सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के चौरासीवें अध्याय से पचासीवें अध्याय (From the 84 and 85 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

चौरासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"नाना प्रकार के तीर्थों की महिमा"

    पुलस्त्य जी कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर परम उत्तम धर्मतीर्थ की यात्रा करे, जहाँ महाभाग धर्म ने उत्तम तपस्या की थी। राजन्! उन्होंने ही अपने नाम से विख्यात पुण्य तीर्थ की स्थापना की है। वहाँ स्नान करने से मनुष्य धर्मशील एवं एकाग्रचित्त होता है और अपने कुल की सावतीं पीढ़ी तक के लोगों को पवित्र कर देता है; इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! तदनन्तर उत्तम ज्ञानपावन तीर्थ में जाये। वहाँ जाने से मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता और मुनिलोक में जाता है। राजन्! तत्पश्चात् मानव सौगंधिक वन में जाये। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता, तपोधन ऋषि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, किन्नर और बड़े-बड़े नाग निवास करते हैं। उस वन में प्रवेश करते ही मानव सब पापों से मुक्त हो जाता है। उससे आगे सरिताओं में श्रेष्ठ और नदियों में उत्तम नदी परम पुण्यमयी सरस्वती देवी का उद्गम स्थान है, जहाँ वे प्लक्ष (पकड़ी) नामक वृक्ष की जड़ से टपक रही हैं।

    राजन्! वहाँ बांबी से निकले हुए जल में स्नान करना चाहिये। वहाँ देवताओं तथा पितरों की पूजा करने से मनुष्य को अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। वहीं ईशनाध्युषित नामक परम दुर्लभ तीर्थ है। जहाँ बांबी का जल है, वहाँ से इसकी दूरी छः शम्यानिपात है। यह निश्चित माप बताया गया है। नरश्रेष्ठ! उस तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को सहस्र कपिला दान और अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है; इसे प्राचीन ऋषियों ने प्रत्यक्ष अनुभव किया है। भारत! पुरुषरत्न! सुगन्धा, शतकुम्भा तथा पंचयज्ञा तीर्थ में जाकर मानव स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। भरतकुलतिलक! वहीं त्रिशूलखात नामक तीर्थ है; वहाँ जाकर स्नान करे और देवताओं तथा पितरों की पूजा में लग जाये। ऐसा करने वाला मनुष्य देहत्याग के अनन्तर गणपति-पद प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! वहाँ से परमदुर्लभ देवीस्थान की यात्रा करे, वह देवी तीनों लोकों में शाकम्भरी नाम से विख्यात है।

    नरेश्वर! कहते हैं उत्तम व्रत का पालन करने वाली उस देवी ने एक हजार दिव्य वर्षों तक एक-एक महीने पर केवल शाक का आहार किया था। देवी की भक्ति से प्रभावित होकर बहुत-से तपोधन महर्षि वहाँ आये। भारत! उस देवी ने उन महर्षियों का आतिथ्य-सत्कार भी शोक में ही किया था। भारत! तब से उस देवी का ‘शाकम्भरी’ ही नाम प्रसिद्ध हो गया। शाकम्भरी के समीप जाकर मनुष्य ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त और पवित्र हो वहाँ तीन रात तक शाक खाकर रहे तो बारह वर्षों तक शाकाहारी मनुष्य को पुण्य प्राप्त होता है, वह उसे देवी की इच्छा से (तीन ही दिनों में) मिल जाता है। तदनन्तर त्रिभुवनविख्यात सुवर्णतीर्थ की यात्रा करे। वहाँ पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने रुद्रदेव की प्रसन्नता के लिये उनकी अराधना की और उनसे अनेक देवदुर्लभ उत्तम वर प्राप्त किये।

     भारत! उस समय संतुष्टचित्त त्रिपुरारि शिव ने श्रीविष्णु से कहा,,

    शिव जी बोले ;- 'श्रीकृष्ण! तुम मुझे लोक में अत्यन्त प्रिय होओगे। संसार में सर्वत्र तुम्हारी ही प्रधानता होगी, इसमें संशय नहीं है।’ राजेन्द्र! उस तीर्थ मे जाकर भगवान् शंकर की पूजा करने से मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और गणपति पद प्राप्त कर लेता है। वहाँ से मनुष्य धूमावतीतीर्थ को जाये और तीन रात उपवास करे। इससे वह निःसंदेह मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 23-47 का हिन्दी अनुवाद)

    नरेश्वर! देवी से दक्षिणार्थ भाग में रथावर्त नामक तीर्थ है। धर्मज्ञ! जो श्रद्धालु एवं जितेन्द्रिय पुरुष उस तीर्थ की यात्रा करता है, वह महादेव जी के प्रसाद से परम गति प्राप्त कर लेता है। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर महाप्राज्ञ पुरुष उस तीर्थ की परिक्रमा करके धारा की यात्रा करे, जो सब पापों से छुड़ाने वाली है। नरव्याघ्र! नराधिप! वहाँ स्नान करके मनुष्य कभी शोक में नहीं पड़ता है। धर्मज्ञ! वहाँ से महापर्वत हिमालय को नमस्कार करके गंगाद्वार (हरिद्वार) की यात्रा करे, जो स्वर्गद्वार के समान है; इसमें संशय नहीं है। वहाँ एकाग्रचित्त हो कोटितीर्थ में स्नान करे। ऐसा करने वाला मनुष्य पुण्डरीक यज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार करता है।

     वहाँ एक रात निवास करने से सहस्र गोदान का फल मिलता है। सप्तगंग, त्रिकगंग और शक्रावर्ततीर्थ में विधिपूर्वक देवताओं तथा पितरों का तर्पण करने वाला मनुष्य पुण्यलोक में प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर कनखल में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्गलोक में जाता है। नरेश्वर! उसके बाद तीर्थसेवी मनुष्य कपिलवट तीर्थ में जाये। वहाँ रातभर उपवास करने से उसे सहस्र गोदान का फल मिलता है। राजेन्द्र! कुरुश्रेष्ठ! वहीं नागराज महात्मा कपिल का तीर्थ है, जो सम्पूर्ण लोकों में विख्यात है। महाराज! वहाँ नागतीर्थ में स्नान करना चाहिये। इससे मनुष्य को सहस्र कपिला दान का फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् शान्तनु के उत्तम तीर्थ ललितक में जाये। राजन्! वहाँ स्नान करने से मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता।

      जो मनुष्य गंगा-यमुना के बीच संगम (प्रयाग) में स्नान करता है, उसे दस अश्वमेध यज्ञों का फल मिलता है और वह अपने कुल का उद्धार कर देता है। राजेन्द्र! तदनन्तर लोकविख्यात सुगन्धातीर्थ की यात्रा करे। इससे सब पापों से विशुद्धचित्त हुआ मानव ब्रह्मलोक में पूजित होता है। नरेश्वर! तदनन्तर तीर्थसेवी पुरुष रुद्रावर्ततीर्थ में जाये। राजन्! वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोक में जाता है। नरश्रेष्ठ! गंगा और सरस्वती के संगम में स्नान करने से मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्गलोक में जाता है। भगवान् भद्रकर्णेश्वर के समीप जाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करने वाला पुरुष कभी दुर्गति में नहीं पड़ता और स्वर्गलोक में पूजित होता है। नरेन्द्र! तत्पश्चात् तीर्थसेवी मानव कुब्जाम्रक तीर्थ में जाये। वहाँ उसे सहस्र गोदान का फल मिलता है और अंत में वह स्वर्गलोक को जाता है।

     नरपते! तत्पश्चात् तीर्थसेवी अरुन्धतीवट के समीप जाये और सामुद्रकतीर्थ में स्नान करके ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो तीन रात उपवास करे। इससे मनुष्य अश्वमेध यज्ञ और सहस्र गोदान का फल पाता तथा उसके कुल का उद्धार कर देता है। तदनन्तर ब्रह्मचर्यपालनर्पूवक चित्त को एकाग्र करके ब्रह्मवर्ततीर्थ में जाये। इससे वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और सोमलोक को जाता है। यमुनाप्रभव नामक तीर्थ में जाकर यमुना जल में स्नान करके अश्वमेध यज्ञ का फल पाकर मनुष्य स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। दर्वीसंक्रमण नामक त्रिभुवनपूजित तीर्थ में जाने से तीर्थयात्री अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्गलोक में जाता है। सिंधु के उद्गम स्थान में, जो सिद्ध-गन्धवों द्वारा सेवित है, जाकर पांच रात उपवास करने से प्रचुर सुवर्ण राशि की प्राप्ति होती है। तदनन्तर मनुष्य परम दुर्गम वेदीतीर्थ में जाकर अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्गलोक में जाता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 48-71 का हिन्दी अनुवाद)

    भरतनन्दन! ऋषिकुल्या एवं वासिष्ठतीर्थ में जाकर स्नान आदि करके वासिष्ठी को लांघकर जाने वाले क्षत्रिय आदि सभी वर्णों के लोग द्विजाति हो जाते हैं। ऋषिकुल्या में जाकर स्नान करके पापरहित मानव देवताओं और पितरों की पूजा करके ऋषिलोक में जाता है। नरेश्वर! यदि मनुष्य भृगुतुंग में जाकर शाकाहारी हो वहाँ एक मास तक निवास करे तो उसे अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। वीरप्रमोक्षतीर्थ में जाकर मनुष्य उस पापों से छुटकारा पा जाता है। भारत! कृत्तिका और मघा के तीर्थ में जाकर मानव अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञों का फल पाता है। वहीं प्रातः-संध्या के समय परम उत्तम विद्यातीर्थ में जाकर स्नान करने से मनुष्य जहां-कहीं भी विद्या प्राप्त कर लेता है। जो सब पापों से छुड़ाने वाले महाश्रमतीर्थ में एक समय उपवास करके एक रात वहीं निवास करता है, उसे शुभ लोकों की प्राप्ति होती है। जो छठे समय उपवासपूर्वक एक मास तक महालयतीर्थ में निवास करता है, वह सब पापों से शुद्धचित्त हो प्रचुर सुवर्ण राशि प्राप्त करता है। साथ ही दस पहले की और दस बाद की पीढ़ियों का भी उद्धार कर देता है।

     तत्पश्चात् ब्रह्मा जी के द्वारा सेवित वेतसिकातीर्थ में जाकर मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और शुक्राचार्य के लोक में जाता है। इसके बाद इन्द्रियसंयम और ब्रह्मचर्य के पालनपूवर्क ब्राह्मणीतीर्थ में जाने से मनुष्य कमल के समान कांति वाले विमान द्वारा ब्रह्मलोक में जाता है। तदनन्तर सिद्धसेवित पुण्यमय नैमिष (नैमिषारण्य) तीर्थ में जाये। वहाँ देवताओं के साथ ब्रह्मा जी नित्य निवास करते हैं। नैमिषी खोज करने वाले पुरुष का आधा पाप उसी समय नष्ट हो जाता है और उसमें प्रवेश करते ही वह सारे पापों से छुटकारा पा जाता है। धीर पुरुष तीर्थसेवन में तत्पर हो एक मास तक नैमिष में निवास करे। पृथ्वी में जितने तीर्थ है, वे सभी नैमिष में विद्यमान हैं। भारत! जो वहाँ स्नान करके नियमपालनपूर्वक नियमित भोजन करता है, वह गोमेध यज्ञ का फल पाता है। भरतश्रेष्ठ! अपने कुल की सात पीढ़ियों का भी वह उद्धार कर देता है। जो नैमिष में उपवासपूर्वक प्राणत्याग करता है, वह सब लोकों में आनंद का अनुभव करता है; ऐसा मनीषी पुरुषों का कथन है।

     नृपश्रेष्ठ! नैमिषीतीर्थ नित्य, पवित्र और पुण्यजनक है। गंगोदतीर्थ में जाकर तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य वाजपेय यज्ञ का फल पाता और सदा के लिये ब्रह्मीभूत हो जाता है। सरस्वती तीर्थ में जाकर देवता और पितरों का तर्पण करे। इससे तीर्थयात्री सारस्वत लोकों में जाकर आनंद का भागी होता है; इसमें संशय नहीं हैं। तदनन्तर बाहुदा-तीर्थ में जाये और ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो वहाँ एक रात उपवास करे; इससे वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है कुरुनन्दन! उसे देवसत्र यज्ञ का भी फल प्राप्त होता है। वहाँ से क्षीरवती नामक पुण्यतीर्थ में जाये, जो अत्यन्त पुण्यात्मा पुरुषों से भरी हुई है। वहाँ स्नान करके देवता और पितरों के पूजन में लगा हुआ मनुष्य वाजपेय यज्ञ का फल पाता है। वहीं विमलाशोक नामक उत्तम तीर्थ है, वहाँ जाकर ब्रह्मचर्यपालनपर्वूक एकाग्रचित्त हो एक रात निवास करने से मनुष्य स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहाँ से सरयू के उत्तम तीर्थ गोप्रतार में जाये। महाराज! वहाँ अपने सेवकों, सैनिकों और वाहनों के साथ गोते लगाकर उस तीर्थ के प्रभाव से वे वीर श्रीरामचन्द्र जी अपने नित्यधाम को पधारे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 72-96 का हिन्दी अनुवाद)

     भरतनन्दन! नरेश्वर! उस सरयू के गोप्रतारतीर्थ में स्नान करके मनुष्य श्रीरामचन्द्र जी की कृपा और उद्योग से सब पापों से शुद्ध होकर स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। कुरुनन्दन! गोमती के रामतीर्थ में स्नान करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और अपने कुल को पवित्र कर देता है। भरतकुलभूषण! वहीं शतसाहस्रकतीर्थ है। उसमें स्नान करके नियमपालनपूर्वक नियमित भोजन करते हुए मनुष्य सहस्र गोदान का फल प्राप्त करता है। राजेन्द्र! वहाँ से परम उत्तम भर्तृस्थान को जाये। वहाँ जाने से मनुष्य को अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। राजन्! मनुष्य कोटितीर्थ में स्नान करके कार्तिकेय जी का पूजन करने से सहस्र गोदान का फल पाता है और तेजस्वी होता है।

      तदनन्तर वाराणसी (काशी) तीर्थ में जाकर भगवान् शंकर की पूजा करे और कपिलाह्नद में गोता लगाये; इससे मनुष्य को राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। कुरुश्रेष्ठ! अविमुक्त तीर्थ में जाकर तीर्थसेवी मनुष्य देवदेव महादेव जी का दर्शन मात्र करके ब्रह्महत्या से मुक्त हो जाता है। वहीं प्राणोत्सर्ग करके मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है। राजेन्द्र! गोमती और गंगा के लोकविख्यात संगम के समीप मार्कण्डेय जी का दुर्लभ तीर्थ है। उसमें जाकर मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। वहाँ तीनों लोकों में विख्यात अक्षयवट है। उनके समीप पितरों के लिये दिया हुआ सब कुछ अक्षय बताया जाता है। महानदी में स्नान करके जो देवताओं और पितरों का तर्पण करता है, वह अक्षय लोकों को प्राप्त होता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। तदनन्तर धर्मारण्य से सुशोभित ब्रह्मसरोवर की यात्रा करके वहाँ एक रात प्रातःकाल तक निवास करने से मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लेता है।

      ब्रह्मा जी ने उस सरोवर में एक श्रेष्ठ यूप की स्थापना की थी। इसकी परिक्रमा करने से मानव वाजपेय यज्ञ का फल पा लेता है। राजेन्द्र! वहाँ से लोकविख्यात धेनुतीर्थ को जाये। महाराज! वहाँ एक रात रहकर तिल की गौ का दान करे। इससे तीर्थयात्री पुरुष सब पापों से शुद्धचित्त हो निश्चय ही सोमलोक में जाता है। राजन्! वहाँ एक पर्वत पर चरने वाली बछड़े सहित कपिला गौ का विशाल चरणचिह्न आज भी अंकित है। भरतनन्दन! बछड़े सहित उन गौ के चरणचिह्न आज भी वहाँ देखे जाते हैं। भारत! नृपश्रेष्ठ! राजेन्द्र! उन चरणचिह्नों का स्पर्श करके मनुष्य का जो कुछ भी अशुभ कर्म शेष रहता है, वह सब नष्ट हो जाता है। तदनन्तर परम बुद्धिमान् महादेव जी के गृध्रवट नामक स्थान की यात्रा करे और वहाँ भगवान् शंकर के समीप जाकर भस्म से स्नान करे (अपने शरीर में भस्म लगाये)।

     वहाँ यात्रा करने से ब्राह्मण को बारह वर्षों तक व्रत के पालन करने का फल प्राप्त होता है और अन्य वर्ण के लोगों के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। भरतकुलभूषण! तदनन्तर संगीत की ध्वनि से गूंजते हुए उदयगिरी पर जाये। वहाँ सावित्री का चरणचिह्न आज भी दिखायी देता है। उत्तम व्रत का पालन करने वाला ब्राह्मण वहाँ संध्योपासना करे। इससे उसके द्वारा बारह वर्षों तक की संध्योपासना सम्पन्न हो जाती है। भरतश्रेष्ठ! वहीं विख्यात योनिद्वारतीर्थ है, जहाँ जाकर मनुष्य योनिसंकट से मुक्त हो जाता है-उसका पुर्नजन्म नहीं होता। राजन्! जो मानव कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों में गयातीर्थ में निवास करता है, वह अपने कुल की सातवीं पीढ़ी तक को पवित्र कर देता है, इसमें संशय नहीं है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 97-119 का हिन्दी अनुवाद)

    बहुत-से पुत्रों की इच्छा करे। सम्भव है, उनमें से एक भी गया में जाये या अश्वमेध यज्ञ करे अथवा नील वृष का उत्सर्ग ही करे। राजन्! नरेश्वर! तदनन्तर तीर्थसेवी मानव फल्गुतीर्थ में जाये। वहाँ जाने से उसे अश्वमेध का फल मिलता है और बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त होती है। महाराज! तदनन्तर एकाग्रचित्त हो मनुष्य धर्मप्रस्थ की यात्रा करे। युधिष्ठिर! वहाँ धर्मराज का नित्य निवास है। वहाँ कुएं का जल लेकर उससे स्नान करके पवित्र देवताओं और पितरों का तर्पण करने से मनुष्य के सारे पाप छूट जाते हैं और वह स्वर्गलोक में जाता है। वहीं भावितात्मा महर्षि मतंग का आश्रम है। श्रम और शोक का विनाश करने वाले उस सुन्दर आश्रम में प्रवेश करने से मनुष्य गवायन यज्ञ का फल पाता है। वहाँ धर्म के निकट जा उनके श्रीविग्रह का दर्शन और स्पर्श करने से अश्वमेध का फल प्राप्त होता है।

      राजेन्द्र! तदनन्तर परम उत्तम ब्रह्मस्थान को जाये। महाराज! पुरुषोत्तम! वहाँ ब्रह्मा जी के समीप जाकर मनुष्य राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का फल पाता है। नरेश्वर! तदनन्तर तीर्थसेवी मनुष्य राजगृह को जाये। वहाँ स्नान करके वह कक्षीवान् के समान प्रसन्न होता है। उस तीर्थ में पवित्र होकर पुरुष यक्षिणी देवी का नैवेद्य भक्षण करे। यक्षिणी के प्रसाद से वह ब्रह्महत्या से मुक्त हो जाता है। तदनन्तर मणिनाग तीर्थ में जाकर तीर्थयात्री सहस्र गोदान का फल प्राप्त करे। भरतनन्दन! जो मणिनाग का तीर्थप्रसाद (नैवेद्य चरणामृत आदि) का भक्षण करता है, उसे सांप काट ले तो भी उस पर विष का असर नहीं होता। वहाँ एक रात रहने से सहस्र गोदान का फल मिलता है। तत्पश्चात् ब्रह्मर्षि गौतम के प्रिय वन की यात्रा करे। वहाँ अहल्याकुण्ड में स्नान करने से मनुष्य परमगति को प्राप्त होता है। राजन्! गौतम के आश्रय में जाकर मनुष्य अपने लिये लक्ष्मी प्राप्त कर लेता है।

      धर्मज्ञ! वहाँ एक त्रिभुवनविख्यात कूप है, जिसमें स्नान करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। राजर्षिजन का एक कूप है, जिसका देवता भी सम्मान करते हैं। वहाँ स्नान करने से मनुष्य विष्णुलोक में जाता है। तत्पश्चात् सब पापों से छुड़ाने वाले विनशन तीर्थ को जाये, जिससे मनुष्य वाजपेय यज्ञ का फल पाता और सोमलोक को जाता है। गण्डकी नदी सब तीर्थों के जल से उत्पन्न हुई है। वहाँ जाकर तीर्थयात्री अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और सूर्यलोक में जाता है। तत्पश्चात् त्रिलोकी में विख्यात विशल्या नदी के तट पर जाकर स्नान करे। इससे वह अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता और स्वर्गलोक में जाता है।

     धर्मज्ञ महाराज! तदनन्तर वंगदेशीय तपोवन में प्रवेश करके तीर्थयात्री इस शरीर के अन्त में गुह्यकलोक में जाकर निःसन्देह आनंद का भागी होता है। तत्पश्चात् सिद्धसेवित कम्पना नदी में पहुँचकर मनुष्य पुण्डरीक यज्ञ का फल पाता और स्वर्गलोक में जाता है। राजन्! तत्पश्चात् माहेश्वरी धारा की यात्रा करने से तीर्थयात्री को अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है और वह कुल का उद्धार कर देता है। नरेश्वर! फिर देवपुष्करिणी में जाकर मानव कभी दुर्गति में नहीं पड़ता और अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। तदनन्तर ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो सोमपद तीर्थ में जाये। वहाँ माहेश्वर पद में स्नान करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 120-141 का हिन्दी अनुवाद)

      भरतकुलतिलक! वहाँ तीर्थों की विख्यात श्रेणी को एक दुरात्मा असुर कुर्गरूप धारण करके हरकर लिये जाता था। राजन्! यह देखकर सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णु ने उस तीर्थश्रेणी का उद्धार किया। युधिष्ठिर! वहाँ उस तीर्थ कोटि में स्नान करना चाहिये। ऐसा करने वाले यात्री को पुण्डरीक यज्ञ का फल मिलता है और वह विष्णुलोक को जाता है। राजेन्द्र! तदनन्तर नारायण स्थान को जाये। भरतनन्दन! वहाँ भगवान् विष्णु सदा निवास करते हैं। ब्रह्मा आदि देवता, तपोधन ऋषि, आदित्य, वसु तथा रुद्र भी वहाँ रहकर जनार्दन की उपासना करते हैं। उस तीर्थ में अद्भुतकर्मा भगवान् विष्णु शालग्राम के नाम से प्रसिद्ध हैं। तीनों लोकों के स्वामी उन वरदायक अविनाशी भगवान् विष्णु के समीप जाकर मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और विष्णुलोक में जाता है। धर्मज्ञ! वहाँ एक कूप है, जो सब पापों को दूर करने वाला है। उसमें सदा चारों समुद्र निवास करते हैं।

      राजेन्द्र! उसमें निवास करने से मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। सबको वर देने वाले अविनाशी महादेव रुद्र के समीप जाकर मनुष्यों मेघों के आवरण से मुक्त हुए चन्द्रमा की भाँति सुशाभित होता है। नरेश्वर! वहीं जातिस्मर तीर्थ है; जिसमें स्नान करके मनुष्य पवित्र एवं शुद्धचित्त हो जाता है। अर्थात् उसके शरीर और मन की शुद्धि हो जाती है। उस तीर्थ में स्नान करने से पूर्वजन्म की बातों का स्मरण करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है, इसमें संशय नहीं है। माहेश्वरपुर में जाकर भगवान् शंकर की पूजा और उपवास करने से मनुष्य सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

      तत्पश्चात् सब पापों को दूर करने वाले वामनतीर्थ की यात्रा करके भगवान् श्रीहरि के निकट जाये। उनका दर्शन करने से मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। इसके बाद सब पापों से छुड़ाने वाले कुशिकाश्रम की यात्रा करे। वहीं बड़े-बडे़ पापों का नाश करने वाली कौशिकी (कोशी) नदी है। उसके तट पर जाकर स्नान करे। ऐसा करने वाला मानव राजसूय यज्ञ का फल पाता है। राजेन्द्र! तदनन्तर उत्तम चम्पकारण्य (चम्पारन) की यात्रा कर। वहाँ एक रात निवास करने से तीर्थयात्री को सहस्र गोदान का फल मिलता है। तत्पश्चात् परम दुलर्भ ज्योष्ठिल तीर्थ में जाकर एक रात निवास करने से मानव सहस्र गोदान का फल पाता है। पुरुषरत्न! वहाँ पार्वती देवी के साथ महातेजस्वी भगवान् विश्वेश्वर का दर्शन करने से तीर्थयात्री को मित्र और वरुण देवता के लोकों की प्राप्ति होती है, वहाँ तीन रात उपवास करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है। पुरुषश्रेष्ठ! इसके बाद नियमपूर्वक नियमित भोजन करते हुए तीर्थयात्री को कन्यासंवेद्य नामक तीर्थ में जाना चाहिये। इससे वह प्रजापति मनु के लोक को प्राप्त कर लेता है।

      भरतनन्दन! जो लोग कन्यासंवेद्य तीर्थ में थोड़ा-सा भी दान देते हैं, उनके उस दान को उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षि अक्षय बताते हैं। तदनन्तर त्रिलोकविख्यात निश्चीरा नदी की यात्रा करे। इससे अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है और तीर्थयात्री पुरुष भगवान् विष्णु के लोक में जाता है। नरश्रेष्ठ! जो मानव निश्चीरा संगम में दान देते हैं, वे रोग-शोक से रहित इन्द्रलोक में जाते हैं। वहीं तीनों लोकों में विख्यात वसिष्ठ आश्रम है। वहाँ स्नान करने वाला मनुष्य वाजपेय यज्ञ का फल पाता है। तदनन्तर ब्रह्मर्षियों से सेवित देवकूट तीर्थ में जाकर स्नान करे। ऐसा करने वाला पुरुष अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 142-162 का हिन्दी अनुवाद)

     राजेंद्र! तत्पश्चात कौशिक मुनि के कुंड में स्नान के लिए जाये, जहाँ कुशिकनंदन विश्वामित्र ने उत्तम सिद्धि प्राप्त की थी। वीर! भरतकुलभूषण! उस तीर्थ में कौशिका नदी के तट पर एक मास तक निवास करे। ऐसा करने से एक मास में ही अश्वमेध यज्ञ का पुण्यफल प्राप्त हो जाता है। जो सब तीर्थों में उत्तम महाह्नद में स्नान करता है, वह कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता और प्रचुर सुवर्ण राशि प्राप्त कर लेता है। तदनन्तर वीराश्रमनिवासी कुमार कार्तिकेय के निकट जाकर मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। वहाँ वर देने वाले महान् देवता अविनाशी भगवान् विष्णु के निकट जाकर उनका दर्शन और पूजन करे। गिरिराज हिमालय के निकट पितामह सरोवर में जाकर स्नान करने वाले पुरुष को अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है।

      पितामह सरोवर से सम्पूर्ण जगत को पवित्र करने वाली एक धारा प्रवाहित होती है, जो तीनों लोकों में कुमारधारा के नाम से विख्यात है। उसमें स्नान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ मानने लगता है। वहाँ रहकर छठे समय उपवास करने से मनुष्य ब्रह्महत्या से छुटकारा पा जाता है। धर्मज्ञ! तदनन्तर तीर्थसेवन में तत्पर मानव महादेवी गौरी के शिखर पर जाये, जो तीनों लोकों में विख्यात है। नरश्रेष्ठ! उस शिखर पर चढ़कर मानव स्तनकुंड में स्नान करे। स्तनकुंड में अवगाहन करने से वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। उस तीर्थ में स्नान करके देवताओं और पितरों की पूजा करने वाला पुरुष अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और इन्द्रलोक में पूजित होता है। तदनन्तर ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो ताम्रारुण तीर्थ की यात्रा करने से मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और ब्रह्मलोक में जाता है। नन्दिनीतीर्थ में देवताओं द्वारा सेवित एक कूप है। नरेश्वर! वहाँ जाकर स्नान करने से मानव नरमेध यज्ञ का पुण्यफल प्राप्त करता है।

     राजन्! कौशिकी-अरुणा-संगम और कालिका संगम में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है। तदनन्तर उर्वशीतीर्थ, सोमाश्रम और कुम्भकर्णाश्रम की यात्रा करके मनुष्य इस भूतल पर पूजित होता है। कोकामुखतीर्थ में स्नान करके ब्रह्मचर्य एवं संयम-नियम का पालन करने वाला पुरुष पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है। यह बात प्राचीन पुरुषों ने प्रत्यक्ष देखी है। प्राड्नदी तीर्थ में जाने से द्विज कृतार्थ हो जाता है। वह तब पापों से शुद्धचित्त होकर इन्द्रलोक में जाता है। तीर्थसेवी मनुष्य पवित्र ऋषभद्वीप और क्रौंचनिषूदनतीर्थ में जाकर सरस्वती में स्नान करने से विमान पर विराजमान होता है। महाराज! मुनियों से सेवित औद्दालकतीर्थ में स्नान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। परम पवित्र ब्रह्मर्षिसेवित धर्मतीर्थ में जाकर स्नान करने वाला मनुष्य वाजपेय यज्ञ का फल पाता और विमान पर बैठकर पूजित होता है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में पुलस्त्य की तीर्थयात्रा से सम्बन्ध रखने वाला चौरासीवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

पचासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

"गंगासागर, अयोध्या, चित्रकूट, प्रयाग आदि विभिन्न तीर्थों की महिमा का वर्णन और गंगा का माहात्म्य"

    पुलस्त्य जी कहते हैं ;- भीष्म! तदनन्तर प्रातःसंध्या के समय उत्तम संवेद्यतीर्थ में जाकर स्नान करने से मनुष्य विद्या लाभ करता है; इसमें संशय नहीं हैं। राजन्! पूर्वकाल में श्रीराम के प्रभाव से जो तीर्थ प्रकट हुआ, उसका नाम लौहित्यतीर्थ है। उसमें जाकर स्नान करने से मनुष्य को बहुत-सी सुवर्ण राशि प्राप्त होती है। करतोया में जाकर स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। वह ब्रह्मा जी द्वारा की हुई व्यवस्था है। राजेन्द्र! वहाँ गंगासागर संगम में स्नान करने से दस अश्वमेध यज्ञों के फल की प्राप्ति होती है, ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं। राजन्! जो मानव गंगासागर संगम में गंगा के दूसरे पार पहुँचकर स्नान करता है और तीन रात वहाँ निवास करता है, वह सब पापों से छूट जाता है।

   तदनन्तर सब पापों से छुड़ाने वाली वैतरणी की यात्रा करे। वहाँ विरजतीर्थ में जाकर स्नान करने से मनुष्य चन्द्रमा के समान प्रकाशित होता है। उसका पुण्यमय कुल संसार सागर से तर जाता है। वह अपने सब पापों का नाश कर देता है और सहस्र गोदान का फल प्राप्त करके अपने कुल को पवित्र कर देता है। शोण और ज्योतिरथ्या के संगम में स्नान करके जितेन्द्रिय एवं पवित्र पुरुष यदि देवताओं ओर पितरों का तर्पण करे तो वह अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता है। कुरुनन्दन! शोण और नर्मदा के उत्पत्ति स्थान वंशगुल्मतीर्थ में स्नान करके तीर्थयात्री अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। नरेश्वर! कोसला (अयोध्या) में ऋषभतीर्थ में जाकर स्नानपूर्वक तीन रात उपवास करने वाला मानव वाजपेय यज्ञ का फल पाता है। इतना ही नहीं, वह सहस्र गोदान का फल पाता और अपने कुल का भी उद्धार कर देता है। कोसला नगरी (अयोध्या) में जाकर कालतीर्थ में स्नान करे, ऐसा करने से ग्यारह वृषभ-दान का फल मिलता है, इसमें संशय नहीं है। पुष्पवती में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य सहस्र गोदान का फल पाता और अपने कुल को पवित्र कर देता है।

    भरतकुलभूषण! तदनन्तर बदरिकातीर्थ में स्नान करके मनुष्य दीर्घायु पाता और स्वर्गलोक में जाता है। तत्पश्चात् चम्पा में जाकर भागीरथी में तर्पण करे और दण्ड नामक तीर्थ में जाकर सहस्र गोदान का फल प्राप्त करे। तदनन्तर पुण्यशोभिता पुण्यमयी लपेटिका में जाकर स्नान करे। ऐसा करने से तीर्थयात्री वाजपेय यज्ञ का फल पाता और सम्पूर्ण देवताओं द्वारा पूजित होता है। इसके बाद परशुरामसेवित महेन्द्र पर्वत पर जाकर वहाँ रामतीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।

     कुरुश्रेष्ठ कुरुनन्दन! वहीं मतंग का केदार है, उसमें स्नान करने से मनुष्य को सहस्र गोदान का फल मिलता है। श्रीपर्वत पर जाकर वहाँ की नदी के तट पर स्नान करे। वहाँ भगवान् शंकर की पूजा करके मनुष्य को अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। श्रीपर्वत पर देवी पार्वती के साथ महातेजस्वी महादेव जी बड़ी प्रसन्नता के साथ निवास करते हैं। देवताओं के साथ ब्रह्मा जी भी वहाँ रहते हैं। वहाँ देवकुण्ड में स्नान करके पवित्र हो जितात्मा पुरुष अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और परम सिद्धि लाभ करता है। पाड्य देश में देवपूजित ऋषभ पर्वत पर जाकर तीर्थयात्री वाजपेय यज्ञ का फल पाता और स्वर्गलोक में आनंदित होता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 22-43 का हिन्दी अनुवाद)

     राजन्! तदनन्तर अप्सराओं से आवृत कावेरी नदी की यात्रा करे। वहाँ स्नान करने से मनुष्य सहस्र गोदान का फल पाता है। राजेन्द्र! तत्पश्चात् समुद्र के तट पर विद्यमान कन्यातीर्थ (कन्याकुमारी) में जाकर स्नान करे। उस तीर्थ में स्नान करते ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। महाराज! इसके बाद समुद्र के मध्य में विद्यमान त्रिभुवनविख्यात अखिल लोकवंदित गोकर्णतीर्थ में जाकर स्नान करे। जहाँ ब्रह्मा आदि देवता, तपोधन महर्षि, भूत, यक्ष, पिशाच, किन्नर, महानाग, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, मनुष्य, सर्प, नदी, समुद्र और पर्वत-ये सभी उमावल्लभ भगवान् शंकर की उपासना करते हैं। वहाँ भगवान् शिव की पूजा करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और गणपति पद प्राप्त कर लेता है। वहाँ बारह रात निवास करने से मनुष्य का अन्तःकरण पवित्र हो जाता है।

      वहीं गायत्री का त्रिलोकपूजित स्थान है। वहाँ तीन रात निवास करने वाला पुरुष सहस्र गोदान का फल प्राप्त करता है। नरेश्वर! ब्राह्मणों की पहचान के लिये वहाँ प्रत्यक्ष उदाहरण है। राजन्! जो वर्णसंकर योनि में उत्पन्न हुआ है, वह यदि गायत्री मंत्र का पाठ करता है, तो उसके मुख से वह गाथा या गीत की तरह स्वर और वर्णों के नियम से रहित होकर निकलती है अर्थात् वह गायत्री का उच्चारण ठीक नहीं कर सकता। जो सर्वथा ब्राह्मण नहीं है, ऐसा मनुष्य यदि वहाँ गायत्री मन्त्र का पाठ करे तो वहाँ वह मन्त्र लुप्त हो जाता है अर्थात् उसे भूल जाता है। राजन्! वहाँ ब्रह्मर्षि संवर्त की दुर्लभ बावली है। उसमें स्नान करके मनुष्य सुन्दर रूप का भागी और सौभाग्यशाली होता है। तदनन्तर वेणा नदी के तट पर जाकर तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य (मृत्यु के पश्चात्) मोर और हंसों से जुते हुआ विमान को प्राप्त करता है।

      तत्पश्चात् सदा सिद्ध पुरुषों से सेवित गोदावरी के तट पर जाकर स्नान करने से तीर्थयात्री गोमेध यज्ञ का फल पाता और वासुकि के लोक में जाता है। वेणासंगम में स्नान करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञ के फल का भागी होता है। वरदासंगमतीर्थ में स्नान करने से सहस्र गोदान का फल मिलता है। ब्रह्मस्थान में जाकर तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य सहस्र गोदान का फल पाता और स्वर्गलोक में जाता है।। कुशप्लवनतीर्थ में जाकर स्नान करके ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो तीन रात निवास करने वाला पुरुष अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। तदनन्तर कृष्णवेणा के जल से उत्पन्न हुए रमणीय देवकुण्ड में, जिसे जातिस्मर ह्नद कहते हैं, स्नान करे। वहाँ स्नान करने से मनुष्य जातिस्मर (पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करने की शक्ति वाला) होता है। वहाँ सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके देवराज इन्द्र स्वर्ग के सिंहासन पर आसीन हुए थे। भरतनंदन! वहाँ जाने मात्र से यात्री अग्निष्टोम यज्ञ का फल पा लेता है। तत्पश्चात सर्वदेवह्नद में स्नान करने से सहस्र गोदान का फल मिलता है।

     तदनन्तर परम पुण्यमयी वापी और सरिताओं में श्रेष्ठ पयोष्णी में जाकर स्नान करे और देवताओं तथा पितरों के पूजन में तत्पर रहे, ऐसा करने से तीर्थसेवी को सहस्र गोदान का फल मिलता है। राजन्! भरतनन्दन! जो दण्डकारण्य में जाकर स्नान करता है, उसे स्नान करने मात्र से सहस्र गोदान का फल प्राप्त होता है। शरभंग मुनि तथा महात्मा शुक के आश्रम पर जाने से मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता और अपने कुल को पवित्र कर देता है। तदनन्तर परशुरामसेवित शूर्पारकतीर्थ की यात्रा करे। वहाँ रामतीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को प्रचुर सुवर्ण राशि की प्राप्ति होती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 44-66 का हिन्दी अनुवाद)

      सप्तगोदावरतीर्थ में स्नान करके नियम-पालनपूर्वक नियमित भोजन करने वाला पुरुष महान् पुण्य लाभ करता है और देवलोक में जाता है। तत्पश्चात् नियमपालन के साथ-साथ नियमित आहार ग्रहण करने वाला मानव देवपथ में जाकर देवसत्र का जो पुण्य है, उसे पा लेता है। तुंगकारण्य में जाकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इन्द्रियों को अपने वश में रखे। प्राचीन काल में वहाँ सारस्वत ऋषि ने अन्य ऋषियों को वेदों का अध्ययन कराया थ। एक समय उन ऋषियों को सारा वेद भूल गया। इस प्रकार वेदों के नष्ट होने (भूल जाने) पर अंगिरा मुनि का पुत्र ऋषियों के उत्तरीय वस्त्रों (चादरों) में छिपकर सुखपूर्वक बैठ गया (और विधिपूर्वक ॐकार का उच्चारण करने लगा)।

   नियम के अनुसार ॐकार का ठीक-ठीक उच्चारण होने पर, जिसने पूर्वकाल में जिस वेद का अध्ययन एवं अभ्यास किया था, उसे वह सब स्मरण हो आया। उस समय वहाँ बहुत से ऋषि, देवता, वरुण, अग्नि, प्रजापति, भगवान् नारायण और महादेव जी भी उपस्थित थे। महातेजस्वी भगवान् ब्रह्मा ने देवताओं के साथ जाकर परम कांतिमान् भृगु को यज्ञ कराने के काम पर नियुक्त किया। तदनन्तर भगवान् भृगु ने वहाँ सब ऋषियों के यहाँ शास्त्रीय विधि के अनुसार पुनः भलीभाँति अग्निस्थापन कराया। उस समय आज्यभाग के द्वारा विधिपूर्वक अग्नि को तृप्त करके सब देवता और ऋषि क्रमशः अपने-अपने स्थान को चले गये। नृपश्रेष्ठ! उस तुंगकारण्य में प्रवेश करते ही स्त्री या पुरुष सबके पाप नष्ट हो जाते हैं। धीर पुरुष को चाहये कि वह नियमपालनपूर्वक नियमित भोजन करते हुए एक मास तक वहाँ रहे।

    राजन्! ऐसा करने वाला तीर्थयात्री ब्रह्मलोक में जाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। तत्पश्चात् मेघाविकतीर्थ में जाकर देवताओं और पितरों का तर्पण करे; ऐसा करने वाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता और स्मृति एवं बुद्धि को प्राप्त कर लेता है। इस तीर्थ में कालंजर नामक लोकविख्यात पर्वत है, वहाँ देवह्नद नामक तीर्थ में स्नान करने से सहस्र गोदान का फल मिलता है। राजन्! जो कालंजर पर्वत पर स्नान करके वहाँ साधना करता है, वह मनुष्य स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है; इसमें संशय नहीं है। राजन्! तदनन्तर पर्वतश्रेष्ठ चित्रकूट में सब पापों का नाश करने वाली मन्दाकिनी के तट पर पहुँचकर उसमें स्नान करे और देवताओं तथा पितरों की पूजा में लग जाये। इससे वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और परम गति को प्राप्त होता है।

     धर्मज्ञनरेश! तत्पश्चात् तीर्थयात्री परम उत्तम भर्तृस्थान की यात्रा करे, जहाँ महासेन कार्तिकेय जी निवास करते हैं। नृपश्रेष्ठ! वहाँ जाने मात्र से सिद्धि प्राप्त होती है। कोटि-तीर्थ में स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदान का फल पाता है। उसकी परिक्रमा करके तीर्थयात्री मानव ज्येष्ठस्थान को जाये। वहाँ महादेव जी का दर्शन-पूजन करने से वह चन्द्रमा के समान प्रकाशित होता है। भरतकुलभूषण महाराज युधिष्ठिर! वहाँ एक कूप है, जिसमें चारों समुद्र निवास करते हैं। राजेन्द्र! उसमें स्नान करके देवताओं और पितरों के पूजन में तत्पर रहने वाला जितात्मा पुरुष पवित्र हो परमगति को प्राप्त होता है। राजेन्द्र! वहाँ से महान् शृंगवेरपुर की यात्रा करे। महाराज! पूर्वकाल में दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्र जी ने वहीं गंगा पार की थी। महाबाहो! उस तीर्थ में स्नान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक एकाग्र हो गंगाजी में स्नान करके मनुष्य पापरहित होता तथा वाजपेय यज्ञ का फल पाता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 67-93 का हिन्दी अनुवाद)

    तदनन्तर तीर्थयात्री परम बुद्धिमान् महादेव जी के मुंजवट नामक तीर्थ को जाये। भरतनन्दन! उस तीर्थ में महादेव जी के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके परिक्रमा करने से मनुष्य गणपति पद प्राप्त कर लेता है। उक्त तीर्थ में जाकर गंगा में स्नान करने से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। राजेन्द्र! तत्पश्चात् महर्षियों द्वारा प्रशंसित प्रयागतीर्थ में जाये। जहाँ ब्रह्मा आदि देवता, दिशा, दिक्पाल, लोकपाल, साध्य, लोकसम्मानित पितर, सनत्कुमार आदि महर्षि, अंगिरा आदि निर्मल ब्रह्मर्षि, नाग सुपर्ण, सिद्ध, सूर्य, नदी, समुद्र, गन्धर्व, अप्सरा तथा ब्रह्मा जी सहित भगवान् विष्णु निवास करते हैं। वहाँ तीन अग्निकुण्ड हैं, जिसके बीच से सब तीर्थों से सम्पन्न गंगा वेगपूर्वक बहती है।

    त्रिभुवनविख्यात सूर्यपुत्री लोकपावनी यमुना देवी वहाँ गंगा जी के साथ मिली हैं। गंगा और यमुना का मध्य भाग पृथ्वी का जघन माना गया है। ऋषियों ने प्रयाग को जधनस्थानीय उपस्थ बताया है। प्रतिष्ठानपुर (झूसी) सहित प्रयाग, कम्बल और अश्वतर नाग तथा भोगवतीतीर्थ, यह ब्रह्मा जी की वेदी है। युधिष्ठिर! उस तीर्थ में वेद और यज्ञ मूर्तिमान होकर रहते हैं और प्रजापति की उपासना करते हैं। तपोधन ऋषि, देवता और चक्रधर नृपतिगण वहाँ यज्ञों द्वारा भगवान् का यजन करते हैं। भरतनन्दन! इसीलिये तीनों लोकों में प्रयाग को सब तीर्थों की अपेक्षा श्रेष्ठ एवं पुण्यतम बताते हैं। उस तीर्थ में जाने से अथवा उसका नाम लेने मात्र से भी मनुष्य मृत्युकाल के भय और पाप से मुक्त हो जाता है।

   भरतनन्दन! यह देवताओं की संस्कार की हुई यज्ञभूमि है। यहाँ दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान महान् होता है। तात! तुम्हें किसी वैदिक वचन से या लौकिक वचन से भी प्रयाग में मरने का विचार नहीं त्यागना चाहिये। कुरुनन्दन! साठ करोड़ दस हजार तीर्थों का निवास केवल इस प्रयाग में ही बताया गया है। चारों विद्याओं के ज्ञान से जो पुण्य होता है तथा सत्य बोलने वाले व्यक्तियों को जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वह सब गंगा-यमुना के संगम में स्नान करने मात्र प्राप्त हो जाता है। प्रयाग में भोगवती नाम से प्रसिद्ध वासुकि नाग का उत्तम तीर्थ है। जो वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। कुरुनन्दन! वहीं त्रिलोकविख्यात हंसप्रपतन नामक तीर्थ है और गंगा के तट पर दशाश्वमेधिक तीर्थ है। गंगा में जहाँ कहीं भी स्नान किया जाये, सब कुरुक्षेत्र के स्मान पुण्यदायिनी है।

     कनखल में गंगा का स्नान विशेष माहात्म्य रखता है और प्रयाग में गंगा-स्नान का माहात्म्य सब की अपेक्षा बहुत अधिक है। जैसे अग्नि ईधन को जला देती है, उसी प्रकार सैकड़ों निषिद्ध कर्म करके भी यदि गंगास्नान किया जाये तो उसका जल उन सब पापों को भस्म कर देता है। सत्ययुग में सभी तीर्थ पुण्यदायक होते हैं। त्रेता में पुष्कर का महत्त्व है। द्वापर में कुरुक्षेत्र विशेष पुण्यदायक है और कलियुग में गंगा की अधिक महिमा बतायी गयी है। पुष्कर में तप करे, महालय में दान दे, मलय पर्वत में अग्नि पर आरूढ़ हो और भृगुतुंग में उपवास करे। पुष्कर में, कुरुक्षेत्र में, गंगा में तथा प्रयाग आदि मध्यवर्ती तीर्थों में स्नान करके मनुष्य अपने आगे-पीछे की सात-सात पीढ़ियों का उद्धार कर दता है। गंगा जी का नाम लिया जाये तो वह सारे पापों का धो-बहाकर पवित्र कर देती है। दर्शन करने पर कल्याण प्रदान करती है तथा स्नान और जलपान करने पर वह मनुष्य की सात पीढ़ियों को पावन बना देती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 94-112 का हिन्दी अनुवाद)

     राजन्! मनुष्य की हड्डी जब तक गंगाजल का स्पर्श करती है, तब तक वह पुरुष स्वर्गलोक में पूजित होता है। जितने पुण्य-तीर्थ हैं और जितने पुण्य मंदिर हैं, उन सब की उपासना (सेवन) से पुण्यलाभ करके मनुष्य देवलोक का भागी होता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, भगवान् विष्णु से बढ़कर कोई देवता नहीं और ब्राह्मणों से उत्तम कोई वर्ण नहीं है; ऐसा ब्रह्मा जी का कथन है। महाराज! जहाँ गंगा बहती है, वही उत्तम देश है और वही तपोवन है। गंगा के तटवर्ती स्थान को सिद्ध क्षेत्र समझना चाहिये। इस सत्य सिद्धान्त को ब्राह्मण आदि द्विजों, साधु पुरुषों, पुत्र, सुहृदों, शिष्य वर्ग तथा अपने अनुगत मनुष्यों के कान में कहना चाहिये। यह गंगा-महात्मय धन्य, पवित्र, स्वर्गप्रद और परम उत्तम है। वह पुण्यदायक, रमणीय, पावन, उत्तम धर्मसंगत और श्रेष्ठ है। यह महर्षियों का गोपनीय रहस्य है। सब पापों का नाश करने वाला है। द्विजमण्डली में इस गंगा-माहात्मय का पाठ करके मनुष्य निर्मल हो स्वर्गलोक में पहुँच जाता है। यह तीर्थसमूहों की महिमा का वर्णन परम उत्तम, सम्पतिदायक, स्वर्गप्रद, पुण्यकारक, शत्रुओं का निवारण करने वाला, कल्याणकारक तथा मेधशक्तियों को उत्पन्न करने वाला है।
     इस तीर्थ महात्म्य का पाठ करने से पुत्रहीन को पुत्र प्राप्त होता है, धनहीन को धन मिलता है, राजा इस पृथ्वी पर विजय पाता है और सब वैश्य को व्यापार में धन मिलता है। शूद्र मनोवांछित वस्तुएं पाता है और ब्राह्मण इसका पाठ करे तो वह समस्त शास्त्रों का पारंगत विद्वान् होता है। जो मनुष्य तीर्थों के इस पुण्य माहात्म्य को प्रतिदिन सुनता है, वह पवित्र हो पहले के अनेक जन्मों की बातें याद कर लेता है और देहत्याग के पश्चात् स्वर्गलोक में आनंद का अनुभव करता है। भीष्म! मैंने यहाँ गम्य और अगम्य सभी प्रकार के तीर्थों का वर्णन किया है। सम्पूर्ण तीर्थों के दर्शन की इच्छा पूर्ण करने के लिये मनुष्य जहाँ जाना सम्भव न हो, उन अगम्य तीर्थों में मन से यात्रा करे अर्थात् मन से उन तीर्थों का चिन्तन करे। वसुगण, साध्यगण, मरुद्गण, दोनों अश्विनीकुमार तथा देवोपम महर्षियों ने भी पुण्य-लाभ की इच्छा से उन तीर्थों का स्नान किया है।
       उत्तम व्रत का पालन करने वाले कुरुनन्दन! इसी प्रकार तुम भी विधिपूर्वक शौच-संतोषादि नियमों का पालन करते और पुण्य से पुण्य को बढ़ाते हुए उन तीर्थों की यात्रा करो। आस्तिकता और वेदों के अनुशीलन से पहले अपनी इन्द्रियों को पवित्र करके शास्त्रज्ञ साधु पुरुष ही उन तीर्थों को प्राप्त करते हैं। कुरुनन्दन जो ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन नहीं करता, जिसने अपने चित्त को वश में नहीं किया, जो अपवित्र आचार-विचार वाला और चोर है, जिसकी बुद्धि वक्र है, ऐसा मनुष्य श्रद्धा न होने के कारण तीर्थों में स्नान नहीं करता। तुम धर्म और अर्थ के ज्ञाता तथा नित्य सदाचार में तत्पर रहने वाले हो। धर्मज्ञ! तुमने पिता-पितामह-प्रपितामह ब्रह्मा आदि देवता तथा महर्षिगण- इन सबको सदा स्वधर्मपालन से संतुष्ट किया है, अतः इन्द्र के समान तेजस्वी नरेश! तुम वसुओं के लोक में जाओगे। भीष्म! तुम्हें इस पृथ्वी पर विशाल एवं अक्षय कीर्ति प्राप्त होगी।

    नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर भीष्म जी की अनुमति ले संतुष्ट हुए भगवान् पुलस्त्य मुनि प्रसन्न मन से वहीं अन्तर्धान हो गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 113-132 का हिन्दी अनुवाद)

     कुरुश्रेष्ठ! शास्त्र के तात्त्विक अर्थ को जानने वाले भीष्म जी ने महर्षि पुलस्त्य के वचन से (तीर्थयात्रा के लिये) सारी पृथ्वी की परिक्रमा की। महाभाग! इस प्रकार यह सब पापों को दूर करने वाली महापुण्यमयी तीर्थयात्रा प्रतिष्ठानपुर (प्रयाग में) प्रतिष्ठित है। जो इस विधि से (तीर्थयात्रा के उद्देश्य से) सारी पृथ्वी की परिक्रमा करेगा, वह सौ अश्वमेध यज्ञों से भी उत्तम पुण्यफल पाकर देहत्याग के पश्चात् उसका उपभोग करेगा। कुन्तीनन्दन! कुरुप्रवर भीष्म ने पहले जिस प्रकार तीर्थयात्राजनित पुण्य प्राप्त किया था, उससे भी आठ गुने उत्तम धर्म की उपलब्धि तुम्हें होगी। तुम अपने साथ सब ऋषियों को ले जाओगे, इसीलिये तुम्हें आठवाँ पुण्यफल प्राप्त होगा। भरतकुलभूषण कुरुनन्दन! इन सभी तीर्थों में राक्षसों के समुदाय फैले हुए हैं। तुम्हारे सिवा, दूसरे नरेशों ने वहाँ की यात्रा नहीं की है। जो मनुष्य सबेरे उठकर देवर्षि पुलस्त्य द्वारा वर्णित सम्पूर्ण तीर्थों के माहात्म्य से संयुक्त इस प्रसंग का पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।
      महाराज! ऋषिप्रवर, वाल्मीकि, कश्यप, आत्रेय, कुण्डजठर, विश्वामित्र, गौतम, असित, देवल, मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज, वसिष्ठ, उद्दालक मुनि, शौनक तथा पुत्रसहित तपोधनप्रवर व्यास, मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा और महातेजस्वी जाबालि - ये सभी महर्षि, जो तपस्या के धनी हैं, तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहे हैं। इन सबके साथ उक्त तीर्थों में जाओ। महाराज! ये अमितेजस्वी महर्षि लोमश तुम्हारे पास आने वाले हैं, उन्हें साथ लेकर यात्रा करो। धर्मज्ञ! इस यात्रा में मैं भी तुम्हारा साथ दूंगा। प्राचीन राजा महाभिष के समान तुम भी क्रमशः इन तीर्थों में भ्रमण करते हुए महान् यश प्राप्त करोगे।
     नृपश्रेष्ठ! जैसे धर्मात्मा ययाति तथा राजा पुरूरवा थे, वैसे ही तुम भी अपने धर्म से सुशोभित हो रहे हो। जैसे राजा भगीरथ तथा विख्यात महाराज श्रीराम हो गये हैं, उसी प्रकार तुम भी सूर्य की भाँति सब राजाओं से अधिक शोभा पा रहे हो। महाराज! जैसे मनु, जैसे इक्ष्वाकु, जैसे महायशस्वी पूरू और जैसे वेननन्दन पृथु हो गये हैं, वैसी ही तुम्हारी भी ख्याति है। पूर्वकाल में वृत्रासुरविनाशक देवराज इन्द्र ने जैसे सब शत्रुओं का संहार करते हुए निश्चिंत होकर तीनों लोकों का पालन किया था, उसी प्रकार तुम भी शत्रुओं का नाश करके प्रजा का पालन करोगे। कमलनयन नरेश! तुम अपने धर्म से जीती हुई पृथ्वी पर अधिकार प्राप्त करके स्वधर्मपालन द्वारा कीर्तवीर्य अर्जुन के समान विख्यात होओगे।
    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महाराज जनमेजय! देवर्षि नारद इस प्रकार राजा युधिष्ठिर को आश्वासन देकर उनकी आज्ञा ले वहीं अन्तर्धान हो गये। धर्मात्मा युधिष्ठिर ने भी इसी विषय का चिन्तन करते हुए अपने पास रहने वाले महर्षियों से तीर्थयात्रासम्बन्धी महान् पुण्य के विषय में निवेदन किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में महर्षि पुलस्त्य की तीर्थयात्रा के सम्बन्ध में नारदवाक्य विषयक पचासीवां अध्याय पूरा हुआ)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें