्मा महात्मा ब्राह्मणोंको सदा सनातन देवता तथा मुनियोंका दर्शन होता रहता है ॥ ३२-३४॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग श्येनकपोती योपाख्यानविषयक एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय

"अष्टावक्र के जन्मका वृत्तान्त और उनका राजा जनकके दरबार में जाना"

   लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! उद्दालकके पुत्र श्वेतकेतु दो गये हैं, जो इस भूतलपर मन्त्र शास्त्र में अत्यन्त निपुण कहे जाते थे, देखो यह पवित्र आश्रम उन्हींका है। जो सदा फल देनेवाले वृक्षोंसे हरा-भरा दिखायी देता है ॥ १ ॥
   इस आश्रम में श्वेतकेतुने मानवरूपधारिणी सरस्वती देवका प्रत्यक्ष दर्शन किया था और अपने निकट आयी हुई उन सरस्वतोसे यह कहा था कि मैं वाणीस्वरूपा आपके तत्त्वको यथार्थरूप से जानना चाहता हूँ ॥ २ ॥
   उस युगमें कहोड मुनिके पुत्र अष्टवक्र और उद्दालक- नन्दन श्वेतकेतु ये दोनों महर्षि समस्त भूमण्डल के वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ थे। वे आपस में मामा और भानजा लगते थे (इनमें श्वेतकेतु ही मामा था ) ॥ ३ ॥
    एक समय वे दोनों मामा-भानजे विदेहराज के यज्ञमण्डप में गये। दोनों ही ब्राह्मण अनुपम विद्वान् थे। वहाँ शास्त्रार्थ होनेपर उन दोनोंने अपने ( विपक्षी ) बन्दीको जीत लिया ॥ ४ ॥
   कुन्तीनन्दन ! विशिरोमणि अष्टावक्र वाद-विवाद में बड़े निपुण थे। उन्होंने बाल्यावस्था में ही महाराज जनकके यज्ञ मण्डप में पधारकर अपने प्रतिवादी बन्दीको पराजित करके नदीमें डलवा दिया था। वे अष्टावक्र मुनि जिन महात्मा उद्दालक- के दौहित्र (नाती) बताये जाते हैं, उन्हींका यह परम पवित्र आश्रम है तुम अपने भाइयों सहित इसमें प्रवेश करके कुछ देरतक उपासना (भगवच्चिन्तन ) करो ।। ५-६ ॥.          युधिष्ठिर ने पूछा ;- लोमशजी ! उन ब्रह्मर्षी का कैसा प्रभाव था, जिन्होंने बन्दी -जैसे सुप्रसिद्ध विद्वान्‌को भी जीत लिया। वे किस कारण से अष्टावक्र ( आठ अङ्गोंसे टेढ़े-मेढ़े ) हो गये। ये सब बातें मुझे यथारुप से बताइये ।।७।।
  लोमशजीने कहा ;- राजन् ! महर्षि उद्दालक का कहोड नाम से विख्यात एक शिष्य था, जो बड़े संयम नियमसे रहकर आचार्यकी सेवा किया करता था। उसने गुरुकी आज्ञा के अंदर रहकर दीर्घातक अध्ययन किया ॥ ८ ॥
   प्रियवर 'कहोड़' एक विनीत शिष्य की भाँति उद्दालक मुनि की परिचर्या में संलग्न रहते थे। गुरुने शिष्य की उस सेवा- के महत्व को समझकर शीघ्र ही उन्हें सम्पूर्ण वेद-शास्त्रोंका ज्ञान करा दिया और अपनी पुत्री सुजाता को भी उन्हें पत्नी- रूपसे समर्पित कर दिया ।। ९ ।।
   कुछ काल के बाद सुजाता गर्भवती हुई, उसका वह गर्भ अग्नि समान तेजस्वी था। एक दिन स्वाध्यायमें लगे हुए अपने पिता कहोड मुनिसे उस गर्भस्थ बालक ने कहा, "पिताजी ! आप रातभर वेदपाठ करते हैं तो भी आपका वह अध्ययन अच्छी प्रकारसे शुद्ध उच्चारणपूर्वक नहीं हो पाता ॥१०॥
   शिष्योंके बीच बैठे हुए महर्षि कहोड इस प्रकार उलाहना सुनकर अपमान का अनुभव करते हुए कुपित हो उठे और उस गर्भस्थ बालकको शाप देते हुए बोले, 'अरे ! तू अभी पेट में रहकर ऐसी टेढ़ी बातें बोलता है, अतः तू आठों अङ्गों से टेढ़ा हो जायगा ।।११।।
      उस शापके अनुसार वे महर्षि आठों अङ्गोंसे टेढ़े होकर पैदा हुए । इसलिये अष्टावक्र नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई । श्वेतकेतु उनके मामा थे, परंतु अवस्थामें उन्हीं के बराबर थे ।।१२।।
जब पेटमें गर्भ बढ़ रहा था, उस समय सुजाताने उससे पीड़ित होकर एकान्तमें अपने निर्धन पतिसे धनकी इच्छा रखकर कहा-- ॥१३॥
  सुजाता बोली ;- 'महर्षे यह मेरे गर्भका दसवाँ महीना चल रहा है। मैं धनहीन नारी खर्चकी कैसे व्यवस्था करूँगी। आपके पास थोड़ा-सा भी धन नहीं है, जिससे मैं प्रसवकालके इस संकटसे पार हो सकूँ' ।।१४।।
      पत्नीके ऐसा कहनेपर कहोड मुनि धनके लिये राजा जनकके दरबार में गये। उस समय शास्त्रार्थी पण्डित बन्दीने उन ब्रह्मर्षिको विवादमें हराकर जलमें डुबो दिया ।।१५।।
   जब उद्दालकको यह समाचार मिला कि 'कहोड मुनि शास्त्रार्थमें पराजित होनेपर सूत ( बन्दी ) के द्वारा जलमें डुबो दिये गये ।' तब उन्होंने सुजाता से सब कुछ बता दिया और कहा, 'बेटी अपने बच्चे से इस वृत्तान्तको सदा ही गुप्त रखना' ॥ १६ ॥
सुजाताने भी अपने पुत्रसे उस गोपनीय समाचारको गुप्त ही रखा। इसी से जन्म लेने के बाद भी उस ब्राह्मण- बालकको इस के विषय में कुछ भी पता न लगा । अष्टावक्र अपने नाना उद्दालकको ही पिताके समान मानते थे और श्वेतकेतुको अपने भाई के समान समझते थे ॥ १७ ॥
तदनन्तर एक दिन जब अष्टावक्र की आयु बारह वर्षकी थी और वे पितृतुल्य उद्दालक मुनिकी गोद में बैठे हुए थे, उसी समय श्वेतकेतु वहाँ आये और रोते हुए अष्टावक्र का हाथ पकड़कर उन्हें दूर खींच ले गये। इस प्रकार अष्टावक्र को दूर हटाकर ,,
  श्वेतकेतुने कहा ;- यह तेरे बाप की गोदी नहीं है ॥ १८ ॥
श्वेतकेतुकी उस कटूक्तिने उस समय अष्टावक्रके हृदयमें गहरी चोट पहुँचायी। इससे उन्हें बड़ा दुःख हुआ उन्होंने घरमै माताके पास जाकर पूछा,,
अष्टवक्र बोले ;- माँ ! मेरे पिताजी कहाँ हैं ?' ।।१९।।
   बालकके इस प्रश्नसे सुजाता के मनमें बड़ी व्यथा हुई, उसने शाप के भयसे घबराकर सब बात बता दी। यह सब रहस्य जानकर उन्होंने रातमें श्वेतकेतुसे इस प्रकार कहा,,
  अष्टवक्र जी बोले ;- 'हम दोनों राजा जनकके यज्ञमें चलें सुना जाता है, उस यज्ञमें बड़े आश्चर्य की बातें देखने में आती हैं। हम दोनों वहाँ विद्वान् ब्राह्मणोंका शास्त्रार्थं सुनेंगे और वहीं उत्तम पदार्थ भोजन करेंगे ।।२०-२१।।
   'वहाँ जाने से हमलोगों की प्रवचनशक्ति एवं जानकारी बढ़ेगी और हमें सुमधुर स्वरमें वेद मन्त्रोंका कल्याणकारी घोष सुनने का अवसर मिलेगा' ॥ २२ ॥
   ऐसा निश्चय करके वे दोनों मामा-मानजे राजा जनक के  समृद्धिशाली यज्ञमें गये । अष्टावक्र की यज्ञ मण्डप के मार्ग ही राजासे भेंट हो गयी। उस समय राजसेवक उन्हें रास्ते से  दूर हटाने लगे, तब वे इस प्रकार बोले ।। २३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत पर्व अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग अष्टावकीयोपाख्यानविषयक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ तैतीसवाँ अध्याय

"अष्टावक्रका द्वारपाल तथा राजा जनकसे वार्तालाप"

     अष्टावक्र बोले ;- राजन् ! जबतक ब्राह्मणसे सामना न हो, तबतक अंधेका मार्ग बहरेका मार्ग, स्त्रीका मार्ग, बोझ ढोनेवालेका मार्ग तथा राजाका मार्ग उस-उसके जाने के लिये छोड़ देना चाहिये; परंतु यदि ब्राह्मण सामने मिल जाय तो सबसे पहले उसीको मार्ग देना चाहिये ॥ १ ॥
  राजा ने कहा ;- ब्राह्मणकुमार ! लो, मैंने तुम्हारे लिये आज यह मार्ग दे दिया है । तुम जिससे जाना चाहो उसी मार्ग से इच्छानुसार चले जाओ। आग कभी छोटी नहीं होती । देवराज इन्द्र भी सदा ब्राह्मणों के आगे मस्तक झुकाते हैं ॥२॥
    अष्टावक्र बोले ;- राजन् ! हम दोनों आपका यज्ञ देखनेके लिये आये हैं। नरेन्द्र ! इसके लिये हम दोनों के हृदय में प्रबल उत्कण्ठा है। हम दोनों यहाँ अतिथिके रूप में उपस्थित हैं और इस यज्ञमें प्रवेश करनेके लिये हम तुम्हारे द्वारपालकी आज्ञा चाहते हैं ॥३॥
  इन्द्रद्युम्न कुमार जनक ! हम दोनों यहाँ यज्ञ देखने के लिये आये हैं और आप के जनक राजा से मिलना तथा बात करना चाहते हैं, परंतु यह द्वारपाल हमें रोकता है; अतः हम क्रोध- रूप व्याधि दग्ध हो रहे हैं ॥ ४ ॥
    द्वारपाल बोला ;- ब्राह्मणकुमार ! सुनो, हम बन्दीके आज्ञापालक हैं। आप हमारी कही हुई बात सुनिये इस यज्ञशाला में बालक ब्राह्मण नहीं प्रवेश करने पाते हैं जो बूढ़े और बुद्धिमान् ब्राह्मण हैं, उन्हीं का यहाँ प्रवेश होता है ॥ ५ ॥
   अष्टावक्र बोले ;- द्वारपाल ! यदि यहाँ वृद्ध ब्राह्मणके लिये प्रवेशका द्वार खुला है, तब तो हमारा प्रवेश होना भी उचित ही है; क्योंकि हमलोग वृद्ध ही हैं, हमने ब्रह्मचर्य - व्रतका पालन किया है तथा हम वेदके प्रभावसे भी सम्पन्न हैं ।।६।।
   साथ ही, हम गुरुजनों के सेवक, जितेन्द्रिय तथा ज्ञानशास्त्र में परिनिष्ठित भी हैं। अवस्थामें बालक होने के कारण ही किसी ब्राह्मणको अपमानित करना उचित नहीं बताया गया है; क्योंकि आगकी छोटी-सी चिनगारी भी यदि छू जाय तो वह जला डालती है ॥ ७ ॥
    द्वारपाल ने कहा ;- ब्राह्मणकुमार ! तुम वेदप्रतिपादित, एकाक्षरब्रह्म का बोध कराने वाली, अनेक रूपवाली, सुन्दर वाणीका उच्चारण करो और अपने आपको बालक ही समझो, स्वयं ही अपनी प्रशंसा क्यों करते हो ? इस जगत् में ज्ञानी दुर्लभ हैं ।।८।।
   अष्टावक्र बोले ;- द्वारपाल ! केवल शरीर बढ़ जाने से किसीकी बढ़ती नहीं समझी जाती हैं । जैसे सेमलके फलकी गाँठ बढ़ने पर भी सारहीन होनेके कारण वह व्यर्थ ही है छोटा और दुबला-पतला वृक्ष भी यदि फलों के भारसे लदा है तो उसे ही वृद्ध ( बड़ा ) जानना चाहिये जिसमें फल नहीं लगते, उस वृक्षका बढ़ना भी नहीं के बराबर है ॥ ९ ॥
   द्वारपाल ने कहा ;- बालक बड़े बूढ़ोंसे ही ज्ञान प्राप्त करते हैं और समयानुसार वे भी वृद्ध होते हैं। थोड़े समयमें ज्ञानकी प्राप्ति असम्भव है, अतः तुम बालक होकर भी क्यों वृद्धकी-सी बातें करते हो ?॥१०॥
   अष्टावक्र बोले ;- अमुक व्यक्ति के सिरके बाल पक गये हैं, इतने ही मात्र से वह बूढ़ा नहीं होता है, अवस्थामै बालक होनेपर भी जो ज्ञानमें बढ़ा-चढ़ा है, उसीको देवगण वृद्ध मानते हैं ॥११॥
   अधिक वर्षोंकी अवस्था होनेसे, बाल पकनेसे, धन बढ़ जानेसे और अधिक भाई बन्धु हो जानेसे भी कोई बड़ा हो नहीं सकता; ऋषियोंने ऐसा नियम बनाया है कि हम ब्राह्मणोंमें जो अङ्गसहित सम्पूर्ण वेदका स्वाध्याय करनेवाला तथा वक्ता है, वही बड़ा है ॥ १२ ॥
    द्वारपाल ! मैं राजसभा बन्दीसे मिलनेके लिये आया हूँ। तुम कमलपुष्पकी माला धारण किये हुए महाराज जनकको मेरे आगमन की सूचना दे दो ॥१३॥
    द्वारपाल ! आज तुम हमें विद्वानोंके साथ शास्त्रार्थ करते देखोगे, साथ ही विवाद बढ़ जानेपर बंदीको परास्त हुआ पाओगे ॥१४॥
    आज सम्पूर्ण सभासद् चुपचाप बैठे रहें तथा राजा और उनके प्रधान पुरोहितों के साथ पूर्णतः विद्वान् ब्राह्मण मेरी लघुता अथवा श्रेष्ठताको प्रत्यक्ष देखें ।।१५।।
   द्वारपालने कहा ;- जहाँ सुशिक्षित विद्वानोंका प्रवेश होता है, उस यज्ञमण्डपमें तुम जैसे दस वर्ष के बालक का प्रवेश होना कैसे सम्भव है। तथापि मैं किसी उपायसे तुम्हें उसके भीतर प्रवेश करानेका प्रयत्न करूँगा; तुम भी भीतर जाने के लिये यथोचित प्रयत्न करो ॥१६॥
ये नरेश तुम्हारी बात सुन सकें, इतनी ही दूरीपर यज्ञमण्डपमें स्थित हैं, तुम अपने शुद्ध वचनोंद्वारा इनकी स्तुति करो। इससे ये प्रसन्न होकर तुम्हें प्रवेश करने की आज्ञा दे देंगे तथा तुम्हारी और भी कोई कामना हो तो वे पूरी करेंगे।
   अष्टावक्र बोले ;- राजन् ! आप जनकवंशके श्रेष्ठ पुरुष हैं, सम्राट हैं। आपके यहाँ सभी प्रकारके ऐश्वर्य परिपूर्ण हैं, वर्तमान समय केवल आप ही उत्तम यज्ञकर्माका अनुष्ठान करनेवाले हैं अथवा पूर्वकालमें एकमात्र राजा ययाति ऐसे हो चुके हैं ॥१७॥
   हमने सुना है कि आपके यहाँ बन्दी नामसे प्रसिद्ध कोई विद्वान् है, जो वाद-विवाद के मर्म को जाननेवाले कितने ही वृद्ध ब्राह्मणोंको शास्त्रार्थमें हराकर वशमें कर लेते हैं और फिर आपके ही दिये हुए विश्वसनीय पुरुषों द्वारा उन सबको निःशंक होकर पानी में डुबवा देते हैं ॥ १८ ॥
   मैं ब्राह्मणों के समीप यह समाचार सुनकर अद्वैत ब्रह्मके विषय में वर्णन करने के लिये यहाँ आया हूँ। वे बन्दी कहाँ हैं? मैं उनसे मिलकर उनके तेजको उसी प्रकार शान्त कर दूँगा, जैसे सूर्य ताराओंकी ज्योतिको विलुप्त कर देते हैं ।।१९।।
  राजा बोले ;- ब्राह्मणकुमार ! तुम अपने विपक्षीकी प्रवचन-शक्तिको जाने बिना ही बन्दीको जीतने की इच्छा रखते हो। जो प्रतिवादी के बल को जानते हों, वे ही ऐसी बातें कह सकते हैं। वेदोंका अनुशीलन करनेवाले बहुत-से ब्राह्मण बन्दीका प्रभाव देख चुके हैं ॥२०॥
    तुम्हे इस बन्दकी शक्तिका कुछ भी ज्ञान नहीं है इसी- लिये उसे जीतने की इच्छा कर रहे हो। आजसे पहले कितने ही विद्वान् ब्राह्मण बन्दीसे मिले हैं और जैसे सूर्य के सामने ताराओंका प्रकाश फीका पड़ जाता है, उसी प्रकार वे बन्दीके हतप्रभ हो गये हैं ॥२२॥
तात ! कितने ही ज्ञानोन्मत्त ब्राह्मण बन्दीको जीतने की अभिलाषा रखकर शास्त्रार्थकी घोषणा करते हुए आये हैं; किंतु उनके निकट पहुँचते ही उनका प्रभाव नष्ट हो गया है। इतना ही नहीं, वे पराजित एवं तिरस्कृत हो चुपचाप राज- सभासे निकल गये हैं। फिर वे अन्य सदस्योंके साथ वार्तालाप ही कैसे कर सकते हैं ॥२२॥
   अष्टावक्र बोले ;- महाराज ! अभी बन्दीको हम जैसोंके साथ शास्त्रार्थ करनेका अवसर नहीं मिला है, इसीलिये वह सिंह बना हुआ है और निडर होकर बातें करता है। आज मुझसे जब उसकी भेंट होगी, उस समय वह पराजित होकर मुर्दे की भाँति सो जायगा। ठीक उसी तरह, जैसे रास्ते में टूटा हुआ छकड़ा जहाँ-का-तहाँ पड़ा रह जाता है—उसका पहिया एक पग भी आगे नहीं बढ़ता है ॥ २३ ॥
     तब राजाने परीक्षा लेनेके लिये कहा,,
 राजा बोले ;--  जो पुरुष तीस अवयव बारह अंश चौबीस पर्व और तीन सौ साठ अवाले पदार्थको जानता है। उसके प्रयोजनको समझता है, वह उच्चकोटिका ज्ञानी है ।।२४।।
   अष्टवक्र बोले ;- राजन् ! जिसमें बारह अमावास्या और बारह पूर्णिमारूपी चोबीस पर्य, ऋतुरूप छः नाभि, मासरूप बारह अंश और दिनरूप तीन सौ साठ अरे हैं, वह निरन्तर घूमनेवाला संवत्सररूप कालचक्र आपकी रक्षा करे ।।२५।।
   राजाने पूछा ;- जो दो घोड़ियों की भाँति संयुक्त रहती हैं एवं जो बाज पक्षी की भाँति हठात् गिरने वाली हैं, उन दोनों- के गर्भको देवताओं में से कौन धारण करता है तथा वे दोनों किस गर्भको उत्पन्न करती है ?।।२६।।
  अष्टावक्र बोले ;- राजन् ! वे दोनों तुम्हारे शत्रुओंके घरपर भी कभी न गिरे। वायु जिसका सारथि है वह मेघरूप देव ही इन दोनोंके गर्भको धारण करनेवाला है और ये दोनों उस मैत्ररूप गर्भको उत्पन्न करनेवाले हैं ॥ २७ ॥
   राजाने पूछा ;- सोते समय कौन नेत्र नहीं मूँदता जन्म लेने के बाद किसमें गति नहीं होती, किसके हृदय नहीं होता और कौन वेगसे बढ़ता है ? ॥ २८ ॥
   अष्टावक बोले ;- मछली सोते समय भी आँख नहीं मूँदती, अण्डा उत्पन्न होने पर चेष्टा नहीं करता, पत्थरके हृदय नहीं होता और नदी वेगसे बढ़ती है ॥ २९ ॥
   राजाने कहा ;- ब्रह्मन् ! आपकी शक्ति तो देवताओंके समान है, मैं आपको मनुष्य नहीं मानता; आप बालक भी नहीं हैं। मैं तो आपको वृद्ध ही समझता हूँ । वाद-विवाद करनेमें आपके समान दूसरा कोई नहीं है, अतः आपको यज्ञ- मण्डपमें जानेके लिये द्वार प्रदान करता हूँ। यही बन्दी हैं ( जिनसे आप मिलना चाहते थे ) ॥३०॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसङ्ग में अष्टावक्रीयोपाख्यानविषयक एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ चौतीसवाँ अध्याय

"बन्दी और अष्टावक्रका शास्त्रार्थ, बन्दीकी पराजय तथा समङ्गा में स्नान से अष्टावक्र अङ्गका सीधा होना"

   अष्टावक्र बोले ;- भयंकर सेनाओंसे युक्त महाराज जनक ! इस सभा में सब ओरसे अप्रतिम प्रभावशाली राजा आकर एकत्र हुए हैं; परंतु मैं इन सबके बीच में वादियों में प्रधान बन्दीको नहीं पहचान पाता हूँ । यदि पहचान लूँ तो अगाध जलमें हंसकी भाँति उन्हें अवश्य पकड़ लूँगा ॥१॥
   अपने को अतिवादी मानने वाले बन्दी ! तुमने पराजित हुए पण्डित को पानी में डुबवा देनेका नियम कर रखा है, किंतु आज मेरे सामने तुम्हारी बोली बंद हो जायगी। जैसे प्रलयकाल के प्रज्वलित अग्निके समीप नदियों का प्रवाह सूख जाता है, उसी प्रकार मेरे सामने आनेपर तुम भी सूख जाओगे तुम्हारी वादशक्ति नष्ट हो जायगी। बन्दी ! आज मेरे सामने स्थिर होकर बैठो ॥२॥
    बन्दी ने कहा ;- मुझे सोता हुआ सिंह समझकर न जगाओ (न छेड़ो ), अपने जबड़ों को चाटता हुआ विषैला सर्प मानो तुमने पैरोंसे ठोकर मारकर मेरे मस्तकको कुचल दिया है । अब जबतक तुम हँस लिये नहीं जाते तबतक तुम्हें छुटकारा नहीं मिल सकता, इस बातको अच्छी तरह समझ लो ।।३।।
    जो देहधारी अत्यन्त दुर्बल होकर भी अहंकारवश अपने हाथ से पर्वतपर चोट करता है, उसी के हाथ और नख विदीर्ण हो जाते हैं; उस चोट से पर्वत में घाव होता नहीं देखा जाता है ।।४।।
    अष्टावक्र बोले ;- जैसे सब पर्वत मैनाकसे छोटे हैं, सारे बछड़े बैलोंसे लघुतर हैं. उसी प्रकार भूमण्डलके समस्त राजा मिथिलानरेश महाराज जनककी अपेक्षा निम्न श्रेणीमें हैं ॥५॥
राजन् ! जैसे देवताओं में महेन्द्र श्रेष्ठ हैं और नदियोंमें गङ्गा श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सब राजाओंमें एकमात्र आप ही उत्तम हैं। अब बन्दीको मेरे निकट बुलवाइये ॥६॥
    लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! (यन्दी के सामने आ जानेपर) राजसभामै गर्जते हुए अष्टावक्र ने बन्दीसे कुपित होकर इस प्रकार कहा,,
   अष्टवक्र बोले ;- मेरी पूछी हुई बातका उत्तर तुम दो और तुम्हारी बातका उत्तर में देता हूँ' ॥७॥
    तब बन्दीने कहा ;- अशक्क ! एक ही अनि अनेक प्रकार से प्रकाशित होती है, एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है । शत्रुओंका नाश करनेवाला देवराज इन्द्र एक ही वीर है तथा पितरों का स्वामी यमराज भी एक ही है।।८।।
   अष्टावक्र बोले ;- जो दो मित्रोंकी भाँति सदा साथ विचरते हैं, वे इन्द्र और अमि दो देवता हैं। परस्पर मिश्रभाव रखनेवाले देवर्षि नारद और पर्वत भी दो दी हैं। अश्विनी- कुमारों की भी संख्या दो ही है, रथ के पहिये भी दो ही होते हैं तथा विधाताने ( एक दूसरेके जीवनसंगी) पति और पत्नी भी दो ही बनाये हैं ॥९॥
    बन्दी ने कहा ;- यह सम्पूर्ण प्रजा कर्मवश देवता, मनुष्य और तिर्थंकरूप तीन प्रकारका जन्म धारण करती है, ऋक्, साम और यजु—ये तीन वेद ही परस्पर संयुक्त हो वाजपेय आदि यज्ञ-कमका निर्वाह करते हैं। अध्वर्युलोग भी प्रातःसवन, मध्याह्नसवन और सायंसवनके भेदसे तीन सवनों (यज्ञों ) का ही अनुष्ठान करते हैं । ( कर्मानुसार प्राप्त होनेवाले भोगोंके लिये ) स्वर्ग, मृत्यु और नरक-ये लोक भी तीन ही बताये गये हैं और मुनियोंने सूर्य, चन्द्र और अग्निरूप तीन ही प्रकारकी ज्योतियाँ बतलायी है ॥१०॥
    अष्टावक्र बोले ;- ब्राह्मणोंके लिये आश्रम चार हैं। वर्ण भी चार ही है, जो इस यज्ञका भार वहन करते हैं । मुख्य दिशाएँ भी चार ही हैं। वर्ण भी चार ही हैं तथा गो अर्थात् वाणी भी सदा चार ही चैरणोंसे युक्त बतायी गयी है ।।११।।
    बन्दी ने कहा ;- यज्ञ की अग्नि गार्हपत्य दक्षिणाग्नि, आहवनीय, सभ्य और आवसथ्यके भेद से पाँच प्रकारकी कही गयी हैं। पर्कि छन्द भी पाँच पास ही बनता है, यज्ञ भी पाँच ही हैं- देवयज्ञ, पितृयज्ञ ऋऋषियज्ञ, भूतयश और मनुष्ययज्ञ। इसी प्रकार इन्द्रियोंकी संख्या भी पाँच ही हैं। वेद पाँच वेणीवाली (पञ्चचूड़ा) अप्सराका वर्णन देखा गया है तथा लोकमै पाँच नदियोंसे विशिष्ट पुण्यमय पञ्चनद प्रदेश विख्यात है ॥ १२ ॥
   अष्टावक्र बोले ;- कुछ विद्वानोंका मत है कि अग्निकी स्थापनाके समय दक्षिणामें छः गौ ही देनी चाहिये। ये छः ऋतुएँ ही संवत्सररूप कालचक्रकी सिद्धि करती हैं। मन- सहित ज्ञानेन्द्रियाँ भी छः ही हैं। कृत्तिकाओंकी संख्या छः ही है तथा सम्पूर्ण वेदोंमें साधक नामक यज्ञ भी छः ही देखे गये हैं ॥ १३ ॥
  बन्दी ने कहा ;- प्राम्य पशु सात हैं ( जिनके नाम इस प्रकार हैं ) - गाय, भैंस, बकरी, भेंड़, घोड़ा, कुत्ता और गदहा । जंगली पशु भी सात हैं (यथा- सिंह, बाघ भेड़िया, हाथी, वानर, भालू और मृगं ) गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती - ये सात ही छन्द एक- एक यज्ञका निर्वाह करते हैं । सप्तर्षि नामसे प्रसिद्ध ऋपियों की संख्या भी सात ही है ( यथा - मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, ऋतु, अङ्गिरा और वसि ), पूजन के संक्षिप्त उपचार भी सात हैं (यथा – गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन और ताम्बूल ) तथा वीणा के भी सात ही तार विख्यात हैं ॥१४॥
   अष्टावक्र बोले ;- तराजूमें लगी हुई सनकी डोरियाँ भी आठ ही होती है सेकड़ीका मान (तौल) करती है। सिंह को भी मार गिरानेवाले शरभके आठ ही पैर होते हैं। देवताओं में वसुओंकी संख्या भी आठ ही सुनी गयी है और सम्पूर्ण यज्ञ में आठ कोण के ही यूपका निर्माण किया जाता है ॥१५॥
   बन्दी ने कहा ;- पितृयज्ञमें समिधा देकर अग्निको उद्दीप्त करने के लिये जो मन्त्र पढ़े जाते हैं, उन्हें सामिधेनी ऋचा कहते हैं, उनकी संख्या नौ ही बतायी गयी है। यह जो नाना प्रकार की सृष्टि दिखायी देती है, इसमें प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहंकार तथा पञ्चतन्मात्रा- इन नौ पदार्थों- का संयोग कारण है, ऐसा विश पुरुषोंका कथन है। बृहती- छन्द के प्रत्येक चरण में नौ अक्षर बताये गये हैं और एकसे लेकर नो अंकों का योगी सदा गणना के उपयोग में आता हे ।।१६।।
    अष्टावक्र ने कहा ;- पुरुष के लिये संसार में दस दिशाएँ बतायी गयी हैं। दस सौ मिलकर ही पूरा एक सहस्र कहा जाता है, गर्भवती स्त्रियाँ दस मासतक ही गर्भ धारण करती हैं, निन्दक भी दर्स ही होते हैं, शरीरकी अवस्थाएँ भी दस हैं तथा पूजनीय पुरुष भी दस ही बताये गये है ।।१७।।
  बन्दी ने कहा ;- प्राणधारी पशुओं (जीवों) के लिये ग्यारह विर्षेय हैं। उन्हें प्रकाशित करने वाली इन्द्रियाँ भी ग्यारह ही हैं, यज्ञ, याग आदि में यूप भी ग्यारह ही होते हैं, प्राणियों के विकार भी ग्यारह है, तथा स्वर्गीय देवताओं में जो केंद्र कहलाते हैं; उनकी संख्या भी ग्यारह ही है ॥ १८ ॥
   अष्टावक बोले ;- एक संवत्सर में बारह महीने बताये गये हैं, जगती छन्दका प्रत्येक पाद बारह अक्षरोंका होता है, प्राकृत यज्ञ चारह दिनोंका माना गया है, ज्ञानी पुरुष यहाँ बारह आदित्यों का वर्णन करते हैं ॥ १९ ॥
   बन्दीने कहा ;— त्रयोदशी तिथि उत्तम बतायी गयी है। तथा यह पृथ्वी तेरह द्वीपोंसे युक्त हैं। 
  लोमशजी कहते हैं ;- इतना कहकर बन्दी चुप हो गया। तब शेष आधे श्लोककी पूर्ति अष्टावक्रने इस प्रकार की।
   अष्टावक बोले ;- केशी नामक दानवने भगवान् विष्णु- के साथ तेरह दिनोंतक युद्ध किया था वेदमें जो अतिशब्द- विशिष्ट छन्द बताये गये हैं, उनका एक-एक पाद तेरह आदि अक्षरोंसे सम्पन्न होता है ( अर्थात् अतिजगती छन्दका एक पाद तेरह अक्षरोंका, अतिशक्करीका एक पाद पंद्रह अक्षरोंका, अत्यष्टिका प्रत्येक पाद सत्रह अक्षरोंका तथा अतिधृतिका हर-एक पाद उन्नीस अक्षरोंका होता है ) ॥२०।।
    लोमशजी कहते हैं ;- इतना सुनते ही सूतपुत्र बन्दी चुप हो गया और मुँह नीचा किये किसी भारी सोच-विचार में पड़ गया। इधर अष्टावक्र बोलते ही रहे, यह सब देख दर्शकों और श्रोताओंमें महान् कोलाहल मच गया,, महाराज जनकके उस समृद्धिशाली यज्ञमें जब कि चारों ओर कोलाहल व्याप्त हो रहा था, सब ब्राह्मण हाथ जोड़े हुए श्रद्धापूर्वक अष्टावक्र के समीप आये और उनका आदर-सत्कारपूर्वक पूजन किया ॥ २१-२२ ॥
   तत्पश्चात् अष्टावक्र ने कहा ;- महाराज ! इसी चन्दीने पहले बहुत से शास्त्रज्ञ ( विद्वान् ) ब्राह्मणों को शास्त्रार्थमें पराजित करके पानी में डुबवाया है, अतः इसकी भी वही गति होनी चाहिये, जो इसके द्वारा दूसरोंकी हुई। इसलिये इसे पकड़कर शीघ्र पानी में डुबवा दीजिये ॥ २३ ॥
    बन्दी बोला ;- महाराज जनक! मैं राजा वरुणका पुत्र हूँ। मेरे पिताके यहाँ भी आपके इस यशके समान ही बारह वयोंमें पूर्ण होनेवाला यज्ञ हो रहा था । उस यज्ञके अनुष्ठान के लिये ही (जलमें हुवाने के बहाने ) कुछ चुने हुए श्रेष्ठ ब्राहागों को मैंने वरुणलोकमें भेज दिया था ।।२४।।
    वे सब के सब वरुणका यज्ञ देखनेके लिये गये हैं और अब पुनः लौटकर आ रहे हैं। मैं पूजनीय ब्राह्मण अष्टावक्र- जीका सत्कार करता हूँ; जिनके कारण मेरा अपने पिताजी से मिलना होगा ॥ २५ ॥
   अष्टावक्र बोले ;- राजन् ! चन्दीने अपनी जिस वाणी ( प्रवचनपटुता अथवा मेधा बुद्धिवल ) से विद्वान् ब्राह्मणों- को भी परास्त किया और समुद्र के जलमें डुबोया है, उसकी उस वाक्शक्तिको मैंने अपनी बुद्धिसे किस प्रकार उखाड़ फेंका है, यह सब इस सभा में बैठे हुए विद्वान् पुरुष मेरी बातें सुनकर ही जान गये होंगे ॥ २६ ॥
      अनि स्वभावसे ही दहन करनेवाला है तो भी यह शेय विषयको तत्काल जानने में समर्थ है। इस कारण परीक्षाके समय जो सदाचारी और सत्यवादी होते हैं, उनके घरोंको ( शरीरोंको) छोड़ देता है, जलाता नहीं । वैसे ही संत लोग भी विनम्रभाव से बोलनेवाले बालक पुत्रोंके वचनों से जो सत्य और हितकर बात होती है, उसे चुन लेते हैं--
( उसे मान लेते हैं, उनकी अवहेलना नहीं करते ) । भाव यह कि तुम को मेरे वचनका भाव समझकर उन्हें ग्रहण करना चाहिये ॥२७॥
    राजन् जान पड़ता है, तुमने लसोड़े के पत्तोंपर भोजन क्षीण हो गया है; अतः तुम बन्दीको बात सुन रहे हो, अथवा किया है या उसका फल खा लिया है, इसीसे तुम्हारा तेज इस बन्दीद्वारा की गयी स्तुतियाँ तुम्हें उन्मत्त कर रही हैं. यही कारण है कि अंकुशकी मार खाकर भी न माननेवाले मतवाले हाथीकी भाँति तुम मेरी इन बातोंको नहीं सुन रहे हो ॥२८॥
    जनकने कहा ब्रह्मन् ! मैं आपकी दिव्य एवं अलौकिक वाणी सुन रहा हूँ, आप साक्षात् दिव्यस्वरूप है, 'आपने शास्त्रार्थमें बन्दीको जीत लिया है। आपकी इच्छा अभी पूरी की जा रही है। देखिये यह है आपके द्वारा जीता हुआ बन्दी ।।२९॥
    अष्टावक्र बोले ;-- महाराज ! बन्दी के जीवित रहने से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। यदि इसके पिता वरुणदेव हैं तो उनके पास जाने के लिये इसे निश्चय ही जलाशय में डुबो दीजिये ॥३०॥
    बन्दीने कहा ;- राजन् मैं वास्तवमें राजा वरुणका पुत्र हूँ, अतः जलमें डुबाये जानेका मुझे कोई भय नहीं है । ये अष्टावक्र दीर्घकालसे नष्ट हुए अपने पिता कहोड को इसी समय देखेंगे ॥३१॥
   लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! तदनन्तर महामना वरुणद्वारा पूजित हुए वे समस्त ब्राह्मण ( जो बन्दीद्वारा जलमें डुबोये गये थे, ) सहसा राजा जनक के समीप प्रकट हो गये ।।३२।।
     उस समय कहोडने कहा ;- जनकराज ! लोग इसीलिये अच्छे कमद्वारा पुत्र पानेकी इच्छा रखते हैं, क्यों- कि जो कार्य मैं नहीं कर सका, उसे मेरे पुत्रने कर दिखाया।।३३।।
   जनकराज ! कभी-कभी निर्बलके भी बलवान्, मूर्खके भी पण्डित तथा अज्ञानी के भी ज्ञानी पुत्र उत्पन्न हो जाता है ॥३४।।
    राजन् ! आपका कल्याण हो, युद्धमें स्वयं ही यमराज तीखे फरसे से आपके शत्रुओंके मस्तक काटते रहें ।।३५॥
महाराज जनकके इस यज्ञमें उत्तम एवं महत्वपूर्ण और औकथ्य सामका गान किया जाता है, विधिपूर्वक सोमरसका पान हो रहा है, देवगण प्रत्यक्ष दर्शन देकर बड़े इर्पके साथ अपने-अपने पवित्र भाग ग्रहण कर रहे हैं ।।३६॥
    लोमशजी कहते हैं ;- राजन् ! बन्दीद्वारा जलमें डुबोये हुए वे सभी ब्राह्मण जब वहाँ अधिक तेजस्वी रूपसे प्रकट हो गये, तब राजाकी आज्ञा लेकर बन्दी स्वयं ही समुद्र- के जलमें समा गया ।।३७।।
    अष्टावक्र अपने पिताकी पूजा करके स्वयं भी दूसरे ब्राह्मणोंद्वारा यथोचित रूपसे सम्मानित हुए और इस प्रकार बन्दीपर विजय पाकर पिता एवं मामा के साथ अपने श्रेष्ठ आश्रमपर ही लौट आये ॥३८॥
तदनन्तर पिता कहोडने अष्टावक्रकी माता सुजाताके निकट पुत्र                अष्टावक्र से कहा ;- बेटा ! तुम शीघ्र ही इस 'समङ्गा' नदीमें स्नानके लिये प्रवेश करो । पिताकी आशाके अनुसार उन्होंने उस नदी में स्नानके लिये प्रवेश किया उसके जलका स्पर्श होनेपर तत्काल ही उनके सब अङ्ग सीधे हो गये ।।३९॥
   युधिष्ठिर ! इसीसे समङ्गा नदी पुण्यमयी हो गयी इसमें स्नान करनेवाला मनुष्य सब पापसे मुक्त हो जाता है। तुम भी स्नान, पान ( आचमन ) और अवगाहन के लिये अपनी पत्नी और भाइयोंके साथ इस नदी में प्रवेश करो ॥४०॥
    अजमीढकुलभूषण कुन्तीनन्दन ! तुम विश्वासपूर्वक अपने भाइयों और ब्राह्मणोंके साथ यहाँ एक रात मुखसे रहकर कलसे पुनः मेरे साथ पवित्र कमोंमें अविचल श्रद्धा-भक्ति रखते हुए दूसरे दूसरे पुण्यतीर्थों की यात्रा करना ।।४१।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगम अष्टावक्रीयोपख्यानवियक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ पैतीसवाँ अध्याय


"कर्दमिलक्षेत्र आदि तीर्थोकी महिमा, रैभ्य एवं भरद्वाजपुत्र यवक्रीत मुनिकी कथा तथा ऋषियोंका अनिष्ट करनेके कारण मेधावीकी मृत्यु"

   लोमशजी कहते हैं ;- राजन् ! यह मधुविला नदी प्रकाशित हो रही है। इसीका दूसरा नाम समङ्गा है और यह कर्दमिल नामक क्षेत्र है, जहाँ राजा भरतका अभिषेक किया गया था ॥१॥
    कहते हैं, वृत्रासुरका वध करके जब शचीपति इन्द्र श्रीहीन हो गये थे, उस समय उस समङ्गा नदीमें गोता लगा- कर ही वे अपने सब पापोंसे छुटकारा पा सके थे ॥२॥
   नरश्रेष्ठ! मैनाक पर्वतके कुक्षि-भाग में यह विनशन नामक तीर्थ है, जहाँ पूर्वकालमें अदिति देवीने पुत्र प्राप्ति के लिये साध्य देवताओंके उद्देश्यसे अन्न तैयार किया था ॥३॥
    भरतवंशके श्रेष्ठ पुरुषो ! इस पर्वतराज हिमालयपर आरूढ़ होकर तुम सब अथश फैलानेवाली और नाम लेनेके अयोग्य अपनी श्रीहीनताको शीघ्र ही दूर भगा दोगे ॥४॥
  युधिष्ठिर ! ये कनखलकी पर्वत-मालाएँ हैं, जो ऋषियोंको बहुत प्रिय लगती हैं। ये महानदी गङ्गा सुशोभित हो रही हैं ।।५।।

  यहीं पूर्वकालमें भगवान् सनत्कुमारने सिद्धि प्राप्त की थी अजमीढनन्दन ! इस गङ्गामें स्नान करके तुम सब पाप से छुटकारा पा जाओगे ॥६॥
कुन्तीकुमार ! जलके इस पुण्य सरोवर, भृगुतुङ्ग पर्वतपर तथा 'उष्णीगङ्ग' नामक तीर्थमें जाकर तुम अपने मन्त्रियों- सहित स्नान और आचमन करो ॥ ७ ॥
यह स्थूलशिरा मुनिका रमणीय आश्रम शोभा पा रहा है । कुन्तीनन्दन ! यहाँ अहंकार और क्रोधको त्याग दो ।।८।।
    पाण्डुनन्दन ! यह रैभ्यका सुन्दर आश्रम प्रकाशित हो रहा है, जहाँ विद्वान् भरद्वाजपुत्र यवक्रीत नष्ट हो गये थे ।।९।।
   युधिष्ठिर ने पूछा ;- ब्रहान् ! प्रतापी भरद्वाज मुनि कैसे योगयुक्त हुए थे और उनके पुत्र यवक्रीत किसलिये नष्ट हो गये थे ? ॥१०॥
ये सब बातें मैं यथार्थरूपसे ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ । उन देवोपम मुनियोंके चरित्रोंका वर्णन सुनकर मेरे मनको बड़ा सुख मिलता है ।।११॥
   लोमशजी ने कहा ;- राजन् ! भरद्वाज तथा रैभ्य दोनों एक दूसरे के सखा थे और निरन्तर इसी आश्रम में बड़े प्रेमसे रहा करते थे ॥१२॥
रैभ्यके दो पुत्र थे- अर्वावसु और परावसु । भारत ! भरद्वाजके पुत्र का नाम 'यवक्री' अथवा 'यवक्रीत' था ॥१३॥
भारत ! पुत्रसहित रैभ्य बड़े विद्वान् थे । परंतु भरद्वाज केवल तपस्या में संलग्न रहते थे । युधिष्ठिर ! बाल्यावस्था से ही इन दोनों महात्माओं की अनुपम कीर्ति सब ओर फैल रही थी ॥१४॥
निष्पाप युधिष्ठिर ! यवक्रीतने देखा, मेरे तपस्वी पिताका लोग सत्कार नहीं करते हैं; परंतु पुत्रसहित रैभ्यका ब्राह्मणोंद्वारा बड़ा आदर होता है ।।१५।।
    यह देख तेजस्वी यवक्रीतको बड़ा संताप हुआ। पाण्डु- नन्दन ! वे क्रोधसे आविष्ट हो वेदोका ज्ञान प्राप्त करने के लिये घोर तपस्या में लग गये ॥१६॥
   उन महातपस्वीने अत्यन्त प्रज्ज्वलित अग्निमें अपने शरीरको तपाते हुए इन्द्रके मनमें संताप उत्पन्न कर दिया ।।१७।।
युधिष्ठिर ! तब इन्द्र यवक्रीतके पास आकर बोले,,
   इंद्र बोले ;- 'तुम किसलिये यह उच्चकोटिकी तपस्या कर रहे हो ?' ॥१८॥
   यवक्रीत ने कहा ;- देववृन्दपूजित महेन्द्र ! मैं यह उच्चकोटिकी तपस्या इसलिये करता हूँ कि द्विजातियोंको बिना पढ़े ही सब वेदों का ज्ञान हो जाय ॥१९॥
   पाकशासन ! मेरा यह आयोजन स्वाध्याय के लिये ही है। कौशिक ! मैं तपस्याद्वारा सब बातोंका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ ॥२०॥
प्रभो ! गुरुके मुखसे दीर्घकालके पश्चात् वेदोंका ज्ञान हो सकता है अतः मेरा यह महान् प्रयत्न शीघ्र ही सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान प्राप्त करने के लिये है ।।२१ ॥
   इन्द्र बोले ;- विप्रर्षे ! तुम जिस रादसे जाना चाहते हो, वह अध्ययनका मार्ग नहीं है। स्वाध्याय के समुचित मार्गको नष्ट करनेसे तुम्हें क्या लाभ होगा ? अतः जाओ गुरु के मुख से ही अध्ययन करो ॥२२॥
   लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर । ऐसा कहकर इन्द्र चले गये तब अत्यन्त पराक्रमी यवक्रीतने भी पुनः तपस्याके लिये ही चोर प्रयास आरम्भ कर दिया ॥२३॥
   राजन् ! उसने घोर तपस्याद्वारा महान् तपका संचय करते हुए देवराज इन्द्रको अत्यन्त संतप्त कर दिया; यह बात हमारे सुनने में आयी है ।।२४।।
    महामुनि यवक्रीतको इस प्रकार तपस्या करते देख इन्द्रने उनके पास जाकर पुनः मना किया और कहा,,
   इंद्र बोले ;- 'मुने ! तुमने ऐसे कार्यका आरम्भ किया है, जिसकी सिद्धि होनी असम्भव है तुम्हारा यह (द्विजमात्र के लिये बिना पढ़े बेदका ज्ञान होनेका) आयोजन बुद्धि संगत नहीं है; किंतु केवल तुमको और तुम्हारे पिताको ही वेदों का ज्ञान होगा ।।२५-२६।।
    यवक्रीत ने कहा ;- देवराज ! यदि इस प्रकार आप मेरे इष्ट मनोरथकी सिद्धि नहीं करते हैं, तो मैं और भी कठोर नियम लेकर अत्यन्त भयंकर तपस्या में लग जाऊँगा ।।२७।।
     देवराज इन्द्र ! यदि आप यहाँ मेरी सारी मनोवाञ्छित कामना पूरी नहीं करते हैं, तो मैं प्रज्वलित अग्निमें अपने एक-एक अङ्गको होम दूँगा इस बातको आप अच्छी तरह समझ लें ॥२८॥
   लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! उन महामुनिके उस निश्चयको जानकर बुद्धिमान् इन्द्रने उन्हें रोकने के लिये बुद्धि- पूर्वक कुछ विचार किया और एक ऐसे तपखी ब्राह्मणका रूप धारण कर लिया, जिसकी उम्र कई सौ वर्षकी थी तथा जो यक्ष्माका रोगी और दुबल दिखायी देता था ।।२९-३०॥
  गङ्गा जिस तीर्थमें यवक्रीत मुनि स्नान आदि किया करते थे, उसमें वे ब्राह्मण देवता बालद्वारा पुल बनाने लगे ॥३१॥
द्विजश्रेष्ठ यवक्रीतने जय इन्द्रका कहना नहीं माना, तब वे बालू गङ्गाजाको भरने लगे, वे निरन्तर एक-एक मुट्ठी बालू गङ्गाजी में छोड़ते थे और इस प्रकार उन्होंने युवक को दिखाकर पुल बाँधनेका कार्य आरम्भ कर दिया ।।३२-३३।।
मुनिवर यवक्रीत ने देखा, ब्राह्मण देवता पुल बाँधने के लिये बड़े यत्नशील हैं, तब उन्होंने हँसते हुए इस प्रकार कहा,,--।।३४॥
   यवक्रीत बोले ;- 'ब्रह्मन् ! यह क्या है ? आप क्या करना चाहते हैं ? आप प्रयत्न तो महान् कर रहे हैं, परंतु यह व्यर्थ है' ॥३५॥
   इन्द्र बोले ;- तात ! मैं गङ्गाजीवर पुल बाँधूंगा । इससे पार जानके लिये सुखद मार्ग बन जायगा क्योंकि पुलके न होनेसे इधर आने-जानेवाले लोगों को बार-बार तैरनेका कष्ट उठाना पड़ता है ॥३६॥
   यवक्रीतने कहा ;- तपोधन ! यहाँ अगाध जलराशि भरी है; अतः तुम पुल बाँधने में सफल नहीं हो सकोगे । इसलिये इस असम्भव कार्यसे मुँह मोड़ लो और ऐसे कार्य में हाथ डालो, जो तुमसे हो सके ॥ ३७ ॥
    इन्द्र बोले ;- मुने! जैसे आपने बिना पढ़े वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये यह तपस्या प्रारम्भ की है, जिसकी सफलता असम्भव है, उसी प्रकार मैंने भी यह पुल बाँधनेका भार उठाया है ।।३८।।
   यवक्रीत कहा ;- देवेश्वर पाकशासन ! जैसे आपका वह पुल बाँधने का आयोजन व्यर्थ है, उसी प्रकार यदि मेरी इस तपस्याको भी आप निरर्थक मानते हैं तो वही कार्य कीजिये जो सम्भव हो, मुझे ऐसे उत्तम वर प्रदान कीजिये, जिनके द्वारा मैं दूसरोंसे बढ़-चढ़कर प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकूँ ॥३९-४०।।
   लोमशजी कहते हैं ;-- राजन् तब इन्द्रने महातपस्वी यवक्रीतके कथनानुसार उन्हें वर देते हुए कहा- 'यवक्रीत तुम्हारे पितासहित तुम्हें वेदोंका यथेष्ट ज्ञान प्राप्त हो जायगा । साथ ही और भी जो तुम्हारी कामना हो, वह पूर्ण हो जायगी ,अब तुम तपस्या छोड़कर अपने आश्रमको लौट जाओ ।" इस प्रकार पूर्णकाम होकर, यवक्रीत अपने पिताके पास गये और इस प्रकार बोले ।।४१-४२।।
   यवक्रीतने कहा ;- पिताजी ! आपको और मुझे दोनों- को ही सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान हो जायगा। साथ ही हम दोनों दूसरोंसे ऊँची स्थिति हो जायेंगे — ऐसा वर मैंने प्राप्त किया है ।।४३।।
   भरद्वाज बोले ;- तात ! इस तरह मनोवाञ्छित वर प्राप्त करने के कारण तुम्हारे मनमें अहंकार उत्पन्न हो जायगा और अहंकारसे युक्त होनेपर तुम कृपण होकर शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे ।।४४।।
इस विषय में विज्ञजन देवताओंकी कही हुई यह गाथा सुनाया करते हैं- प्राचीनकाल में बालधि नामसे प्रसिद्ध एक शक्तिशाली मुनि थे ।।४५॥
    उन्होंने पुत्र-शोक संतप्त होकर अत्यन्त कठोर तपस्या की । तपस्याका उद्देश्य यह था कि मुझे देवोपम पुत्र प्राप्त हो अपनी उस अभिलाषा के अनुसार बालधिको एक पुत्र प्राप्त हुआ ।।४६।।
   देवताओंने उनपर कृपा अवश्य की, परंतु उनके पुत्रको देवतुल्य नहीं बनाया और वरदान देते हुए यह कहा कि मरण- धर्मा मनुष्य कभी देवता के समान अमर नहीं हो सकता । अतः उसकी आयु निमित्त (कारण) के अधीन होगी' ।।४७।।
     बालधि बोले ;- देववरो! जैसे ये पर्वत सदा अक्षय भावसे खड़े रहते हैं, वैसे ही मेरा पुत्र भी सदा अक्षय बना रहे ये पर्वत ही उसकी आयुके निमित्त होंगे। अर्थात् जब- तक ये पर्वत यहाँ बने रहें तबतक मेरा पुत्र भी जीवित रहे ॥४८।।
   भरद्वाज कहते हैं ;- यवक्रीत ! तदनन्तर वालधिके पुत्रका जन्म हुआ, जो मेघायुक्त होने के कारण मेधावी नाम से विख्यात था । वह स्वभावका बड़ा क्रोधी था। अपनी आयुके विषयमें देवताओंके वरदानकी बात सुनकर मेधावी घमण्ड में भर गया और ऋषियोंका अपमान करने लगा ॥४९॥
   इतना ही नहीं, वह ऋषि-मुनियोंको सतानेके उद्देश्यसे ही इस पृथ्वीपर सब ओर विचरा करता था। एक दिन मेधावी महान् शक्तिशाली एवं मनीषी धनुषाक्षके पास जा पहुँचा, और उनका तिरस्कार करने लगा। तब तपोबलसम्पन्न ऋषि धनुषाश्च ने उसे शाप देते हुए कहा,,
   धनुषाश्च बोले ;- 'अरे, तू जलकर भस्म हो जा ।' परंतु उनके कहनेपर भी वह भस्म नहीं हुआ ।।५०-५१।।
शक्तिशाली धनुषाक्षने ध्यानमें देखा कि मेघावी रोग एवं मृत्युसे रहित है । तब उसकी आयुके निमित्तभूत पर्वतोंको उन्होंने भैंसों द्वारा विदीर्ण करा दिया ॥५२॥
  निमित्तका नाश होते ही उस मुनिकुमारकी सहसा मृत्यु हो गयी तदनन्तर पिता उस मरे हुए पुत्रको लेकर अत्यन्त विलाप करने लगे,
अधिक पीड़ित मनुष्योंकी भाँति उन्हें विलाप करते देख वहाँके समस्त वेदवेत्ता मुनिगण एकत्र हो जिस गाथाको गाने लगे, उसे बताता हूँ, सुनो ॥५३-५४।।
   मरणधर्मा मनुष्य किसी तरह देवके विधानका उल्लङ्घन नहीं कर सकता, तभी तो धनुपाक्षने उस बालककी आयुके निमित्तभूत पर्वतोंका भैसौंद्वारा भेदन करा दिया ॥६५॥
इस प्रकार बालक तपस्वी वर पाकर घमण्ड में भर जाते - हैं और ( अपने दुर्व्यवहारोंके कारण ) शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। तुम्हारी भी यही अवस्था न हो ( इसलिये सावधान किये देता हूँ ) ॥५६॥
   ये रैभ्य मुनि महान् शक्तिशाली हैं। इनके दोनों पुत्र भी इन्हींके समान हैं । बेटा ! तुम उन रैभ्यमुनिके पास कदापि न जाना और आलस्य छोड़कर इसके लिये सदा प्रयत्नशील रहना ॥५७॥
बेटा ! तुम्हें सावधान करनेका कारण यह है कि शक्ति- शाली तपस्वी महर्षि रैभ्य बड़े क्रोधी हैं। वे कुपित होकर रोषसे तुम्हें पीड़ा दे सकते हैं ॥५८॥
    यवक्रीत बोले ;- पिताजी ! मैं ऐसा ही करूँगा, आप किसी तरह मन में संताप न करें। जैसे आप मेरे माननीय हैं, वैसे रैभ्यमुनि मेरे लिये पिता के समान हैं ॥५९॥
    लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! पितासे यह मीठी बातें कहकर यवक्रीत निर्भय विचरने लगे। दूसरे ऋषियों को सतानेमें उन्हें अधिक सुख मिलता था। वैसा करके वे बहुत संतुष्ट रहते थे ।।६०॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में यवक्रीतोपाख्यानविषयक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(नोट :- हम ने हमारी तरफ से हरसंभव प्रयास किया है कि आप तक शुद्ध सामग्री पहुंचे फिर भी क्यों कि सभी पर्व  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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