सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के छियासीवें अध्याय से नब्बेवें अध्याय तक (From the 86 to the 90 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

छियासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडशीतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"युधिष्ठिर का धौम्य मुनि से पुण्य तपोवन, आश्रम एवं नदी आदि के विषय में पूछना"

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अपने भाइयों तथा परम बुद्धिमान् देवर्षि नारद की सम्मति जानकर राजा युधिष्ठिर ने पितामह के समान प्रभावशाली पुरोहित धौम्य जी से कहा,,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘ब्रह्मन्! मैंने अस्त्र प्राप्ति के लिये विजयी सत्य पराक्रमी, महामना एवं प्रतापी पुरुषसिंह महाबाहु अर्जुन को निर्वासित कर रखा है। वह वीर मुझमें अनुराग रखने वाला, सामर्थ्यशाली, तपस्या का धनी, पुण्यात्मा और अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान् में भगवान् श्रीकृष्ण की भाँति प्रभावशाली है। विप्रवर! मैं इन दोनों कृष्णनामधारी वीरों को शत्रुओं का संहार करने में समर्थ और महापराक्रमी समझता हूँ। महाप्रतापी वेदव्यास जी की भी यही धारणा है। कमल के समान नेत्रों वाले भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन तीन युगों से सदा साथ रहते आये हैं। नारद जी भी इन दोनों को इसी रूप में जानते हैं और सदा मुझसे इस बात की चर्चा करते रहते हैं। मैं भी ऐसा ही समझता हूँ कि श्रीकृष्ण और अर्जुन सुप्रसिद्ध नर-नारायण ऋषि हैं।

    अर्जुन को शक्तिशाली समझ कर ही मैंने उसे दिव्यास्त्रों की प्राप्ति के लिये भेजा है। देवपुत्र अर्जुन इन्द्र से कम नहीं हैं। यह जानकर ही मैंने उसे देवराज इन्द्र का दर्शन करने और उनसे दिव्यास्त्र को प्राप्त करने के लिये भेजा है। भीष्म और द्रोण अतिरथी वीर हैं। कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा को भी जीतना कठिन है। धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने इन सभी महारथियों को युद्ध के लिये वरण कर लिया है। वे सब-के-सब वेदज्ञ, शूरवीर, सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता, महाबली और सदा अर्जुन के साथ युद्ध की अभिलाषा रखने वाले हैं। वह सूपपुत्र महारथी कर्ण भी दिव्यास्त्रों का ज्ञाता है। काल ने उसे प्रलयकालीन संवर्तक नामक महान् अग्नि के समान उत्पन्न किया है। अस्त्रों का वेग ही उसका वायुतुल्य बल है। बाण ही उसकी ज्वाला हैं। हथेली से होने वाली आवाज़ ही उस दाहक अग्नि का शब्द है। युद्ध में उठने वाली धूल ही उस कर्णरूपी अग्नि का धूम है। अस्त्रों की वर्षा ही उसकी लपटों का लगना है। धृतराष्ट्रपुत्ररूपी वायु का सहारा पाकर वह और भी उद्धत एवं प्रज्वलित हो उठा है। इसमें संदेह नहीं कि वह मेरी सेना को सूखे तिनकों की राशि के समान भस्म कर डालेगा।

     उस आग को युद्ध में अर्जुन नामक महामेघ ही बुझा सकेगा। श्रीकृष्णरूपी वायु का सहारा पाकर ही वह मेघ उठेगा। दिव्यास्त्रों का प्रकाश ही उसमें बिजली की चमक होगी। रथ के श्वेत घोड़े ही उसके निकट उड़ने वाली बकपंक्तियों की भाँति सुशोभित होंगे। गाण्डीव धनुष ही इन्द्रधनुष के समान दुःसह दृश्य उपस्थित करने वाला होगा। वह क्रोध में भरकर बाणरूपी जल की धारा से कर्णरूपी प्रज्वलित अग्नि को निश्चय ही शांत कर देगा। शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाला अर्जुन साक्षात् इन्द्र से सारे दिव्यास्त्र प्राप्त करेगा। धतराष्ट्र-पक्ष के उक्त सभी महारथियों को जीनते के लिये वह अकेला ही पर्याप्त होगा; ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। अन्यथा अत्यन्त कृतार्थ का अनुभव करने वाले शत्रुओं को दबाने का और कोई उपाय नहीं है। अतः हम शत्रुहन्ता पाण्डुनन्दन अर्जुन को अवश्य ही सब दिव्यास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके आया हुआ देखेंगे; क्योंकि वह वीर किसी कार्य-भार को उठाकर उसे पूर्ण किये बिना कभी शांत नहीं होता।

     नरश्रेष्ठ! इस काम्यकवन में वीर अर्जुन के बिना द्रौपदी सहित हम सब पाण्डवों का मन बिल्कुल नहीं लग रहा है। इसीलिये आप हमें किसी ऐसे रमणीय वन का पता बतायें जो बहुत अच्छा, पवित्र, प्रचुर अन्न और फल से सम्पन्न तथा पुण्यात्मा, पुरुषों द्वारा सेवित हो। जहाँ हम लोग कुछ काल रहकर सत्य पराक्रमी वीर अर्जुन के आगमन की उसी प्रकार प्रतीक्षा करें, जैसे वृष्टि की इच्छा रखने वाले किसान बादलों की राह देखते हैं। ब्रह्मन! आप दूसरे ब्राह्मणों से सुने हुए नाना प्रकार के कतिपय आश्रमों, सरोवरों, सरिताओं तथा रमणीय पर्वतों का पता बताइये। अर्जुन के बिना अब काम्यकवन में रहना हमें अच्छा नहीं लगता; इसीलिये अब दूसरी दिशा को चलेंगे’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में धौम्य की तीर्थयात्रा विषयक छियासीवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

सत्तासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताशीतितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"धौम्य द्वारा पूर्व दिशा के तीर्थों का वर्णन"

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पाण्डवों का चित्त अर्जुन के लिये अत्यन्त दीन हो रहा था। वे सब के सब उनसे मिलने को उत्सुक थे। उनकी ऐसी अवस्था देख कर बृहस्पति के समान तेजस्वी महर्षि धौम्य ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा,,

   महर्षि धौम्य बोले ;- ‘पापरहित भरतकुलभूषण! ब्राह्मण लोग जिन्हें आदर देते है, उन पुण्य आश्रमों, दिशाओं, तीर्थों और पर्वतों का मैं वर्णन करता हूं, सुनो। नरेश्वर! राजन्! मेरे मुख से उन सबका वर्णन सुनकर तुम द्रौपदी तथा भाईयों के साथ शोकरहित हो जाओगे। नरश्रेष्ठ पाण्डुन्दन! इसका श्रवण करने मात्र से तुम्हें उनके सेवन का पुण्य प्राप्त होगा। वहाँ जाने से सौ गुने पुण्य की प्राप्ति होगी। महाराज युधिष्ठिर! मैं अपनी रमणीय शक्ति के अनुसार सबसे पहले राजर्षिगणों द्वारा सेवित रमणीय प्राची दिशा का वर्णन करूंगा।

   भरतनन्दन! देवर्षिसेवित प्राची दिशा में नैमिष नामक तीर्थ है, जहाँ भिन्न-भिन्न देवताओं के अलग-अलग पुण्यतीर्थ हैं। जहाँ देवर्षिसेवित परम रमणीय पुण्यमयी गोमती नदी है। देवताओं की यज्ञभूमि और सूर्य का यज्ञपात्र विद्यमान है। प्राची दिशा में ही पुण्यपर्वत श्रेष्ठ गय है, जो राजर्षि गय के द्वारा सम्मानित हुआ है। वहाँ कल्याणमय ब्रह्मसरोवर है, जिसका देवर्षिगण सेवन करते हैं। पुरुषसिंह! उस गया के विषय में ही प्राचीन लोग यह कहा करते हैं कि ‘बहुत से पुत्रों की इच्छा करनी चाहिये; सम्भव है उनमें से एक भी गया जाये या अश्वमेध यज्ञ करे अथवा नीलवृष का उत्सर्ग करे। ऐसा पुरुष अपनी संतति द्वारा इस पहले की ओर से बाद की पीढ़ियों का उद्धार कर देता है’। राजन्! वहीं महानदी और गयशीर्ष तीर्थ है, जहाँ ब्राह्मणों ने अक्षयवट की स्थिति बतायी है, जिसके जड़ और शाखा आदि उपकरण कभी नष्ट नहीं होते। प्रभो! वहाँ पितरों के लिये दिया हुआ अन्न अक्षय होता है।

     भरतश्रेष्ठ! वहीं फल्गु नाम वाली पुण्यसलिला महानदी है और वहीं बहुत से फल-मूलों वाली कौशिकी नदी प्रवाहित होती है, जहाँ तपोधन विश्वामित्र ब्राह्मणतत्त्व को प्राप्त हुए थे। पूर्वदिशा में ही पुण्यनदी गंगा बहती है, जिसके तट पर राजा भगीरथ ने प्रचुर दक्षिणा वाले बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उसी यज्ञ में विश्वामित्र का अलौकिक वैभव देखकर जमदग्निनन्दन परशुराम ने उनके वंश के अनुरूप यक्ष का वर्णन किया था। विश्वामित्र जी ने कान्यकुब्ज देश में इन्द्र के साथ सोमपान किया; वहीं वे क्षत्रियत्व से ऊपर उठ गये और ‘मैं ब्राह्मण हूं’ यह बात घोषित कर दी।

    वीरवर! गंगा और यमुना का परम उत्तम पुण्यमय पवित्र संगम सम्पूर्ण जगत् में विख्यात है और बड़े-बड़े महर्षि उसका सेवन करते हैं। जहाँ समस्त प्राणियों के आत्मा भगवान् ब्रह्मा जी ने पहले ही यज्ञ किया था। भरतकुलभूषण! ब्रह्मा जी के उस प्रकृष्टयाग से ही उस स्थान का नाम ‘प्रयाग’ हो गया। कालंजर पर्वत पर हिरण्यबिन्दु नाम से प्रसिद्ध महान् तीर्थ बताया गया है। आगस्त्य पर्वत बहुत ही रमणीय, पवित्र, श्रेष्ठ एवं कल्याणस्वरूप है। कुरुनन्दन! महात्मा भार्गव का निवास स्थान महेन्द्र पर्वत है। कुन्तीनन्दन! वहाँ ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में यज्ञ किया था।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताशीतितम अध्याय के श्लोक 23-28 का हिन्दी अनुवाद)

   युधिष्ठिर! जहाँ पुण्यसलिला भागीरथी गंगा सरोवर में स्थित थी। महाराज! जहाँ पर उन्हें ‘ब्रह्मशाला’ यह पवित्र नाम दिया गया है। वह पुण्यतीर्थ निष्पाप मनुष्यों से व्याप्त है; उसका दर्शन पुण्यमय बताया गया है। वहीं महात्मा मतंग ऋषि का महान् एवं उत्तम आश्रय केदारतीर्थ है। वह परम पवित्र, मंगलकारी और लोक में विख्यात है। कुण्डोद नामक रमणीय पर्वत बहुत फल-मूल और जल से सम्पन्न है, जहाँ प्यासे हुए निषध नरेश को जल और शांति की उपलब्धि हुई थी।

   वहीं तपस्वीजनों से सुशोभित पवित्र देववन नामक पुण्य क्षेत्र है, जहाँ पर्वत के शिखर पर बाहुदा ओर नन्दा नदी बहती हैं।

    महाराज! पूर्व दिशा में जो बहुत-से-तीर्थ, नदियां, पर्वत और पुण्य मंदिर आदि हैं, उनका मैंने तुमसे (संक्षेप में) वर्णन किया है। अब शेष तीन दिशाओं के सरिताओं, पर्वतों और पुण्य स्थानों का वर्णन करता हूं, सुनो’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में धौम्यतीर्थयात्रा विषयक सत्तासीवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

अठासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"धौम्य मुनि द्वारा दक्षिण दिशावर्ती तीर्थों का वर्णन"

   धौम्य जी कहते हैं ;- भरवंशी युधिष्ठिर! अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार दक्षिण दिशावर्ती पुण्य तीर्थों का विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ। दक्षिण में पुण्यमयी गोदावरी नदी बहुत प्रसिद्ध है, जिसके तट पर अनेक बगीचे सुशोभित हैं। उसके भीतर अगाध जल भरा हुआ है। बहुत-से तपस्वी उसका सेवन करते हैं तथा वह सबके लिये कल्याणस्वरूपा है। वेणा और भीमरथी- ये दो नदियां भी दक्षिण में ही हैं, जो समस्त पापभय का नाश करने वाली हैं। उसके दोनों तट अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों से व्याप्त और तपस्वीजनों के आश्रमों से विभूषित हैं।
    भरतकुलभूषण! राजा नृग की नदी पयोष्णी भी उधर ही है, जो रमणयी तीर्थों और अगाध जल से सुशोभित है। द्विज उसका सेवन करते हैं। इस विषय में हमारे सुनने में आया है कि महायोगी एवं महायशस्वी मार्कण्डेय ने यजमान राजा नृग के समान उसके वंश के योग्य यशोगाथा का वर्णन इस प्रकार किया था,,- ‘पयोष्णी के तट पर उत्तम वराहतीर्थ में यज्ञ करने वाले राजा नृग के यज्ञ में इन्द्र सोमपान करके मस्त हो गये थे और प्रचुर दक्षिणा पाकर ब्राह्मण लोग भी हर्षोल्लास से पूर्ण हो गये थे। पयोष्णी का जल हाथ में उठाया गया हो या धरती पर पड़ा हो अथवा वायु के वेग से उछलकर अपने ऊपर पड़ गया हो, वह जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त किये हुए समस्त पापों को हर लेता है। जहाँ भगवान् शंकर का स्वयं ही अपने लिये बनाया हुआ शृंग नामक वाद्यविशेष स्वर्ग से भी ऊंचा और निर्मल है, उसका दर्शन करके मरणधर्मा मानव शिवधाम में चला जाता है। एक ओर अगाध जलराशि से भरी हुई गंगा आदि सम्पूर्ण नदियां हों और दूसरी ओर केवल पुण्यसलिला पयोष्णी नदी हो तो वही अन्य सब नदियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है; ऐसा मेरा विचार है।
      भरतश्रेष्ठ! दक्षिण में पवित्र माठर-वन है, जो प्रचुर फल-मूल से सम्पन्न हो कल्याणस्वरूप है। वहाँ वरुणस्रोतस नामक पर्वत पर माठर (सूर्य के पार्श्ववर्ती देवता) का विजय स्तम्भ सुशोभित होता है। यह स्तम्भ प्रवेणी-नदी के उत्तरवर्ती मार्ग में कण्व के पुण्यमय आश्रम में है। इस प्रकार जैसा कि मैंने सुन रखा था, तपस्वी महात्माओं के निवास योग्य वनों का वर्णन किया है। तात! शूर्पारक क्षेत्र में महात्मा जमदग्नि की वेदी है। भारत! वहीं रमणयी पाषाणतीर्था और पुनश्चन्द्रा नामक तीर्थ-विशेष हैं। कुन्तीनन्दन! उसी क्षेत्र में अशोकतीर्थ है, जहाँ महर्षियों के बहुत से आश्रम हैं।
      युधिष्ठिर! पाण्ड्य देश में अगस्त्यतीर्थ तथा वारुणतीर्थ हैं। नरश्रेष्ठ! पाण्ड्य देश के भीतर पवित्र कुमारी कन्याएं (कन्याकुमारी तीर्थ) कही गयी हैं। कुन्तीकुमार! अब मैं तुमसे ताम्रपर्णी नदी की महिमा का वर्णन करूंगा, सुनो। भरतनन्दन! वहाँ मोक्ष पाने की इच्छा से देवताओं ने आश्रम में रहकर बड़ी भारी तपस्या की थी। वहाँ का गोकर्णतीर्थ तीनों लोकों में विख्यात है। तात! गोकर्णतीर्थ में शीतल जल भरा रहता है। उसकी जलराशि अनन्त है। वह पवित्र, कल्याणमय और शुभ है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है, ऐसे मनुष्यों के लिये गोकर्णतीर्थ अत्यन्त दुर्लभ है। वहाँ अगस्त्य के शिष्य का पुण्यमय आश्रम है, जो वृक्षों और तृण आदि से सम्पन्न एवं फल-मूलों से परिपूर्ण है। देवसम नामक पर्वत ही वह आश्रम है। वहाँ परम सुन्दर मणिमय वैदूर्य पर्वत है, जो शिवस्वरूप है। उसी पर महर्षि अगस्त्य का आश्रम है, जो प्रचुर फल-मूल और जल से सम्पन्न है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाशीतितम अध्याय के श्लोक 19-27 का हिन्दी अनुवाद)

     नरेश्वर! अब मैं सुराष्ट्र (सौराष्ट्र) देशीय पुण्यस्थानों, मन्दिरों, आश्रमों, सरिताओं और सरोवरों का वर्णन करता हूँ। विप्रगण! वहीं चमसोद्भेदतीर्थ की चर्चा की जाती है।
   युधिष्ठिर! सुराष्ट्र में ही समुद्र के तट पर प्रभास क्षेत्र है, जो देवताओं का तीर्थ कहा जाता है। वहीं पिण्डारक नामक तीर्थ है, जो तपस्वीजनों द्वारा सेवित और कल्याणस्वरूप है। उधर ही उज्जयन्त नामक महान् पर्वत है, जो शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाला है।
    युधिष्ठिर! उसके विषय में देवर्षिप्रवर श्रीनारद जी के द्वारा कहा हुआ एक प्राचीन श्लोक सुना जाता है, उसको मुझसे सुनो।
    पुण्यपर्वत पर तपस्या करने वाला पुरुष स्वर्गलोक में पूजित होता है। उज्जयन्त के ही आसपास पुण्यमयी द्वारकापूरी है, जहाँ साक्षात् पुराणपुरुष भगवान् मधुसूदन निवास करते हैं। वे ही सनातन धर्मस्वरूप हैं। जो वेदवेत्ता और अध्यात्मशास्त्र के विद्वान् ब्राह्मण हैं, वे परमात्मा श्रीकृष्ण को ही सनातन धर्मरूप बताते हैं।
       भगवान् गोविन्द पवित्रों को भी पावन करने वाले परमपवित्र कहे जाते हैं। वे पुण्यों के भी पुण्य और मंगलों के भी मंगल हैं। कमलनयन देवाधिदेव सनातन श्रीहरि अविनाशी परमात्मा, व्यथात्मा (क्षरपुरुष), क्षेत्रज्ञ और परमेश्वर हैं। वे अचिन्त्यस्वरूप भगवान् मधुसूदन वहीं द्वारकापुरी में विराजमान हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में धौम्यतीर्थयात्रा विषयक अठासीवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

नवासीवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"धौम्य द्वारा पश्चिम दिशा के तीर्थों का वर्णन"

   धौम्य जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! अब मैं पश्चिम दिशा के आनर्त देश में जो-जो पवित्र तीर्थ और पुण्यस्वरूप देवालय हैं, उन सबका वर्णन करूंगा। भरतनन्दन! पश्चिम दिशा में पुण्यमयी नर्मदा नदी प्रवाहित होती है, जिसकी धारा पूर्व से पश्चिम की ओर है। उसके तट पर प्रियंक्षु और आम के वृक्ष का वन है। बेंत तथा फल वाले वृक्षों की श्रेणियां भी उसकी शोभा बढ़ाती हैं। भरतनन्दन कुरुक्षेत्र! त्रिलोकी में जो-जो पुण्यतीर्थ, मंदिर, नदी, वन, पर्वत ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध, ऋषि, चारण एवं पुण्यात्माओं के समूह हैं, वे सब सदा नर्मदा के जल में स्नान करने के लिये आया करते हैं।
      वहीं मुनिवर विश्रवा का पवित्र आश्रम सुना जाता है, जहाँ पर वाहन धनाध्यक्ष कुबेर का जन्म हुआ था। वैदूर्य शिखर नामक मंगलमय पवित्र पर्वत भी नर्मदा तट पर है, वहाँ हरे-हरे पत्तों से सुशोभित सदा फल और फूलों के भार से लदे हुए वृक्ष शोभा पाते हैं। राजन्! उस पर्वत के शिखर पर पुण्य सरोवर है, जिसमें सदा कमल खिलते हैं। महाराज! देवता और गन्धर्व भी उस पुण्यतीर्थ का सेवन करते हैं। राजन्! देवर्षिगणों से सेवित वह पुण्यपर्वत स्वर्ग के समान सुन्दर एवं सुखद है। वहाँ अनेक आश्चर्य की बातें देखी जाती हैं। शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले नरेश! वहाँ राजर्षि विश्वामित्र की तपस्या से प्रकट हुई एक पुण्यमयी नदी है, जो परम पवित्र तीर्थ मानी गयी है। उसी के तट पर नहुषनन्दन राजा ययाति स्वर्ग से साधु पुरुषों के बीच में गिरे थे और पुनः सनातन धर्ममय लोकों में चले गये थे। वहाँ पुण्यसरोवर, विख्यात मैनाक पर्वत और प्रचुर फल-मूलों से सम्पन्न असित नामक पर्वत है।
      युधिष्ठिर! उसी पर्वत पर कच्छसेन का पुण्यदायक आश्रम है। पाण्डुनन्दन! महर्षि च्यवन का सुविख्यात आश्रम भी वहीं है। प्रभो! वहाँ थोड़ी ही तपस्या से मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। महाराज! पश्चिम दिशा में ही जम्बूमार्ग है, जहाँ शुद्ध अन्तःकरण वाले महर्षियों का आश्रम है। शांत पुरुषों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! वह आश्रम पशु-पक्षियों से सेवित है। राजन्! उधर ही सदा तपस्वीजनों से भरे हुए पुण्यतम तीर्थ- केतुमाला, मेध्या और गंगाद्वार (हरिद्वार) हैं। भूपाल! द्विजों से सेवित सुप्रसिद्ध सैन्धवारण्य भी उधर ही है। ब्रह्मा जी का पुण्यदायक सरोवर पुष्कर भी पश्चिम दिशा में ही है, जो वानप्रस्थों, सिद्धों और महर्षियों का प्रिय आश्रम है। जो मनस्वी पुरुष मन से भी पुष्कर तीर्थ में निवास करने की इच्छा करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह स्वर्गलोक में आनंद भोगता है’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में धौम्यतीर्थयात्रा विषयक नवासीवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

नब्बेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"धौम्य द्वारा उत्तर दिशा के तीर्थों का वर्णन"

    धौम्य जी कहते हैं ;- नृपश्रेष्ठ! उत्तर दिशा में जो पुण्यप्रद तीर्थ और देवालय आदि हैं, उनका तुम से वर्णन करता हूँ। प्रभो! तुम सावधान होकर वह सब मेरे मुख से सुनो! वीरवर तीर्थों की कथा का प्रसंग उनके प्रति मंगलमयी श्रद्धा उत्पन्न करता है। तीर्थों की पंक्ति से सुशोभित सरस्वती नदी बड़ी पुण्यदायिनी है। पाण्डुनन्दन! समुद्र में मिलने वाली महावेगशालिनी यमुना भी उत्तम दिशा में ही है। उधर ही अत्यन्त पुण्यमय प्लक्षावतरण नामक मंगलकारक तीर्थ है; जहाँ ब्राह्मणगण यज्ञ करके सरस्वती के जल से अवभृथस्नान करते और अपने स्थानों को जाते हैं। उधर ही अग्निशिर नामक दिव्य, कल्याणमय, पुण्यतीर्थ बताया जाता है। निष्पाप भरतनन्दन! उसी तीर्थ में सहदेव ने शमी का डंडा फेंकवाकर, जितनी दूरी में वह डंडा पड़ा था उतनी दूरी में, मण्डप बनवाकर उसमें यज्ञ किया। युधिष्ठिर! इसी विषय में इन्द्र की गायी हुए एक गाथा लोक में प्रचलित है, जिसे ब्राह्मण गाया करते हैं।
      कुरुश्रेष्ठ! सहदेव ने यमुना-तट पर लाख स्वर्णमुद्राओं की दक्षिणा देकर अग्नि की उपासना की थी। वहीं महायशस्वी चक्रवती राजा भरत ने पैंतीस अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया। तात! प्राचीन काल में राजा भरत ब्राह्मणों की मनोवांछा को पूर्ण करने वाला राजा सुना गया है। उत्तराखण्ड में ही महर्षि शरभंग का अत्यन्त पुण्यदायक आश्रम विख्यात है। कुन्तीनन्दन! साधु पुरुषों ने सरस्वती नदी की सदा उपासना की है। महाराज! पूर्वकाल में बालखिल्य ऋषियों ने वहाँ यज्ञ किया था। युधिष्ठिर! परम पुण्यमयी दृषद्वती नदी भी उधर ही बतायी गयी है। मनुष्यों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! वहीं न्यग्रोध, पुण्य, पांचाल्य, दाल्भ्यघोष और दाल्भ्य-ये पांच आश्रम हैं तथा अनन्तकीर्ति एवं अमित तेजस्वी महात्मा सुव्रत का पुण्य आश्रम भी उतरांखण्ड में ही बताया जाता है, जो पृथ्वी पर रहकर भी तीनों लोकों मे विख्यात है। नरेश्वर! उत्तराखण्ड में ही विख्यात मुनि नर और नारायण हैं, जो एतावर्ण (श्यामवर्ग-साकार) होते हुए भी वास्तव में अवर्ण (निराकार) ही हैं।
      भरतश्रेष्ठ! ये दोनों मुनि वेदज्ञ, वेद के मर्मज्ञ तथा वेदविद्या के पूर्ण जानकार हैं। इन्होंने पुण्यदायक उत्तम यज्ञों द्वारा शंकर का यजन किया है। पूर्वकाल में इन्द्र, वरुण आदि बहुत-से देवताओं ने मिलकर विशाखयूप नामक स्थान में तप किया था, अतः वह अत्यन्त पुण्यप्रद स्थान है। महाभाग, महायशस्वी और महाप्रभावशाली महर्षि जमदग्नि ने परम सुन्दर तथा पुण्यप्रद पलाशवन में यज्ञ किया था। जिसमें सब श्रेष्ठ नदियां मूर्तिमती हो अपना-अपना जल लेकर उन मुनिश्रेष्ठ के पाय आयीं और उन्हें सब ओर से घेरकर खड़ी हुई थीं।
      वीर महाराज! यहाँ महात्मा जमदग्नि की यह यज्ञदीक्षा देखकर स्वयं गन्धर्वराज विश्वावसु ने इस श्लोक का गान किया था। महात्मा जमनग्नि जब यज्ञ द्वारा देवताओं का यजन कर रहे थे, उस समय उनके यज्ञ में सरिताओं ने आकर मधु से ब्राह्मणों को तृप्त किया। युधिष्ठिर! गिरिश्रेष्ठ हिमालय किरातों और किन्नरों का निवास स्थान है। गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और अप्सराएं उसका सदा सेवन करती हैं। गंगा जी अपने वेग से उस शैलराज को फोड़कर जहाँ प्रकट हुई है, वह पुण्यस्थान गंगाद्वार (हरिद्वार) के नाम से विख्यात है। राजन्! उस तीर्थ का ब्रह्मर्षिगण सदा सेवन करते हैं। कुरुनन्दन! पुण्यमय कनखल में पहले सनत्कुमार ने यात्रा की थी। वहीं पुरु नाम से प्रसिद्ध पर्वत है, जहाँ पूर्वकाल में पुरूरवा ने यात्रा की थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 23-34 का हिन्दी अनुवाद)

       राजन्! महर्षियों से सेवित जिस महान् पर्वत पर भृगु ने तपस्या की थी, वह भृगुतुंग आश्रम के नाम से विख्यात है। भरतश्रेष्ठ! भूत, भविष्य वर्तमान जिनका स्वरूप है, जो सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी, सनातन एवं पुरुषोत्तम नारायण हैं, उन अत्यन्त यशस्वी श्रीहरि की पुण्यमयी विशालापुरी बदरीवन के निकट है। वह नर-नारायण का आश्रम कहा गया है। वह पुण्यप्रद बदरिकाश्रम तीनों लोकों में विख्यात है।
       राजन्! पूर्वकाल से ही विशाला बदरी के समीप गंगा कहीं गर्म जल तथा कहीं शीतल जल प्रवाहित करती है। उनकी बालू सुवर्ण की भाँति चमकती है। वहाँ महाभाग एवं महातेजस्वी देवता तथा महर्षि प्रतिदिन जाकर अमित प्रभावशाली भगवान् नारायण को नमस्कार करते हैं। जहाँ सनातन परमात्मा भगवान् नारायण विराजमान हैं, वहाँ सम्पूर्ण जगत् है और समस्त तीर्थ तथा देवालय हैं। वह बदरिकाश्रम पुण्यक्षेत्र और परब्रह्मस्वरूप है। वही तीर्थ है, वही तपोवन है, वही सम्पूर्ण भूतों का परमदेव परमेश्वर है। वही सनातन परमधाता एवं परमपद है, जिसे जान लेने पर शास्त्रदर्शी विद्वान् कभी शोक नहीं करते हैं। वहीं देवर्षि सिद्ध और समस्त तपोधन महात्मा निवास करते हैं। जहाँ महायोगी आदिदेव भगवान् मधुसूदन विराजमान हैं, वह स्थान पुण्यों का भी पुण्य है। इस विषय में तुम्हें संशय नहीं होना चाहिये।
        राजन्! पृथ्वीपते! नरश्रेष्ठ! ये भूमण्डल के पुण्यतीर्थ और आश्रम आदि कहे गये वसु, साध्य, आदित्य, मरुद्गण, अश्विनीकुमार तथा देवोपम महात्मा मुनि इन सब तीर्थों का सेवन करते हैं।
        कुन्तीनन्दन! तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणों और महान् सौभाग्यशाली भाइयों के साथ इन तीर्थों में विचरते रहोगे तो अर्जुन के लिये तुम्हारे मिलने की उत्कृष्ट इच्छा अर्थात् विरहव्याकुलता शांत हो जायेगी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में धौम्यतीर्थयात्रा विषयक नब्बेवां अध्याय पूरा हुआ)

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