सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
छियानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षण्णवतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"इल्वल और वातापि का वर्णन, महर्षि अगस्त्य का पितरों के उद्धार के लिये विवाह करने का विचार तथा विदर्भराज का महर्षि अगस्त्य से एक कन्या पाना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर प्रचुर दक्षिणा देने वाले कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर ने गया से प्रस्थान किया और अगस्त्याश्रम में जाकर दुर्जय मणिमती नगरी में निवास किया। वहीं वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने महर्षि लोमश से पूछा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ब्रह्मन! अगस्त्य जी ने यहाँ वातापि को किसलिये नष्ट किया। मुनष्य का विनाश करने वाले उस दैत्य का प्रभाव कैसा था? और महात्मा अगस्त्य जी के मन में क्रोध का उदय कैसे हुआ?
लोमश जी ने कहा ;- कौरवनन्दन! पूर्वकाल की बात है, इस मणिमती नगरी में इल्वल नामक दैत्य रहता था। वातापि उसी का छोटा भाई था। एक दिन दितिनन्दन इल्वल ने एक तपस्वी ब्राह्मण से कहा- ‘भगवन् आप मुझे ऐसा पुत्र दें, जो इन्द्र के समान पराक्रमी हो।‘ उन ब्राह्मण देवता ने इल्वल को इन्द्र के समान पुत्र नहीं दिया। इससे वह असुर उन ब्राह्मण देवता पर बहुत कुपित हो उठा। राजन्! तभी से इल्वल दैत्य क्रोध में भरकर ब्राह्मणों की हत्या करने लगा। वह मायावी अपने भाई वातापि को माया से बकरा बना देता था। वातापि भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ था, अत: वह क्षण भर में भेड़ा और बकरा बन जाता था। फिर इल्वल उस भेड़ या बकरे को पकाकर उस का मांस रांधता और किसी ब्राह्मण को खिला देता था। इसके बाद वह ब्राह्मण को मारने की इच्छा करता था। इल्वल में यह शक्ति थी कि वह जिस किसी भी यमलोक में गये हुए प्राणी को उसका नाम लेकर बुलाता, वह पुन: शरीर धारण करके जीवित दिखायी देने लगता था। उस दिन वातापि दैत्य को बकरा बनाकर इल्वल ने उसके मांस का संस्कार किया और उन ब्राह्मण देव को वह मांस खिलाकर पुन: अपने भाई को पुकारा।
राजन्! इल्वल के द्वारा उच्च स्वर से बोली हुई वाणी सुनकर वह अत्यन्त मायावी ब्राह्मणशत्रु बलवान् महादैत्य वातापि उस ब्राह्मण की पसली को फाड़कर हंसता हुआ निकल आया। राजन्! इस प्रकार दुष्ट हृदय इल्वल दैत्य बार-बार ब्राह्मण को भोजन कराकर अपने भाई द्वारा उनकी हिंसा करा देता था। (इसलिए अगस्त्य मुनि ने वातापि को नष्ट किया था)। इन्हीं दिनों भगवान अगस्त्य मुनि कहीं चले जा रहे थे। उन्होंने एक जगह अपने पितरों को देखा, जो एक गड्डे में नीचे मुंह किये लटक रहे थे। तब उन लटकते हुए पितरों से अगस्त्य जी ने पूछा,,
अगस्त्य जी बोले ;- ‘आप लोग यहाँ किसलिये नीचे मुंह किये कांपते हुए से लटक रहे हैं?'
यह सुनकर उन वेदवादी पितरों ने उतर दिया,,
पित्र बोले ;- ‘संतान परम्परा के लोप होने की सम्भावना के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही हैं’। उन्होंने अगस्त्य के पूछने पर बताया कि,,- 'हम तुम्हारे ही पितर हैं। संतान के इच्छुक होकर इस गड्डे में लटक रहें हैं। अगस्त्य! यदि तुम हमारे लिये उत्तम संतान उत्पन्न कर सको तो हम नरक से छुटकारा पा सकते हैं और बेटा! तुम्हें भी सदगति प्राप्त होगी‘। तब सत्यधर्मपरायण तेजस्वी अगस्त्य ने उनसे कहा,,
अगस्त्य जी बोले ;– ‘पितरो! मैं आपकी इच्छा पूर्ण करूँगा। आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिए’।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षण्णवतितम अध्याय के श्लोक 19-29 का हिन्दी अनुवाद)
तब भगवान महर्षि अगस्त्य ने संतानोत्पादन की चिन्ता करते हुए अपने अनुरूप संतान को गर्भ में धारण करने के लिये योग्य पत्नी का अनुसंधान किया, परंतु उन्हें कोई योग्य स्त्री दिखायी नहीं दी। तब उन्होंने एक–एक जन्तु के उत्तमोतम अंगों का भावना द्वारा संग्रह करके उन सबके द्वारा एक परम सुन्दर स्त्री का निर्माण किया।
उन दिनों विदर्भराज पुत्र के लिये तपस्या कर रहे थे। महातपस्वी अगस्त्य मुनि ने अपने लिये निर्मित की हुई वह स्त्री राजा को दे दी। उस सुन्दरी कन्या का उस राजभवन में बिजली के समान प्रादुर्भाव हुआ। वह शरीर से प्रकाशमान हो रही थी। उसका मुख बहुत सुन्दर था, वह राजकन्या वहाँ दिनोंदिन बढ़ने लगी। भरतनन्दन! राजा विदर्भ ने उस कन्या के उत्पन्न होते ही हर्ष में भरकर ब्राह्मणों को यह शुभ संवाद सुनाया। राजन्! उस समय सब ब्राह्मणों ने राजा का अभिनन्दन किया और उस कन्या का नाम ‘लोपामुद्रा’ रख दिया।
महाराज! उत्तम रूप धारण करने वाली वह राजकुमारी जल में कमलिनी तथा यज्ञवेदी पर प्रज्वलित शुभ अग्रिशिखा की भाँति शीघ्रतापूर्वक बढ़ने लगी। राजेन्द्र! जब उसने युवावस्था में पदार्पण किया, उस समय उस कल्याणी कन्या को वस्त्राभूषणों से विभूषित सौ सुन्दरी कन्याएं और सौ दासियां उसकी आज्ञा के अधीन होकर घेरे रहतीं और उसकी सेवा किया करती थीं। सौ दासियों और सौ कन्याओं के बीच में वह तेजस्विनी कन्या आकाश में सूर्य की प्रभा तथा नक्षत्रों में रोहिणी के समान सुशोभित होती थी। यद्यपि वह युवती शील एवं सदाचार से सम्पन्न थी तो भी महात्मा अगस्त्य के भय से किसी राजकुमार ने उसका वरण नहीं किया। वह सत्यवती राजकुमारी रूप में अप्सराओं से भी बढ़कर थी। उसने अपने शील स्वभाव से पिता तथा स्वजनों को संतुष्ट कर दिया था। पिता विदर्भ राजकुमारी को युवावस्था में प्रविष्ट हुई देख मन ही मन यह विचार करने लगे कि इस कन्या का किसके साथ विवाह करूँ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमश तीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्योपाख्यान विषयक छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
सत्तानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तनवतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"महर्षि अगस्त्य का लोपामुद्रा से विवाह, गंगाद्वार में तपस्या एवं पत्नी की इच्छा से धन संग्रह के लिये प्रस्थान"
लोमश जी कहते हैं ;– युधिष्ठिर! जब मुनिवर! अगस्त्य जी को यह मालूम हो गया कि विदर्भ राजकुमारी मेरी गृहस्थी चलाने के योग्य हो गयी है, तब वे विदर्भ नरेश के पास जाकर बोले,,
अगस्त्य जी बोले ;- ‘राजन्! पुत्रोत्पति के लिये मेरा विवाह करने का विचार है। अत: महीपाल! मैं आपकी कन्या का वरण करता हूँ। आप लोपामुद्रा को मुझे दे दीजिये।' मुनिवर अगस्त्य के ऐसा कहने पर विदर्भराज के होश उड़ गये। वे न तो अस्वीकार कर सके और न उन्होंने अपनी कन्या देने की इच्इा ही की।
तब विदर्भ नरेश अपनी पत्नी के पास जाकर बोले,,
विदर्भ नरेश बोले ;- ‘प्रिय! ये महर्षि अगस्त्य बड़े शक्शिाली हैं। यदि कुपित हों तो हमें शाप की अग्नि से भस्म कर सकते हैं’।
तब रानी सहित महाराज को इस प्रकार दु:खी देख लोपामुद्रा उनके पास गयी और समय के अनुसार इस प्रकार बोली,,
लोपामुद्रा बोली ;- ‘राजन्! आपको मेरे लिये दु:ख नहीं मानना चाहिए। पिताजी! आप मुझे अगस्त्य जी की सेवा में दे दें और मेरे द्वारा अपनी रक्षा करें’।
युधिष्ठिर! पुत्री की यह बात सुनकर राजा ने महात्मा अगस्त्य मुनि को विधिपूर्वक अपनी कन्या लोपामुद्रा ब्याह दी। लोपामुद्रा को पत्नीरूप में पाकर महर्षि अगस्त्य ने उससे कहा,,
अगस्त्य जी बोले ;- ‘ये तुम्हारे वस्त्र और आभूषण बहुमूल्य हैं। इन्हें उतार दो’। तब कदली के समान जांघ तथा विशाल नेत्रों वाली लोपापुद्रा ने अपने बहुमूल्य, महीन एवं दर्शनीय वस्त्र उतार दिये और फटे-पुराने वस्त्र तथा वल्कल और मृगचर्म धारण कर लिये। वह विशालनयनी बाला पति के समान ही व्रत और आचार का पालन करने वाली हो गयी। तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ भगवान अगस्त्य मुनि अनुकूल पत्नी के साथ गंगाद्वार में आकर घोर तपस्या में संलग्न हो गये। लोपामुद्रा बड़ी ही प्रसन्नता और विशेष आदर के साथ पतिदेव की सेवा करने लगी। शक्तिशाली महर्षि अगस्त्य जी अपनी पत्नी पर बड़ा प्रेम रखते थे।
राजन्! जब इसी प्रकार बहुत समय व्यतीत हो गया, तब एक दिन भगवान अगस्त्य मुनि ने ऋतुस्नान से निवृत्त हुई पत्नी लोपामुद्रा को देखा। वह तपस्या के तेज से प्रकाशित हो रही थी। महर्षि ने अपनी पत्नी की सेवा, पवित्रता, इन्द्रियसंयम, शोभा तथा रूप-सौन्दर्य से प्रसन्न होकर उसे मैथुन के लिये पास बुलाया। तब अनुरागिणी लोपामुद्रा कुछ लज्जित-सी हो हाथ जोड़कर बड़े प्रेम से भगवान अगस्त्य से बोली,,
लोपामुद्रा बोली ;- महर्षें! इसमें संदेह नहीं कि पतिदेव ने अपनी इस पत्नी को संतान के लिये ही ग्रहण किया है, पंरतु आपके प्रति मेरे हृदय में जो प्रीति है, वह भी आपको सफल करनी चाहिये। ब्राह्मण! मैं अपने पिता के घर उनके महल में जैसी शय्या पर सोया करती थी, वैसी ही शय्या पर आप मेरे साथ समागम करें।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तनवतितम अध्याय के श्लोक 19-25 का हिन्दी अनुवाद)
'मैं चाहती हूँ कि आप सुन्दर हार और आभूषण से विभूषित हों और मैं भी दिव्य अलंकारों से अलंकृत हो इच्छानुसार आपके साथ समागम-सुख का अनुभव करूँ अन्यथा मैं यह जीर्ण-शीर्ण काषाय-वस्त्र पहनकर आपके साथ समागम नहीं करूँगी। ब्रह्मर्षे! तपस्वीजनों का यह पवित्र आभूषण किसी प्रकार सम्भोग आदि के द्वारा अपवित्र नहीं होना चाहिये’।
अगस्त्य जी ने कहा ;- 'सुन्दर कटिप्रदेश वाली कल्याणी लोपामुद्रे! तुम्हारे पिता के घर में जैसे धन–वैभव हैं, वे न तो तुम्हारे पास हैं और न मेरे ही पास (फिर ऐसा कैसे हो सकता है?)।'
लोपामुद्रा बोली ;– 'तपोधन! इस जीव-जगत् में जो कुछ भी धन है, वह सब क्षण भर में आप अपनी तपस्या के प्रभाव से जुटा लेने में समर्थ हैं।'
अगस्त्य जी ने कहा ;- 'प्रिय! तुम्हारा कथन ठीक है। परंतु ऐसा करने से तपस्या का क्षय होगा। मुझे ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे मेरी तपस्या क्षीण न हो।'
लोपामुद्रा बोली ;- 'तपोधन! मेरे ऋतुकाल का थोड़ा ही समय शेष रह गया है। मैं जैसा बता चुकी हूँ, उसके सिवा और किसी तरह आपसे समागम नहीं करना चाहती। साथ ही मेरी यह भी इच्छा नहीं है कि किसी प्रकार आपके धर्म का लोप हो। इस प्रकार अपने तप एवं धर्म की रक्षा करते हुए जिस तरह सम्भव हो, उसी तरह आप मेंरी इच्छा पूर्ण करें।'
अगस्त्य जी ने कहा ;- 'सुभगे! यदि तुमने अपनी बुद्धि से यही मनोरथ पाने का निश्चय कर लिया है तो मैं धन लाने के लिये जाता हूँ, तुम यहीं रहकर इच्छानुसार धर्माचरण करो।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमश तीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्यो पाख्यान विषयक सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
अट्ठानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टनवतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"धन प्राप्त करने के लिये अगस्त्य का श्रुतर्वा, ब्रघ्नश्व और त्रसदस्यु आदि के पास जाना"
लोमश जी कहते हैं ;- कुरुनन्दन! तदनन्तर अगस्त्य जी धन माँगने के लिये महाराज श्रुतर्वा के पास गये, जिन्हें वे सब राजाओं से अधिक वैभव सम्पन्न समझते थे। राजा को जब यह मालूम हुआ कि महर्षि अगस्त्य मेरे यहाँ आ रहे हैं, तब वे मन्त्रियों के साथ अपने राज्य की सीमा पर चले आये और बड़े आदर-सत्कार से उन्हें अपने साथ लिवा ले गये। भूपाल श्रुतर्वा ने उनके लिये यथायोग्य अर्घ्य निवेदन करके विनीत भाव से हाथ जोड़कर उनके पधारने का प्रयोजन पूछा।
तब अगस्त्य जी ने कहा ;- 'पृथ्वीपते! आपको मालूम होना चाहिए कि मैं धन माँगने के लिये आपके यहाँ आया हूँ। दूसरे प्राणियों को कष्ट न देते हुए यथाशक्ति अपने धन का जितना अंश मुझे दे सकें, दे दें।'
लोमश जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तब राजा श्रुतर्वा ने महर्षि के सामने अपने आय-व्यय का पूरा ब्योरा रख दिया और कहा,,
राजा श्रुतर्वा बोले ;- ‘ज्ञानी महर्षें! इस धन में से जो आप ठीक समझें, वह ले लें’। ब्रह्मर्षि अगस्त्य की बुद्धि सम थी। उन्होंने आय और व्यय दोनों को बराबर देखकर यह विचार किया कि इसमें से थोड़ा-सा भी धन लेने पर दूसरे प्राणियों को सर्वथा कष्ट हो सकता है। तब वे श्रुतर्वा को साथ लेकर राजा ब्रघ्नश्व के पास गये। उन्होंने भी अपने राज्य की सीमा पर आकर उन दोनों सम्माननीय अतिथियों की अगवानी की और विधिपूर्वक उन्हें अपनाया। ब्रघ्नश्व ने उन दोनों को अर्घ्य और पाद्य निवेदन किये, फिर उनकी आज्ञा ले अपने यहाँ पधारने का प्रयोजन पूछा।
अगस्त्य जी ने कहा ;- 'पृथ्वीपते! आपको विदित हो कि हम दोनों आपके यहाँ धन की इच्छा से आये हैं। दूसरे प्राणियों को कष्ट न देते हुए जो धन आपके पास बचता हो, उसमें से यथाशक्ति कुछ भाग हमें भी दीजिये।'
लोमश जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तब राजा ब्रघ्नश्व ने भी उन दोनों के सामने आय और व्यय का पूरा विवरण रख दिया और कहा,,
राजा ब्रघ्नश्व बोले ;- ‘आप दोनों को इसमें जो धन अधिक जान पड़ता हो, वह ले लें’। तब समान बुद्धि वाले ब्रह्मर्षि अगस्त्य ने उस विवरण में आय और व्यय बराबर देखकर यह निश्चय किया कि इसमें से यदि थोड़ा-सा भी धन लिया जाये तो दूसरे प्राणियों को सर्वथा कष्ट हो सकता है। तब अगस्त्य, श्रुतर्वा और ब्रघ्नश्व- तीनों पुरुकुत्सनन्दन महाधनी त्रसदस्यु के पास गये। महाराज! भूपालों में श्रेष्ठ इक्ष्वाकुवंशी महामना त्रसदस्यु ने उन्हें आते देख राज्य की सीमा पर पहुँचकर विधिपूर्वक उन सबका स्वागत-सत्कार किया और उन सबसे अपने यहाँ पधारने का प्रयोजन पूछा।
लोमश जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तब राजा ने उन्हें अपने आय-व्यय का पूरा विवरण दे दिया और कहा,,
राजा त्रसदस्यु बोले ;- ‘इसे समझकर जो धन शेष बचता हो, वह आप लोग ले लें।‘ समबुद्धि वाले महर्षि अगस्त्य ने वहाँ भी आय-व्यय का लेखा बराबर देखकर यही माना कि इसमें से धन लिया जाये तो दूसरे प्राणियों को सर्वथा कष्ट हो सकता है। महाराज! तब वे सब राजा परस्पर मिलकर एक-दूसरे की ओर देखते हुए महामुनि अगस्त्य से इस प्रकार बोले,,
सभी राजा बोले ;- ‘ब्रह्मन्! यह इल्वल दानव इस पृथ्वी पर सबसे अधिक धनी है। हम सब लोग उसी के पास चलकर आज धन माँगें’।
लोमश जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! उस समय उन सबको इल्वल के यहाँ याचना करना ही ठीक जान पड़ा। अत: वे एक साथ होकर इल्वल के यहाँ शीघ्रतापूर्वक गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमश तीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्यो पाख्यान विषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
निन्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"अगस्त्य जी का इल्वल के यहाँ धन के लिये जाना, वातापि तथा इल्वल का वध, लोपामुद्रा को पुत्र की प्राप्ति तथा श्रीराम के द्वारा हरे हुए तेज की परशुराम को तीर्थस्नान द्वारा पुन प्राप्ति"
लोमश जी कहते हैं ;- राजन्! इल्वल ने महर्षि सहित उन राजाओं को आता जान मन्त्रियों के साथ अपने राज्य की सीमा पर उपस्थित होकर उन सब का पूजन किया। कुरुनन्दन! उस समय असुरश्रेष्ठ इल्वल ने अपने भाई वातापि का मांस राँधकर उसके द्वारा उन सब का आतिथ्य किया। भेड़ के रूप में महान् दैत्य वातापि को राँधा गया देख उन सभी राजर्षियों का मन खिन्न हो गया और वे अचेत-से हो गये। तब ऋर्षिश्रेष्ठ अगस्त्य ने उन राजर्षियों से (आश्वासन देते हुए) कहा,,
अगस्त्य जी बोले ;- ‘तुम लोगों को चिन्ता नहीं करनी चाहिय। मैं ही इस महादैत्य को खा जाऊँगा।‘
ऐसा कहकर महर्षि अगस्त्य प्रधान आसन पर जा बैठे और दैत्यराज इल्वल ने हंसते हुए से उन्हें वह मांस परोस दिया। अगस्त्य जी ही वातापि का सारा मांस खा गये। जब वे भोजन कर चुके, तब असुर इल्वल ने वातापि का नाम लेकर पुकारा। तात! उस समय महात्मा अगस्त्य की गुदा से गर्जते हुए मेघ की भाँति भारी आवाज के साथ अधोवायु निकली।
इल्वल बार-बार कहने लगा ;- ‘वातापि! निकलो-निकलो।‘ राजन् तब मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य ने उससे हँसकर कहा,,
अगस्त्य जी बोले ;- ‘अब वह कैस निकल सकता है, मैंने (लोकहित के लिये) उस असुर को पचा लिया है। महादैत्य वातापि को पच गया देख इल्वल को बड़ा खेद हुआ। उसने मन्त्रियों सहित हाथ जोड़कर उन अतिथियों से यह बात पूछी,,
इल्वल बोला ;– ‘आप लोग किस प्रयोजन से यहाँ पधारे हैं, बताइये, मैं आप लागों की क्या सेवा करुँ?' तब महर्षि अगस्त्य ने हँसकर इल्वल से कहा,,
अगस्त्य जी बोले ;- ‘असुर! हम सब लोग तुम्हें शक्तिशाली शासक एवं धन का स्वामी समझते हैं। ये नरेश अधिक धनवान नहीं हैं और मुझे बहुत धन की आवश्यकता आ पड़ी है। अत: दूसरे जीवों को कष्ट न देते हुए अपने धन में से यथाशक्ति कुछ भाग हमें दे दो‘। तब इल्वल ने महर्षि को प्रणाम करके कहा,,
इल्वल बोला ;- ‘मैं कितना धन देना चाहता हूँ? यह बात यदि आप जान लें तो मैं आपको धन दूँगा’।
अगस्त्य जी ने कहा ;- महान् असुर! तुम इनमें से एक-एक राजा को दस–दस हजार गौएँ तथा इतनी ही (दस-दस हजार) सुवर्ण मुद्राएं देना चाहते हो। इन राजाओं की अपेक्षा दूनी गौएं और सुवर्ण मुद्राएं तुमने मरे लिये देने का विचार किया है। महादैत्य! इसके सिवा एक स्वर्णमय रथ, जिसमें मन के समान तीव्रगामी दो घोड़े जुते हों, तुम मुझे और देना चाहते हो।
लोमश जी कहते हैं ;– राजन्! इस पर इल्वल ने अगस्त्य मुनि से कहा कि,,
इल्वल बोला ;- ’आपने मुझसे जो कुछ कहा है, वह सब सत्य है, किंतु आपने जो मुझसे रथ की बात की है, उस रथ को हम लोग सुवर्णमय नहीं समझते हैं।
महर्षि अगस्त्य ने कहा ;– महादैत्य! मेरे मुँह से पहले कभी कोई बात झूठी नहीं निकली है, अत: शीघ्र पता लगाओ, यह रथ निश्चय ही सोने का है।
लोमश जी कहते हैं ;- कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! पता लगाने पर वह रथ सोने का ही निकला, तब मन में (भाई की मृत्यु से) व्यथित हुए उस दैत्य ने महर्षि को बहुत अधिक धन दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनशततमोअध्याय के श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)
उस रथ में विराव और सुराव नामक दो घोड़े जुते हुए थे। वे धन सहित राजाओं तथा अगस्त्य मुनि को शीघ्र ही मानो पलक मारते ही अगस्त्याश्रम की ओर ले भागे। उस समय इल्वल असुर ने अगस्त्य मुनि के पीछे जाकर उनको मारने की इच्छा की, परंतु महातेजस्वी अगस्त्य मुनि ने उस महादैत्य इल्वल को हुंकार से ही भस्म कर दिया। तदनन्तर उन वायु के समान वेग वाले घोड़ों ने उन सबको मुनि के आश्रम पर पहुँचा दिया। भरतनन्दन! फिर अगस्त्य जी की आज्ञा ले वे राजर्षिगण अपनी-अपनी राजधानी को चले गये और महर्षि ने लोपामुद्रा की सभी इच्छाएँ पूर्ण कीं।
लोपामुद्रा बोली ;- 'भगवन् मेरी जो-जो अभिलाषा थी, वह सब आपने पूर्ण कर दी। अब मुझसे एक अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न कीजिए।'
अगस्त्य ने कहा ;- 'शोभामयी कल्याणी! तुम्हारे सदव्यवहार से मैं बहुत संतुष्ट हूँ। पुत्र के सम्बन्ध में तुम्हारे सामने एक विचार उपस्थित करता हूँ, सुनो। क्या तुम्हारे गर्भ से एक हजार या एक सौ पुत्र उत्पन्न हों, जो दस के ही समान हों? अथवा दस ही पुत्र हों, जो सौ पुत्रों की समानता करने वाले हों? अथवा एक ही पुत्र हो, जो हाजारों को जीतने वाला हो?
लोपामुद्रा बोली ;- 'तपोधन! मुझे सहस्रों की समानता करने वाला एक ही श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त हो, क्योंकि बहुत-से दुष्ट पुत्रों की अपेक्षा एक ही विद्वान एवं श्रेष्ठ पुत्र उत्तम माना गया है।'
लोमश जी कहते हैं ;- राजन् तब ‘तथास्तु’ कहकर श्रद्धालु महात्मा अगस्त्य ने अपनी शील स्वभाव वाली श्रद्धालु पत्नी लोपामुद्रा के साथ यथासमय समागम किया। गर्भाधान करके अगस्त्य जी फिर वन में ही चले गये। उनके वन में चले जाने पर वह गर्भ सात वर्षों तक माता के पेट में ही पलता और बढ़ता रहा। भारत! सात वर्ष बीतने पर अपने तेज और प्रभाव से प्रज्वजित होता हुआ वह गर्भ उदर से बाहर निकला। वही महाविद्वान दृढस्यु के नाम से विख्यात हुआ। महर्षि का वह महातपस्वी और तेजस्वी पुत्र जन्मकाल से ही अंग और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का स्वाध्याय करता जान पड़ा। दृढस्यु ब्राह्मणों में महान् माने गये।
पिता के घर में रहते हुए तेजस्वी दृढस्यु बाल्यकाल से ही इघ्म (समिधा) का भार वहन करके लाने लगे। अत: ‘इघ्मवाह’ नाम से विख्यात हो गये। अपने पुत्र को स्वाध्याय और समिधानयन के कार्य में संलग्न देख महर्षि अगस्त्य उस समय बहुत प्रसन्न हुए। भारत! इस प्रकार अगस्त्य जी ने उत्तम संतान उत्पन्न की। राजन् तदनन्तर उनके पितरों ने मनोवांछित लोक प्राप्त कर लिये। उसके बाद से यह स्थान इस पृथ्वी पर अगस्त्याश्रम के नाम से ख्यिात हो गया। वातापि प्रह्लाद के गोत्र में उत्पन्न हुआ था, जिसे अगस्त्य जी ने इस प्रकार शान्त कर दिया। राजन्! यह उन्हीं का रमणीय गुणों से युक्त आश्रम है। इसके समीप यह वही देवगन्धर्वसेवित पुण्यसलिला भागीरथी है, जो आकाश में वायु की प्रेरणा से फहराने वाले श्वेत पताका के समान सुशोभित हो रही है। यह क्रमश: नीचे-नीचे शिखरों पर गिरती हुई सदा तीव्र गति से बहती है और शिलाखण्डों के नीचे इस प्रकार समायी जाती है, मानो भयभीत सर्पिणी बिल में घुसी जा रही हो।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनशततमोअध्याय के श्लोक 33-52 का हिन्दी अनुवाद)
पहले भगवान शंकर की जटा से गिरकर प्रवाहित होने वाली समुद्र की प्रियतमा महारानी गंगा सम्पूर्ण दक्षिण दिशा को इस प्रकार आप्लावित कर रही हैं, मानो माता अपनी संतान को नहला रही हो। इस परम पवित्र नदी में तुम इच्छानुसार स्नान करो। महाराज युधिष्ठिर! इधर ध्यान दो, यह महर्षिसेवित भृगुतीर्थ है, जो तीनों लोकों में विख्यात है। जहाँ परशुराम जी ने स्नान किया और उसी क्षण अपने खोये हुए तेज को पुन: प्राप्त कर लिया। पाण्डुनन्दन! तुम अपने भाइयों ओर द्रौपदी के साथ इसमें स्नान करके दुर्योधन द्वारा छीने हुए अपने तेज को पुन: प्राप्त कर सकते हो। जैसे दशरथनन्दन श्रीराम से वैर करने पर उनके द्वारा अपहृत हुए तेज को परशुराम ने यहाँ स्नान के प्रभाव से पुन: पा लिया था।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिर ने अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ उस तीर्थ में स्नान करके देवताओं और पितरों का तर्पण किया।
नरश्रेष्ठ! उस तीर्थ में स्नान कर लेने पर राजा युधिष्ठिर का रूप अत्यन्त तेजयुक्त हो प्रकाशमान हो गया। अब वे शत्रुओं के लिये परम दुर्घर्ष हो गये। राजेन्द्र! उस समय पाण्डुनन्द युधिष्ठिर ने महर्षि लोमश से पूछा,,
युधिष्ठिर बोले ;– ‘भगवन्! परशुराम जी के तेज का अपहरण किसलिये किया गया था और प्रभो! वह उन्हें पुन: किस प्रकार प्राप्त हो गया? यह मैं जानना चाहता हूँ। आप कृपा करके इस प्रसंग का वर्णन करें।'
लोमश जी ने कहा ;– राजेन्द्र! तुम दशरथनन्दन श्रीराम तथा परम बुद्धिमान भृगुनन्दन परशुराम जी का चरित्र सुनो। पूर्वकाल में महात्मा राजा दशरथ के यहाँ साक्षात् भगवान विष्णु अपने ही सच्चिदानन्दमय विग्रह से श्रीरामरूप में अवतीर्ण हुए थे। उनके अवतार का उद्देश्य था-पापी रावण का विनाश। अयोध्या में प्रकट हुए दशरथनन्दन श्रीराम का हम लोग प्राय: दर्शन करते रहते थे। अनायास ही महान् कर्म करने वाले दशरथकुमार श्रीराम का भारी पराक्रम सुनकर भृगु तथा ऋचीक के वंशज रेणुकानन्दन परशुराम उन्हें देखने के लिये उत्सुक हो क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष लिये अयोध्या में आये। उनके शुभागमन का उद्देश्य था दशरथनन्दन श्रीराम के बल पराक्रम की परीक्षा करना। महाराज दशरथ ने जब सुना कि परशुराम जी हमारे राज्य की सीमा पर आ गये हैं, तब उन्होंने मुनि की अगवानी के लिये अपने पुत्र श्रीराम को भेजा।
कुन्तीनन्दन! श्रीरामचन्द्र जी धनुष-बाण हाथ में लिये आकर खड़े हैं, यह देखकर परशुराम जी ने हँसते हुए कहा,,
परशुराम जी बोले ;- ‘राजेन्द्र! प्रभो! भूपाल! यदि तुम में शक्ति हो तो यत्नपूर्वक इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाओ। यह वह धनुष है, जिसके द्वारा मैंने क्षत्रियों का संहार किया है।' उनके ऐसा कहने पर ,,
श्रीरामचन्द्र जी ने कहा ;- 'भगवन्, आपको इस तरह आक्षेप नहीं करना चाहिए। मैं भी समस्त द्विजातियों में क्षत्रिय-धर्म का पालन करने में अधम नहीं हूँ। विशेषत: इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय अपने बाहुबल की प्रशंसा नही करते।'
श्रीरामचन्द्र जी के ऐसा कहने पर,,
परशुराम जी बोले ;- ‘रघुनन्दन! बातें बनाने की कोई आवश्यकता नहीं। यह धनुष लो और इस पर प्रत्यंचा चढ़ाओ। तब दशरथनन्दन श्रीराम जी ने रोषपूर्वक परशुराम का वह वीर क्षत्रियों का संहारक दिव्य धनुष उनके हाथ से ले लिया। भारत! उन्होंने लीलापूर्वक प्रत्यंचा चढ़ा दी। तत्पश्चात पराक्रमी श्रीरामचन्द्र जी ने मुस्कुराते हुए धनुष की टंकार फैलायी।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनशततम अध्याय के श्लोक 53-71 का हिन्दी अनुवाद)
बिजली की गड़गड़ाहट के समान उस टंकार–ध्वनि को सुनकर सब प्राणी घबरा उठे। उस समय दशरथनन्दन श्रीराम ने परशुराम जी से कहा,,
दसरथनन्दन श्री राम बोले ;- ‘ब्रह्मन! यह धनुष तो मैंने चढ़ा दिया, अब और आपका कौन-सा कार्य करूं?' तब जमदग्निनन्दन परशुराम ने महात्मा श्रीरामचन्द्र जी को एक दिव्य बाण दिया और कहा,,
परशुराम जी बोले ;– 'इसे धनुष पर रखकर अपने कान के पास तक खींचिए‘।
लोमश जी कहते हैं ;– राजन्! इतना सुनते ही श्रीरामचन्द्र जी मानो क्रोध से प्रज्वलित हो उठे और बोले,,
रामचन्द्र जी बोले ;- ‘भृगुनन्दन! तुम बड़े घमण्डी हो। मैं तुम्हारी कठोर बातें सुनता हूँ, फिर क्षमा कर लेता हूँ। तुमने अपने पितामह ऋचीक के प्रभाव से क्षत्रियों को जीतकर विशेष तेज प्राप्त किया है, निश्चय ही इसीलिये मुझ पर आक्षेप करते हो। लो! मैं तुम्हे दिव्यदृष्टि देता हूँ। उसके द्वारा मेरे यथार्थ स्वरूप का दर्शन करो।‘ तब भृगुवंशी परशुराम जी श्रीराम जी के शरीर में बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, साध्य देवता, उनचास मरुद्गण, पितृगण, अग्रिदेव, राक्षस, यक्ष, नदियाँ, तीर्थ, सनातन ब्रह्मभूत बालखिल्य ऋष, देवर्षि, सम्पूर्ण समुद्र, पर्वत, उपनिषदों सहित वेद, वषकार, यज्ञ, साम और धनुर्वेद, इन सभी को चेतनरूप धारण किये हुए प्रत्यक्ष देखा।
भरतनन्दन युधिष्ठिर! मेघों के समूह, वर्षा और विद्युत का भी उनके भीतर दर्शन हो रहा था। तदनन्तर भगवान विष्णुरूप श्रीरामचन्द्र जी ने उस बाण को छोड़ा। भारत! उस समय सारी पृथ्वी बिना बादल की बिजली और बड़ी-बड़ी उल्काओं से व्याप्त-सी हो उठी। बड़े जोर की आँधी उठी और सब और धूल की वर्षा होने लगी। फिर मेघों की घटा घिर आयी और भूतल पर मूसलाधार वर्षा होनी लगी। बारबार भूकम्प होने लगा। मेघगर्जन तथा अन्य भयानक उत्पातसूचक शब्द गूंजने लगे। श्रीरामचन्द्र जी की भुजाओं से प्रेरित हुआ वह प्रज्वलित बाण परशुराम जी को व्याकुल करके केवल उनके तेज को छीनकर पुन: लौट आया। परशुराम जी एक बार मूर्च्छित होकर जब पुन: होश में आये, तब मरकर जी उठे हुए मनुष्य की भाँति उन्होंने विष्णुतेज धारण करने वाले भगवान श्रीराम को नमस्कार किया। तत्पश्चात भगवान विष्णु श्रीराम की आज्ञा लेकर वे पुन: महेन्द्र पर्वत पर चले गये। वहाँ भयभीत और लज्जित हो महान् तपस्या में संलग्र होकर रहने लगे। तदनन्तर एक वर्ष व्यतीत होने पर तेजोहीन और अभिमानशून्य होकर रहने वाले परशुराम को दु:खी देखकर उनके पितरों ने कहा।
पित्र बोले ;– 'तुमने भगवान विष्णु के पास जाकर जो बर्ताव किया है, वह ठीक नहीं था। वे तीनों लोकों में सर्वदा पूजनीय और माननीय हैं। बेटा! अब तुम वधूसर नामक पुण्यमयी नदी के तट पर जाओ। वहाँ तीर्थों में स्नान करके पूर्ववत् अपना तेजोमय शरीर पुन: प्राप्त कर लोगे। राम! वह दीप्तोदक नामक तीर्थ है, जहाँ देवयुग में तुम्हारे प्रपितामह भृगु ने उत्तम तपस्या की थी।'
कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! पितरों के कहने से परशुराम जी ने वैसा ही किया। पाण्डुनन्दन! इस तीर्थ में नहाकर पुन: उन्होंने अपना तेज प्राप्त कर लिया। तात महाराज युधिष्ठिर! इस प्रकार पूर्वकाल में अनायास ही महान् कर्म करने वाले परशुराम विष्णुस्वरूप श्रीरामचन्द्र जी से भिड़कर इस दशा को प्राप्त हुए थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में परशुराम के तेज की हानि विषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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