सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ इक्कीसवें अध्याय से एक सौ पच्चीसवें तक (From the 121 to the 125 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ इक्कीसवें अध्‍याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा गयके यज्ञकी प्रशंसा, पयोष्णी, वैदूर्य पर्वत और नर्मदा के माहात्म्य तथा च्यवन - सुकन्या के चरित्रका आरम्भ"

   लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! सुना जाता है कि इस पयोष्णी नदी के तटपर राजा नृगने यज्ञ करके सोमरसके द्वारा देवराज इन्द्र को तृप्त किया था । उस समय इन्द्र पूर्णतः तृप्त होकर आनन्दमग्न हो गये थे ॥ १ ॥

  यहीं इन्द्र सहित देवताओं ने और प्रजापतियोंने भी प्रचुर दक्षिणा से युक्त अनेक प्रकारके बड़े-बड़े यशद्वारा भगवान्का यजन किया है ॥ २ ॥

  अमूर्तर के पुत्र राजा गय ने भी यहाँ सात अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करके उनमें सोमरस के द्वारा वज्रधारी इन्द्रको संतुष्ट किया था ॥ ३ ॥

  यज्ञमें जो वस्तुएँ नियमित रूपसे काष्ठ और मिट्टीकी बनी हुई होती हैं, ये सब की सब राजा गय के उक्त सातों यज्ञों में सुवर्ण से बनायी गयी थीं ॥ ४ ॥

   प्रायः यश में चंपाल, यूंप, चमैस, स्थौली, पौत्री, क और खुवा- ये सात साधन उपयोग में लाये जाते हैं । राजा ग पूर्वोक्त सातों यज्ञों में ये सभी उपकरण सुवर्ण के ही थे, ऐसा सुना जाता है ॥ ५ ॥

  सात यूपोंमेंसे प्रत्येकके ऊपर सात-सात चषाल थे । युधिष्ठिर ! उन यज्ञों में जो चमकते हुए सुवर्णमय यूप थे, उन्हें इन्द्र आदि देवताओंने स्वयं खड़ा किया था । राजा गयके उन उत्तम यज्ञोंमें इन्द्र सोमपान करके और ब्राह्मण बहुत-सी दक्षिणा पाकर हर्षोन्मत्त हो गये थे । ब्राह्मणोंने दक्षिणामें जो बहुसंख्यक धनराशि प्राप्त की थी, उसकी गणना नहीं की जा सकती थी ॥ ६-८ ॥

    महाराज ! राजा गयने सातों यज्ञों में सदस्यों को जो असंख्य धन प्रदान किया था, उसकी गणना उसी प्रकार नहीं हो सकती थी, जैसे इस जगत् में कोई बालूके कणों, आकाशके तारों और वर्षाकी धाराओंको नहीं गिन सकता ।। ९-१० ॥

   उपर्युक्त बालूके कण आदि कदाचित् गिने भी जा सकते हैं; परंतु दक्षिणा देनेवाले राजा गयकी दक्षिणाकी गणना करना सम्भव नहीं है ।।११ ॥

   उन्होंने विश्वकर्माकी बनायी हुई सुवर्णमयी गोएँ देकर विभिन्न दिशाओंसे आये हुए ब्राह्मणोंको संतुष्ट किया था युधिष्ठिर । भिन्न-भिन्न स्थानोंमें यज्ञ करनेवाले महामना राजा गयके राज्यकी थोड़ी ही भूमि ऐसी बच गयी थी जहाँ यज्ञके मण्डप न हों ।।१२-१३।।

   भारत ! उस यज्ञ कर्मके प्रभावसे गयने इन्द्रादि लोकों- को प्राप्त किया। जो इस पयोष्णी नदीमें स्नान करता है, वह भी राजा गयके समान पुण्यलोकका भागी होता है ॥१४॥

 अतः राजेन्द्र ! तुम भाइयों सहित इसमें स्नान करके सब पाप से मुक्त हो जाओगे ।। १५ ।।

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;- निष्पाप जनमेजय ! पाण्डवप्रवर नरश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर भाइयोंसहित पयोष्णी- नदीमें स्नान करके वैदूर्यपर्वत और महानदी नर्मदा के तटपर जानेका उद्देश्य लेकर वहाँसे चल दिये और वे तेजस्वी नरेश सब भाइयोंको साथ लिये यथासमय अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँच गये । वहाँ भगवान् लोमश मुनिने उनसे समस्त रमणीय तीर्थों और पवित्र देवस्थानोंका परिचय कराया। तत्पश्चात् राजाने अपनी सुविधा और प्रसन्नता के अनुसार सहस्रों ब्राह्मणोंको धनका दान किया और भाइयों- सहित उन सब स्थानोंकी यात्रा की ।।१६-१८॥

   लोमशजी ने कहा ;- कुन्तीनन्दन ! वैदूर्यपर्वतका दर्शन करके नर्मदामें उतरने से मनुष्य देवताओं तथा पुण्यात्मा राजाओंके समान पवित्र लोकोंको प्राप्त कर लेता है ॥ १९ ॥

   नरश्रेष्ठ! यह वैदूर्यपर्वत त्रेता और द्वापरकी सन्धिमें प्रकट हुआ है, इसके निकट जाकर मनुष्य सब पापसे मुक्त हो जाता है ॥ २० ॥

   तात ! यह राजा शर्यातिके यज्ञका स्थान प्रकाशित हो रहा है, जहाँ साक्षात् इन्द्रने अश्विनीकुमारोंके साथ बैठकर सोम-पान किया था ॥ २१ ॥

   महाभाग ! यहीं महातपस्वी भृगुनन्दन भगवान् च्यवन  देवराज इन्द्रपर कुपित हुए थे और यहाँ उन्होंने इन्द्रको स्तम्भित भी कर दिया था। इतना ही नहीं मुनिवर च्यवन- ने यहीं अश्विनीकुमारोको यशमें सोमपानका अधिकारी बनाया था। और इसी स्थानपर राजकुमारी सुकन्या उन्हें पत्नी- रूप में प्राप्त हुई थी ।।२२ ॥

  युधिष्ठिर ने पूछा ;- मुने ! महातपस्वी भृगुपुत्र महर्षि च्यवनने भगवान् इन्द्रका स्तम्भन कैसे किया ? उन्हें इन्द्रपर क्रोध किस लिये हुआ ! ।।२३।।

   तथा ब्रह्मन् ! उन्होंने अश्विनीकुमारोंको यज्ञमें सोमपान- का अधिकारी किस प्रकार बनाया? ये सब बातें आप यथार्थ-रूपसे मुझे बतावें ।।२४ ॥

(इस प्रकार श्रीमहामारत वनपर्व के अन्तर्गत तीथयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में सुकन्योपाख्यानविषयक एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ बाईसवें अध्‍याय के श्लोक 1-29 का हिन्दी अनुवाद)

"महर्षि च्यवनको सुकन्याकी प्राप्ति"

  लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! महर्षि भृगुके पुत्र च्यवन मुनि हुए, जो महान् तेजस्वी थे । उन्होंने उस सरोवर के समीप तपस्या आरम्भ की। पाण्डुनन्दन ! परम तेजस्वी महात्मा च्यवन वीरासनसे बैठकर ठूंठे काठके समान जान पड़ते थे। राजन् ! वे एक ही स्थानपर दीर्घकालतक अविचल भावसे बैठे रहे ॥ १-२ ॥

   धीरे-धीरे अधिक समय बीतनेपर उनका शरीर चींटियों से व्याप्त हो गया । वे महर्षि लताओंसे आच्छादित हो गये और बाँबीके समान प्रतीत होने लगे ॥ ३ ॥

   इस प्रकार लता-वेर्लोसे आच्छादित हो बुद्धिमान् च्यवन मुनि सब ओरसे केवल मिट्टीके लोंदेके समान जान पड़ने लगे । दीमकोंद्वारा जमा की हुई मिट्टीके ढेरसे ढके हुए वे बड़ी भारी तपस्या कर रहे थे ॥ ४ ॥

   इस प्रकार दीर्घकाल व्यतीत होनेपर राजा शर्याति इस उत्तम एवं रमणीय सरोवर के तटपर बिहार के लिये आये ।।५।।

  युधिष्ठिर ! उनके अन्तःपुरमें चार हजार स्त्रियाँ थीं; परंतु संतान के नामपर केवल एक ही सुन्दरी पुत्री थी, जिसका नाम सुकन्या था ॥ ६ ॥

   वह कन्या दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित हो सखियों से घिरी हुई वनमें इधर-उधर घूमने लगी । घूमती-घामती वह भृगुनन्दन च्यवन की बाँबीके पास जा पहुँची ॥ ७ ॥

  वहाँकी भूमि उसे बड़ी मनोहर दिखायी दी। वह सखियोंके साथ वृक्षोंके फल-फूल तोड़ती हुई चारों ओर घूमने लगी ॥ ८ ॥

   सुन्दर रूप, नयी अवस्था, काम भावके उदय और यौवन- के मदसे प्रेरित हो सुकन्याने उत्तम फूलोंसे भरी हुई वन- वृक्षोंकी बहुत-सी शाखाएँ तोड़ लीं। वह सखियोंका साथ छोड़कर अकेली टहलने लगी। उस समय उसके शरीरपर एक ही वस्त्र था और वह भाँति-भाँति के अलङ्कारों से अलङ्कृत थी । बुद्धिमान् च्यवन मुनिने उसे देखा। वह चमकती हुई विद्युत् के समान चारों ओर विचर रही थी । ९-१० ॥

  उसे एकान्त में देखकर परम कान्तिमान्, तपोबलसम्पन्न एवं दुर्बल कण्ठ वाले ब्रह्मर्षि च्यवनको बड़ी प्रसन्नता हुई ।।११ ॥

    उन्होंने उस कल्याणमयी राजकन्याको पुकारा; परंतु वद (ब्रह्मर्षिका कण्ठ दुर्बल होने के कारण ) उनकी आवाज नहीं सुनती थी। उस बाँबीमें मुनिवर च्यवनकी चमकती हुई आँखोंको देखकर उसे बहुत कौतूहल हुआ। उसकी बुद्धिपर मोह छा गया और उसने विवश होकर यह कहती हुई कि 'देखूँ यह क्या है ?' एक काँटेसे उन्हें छेद दिया। उसके द्वारा आँखें बिंध जाने के कारण परम क्रोधी ब्रह्मर्षि च्यवन अत्यन्त कुपित हो उठे । फिर तो उन्होंने शर्यातिकी सेना के मल-मूत्र बंद कर दिये । मल-मूत्रका द्वार बंद हो जानेसे मलावरोधके कारण सारी सेनाको बहुत दुःख होने लगा । सैनिकोंकी ऐसी अवस्था देखकर राजाने सबसे पूछा,,

  राजा शर्याति बोले  ;- "यहाँ नित्य-निरन्तर तपस्या में संलग्न रहनेवाले वयोवृद्ध महामना च्यवन रहते हैं । वे स्वभावतः बड़े क्रोधी हैं। उनका जानकर या बिना जाने आज किसने अपकार किया है? जिन लोगोंने भी ब्रह्मर्षिका अपराध किया हो, वे तुरंत सब कुछ बता दें, विलम्ब न करें ।'तब सम्पूर्ण सैनिकोंने उनसे कहा,,

  सैनिक बोले ;- 'महाराज ! हम नहीं जानते कि किसके द्वारा उनका अपराध हुआ है? ।। १२-१७॥

    'आप अपनी रुचि के अनुसार सभी उपायोंद्वारा इसका पता लगावें । तब राजा शर्याति ने साम और उग्रनीति के द्वारा सभी सुहृदोंसे पूछा; परंतु वे भी इसका पता न लगा सके । तदनन्तर सुकन्याने सारी सेना को मलावरोधके कारण दुःखसे पीड़ित और पिता को भी चिन्तित देख इस प्रकार कहा,,

  सुकन्या बोली  ;- 'तात ! मैंने इस वनमें घूमते समय एक बाँबीके भीतर कोई चमकीली वस्तु देखी, जो जुगनू के समान जान पड़ती थी । उसके निकट जाकर मैंने उसे काँटेसे बींध दिया ।' यह सुनकर शर्याति तुरंत ही बाँबीके पास गये। वहाँ उन्होंने तपस्या में बढ़ चढ़े वयोवृद्ध महात्मा च्यवनको देखा और हाथ जोड़कर अपने सैनिक का कष्ट निवारण करनेके लिये याचना की ।। १८-२२ ॥

   'भगवन् ! मेरी बालिकाने अज्ञानवश जो आपका अपराध किया है, उसे आप कृपापूर्वक क्षमा करें। उनके ऐसा कहनेपर भृगुनन्दन च्यवनने राजासे कहा,,

   च्यवन ऋषि बोले ;- राजन् ! तुम्हारी इस पुत्रीने अहंकारवश अपमानपूर्वक मेरी आँखें फोड़ी हैं, अतः रूप और उदारता आदि गुणों से युक्त तथा लोभ और मोहके वशीभूत हुई तुम्हारी इस कन्याको पत्नी- रूप में प्राप्त करके ही मैं इसका अपराध क्षमा कर सकता हूँ । भूपाल ! यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ' ॥ २३-२५ ।।

  लोमशजी कहते हैं ;-- च्यवन ऋषिका यह वचन सुनकर राजा शर्यातिने बिना कुछ विचार किये ही महात्मा च्यवनको अपनी पुत्री दे दी ।।२६ ॥

  उस राजकन्याको पाकर भगवान् च्यवन मुनि प्रसन्न हो गये । तत्पश्चात् उनका कृपाप्रसाद प्राप्त करके राजा शर्याति सेनासहित सकुशल अपनी राजधानीको लौट आये ॥ २७ ॥

  सुकन्या भी तपस्वी च्यवनको पतिरूपमें पाकर प्रतिदिन प्रेमपूर्वक तप और नियमका पालन करती हुई उनकी परिचर्या करने लगी ।।२८ ॥

  सुमुखी सुकन्या किसी के गुणोंमें दोष नहीं देखती थी। वह विविध अग्नियों और अतिथियोंकी सेवामें तत्पर हो शीघ्र ही महर्षि च्यवनकी आराधना में लग गयी ॥ २९ ॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपत्र के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में सुकन्योपाख्यानविषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ तेईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ तेईसवें अध्‍याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

"अश्विनीकुमारोंकी कृपासे महर्षि च्यवनको सुन्दर रूप और युवावस्थाकी प्राप्ति"

   लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर । तदनन्तर कुछ कालके बाद जब एक समय सुकन्या स्नान कर चुकी थी, उस समय उसके सब अङ्ग ढके हुए नहीं थे। इसी अवस्था में दोनों अश्विनीकुमार देवताओंने उसे देखा । साक्षात् देवराज इन्द्रकी पुत्री के समान दर्शनीय अङ्गोंवाली उस राजकन्या को देखकर नासत्यसंज्ञक अश्विनीकुमारों ने उसके पास जा यह बात कही ॥ १-२ ॥

 अश्विनी कुमार बोले ;- 'वामोरु ! तुम किसकी पुत्री और किसकी पत्नी हो ? इस वनमें क्या करती हो । भद्रे ! हम तुम्हारा परिचय प्राप्त करना चाहते हैं। शोभने ! तुम सब बातें ठीक ठीक बताओ' ॥ ३ ॥

तत्र सुकन्याने लज्जित होकर उन दोनों श्रेष्ठ देवताओंसे कहा,,

  सुकन्या बोली ;- 'देवेश्वरो ! आपको विदित होना चाहिये कि मैं राजा शर्यातिकी पुत्री और महर्षि च्यवनकी पत्नी हूँ ॥ ४ ॥

'मेरा नाम इस जगत् में सुकन्या प्रसिद्ध है मैं सम्पूर्ण हृदयसे सदा अपने पतिदेवके प्रति निष्ठा रखती हूँ ।" यह सुनकर अश्विनीकुमारोंने पुनः हँसते हुए कहा,,

  अश्विनी कुमार बोले ;- " कल्याणि ! तुम्हारे पिताने इस अत्यन्त बूढ़े पुरुष के साथ तुम्हारा विवाह कैसे कर दिया ? भीरु ! इस वनमें तुम विद्युत्की भाँति प्रकाशित हो रही हो । भामिनि ! देवताओंके यहाँ भी तुम - जैसी सुन्दरीको हम नहीं देख पाते हैं । ५-६ ।।

   "भद्रे ! तुम्हारे अङ्गपर आभूषण नहीं हैं। तुम उत्तम वस्त्रोंसे भी वञ्चित हो और तुमने कोई शृङ्गार भी नहीं धारण किया है तो भी इस वनकी अधिकाधिक शोभा बढ़ा रही हो ॥ ७ ॥

  "निर्दोष अङ्गोवाली सुन्दरी ! यदि तुम समस्त भूषणोंसे भूषित हो जाओ और अच्छे-अच्छे वस्त्र पहन लो, तो उस समय तुम्हारी जो शोभा होगी, वैसी इस मल और पङ्कसे युक्त मलिन वेश में नहीं हो रही है ॥ ८ ॥

  'कल्याणि ! तुम ऐसी अनुपम सुन्दरी होकर काम-भोग- से शून्य इस जरा-जर्जर बूढ़े पतिकी उपासना कैसे करती हो? ।।९।।

  पवित्र मुसकानवाली देवि ! वह बूढ़ा तो तुम्हारी रक्षा और पालन-पोषण में भी समर्थ नहीं है । अतः तुम च्यवनको छोड़कर हम दोनों में से किसी एक को अपना पति चुन लो ॥ १० ॥

  'देवकन्या के समान सुन्दरी राजकुमारी ! बूढ़े पति के लिये अपनी इस जवानी को व्यर्थ न गँवाओ ।'

उनके ऐसा कहनेपर सुकन्याने उन दोनों देवताओंसे कहा- ॥ ११ ॥

   सुकन्या बोली ;- देवेश्वरो ! मैं अपने पतिदेव व्यवनमुनि में ही पूर्ण अनुराग रखती हूँ, अतः आप मेरे विषय में इस प्रकारकी अनुचित आशङ्का न करें। तब उन दोनोंने पुनः सुकन्यासे कहा,,

  अश्विनी कुमार बोले ;- "शुभे ! हम देवताओं के श्रेष्ठ वैध हैं तुम्हारे पति को तरुण और मनोहर रूप सम्पन्न बना देंगे। तब तुम हम तीनोंसे किसी एक को अपना पति बना लेना। इस शर्त के साथ तुम चाही तो अपने पति को यहाँ बुला लो' ।। १२-१३॥

  राजन् ! उन दोनोंकी यह बात सुनकर सुकन्या च्यवन मुनिके पास गयी और अश्विनीकुमारोंने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया । यह सुनकर च्यवन मुनि ने अपनी पत्नीसे कहा ,,

   च्यवन मुनि बोले ;- "प्रिये ! देववैद्योंने जैसा कहा है, वैसा करो' ।। १४-१५ ।।

  पतिकी यह आज्ञा पाकर सुकन्याने अश्विनीकुमारोंसे कहा,,

  सुकन्या बोली ;- 'आप मेरे पतिको रूप और यौवनसे सम्पन्न बना दें। उसका यह कथन सुनकर अश्विनीकुमारों ने राजकुमारी सुकन्यासे कहा,,

  अश्विनी कुमार बोले ;- तुम्हारे पतिदेव इस जलमें प्रवेश करें। तब व्यवन मुनिने सुन्दर रूपकी अभिलाषा लेकर शीघ्रता- पूर्वक उस सरोवर के जलमें प्रवेश किया ॥ १६ ॥

   राजन् ! उनके साथ ही दोनों अश्विनीकुमार भी उस सरोवर में प्रवेश कर गये। तदनन्तर दो घड़ीके पश्चात् वे सब-के-सब दिव्य रूप धारण करके सरोवरसे बाहर निकले। उन सबकी युवावस्था थी। उन्होंने कानोंमें चमकीले कुण्डल धारण कर रक्खे थे वेष-भूषा भी उनकी एक-सी ही थी और वे सभी मनकी प्रीति बढ़ानेवाले थे । १७-१८ ॥

   सरोवरसे बाहर आकर उन सबने एक साथ कहा- शुभे ! भद्रे ! वरवर्णिनि । इममेंसे किसी एकको, जो तुम्हारी रुचि के अनुकूल हो, अपना पति बना लो ॥ १९ ॥

'अथवा शोभने ! जिसको भी तुम मनसे चाहती हो ओ, उसी को पति बनाओ ।' देवी सुकन्याने उन सबको एक-जैसा रूप धारण किये खड़े देख मन और बुद्धि से निश्चय करके अपने पति को ही स्वीकार किया । महातेजस्वी च्यवन मुनि ने अनुकूल पत्नी, तरुण अवस्था और मनोवाञ्छित रूप पाकर बड़े हर्षका अनुभव किया और दोनों अश्विनी कुमारोंसे कहा,,

   च्यवन मुनि बोले ;- 'आप दोनोंने मुझ बूढ़ेको रूपवान् और तरुण बना दिया, साथ ही मुझे अपनी यह भार्या भी मिल गयी; इसलिये मैं प्रसन्न होकर आप दोनोंको यज्ञमें देवराज इन्द्रके सामने ही सोमपानका अधिकारी बना दूँगा । यह मैं आप लोगो से सत्य कहता हूँ' ॥ २०–२३ ॥

  यह सुनकर दोनों अश्विनीकुमार प्रसन्नचित्त हो देवलोक को लौट गये और च्यवन तथा सुकन्या देवदम्पतिकी भाँति विहार करने लगे ॥ २४ ॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्राप्रसंग में सुकन्योपाख्यानविषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ चौबीसवें अध्‍याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)

"शर्यातिके यज्ञमें च्यवनका इन्द्रपर कोप करके वज्रको स्तम्भित करना और उसे मारनेके लिये मदासुरको उत्पन्न करना"

   लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! तदनन्तर राजा शर्यातिने सुना कि महर्षि च्यवन युवावस्थाको प्राप्त हो गये; इस समाचार से उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । वे सेनाके साथ महर्षि च्यवनके आश्रमपर आये ॥ १ ॥
    च्यवन और सुकन्याको देवकुमारोंके समान सुखी देख- कर पत्नीसहित शर्यातिको महान् हर्ष हुआ, मानो उन्हें सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य मिल गया हो । च्यवन ऋषिने रानियों सहित राजाका बड़ा आदर-सत्कार किया और उनके पास बैठकर मनको प्रिय लगनेवाली कल्याणमयी कथाएँ सुनायीं २-३ ॥
  युधिष्ठिर ! तत्पश्चात् भृगुनन्दन च्यवन ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा,,    
   च्यवन मुनि बोले ;- 'राजन् ! मैं आपसे यश कराऊँगा । आप सामग्री जुटाइये ॥ ४ ॥
महाराज ! यह सुनकर राजा शर्याति बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने च्यवन मुनिके उस वचनकी बड़ी सराहना की ॥५।।
तदनन्तर यज्ञके लिये उपयोगी शुभ दिन आनेपर शर्यातिने एक उत्तम यज्ञ मण्डप तैयार करवाया, जो सम्पूर्ण मनोवाञ्छित समृद्धियोंसे सम्पन्न था ॥ ६ ॥
राजन् ! भृगुपुत्र च्यवनने उस यज्ञमण्डप में राजा से यज्ञ करवाया। उस यज्ञमें जो अद्भुत बातें हुई थीं, उन्हें मुझसे सुनो ॥ ७ ॥
महर्षि च्यवनने उस समय दोनों अश्विनी कुमारों को देने के लिये सोमरस का भाग हाथ में लिया। उन दोनोंके लिये सोमका भाग ग्रहण करते समय इन्द्र ने मुनि को मना किया ।।८।।
   इन्द्र बोले ;- मुने ! मेरा यह सिद्धान्त है कि ये दोनों अश्विनीकुमार यज्ञ में सोमपान के अधिकारी नहीं हैं; क्योंकि ये द्युलोकनिवासी देवताओं के वैद्य हैं और उस वैधवृत्ति के कारण ही इन्हें यज्ञमें सोमपान का अधिकार नहीं रह गया है ॥९।।
  च्यवन ने कहा ;- मघवन् ! ये दोनों अश्विनीकुमार बड़े उत्साही और महान् बुद्धिमान् हैं रूपसम्पत्ति में भी सबसे बढ़-चढ़कर हैं । इन्होंने ही मुझे देवताओंके समान दिव्य रूपसे युक्त और अजर बनाया है। देवराज ! फिर तुम्हारे या अन्य देवताओं के सिवा इन्हें यज्ञ में सोमरसका भाग पानेका अधिकार क्यों नहीं है ? पुरंदर ! इन अश्विनी- कुमारों को भी देवता ही समझो । १०-११ ॥
   इन्द्र बोले ;- ये दोनों चिकित्सा-कार्य करते हैं और मनमाना रूप धारण करके मृत्युलोक में भी विचरते रहते हैं, फिर इन्हें इस यज्ञमें सोमपानका अधिकार कैसे प्राप्त हो सकता है ? ॥१२।।
    लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! जब देवराज इन्द्र बार-बार यही बात दुहराने लगे । तब भृगुनन्दन च्यवनने उनकी अवहेलना करके अश्विनीकुमारोंको देने के लिये सोमरसका भाग ग्रहण किया ।। १३ ।।
   उस समय देववैद्योंके लिये उत्तम सोमरस ग्रहण करते देख इन्द्रने च्यवन मुनिसे इस प्रकार कहा, -- ॥ १४ ॥
   इंद्र बोले ;- "ब्रह्मन् ! यदि तुम इन दोनोंके लिये स्वयं सोमरस ग्रहण करोगे तो मैं तुमपर अपना परम उत्तम भयंकर वज्र छोड़ दूँगा' ॥१५।।
उनके ऐसा कहनेपर च्यवन मुनिने मुसकराते हुए इन्द्र- की ओर देखकर अश्विनीकुमारोंके लिये विधिपूर्वक उत्तम सोमरस हाथमें लिया ॥ १६ ॥
    तब शचीपति इन्द्र उनके ऊपर भयंकर वज्र छोड़ने लगे, परंतु वे जैसे ही प्रहार करने लगे, भृगुनन्दन च्यवनने उनकी भुजाको स्तम्भित कर दिया ॥ १७ ॥
   इस प्रकार उनकी भुजा स्तम्भित करके महातेजस्वी च्यवन ऋषिने मन्त्रोच्चारणपूर्वक अग्निमें आहुति दी । वे देवराज इन्द्रको मार डालनेके लिये उद्यत होकर कृत्या उत्पन्न करना चाहते थे ॥ १८ ॥
च्यवन ऋषिके तपोबलसे वहाँ कृत्या प्रकट हो गयी उस कृत्याके रूपमें महापराक्रमी विशालकाय महादैत्य मदका प्रादुर्भाव हुआ। जिसके शरीरका वर्णन देवता तथा असुर भी नहीं कर सकते उस असुरका विशाल मुख बड़ा भयंकर था उसके आगे के दाँत बड़े तीखे दिखायी देते थे । उसका ठोड़ीसहित नीचेका ओष्ठ धरतीपर टिका हुआ था और दूसरा स्वर्गलोकतक पहुँच गया था । उसकी चार दाढ़े सौ-सौ योजनतक फैली हुई थीं । ।।१९–२१ ॥
   उस दैत्य के दूसरे दाँत भी दस-दस योजन लम्बे थे उनकी आकृति महलोंके कँगूरोंके समान थी । उनका अग्रभाग शूलके समान तीखा दिखलायी देता था ॥ २२ ॥
दोनों भुजाएँ दो पर्वतोंके समान प्रतीत होती थीं। दोनोंकी लंबाई एक समान दस-दस हजार योजनकी थी ।उसके दोनों नेत्र चन्द्रमा और सूर्यके समान प्रज्वलित हो रहे थे। उसका मुख प्रलयकालकी अनिके समान जाज्वल्य- मान जान पड़ता था उसकी लपलपाती हुई चञ्चल जीभ विद्युत् के समान चमक रही थी और उसके द्वारा वह अपने जबड़ोंको चाट रहा था । उसका मुख खुला हुआ था और दृष्टि भयंकर थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो वह सारे जगत्को बलपूर्वक निगल जायगा । वह दैत्य कुपित हो अपनी अत्यन्त भयंकर गर्जनासे सम्पूर्ण जगत् को गुँजाता हुआ इन्द्रको खा जानेके लिये उनकी ओर दौड़ा  ।।।२३-२५॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में सुकन्योपाख्यान विषयक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ पच्चीसवें अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ पच्चीसवें अध्‍याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

"अश्विनीकुमारोंका यज्ञमें भाग स्वीकार कर लेनेपर इन्द्रका संकट मुक्त होना तथा लोमशजीके द्वारा अन्यान्य तीर्थोंके महत्त्वका वर्णन"

    लोमशजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! मुँह बाये हुए यमराजकी भाँति भयंकर मुखवाले उस मदासुरको निगलनेके लिये आते देख देवराज इन्द्र भयसे व्याकुल हो गये जिनकी भुजाएँ स्तब्ध हो गयी थीं, वे इन्द्र मृत्युके डरसे घबराकर बार-बार ओष्ठ प्रान्त चाटने लगे। उसी अवस्था में उन्होंने महर्षि च्यवनसे कहा,,
   इंद्र बोले ;-- भृगुनन्दन ! ये दोनों अश्विनीकुमार आज से सोमपानके अधिकारी होंगे मेरी यह बात सत्य है, अतः आप मुझपर प्रसन्न हो ॥१-३॥
   'आपके द्वारा किया हुआ यह यज्ञका आयोजन मिथ्या न हो आपने जो कर दिया, वही उत्तम विधान हो । ब्रह्मर्षे ! मैं जानता हूँ, आप अपना संकल्प कभी मिथ्या न होने देंगे ! आज आपने इन अश्विनीकुमारों को जैसे सोमपान- का अधिकारी बनाया है, उसी प्रकार मेरा भी कल्याण कीजिये । भृगुनन्दन ! आपकी अधिक-से-अधिक शक्ति प्रकाश में आवे तथा जगत् में सुकन्या और इसके पिताकी कीर्तिका विस्तार हो । इस उद्देश्यसे मैंने यह आपके बल- वीर्यको प्रकाशित करनेवाला कार्य किया है अतः आप प्रसन्न होकर मेरे ऊपर कृपा करें। आप जैसा चाहते हैं, वैसा ही होगा' ॥४-६॥
  इन्द्रके ऐसा कहनेपर भृगुनन्दन महामना च्यवनका क्रोध शीघ्र शान्त हो गया और उन्होंने देवेन्द्रको उसी क्षण सम्पूर्ण दुःखों से मुक्त कर दिया। राजन् ! उन शक्ति शाली ऋषिने मदको जिसे पहले उन्होंने ही उत्पन्न किया था, मद्यपान, स्त्री, जूआ और मृगया ( शिकार ) इन चार स्थानोंमें पृथक-पृथक बाँट दिया। इस प्रकार मदको दूर हटाकर उन्होंने देवराज इन्द्र और अश्विनी कुमारों सहित सम्पूर्ण देवताओं को सोमरस से तृप्त किया तथा राजा शर्यातिका यज्ञ पूर्ण कराकर समस्त लोकोंमें अपनी अद्भुत शक्तिको विख्यात करके वक्ताओंमें श्रेष्ठ च्यवन ऋषि अपनी मनोनुकूल पत्नी सुकन्याके साथ वनमें विहार करने लगे युधिष्ठिर ! यह जो पक्षियोंके कलरवसे गूँजता हुआ सरोवर सुशोभित हो रहा है, महर्षि च्यवनका ही है ।। ७-११ ।।
   तुम भाइयों सहित इसमें स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण करो भूपाल ! भरतनन्दन ! इस सरोवरका और सिकताक्षतीर्थका दर्शन करके सैन्धवारण्यमें पहुँचकर वहाँ की छोटी छोटी नदी दर्शन करना महाराज !यहा के सभी तालाब में जाकर जलका स्पर्श करो। भारत ! स्थाणु (शिव) के मन्त्रोंका जप करते हुए उन तीर्थोंमें स्नान करनेसे तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी। नरश्रेष्ठ! यह त्रेता और द्वापरकी संधिके समय प्रकट हुआ तीर्थ है ।। १२-१४ ॥
    युधिष्ठिर ! यह सब पापोंका नाश करनेवाला तीर्थ दिखायी देता है। इस सर्वपापनाशन तीर्थमें स्नान करके तुम शुद्ध हो जाओगे ॥ १५ ॥
इसके आगे आर्चीक पर्वत है, जहाँ मनीषी पुरुष निवास करते हैं। वहाँ सदा फल लगे रहते हैं और निरन्तर पानीके झरने बहते हैं। इस पर्वतपर अनेक देवताओंके उत्तम स्थान हैं ।। १६ ।।
    युधिष्ठिर ! ये देवताओंके अनेकानेक मन्दिर दिखायी देते हैं, जो नाना प्रकारके हैं। यह चन्द्रतीर्थ है, जिसकी बहुत- से ऋषिलोग उपासना करते हैं यहाँ बालखिल्य नामक चैखानस महात्मा रहते हैं, जो वायुका आहार करनेवाले और परम पावन हैं। यहाँ तीन पवित्र शिखर और तीन झरने हैं। इन सबकी इच्छानुसार परिक्रमा करके स्नान करो ।। १७-१८ ।।
   राजेन्द्र ! यहाँ राजा शान्तनु, शुनक और नर-नारायण- ये सभी नित्य धाममें गये हैं ॥ १९ ॥
    युधिष्ठिर ! इस आर्चीक पर्वतपर नित्य निवास करते हुए महर्षियों सहित जिन देवताओं और पितरोंने तपस्या की है, तुम उन सबकी पूजा करो ॥ २० ॥
   राजन् ! यहाँ देवताओं और ऋषियोंने चकभोजन किया था। इसके पास ही अक्षय प्रवाहवाली यमुना नदी बहती है। यहीं भगवान् कृष्णने भी तपस्या की है! शत्रुदमन ! नकुल, सहदेव, भीमसेन, द्रौपदी और हम सब लोग तुम्हारे साथ इसी स्थानपर चलेंगे। पाण्डुनन्दन ! यह इन्द्रका पवित्र झरना है। नरेश्वर ! यह वही स्थान है जहाँ धाता, विधाता और वरुण ऊर्ध्वलोक गये हैं ।। २१-२३ ॥
    राजन् ! ये क्षमाशील और परम धर्मात्मा पुरुष यहीं रहते थे। सरल बुद्धि तथा सबके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाले सत्पुरुषोंके लिये यह श्रेष्ठ पर्वत शुभ आश्रय है ।।२४।।
    राजन् यही वह महर्षिगणसेवित पुण्यमयी यमुना है, जिसके तटपर अनेक यज्ञ हो चुके हैं। यह पापके भयको दूर भगानेवाली है कुन्तीनन्दन ! यहीं महान् धनुर्धर राजा मान्धाताने स्वयं यज्ञ किया था। दानिशिरोमणि सहदेव कुमार सोमकने भी इसीके तटपर यज्ञानुष्ठान किया ।। २५-२६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वने लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में सुकन्योपाख्यानविषयक एक सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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