सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर के पास देवर्षि नारद का आगमन और तीर्थयात्रा के फल के सम्बन्ध में पूछने पर नारद जी द्वारा भीष्म-पुलस्त्य-संवाद की प्रस्तावना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धनंजय के लिये उत्सुक द्रौपदी सहित सब भाईयों के पूर्वोक्त वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर का भी मन बहुत उदास हो गया। इतने में ही उन्होंने देखा, महात्मा देवर्षि नारद वहाँ उपस्थित हैं, जो अपने ब्रह्मतेज से देदीप्यमान हो घी की आहुति से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे हैं। उन्हें आया देख भाइयों सहित धर्मराज ने उठकर उन महात्मा का यथायोग्य सत्कार किया। अपने भाइयों से घिरे हुए अत्यन्त तेजस्वी कुरुश्रेष्ठ श्रीमान् युधिष्ठिर से देवताओं से घिरे हुए देवराज इन्द्र की भाँति सुशोभित हो रहे थे। जैसे गायत्री चारों वेदों का और सूर्य की प्रभा मेरु पर्वत का त्याग नहीं करती, उसी प्रकार याज्ञसेनी द्रौपदी ने भी धर्मतः अपने पति कुन्तीकुमारों का परित्याग नहीं किया।
निष्पाप जनमेजय! उनकी यह पूजा ग्रहण करके देवर्षि भगवान् नारद ने धर्मपुत्र युधिष्ठिर को उचित सान्त्वना दी। तत्पश्चात् वे महात्मा धर्मराज युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले,
देवर्षि नारद बोले ;- ‘धर्मात्माओं में श्रेष्ठ नरेश! बोलो, तुम्हें किस वस्तु की आवश्यकता है? मैं तुम्हें क्या दूं?’ तब भाइयों सहित धर्मनन्दन राजा युधिष्ठिर ने देवतुल्य नारद जी को प्रमाण करके हाथ जोड़कर कहा,,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘महाभाग! उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! सम्पूर्ण विश्व के द्वारा पूजित आप महात्मा के संतुष्ट होने पर मैं ऐसा समझता हूँ कि आपकी कृपा से मेरा सब कार्य पूरा हो गया। निष्पाप मुनिश्रेष्ठ! यदि भाइयों सहित मैं आपकी कृपा का पात्र होऊं तो आप मेरे संदेह को सम्यक् प्रकार से नष्ट कर दीजिये। जो मनुष्य तीर्थयात्रा में तत्पर होकर इस पृथ्वी की परिक्रमा करता है, उसे क्या फल मिलता है? यह आप पूर्णरूप से बताने की कृपा करें’।
नारद जी ने कहा ;- 'राजन्! सावधान होकर सुनो, बुद्धिमान् भीष्म जी ने महर्षि पुलस्त्य के मुख से ये सब बातें जिस प्रकार सुनी थीं, वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूं। महाभाग! पहले की बात है, देवताओं और गन्धर्वों से सेवित गंगाद्वार (हरिद्वार) तीर्थ में भागीरथी के पवित्र, शुभ एवं देवर्षि सेवित तट-प्रवेश में श्रेष्ठ धर्मात्मा भीष्म जी पितृसम्बन्धी (श्राद्ध, तर्पण आदि) व्रत का आश्रय ले महर्षियों के साथ रहते थे। परम तेजस्वी भीष्म जी ने वहाँ शास्त्रीय विधि के अनुसार देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण किया। कुछ समय के बाद जब महायशस्वी भीष्म जी जप में लगे हुए थे, अपने पास ही उन्होंने अद्भुत तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य जी को देखा। वे उग्र तपस्वी महर्षि तेज से देदीप्यमान हो रहे थे। उन्हें देखकर भीष्म जी को अनुपम प्रसन्नता प्राप्त हुई तथा वे बड़े आश्चर्य में पड़ गये।
भारत! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भीष्म ने वहाँ उपस्थित हुए महाभाग महर्षि का शास्त्रोक्त विधि से पूजन किया। उन्होंने पवित्र एवं एकाग्रचित्त होकर (पुलस्त्य जी के दिये हुए) अर्घ्य को सिर पर धारण करके उन ब्रह्मर्षिश्रेष्ठ पुलस्त्य जी को अपने नाम का इस प्रकार परिचय दिया,,
भीष्म बोले ;- ‘सुव्रत! आपका भला हो, मैं आपका दास भीष्म हूँ। आपके दर्शनमात्र से मैं सब पापों से मुक्त हो गया’। महाराज युधिष्ठिर! धनुर्धारियों में श्रेष्ठ एवं वाणी को संयम में रखने वाले भीष्म ऐसा कहकर हाथ जोड़े चुप हो गये। कुरुकुलशिरोमणि भीष्म को नियम, स्वाध्याय तथा वेदोक्त कर्मों के अनुष्ठान से दुर्बल हुआ देख पुलस्त्य मुनि मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में युधिष्ठिर-नारद संवाद विषयक इक्यासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"भीष्म जी के पूछने पर पुलस्त्य जी का उन्हें विभिन्न तीथों की यात्रा का माहात्म्य बताना"
पुलस्त्य जी ने कहा ;- 'धर्मज्ञ! उत्तम व्रत का पालन करने वाले महाभाग! तुम्हारे इस विनय, इन्द्रियसंयम और सत्यपालन से मैं बहुत संतुष्ट हूँ। निष्पाप वत्स! तुम्हारे द्वारा पितृभक्ति के आश्रित हो ऐसे उत्तम धर्म का पालन हो रहा है, इसी के प्रभाव से तुम मेरा दर्शन कर रहे हो और तुम पर मेरा बहुत प्रेम हो गया है। निष्पाप कुरुश्रेष्ठ भीष्म! मेरा दर्शन अमोघ है। बोलो, मैं तुम्हारे किस मनोरथ की पूर्ति करूं? तुम जो मांगोगे, वहीं दूंगा।'
भीष्म जी ने कहा ;- महाभाग! आप सम्पूर्ण लोकों द्वारा पूजित हैं। आपके प्रसन्न हो जाने पर मुझे क्या नहीं मिला? आप जैसे शक्तिशाली महर्षि का मुझे दर्शन हुआ, इतने ही से मैं अपने को कृतकृत्य मानता हूँ। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महर्षे! यदि मैं आपकी कृपा का पात्र हूँ तो मैं आपके सामने अपना संशय रखता हूँ। आप उसका निवारण करें। मेरे मन में तीर्थों से होने वाले धर्म के विषय में कुछ संशय हो गया है, मैं उसी का समाधान सुनना चाहता हूं; आप बताने की कृपा करें। देवतुल्य ब्रह्मर्षे! जो (तीर्थों के उद्देश्य से) सारी पृथ्वी की परिक्रमा करता है, उसे क्या फल मिलता है? यह निश्चित करके मुझे बताइये।'
पुलस्त्य जी ने कहा ;- 'वत्स! तीर्थयात्रा ऋर्षियों के लिये बहुत बड़ा आश्रय है। मैं इसके विषय में तुम्हें बताऊंगा। तीर्थों के सेवन से जो फल होता है, उसे एकाग्र होकर सुनो। जिसके हाथ, पैर और मन अपने काबू में हों तथा जो विद्या, तप और कीर्ति से सम्पन्न हो, वही तीर्थसेवन का फल पाता है। जो प्रतिग्रह से दूर रहे तथा जो कुछ अपने पास हो, उसी से संतुष्ट रहे और जिस में अहंकार का भाव न हो, वही तीर्थ का फल पाता है। जो दम्भ आदि दोषों से दूर, कर्तृत्व के अहंकार से शून्य, अल्पाहारी और जितेन्द्रिय हो, वह सब पापों से विमुक्त हो तीर्थ के वास्तविक फल का भागी होता है। ऋषियों ने देवताओं के उद्देश्य से यथायोग्य यज्ञ बताये हैं और उन यज्ञों का यथावत फल भी बताया है, जो इहलोक और परलोक में भी सर्वथा प्राप्त होता है। परंतु भूपाल! दरिद्र मनुष्य उन यज्ञों का अनुष्ठान नहीं कर सकते; क्योंकि उनमें बहुत सी सामग्रियों की आवश्यकता होती है। नाना प्रकार के साधनों का संग्रह होने से उनमें विस्तार बहुत बढ़ जाता है। अतः राजा लोग अथवा कहीं-कहीं कुछ समृद्धिशाली मनुष्य ही यज्ञों का अनुष्ठान कर सकते हैं। जिनके पास धन की कमी और सहायकों का अभाव होता है, जो अकेले और साधनशून्य हैं, उनके द्वारा यज्ञों का अनुष्ठान नहीं हो सकता।
योद्धाओं में श्रेष्ठ नरेश्वर! जो सत्कर्म दरिद्र लोग भी कर सकें और जो अपने पुण्यों द्वारा यज्ञों के समान फलप्रद हो सके, उसे बताता हूं, सुनो। भरतश्रेष्ठ! यह ऋषियों का परम गोपनीय रहस्य है। तीर्थयात्रा बड़ा पवित्र सत्कर्म है। वह यज्ञों से भी बढ़कर है। मनुष्य इसीलिये दरिद्र होता है कि वह (तीथों में) तीन रात तक उपवास नहीं करता, तीर्थों की यात्रा नहीं करता और सुवर्ण-दान और गोदान नहीं करता। मनुष्य तीर्थयात्रा में जिस फल को पाता है, उसे प्रचुर दक्षिणा वाले अग्निष्टोम आदि यज्ञों द्वारा यजन करके भी नहीं पा सकता।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 20-42 का हिन्दी अनुवाद)
मनुष्यलोक में देवाधिदेव ब्रह्मा जी का त्रिलोकविख्यात तीर्थ है, जो ‘पुष्कर’ नाम से प्रसिद्ध है। उसमें कोई बड़भागी मनुष्य ही प्रवेश कर पाता है। महामते कुरुनन्दन! पुष्कर में तीनों समय दस सहस्र कोटि (दस खरब) तीर्थों का निवास रहता है। विभो! वहाँ आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, मरुद्गण, गन्धर्व और अप्सराओं की नित्य संनिधि रहती है। महाराज! वहाँ तप करके देवता, दैत्य और ब्रह्मर्षि महान् पुण्य से सम्पन्न हो दिव्य योग से युक्त होते हैं। जो मनस्वी पुरुष मन से ही पुष्कर तीर्थ में जाने की इच्छा करता है, उसके स्वर्ग के प्रतिबन्धक सारे पाप मिट जाते हैं और वह स्वर्गलोक में पूजित होता है।
महाराज! उस तीर्थ में कमलासन भगवान् ब्रब्रह्मा जी नित्य ही बड़ी प्रसन्नता के साथ निवास करते हैं। महाभाग! पुष्कर में पहले देवता तथा ऋषि महान् पुण्य सम्पन्न हो सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। जो वहाँ स्नान करता तथा देवताओं ओर पितरों की पूजा में संलग्न रहता है, उस पुरुष को अश्वमेध से दस गुना फल प्राप्त होता है; ऐसा मनीषीगण कहते हैं। भीष्म! पुष्कर में जाकर कम से कम ब्राह्मण को अवश्य भोजन कराये। उस पुण्यकर्म से मनुष्य इहलोक और परलोक में भी आनंद का भागी होता है। मनुष्य साग, फल तथा मूल जिसके द्वारा स्वयं प्राणयात्रा का निर्वाह करता है, वही श्रद्धाभाव से दूसरों के दोष न देखते हुए ब्राह्मणों को दान करे। उसी से विद्वान् पुरुष अश्वमेघ यज्ञ का फल पाता है।
नृपश्रेष्ठ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, अथवा शुद्र जो कोई भी महात्मा ब्रह्मा जी के तीर्थ में स्नान कर लेते हैं, वे फिर किसी योनि में जन्म नहीं लेते हैं। विशेषतः कार्तिक मास की पूर्णिमा को जो पुष्कर तीर्थ में स्नान के लिये जाता है, वह मनुष्य ब्रह्मधर्म में अक्षय लोकों को प्राप्त होता है। स्त्री अथवा पुरुष ने जन्म से लेकर वर्तमान अवस्था तक जितने भी पाप किये हैं, पुष्कर तीर्थ में स्नान करने मात्र वे सब पाप नष्ट हो जाते हैं। राजन्! जैसे भगवान् मधुसूदन (विष्णु) सब देवताओं के आदि हैं, वैसे ही पुष्कर सब तीर्थों का आदि कहा जाता है। पुष्कर में पवित्रतापूर्वक संयम-नियम के साथ बारह वर्षों तक निवास करके मानव सम्पूर्ण यज्ञों का फल पाता और ब्रह्मलोक को जाता है। जो पूरे सौ वर्षो तक अग्निहोत्र करता है और जो कार्तिक की एक ही पूर्णिमा को पुष्कर में वास करता है, दोनों का फल बराबर है।
तीन शुभ्र पर्वत शिखर, तीन सोते और तीन पुष्कर- ये आदिसिद्ध तीर्थ हैं। ये कब किस कारण से तीर्थ माने गये? इसका हमें पता नहीं है। पुष्कर में जाना अत्यन्त दुर्लभ है, पुष्कर में तप अत्यन्त दुलर्भ है, पुष्कर में दान देने का सुयोग तो और भी दुलर्भ है और उसमें निवास का सौभाग्य तो अत्यन्त ही दुष्कर है। वहाँ इन्द्रियसंयम और नियमित आहार करते हुए बारह रात रहकर तीर्थ की परिक्रमा करने के पश्चात् जम्बूमार्ग को जाये। जम्बूमार्ग देवताओं, ऋषियों तथा पितरों से सेवित तीर्थ है। उसमें जाकर मनुष्य समस्त मनोवांछित भागों से उत्पन्न हो अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। वहाँ पांच रात निवास करने से मनुष्य का अन्तःकरण पवित्र हो जाता है। उसे कभी दुर्गति नहीं प्राप्त होती, वह उत्तम सिद्धि पा लेता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद)
जम्बूमार्ग से लौटकर मनुष्य तन्दुलिका आश्रम को जाये। इससे वह दुर्गति में नहीं पड़ता और अन्त में ब्रह्मलोक को चला जाता है। राजन्! जो अगस्त्य सरोवर जाकर देवताओं और पितरों के पूजन में तत्पर हो तीन रात उपवास करता है, वह अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता है। जो शाकाहार या फलाहार करके वहाँ रहता है, वह परम उत्तम कुमारलोक (कार्तिकेय के लोक) में जाता है। वहाँ से लोकपूजित कण्व के आश्रम में जाये, जो भगवती लक्ष्मी के द्वारा सेवित है।
भरतश्रेष्ठ! वह धर्मारण्य कहलाता है, उसे परम पवित्र एवं आदितीर्थ माना गया है। उसमें प्रवेश करने मात्र से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। जो वहाँ नियमपूर्वक मिताहारी होकर देवता और पितरों की पूजा करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं से सम्पन्न यज्ञ का फल पाता है। तदनन्तर उस तीर्थ की परिक्रमा करके वहाँ से ययातिपतन नामक तीर्थ में जाये। वहाँ जाने से यात्री को अवश्य ही अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। वहाँ से महाकाल तीर्थ को जाये। वहाँ नियमपूर्वक रहकर नियमित भोजन करे। वहाँ कोटितीर्थ में आचमन (एवं स्नान) करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। वहाँ से धर्मज्ञ पुरुष उमावल्लभ भगवान् स्थाणु (शिव) के उस तीर्थ में जाये, जो तीनों लोकों में ‘भद्रवट’ के नाम से प्रसिद्ध है। वहाँ भगवान् शिव का निकट से दर्शन करके नरश्रेष्ठ यात्री एक हजार गोदान का फल पाता है और महादेव जी के प्रसाद से वह गणों का अधिपत्य प्राप्त कर लेता है, जो अधिपत्य भारी समृद्धि और लक्ष्मी से सम्पन्न तथा शत्रुजनित बाधा से रहित होता है। वहाँ से त्रिभुवनविख्यात नर्मदा नदी के तट पर जाकर देवताओं और पितरों का तपर्ण करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इन्द्रियों को काबू में रखकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए दक्षिण समुद्र की यात्रा करने से मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञ का फल और विमान पर बैठने का सौभाग्य पाता है।
इन्द्रियसंयम या शौच-संतोष आदि के पालनपूर्वक नियमित आहार का सेवन करते हुए चर्मण्वती (चंबल) नदी में स्नान आदि करने से राजा रन्तिदेव द्वारा अनुमोदित अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर! वहाँ से आगे हिमालयपुत्र अर्बुद (आबू) की यात्रा करे, यहाँ पहले पृथ्वी में विवर था। वहाँ महर्षि वसिष्ठ का त्रिलोकविख्यात आश्रम है, जिसमें एक रात रहने से सहस्र गोदान का फल मिलता है। नरश्रेष्ठ! पिंगतीर्थी में स्नान एवं आचमन करके ब्रह्मचारी एवं जितेन्द्रिय मनुष्य सौ कपिलाओं के दान का फल प्राप्त कर लेता है। राजेन्द्र! तदनन्तर उत्तम प्रभास तीर्थ में जाये।
वीर! उस तीर्थ में देवताओं के मुख्य स्वरूप भगवान् अग्निदेव, जिनके सारथि वायु हैं, सदा निवास करते हैं। उस तीर्थ में स्नान करके शुद्ध एवं संयतचित्त हो मानव अतिरात्र और अग्निष्टोम यज्ञों का फल पाता है। तदनन्तर सरस्वती और समुद्र के संगम में जाकर स्नान करने से मनुष्य सहस्र गोदान का फल और स्वर्गलोक पाता है। भरतश्रेष्ठ! वह पुण्यात्मा पुरुष अपने तेज से सदा अग्नि की भाँति प्रकाशित होता है। मनुष्य शुद्धचित्त हो जलों के स्वामी वरुण के तीर्थ (समुद्र) में स्नान करके वहाँ तीन रात रहे और प्रतिदिन नहाकर देवताओं तथा पितरों का तर्पण करे। ऐसा करने वाला यात्री चन्द्रमा के समान प्रकाशित होता है। साथ ही उसे अश्वमेध का फल मिलता है। भरतश्रेष्ठ! वहाँ से वरदानतीर्थ में जाये।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 64-87 का हिन्दी अनुवाद)
युधिष्ठिर! यह वह स्थान है, जहाँ मुनिवर दुर्वासा ने श्रीकृष्ण को वरदान दिया था। वरदानतीर्थ में स्नान करने से मानव सहस्र गोदान का फल पाता है। वहाँ से तीर्थयात्री को द्वारका जाना चाहिये। वह नियम से रहे और नियमित भोजन करे। पिण्डारकतीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को अधिकाधिक सुवर्ण की प्राप्ति होती है। महाभाग! उस तीर्थ में आज भी कमल के चिह्नों से चिह्नित सुर्वणमुद्राएं देखी जाती हैं। शत्रुदमन! यह एक अद्भुत बात है। पुरुषरत्न कुरुनन्दन! जहाँ त्रिशूल से अंकित कमल दृष्टिगोचर होते हैं, वहीं महादेव जी का निवास है। भारत! सागर और सिन्धु नदी के संगम में जाकर वरुणतीर्थ में स्नान करके शुद्धचित्त हो देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण करे। भरतकुलतिलक! ऐसा करने से मनुष्य दिव्य दीप्ति देदीप्यमान वरुणलोक को प्राप्त करता है।
युधिष्ठिर! वहाँ शंकुकर्णेश्वर शिव की पूजा करने से मनीषी पुरुष अश्वमेध से दस गुने पुण्यफल की प्राप्ति बताते हैं। भरतवंशावंतस कुरुश्रेष्ठ! उनकी परिक्रमा करके त्रिभुवन-विख्यात ‘दमी’ नामक तीर्थ में जाये, जो सब पापों का नाश करने वाला है। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता भगवान् महेश्वर की उपासना करते हैं। वहाँ स्नान, जलपान और देवताओं से घिरे हुए रुद्रदेव का दर्शन पूजन करने से स्नानकर्ता पुरुष के जन्म से लेकर वर्तमान समय तक के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। नरश्रेष्ठ! भगवान् दमी का सभी देवता स्तवन करते हैं। पुरुषसिंह! वहाँ स्नान करने से अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है। महाप्राज्ञ नरेश! सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णु ने पहले दैत्यों-दानवों का वध करके इसी तीर्थ में जाकर (लोकसंग्रह के लिये) शुद्धि की थी।
धर्मज्ञ! वहाँ से वसुधारातीर्थ में जाये, जो सबके द्वारा प्रशंसित है। वहाँ जाने मात्र से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। कुरुश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करके शुद्ध और समाहित चित्त होकर देवताओं और पितरों का तर्पण करने से मनुष्य विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। भरतश्रेष्ठ! उस तीर्थ में वसुओं का पवित्र सरोवर है। उसमें स्नान और जलपान करने से मनुष्य वसु देवताओं का प्रिय होता है। नरश्रेष्ठ! वहीं सिन्धूत्तम नाम से प्रसिद्ध तीर्थ है, जो सब पापों का नाश करने वाला है। उसमें स्नान करने से प्रचुर स्वर्ण राशि की प्राप्ति होती है। भद्रतुंगतीर्थ में जाकर पवित्र एवं सुशील पुरुष ब्रह्मलोक में जाता और वहाँ उत्तम गति पाता है। शक्रकुमारिका तीर्थ सिद्ध पुरुषों द्वारा सेवित है। वहाँ स्नान करके मनुष्य शीघ्र ही स्वर्गलोक प्राप्त कर लेता है। वहीं सिद्धसेवित रेणुका तीर्थ है, जिसमें स्नान करके ब्राह्मण चन्द्रमा के समान निर्मल होता है। तदनन्तर शौच-संतोष आदि नियमों का पालन और नियमित भोजन करते हुए पंचनद तीर्थ में जाकर मनुष्य पंच महायज्ञों का फल पाता है जो शास्त्रों में क्रमशः बतलाये गये हैं।
राजेन्द्र! वहाँ से भीमा के उत्तम स्थान की यात्रा करे! भरतश्रेष्ठ! वहाँ योनितीर्थ मे स्नान करके मनुष्य देवी का पुत्र होता है। उसकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्णकुण्डल के समान होती है। राजन्! उस तीर्थ के सेवन से मनुष्य को सहस्र गोदान का फल मिलता है। त्रिभुवनविख्यात श्रीकुण्ड में जाकर ब्रह्मा जी को नमस्कार करने से सहस्र गोदान का फल प्राप्त होता है। धर्मज्ञ! वहाँ से परम उत्तम विमलतीर्थ की यात्रा करे, जहाँ आज भी सोने और चांदी के रंग की मछलियां दिखायी देती हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 88-111 का हिन्दी अनुवाद)
उसमें स्नान करने से मनुष्य शीघ्र ही इन्द्रलोक को प्राप्त होता है और पापों से शुद्ध हो परमगति प्राप्त कर लेता है। भारत! वितस्तातीर्थ (झेलम) में जाकर वहाँ देवताओं और पितरों का तर्पण करने से मनुष्य को वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। काश्मीर में ही नागराज तक्षक का वितस्ता नाम से प्रसिद्ध भवन है, जो सब पापों का नाश करने वाला है। वहाँ स्नान करने से मनुष्य निश्चय ही वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त करता है और सब पापों से शुद्ध हो उत्तम गति का भागी होता है। वहाँ से त्रिभुवनविख्यात वडवातीर्थ को जाये। वहाँ पश्चिम संध्या के समय विधिपूर्वक स्नान और आचमन करके अग्निदेव को यथाशक्ति चरु निवेदन करे। वहाँ पितरों के लिये दिया हुआ दान अक्षय होता है; ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं।
राजन्! वहाँ देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व, अप्सरा, गुह्यक, किन्नर, यक्ष, सिद्ध, विद्याधर, मनुष्य, राक्षस, दैत्य, रुद्र और ब्रह्म-इन सब ने नियमपूर्वक सहस्र वर्षों के लिये उत्तम दीक्षा ग्रहण करके भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये चरु अर्पण किया। ऋग्वेद के सात-सात मन्त्रों द्वारा सब ने चरु की सात-सात आहुतियां दीं और भगवान् केशव को प्रसन्न किया। उन पर प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अष्टगुण-ऐश्वर्य अर्थात् अणिमा आदि आठ सिद्धियां प्रदान कीं। महाराज! तत्पश्चात् उनकी इच्छा के अनुसार अन्यान्य वर देकर भगवान् केशव वहाँ से उसी प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे मेघों की घटा से बिजली तिरोहित हो जाती है। भारत! इसीलिये वह तीर्थ तीनों लोकों में सप्तचरु के नाम से विख्यात है। वहाँ अग्नि के लिये दिया हुआ चरु एक लाख गोदान, सौ राजसूय यज्ञ और सहस्र अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक कल्याकारी है।
राजेन्द्र! वहाँ से लौटकर रुद्रपद नामक तीर्थ में जाये। वहाँ महादेव जी की पूजा करके तीर्थयात्री पुरुष अश्वमेध का फल पाता है। राजन्! एकाग्रचित्त हो ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक मणिमान् तीर्थ में जाये और वहाँ एक रात निवास करे। इससे अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है। भरतवंशशिरोमणे! राजेन्द्र! वहाँ से लोकविख्यात देविकातीर्थ की यात्रा करे, जहाँ ब्राह्मणों की उत्पत्ति सुनी जाती है। वहाँ त्रिशूलपाणि भगवान् महेश्वर का पूजन और उन्हें यथाशक्ति चरु निवेदन करके सम्पूर्ण कामनाओं से समृद्ध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है। वहाँ भगवान् शंकर का देवसेवित कामतीर्थ है। भारत! उसमें स्नान करके मनुष्य शीघ्र मनोवांछित सिद्धि प्राप्त कर लेता है। वहाँ यजन, याजन तथा वेदों का स्वाध्याय करके अथवा वहाँ की बालू, पुष्प एवं जल का स्पर्श करके मृत्यु को प्राप्त हुआ पुरुष शोक से पार हो जाता है। वहाँ पांच योजन लम्बी और आधा योजन चौड़ी पवित्र वेदिका है, जिसका देवता तथा ऋषि-मुनि भी सेवन करते हैं।
धर्मज्ञ! वहाँ से क्रमशः ‘दीर्घसत्र’ नामक तीर्थ में जाये। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध और महर्षि रहते हैं। ये नियमपूर्वक व्रत का पालन करते हुए दीक्षा लेकर दीर्घसूत्र की उपासना करते हैं। शत्रुओं का दमन करने वाले भरतवंशी राजेन्द्र! वहाँ की यात्रा करने मात्र से मनुष्य राजसूय और अश्वमेध यज्ञों के समान फल पाता है। तदनन्तर शौच-संतोषादि नियमों का पालन और नियमित आहार ग्रहण करते हुए विनशनतीर्थ में जाये, जहाँ मेरु पृष्ठ पर रहने वाली सरस्वती अदृश्य भाव से बहती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 112-118 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ चमसोद्भेद, शिवोद्भेद और नागोद्भेद तीर्थ में सरस्वती का दर्शन होता है। चमसोद्भेद में स्नान करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है। शिवोद्भेद में स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदान का फल पाता है। नागोद्भेद तीर्थ में स्नान करने से उसे नागलोक की प्राप्ति होती है। राजेन्द्र! शशयान नामक तीर्थ अत्यन्त दुर्लभ है। उसमें जाकर स्नान करे।
महाराज भारत! वहाँ सरस्वती नदी में प्रतिवर्ष कार्तिकी पूर्णिमा को शश (खरगोश) के रूप में छिपे हुए पुष्कर तीर्थ देखे जाते हैं। भरतश्रेष्ठ! नरव्याघ्र! वहाँ स्नान करके मनुष्य सदा चन्द्रमा के समान प्रकाशित होता है। भरतकुलतिलक! उसे सहस्र गोदान का फल भी मिलता है। कुरुनन्दन! वहाँ से कुमारकोटि तीर्थ में जाकर वहाँ नियमपूर्वक स्नान करे और देवता तथा पितरों के पूजन में तत्पर रहे। ऐसा करने से मनुष्य दस हजार गोदान का फल पाता है और अपने कुल का उद्धार कर देता है।
धर्मज्ञ! वहाँ से एकाग्रचित्त हो रुद्रकोटि तीर्थ में जाये। महाराज! रुद्रकोटि वह स्थान है, जहाँ पूर्वकाल में एक करोड़ मुनि बड़े हर्ष में भरकर भगवान् रुद्र के दर्शन की अभिलाषा से आये थे। भारत! ‘भगवान् वृषभध्वज का दर्शन पहले मैं करूंगा, मैं करूंगा’ ऐसा संकल्प करके वे महर्षि वहाँ के लिये प्रस्थित हुए थे। राजन्! तब योगेश्वर भगवान् शिव ने भी योग का आश्रय ले, उन शुद्धात्मा महर्षियों के शोक की शांति के लिये करोड़ों शिवलिंगों की सृष्टि कर दी, जो उन सभी ऋषियों के आगे उपस्थित थे; इससे उन सब ने अलग-अलग भगवान् का दर्शन किया।
राजन्! उन शुद्धचेता मुनियों की उत्तम भक्ति से संतुष्ट हो महादेव जी ने उन्हें वर दिया,,- 'महर्षियों! आज से तुम्हारे धर्म की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहेगी। नरश्रेष्ठ! उस रुद्रकोटि में स्नान करके शुद्ध हुआ मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। राजेन्द्र! तदनन्तर परम पुण्यमल लोकविख्यात सरस्वती संगमतीर्थ में जाये, जहाँ ब्रह्मा आदि देवता और तपस्या के धनी महर्षि भगवान् केशव की उपासना करते हैं। राजेन्द्र! वहाँ लोग चैत्र शुक्ला चतुर्दशी को विशेष रूप से जाते हैं। पुरुषसिंह! वहाँ स्नान करने से प्रचुर सुवर्ण राशि की प्राप्ति होती है और सब पापों से शुद्धचित्त होकर मनुष्य ब्रह्मलोक को जाता है। परेश्वर! जहाँ ऋषियों के सत्र समाप्त हुए हैं, वहाँ अवसान तीर्थ में जाकर मनुष्य सहस्र गोदान का फल पाता है।
(इस प्रकार महाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में पुलस्त्यकयित तीर्थयात्रा विषयक बयासीवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
तिरयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्र्यशीतितम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
"कुरुक्षेत्र की सीमा में स्थित अनेक तीर्थों की महत्ता का वर्णन"
पुलस्त्य जी कहते हैं ;- राजेन्द्र! तदनन्तर ऋषियों द्वारा प्रशंसित कुरुक्षेत्र की यात्रा करे, जिसके दर्शन मात्र से सब जीव पापों से मुक्त हो जाते हैं। 'मैं कुरुक्षेत्र में जाऊंगा, कुरुक्षेत्र में निवास करूंगा।' इस प्रकार जो सदा कहा करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। वायु द्वारा उड़ाकर लायी हुई कुरुक्षेत्र की धूल भी शरीर पर पड़ जाये, तो वह पापी मनुष्य को भी परमगति की प्राप्ति करा देती है। जो सरस्वती के दक्षिण और दृषद्वती कि उत्तर कुरुक्षेत्र में वास करते हैं, वे मानों स्वर्गलोक में ही रहते है।
नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! वहाँ सरस्वती के तट पर धीर पुरुष एक मास तक निवास करे; क्योंकि महाराज! ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष और नाग भी उस परम पुण्यमय ब्रह्मक्षेत्र को जाते हैं। युधिष्ठिर! जो मन से भी कुरुक्षेत्र में जाने की इच्छा रखता है, उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं और वह ब्रह्मलोक को जाता है।
कुरुश्रेष्ठ! श्रद्धा से युक्त होकर कुरुक्षेत्र की यात्रा करने पर मनुष्य राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का फल पाता है। तदनन्तर! वहाँ मचक्रुक नाम वाले द्वारपाल महाबली यक्ष को नमस्कार करने मात्र से सहस्र गोदान का फल मिल जाता है। धर्मज्ञ, राजेन्द्र! तत्पश्चात् भगवान् विष्णु के परम उत्तम सतत् नामक तीर्थ स्थान में जाये, जहाँ श्रीहरि सदा निवास करते हैं। वहाँ स्नान और त्रिलोकभावन भगवान् श्रीहरि को नमस्कार करने से मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और भगवान् विष्णु के लोक में जाता है। इसके बाद त्रिभुवन-विख्यात पारिप्लव नामक तीर्थ में जाये। भारत! वहाँ स्नान करने से अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञों का फल प्राप्त होता है। महाराज! वहाँ से पृथ्वी तीर्थ जाकर स्नान करने से सहस्र गोदान का फल प्राप्त होता है। राजन्! वहाँ से तीर्थसेवी मनुष्य शलूकिनी में जाकर दशाश्वमेधतीर्थ में स्नान करने से उसी फल का भागी होता है। सर्पदेवी में जाकर उत्तम नागतीर्थ का सेवन करने से मनुष्य अग्निष्टोम क फल पाता और नागलोक में जाता है।
धर्मज्ञ! वहाँ से तरन्तुक नामक द्वारपाल के पास जाये। वहाँ एक रात निवास करने से सहस्र गोदान का फल प्राप्त होता है। वहाँ से नियमपूर्वक नियमित भोजन करते हुए पंचनदतीर्थ में जाये और वहाँ कोटितीर्थ में स्नान करे। इससे अश्वमेध यज्ञ का फल प्रापत होता है। अश्विनीतीर्थ में जाकर स्नान करने से मनुष्य रूपवान् होता है। धर्मज्ञ! वहाँ से परम उत्तम वराहतीर्थ को जाये, जहाँ भगवान् विष्णु पहले वराह रूप से स्थित हुए थे। नरश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है। राजेन्द्र! तदनन्तर जयन्ती में सोमतीर्थ के निकट जाये, वहाँ स्नान करने से मनुष्य राजसूय यज्ञ का फल पाता है। एकहंसतीर्थ में स्नान करने से मनुष्य सहस्र गोदान का फल पाता है।
नरेश्वर! कृतशौचतीर्थ में जाकर तीर्थसेवी मनुष्य पुण्डरीकयाग का फल पाता है और शुद्ध हो जाता है। तदनन्तर महात्मा स्थाणु के मुंजवट नामक स्थान में जाये। वहाँ एक रात रहने से मानव गणपतिपद प्राप्त करता है। महाराज! वहीं लोकविख्यात यक्षिणीतीर्थ है। राजेन्द्र! उसमें जाने से और स्नान करने से सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति होती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्र्यशीतितम अध्याय के श्लोक 24-46 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ! वह कुरुक्षेत्र का विख्यात द्वार है। उनकी परिक्रमा करके तीर्थयात्री मनुष्य एकाग्रचित्त हो पुष्करतीर्थ के तुल्य उस तीर्थ में स्नान करके देवताओं ओर पितरों की पूजा करे। राजन्! इससे तीर्थयात्री कृतकृत्य होता और अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है। उत्तम श्रेणी के महात्मा जमग्निनन्दन परशुराम ने उस तीर्थ का निर्माण किया है। राजेन्द्र! वहाँ उदीप्त तेजस्वी वीरवर परशुराम ने सम्पूर्ण क्षत्रिय कुल का वेगपूर्वक संहार करके पांच कुण्ड स्थापित किये थे। पुरुषसिंह! उन कुण्डों को उन्होंने रक्त से भर दिया था, ऐसा सुना जाता है। उसी रक्त से परशुराम जी ने अपने पितरों और प्रपितामहों का तर्पण किया। राजन्! तब वे पितर अत्यन्त प्रसन्न हो परशुराम जी से इस प्रकार बोले।
पितरों ने कहा ;- 'महाभाग राम! परशुराम! भृगुनन्दन! विभो! हम तुम्हारी पितृभक्ति से और तुम्हारे पराक्रम से बहुत खुश हुए हैं। महाद्युते! तुम्हारा कल्याण हो। तुम कोई वर मांगो। बोलो, क्या चाहते हो?'
राजेन्द्र! उनके ऐसा कहने पर योद्धाओं में श्रेष्ठ परशुराम ने हाथ जोड़कर आकाश में खड़े हुए उन पितरों से कहा,
परशुराम बोले ;- ‘पितृगण! यदि आप लोग मुझ पर प्रसन्न हैं और यदि मैं आपका अनुग्रहपात्र होऊं तो मैं आपका कृपा-प्रसाद चाहता हूँ। पुनः मेरी तपस्या पूरी हो जाये। मैंने जो रोष के वशीभूत होकर सारे क्षत्रिय कुल का संहार कर दिया है, आपके प्रभाव से मैं उस पाप से मुक्त हो जाऊं तथा मेरे ये कुण्ड भूमण्डल में विख्यात तीर्थस्वरूप हो जायें।'
परशुराम जी का यह शुभ वचन सुनकर उनके पितर बड़े प्रसन्न हुए और हर्ष में भरकर बोले,,
पितरों ने कहा ;- ‘वत्स! तुम्हारी तपस्या इस विशेष पितृभक्ति से पुनः बढ़ जाये। तुमने जो रोष में भरकर क्षत्रिय कुल का संहार किया है, उस पाप से तुम मुक्त हो गये। वे क्षत्रिय अपने ही कर्म से मरे हैं। तुम्हारे बनाये हुए ये कुण्ड तीर्थस्वरूप होंगे, इसमें संशय नहीं है। जो इन कुण्डों में नहाकर पितरों का तर्पण करेगा, उन्हें तृप्त हुए पितर ऐसा वर देंगे, जो इस भूतल पर दुलर्भ है। वह उसके लिये मनोवांछित कामना ओर सनातन स्वर्गलोक सुलभ कर देंगे’।
राजन्! इस प्रकार वर देकर परशुराम जी के पितर प्रसन्नतापूर्वक उनसे अनुमति ले वहीं अन्तर्धान हो गये। इस प्रकार भृगुनन्दन महात्मा परशुराम के वे कुण्ड बड़े पुण्यमय माने गये हैं। राजन्! जो उत्तम व्रत एवं ब्रहाचर्य का पलान करते हुए परशुराम जी के उन कुण्डों के जल में स्नान करके उनकी पूजा करता है, उसे प्रचुर सुवर्ण राशि की प्राप्ति होती है। कुरुश्रेष्ठ! तदनन्तर तीर्थसेवी मनुष्य वंशमूलकतीर्थ में जाये। राजन्! वंशमूलक में स्नान करके मनुष्य अपने कुल का उद्धार कर देता है। भरतश्रेष्ठ! कायशोधनतीर्थ में जाकर स्नान करने से शरीर की शुद्धि होती है, इसमें संशय नहीं। शरीर शुद्ध होने पर मनुष्य परम उत्तम कल्याणमय लोकों में जाता है।
धर्मज्ञ! तदनन्तर त्रिभुवनविख्यात लोकोद्धारतीर्थ में जाये, जो तीनों लोकों में पूजित है। वहाँ पूर्वकाल में सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णु ने कितने ही लोकों का उद्धार किया था। राजन् लोकोद्धार में जाकर उस उत्तम तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य आत्मीयजनों का उद्धार करता है। मन को वश में करके श्रीतीर्थ में जाकर स्नान करके देवताओं और पितरों की पूजा करने से मनुष्य उत्तम सम्पत्ति प्राप्त करता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्र्यशीतितम अध्याय के श्लोक 47-71 का हिन्दी अनुवाद)
कपिला-तीर्थ मे जाकर ब्रह्मचर्य के पालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो वहाँ स्नान और देवता-पितरों का पूजन करके मानव सहस्र कपिला गौओं के दान का फल प्राप्त करता है। मन को वश में करके सूर्यतीर्थ में जाकर स्नान और देवता पितरों का अर्चन करके उपवास करने वाला मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता और सूर्यलाक में जाता है। तदनन्तर तीर्थसेवी क्रमशः गोभवन तीर्थ में जाकर वहाँ स्नान करे। इससे उसको सहस्र गोदान का फल मिलता है। कुरुश्रेष्ठ! तीर्थयात्री पुरुष शंखिनीतीर्थ में जाकर वहाँ देवीतीर्थ में स्नान करके उत्तम रूप प्राप्त करता है। राजेन्द्र! तदनन्तर अरन्तुक नामक द्वारपाल के पास जाये। महात्मा यक्षराज कुबेर का वह तीर्थ सरस्वती नदी में है। राजन्! वहाँ स्नान करने से मनुष्य को अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
राजेन्द्र! तदनन्तर श्रेष्ठ मानव ब्रह्मवर्ततीर्थ को जाये। ब्रह्मवर्त में स्नान करके मनुष्य ब्रह्मलोक का प्राप्त कर लेता है। राजेन्द्र! वहाँ से परम उत्तम सुतीर्थ में जाये। वहाँ देवता लोग पितरों के साथ सदा विद्यमान रहते हैं। वहाँ पितरों और देवताओं के पूजन में तत्पर हो स्नान करे। इससे तीर्थयात्री अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और पितृलोक में जाता है। धर्मज्ञ! वहाँ अम्बुमती में, जो परम उत्तम तीर्थ है, जाये। भरतश्रेष्ठ! काशीश्वर के तीर्थों में स्नान करके मनुष्य सब रोगों से मुक्त हो जाता और ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। भरतवंशी महाराज! वहीं मातृतीर्थ है, जिसमें स्नान करने वाले पुरुष की संतति बढ़ती है और वह कभी क्षीण न होने वाली सम्पति का उपभोग करता है। तदनन्तर नियम से रहकर नियमित भोजन करते हुए सीतवन में जाये। महाराज! वहाँ महान् तीर्थ है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। नरेश्वर! यह तीर्थ एक बार जाने या दर्शन करने से ही पवित्र कर देता है। भारत! उसमें केशों को धो लेने मात्र से ही मनुष्य पवित्र हो जाता है। महाराज! वहाँ श्वाविल्लोमापह नामक तीर्थ है।
नरव्याघ्र! उसमें तीर्थपरायण हुए विद्वान ब्राह्मण स्नान करके बड़े प्रसन्न होते हैं। भरतसत्तम! श्वाविल्लोमापनयनतीर्थ में प्रणायाम (योग की क्रिया) करने से श्रेष्ठ द्विज अपने रोएं झाड़ देते हैं तथा राजेन्द्र! वे शुद्धचित्त होकर परमगति को प्राप्त होते हैं। भूपाल! वहीं दशाश्वमेधिक तीर्थ भी है। पुरुषसिंह! उसमें स्नान करके मनुष्य उत्तम गति प्राप्त करता है। राजेन्द्र! तदनन्तर लोकविख्यात मानुषतीर्थ में जाये। राजन्! वहाँ व्याघ्र के बाणों से पीड़ित हुए कृष्णमृग उस सरोवर में गोते लगाकर मनुष्य शरीर पा गये थे, इसीलिये उसका नाम मानुषतीर्थ है। ब्रह्मचर्यपालनपर्वूक एकाग्रचित्त हो उस तीर्थ में स्नान करने वाला मानव सब पापों से मुक्त हो स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। राजन्! मानुषतीर्थ से पूर्व एक कोस की दूरी पर आपगा नाम से विख्यात एक नदी है, जो सिद्धपुरुषों से सेवित है। जो मनुष्य वहाँ देवताओं को पितरों के उद्देश्य से भोजन कराते समय श्यामाक (सांवा) नामक अन्न देता है, उसे महान् धर्मफल की प्राप्ति होती है। वहाँ एक ब्राह्मण को भोजन कराने पर एक करोड़ ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल मिलता है। वहाँ स्नान करके देवताओं और पितरों के पूजनपूर्वक एक रात निवास करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है। भरतवंशी राजेंद्र! तदनन्तर ब्रह्मा जी के उत्तम स्थान में जाये, जो इस पृथ्वी पर ब्रह्मोदुम्बरतीथ के नाम से प्रसिद्ध है।
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