सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ सोलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ सोलहवें अध्याय के श्लोक 1-29 का हिन्दी अनुवाद)
"पिताकी आज्ञा से परशुरामजीका अपनी माताका मस्तक काटना और उन्हींके वरदान से पुनः जिलाना, परशुरामजीद्वारा कार्तवीर्य अर्जुनका वध और उसके पुत्रोंद्वारा जमदग्नि मुनिकी हत्या"
अकृतव्रण कहते हैं ;-- राजन् ! महातपस्वी जमदग्निने वेदाध्ययनमें तत्पर होकर तपस्या आरम्भ की तदनन्तर शौच- संतोषादि नियमों का पालन करते हुए उन्होंने सम्पूर्ण देवताओंको अपने वशमें कर लिया ॥ १ ॥
युधिष्ठिर! फिर राजा प्रसेनजित् के पास जाकर जमदग्नि मुनि ने उनकी पुत्री रेणुकाके लिये याचना की और राजाने मुनिको अपनी कन्या ब्याह दी ।।२।।
भृगुकुलका आनन्द बढ़ानेवाले जमदग्नि राजकुमारी रेणुका को पत्नी रूप में पाकर आश्रमपर ही रहते हुए उसके साथ तपस्या करने लगे । रेणुका सदा सत्र प्रकारसे पति के अनुकूल चलने वाली स्त्री थी ॥ ३ ॥
उसके गर्भ से क्रमश: चार पुत्र हुए, फिर पाँचवें पुत्र परशुरामजीका जन्म हुआ। अवस्थाकी दृष्टिसे भाइयोंमें छोटे होनेपर भी वे गुणोंमें उन सबसे बढ़े- चढ़े थे ॥ ४ ॥
एक दिन जब सब पुत्र फल लानेके लिये वनमें चले गये, तब नियमपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाली रेणुका स्नान करनेके लिये नदी तटपर गयी ॥ ५ ॥
राजन् ! जब वह स्नान करके लौटने लगी, उस समय अकस्मात् उसकी दृष्टि मार्तिकावत देशके राजा चित्ररथपर पड़ी, जो कमलोंकी माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जलमें क्रीड़ा कर रहा था। उस समृद्धिशाली नरेशको उस अवस्थामें देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की ॥ ६-७ ॥
उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका जल मै बेहोश सी हो गयी। फिर स्त होकर उसने आश्रमके भीतर प्रवेश किया। परंतु पतिदेव उसकी सब बातें जान गये ||८||
उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेजसे वञ्चित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षिने धिक्कारपूर्ण वचनोंद्वारा उसकी निन्दा की ॥ ९ ॥
इसी समय जमदग्नि के ज्येष्ठ पुत्रं रुमण्वान् वहाँ आ गये। फिर क्रमशः सुषेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहुँचे ॥१०।।
भगवान् जमदग्नि ने बारी-बारीसे उन सभी पुत्रों को यह आशा दी कि तुम अपनी माताका वध कर डालो, परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल न सके बेहोश से खड़े रहे ॥ ११ ॥
तब महर्षिने कुपित हो उन सब पुत्रोंको शाप दे दिया शापग्रस्त होनेपर वे अपनी चेतना ( विचार-शक्ति ) खो बैठे और तुरंत मृग एवं पक्षियोंके समान जड-बुद्धि हो गये ॥१२।।
तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरोंका संहार करने वाले परशुरामजी सबसे पीछे आश्रम पर आये। उस समय महातपस्वी महावाहु जमदग्नि ने उनसे कहा ॥१३ ॥
जमदग्नि जी बोले ;- इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो ।' तब परशुरामजी ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला ।। १४ ।।
महाराज ! इससे महात्मा जमदग्नि का कोप सहसा शान्त हो गया और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- ॥ १५ ॥
जमदग्नि जी बोले ;- 'तात ! तुमने मेरे कहने से वह कार्य किया है, जिसे करना दूसरोंके लिये बहुत कठिन है। तुम धर्म के ज्ञाता हो । तुम्हारे मन में जो-जो कामनाएँ हों, उन सबको माँग लो । तब
परशुरामजी ने कहा ;- पिताजी, मेरी माता जीवित हो उठे उन्हें मेरेद्वारा मारे जाने की बात याद न रहे, यह मानस पाप उनका स्पर्श न कर सके, मेरे चारों भाई स्वस्थ हो जायँ युद्धमें मेरा सामना करनेवाला कोई न हो और मैं बड़ी आयु प्राप्त करूँ ।' भारत ! महातपस्वी जमदग्नि ने वरदान देकर उनकी वे सभी कामनाएँ पूर्ण कर दी ।। १६-१८ ॥
युधिष्ठिर ! एक दिन इसी तरह उनके सब पुत्र बाहर गये हुए थे। उसी समय अनूपदेशका वीर राजा कार्तवीर्य अर्जुन उधर आ निकला ॥ १९ ॥
आश्रम में आनेपर ऋषिपत्नी रेणुका ने उसका यथोचित आतिथ्य-सत्कार किया । कार्तवीर्य अर्जुन युद्ध के मद से उन्मत्त हो रहा था उसने उस सत्कार को आदरपूर्वक ग्रहण नहीं किया। उलटे मुनिके आश्रमको तहस-नहस करके वहाँ से डकराती हुई कामधेनु के बछड़े को बलपूर्वक हर लिया और आश्रम के बड़े-बड़े वृक्षों को भी तोड़ डाला ॥ २०-२१ ॥
जब परशुरामजी आश्रममें आये तब स्वयं जमदग्निने उनसे सारी बातें कहीं। बारंबार डकराती हुई होमकी धेनुपर भी उनकी दृष्टि पड़ी इससे वे अत्यन्त कुपित हो उठे ।। २२ ।।
और कालके वशीभूत हुए कार्तवीर्य अर्जुन पर धावा बोल दिया शत्रुवीरों का संहार करनेवाले भृगुनन्दन परशुरामजी ने अपना सुन्दर धनुष ले युद्ध में महान् पराक्रम दिखाकर पैने बार्णो- द्वारा उसकी परिघसदृश सहस्र भुजाओं को काट डाला ॥२३-२४।।
इस प्रकार परशुरामजी से परास्त हो कार्तवीर्य अर्जुन काल के गाल में चला गया पिता के मारे जाने से अर्जुन के पुत्र परशुरामजी पर कुपित हो उठे ॥ २५ ॥
और एक दिन परशुरामजी की अनुपस्थिति में जब आश्रमपर केवल जमदग्निजी ही रह रहे थे, वे उन्हींपर चढ़ आये । यद्यपि जमदग्निजी महान शक्तिशाली थे तो भी तपस्वी ब्राह्मण होने के कारण युद्धमें प्रवृत्त नहीं हुए। इस दशामें भी कार्त-वीर्य के पुत्र उनपर प्रहार करने लगे ॥ २६ ॥
युधिष्ठिर ! वे महर्षि अनाथकी भाँति राम ! राम !! की रट लगा रहे थे, उसी अवस्था में कार्तवीर्य अर्जुनके पुत्रोंने उन्हें बाणोंसे घायल करके मार डाला। इस प्रकार मुनिकी हत्या करके वे शत्रुसंहारक क्षत्रिय जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये जमदग्निके इस तरह मारे जाने के बाद जब वे कार्तवीर्य पुत्र भाग गये, तब भृगुनन्दन परशुरामजी हाथोंमें समिधा लिये आश्रम में आये। वहाँ अपने पिताको इस प्रकार दुर्दशापूर्वक मरा देख उन्हें बड़ा दुःख हुआ उनके पिता इस प्रकार मारे जानेके योग्य कदापि नहीं थे, परशुरामजी उन्हें याद करके विलाप करने लगे ।। २७-२९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग कार्तवीर्योपाख्यान में जमदग्निवधविषयक एक सी सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ सत्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ सत्रहवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"परशुरामजी का पिता के लिये विलाप और पृथ्वीको इक्कीस बार निःक्षत्रिय करना एवं महाराज युधिष्ठिरके द्वारा परशुरामजीका पूजन"
परशुरामजी बोले ;- हा तात ! मेरे अपराध का बदला लेने के लिये कार्तवीर्य के उन नीच और पामर पुत्रों ने वनगे बाणों द्वारा मारे जानेवाले मृगकी भाँति आपकी हत्या की है ॥ १ ॥
पिताजी ! आप तो धर्मज्ञ होनेके साथ ही सन्मार्ग पर चलने वाले थे, कभी किसी भी प्राणी के प्रति कोई अपराध नहीं करते थे, फिर आपकी ऐसी मृत्यु कैसे उचित हो सकती है ? ॥ २ ॥
आप तपस्या में संलग्न, युद्धसे विरत और वृद्ध थे तो भी जिन्होंने सैकड़ों तीखे बाणों द्वारा आपकी हत्या की है, उन्होंने कोन-सा पाप नहीं किया ? ॥ ३ ॥
ये निर्लज्ज राजकुमार युद्धसे दूर रहने वाले आप-जैसे धर्मज्ञ एवं असहाय पुरुषको मारकर अपने सुहृदों और मन्त्रियों के सामने क्या कहेंगे ? ॥ ४ ॥
राजन् ! इस प्रकार भाँति-भाँति से अत्यन्त करुणाजनक विलाप करके शत्रुओं की राजधानीपर विजय पानेवाले महातपस्वी परशुरामजीने अपने पिता के समस्त प्रेतकर्म किये। भारत ! पहले तो उन्होंने विधिपूर्वक अभि पिताका दाह संस्कार किया तत्पश्चात् सम्पूर्ण क्षत्रियोंके बधकी प्रतिज्ञा की ।। ५-६ ॥
अत्यन्त बलवान् एवं पराक्रमी परशुरामजी क्रोधके आवेशमें साक्षात् यमराज के समान हो गये । उन्होंने युद्ध में शस्त्र लेकर अकेले ही कीर्तवीर्य के सब पुत्रोंको मार डाला ।।७।।
क्षत्रियशिरोमणे ! उस समय जिन-जिन क्षत्रियोंने उनका साथ दिया, उन सबको भी, योद्धाओ में श्रेष्ठ परशुरामजी ने मिट्टी में मिला दिया ।।८॥
इस प्रकार भगवान् परशुरामने इस पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियोंसे सूनी करके उनके रक्तसे समन्तपञ्चक क्षेत्रमें "पाँच रुधिर कुण्ड भर दिये ॥ ९ ॥
भृगुकुलभूषण रामने उन कुण्डोंमें भृगुवंशी पितरोंका तर्पण किया और उस समय साक्षात् प्रकट हुए महर्षि ऋचीक को देखा । उन्होंने परशुराम को इस घोर कर्म से रोका ॥ १० ॥
राजन् ! उस समय कश्यपजीकी आज्ञासे ब्राह्मणोंने 'उस स्वर्णवेदीको खण्ड-खण्ड करके बाँट लिया, अतः वे खाण्डवायन नामसे प्रसिद्ध हुए ॥ १३ ॥
इस प्रकार सारी पृथ्वी महात्मा कश्यप को देकर अमित- पराक्रमी परशुरामजी इस पर्वतराज महेन्द्र पर निवास करते हैं ॥ १४ ॥
इस तरह उनका सम्पूर्ण जगत् के क्षत्रियों के साथ वैर हुआ था और उसी समय अमित तेजस्वी परशुरामजीने सारी पृथ्वी जीती थी ॥ १५ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय ! तदनन्तर चतुर्दशी तिथिको निश्चित समय पर महामना परशुरामजी ने उस पर्वतपर रहनेवाले उन ब्राह्मणों तथा भाइयोंसहित युधिष्ठिर को दर्शन दिया ।। १६ ।।
राजेन्द्र ! उस समय प्रभावशाली नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने भाइयोंके साथ श्रद्धापूर्वक भगवान् परशुरामजी की पूजा की तथा अन्य ब्राह्मण का भी बहुत आदर-सत्कार किया ।।१७।।
जमदग्निनन्दन परशुरामजी की पूजा करके स्वयं भी उनके द्वारा सम्मानित हो वे इन्हींकी आज्ञासे उस रातको महेन्द्रपर्वत पर ही रहे, फिर सबेरे उठकर दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये ॥ १८ ॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग कार्तवीर्यो वाख्यानविषयक एक सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ अठारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ अठारहवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिरका विभिन्न तीर्थों में होते हुए प्रभासक्षेत्र में पहुँचकर तपस्या में प्रवृत्त होना और यादवोंका पाण्डवोंसे मिलना"
वैशम्पायनजी कहते हैं ;-- जनमेजय ! आगे जाते हुए महानुभाव राजा युधिष्ठिर ने समुद्रतट के समस्त पुण्य तीर्थो का दर्शन किया। वे सभी तीर्थ परम मनोहर थे उनमें कहीं-कहीं ब्राह्मण लोग निवास करते थे, जिससे उन तीर्थों की बड़ी शोभा होती थी ॥ १ ॥
परीक्षितनन्दन ! सदाचारी पाण्डुकुमार युधिष्टिर कश्यपपुत्र सूर्यदेव के पौत्र थे ( क्योंकि उनकी उत्पत्ति सूर्यकुमार धर्मसे हुई थी ) वे भाइयोसहित उन तीर्थोंमें स्नान करके समुद्रगामिनी पुण्यमयी प्रशस्ता नदी के तटपर गये ॥ २ ॥
महानुभाव युधिष्ठिर ने वहाँ भी स्नान करके देवताओं और पितरों का तर्पण किया तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणों को धन दान करके सागरगामिनी गोदावरी नदो की ओर प्रस्थान किया ।।३ ॥
जनमेजय ! गोदावरी में स्नान करके पवित्र हो वे वहाँसे द्रविड़देशमें घूमते हुए संसारके पुण्यमय तीर्थ समुद्रके तटपर गये। वहाँ स्नानादि करनेके पश्चात् वीर पाण्डुकुमारने आगे बढ़कर परम पवित्र अगस्त्य तीर्थ तथा नारी- तीर्थों का दर्शन किया ॥ ४ ॥
वहाँ श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुनके उस पराक्रमको, जो दूसरे मनुष्योंके लिये असम्भव था, सुनकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन तीथोंमें बड़े-बड़े ऋषिगण भी उनका सत्कार करते थे । जनमेजय ! द्रौपदी तथा भाइयोंके साथ राजा युधिष्ठिरने उन पाँचों तीर्थोंमें स्नान करके अर्जुनके पराक्रमकी प्रशंसा करते हुए बड़े हर्षका अनुभव किया ।। ५-६ ॥
तदनन्तर समुद्रतटवर्ती उन सभी तीर्थों में सहस्रों गोदान करके भाइयों सहित युधिष्ठिरने प्रसन्नतापूर्वक अर्जुन के द्वारा किये हुए गोदान का बारंबार वर्णन किया ॥ ७ ॥
राजन्! समुद्र-सम्बन्धी तथा अन्य बहुत-से पुण्य तीर्थों में क्रमशः भ्रमण करते हुए पूर्णकाम राजा युधिष्ठिरने अत्यन्त पुण्यमय शूर्पारकतीर्थका दर्शन किया ॥ ८ ॥
वहाँ समुद्रके कुछ भाग को लाँघकर वे एक ऐसे वनमें आये, जो भूमण्डलमें सर्वत्र विख्यात था। वहाँ पूर्वकाल में देवताओं ने तपस्या की थी और पुण्यात्मा नरेश ने यज्ञों का अनुष्ठान किया था ॥ ९ ॥
लम्बी और नोटी भुजाओंवाले युधिष्ठिर ने उस मनमें धनुर्धर शिरोमणि ऋचीकवंशी परशुरामजीकी वेदी देखी, जो पुण्यात्मा पुरुषों के लिये पूजनीय थी तथा तपस्वियों के समुदाय उसे सदा घेरे रहते थे ॥ १० ॥
राजन्, तत्पश्चात् उन महात्मा नरेशने वसु, मरुद्गण, अश्विनीकुमार, यम, आदित्य, कुबेर, इन्द्र, विष्णु, भगवान् सविता, शिव, चन्द्रमा, सूर्य, वरुण, साध्यगण, धाता, पितृगण अपने गणोंसहित रुद्र, सरस्वती, सिद्ध-समुदाय तथा अन्य पुण्यमय देवताओंके परम पवित्र और मनोहर मन्दिरोंके दर्शन किये ॥ ११-१३ ॥
उन तीर्थोंके निकट निवास करनेवाले विद्वान् ब्राह्मणों को वस्त्राभूषणोंसे आच्छादित एवं विभूषित करके उन्हें बहुमूल्य रत्नों की भेंट दे वहाँ के सभी तीर्थों में स्नान करके महाराज युधिष्ठिर पुनः शूर्पारकक्षेत्र में लौट आये ।।१४।।
वहाँ से प्रस्थित हो वे भाइयों सहित सागरतटवर्ती तीर्थोके मार्ग से होते हुए फिर प्रभासक्षेत्र आये, जो श्रेष्ठ ब्राह्मणों के कारण भूमण्डलमें अधिक प्रसिद्ध है ।। १५ ।।
वहाँ भाइयों सहित स्नान करके विशाल एवं लाल नेत्रों- वाले राजा युधिष्ठिरने देवताओं और पितरोंका तर्पण किया। इसी प्रकार द्रौपदीने साथ आये हुए उन ब्राह्मणोंने तथा महर्षि लोमशने भी वहाँ स्नान एवं तर्पण किये ॥ १६ ॥
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर वहाँ चारह दिनों तक केवल जल और वायु पीकर रहते हुए दिनमें और रातमें भी स्नान करते तथा अपने चारों ओर आग जलाकर तपस्या में लगे रहते थे ।।१७ ॥
इसी समय वृष्णिवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामने सुना कि महाराज युधिष्ठिर प्रभासक्षेत्रमें उम तपस्या कर रहे हैं; तब वे अपने सैनिकोंसहित अजमीढकुल- भूषण युधिष्ठिर से मिलनेके लिये गये ॥ १८ ॥
वहाँ जाकर वृष्णिवंशियों ने देखा, पाण्डव लोग पृथ्वी पर सो रहे हैं, उनके सारे अङ्ग धूलसे सने हुए हैं तथा कष्ट सहनेके अयोग्य द्रौपदी भी भारी दुर्दशा भोग रही है। यह सब देखकर वे बड़े दुखी हुए और आर्त स्वरखे रोने लगे ।। १९ ।।
( उस महान् संकटमें भी ) महाराज युधिष्ठिरने अपना धैर्य नहीं छोड़ा था। उन्होंने बलराम, श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न, साम्ब, सात्यकि तथा अन्यान्य वृष्णिवंशियोंके पास जा-जाकर धर्मानुसार उन सबका आदर-सत्कार किया ॥ २० ॥
राजन् ! पाण्डुपुत्रद्वारा सत्कृत होकर यादवने भी उन सबका यथोचित सत्कार किया और फिर देवता जैसे इन्द्रके चारों ओर बैठ जाते हैं, उसी प्रकार वे धर्मराज युधिष्ठिर को सब ओर से घेरकर बैठ गये ॥ २१ ॥
तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिरने अत्यन्त विश्वस्त होकर यादवोंसे शत्रुओंकी सारी करतूतें कह सुनायीं और अपने वनवासका भी सब समाचार बताया। साथ ही बड़ी प्रसन्नताके साथ यह भी सूचित किया कि अर्जुन दिव्यास्त्रों की प्राप्तिके लिये इन्द्रलोक में गये हैं ॥ २२ ॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में प्रभासक्षेत्र के भीतर यादव - पाण्डव- समागमविषयक एक सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ उन्नीसवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
"प्रभासतीर्थमें बलरामजीके पाण्डवोंके प्रति सहानुभूतिसूचक दुःखपूर्ण उद्गार"
जनमेजय ने पूछा ;- तपोधन ! प्रभासतीर्थ में पहुँचकर पाण्डवों तथा वृष्णिवंशियोंने क्या किया ? वहाँ उनमें कैसी बात- चीत हुई ? वे सब महात्मा यादव और पाण्डव सम्पूर्ण शास्त्रों के विद्वान् और एक-दूसरे का हित चाहने वाले थे, अतः उनमें क्या बात हुई ? यह मैं जानना चाहता हूँ ॥ १-२ ॥
'वैशम्पायनजीने कहा ;-- राजन् ! प्रभासक्षेत्र समुद्र- तटवर्ती एक पुण्यमय तीर्थ है। वहाँ जाकर वृष्णिवंशी वीर पाण्डवको चारों ओर से घेरकर बैठ गये ।।३।।
तदनन्तर गोदुग्ध, कुन्दकुसुम, चन्द्रमा, मृणाल (कमल- नाल ) तथा चाँदी की सी कान्तिवाले वनमालाविभूषित हलधर बलराम ने कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण से कहा ॥ ४ ॥
बलदेवजी बोले ;- श्रीकृष्ण ! जान पड़ता है, आचरण- में लाया हुआ धर्म भी प्राणियों के अभ्युदय का कारण नहीं होता और उनका किया हुआ अधर्म भी पराजय की प्राप्ति करानेवाला नहीं होता; क्योंकि महात्मा युधिष्ठिरको ( जो सदा धर्मका ही पालन करते हैं) जटाधारी होकर वल्कल वस्त्र पहने वन में रहते हुए महान् क्लेश भोगना पड़ रहा है ॥ ५ ॥
उधर दुर्योधन (अधर्मपरायण होनेपर भी ) पृथ्वी का शासन कर रहा है । उसके लिये यह पृथ्वी भी नहीं फटती है। इससे तो मन्द बुद्धिवाले मनुष्य यही समझेंगे कि धर्माचरण की अपेक्षा अधर्म का आचरण ही श्रेष्ठ है दुर्योधन निरन्तर उन्नति कर रहा है और युधिष्ठिर छलसे राज्य छिन जानेके कारण दुःख उठा रहे हैं । ( युधिष्ठिर और दुर्योधनके दृष्टान्तको सामने रखकर ) मनुष्योंमें परस्पर महान् संदेह खड़ा हो गया है। प्रजा यह सोचने लगी है। कि हमें क्या करना चाहिये हमें धर्मका आश्रय लेना चाहिये या अधर्मका ? ।। ६-७ ।।
ये राजा युधिष्ठिर साक्षात् धर्मके पुत्र हैं। धर्म ही इनका आधार है। ये सदा सत्यका आश्रय लेते और दान देते रहते हैं। कुन्तीकुमार युधिष्ठिर राज्य और सुख छोड़ सकते हैं, (परंतु धर्मका त्याग नहीं कर सकते ) भला, धर्मसे दूर होकर कोई कैसे अभ्युदयका भागी हो सकता है ॥ ८ ॥
पितामह भीष्म, ब्राह्मण कृपाचार्य, द्रोण तथा कुलके बड़े-बूढ़े राजा धृतराष्ट्र-ये कुन्तीके पुत्रोंको राज्यसे निकाल- कर कैसे सुख पाते हैं ? भरतकुलके इन प्रधान व्यक्तियोंको धिक्कार है ! क्योंकि इनकी बुद्धि पापमें लगी हुई है ॥ ९ ॥
पापी राजा धृतराष्ट्र परलोकमें पितरोंसे मिलनेपर उनके सामने कैसे यह कह सकेगा कि मैंने अपने और भाई पाण्डुके पुत्रोंके साथ न्याययुक्त बर्ताव किया है। जब कि उसने इन निर्दोष पुत्रों को राज्यसे वश्चित कर दिया है ॥ १० ॥
वह अब भी अपने बुद्धिरूप नेत्रोंसे यह नहीं देख पाता कि कौन-सा पाप करनेके कारण मुझे इस प्रकार अन्धा होना पड़ा है और आगे कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको राज्य से निकालकर जब मैं भूतलके राजाओंमें फिरसे जन्म लूँगा, तब मेरी दशा कैसी होगी ॥ ११ ॥
विचित्रवीर्यका पुत्र धृतराष्ट्र और उसके पुत्र दुर्योधन आदि यह क्रूर कर्म करके ( स्वप्नमें ) निश्चय ही पितृलोककी भूमिमें सुवर्णके समान चमकनेवाले समृद्धिशाली एवं पुष्पित वृक्षोंको देख रहे हैं ॥ १२ ॥
धृतराष्ट्र सुदृढ़ कंधे तथा विशाल एवं लाल नेत्रोंवाले इन भीष्म आदिसे कोई बात पूछता तो है, परंतु निश्चय ही उनकी बात सुनकर मानता नहीं है, तभी तो भाइयोसहित शस्त्रधारी युधिष्ठिरके प्रति भी मनमें शङ्का रखकर इन्हें उसने वनमें भेज दिया है ।। १३ ।।
( भला ! वे कौरव इन पाण्डव का सामना कैसे कर सकते हैं ? ) ये बड़ी-बड़ी भुजाओंवाले भीमसेन बिना अस्त्र- शस्त्रोंके ही शत्रुओं की शक्तिशाली सेनाका संहार कर सकते हैं। भीम का तो सिंहनाद सुनकर ही विरोधी दलके सैनिक मल-मूत्र करने लगते हैं ॥ १४ ॥
वे ही वेगशाली भीम इन दिनों भूख-प्यास और रास्ता चलनेकी थकावटसे दुर्बल हो गये हैं। इस भयंकर वनवासका स्मरण करते हुए जब ये हाथमें अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्र एवं धनुष-बाण लिये शत्रुओं पर आक्रमण करेंगे, उस समय किसी को भी जीता न छोड़ेंगे -- यह मेरा निश्चय है ॥ १५ ॥
इनके समान पराक्रमी और बलवान् वीर इस पृथ्वीपर कोई नहीं है। इस समय सर्दी-गर्मी और वायुके कष्टसे यद्यपि इनका शरीर दुबला हो गया है तो भी समरमें शत्रुओं में से किसीको भी ये शेष नहीं रहने देंगे ॥ १६ ॥
जो पूर्व दिशा में ( दिग्विजयकी यात्राके समय ) केवल एक रथ लेकर युद्ध में बहुत-से राजाओं को सेवकसहित परास्त करके सकुशल लौट आये थे, वे ही अतिरथी और बेगशाली वीर वृकोदर आज बनने वल्कल वस्त्र पहनकर कष्ट भोग रहे हैं। जिसने समुद्र-तटपर सामना करनेके लिये आये हुए दक्षिण दिशाके सम्पूर्ण राजाओं पर विजय पायी थी, उसी वेगवान् वीर इस सहदेवको देखो - यह आज तपस्वी की-सी वेष-भूषा धारण किये हुए दुःख पा रहा है ।। १७-१८ ।।
जिस युद्धकुशल नकुलने एकमात्र रथकी सहायता से पश्चिम दिशाके समस्त भूपालोंको जीत लिया था, वही आज वनमें फल-मूलसे जीवन-निर्वाह करता हुआ सिरपर जटा धारण किये मलिन शरीर से विचर रहा है ॥ १९ ॥
जो अतिरथी राजा द्रुपदके समृद्धिशाली यज्ञमें वेदीसे प्रकट हुई थी, वही यह सुख भोगनेके योग्य सती-साध्वी द्रौपदी वनवासके इस महान् दुःखको कैसे सहन करती है ? ।।२०।।
धर्म, वायु, इन्द्र और अश्विनीकुमारों जैसे देवताओं के ये पुत्र सुख भोगने के योग्य होते हुए भी आज सब प्रकार के सुखोंसे वञ्चित हो वनमें कैसे विचरण कर रहे हैं ? ।।२१।।
पत्नीसहित धर्मराज युधिष्ठिर जुए में हार गये और भाइयों एवं सेवकोंसहित राज्यसे बाहर कर दिये गये; उधर दुर्योधन ( अनीतिपरायण होकर भी दिनोंदिन ) बढ़ रहा है; ऐसी दशामें पर्वतोंसहित यह पृथ्वी क्यों नहीं फट जाती ॥ २२ ॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसङ्ग में बलरामवाक्यविषयक एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एक सौ बीसवें अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"सात्यकि शौर्यपूर्ण उद्गार तथा युधिष्ठिरद्वारा श्रीकृष्ण के वचनोंका अनुमोदन एवं पाण्डवोंका पयोष्णी नदीके तटपर निवास"
सात्यकि ने कहा ;— बलरामजी ! यह समय बैठकर विलाप करनेका नहीं है। अब आगे जो कुछ करना है, उसीको हम सब लोग मिलकर करें । यद्यपि महाराज युधिष्ठिर हमसे कुछ नहीं कहते हैं तो भी हमें अब व्यर्थ समय न बिताकर कौरवोंको उचित उत्तर देना चाहिये ॥ १ ॥
इस संसारमें जो लोग सनाथ हैं- जिनके बहुत-से सहायक हैं - वे स्वयं कोई कार्य आरम्भ नहीं करते हैं। उनके सभी कार्योंमें वे सहायक एवं सुहृद् ही सहयोगी होते हैं, जैसे ययातिके उद्धार कार्य में शिवि आदि उनके नातियोंने योगदान किया था ॥ २ ॥
बलरामजी ! जगत् में जिनके कार्य उनके सहायक अपने ही विचारसे प्रारम्भ करते हैं, वे पुरुषश्रेष्ठ सनाथ माने जाते हैं। वे अनाथकी भाँति कभी कष्टमें नहीं पड़ते ॥ ३ ॥
आप दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्ण, मेरेसहित ये प्रद्युम्न और साम्ब सब-के-सब मौजूद हैं। इन त्रिभुवन- पतियों से मिलकर भी ये कुन्ती के पुत्र अभीतक अपने भाइयोंके साथ वनमें क्यों निवास करते हैं ? ।।४।।
उत्तम तो यह है कि आज ही यदुवंशियोंकी सेना नाना प्रकारके प्रचुर अस्त्र और विचित्र कवच धारण करके युद्ध के लिये प्रस्थान करे । धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन वृष्णिवंशियों- के पराक्रम से पराजित हो बन्धुबान्धवसहित यमलोक चला जाय। बलरामजी ! भगवान् श्रीकृष्ण अलग खड़े रहें, केवल आप ही चाहें तो इस समूची पृथ्वीको भी अपनी क्रोधाग्नि की लपटों में लपेट सकते हैं जैसे देवराज इन्द्रने वृत्रासुर का वध किया था, उसी प्रकार आप भी दुर्योधन को उसके सगे- सम्बन्धियसहित मार डालिये ।। ५-६ ।।
जो मेरे भाई, सखा और गुरु हैं, जो भगवान् श्रीकृष्ण के आत्मतुल्य सुहृद् हैं, वे कुन्तीकुमार अर्जुन भी अलग रहे । मनुष्य जिस उद्देश्यसे अच्छे पुत्रकी और गुरु प्रतिकूल न बोलनेवाले शिष्य की कामना करते हैं, उसे सफल करनेका समय आ गया है ॥ ७ ॥
जिसके लिये सुयोग्य शिष्य या पुत्र उत्तम अस्त्र-शस्त्र उठाता है तथा युद्धमें श्रेष्ठ एवं अपार पराक्रम कर दिखाता है, उसकी पूर्तिका यही अवसर है। मैं संग्रामभूमिमें अपने उत्तम आयुधद्वारा शत्रुओंकी सारी अस्त्र- वर्षाको नष्ट करके उनके समस्त सैनिकोंको परास्त कर ॥ ८ ॥
बलरामजी ! सर्प विष एवं अग्निके समान भयंकर उत्तम बाणोंद्वारा शत्रुके सिरको धड़से अलग कर दूँगा; साथ ही उस समराङ्गण में शत्रुमण्डलीको मैं बलपूर्वक रौंदकर तीखी तलवारद्वारा उसका मस्तक उड़ा दूँगा ॥ ९ ॥
तदनन्तर उसके समस्त सेबकसहित दुर्योधन और समस्त कौरवोंको भी मार डालूँगा। रोहिणीनन्दन ! युद्धमें भयानक पराक्रम दिखानेवाले योद्धा हर्ष और उत्साहमें भर- कर आज मुझे हाथमें अस्त्र लिये पूर्वोक्त पराक्रम करते हुए प्रत्यक्ष देखें ।।१०।।
जैसे प्रलयकालीन अग्नि सूखे घासकी राशिको जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार मैं अकेला ही कौरवदलके प्रधान वीरोंका संहार कर डालूँगा और ऐसा करते हुए सव लोग मुझे प्रत्यक्ष देखेंगे प्रद्युम्न के छोड़े हुए तीखे बाणको सहन करनेकी शक्ति कृपाचार्य, द्रोणाचार्य विकर्ण और कर्ण- किसीमें नहीं है ॥ ११ ॥
मैं अर्जुन कुमार अभिमन्युके भी पराक्रम को जानता हूँ । वह समरभूमिमें खड़ा होने पर साक्षात् श्रीकृष्णनन्दन प्रद्युम्न के ही समान जान पड़ता है बीरवर साम्य बलपूर्वक शत्रु सेना को मथकर अपनी दोनों भुजाओं से रथ और सारथिसहित दुःशासनका दमन करें ॥ १२ ॥
जाम्बवतीनन्दन साम्ब रणभूमिमें बड़े प्रचण्ड पराक्रम- शाली बन जाते हैं। उस समय इनके लिये कुछ भी असह्य नहीं है इन्होंने बाल्यावस्थामें ही सहसा शम्बरासुरकी सेनाको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था ॥ १३ ।।
इनकी जाँघें गोल हैं, भुजाएँ लंबी और मोटी हैं; इन्होंने युद्धमें अश्वारोहियोंकी कितनी ही सेनाओं का संहार किया है भला, संग्राम भूमि में महारथी साम्य के रथके सम्मुख कौन आ सकता है ? ॥ १४ ॥
जैसे अन्तकाल आने पर यमराज की भुजाओं में पड़ा हुआ मनुष्य कदापि वहाँसे निकल नहीं सकता, उसी प्रकार रणक्षेत्र में वीरवर साम्यके वशमें आया हुआ कौन ऐसा योद्धा होगा, जो पुनः जीवित लौट सके ॥ १५ ॥
वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण चाहें तो अपने बाणरूपी अग्नि की लपटोंसे द्रोण और भीष्म इन दोनों प्रसिद्ध महारथियों- को, पुत्रों सहित सोमदत्तको तथा सारी कौरव सेनाको भी भस्म कर डालेंगे ॥ १६ ॥
देवताओं सहित सम्पूर्ण लोकोंमें कौन-सी ऐसी वस्तु है, जो हाथोंमें हथियार, उत्तम बाण तथा चक्र धारण करके युद्धमें अनुपम पराक्रम प्रकट करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके लिये असह्य हो ॥ १७ ॥
ढाल-तलवार लिये हुए वीरवर अनिरुद्ध भी, जैसे यज्ञ में कुशाओं द्वारा यशकी वेदी ढक दी जाती है, उसी प्रकार युद्धमें सिर कटाकर मरे और अचेत पड़े हुए धृतराष्ट्र- पुत्रौद्वारा इस भूमिको ढक दें गद, उल्मुक, बाहुक, भानु, नीथ, युद्धमें शूरवीर कुमार निशठ तथा रणभूमि में प्रचण्ड पराक्रमी सारण और चारुदेष्ण – ये सब लोग अपने कुलके अनुरूप पराक्रम प्रकट करें ।।१८-१९।।
यदुवंशियों की शौर्यपूर्ण सेना, जिसमें वृष्णि, भोज और अन्धकवंशी योद्धाओंकी प्रधानता है, आक्रमण करके युद्ध में धृतराष्ट्रपुत्रोंको मार डाले और संसार में अपने उज्ज्वल यशका विस्तार करे ।। २० ॥
धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महात्मा युधिष्ठिर जबतक अपने उस अतको, जिसे इन कुरुकुलभूषणने जूएके समय प्रतिज्ञापूर्वक स्वीकार किया था, पूर्ण न कर लें, तबतक अभिमन्यु इस पृथ्वीका शासन करे ॥ २१ ॥
तदनन्तर अपना व्रत समाप्त करके हमारे द्वारा छोड़े हुए बाणोंसे ही शत्रुओं पर विजय पाकर धर्मराज युधिष्ठिर इस पृथ्वीका राज्य भोगेंगे । उस समयतक यह पृथ्वी धृतराष्ट्र के पुत्रोंसे रहित हो जायगी और सूतपुत्र कर्ण भी मर जायगा । यदि ऐसा हुआ तो यह हमारे लिये महान् यशोवर्धक कार्य योगा ॥ २२ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण बोले ;- उदारहृदय मधुकुलभूषण सात्यके ! तुम्हारी यह बात सत्य है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है हम तुम्हारे इन वचनोंको स्वीकार करते हैं; परंतु ये कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर किसी भी ऐसी भूमिको किसी तरह लेना नहीं चाहेंगे, जिसे इन्होंने अपनी भुजाओंद्वारा न जीता हो ॥ २३ ॥
कामना, भय अथवा लोभ किसी भी कारण से युधिष्ठिर अपना धर्म कदापि नहीं छोड़ सकते । उसी तरह अतिरथी वीर भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा यह द्रुपदकुमारी कृष्णा भी अपना धर्म नहीं छोड़ सकती ॥ २४ ॥
भीमसेन और अर्जुन- ये दोनों वीर युद्धमें इस पृथ्वीपर अपना सानी नहीं रखते। इनसे और दोनों माद्रीकुमारों से संयुक्त होनेपर ये युधिष्ठिर सारी पृथ्वीका शासन कैसे नहीं कर सकते ? ।। २५ ॥
जब महात्मा पाञ्चालराज, केकय, चेदिराज और हम सब लोग एक साथ होकर रण में पराक्रम दिखायेंगे, उसी समय हमारे सारे शत्रुओंका अस्तित्व मिट जायगा ।। २६ ।।
युधिष्ठिर ने कहा ;- सात्यके ! तुम जो कुछ कह रहे हो, वह तुम्हारे जैसे वीरके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; परंतु मेरे लिये सत्यकी रक्षा ही प्रधान है, राज्यकी प्राप्ति नहीं केवल श्रीकृष्ण ही मुझे अच्छी तरह जानते हैं और मैं भी श्रीकृष्ण के स्वरूप को यथार्थरूपसे जानता हूँ ॥ २७ ॥
शिनिवंश के प्रधान वीर माधव ! ये पुरुषरत्न श्रीकृष्ण जभी पराक्रम दिखानेका अवसर आया समझेंगे, तभी तुम और भगवान् केशव मिलकर युद्धमें दुर्योधनको जीत सकोगे ।।२८ ॥
अब ये यदुवंशी वीर द्वारकाको लौट जायँ आपलोग मेरे नाथ या सहायक तो हैं ही, सम्पूर्ण मनुष्य-लोकके भी रक्षक हैं; आपलोगों से मिलना हो गया, यह बड़े आनन्द की बात है। अनुपम शक्तिशाली वीरो ! आपलोग धर्मपालनकी ओरसे सदा सावधानी रखें। मैं पुनः आप सभी सुखी मित्रोंको एकत्र हुआ देखूँगा ।। २९ ।।
तत्पश्चात् वे यादव-पाण्डव वीर एक दूसरेकी अनुमति ले, वृद्धों को प्रणाम करके, बालकोंको हृदयसे लगाकर तथा अन्य सबसे यथायोग्य मिलकर अपने अभीष्ट स्थानको चल दिये यादववीर अपने घर गये और पाण्डवलोग पूर्ववत् तीर्थोंमें विचरने लगे ॥ ३० ॥
श्रीकृष्णको विदा करके धर्मराज युधिष्ठिर लोमशजी, भाइयों और सेवकों के साथ विदर्भनरेशद्वारा पूजित, उत्तम तीर्थो वाली पुण्य नदी पयोष्णीके तटपर गये ॥ ३१ ॥
उसके जलमें यज्ञसम्बन्धी सोमरस मिला हुआ था । पयोष्णी के तटपर जा उन्होंने उसका जल पीकर वहाँ निवास किया । उस समय प्रसन्नता से भरे हुए श्रेष्ठ द्विज उत्तम स्तुतियोंद्वारा उन महात्मा नरेशकी स्तुति कर रहे थे ॥ ३२ ॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थ यात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा प्रसङ्ग में यादवगमन विषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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