सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ छब्बीसवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"राजा मान्धाता की उत्पत्ति और संक्षिप्त चरित्र"
युधिष्ठिर ने पूछा ;- ब्राह्मणश्रेष्ठ ! युवनाश्वके पुत्र नृपश्रेष्ठ मान्धाता तीनों लोकोंमें विख्यात थे। उनकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई थी ? ।।१।।
निष्पाप महर्षे मैं आपके मुखसे उन सत्यकीर्ति एवं बुद्धिमान् राजा मान्धाता का वह सब चरित्र सुनना चाहता हूँ । इन्द्रके समान तेजस्वी और अनुपम पराक्रमी उन नरेशका 'मान्धाता' नाम कैसे हुआ ? और उनके जन्मका वृत्तान्त क्या है ? बताइये; क्योंकि आप ये सब बातें बताने में कुशल हैं ॥ ३ ॥
लोमशजीने कहा ;- राजन् ! लोकमें उन महामना नरेशका 'मान्धाता' नाम कैसे प्रचलित हुआ ? यह बतलाता हूँ, ध्यान देकर सुनो ॥ ४ ॥
इक्ष्वाकुवंशमें युवनाश्व नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। भूपाल युवनाश्वने प्रचुर दक्षिणावाले बहुत-से यशका अनुष्ठान किया ॥ ५ ॥
वे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ थे। उन्होंने एक सहल अश्वमेध यज्ञ पूर्ण करके बहुत दक्षिणाके साथ दूसरे दूसरे श्रेष्ठ यज्ञ- द्वारा भी भगवान् की आराधना की , वे महामना राजर्षि महान् व्रतका पालन करनेवाले थे तो भी उनके कोई संतान नहीं हुई। तब वे मनस्वी नरेश राज्यका भार मन्त्रियोंपर रखकर शास्त्रीय विधिके अनुसार अपने आपको परमात्म-चिन्तनमें लगाकर सदा वनमें ही रहने लगे। एक दिनकी बात है, राजा युवनाश्व उपवासके कारण दुःखित हो गये । प्याससे उनका हृदय सूखने लगा उन्होंने जल पीनेकी इच्छासे रातके समय महर्षि भृगुके आश्रम में प्रवेश किया। राजेन्द्र ! उसी रातमें महात्मा भृगुनन्दन महर्षि च्यवनने सुद्युम्नकुमार युवनाश्वको पुत्रकी प्राप्ति करानेके लिये एक इष्टि की थी उस इष्टिके समय महर्षिने मन्त्रपूत जलसे एक बहुत बड़े कलशको भरकर रख दिया था ।। ६-१० ॥
महाराज ! वह कलशका जल पहलेसे ही आश्रमके भीतर इस उद्देश्यसे रखा गया था कि उसे पीकर राजा युवनाश्वकी रानी इन्द्रके समान शक्तिशाली पुत्रको जन्म दे सके, उस कलशको वेदीपर रखकर सभी महर्षि सो गये थे । रात में देरतक जागने के कारण वे सब के सब थके हुए थे । युवनाश्व उन्हें लाँघकर आगे बढ़ गये, वे प्यास ते पीड़ित थे। उनका कण्ठ सूख गया था। पानी पीनेकी अत्यन्त अभिलापासे वे उस आश्रमके भीतर गये और शान्तभाव से जलके लिये याचना करने लगे राजा थककर सूखे कण्ठसे पानी के लिये चिल्ला रहे थे, परंतु उस समय चैचें करनेवाले पक्षीकी भाँति उनकी चीख-पुकार कोई भी न सुन सका, तदनन्तर जलसे भरे हुए पूर्वोक्त कलशपर उनकी दृष्टि पड़ी देखते ही वे बड़े वेगसे उसकी ओर दौड़े और ( इच्छानुसार ) पीकर उन्होंने बचे हुए जलको वहीं गिरा दिया ॥११- १५ ॥
राजा युवनाश्व प्याससे बड़ा कष्ट पा रहे थे। वह शीतल जल पीकर उन्हें बड़ी शान्ति मिली। वे बुद्धिमान् नरेश उस समय जल पीनेसे बहुत सुखी हुए, तत्पश्चात् तपोधन च्यवन मुनि के सहित सब मुनि जाग उठे । उन सबने उस कलश को जल से शून्य देखा, फिर तो ये सब एकत्र हो गये और एक दूसरे से पूछने लगे,,
मुनि बोले ;- 'यह किसका काम है ?
युवनाश्व ने सामने आकर कहा ;- "यह मेरा ही कर्म है ।" इस प्रकार उन्होंने सत्यको स्वीकार कर लिया,
तब भगवान् च्यवन ने कहा ;- 'महान् चल और . पराक्रम से सम्पन्न राजर्षि युवा ! यह तुमने ठीक नहीं किया । इस कलशमें मैंने तुम्हें ही पुत्र प्रदान करनेके लिये तपस्या से संस्कारयुक्त किया हुआ जल रखा था और कठोर तपस्या करके उसमें बहातेजकी स्थापना की थी ।। १६-२० ।।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ छब्बीसवें अध्याय के श्लोक 21-47 का हिन्दी अनुवाद)
'राजन् ! उक्त विधिसे इस जलको मैंने ऐसा शक्ति- सम्पन्न कर दिया था कि इसको पीनेसे एक महाबली, महा- पराक्रमी और तपोबलसम्पन्न पुत्र उत्पन्न हो, जो अपने बल- पराक्रम से देवराज इन्द्रको भी यमलोक पहुँचा सके; उसी जलको तुमने आज पी लिया, यह अच्छा नहीं किया। 'अब हमलोग इसके प्रभावको टालने या बदलने में . असमर्थ हैं। तुमने जो ऐसा कार्य कर डाला है, इसमें निश्चय ही दैवकी प्रेरणा है । 'महाराज ! तुमने प्यास से व्याकुल होकर जो मेरे तपो- बल से संचित तथा विधिपूर्वक मन्त्र से अभिमन्त्रित जलको पी लिया है, उसके कारण तुम अपने ही पेंटसे तथाकथित इन्द्र- विजयी पुत्र को जन्म दोगे । इस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये हम तुम्हारी इच्छा के अनुरूप अत्यन्त अद्भुत यज्ञ करायेंगे, जिससे तुम स्वयं भी शक्तिशाली रहकर इन्द्रके समान पराक्रमी पुत्र उत्पन्न कर सकोगे और गर्भधारणजनित कष्टका भी तुम्हें अनुभव न होगा',
तदनन्तर पूरे सौ वर्ष बीतने पर उन महात्मा राजा युवनाश्वकी वार्थी कोख फाड़कर एक सूर्य के समान महातेजस्वी बालक बाहर निकला तथा राजाकी मृत्यु भी नहीं हुई । यह एक अद्भुत-सी बात हुई ।। २१-२८ ।।
तत्पश्चात् महातेजस्वी इन्द्र उस बालक को देखने के लिये वहाँ आये। उस समय देवताओं ने महेन्द्र से पूछा ,,
देवता बोले ;- "यह बालक क्या पीयेगा ?
तब इन्द्रने अपनी तर्जनी अंगुली बालक के मुँह में डाल दी और कहा,,
इंद्र बोले ;– माम् अयं धाता ।' 'अर्थात् यह मुझे ही पीयेगा' वज्रधारी इन्द्रके ऐसा कहनेपर इन्द्र आदि सब देवताओंने मिलकर उस बालक का नाम 'मान्धाता' रख दिया राजन् ! इन्द्रकी दी हुई प्रदेशिनी (तर्जनी) अङ्गुलि- का रसास्वादन करके वह महातेजस्वी शिशु तेरह बित्ता बढ़ गया ।
महाराज ! उस समय शक्तिशाली मान्धाता के चिन्तन करने मात्रसे ही धनुर्वेदसहित सम्पूर्ण वेद और दिव्य अस्त्र ( ईश्वरकी कृपासे ) उपस्थित हो गये, आजगव नामक धनुष, सींगके बने हुए बाण और अभेद्य कवच - सभी तत्काल उनकी सेवामें आ गये,
भारत ! साक्षात् देवराज इन्द्रने मान्धाताका राज्या- भिषेक किया । भगवान् विष्णुने जैसे तीन पगोंद्वारा त्रिलोकीको नाप लिया था, उसी प्रकार मान्धाताने भी धर्मके द्वारा तीनों लोकोंको जीत लिया, उन महात्मा नरेशका शासनचक्र सर्वत्र बेरोक-टोक चलने लगा। सारे रत्न राजर्षि मान्धाताके यहाँ स्वयं उपस्थित हो जाते थे ।
युधिष्ठिर ! इस प्रकार उनके लिये यह सारी पृथ्वी धन- रत्नोंसे परिपूर्ण थी। उन्होंने पर्याप्त दक्षिणा वाले नाना प्रकार के बहुसंख्यक यश द्वारा भगवान् की समाराधना की।
राजन् ! महातेजस्वी एवं परम कान्तिमान् राजा मान्धाताने यज्ञमण्डलों का निर्माण करके पर्याप्त धर्मका सम्पादन किया और उसीके फलसे स्वर्गलोकमे इन्द्रका आधा सिंहासन प्राप्त कर लिया, उन धर्मपरायण बुद्धिमान् नरेशने केवल शासन मात्र से एक ही दिनमें समुद्र, खान और नगरोंसहित सारी पृथ्वी- पर विजय प्राप्त कर ली ,
महाराज ! उनके दक्षिणायुक्त यज्ञोंके चैत्यों (यज्ञ- मण्डपों) से चारों ओरकी पृथ्वी भर गयी थी, कहीं कोई भी स्थान ऐसा नहीं था, जो उनके यज्ञमण्डपोंसे घिरा न हो,
महाराज ! महात्मा राजा मान्धाताने दस हजार पद्म गौएँ ब्राह्मणों को दानमें दी थीं, ऐसा जानकार लोग कहते हैं ।।३४-४१ ॥
उन महामना नरेशने चारह वर्षोंतक होनेवाली अना- वृष्टिके समय वज्रधारी इन्द्रके देखते-देखते खेतीकी उन्नति लिये स्वयं पानीकी वर्षा की थी, उन्होंने महामेघ के समान गर्जते हुए महापराक्रमी चन्द्रवंशी गान्धारराजको बाणोंसे घायल करके मार डाला था,
युधिष्ठिर ! वे अपने मनको वशमें रखते थे। उन्होंने अपने तपोबल से देवता, मनुष्य, तिर्यक् और स्थावर-चार प्रकारकी प्रजाकी रक्षा की थी। साथ ही अपने अत्यन्त तेजसे सम्पूर्ण लोकोंको संतप्त कर दिया था, सूर्य के समान तेजस्वी उन्हीं महाराज मान्धाताके देव- यशका यह स्थान है, जो कुरुक्षेत्र की सीमाके भीतर परम पवित्र प्रदेश में स्थित है, इसका दर्शन करो । राजेन्द्र ! महाराज मान्धाताकी भाँति तुम भी धर्मपूर्वक पृथ्वीकी रक्षा करते रहनेपर अक्षय स्वर्गलोक प्राप्त कर लोगे,,
भूपाल ! तुम मुझसे जिसके विषय में पूछ रहे थे, वह मान्धाताका उत्तम जन्म-वृत्तान्त और उनका महान् चरित्र सब कुछ तुम्हें सुना दिया,,
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- भारत महर्षि लोमशके ऐसा कहनेपर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने पुनः सोमकके विषय में प्रश्न किया ।।४२-४७ ॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्र पर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग मान्धातोपाख्यानविषयक एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ सत्ताईसवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
"सोमक और जन्तुका उपाख्यान"
युधिष्ठिर ने पूछा ;-- वक्ताओंमें श्रेष्ठ मद्दर्षे ! राजा सोमकका बल-पराक्रम कैसा था ? मैं उनके कर्म और प्रभावका यथार्थ वर्णन सुनना चाहता हूँ।
लोमशजीने कहा ;- युधिष्ठिर ! सोमक नामसे प्रसिद्ध एक धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। उनकी सौ रानियाँ थीं। वे सभी रूप अवस्था आदिमें प्रायः एक समान थीं ॥
परंतु दीर्घकालतक महान् प्रयत्न करते रहनेपर भी वे अपनी उन रानियों के गर्भ से कोई पुत्र न प्राप्त कर सके राजा सोमक वृद्धावस्था में भी इसके लिये निरन्तर यत्नशील थे; अतः किसी समय उनकी सौ स्त्रियोंमेंसे किसी एकके गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम था जन्तु ,
राजन् ! उसके जन्म लेने के पश्चात् सभी माताएँ काम- भोगकी ओर से मुँह मोड़कर सदा उसी बच्चे के पास उसे सब ओर से घेरकर बैठी रहती थीं ।
एक दिन एक चींटीने जन्तुके कटिभागमें डॅस लिया । चींटी के काटने पर उसकी पीड़ा से विकल हो जन्तु सहसा रोने लगा । इससे उसकी सब माताएँ भी सहसा जन्तुके शरीरसे चींटीको हटाकर अत्यन्त दुःखी हो जोर-जोर से रोने लगीं उनके रोदनकी वह सम्मिलित ध्वनि बड़ी भयंकर प्रतीत हुई ।
उस समय राजा सोमक पुरोहितके साथ मन्त्रियों की सभामें बैठे थे उन्होंने अकस्मात् वह आर्तनाद सुना, सुनकर राजा ने 'यह क्या हो गया ? इस बातका पता लगानेके लिये द्वारपालको भेजा । द्वारपालने लौटकर राजकुमारसे सम्बन्ध रखनेवाली पूर्वोक्त घटनाका यथावत् वृत्तान्त कह सुनाया।
तब शत्रुदमन राजा सोमक ने मन्त्रियोंसहित उठकर बड़ी उतावली के साथ अन्तःपुरमें प्रवेश किया और पुत्रको आश्वासन दिया ॥१-१०॥
बेटेको सान्खना देकर राजा अन्तःपुरसे बाहर निकले और पुरोहित तथा मन्त्रियोंके साथ पुनः मन्त्रणागृह में जा बैठे उस समय सोमक ने कहा,,
सोमक बोले ;- इस संसार में किसी पुरुषके एक ही पुत्रका होना धिक्कारका विषय है एक पुत्र होनेकी अपेक्षा तो पुत्रहीन रह जाना ही अच्छा है एक ही संतान हो तो सब प्राणी उसके लिये सदा आकुल- व्याकुल रहते हैं, अतः एक पुत्रका होना शोक ही है।
ब्रह्मन् मैंने अच्छी तरह जाँच-बूझकर पुत्रकी इच्छा से अपने योग्य सौ स्त्रियोंके साथ विवाह किया, किंतु उनके कोई संतान नहीं हुई ।
यद्यपि मेरी सभी रानियाँ संतानके लिये यत्नशील थीं, तथापि किसी तरह मेरे यही एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम जन्तु है इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है ?
द्विजश्रेष्ठ ! मेरी तथा इन रानियोंकी अधिक अवस्था बीत गयी, किंतु अभीतक मेरे और उन पत्नियोंके प्राण केवल इस एक पुत्रमें ही बसते हैं ।
क्या कोई ऐसा उपयोगी कर्म हो सकता है, जिससे मेरे सौ पुत्र हो जायँ भले ही वह कर्म महान् हो लघु हो अथवा अत्यन्त दुष्कर हो।
पुरोहित ने कहा ;- सोमक ! ऐसा कर्म है, जिससे तुम्हें सौ पुत्र हो सकते हैं। यदि तुम उसे कर सको तो बताऊँगा,
सोमकने कहा ;- भगवन् ! आप वह कर्म मुझे बताइये, जिससे सौ पुत्र हो सकते हैं। वह करने योग्य हो या न हो, मेरेद्वारा उसे किया हुआ ही जानिये।
पुरोहित ने कहा ;- राजन्! मैं एक यज्ञ आरम्भ करवाऊँगा, उसमें तुम अपने पुत्र जन्तुकी आहुति देकर यजन करो। इससे शीघ्र ही तुम्हें सौ परम सुन्दर पुत्र प्राप्त होंगे ।
जिस समय उसकी चर्बीकी आहुति दी जायगी, उस समय उसके धूएँको सूँघ लेनेपर सब माताएँ ( गर्भवती हो ) आपके लिये अत्यन्त पराक्रमी पुत्रोंको जन्म देंगी, आपका पुत्र जन्तु पुनः अपनी माता के ही पेट से उत्पन्न होगा। उस समय उसकी बायीं पसली में एक सुनहरा चिह्न होगा ॥११-२१॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में जन्तूपाख्यान विषयक एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ अठाईसवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
एक सौ अठाईसवाँ अध्याय
"सोमक को सौ पुत्रोंकी प्राप्ति तथा सोमक और पुरोहित का समानरूप से नरक और पुण्यलो कों का उपभोग करना"
सोमक ने कहा ;- ब्रह्मन् ! जो-जो कार्य जैसे-जैसे करना हो, वह उसी प्रकार कीजिये। मैं पुत्रकी कामना से आपकी समस्त आज्ञाओंका पालन करूँगा,
लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! तब पुरोहित ने राजा सोमक से जन्तुकी बलि देकर किये जानेवाले यज्ञ को प्रारम्भ करवाया। उस समय करुणामयी माताएँ अत्यन्त शोक से व्याकुल हो ‘हाय ! हम मारी गयीं' ऐसा कहकर रोती हुई अपने पुत्रजन्तुको बलपूर्वक अपनी ओर खींच रही थीं। वे करुण स्वर में रोती हुई बालकके दाहि ने हाथ को पकड़कर खींचती थीं और पुरोहितजी उसके बायें हाथको पकड़कर अपनी ओर खींच रहे थे । सब रानियाँ शोक से आतुर हो कुररी पक्षीकी भाँति विलाप कर रही थीं और पुरोहित ने उस बालक को छीनकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले तथा विधिपूर्वक उसकी चर्चियोंकी आहुति दी। कुरुनन्दन ! चर्बी की आहुति के समय बालक की माताएँ धूमकी गन्ध सुँघकर सहसा शोकपीडित हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं। तदनन्तर ये सब सुन्दरी रानियाँ गर्भवती हो गयीं ।
युधिष्ठिर ! तदनन्तर दस मास बीतनेपर उन सबके गर्भसे राजा सोमक के सौ पुत्र हुए ,
राजन् ! सोमकका ज्येष्ठ पुत्र जन्तु अपनी माताके ही गर्भ- से प्रकट हुआ, वही उन सब रानियों को विशेष प्रिय था। उन्हें अपने पुत्र उतने प्यारे नहीं लगते थे, उसकी दाहिनी पसली में पूर्वोक्त सुनहरा चिह्न स्पष्ट दिखायी देता था राजाके सौ पुत्रोंमें अवस्था और गुणोंकी दृष्टिसे भी वही श्रेष्ठ था,
तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् सोमक के पुरोहित परलोक- वासी हो गये। थोड़े दिनों के बाद राजा सोमक भी परलोकवासी हो गये यमलोक जानेपर सोमक ने देखा, पुरोहितजी घोर नरककी आगमें पकाये जा रहे हैं। उन्हें उस अवस्था में देखकर सोमक ने पूछा,,
सोमक जी बोले ;- ‘ब्रह्मन् ! आप नरककी आगमें कैसे पकाये जा रहे हैं ?
तब नरकाग्नि से अधिक संतप्त होते हुए पुरोहितने कहा,,
पुरोहित बोले ;- ' राजन् ! मैंने तुम्हें जो ( तुम्हारे पुत्रकी आहुति देकर ) यज्ञ करवाया था, उसी कर्मका यह फल है । यह सुनकर राजर्षि सोमक ने धर्मराज से कहा,,
सोमक बोले ;- 'भगवन् ! मैं इस नरक में प्रवेश करूँगा । आप मेरे पुरोहित को छोड़ दीजिये वे महाभाग मेरे ही कारण नरकाग्निमें पक रहे हैं। अतः मैं अपने आपको नरकमें रखूँगा, परंतु मेरे गुरुजीको उससे छुटकारा मिल जाना चाहिये' ॥ १-१३ ॥
धर्मराज ने कहा ;- राजन् ! कर्ता के सिवा दूसरा कोई उसके किये हुए कर्मों का फल कभी नहीं भोगता है। वक्ताओं श्रेष्ठ महाराज ! तुम्हें अपने पुण्यकमोंके फलस्वरूप जो ये पुण्य लोक प्राप्त हुए हैं, प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं ।
सोमक बोले ;-- धर्मराज! मैं अपने वेदवेत्ता पुरोहितके बिना पुण्यलोकों में जाने की इच्छा नहीं रखता स्वर्गलोक हो या नरक—मैं कहीं भी इन्हीं के साथ रहना चाहता हूँ । देव मेरे पुण्यकर्मोपर इनका मेरे समान ही अधिकार है । हम दोनों को यह पुण्य और पापका फल समानरूपसे मिलना चाहिये,,
धर्मराज बोले ;- राजन् ! यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो इनके साथ रहकर उतने ही समयतक तुम भी पापकमाँ- का फल भोगो, इसके बाद तुम्हें उत्तम गति प्राप्त होगी ।
लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! तब कमलनयन राजा सोमकने धर्मराजके कथनानुसार सच कार्य किया और भोगद्वारा पाप नष्ट हो जानेपर वे पुरोहितके साथ ही नरकसे छूट गये।
तत्पश्चात् उन गुरुप्रेमी नरेशने अपने गुरुके साथ ही पुण्यकर्मीद्वारा स्वयं प्राप्त किये हुए पुण्य-लोकके शुभ भोगोंका उपभोग किया, यह उन्हीं राजा सोमकका पवित्र आश्रम है, जो सामने ही सुशोभित हो रहा है यहाँ क्षमाशील होकर छः रात निवास करने से मनुष्य उत्तम गति प्राप्त कर लेता है
कुरुश्रेष्ठ ! हम सब लोग इस आश्रम में छः राततक मन और इन्द्रियोंपर संयम रखते हुए निश्चिन्त होकर निवास करेंगे। तुम इसके लिये तैयार हो जाओ ॥१४-२१॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में जन्तूपाख्यानविषयक एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याया पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ उन्नतीसवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
एक सौ उन्नतीसवाँ अध्याय
"कुरुक्षेत्रके द्वारभूत लक्ष प्रस्रवण नामक सरस्वतीतीर्थकी महिमा"
लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! पूर्वकालमें यहाँ साक्षात् प्रजापतिने इष्टीकृत नामक सत्रका एक सहस्त्र वर्षातक चालू रहनेवाला अनुष्ठान किया था,,
यहीं यमुनाके तटपर नाभाग पुत्र अम्बरीपने भी यश किया था और यज्ञ पूर्ण होनेके पश्चात् सदस्योंको दस पद्म मुद्राएँ दान की थी तथा यज्ञों और तपस्याद्वारा परम सिद्धि प्राप्त कर ली थीं,
कुन्तीनन्दन ! यह नहुषकुमार ययातिका देश है, जो पुण्यकर्मा, याज्ञिक, महातेजस्वी और सार्वभौम सम्राट् थे वे सदा इन्द्र के साथ ईर्ष्या रखते थे। यहाँ यह उन्हींकी यज्ञभूमि है ।
देखो, यहाँ अग्नियोंसे युक्त नाना प्रकारकी वेदियाँ हैं, जिनसे यह सारी भूमि व्याप्त हो रही है, मानो पृथ्वी ययाति- के यज्ञ कर्मसि आक्रान्त हो उनकी पुण्य धारामें डूबी जा रही है ।
यह एक पत्तेवाली शमीका अवशेष अंश है तथा यह उत्तम सरोवर है। देखो, ये परशुरामजीके कुण्ड हैं और यह नारायणाश्रम है।
महाराज ! योगशक्ति से सारी पृथ्वीपर विचरनेवाले महातेजस्वी चीकनन्दन जमदग्निका प्रसर्पण (घूमने-फिरने- का स्थान ) तीर्थ है, जो रौप्या नामक नदीके समीप सुशोभित है ।
कुरुनन्दन ! इस तीर्थ के विषयमें एक परम्परा प्राप्त कथा- को सूचित करनेवाले कुछ श्लोक हैं, जिन्हें मैं पढ़ता हूँ, तुम मेरे मुखसे सुनो-(प्राचीन कालकी बात है, कोई स्त्री अपने पुत्रके साथ इस तीर्थमें निवास करने के लिये आयी थी, उससे ) एक भयंकर पिशाचीने, जिसने ओखली जैसे आभूषण पहन रखे थे, उन श्लोकोंको कहा था।
श्लोक ( का भाव) इस प्रकार है ,,-'अरी ! तू युगन्धर- में दही खाकर अच्युतस्थलमें निवास करके और भूतलय- में नहाकर यहाँ पुत्रसहित निवास करनेकी अधिकारिणी कैसे हो सकती है ? ॥ १-९ ॥
""" टिका टिप्पणीया ,,--युगन्धर एक पर्वत या प्रदेशका नाम है, जहाँके लोग ऊँटनी और गदहीतक दूधका दही जमा लेते हैं। उस लीने कभी वहाँ जाकर दही खाया था। धर्म-शास्त्रमें ऊँट और एक खुरवाले पशुओं के दूधको मदिरा के तुल्य बताया गया है—'औष्ट्र मेकशफ क्षीरं मुरातुल्यम् । इति ।
प्राचीन कालमें अच्युतस्थक नामक गाँव वर्णसंकरजातीय अन्त्य एवं चाण्डालों का निवास स्थान था। उस स्त्रीने उस गाँव में किसी समय निवास किया था। धर्म शास्त्र के अनुसार वर्णसंकरीके संसर्ग में आनेपर प्रायश्चित्तरूप से प्राजापत्य व्रत का अनुष्ठान करना चाहिये – “संसृज्य संकरैः सार्धं प्राजापत्यं व्रतं चरेत् । इति ।
'भूतलय' नामक गाँव चोरों और डाकुओं का अड्डा था वहाँ एक नदी थी, जिसमें मुर्दे बहाये जाते थे। उस स्त्री ने उसी दूषित जल में लान किया था। धर्म-शास्त्र के अनुसार उस गाँव रहने मात्र से प्राजापत्य व्रत करनेकी आवश्यकता है प्रोष्य भूत- लये विप्रः प्राजापत्यं व्रतं चरेत् । इति ॥ इन तीनों दोपोंसे युक्त होनेके कारण वह स्त्री तीर्थवास की अधिकारिणी नहीं रह गयी थी। """
(अच्छा, आयी है तो एक रात रह ले.) यदि एक रात यहाँ रह लेने के पश्चात् दूसरी रातमें भी रहेगी तो दिन में तो तेरा यह हाल है ( आज दिनमें तो तुमको यह कष्ट दिया गया है) और रात में तेरे साथ अन्यथा बर्ताव होगा (विशेष कष्ट दिया जायगा )"।
भरतश्रेष्ठ ! (इस किंवदन्तीके अनुसार किसीको भी यहाँ एक ही रात रहना चाहिये ) अतः हमलोग केवल आजकी रात में ही यहाँ निवास करेंगे। युधिष्ठिर यह तीर्थ कुरुक्षेत्रका द्वार बताया गया है ।
राजन् ! नहुषनन्दन राजा ययातिने यहीं प्रचुर रत्नराशि- की दक्षिणा से युक्त अनेक यशद्वारा भगवान्का यजन किया था । उन यज्ञ में इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई थी,, यह यमुनाजीका लक्षावतरण नामक उत्तम तीर्थ है। मनीषी पुरुष इसे स्वर्गलोकका द्वार बताते हैं।
यहीं यूप और ओखली आदि यज्ञ-साधनका संग्रह करनेवाले महर्षियोंने सारस्वत यज्ञका अनुष्ठान करके अवभृथ स्नान किया था ,,
राजन् ! राजा भरतने धर्मपूर्वक वसुधाका राज्य पाकर यहीं बहुत से यश किये थे और यहीं अश्वमेध यज्ञके उद्देश्यसे उन्होंने अनेक बार कृष्णमृगके समान रंगवाले यज्ञसम्बन्धी श्यामकर्ण अश्वको भूतलपर भ्रमणके लिये छोड़ा था। नरश्रेष्ठ इसी तीर्थमें ऋषिप्रवर संवर्त से सुरक्षित हो महाराज मरुत्तने उत्तम यशका अनुष्ठान किया। राजेन्द्र ! यहाँ स्नान करके शुद्ध हुआ मनुष्य सम्पूर्ण लोकों को प्रत्यक्ष देखता है और पाप से मुक्त हो पवित्र हो जाता है; अतः तुम इसमें भी स्नान करो ,
वैशम्पायनजी कहते हैं ;— जनमेजय ! तदनन्तर भाइयोसहित स्नान करके महर्षियोंद्वारा प्रशंसित हो पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिरने लोमशजी से इस प्रकार कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- 'मुनीश्वर ! तपोबलसे सम्पन्न होने के कारण वस्तुतः आप ही यथार्थ पराक्रमी हैं। आपकी कृपासे आज मैं इस प्लक्षा- वतरणके जलमें स्थित होकर सब लोकोंको प्रत्यक्ष देख रहा हूँ यहींसे मुझे पाण्डवश्रेष्ठ श्वेतवाहन अर्जुन भी दिखायी देते हैं'।
लोमशजीने कहा ;– महाबाहो ! तुम ठीक कहते हो । यहाँ स्नान करके तपः शक्तिसम्पन्न श्रेष्ठ ऋषिगण इसी प्रकार चराचर प्राणियसहित तीनों लोकोंका दर्शन करते हैं। अब इस पुण्यसलिला सरस्वतीका दर्शन करो, जो एकमात्र पुण्यका ही आश्रय लेनेवाले पुरुषोंसे घिरी हुई है ॥
नरश्रेष्ठ ! इसमें स्नान करनेसे तुम्हारे सारे पाप धुल जायँगे । कुन्तीनन्दन ! यहाँ अनेक देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षियोंने सारस्वत यज्ञोंका अनुष्ठान किया है ॥
यह सब ओर पाँच योजन फैली हुई प्रजापतिकी यज्ञ वेदी है । यही यज्ञपरायण महात्मा राजा कुरुका क्षेत्र है ॥ १०-२२ ॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्राविषयक एक सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ तीसवें अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
"विभिन्न तीर्थो की महिमा और राजा उशीनरकी कथाका आरम्भ"
लोमशजी कहते हैं ;- भारत ! यहाँ शरीर छूट जाने पर मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं; इसलिये हजारों इस तीर्थमें मरनेके लिये आकर निवास करते हैं ॥
प्राचीन कालमें प्रजापति दक्षने यज्ञ करते समय यह आशीर्वाद दिया था कि जो मनुष्य यहाँ मरेंगे, वे स्वर्गलोकपर अधिकार प्राप्त कर लेंगे । यह रमणीय, दिव्य और तीव्र प्रवाह- वाली सरस्वती नदी है और यह सरस्वतीका विनशन नामक तीर्थ है ।।
यह निषादराजका द्वार है। वीर युधिष्ठिर ! उन निषादों- के ही संसर्गदोष से सरस्वती नदी यहाँ इसलिये पृथ्वी के भीतर प्रविष्ट हो गयी कि निषाद मुझे जान न सकेँ । यह चमसोद्भेदतीर्थ है; जहाँ सरस्वती पुनः प्रकट हो गयी है यहाँ समुद्र में मिलनेवाली सम्पूर्ण पवित्र नदियाँ इसके सम्मुख आयी हैं ।
शत्रुदमन ! यह सिन्धुका महान् तीर्थ है; जहाँ जाकर लोपामुद्राने अपने पति अगस्त्यमुनिका वरण किया था, सूर्य के समान तेजस्वी नरेश ! यह प्रभासतीर्थ प्रकाशित हो रहा है, जो इन्द्रको बहुत प्रिय है। यह पुण्यमय क्षेत्र सब पापका नाश करनेवाला और परम पवित्र है।
यह विष्णुपद नामवाला उत्तम तीर्थ दिखायी देता है। तथा वह परम पावन और मनोरम विपाशा ( व्यास ) नदी है। यहीं भगवान् वसिष्ठ मुनि पुत्रशोकसे पीड़ित हो अपने शरीरको पाशोंसे बाँधकर कूद पड़े थे, परंतु पुनः विपाश ( पाशमुक्त ) होकर जलसे बाहर निकल आये,
शत्रुदमन ! यह पुण्यमय काश्मीरमण्डल है, जहाँ बहुत से महर्षि निवास करते हैं। तुम भाइयोसहित इसका दर्शन करो। भारत ! यह वही स्थान है, जहाँ उत्तरके समस्त ऋषि नहुषकुमार ययाति, अग्नि और काश्यपका संवाद हुआ था ।। १-११ ॥
महाराज ! यह मानसरोवरका द्वार प्रकाशित हो रहा है। इस पर्वतके मध्यभागमें परशुरामजीने अपना आश्रम बनाया था,,
युधिष्ठिर ! परशुरामजी सर्वत्र विख्यात हैं। वे सत्यपराक्रमी हैं। उनके इस आश्रमका द्वार विदेह देशसे उत्तर है । यह बवंडर (वायुका तूफान ) भी उनके इस द्वारका कभी उल्लङ्घन नहीं कर सकता है ( फिर औरोंकी तो बात ही क्या है ),।
नरश्रेष्ठ! इस देशमें दूसरी आश्चर्य की बात यह है कि यहाँ निवास करनेवाले साधकको युगके अन्तमें पार्षदों तथा पार्वती सहित इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले भगवान् शंकरका प्रत्यक्ष दर्शन होता है । इस सरोवर के तटपर चैत्र मासमें कल्याणकामी याजक पुरुष अनेक प्रकारके यशद्वारा परिवारसहित पिनाकधारी भगवान् शिवकी आराधना करते हैं। इस तालाब में श्रद्धापूर्वक स्नान एवं आचमन करके पाप- मुक्त हुआ जितेन्द्रिय पुरुष शुभ लोकोंमें जाता है; इसमें संशय नहीं है। यह सरोवर उज्जानक नामसे प्रसिद्ध है । यहाँ भगवान् स्कन्द तथा अरुन्धतीसहित महर्षि वसिष्ठने साधना करके सिद्धि एवं शान्ति प्राप्त की है।
यह कुशवान् नामक हृद है, जिसमें कुशेशय नामवाले कमल खिले रहते हैं यहीं रुक्मिणीदेवीका आश्रम है, जहाँ उन्होंने क्रोधको जीतकर शान्तिका लाभ किया था,,
पाण्डुनन्दन ! महाराज ! तुमने जिसके विषयमें यह सुन रखा है कि वह योग - सिद्धिका संक्षिप्त स्वरूप है-- जिसके दर्शनमात्र से समाधिरूप फलकी प्राप्ति हो जाती है, उस भृगु- तुङ्ग नामक महान् पर्वतका अब तुम दर्शन करोगे ।
राजेन्द्र ! वितस्ता (झेलम) नदीका दर्शन करो, जो सब पापोंसे मुक्त करनेवाली है। इसका जल बहुत शीतल और अत्यन्त निर्मल है । इसके तटपर बहुत से महर्षिगण निवास करते हैं ॥ २० ॥
यमुना नदीके दोनों पार्श्वमें जला और उपजला नामकी दो नदियोंका दर्शन करो, जहाँ राजा उशीनरने यज्ञ करके इन्द्र से भी ऊँचा स्थान प्राप्त किया था,,
महाराज भरतनन्दन ! नृपश्रेष्ठ उशीनरके महत्त्वको समझने के लिये किसी समय इन्द्र और अग्नि उनकी राज- सभा में गये, वे दोनों वरदायक महात्मा उस समय उशीनरकी परीक्षा लेना चाहते थे; अतः इन्द्रने बाज पक्षीका रूप धारण किया और अग्निने कबूतरका । इस प्रकार वे राजाके यज्ञमण्डप - में गये,, अपनी रक्षा के लिये आश्रय चाहने वाला कबूतर बाज के भय से डरकर राजा की गोदी में जा छिपा ॥ १२-२४ ॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंग में श्येनकपोतीयोपाख्यानविषयक एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें