सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
इक्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"महर्षि लोमश का आगमन और युधिष्ठिर से अर्जुन के पाशुपत आदि दिव्यास्त्रों की प्राप्ति का वर्णन तथा इन्द्र का संदेश सुनाना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- कौरवनन्दन! जब धौम्य ऋषि इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय महातेजस्वी महर्षि लोमश वहाँ आये। जैसे स्वर्ग में इन्द्र के आने पर समस्त देवता उठकर खड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार ज्येष्ठ पाण्डव राजा युधिष्ठिर, उनके समुदाय के अन्य लोग तथा वे ब्राह्मण भी उन महाभाग लोमश को आया देख उनके स्वागत के लिये उठकर खड़े हो गये। धर्मनन्दन युधिष्ठिर ने यथायोग्य उनका पूजन करके उन्हें आसन पर बिठाया और वहाँ आने तथा वन में घूमने का प्रयोजन पूछा।
पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर महामना महर्षि लोमश बड़े प्रसन्न हुए और अपनी मधुर वाणी द्वारा पाण्डवों का हर्ष बढ़ाते हुए इस प्रकार बोले,,
लोमश मुनि बोले ;- ‘कुन्तीनन्दन! मैं यों ही इच्छानुसार सम्पूर्ण लोकों में विचरण करता हूँ। एक दिन मैं इन्द्र के भवन में गया और वहाँ देवराज इन्द्र से मिला। वहाँ मैंने तुम्हारे भ्राता सव्यसाची अर्जुन को भी देखा, जो इन्द्र के आधे सिंहासन पर बैठे हुए थे। वहाँ उन्हें इस दशा में देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। पुरुषसिंह युधिष्ठिर! तुम्हारे भाई अर्जुन को इन्द्र के सिंहासन पर बैठा देख जब मैं आश्चर्यचकित हो रहा था, उसी समय देवराज इन्द्र ने मुझसे कहा,,
देवराज इंद्र बोले ;- ‘मुने! तुम पाण्डवों के पास जाओ’। उन इन्द्र के आदेश से मैं भाइयों सहित तुम्हें देखने के लिये शीघ्रतापूर्वक यहाँ आया हूँ। इसके लिये इन्द्र ने तो मुझसे कहा ही था, महात्मा अर्जुन ने भी अनुरोध किया था। तात! पाण्डवों को आनंदित करने वाले युधिष्ठिर! मैं तुम्हें बड़ा प्रिय समाचार सुनाऊंगा। राजन्! तुम इन महर्षियों और द्रौपदी के साथ मेरी बात सुनो।
भरतकुलभूषण विभो! तुमने महाबाहु अर्जुन को दिव्यास्त्रों की प्राप्ति के लिये जो आदेश दिया था, उसके विषय में यह निवेदन करना है कि अर्जुन ने भगवान् शंकर से उनका अनुपम अस्त्र (पाशुपत) प्राप्त कर लिया है। जो ब्रह्मशिर नामक अस्त्र अमृत से प्रकट होकर तपस्या के प्रभाव से भगवान् शंकर को मिला था, वही पाशुपतास्त्र सव्यसाची अर्जुन ने प्राप्त कर लिया है। युधिष्ठिर! रुद्र देवता का वह वज्र के समान दुर्भेद्य अस्त्र मन्त्र, उपसंहार, प्रायश्चित और मंगलसहित अर्जुन ने पा लिया है। साथ ही, दण्ड आदि अन्य अस्त्र भी उन्होंने हस्तगत कर लिये हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने विश्वावसु के पुत्र से नृत्य, गीत, सामगान और वाद्यकला की भी विधिपूर्वक यथोचित शिक्षा प्राप्त कर ली है। इस प्रकार अस्त्रविद्या में निपुणता प्राप्त करके कुन्तीकुमार ने गान्धर्ववेद (संगीतविद्या) को भी प्राप्त कर लिया है। अब तुम्हारे छोटे भाई भीमसेन के छोटे भाई अर्जुन वहाँ बड़े सुख से रह रहे हैं।
युधिष्ठिर! देवश्रेष्ठ इन्द्र ने मुझसे तुम्हारे लिये जो संदेश कहा था, उसे अब तुम्हें बता रहा हूं, सुनो।
उन्होंने मुझ (इंद्र ने लोमश मुनि) से कहा ;- 'द्विजोत्तम! इसमें संदेह नहीं कि आप घूमते-घूमते मनुष्य लोकों में भी जायेंगे। अतः मेरे अनुरोध से राजा युधिष्ठिर के पास जाकर यह बात कह दीजियेगा,,
(इंद्रदेव का संदेश) ;- 'राजन्! तुम्हारे भाई अर्जुन अस्त्रविद्या में निपुण हो चुके हैं। अब वे देवताओं का एक बहुत बड़ा कार्य, जिसे देवता स्वयं नहीं कर सकते, सिद्ध करके शीघ्र तुम्हारे पास आ जायेंगे; तब तक तुम भी अपने भाइयों के साथ स्वयं को तपस्या में लगाओ; क्योंकि तपस्या से बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। तपस्या से महान फल की प्राप्ति होती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 20-25 का हिन्दी अनुवाद)
‘भरतश्रेष्ठ! मैं कर्ण को अच्छी तरह जानता हूँ। वह सत्यप्रतिज्ञ, अत्यन्त उत्साही, महापराक्रमी और महाबली है। बड़े-बड़े संग्राम में उसकी समानता करने वाला कोई नहीं है। वह महान् युद्धविशारद, महाधनुर्धर, अस्त्र-शस्त्रों का महान् ज्ञाता, श्रेष्ठ, सुन्दर, महेश्वरपुत्र कार्तिकेय के समान पराक्रमी, सूर्य देवता का पुत्र और शक्तिशाली वीर है।
इसी प्रकार मैं अर्जुन को भी जानता हूँ। वह कार्तिकेय से भी बढ़कर है, उसमें स्वभाव से ही दुःसह पुरुषार्थ भरा हुआ है। युद्ध में कर्ण अर्जुन की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है।
शत्रुदमन! तुम्हारे मन में जिस बात को लेकर कर्ण से भय बना रहता है, मैं अर्जुन के लौटने पर तुम्हारे उस भय को भी दूर कर दूंगा। वीरवर! तीर्थयात्रा के विषय में जो तुम्हारा मानसिक संकल्प है, उसके विषय में महर्षि लोमश निश्चय ही तुमसे सब कुछ बतावेंगे।
भरतनन्दन! तीर्थों में जो कुछ तपस्यायुक्त फल प्राप्त होता है, वह सब ये ब्रह्मर्षि लोमश तुम्हें बतायेंगे, तुम्हें इस पर विश्वास करना चाहिये। उसमें अन्यथा बुद्धि नहीं करनी चाहिये।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में युधिष्ठिर-लोमश संवाद विषयक इक्यानबेवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
बियानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"महर्षि लोमश के मुख से इन्द्र और अर्जुन का संदेश सुनकर युधिष्ठिर का प्रसन्न होना और तीर्थयात्रा के लिये उद्यत हो अपने अधिक साथियों को विदा करना"
लोमश मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जब मैं आने लगा, तब अर्जुन ने भी मुझसे जो बात कही थी, वह सुनो।
वे (अर्जुन) बोले ;- ‘तपोधन! आप मेरे बड़े भैया युधिष्ठिर को धर्मानुकूल राजलक्ष्मी से संयुक्त कीजिये। आप उत्कृष्ट धर्मों और तपस्याओं को जानते हैं। श्रीसम्पन्न राजाओं का जो सनातन धर्म है, उसका भी आपको पूर्ण ज्ञान है। पुरुष को पवित्र बनाने वाला जो उत्तम साधन है, उसे आप जानते हैं। अतः आप पाण्डवों को तीर्थयात्रा सहित पुण्य से सम्पन्न कीजिये। महाराज युधिष्ठिर जिस प्रकार तीर्थों में जायें और वहाँ गोदान करें, वैसा सब प्रकार से प्रयत्न कीजियेगा।’ यह बात अर्जुन ने मुझसे कही थी। उन्होंने यह भी कहा- ‘महाराज युधिष्ठिर आपसे सुरक्षित रहकर सब तीर्थों में विचरण करें। दुर्गम स्थानों और विषम अवसरों में आप राक्षसों से उनकी रक्षा करें। द्विजश्रेष्ठ! जैसे दधीच ने देवराज इन्द्र की और महर्षि अंगिरा ने सूर्य की रक्षा की है, उसी प्रकार आप राक्षसों से कुन्तीकुमारों की रक्षा कीजिये। बहुत-से पिशाच तथा राक्षस, जो पर्वतों के समान विशालकाय हैं, आपसे सुरक्षित राजा युधिष्ठिर के पास नहीं आ सकेंगे’।
राजन्! इस प्रकार में इन्द्र के कथन और अर्जुन के अनुरोध से सब प्रकार के भय से तुम्हारी रक्षा करते हुए तुम्हारे साथ-साथ तीर्थों में विचरण करूंगा। कुरुनन्दन! पहले दो बार मैंने सब तीर्थों के दर्शन कर लिये; अब तीसरी बार तुम्हारे साथ पुनः उनका दर्शन करूंगा। महाराज युधिष्ठिर! यह तीर्थयात्रा सब प्रकार के भय का नाश करने वाली है। मनु आदि पुण्यात्मा राजर्षियों ने इस तीर्थयात्रारूपी धर्म का पालन किया है। कुरुनन्दन! जो सरल नहीं है, जिसने अपने मन और इन्द्रियों का वश में नहीं किया है, जो विद्याहीन और पापात्मा है तथा जिसकी बुद्धि कुटिलता से भरी हुई है, ऐसा मनुष्य (श्रद्धा न होने के कारण) तीर्थों में स्नान नहीं करता। तुम तो सदा धर्म में मन लगाये रखने वाले, धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ और सब प्रकार की आसक्तियों से शून्य हो और आगे भी तुममें अधिकाधिक इन गुणों का विकास होगा। कुन्तीकुमार पाण्डुनन्दन! जैसे राजा भागीरथ हो गये हैं, जैसे गय आदि राजर्षि हो चुके हैं तथा जैसे महाराज ययाति हुए हैं, वैसे ही तुम भी विख्यात हो।'
युधिष्ठिर बोले ;- महर्षे! आपके दर्शन और आपकी बातों को सुनने से मुझे इतना अधिक हर्ष हुआ है कि मुझे इन वचनों का कोई उत्तर नहीं सूझता। देवराज इन्द्र जिसका स्मरण करते हों, उससे बढ़कर इस संसार में कौन है? जिसे आपका संग प्राप्त हो, जिसके अर्जुन जैसा भाई हो और जिसे इन्द्र याद करते हों, उससे बढ़कर सौभाग्यशाली और कौन है? भगवन्! आपने मुझे तीर्थों के दर्शन के लिये जो उत्साह प्रदान किया है, वह ठीक है। मैंने पहले से ही धौम्य जी के आदेश से तीर्थों में जाने का विचार कर रखा है। अतः ब्रह्मन्! आप जब ठीक समझें, तभी मैं तीर्थों के दर्शन के लिये चल दूंगा; यही मेरा अंतिम निश्चय है।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तीर्थयात्रा के लिये जिन्होंने निश्चित विचार कर लिया था, उन पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर से महर्षि लोमश ने कहा,,
लोमश मुनि बोले ;- 'थोड़े ही लोगों को साथ रखिये; क्योंकि थोड़े संगी-साथी होने पर आप इच्छानुसार सर्वत्र जा सकेंगे’।
युधिष्ठिर बोले ;- जो भिक्षाभोजी ब्राह्मण और संन्यासी हैं तथा जो भूख-प्यास, परिश्रम-थकावट और सर्दी की पीड़ा सहन न कर सकें, उन्हें लौट जाना चाहिये। जो द्विज मिष्ठान्नभोजी हैं, वे भी लौट जायें। जो पक्वान्न, चटनी, पेय पदार्थ और मांस आदि खाने वाले मनुष्य हों, वे भी लौट जायें। जो लोग रसोइयों की अपेक्षा रखने वाले हैं तथा जिन्हें मैंने अलग-अलग बांटकर उचित-उचित आजीविका की व्यवस्था कर दी है, वे सब लोग घर लौट जायें।
जो पुरवासी राजभक्तिवश मेरे पीछे-पीछे चले आये हैं, वे अब महाराज धृतराष्ट्र के पास चले जायें। वे उनके लिये यथासमय समुचित आजीविका प्रदान करेंगे। यदि राजा धृतराष्ट्र उचित जीविका की व्यवस्था न करें तो पांचाल नरेश द्रुपद हमारा प्रिय और हित करने के लिये अवश्य आप लोगों को जीविका देंगे।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब बहुत-से नागरिक, ब्राह्मण और यति मानसिक दुःख से भारी भार से पीड़ित हो हस्तिनापुर को चले गये। अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने धर्मराज युधिष्ठिर के स्नेहवश उन सबको विधिपूर्वक अपनाया और उन्हें धन देकर तृप्त किया। तदनन्तर कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर थोड़े-से ब्राह्मणों और लोमश जी के साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक तीन रात तक काम्यकवन में टिके रहे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा में लोमशतीर्थयात्रा विषयक बानबेवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
तिरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"ऋषियों को नमस्कार करके पाण्डवों का तीर्थयात्रा के लिये विदा होना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर को तीर्थयात्रा के लिये उद्यत जान काम्यकवन के निवासी ब्राह्मण उनके निकट आकर इस प्रकार बोले,,
ब्राह्मण बोले ;- ‘महाराज! आप अपने भाइयों तथा महात्मा लोमश ऋषि के साथ पुण्य तीर्थों में जाने वाले हैं। कुरुकुललिक पाण्डुननन्दन! हमें भी अपने साथ ले चलें। महाराज! आपके बिना हम लोग उन तीर्थों की यात्रा नहीं कर सकते। मनुजेश्वर! वे सभी तीर्थ हिंसक जन्तुओं से भरे पड़े है। दुर्गम और विषम भी हैं। थोड़े से मनुष्य वहाँ यात्रा नहीं कर सकते। आपके भाई शूरवीर हैं ओर सदा श्रेष्ठ धनुष धरण किये रहते हैं। आप-जैसे शूरवीरों से सुरक्षित होकर हम भी उन तीर्थों की यात्रा पूरी कर लेंगे। भूपाल! प्रजानाथ! आपके प्रसाद से हम लोग भी उन तीर्थ और वनों की यात्रा का फल अनायास ही पा लें।
नरेश्वर! आपके बल पराक्रम से सुरक्षित हो हम भी तीर्थों में स्नान करके शुद्ध हो जायेंगे और उन तीर्थों के दर्शन से हमारे सब पाप धुल जायेंगे। भूपाल! भरतनन्दन! आप भी तीर्थों में नहाकर राजा कार्तवीर्य अर्जुन, राजर्षि अष्टक, लोमपाद और भूमण्डल में सर्वत्र विदित सम्राट वीरवर भरत को मिलने वाले दुर्लभ लोकों को अवश्य प्राप्त कर लेंगे। महीपाल! प्रभास आदि तीर्थों, महेन्द्र आदि पर्वतों, गंगा आदि नदियों तथा प्लक्ष आदि वृक्षों का हम आपके साथ दर्शन करना चाहते हैं। जनेश्वर! यदि आपके मन में ब्राह्मणों के प्रति कुछ प्रेम है तो आप हमारी बात शीघ्र मान लीजिए, इससे आपका कल्याण होगा। महाबाहो! तपस्या में विघ्न डालने वाले बहुस से राक्षस उन तीर्थों में भरे पड़े हैं, उनसे आप हमारी रक्षा करने में समर्थ हैं। नरेश्वर! आप पापरहित हैं, धौम्य मुनि, परम बुद्धिमान नारद जी तथा महातपस्वी देवर्षि लोमश ने जिन–जिन तीर्थों का वर्णन किया है, उन सब में आप महर्षि लोमश जी से सुरक्षित हो हमारे साथ विधिपूर्वक भ्रमण करें।'
पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिर अपने वीर भ्राता भीमसेन आदि से घिरकर खड़े थे। उन ब्राह्मणों द्वारा इस प्रकार सम्मानित होने पर उनके नेत्रों में हर्ष के आंसू भर आये। उन्होंने देवर्षि लोमश तथा पुरोहित धौम्य जी की आज्ञा लेकर उन सब ऋषियों से ‘बहुत अच्छा’ कहकर अनुरोध स्वीकार कर लिया। तदनन्तर मन इन्द्रियों को वश में रखने वाले पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने भाइयों तथा सुन्दर अंगों वाली द्रौपदी के साथ यात्रा करने का मन ही मन निश्चय किया। इतने ही में महाभाग व्यास, पर्वत और नारद आदि मनीषीजन काम्यकवन में पाण्डुनदन युधिष्ठिर से मिलने के लिये आये। राजा युधिष्ठिर ने उनकी विधिपूर्वक पूजा की। उनसे सत्कार पाकर वे महाभाग महर्षि महाराज युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद)
ऋर्षियों ने कहा ;- 'युधिष्ठिर! भीमसेन! नकुल! और सहदेव! तुम लोग तीर्थों के प्रति मन से श्रद्धापूर्वक सरलभाव रखो। मन से शुद्धि का सम्पादन करके शुद्धचित होकर तीर्थों में जाओ। ब्राह्मण लोग शरीर शुद्धि के नियम को मानुषव्रत बताते हैं और मन के द्वारा शुद्ध की हुइ बुद्धि को दैवव्रत कहते हैं। नरेश्वर! यदि मन राग-द्वेष से दूषित न हो तो वह शुद्धि के लिये पर्याप्त माना गया है। सब प्राणियों के प्रति मैत्री बुद्धि का आश्रय ले शुद्धभाव से तीर्थों का दर्शन करो। तुम मानसिक और शारीरिक नियम व्रतों से शुद्ध हो। दैवव्रत का आश्रय ले यात्रा करोगे तो तीर्थों का तुम्हें यथावत् फल प्राप्त होगा।'
महर्षियों के ऐसा कहने पर द्रौपदी सहित पाण्डवों ने ‘बहुत अच्छा।’ कहकर (उनकी आज्ञाएं शिरोधार्य की और उनके बताये हुए नियमों का पालन करने की) प्रतिज्ञा की।
तत्पश्चात उन दिव्य और मानव महर्षियों ने उन सबके लिये स्वस्तिवाचन किया। राजेन्द्र! तदनन्तर महर्षि लोमश, द्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद और पर्वत के चरणों का स्पर्श करके वनवासी ब्राह्मणों, पुरोहित धौम्य और लोमश आदि के साथ वीर पाण्डव तीर्थयात्रा के लिये निकले। मार्गशीर्ष की पूर्णिमा व्यतीत होने पर जब पुष्य नक्षत्र था, तब उसी नक्षत्र में उन्होंने यात्रा प्रारम्भ की।
उन सब ने शरीर पर फटे-पुराने वस्त्र या मृगचर्म धारण कर रखे थे। उनके मस्तक पर जटाएं थीं। उनके अंग अभेद्य कवचों से ढके हुए थे। वे सूर्यप्रदत्त बटलोई आदि पात्र लेकर वहाँ तीर्थों में विचरण करने लगे। उनके साथ इन्द्रसेन आदि चौदह से अधिक सेवक रथ लिये पीछे-पीछे जा रहे थे। रसोई के काम में संलग्न रहने वाले अन्यान्य सेवक भी उनके साथ थे।
जनमेजय! वीर पाण्डव आवश्यक अस्त्र-शस्त्र ले, कमर में तलवार बांधकर पीठ पर तरकस कसे हुए, हाथों में बाण लिये पूर्व दिशा की ओर मुँह करके वहाँ से प्रस्थित हुए।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा विषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
चौरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
"देवताओं और धर्मात्मा राजाओं का उदाहरण देकर महर्षि लोमश का युधिष्ठिर को अधर्म से हानि बताना और तीर्थयात्राजनित पुण्य की महिमा का वर्णन करते हुए आश्वासन देना"
युधिष्ठिर बोले ;- देवर्षिप्रवर लोमश! मेरी समझ से मैं अपने को सात्त्विक गुणों से हीन नहीं मानता तो भी दु:खों से इतना संतप्त होता रहता हूं, जितना दूसरा कोई राजा नहीं हुआ होगा। इसके सिवा, दुर्योधन आदि शत्रुओं को सात्त्विक गुणों से रहित समझता हूँ। साथ ही यह भी जानता हूँ कि वे धर्म परायण नहीं हैं तो भी वे इस लोक में उतरोत्तर समृद्धिशाली होते जा रहे हैं, इसका क्या कारण है।
लोमश जी ने कहा ;- राजन्! कुन्तीनन्दन! अधर्म में रुचि रखने वाले लोग यदि उस अधर्म के द्वारा बढ़ रहे हों तो इसके लिये तुम्हें किसी प्रकार दु:ख नहीं मानना चाहिये। पहले अधर्म द्वारा मनुष्य बढ़ सकता है, फिर अपने मनोनुकूल सुख सम्पतिरूप अभ्युदय को देख सकता है, तत्पश्चात वह शत्रुओं पर विजय पा सकता है और अन्त में जड़-मूल सहित नष्ट हो जाता है। महीपाल! मैंने दैत्यों और दानवों को अधर्म के द्वारा बढ़ते और पु:न नष्ट होते भी देखा है। प्रभो! पहले देवयुग में ही मैंने यह सब अपनी आंखों से देखा है। देवताओं ने धर्म के प्रति अनुराग किया और असुरों ने उसका परित्याग कर दिया। भरतनन्दन! देवताओं ने स्नान के लिये तीर्थों में प्रवेश किया, परंतु असुर उनमें नहीं गये। अधर्मजनित दर्प असुरों में पहले से ही समा गया था। दर्प से मान हुआ और मान से क्रोध उत्पन्न हुआ। क्रोध से से निर्लज्जता आयी और निर्लज्जता ने उनके सदाचार को नष्ट कर दिया। इस प्रकार लज्जा, संकोच और सदाचार से हीन एवं निष्फल व्रत का आचरण करने वाले उन असुरों को क्षमा, लक्ष्मी और स्वधर्म ने शीघ्र त्याग दिया। राजन्! लक्ष्मी देवताओं के पास चली गयी और अलक्ष्मी असुरों के यहां। अलक्ष्मी के आवेश से युक्त होने पर उनका चित्त दर्प और अभिमान से दूषित हो गया। उस दशा में उन दैत्यों और दानवों में कलि का भी प्रवेश हो गया। जब वे दानव अलक्ष्मी से संयुक्त, कलि से तिरस्कृत और अभिमान से अभिभूत हो सत्कर्मों से शून्य, विवेकरहित और मान से उन्मत हो गये, तब शीघ्र ही उनका विनाश हो गया। यशोहीन दैत्य पूर्णत: नष्ट हो गये। किंतु धर्मशील देवताओं ने पवित्र समुद्रों, सरिताओं, सरोवरों और पुण्यप्रद आश्रमों की यात्रा की। पाण्डुनन्दन! वहाँ तपस्या, यज्ञ और दान आदि करके महात्माओं के आशीर्वाद से वे सब पापों से मुक्त हो कल्याण के भागी हुए। इस प्रकार उत्तम नियम ग्रहण करके किसी से भी कोई प्रतिग्रह न लेकर देवताअ ने तीर्थों में विचरण किया। इससे उन्हें उत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ती हुई।
नृपश्रेष्ठ! जहाँ राजा धर्म के अनुसार बर्ताव करते हैं, वहाँ वे सब शत्रुओं को नष्ट कर देते हैं और उनका राज्य भी बढ़ता रहता है। राजेन्द्र! इसलिये तुम भी भाइयों सहित तीर्थों में स्नान करके खोयी हुई राजलक्ष्मी प्राप्त कर लोगे, यही सनातन मार्ग है। जैसे राजा नृग, उशीनरपुत्र शिबि, भगीरथ, वसुमना, गय, पूरू तथा पुरूरवा आदि नरेशों ने सदा तपस्यापूर्वक तीर्थयात्रा करके वहाँ के जल के स्पर्श और महात्माओं के दर्शन से पावन यश और प्रचुर धन प्राप्त किये थे, उसी प्रकार तुम भी तीर्थयात्रा के पुण्य से विपुल सम्पति प्राप्त कर लोगे। जैसे पुत्र, सेवक तथा बन्धु-बान्धवों सहित राजा इक्ष्वाकु, मुचुकुन्द, मान्धाता तथा महाराज मरुत्त ने पुण्यकीर्ति प्राप्त की थी, जैसे देवताओं और देवर्षियों ने तपोबल से यश और ऐश्वर्य प्राप्त किया था, उसी प्रकार तुम भी पूर्णरूप से धन-सम्पति प्राप्त करोगे। धृतराष्ट्र के पुत्र पाप और मोह के वशीभूत हैं, अत: वे दैत्यों की भाँति शीघ्र नष्ट हो जायेंगे, इसमें संशय नहीं है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमश तीर्थयात्रा विषयक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
पंचानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डवों का नैमिषारण्य आदि तीर्थों में जाकर प्रयाग तथा गयातीर्थ में जाना और गय राजा के महान् यज्ञों की महिमा सुनना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;– राजन्! इस प्रकार वे वीर पाण्डव विभिन्न स्थानों में निवास करते हुए क्रमश: नैमिषारण्य तीर्थ में आये। भरतनन्दन! नरेश्वर! तदनन्तर गोमती के पुण्य तीर्थों में स्नान करके पाण्डवों ने वहाँ गोदान और धन दान किया। भारत! भूपाल! वहाँ देवताओं, पितरों तथा ब्राह्मणों को बार-बार तृप्त करके कन्यातीर्थ, अश्वतीर्थ, गोतीर्थ, कालकोटि तथा वृषप्रस्थगिरि में निवास करते हुए उन सब पाण्डवों ने बाहुदा नदी में स्नान किया। पृथ्वीपते! तदनन्तर उन्होंने देवताओं की यज्ञभूमि प्रयाग में पहुँचकर वहाँ गंगा-यमुना के संगम में स्नान किया। सत्यप्रतिज्ञ पाण्डव वहाँ स्नान करके कुछ दिनों तक उत्तम तपस्या में लगे रहे। उन पापरहित महात्माओं ने (त्रिवेणी तट पर) ब्राह्मणों को धन दान किया।
भरतनन्दन! तत्पश्चात पाण्डव ब्राह्मणों के साथ ब्रह्माजी की वेदी पर गये, जो तपस्वीजनों से सेवित है। वहाँ उन वीरों ने उत्तम तपस्या करते हुए निवास किया। वे सदा कन्द-मूल, फल आदि वन्य हविष्य द्वारा ब्राह्मणों को तृप्त करते रहते थे। अनुपम तेजस्वी जनमेजय! प्रयाग से चलकर पाडव पुण्यात्मा एवं धर्मज्ञ राजर्षि गय के द्वारा यज्ञ करके शुद्ध किये हुए उत्तम पर्वत से उपलक्षित गया तीर्थ में गये। जहाँ गयशिर नामक पर्वत और बेंत की पंक्ति से घिरी हुई रमणीय महानदी है, जो अपने दोनों तटों से विशेष शोभा पाती है। वहाँ महर्षियों से सेवित, पावन शिखरों वाला, दिव्य एवं पवित्र दूसरा पर्वत भी है, जो अत्यन्त पुण्यदायक तीर्थ है। वहीं उत्तम ब्रह्मसरोवर है, जहाँ भगवान अगस्त्य मुनि वैवस्वत यम से मिलने के लिये पधारे थे। क्योंकि सनातन धर्मराज वहाँ स्वयं निवास करते हैं। राजन्! वहाँ सम्पूर्ण नदियों का प्राकट्य हुआ है। पिनाकपाणि भगवान महादेव उस तीर्थ में नित्य निवास करते हैं। वहाँ वीर पाण्डवों ने उन दिनों चातुर्मास्य व्रत ग्रहण करके महान् ऋर्षि यज्ञ अर्थात् वेदादि सत् शास्त्रों के स्वाध्याय द्वारा भगवान की आराधना की। वहीं महान् अक्षय वट है। देवताओं की वह यज्ञभूमि अक्षय है और वहाँ किये हुए प्रत्येक सत्कर्म का फल अक्षय होता है। अविचल चित्त वाले पाण्डवों ने उस तीर्थ में कई उपवास किये। उस समय वहाँ सैकड़ों तपस्वी ब्राह्मण पधारे। उन्होंने शास्त्रों में विधिपूर्वक चातुर्मास्य यज्ञ किया। वहाँ आये हुए ब्राह्मण विद्या और तपस्या में बढे़-चढ़े तथा वेदों के पारंगत विद्वान थे। उन्होंने परस्पर मिलकर सभा में बैठकर महात्मा पुरुषों की पवित्र कथाएं कहीं। उनमें शमठ नामक एक विद्वान ब्राह्मण थे, जो विद्या अध्ययन का व्रत समाप्त करके स्नातक हो चुके थे। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यपालन का व्रत ले रखा था। राजन्! शमठ ने वहाँ अमूर्तरया के पुत्र महाराज गय की कथा इस प्रकार कही।
शमठ बोले ;- भरतनन्दन युधिष्ठिर! अमूर्तरया के पुत्र गय राजर्षियों में श्रेष्ठ थे। उनके कर्म बड़े ही पवित्र एवं पावन थे। मैं उनका वर्णन करता हूं, सुनो। राजन्! यहाँ राजा गय ने बड़ा भारी यज्ञ किया था। उसमें बहुत अन्न खर्च हुआ था और असंख्य दक्षिणा बांटी गयी थी। उस यज्ञ में अन्न के सैकड़ों और हजारों पर्वत लग गये थे। घी के कई सौ कुण्ड और दही की नदियां बहती थीं। सहस्त्रों प्रकार के उत्तमोतम व्यंजनों की बाढ़-सी आ गयी थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 21-29 का हिन्दी अनुवाद)
याचकों को प्रतिदिन इसी प्रकार भोजन और दान दिया जाता था। राजन्! अन्यान्य ब्राह्मण भी वहाँ उत्तम रीति से तैयार की हुई रसोई जीमते थे। भरतनन्दन! उस यज्ञ में दक्षिणा देते समय जो वेद मन्त्रों की ध्वनि होती थी, वह स्वर्गलोक तक गूंज उठती थी। उस वेदध्वनि के सामने दूसरा कोई शब्द नहीं सुनायी पड़ता था।
राजन्! वहाँ सब ओर फैले हुए पुण्यमय शब्द से पृथ्वी, दिशाएं, स्वर्ग और आकाश परिपूर्ण हो गये। यह बड़ी ही बात थी। भरतश्रेष्ठ! उस यज्ञ में मनुष्य यह गाथा गाते रहते थे कि 'इस यज्ञ में देश–देश के अत्यन्त तेजस्वी पुरुष उत्तम अन्नपान से तृप्त हो रहे हैं। गय के यज्ञ में लोग यही पूछते फिरते थे कि "कौन–कौन ऐसे प्राणी रह गये हैं, जो अभी भोजन करना चाहते हैं?" वहाँ खाने से बचे हुए अन्न के पचीस पर्वत शेष रह गये थे।
अमित तेजस्वी राजर्षि गय ने अपने यज्ञ में जो ब्यय किया था, वह पहले के राजाओं ने भी नहीं किया था और भविष्य में भी कोई दूसरे कर सकेंगे, ऐसा सम्भव नहीं है। गय ने सम्पूर्ण देवताओं को हविष्य से भलीभाँति तृप्त कर दिया है, अब वे दूसरों के दिये हुए हविष्य को कैसे ग्रहण कर सकेंगे। जैसे लोक में बालू के कण, आकाश के तारे और बरसते हुए बादलों की जलधाराएं किसी के द्वारा भी गिनी नहीं जा सकतीं, उसी प्रकार गय के यज्ञ में दी हुई दक्षिणओं की भी कोई गणना नहीं कर सकता था’।
कुरुनन्दन! महाराज गय के ऐसे ही बहुत से यज्ञ इस ब्रह्मसरोवर के समीप सम्पन्न हुए हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमश तीर्थयात्रा के प्रसंग में 'गय के यज्ञ का वर्णन' विषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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