सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ एकवें अध्याय से एक सौ पांचवें अध्याय तक (From the 101 to the 105 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ एकवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"वृत्रासुर का वध और असुरों की भयंकर मन्‍त्रणा"

     लोमश जी कहते हैं ;– राजन्! तदनन्‍तर वज्रधारी इन्द्र बलवान् देवताओं से सुरक्षित हो वृत्रासुर के पास गये। वह असुर भूलोक और आकाश को घेरकर खड़ा था। कालकेय नाम वाले विशालकाय दैत्‍य, जो हाथों में हथियार लिये होने के कारण पर्वतों के समान जान पड़ते थे, चारों ओर से उसकी रक्षा कर रहे थे। भरतश्रेष्‍ठ! इन्‍द्र के आते ही देवताओं का दानवों के साथ दो घड़ी तक बड़ा भीषण युद्ध हुआ, जो तीनों लोकों को त्रस्‍त करने वाला था। वीरों की भुजाओं के साथ उठे हुए खडग शत्रु के शरीर पर पड़ते और विपक्षी योद्धाओं के घातक प्रहारों से टूटकर चूर-चूर हो जाते थे, उस समय उनका अत्‍यन्‍त भयंकर शब्‍द सुन पड़ता था।

   महाराज! अपने मूल स्‍थान से टूटकर गिरे हुए योद्धाओं के मस्‍तकों द्वारा वहाँ की भूमि आच्‍छादित दिखायी देती थी। कालकेयों ने सोने के कवच धारण करके हाथों में परिघ लिये देवताओं पर धावा किया। उस समय वे दानव दावानल से दग्‍ध हुए पर्वतों की भाँति दिखायी देते थे। अभिमानपूर्वक आक्रमण करने वाले उन वेगशाली दैत्‍यों का वेग देवताओं के लिये असह्य हो गया। वे अपने दल से बिछुड़ कर भय से भागने लगे। देवताओं को डरकर भागते देख वृत्रासुर की प्रगति का अनुमान करके सहस्र नेत्रों वाले इन्‍द्र पर महान् मोह छा गया। कालकेयों के भय से त्रस्‍त हुए साक्षात इन्‍द्र देव ने सर्वशक्तिमान नारायण की शीघ्रतापूर्वक शरण ली। इन्‍द्र को इस प्रकार मोहाच्‍छन्‍न होते देख सनातन भगवान विष्‍णु ने उनका बल बढ़ाते हुए उनमें अपना तेज स्‍थापित कर दिया। देवताओं ने देखा इन्‍द्र भगवान विष्‍णु के द्वारा सुरक्षित हो गये हैं, तब उन सब ने तथा शुद्ध अन्‍त:करण वाले ब्रह्मर्षियों ने भी देवराज इन्‍द्र में अपना-अपना तेज भर दिया। देवताओं सहित श्रीविष्‍णु तथा महाभाग महर्षियों के तेज से परिपूर्ण हो देवराज इन्‍द्र अत्‍यन्‍त बलशाली हो गये।

    देवेश्‍वर इन्‍द्र को बल से सम्‍पन्‍न जान वृत्रासुर ने बड़ी विकट गर्जना की। उसके सिंहनाद से भूलोक, सम्‍पूर्ण दिशाएँ, आकाश, स्‍वर्गलोक तथा पर्वत सब-के-सब काँप उठे। राजन्! उस समय अत्‍यन्‍त भयानक गर्जना को सुनकर देवराज इन्‍द्र बहुत संतप्‍त हो उठे और भयभीत होकर उन्‍होंने बड़ी उतावली के सथ वृत्रासुर के वध के लिये अपने महान् वज्र का प्रहार किया। इन्‍द्र के वज्र से आहत होकर सुवर्णमालाधरी वह महान् असुर पूर्वकाल में भगवान विष्‍णु के हाथ से छूटे हुए महान् पर्वत मन्‍दर की भाँति पृथ्‍वी पर गिर पड़ा। महादैत्‍य वृत्रासुर के मारे जाने पर भी इन्‍द्र भय से पीड़ित हो तालाब में प्रवेश करने दौडे़। उन्‍हें भय के कारण यह विश्‍वास नहीं होता था कि वज्र मेरे हाथ से छूट चुका है और वृत्रासुर भी अवश्‍य मारा गया है। उस समय सब देवता बड़े प्रसन्‍न हुए। समस्‍त दैत्‍यों को तुरंत मार भगाया।

     संगठित देवताओं द्वारा त्रास दिये जाने पर वे सब दैत्‍य भय से आतुर हो समुद्र में ही प्रवेश कर गये। मत्‍स्‍यों और मगरों से भरे हुए उस अपार महासगार में प्रविष्‍ट हो वे सम्‍पूर्ण दानव तीनों लोकों का नाश करने के लिये बड़े गर्व से एक साथ मन्‍त्रणा करने लगे। उनमें से कुछ दैत्‍य जो अपनी बुद्धि के निश्‍चय को स्‍पष्‍ट रूप से जानने वाले थे (जगत के विनाश के लिए) उपयोगी विभिन्‍न उपायों का वर्णन करने लगे। वहाँ क्रमश: दीर्घकाल तक उपाय चिन्‍तन में लगे हुए उन असुरों ने यह घोर निश्‍चय किया कि जो लोग विद्वान और तपस्वी हों, सबसे पहले उन्‍हीं का विनाश करना चाहिये। सम्‍पूर्ण लोक तप से ही टिके हुए हैं। अत: तुम सब लोग तपस्‍या के विनाश के लिये शीघ्रतापूर्वक कार्य करो। भूमण्‍डल में जो कोई भी तपस्‍वी, धर्मज्ञ एवं उन्‍हें जानने-मानने वाले हों, उन सब का तुरंत वध कर डालो। उनके नष्‍ट होने पर सारा जगत् नष्‍ट हो जायेगा। इस प्रकार बुद्धि और विचार से हीन वे समस्‍त दैत्‍य संसार के विनाश की बात सोचकर अत्‍यन्‍त हर्ष का अनुभव करने लगे। उत्ताल तरंगों से भरे हुए वरुण के निवास स्‍थान रत्‍नाकर समुद्ररूप दुर्ग का आश्रय लेकर वे उसमें निर्भय होकर रहने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में वृत्रवधोपाख्यान विषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ दोवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"कालकेयों द्वारा तपस्वियों, मुनियों और ब्रह्मचारियों आदि का संहार तथा देवताओं द्वारा भगवान विष्‍णु की स्‍तुति"

    लोमश जी कहते हैं ;– राजन्! वरुण के निवास स्‍थान जलनिधि समुद्र का आश्रय लेकर कालकेय नामक दैत्‍य तीनों लोकों के विनाश कार्य में लग गये। वे सदा रात में कुपित होकर आते और आश्रमों तथा पुण्‍य स्‍थानों में जो निवास करते थे, उन मुनियों को खा जाते थे। उन दुरात्‍माओं ने वसिष्ठ के आश्रम में निवास करने वाले एक सौ अठ्ठासी ब्राह्मणों तथा नौ दूसरे तपस्वियों को अपना आहार बना लिया। च्‍यवन मुनि के पवित्र आश्रम में, जो बहुत-से द्विज निवास करते थे, जाकर उन दैत्‍यों ने फल-मूल का आहार करने वाले सौ मुनियों को भक्षण कर लिया। इस प्रकार वे रात में तपस्‍वी मुनियों का संहार करते और दिन मे समुद्र के जल में प्रवेश कर जाते थे। भरद्वाज मुनि के आश्रम में वायु और जल पीकर संयम-नियम के साथ रहने वाले बीस ब्रह्मचारियों को कालकेयों ने काल के गाल में डाल दिया।

    इस तरह क्रमश: सभी आश्रमों में जाकर अपने बाहुबल के भरोसे उन्मत्त रहने वाले दानव रात में वहाँ के निवासियों को सर्वथा कष्‍ट पहुँचाया करते थे। नरश्रेष्‍ठ! कालकेय दानव काल के अधीन हो रहे थे, इसीलिये वे असंख्‍य ब्राह्मणों की हत्‍या करते चले जा रहे थे। मनुष्‍यों को उनके इस षड़यन्‍त्र का पता नहीं लगता था। इस प्रकार वे तपस्‍या के धनी तापसों के संहार मे प्रवृत्त हो रहे थे। प्रात:काल आने पर नियमित आहार से दुर्बल मुनिगण अपने अस्थिमात्रावशिष्‍ट निष्‍प्राण शरीर से पृथ्‍वी पर पड़े दिखायी देते थे। राक्षसों द्वारा भक्षण करने के कारण उनके शरीरों का मांस तथा रक्‍त क्षीण हो चुका था। वे मज्जा, आंतों और संधि-स्‍थानों से रहित हो गये थे। इस तरह सब ओर फैली हुई सफेद हड्डियों के कारण वहाँ की भूमि शंखराशि से आच्‍छादित-सी प्रतीत होती थी।

      उलटे-पुलटे पड़े हुए कलशों, टूटे-फूटे स्रुवों तथा बिखरी पड़ी हुई अग्निहोत्र की सामग्रियों से उन आश्रमों की भूमि आच्‍छादित हो रही थी। स्‍वाध्‍याय और वषटकार बंद हो गये। यज्ञोत्‍सब आदि कार्य नष्‍ट हो गये। कालकेयों के भय से पीड़ित हुए सम्‍पूर्ण जगत् में कहीं कोई उत्‍साह नहीं रह गया था। नरेश्‍वर! इस प्रकार दिन-दिन नष्‍ट होने वाले मनुष्य भयभीत हो अपनी रक्षा के लिये चारों दिशाओं में भाग गये। कुछ लोग गुफाओं में जा छिपे। कितने ही मानव झरनों के आसपास रहने लगे और कितने ही मनुष्‍य मृत्‍यु से इतने घबरा गये कि भय से ही उनके प्राण निकल गये।

     इस भूतल पर कुछ महान् धनुर्धर शूरवीर भी थे, जो अन्‍यन्‍त हर्ष और उत्‍साह से युक्‍त हो दानवों के स्‍थान का पता लगाते हुए उनके दमन के लिये भारी प्रयत्‍न करने लगे। परंतु समुद्र में छिपे हुए दानवों को वे पकड़ नहीं पाते। उन्‍होंने बहुत परिश्रम किया और अन्त में थककर वे पुन: अपने घर को ही लौट आये। मनुजेश्वर! यज्ञोत्सव आदि कार्यों के नष्ट हो जाने पर जब जगत का विनाश होने लगा, तब देवताओं को बड़ी पीड़ा हुई।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 18-26 का हिन्दी अनुवाद)

     इन्द्र आदि सब देवताओं ने मिलकर भय से मुक्‍त होने के लिये मन्‍त्रणा की। फिर वे समस्‍त देवता सब को शरण देने वाले, शरणागतवत्‍सल, अजन्‍मा एवं सर्वव्‍यापी, अपराजित वैकुण्‍ठनाथ भगवान् नरायण देव की शरण में गये और नमस्‍कार करके उन मधुसूदन से बोले,,

    देवगण बोले ;- ‘प्रभो! आप ही हमारे स्रष्‍टा और पालक हैं। आप ही सम्‍पूर्ण जगत् के संहार करने वाले हैं। इस स्‍थावर और जंगम सम्‍पूर्ण जगत् की सृष्टि आपने ही की है।

     कमलनयन! पूर्वकाल में आपने ही वराह रूप धारण करके सम्‍पूर्ण जगत् के हित के लिये समुद्र के जल से इस खोयी हुई पृथ्‍वी का उद्धार किया था। प्राचीन काल में आपने ही नृसिंह शरीर धारण करके महान पराक्रमी आदिदैत्‍य हिरण्यकशिपु का वध किया था। सम्‍पूर्ण प्राणियों के लिये अवध्‍य महादैत्‍य बलि को भी आपने ही वामन रूप धारण करके त्रिलोकी के राज्‍य से वंचित किया। ऐसे-ऐसे आपके अनेक कर्म हैं, जिनकी कोई संख्‍या नहीं है।

      मधुसूदन! हम भयभीत देवताओं के एकमात्र आश्रय आप ही हैं। देवदेवेश्वर! इसीलिये लोकहित के उद्देश्‍य से हम यह निवेदन कर रहे हैं कि आप सम्‍पूर्ण जगत् के प्राणियों, देवताओं और इन्द्र की भी माहन् भय से रक्षा कीजिये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में विष्णु स्तुति विषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ तीनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्र्यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान विष्‍णु के आदेश से देवताओं का महर्षि अगस्‍त्‍य के आश्रम पर जाकर उनकी स्‍तुति करना"

   देवता कहते हैं ;– 'प्रभो! जरायुज, अण्‍डज, स्‍वेदज और उद्भिज्ज-इन चार भेदों वाली सम्पूर्ण प्रजा आपकी कृपा से ही वृद्धि को प्राप्‍त होती है। अभ्‍युदयशील होने पर वे प्रजाएं ही हव्‍य और कव्‍यों द्वारा देवताओं का भरण-पोषण करती हैं। इसी प्रकार सब लोग एक-दूसरे के सहारे उन्‍नति करते हैं। आपकी ही कृपा से सब प्राणी उद्वेगरहित जीवन बिताते और आपके द्वारा ही सर्वथा सुरक्षित रहते हैं। भगवन्! मनुष्‍यों के समक्ष यह बड़ा भारी भय उपस्थित हुआ है। न जाने कौन रात में आकर इन ब्राह्मणों का वध कर रहा है। ब्राह्मणों के नष्‍ट होने पर सारी पृथ्‍वी नष्‍ट हो जायेगी और पृथ्‍वी का नाश होने पर स्‍वर्ग भी नष्‍ट हो जायेगा।'

    भगवान् विष्‍णु बोले ;- 'देवताओ! प्रजा के विनाश का जो कारण उपस्थित हुआ है, वह सब मुझे ज्ञात है। मैं तुम लोगों को भी बता रहा हूँ, नि‍श्चिंत होकर सुनो। दैत्‍यों का एक अत्‍यन्‍त भयंकर दल है, जो कालकेय नाम से विख्‍यात है। उन दैत्‍यों ने वृत्रासुर का सहारा लेकर सारे संसार में तहलका मचा दिया था। परम बुद्धिमान इन्द्र के द्वारा वृत्रासुर को मारा गया देख वे अपने प्राण बचाने के लिये समुद्र में जाकर छिप गये हैं। नाक और ग्राहों से भरे हुए भयंकर समुद्र में घुसकर वे सम्‍पूर्ण जगत् का संहार करने के लिये रात में निकलते तथा यहाँ ऋषियों की हत्‍या करते हैं। उन दानवों का संहार नहीं किया जा सकता, क्‍योंकि वे दुर्गम समुद्र के आश्रय में रहते हैं। अत: तुम लोगों को समुद्र को सुखाने का विचार करना चाहिए। महर्षि अगस्‍त्‍य के सिवा दूसरा कौन है, जो समुद्र का शोषण करने में समर्थ हो। समुद्र को सुखाये बिना वे दानव काबू में नहीं आ सकते।'

     भगवान विष्‍णु की कही हुई यह बात सुनकर देवता ब्रह्माजी की आज्ञा ले अगस्‍त्‍य के आश्रम पर गये। वहाँ उन्‍होंने मित्रावरुण के पुत्र महात्‍मा अगस्‍त्‍य जी को देखा। उनका तेज उद्भासित हो रहा था। जैसे देवता लोग ब्रह्माजी के पास बैठते हैं, उसी प्रकार बहुत-से ऋषि–मुनि उनके निकट बैठे थे। अपनी महिमा से कभी च्‍युत न होने वाले मित्रावरुणनन्‍दन तपोराशि महात्‍मा अगस्‍त्‍य आश्रम में ही विराजमान थे। देवताओं ने समीप जाकर उनके अद्भुत कर्मों का वर्णन करते हुए स्‍तुति की। 

   देवता बोले ;– भगवन्! पूर्वकाल में राजा नहुष के अन्‍याय से संतप्‍त हुए लोकों की आपने ही रक्षा की थी। आपने ही उस लोककण्‍टक नरेश को देवेन्‍द्र पद तथा स्‍वर्ग से नीचे गिरा दिया था। पर्वतों में श्रेष्‍ठ विन्‍ध्‍य सूर्यदेव पर क्रोध करके जब सहसा बढ़ने लगा, तब आपने ही उसे रोका था। आपकी आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए विन्‍ध्‍यगिरि आज भी बढ़ नहीं रहा है। विन्‍ध्‍यगिरि के बढ़ने से जब सारे जगत् में अन्‍धकर छा गया और सारी प्रजा मृत्‍यु से पीड़ित होने लगी, उस समय आपको ही अपना रक्षक पाकर सब ने अत्‍यन्‍त हर्ष का अनुभव किया था। सदा आप ही हम भयभीत देवताओं के लिये आश्रय होते आये हैं। अत: इस समय भी संकट में पड़कर हम आप से वर मांग रहे हैं, क्‍योंकि आप ही वर देने के योग्‍य हैं।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्य माहात्म्य वर्णन विषयक एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ चारवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"अगस्‍त्‍य जी का विन्‍ध्‍य पर्वत को बढ़ने से रोकना और देवताओं के साथ सागर तट पर जाना"

    युधिष्ठिर ने पूछा ;- महामुने! विन्‍ध्‍य पर्वत किसलिये क्रोध से मूर्च्छित हो सहसा बढ़ने लगा था? मैं इस प्रसंग को विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ।

   लोमश जी ने कहा ;– राजन्! सूर्यदेव सुवर्णमय महान् पर्वत गिरिराज मेरु की उदय और अस्‍त के समय परिक्रमा किया करते हैं। उन्‍हें ऐसा करते देख विन्‍ध्‍यगिरि ने उनसे कहा,,

    पर्वत राज विन्ध्य गिरि बोले ;- ‘भास्‍कर! जैसे आप मेरु की प्रति‍दिन परिक्रमा करते हैं, उसी तरह मेरी भी कीजिये।' यह सुनकर भगवान सूर्य ने गिरिराज विन्‍ध्‍य से कहा,,

   भगवान सूर्य बोले ;– ‘गिरिश्रेष्‍ठ! मैं अपनी इच्‍छा से मेरुगिरि की परिक्रमा नहीं करता हूँ। जिन्होंने इस संसार की सृष्टि की है, उन विधाता ने मेरे लिये सही मार्ग निश्चि‍त किया है’। परंतप युधिष्ठिर! सूर्यदेव के ऐसा कहने पर विन्‍ध्‍य पर्वत सहसा कुपित हो सूर्य और चन्‍द्रमा का मार्ग रोक लेने की इच्‍छा से बढ़ने लगा। यह देख सब देवता एक साथ मिलकर महान् पर्वतराज विन्‍ध्‍य के पास गये और अनेक उपायों द्वारा उसके क्रोध का निवारण करने लगे, परंतु उसने उनकी बात नहीं मानी। तब वे सब देवता मिलकर अपने आश्रम पर विराजमान धर्मात्‍माओं मे श्रेष्‍ठ तपस्‍वी अगस्‍त्‍य मुनि के पास गये, जो अदभुत प्रभावशाली थे। वहाँ जाकर उन्‍होंने अपना प्रयोजन कह सुनाया।

    देवता बोले ;– 'द्विजश्रेष्‍ठ! यह पर्वतराज विन्‍ध्‍य क्रोध के वशीभूत होकर सूर्य और चन्‍द्रमा के मार्ग तथा नक्षत्रों की गति को रोक रहा है। महाभाग! आपके सिवा दूसरा कोई इसका निवारण नहीं कर सकता। अत: आप चलकर इसे रोकिये।' देवताओं की यह बात सुनकर विप्रवर अगस्त्य अपनी पत्‍नी लोपामुद्रा के साथ विन्‍ध्‍य पर्वत के समीप गये और वहाँ उपस्थित हो उससे इस प्रकार बोले,,

   अगस्त्य जी बोले ;- ‘पर्वतश्रेष्‍ठ! मैं किसी कार्य से दक्षिण दिशा को जा रहा हूँ, मेरी इच्‍छा है, तुम मुझे मार्ग प्रदान करो। जब तक मैं पुन: लौटकर न आऊँ, तब तक मेरी प्रतीक्षा करते रहो। शैलराज! मेरे लौट आने पर तुम पुन: इच्‍छानुसार बढ़ते रहना’। शत्रुसूदन! विन्‍ध्‍य के साथ ऐसा नियम करके मित्रावरुणनन्‍दन अगस्‍त्‍य जी चले गये और आज तक दक्षिण प्रदेश से नहीं लौटे। राजन्! तुम मुझसे जो बात पूछ रहे थे, वह सब प्रसंग मैने कह दिया। महर्षि अगस्‍त्‍य के ही प्रभाव से विन्‍ध्‍य पर्वत बढ़ नहीं रहा है।

     राजन्! सब देवताओं ने अगस्‍त्‍य से वर पाकर जिस प्रकार कालकेय नामक दैत्‍यों का संहार किया, वह बता रहा हूँ, सुनो। देवताओं की बात सुनकार मित्रावरुणनन्‍दन अगस्‍त्‍य ने पूछा,,

   अगस्त्य जी बोले ;- ‘देवताओ! आप लोग किसलिये यहाँ पधारे हैं और मुझसे कौन-सा वर चाहते हैं?' उनके इस प्रकार पूछने पर इन्द्र को आगे करके सब देवताओं ने हाथ जोड़कर मुनि से कहा,,

   देवतागण बोले ;- ‘महात्‍मन्! हम आपके द्वारा यह कार्य सम्‍पन्‍न कराना चाहते हैं कि आप सारे महासागर के जल को पी जायें। तदनन्‍दतर हम लोग देवद्रोही कालकेय नामक दानवों का उनके बन्धु-बान्‍धवों सहित वध कर डालेंगे।' देवताओं का यह कथन सुनकर,, 

  महर्षि अगस्‍त्‍य ने कहा ;– ‘बहुत अच्‍छा’, मैं आप लोगों का मनो‍रथ पूर्ण करूँगा। इससे सम्‍पूर्ण लोकों को महान् सुख प्राप्‍त होगा‘। सुव्रत! ऐसा कहकर अगस्‍त्‍य जी देवताओं तथा तप:सिद्ध ऋषियों के साथ नदीपति समुद्र के तट पर गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरधिकशततमोअध्‍याय के श्लोक 21-24 का हिन्दी अनुवाद)

   उस समय मनुष्‍य, नाग, गन्धर्व, यक्ष सभी उस दृश्‍य को देखने के लिये उन महात्‍मा के पीछे चल दिये।

   फिर वे सब लोग एक साथ भयंकर गर्जना करने वाले समुद्र के समीप गये, जो अपने उत्ताल तरंगों द्वारा मानो नृत्‍य कर रहा था और वायु के द्वारा उछल-कूदता-सा जान पड़ता था।

    वह फेनों के समुदाय द्वारा मानो अपनी हास्‍य छटा बिखेर रहा था और कन्‍दराओं से टकराता-सा जान पड़ता था। उसमे नाना प्रकार के ग्राह आदि जलजन्‍तु भरे हुए थे तथा बहुत-से पक्षी निवास करते थे।

   अगस्‍त्‍य जी के साथ देवता, गन्‍धर्व बडे़–बड़े नाग और महाभाग ऋषिगण सभी महासागर के तट पर जा पहँचे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्य का समुद्र तट पर गमन विषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ पाँचवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"अगस्‍त्‍य जी के द्वारा समुद्रपान और देवताओं का कालकेय दैत्‍यों का वध करके ब्रह्माजी से समुद्र को पुन: भरने का उपाय पूछना"

  लोमश जी कहते हैं ;– राजन्! समुद्र के तट पर जाकर मित्रावरुणनन्‍दन भगवान अगस्‍त्‍य मुनि वहाँ एकत्र हुए देवताओं तथा समागत ऋर्षियों से बोले,,

   अगस्त्य जी बोले ;– ‘मैं लोकहित के लिये समुद्र का जल पी लेता हूँ। फिर आप लोगों को जो कार्य करना हो, उसे शीघ्र पूरा कर लें।' अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले मित्रावरुणकुमार अगस्‍त्‍य जी कुपित हो सब लागों के देखते–देखते समुद्र को पीने लगे। उन्‍हें समुद्रपान करते देख इन्द्र सहित देवता बड़े विस्म्ति हुए और स्‍तुतियों द्वारा उनका समादर करने लगे। ‘लोकभावन महर्षे! आप हमारे रक्षक तथा सम्‍पूर्ण लोकों के विधाता हैं। आपकी कृपा से अब देवताओं सहित सम्‍पूर्ण जगत विनाश को नहीं प्राप्‍त होगा’।

   इस प्रकार जब देवता महात्‍मा अगस्‍त्‍य जी की प्रशंसा कर रहे थे, सब ओर गन्‍धर्वों के वाद्यों की ध्‍वनि फैल रही थी और अगस्‍त्‍य जी पर दि‍व्‍य फूलों की बौछार हो रही थी, उसी समय अगस्‍त्‍य जी ने सम्‍पूर्ण महासागर को जलशून्‍य कर दिया। उस महासमुद्र को निर्जल हुआ देख सब देवता बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने अपने दिव्‍य एवं श्रेष्‍ठ आयुध लेकर अत्‍यन्‍त उत्‍साह से सम्‍पन्‍न हो दानवों पर आक्रमण किया। महान् बलवान् वेगशाली और महाबुद्धिमान देवता जब सिंहगर्जना करते हुए दैत्‍यों को मारने लगे, उस समय वे उन वेगवान् महामना देवताओं का वेग न सह सके। भरतनन्‍दन! देवताओं की मार पड़ने पर दानवों ने भी भयंकर गर्जना करते हुए दो घड़ी तक उनके साथ घोर युद्ध किया। उन दैत्‍यों को शुद्ध अन्‍त:करण वाले मुनियों ने अपनी तपस्‍या द्वारा पहले से ही दग्‍ध-सा कर रखा था, अत: पूरी शक्ति लगाकर अधिक से अधिक प्रयास करने पर भी देवताओं द्वारा वे मार डाले गये। सोने की मोहरों की मालाओं से भूषित तथा कुण्‍डल एवं बाजूबंदधारी दैत्‍य वहाँ मारे जाकर खिले हुए पलाश के वृक्षों की भाँति अधिक शोभा पा रहे थे।

   नरश्रेष्‍ठ! मरने से बचे हुए कुछ कालकेय दैत्‍य वसुन्‍धरा देवी को विदीर्ण करके पाताल में चले गये। सब दानवों को मारा गया देख देवताओं ने नाना प्रकार के वचनों द्वारा मुनिवर अगस्‍त्‍य जी का स्‍तवन किया और यह बात कही,,

   देवता बोले ;- ‘महाभग! आपकी कृपा से समस्‍त लोकों ने महान् सुख प्राप्‍त किया है, क्‍योंकि क्रूरतापूर्ण पराक्रम दिखाने वाले कालकेय दैत्‍य आपके तेज से दग्‍ध हो गये। मुन! आपकी बांहें बड़ी हैं। आप नूतन संसार की सृष्टि करने में समर्थ हैं। अब आप समद्र को फिर भर दीजिये। आपने जो इसका जल पी लिया है, उसे फिर इसी में छोड़ दीजिये‘। उनके ऐसा कहने पर मुनिप्रवर भगवान अगस्‍त्‍य ने वहाँ एकत्र हुए इन्‍द्र आदि समस्‍त देवताओं से उस समय यों कहा,,

  अगस्त्य जी बोले ;- ‘देवगण! वह जल तो मैंने पचा लिया, अत: समुद्र को भरने के लिये सतत प्रयत्‍नशील रहकर आप लोग कोई दूसरा ही उपाय सोचें।' शुद्ध अन्‍त:करण वाले महर्षि का यह वचन सुनकर सब देवता बड़े विस्मित हो गये, उनके मन में विषाद छा गया। वे आपस में सलाह करके मुनिवर अगस्‍त्‍य जी को प्रणाम कर वहाँ से चल दिये। महाराज्! फिर सारी प्रजा जैसे आयी थी, वेसे ही लौट गयी। देवता लोग भगवान विष्‍णु के साथ ब्रह्माजी के पास गये। समुद्र को भरने के उद्देश्‍य से बार-बार आपस मे सलाह करके श्रीविष्‍णु सहित सब देवता ब्रह्माजी के निकट जा हाथ जोड़कर यह पूछने लगे कि ‘समुद्र को पुन: भरने के लिये क्‍या उपाय किया जाये’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्योपाख्यान विषयक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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