सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के छिहत्तरवें अध्याय से अस्सीवें अध्याय तक (From the 76 to the 80 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

छिहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"दमयन्ती और बाहुक की बातचीत, नल का प्राकट्य और नल-दमयन्ती-मिलन"

   बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! परम बुद्धिमान् पुण्यश्लोक राजा नल के सम्पूर्ण विकारों को देखकर केशिनी ने दमयन्ती को आकर बताया। अब दमयन्ती नल के दर्शन की अभिलाषा से दुःखातुर हो गयी। उसने केशिनी को पुनः अपनी मां के पास भेजा। 

   (और यह कहलवाया,,-) ‘मां! मेरे मन में बाहुक के ही नल के होने का संदेह था, जिसकी मैंने बार-बार परीक्षा करा ली है और सब लक्षण तो मिल गये हैं। केवल नल के रूप में संदेह रह गया है। इस संदेह का निवारण करने के लिये में स्वयं पता लगाना चाहती हूँ। माताजी! या तो बाहुक को महल में बुलाओ या मुझे ही बाहुक के निकट जाने की आज्ञा दो। तुम अपनी रुचि के अनुसार-पिताजी से सूचित करके अथवा उन्हें इसकी सूचना दिये बिना इसकी व्यवस्था कर सकती हो’।

    दमयन्ती के ऐसा कहने पर महारानी ने विदर्भ नरेश भीम से अपनी पुत्री का यह अभिप्राय बताया। सब बातें सुनकर महाराज ने आज्ञा दे दी।

    भरतकुलभूषण! पिता और माता की आज्ञा ले दमयन्ती ने नल को राजभवन के भीतर जहाँ वह स्वयं रहती थी, बुलवाया! दमयन्ती को सहसा सामने उपस्थित देख राजा नल शोक और दुःख से व्याप्त हो नेत्रों से आंसू बहाने लगे। उस समय नल को उस अवस्था में देखकर सुन्दरी दमयन्ती भी तीव्र शोक में व्याकुल हो गयी। महाराज! तदनन्तर मलिन वस्त्र पहने, जटा धारण किये, मैल और पंक से मलिन दमयन्ती ने बाहुक से पूछा,,

    दमयन्ती बोली ;- ‘बाहुक! तुमने पहले किसी ऐसे धर्मज्ञ पुरुष को देखा है, जो अपनी सोयी हुई पत्नी को वन में अकेले छोड़कर चले गये थे। पुण्यश्लोक महाराज नल के सिवा दूसरा कौन होगा, जो एकान्त में थकावट के कारण अचेत सोयी हुई अपनी निर्दोष प्रियतमा पत्नी को छोड़कर जा सकता हो। न जाने उन महाराज का मैंने बचपन से ही क्या अपराध किया था, जो नींद की मारी मुझ असहाय अबला को जंगल में छोड़कर चल दिये। पहले स्वयंवर के समय साक्षात् देवताओं को छोड़कर मैंने उनका वरण किया था। मैं उनकी अनुगत भक्त, निरन्तर उन्हें चाहने वाली और पुत्रवती हूं, तो भी उन्होंने कैसे मुझे त्याग दिया? अग्नि के समीप और देवताओं के समक्ष मेरा हाथ पकड़कर और ‘मैं तेरा अनुगत होकर रहूंगा’ ऐसी प्रतिज्ञा करके जिन्होंने मुझे अपनाया था, उसका वह सत्य कहाँ चला गया?

    शत्रुदमन युधिष्ठिर! दमयन्ती जब ये सब बातें कह रही थी, उस समय नल के नेत्रों से शोकजनित दुःखपुर्ण आंसुओं की अजस्त्र धारा बहती रही थी। उनकी आंखों की पुतलियां काली थीं और नेत्र के किनारे कुछ-कुछ लाल थे। उनसे निरन्तर अश्रुधारा बहाते हुए नल ने दमयन्ती को शोक से आतुर देख इस प्रकार कहा,,

  राजा नल बोले ;- ‘भीरु! मेरा जो राज्य नष्ट हो गया और मैंने जो तुम्हें त्याग दिया, वह सब कलियुग की करतूत थी। मैंने स्वयं कुछ नहीं किया था। पहले जब तुम वन में दु:खी होकर दिन-रात मेरे लिये शोक करती थीं और उस समय धर्मसंकट में पड़ने पर तुमने जिसे शाप दे दिया था, वही कलियुग मेरे शरीर में तुम्हारी शापग्नि से दग्ध होता हुआ निवास करता था, जैसे आग में रखी हुई आग हो; उसी प्रकार वह कलि तुम्हारे शाप से दग्ध हो सदा मेरे भीतर रहता था।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्सप्ततितम अध्याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘शुभे! मेरे व्यवसाय (उद्योग) तथा तपस्या से कलियुग परास्त हो चुका है। अतः अब हमारे दु:खों का अन्त हो जाना चाहिये। विशाल नितम्ब वाली सुन्दरी! पापी कलियुग मुझे छाड़कर चला गया, इसी से मैं तुम्हारी प्राप्ति का उद्देश्य लेकर यहाँ आया हूँ। इसके सिवा, मेरे आगमन का दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है। भीरु! कोई भी स्त्री कभी अपने अनुरक्त एवं भक्त पति को त्यागकर दूसरे पुरुष का वरण कैसे कर सकती है? जैसा कि तुम करने जा रही हो। विदर्भ नेरश की आज्ञा से सारी पृथ्वी पर दूत विचरते हैं और यह घोषणा कर रहे हैं कि दमयन्ती द्वितीय पति का वरण करेगी। दमयन्ती स्वेच्छाचारिणी है अपनी रुचि के अनुसार किसी अनुरूप पति का वरण कर सकती है, यह सुनकर ही राजा ऋतुपर्ण बड़ी उतावली के साथ यहाँ उपस्थित हुए हैं’।

   दमयन्ती नल का यह विलाप सुनकर कांप उठी और भयभीत हो हाथ जोड़कर यह वचन बोली।

   दमयन्ती ने कहा ;- 'कल्याणमय निषध नरेश! आपको मुझ पर दोषारोपण करते हुए मेरे चरित्र पर संदेह नहीं करना चाहिये। (आपके प्रति अनन्य प्रेम के कारण ही) मैंने देवताओं को छोड़कर आपका वरण किया है। आपका पता लगाने के लिये चारों ओर ब्राह्मण लोग भेजे गये और वे मेरी कही हुई बातों को गाथा के रूप में गाते फिरे। राजन्! इसी योजना के अनुसार पर्णाद नामक विद्वान् ब्राह्मण अयोध्यापुरी में ऋतुपर्ण के राजभवन में गये थे। उन्होंने वहाँ मेरी बात उपस्थित की और वहाँ से आपके द्वारा प्राप्त हुआ ठीक-ठीक उत्तर वे ले आये। निषधराज! इसके बाद आपको यहाँ बुलाने के लिये मुझे यह उपाय सूझा (कि एक ही दिन के बाद होने वाले स्वयंवर का समाचार देकर ऋतुपर्ण को बुलाया जाये)।

   नरेश्वर! पृथ्वीनाथ! मैं यह अच्छी तरह जानती हूँ कि इस जगत् में आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो एक ही दिन में घोड़े जुते हुए रथ की सवारी से सौ योजन दूर तक जाने में समर्थ हो। महीपते! मैं मन से भी कभी कोई असदाचरण नहीं करती हूँ और इसी सत्य की शपथ खाकर आपके इन दोनों चरणों को स्पर्श करती हूँ। ये सदा गतिशील वायु देवता इस जगत् में निरन्तर विचरते हैं, अतः ये सम्पूर्ण भूतों के साक्षी हैं। यदि मैंने पाप किया है तो ये मेरे प्राणों का हरण कर लें। प्रचण्ड किरणों वाले सूर्य देव समस्त भुवनों के ऊपर विचरते हैं, (अतः वे भी सबके शुभाशुभ कर्म देखते रहते हैं)। यदि मैंने पाप किया है तो ये मेरे प्राणों का हरण कर लें। चित्त के अभिमानी देवता चन्द्रमा समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में साक्षी रूप से विचरते हैं। यदि मैंने पाप किया है तो वे मेरे प्राणों का हरण कर लें। ये पूर्वोक्त तीन देवता सम्पूर्ण त्रिलोकी को धारण करते हैं। मेरे कथन में कितनी सच्चाई है, इसे देवता लोग स्वयं स्पष्ट करें। यदि मैं झूठ बोलती हूँ तो देवता मेरा त्याग कर दें।'

    दमयन्ती के ऐसा कहने पर अन्तरिक्ष लोक से वायु देवता ने कहा,,

   वायुदेव बोले ;- ‘नल! मैं तुमसे सत्य कहता हूं, इस दमयन्ती ने कभी कोई पाप नहीं किया है। राजन्! दमयन्ती ने अपने शील की उज्ज्वल निधि को सदा सुरक्षित रखा है। हम लोग तीन वर्षों तक निरन्तर इसके रक्षक और साक्षी रहे हैं।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्सप्ततितम अध्याय के श्लोक 38-53 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘तुम्हारी प्राप्ति के लिये दमयन्ती ने यह अनुपम उपाय ढूंढ़ निकाला था; क्योंकि इस जगत् में तुम्हारे सिवा काई दूसरा पुरुष नहीं है, जो एक दिन में सौ योजन (रथ द्वारा) जा सके। राजन्! भीमकुमारी दमयन्ती तुम्हारे योग्य है और तुम दमयन्ती के योग्य हो। तुम्हें इसके चरित्र के विषय में कोई शंका नहीं करनी चाहिये। तुम अपनी पत्नी से निःशंक होकर मिलो’। वायु देव के ऐसा कहते समय आकाश से फूलों की वर्षा हो रही थी, देवताओं की दुन्दुभियां बज रही थीं और मंगलमय पवन चलने लगा।

   युधिष्ठिर! यह अद्भुत दृश्य देखकर शत्रुसूदन राजा नल ने दमयन्ती के विरुद्ध होने वाली शंका को त्याग दिया। तदनन्तर उन भूपाल ने नागराज कर्कोटक का स्मरण करके उसके लिये हुए अजीर्ण वस्त्र को ओढ़ लिया। उससे उन्हें अपने पूर्वस्वरूप की प्राप्ति हो गयी। अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए अपने पतिदेव पुण्यश्लोक महाराज नल को देखकर सती साध्वी दमयन्ती उनके हृदय से लगकर उच्च स्वर में रोने लगी। राजा नल का रूप पहले की भाँति ही प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने भी दमयन्ती को छाती से लगा लिया और अपने दोनों बालकों को भी प्यार-दुलार करके प्रसन्न किया। तत्पश्चात् सुन्दर मुख और विशाल नेत्रों वाली दमयन्ती नल के मुख को अपने वक्षःस्थल पर रखकर दुःख से व्याकुल हो लंबी सांसें खींचने लगी। इसी प्रकार पवित्र मुस्कान और मैल से भरे हुए अंगों वाली दमयन्ती को हृदय से लगाकर पुरुषसिंह नल बहुत देर तक शोकमग्न खड़े रहे।

   राजन्! तदनन्तर (दमयन्ती के द्वारा मालूम होने पर) दमयन्ती की माता ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक राजा भीम से नल-दमयन्ती का सारा वृत्तान्त यथावत कह सुनाया। 

   तब महाराज भीम ने कहा ;- ‘आज नल को सुखपूर्वक यहीं रहने दो। कल सबेरे स्नान आदि से शुद्ध हुए दमयन्ती सहित नल से मैं मिलूंगा’। राजन्! तत्पश्चात् वे दोनों दम्पति रातभर वन में रहने की पुरानी घटनाओं को एक-दूसरे से कहते हुए प्रसन्नतापूर्वक एक साथ रहे। एक-दूसरे को सुख देने की इच्छा रखने वाले दमयन्ती और नल राजा भीम के महल में प्रसन्नचित होकर रहे। चौथे वर्ष में अपनी प्यारी पत्नी से मिलकर सम्पूर्ण कामनाओं से सफलमनोरथ हो नल अत्यन्त आनंद में निमग्न हो गये। जैसे आधी जमी हुई खेती से भरी वसुधा वर्षा का जल पाकर उल्लसित हो उठती है, उसी प्रकार दमयन्ती भी अपने पति को पाकर बहुत संतुष्ट हुई। जैसे चन्द्रोदय से रात्रि की शोभा बढ़ जाती है, उसी प्रकार भीमकुमारी दमयन्ती पति से मिलकर आलस्य का त्याग करके निश्चिन्त और हर्षोल्लसित हृदय से पूर्णकाम होकर अत्यन्त शोभा पाने लगी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में नल-दमयन्ती समागमन विषयक छिहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

सतहत्तरवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"नल के प्रकट होने पर विदर्भ नगर में महान् उत्सव का आयोजन, ऋतुपर्ण के साथ नल का वार्तालाप और ऋतुपर्ण का नल से अश्वविद्या सीखकर अयोध्या जाना"

   बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर वह रात बीतने पर राजा नल वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो दमयन्ती के साथ यथा समय राजा भीम से मिले। स्नानादि से पवित्र हुए नल ने विनीत भाव से श्वशुर को प्रणाम किया। तत्पश्चात् शुभलक्षण दमयन्ती ने भी पिता की वन्दना की। राजा भीम ने बड़ी प्रसन्नता के साथ नल को पुत्र की भाँति अपनाया और नल सहित पतिव्रता दमयन्ती का यथायोग्य आदर-सत्कार करके उन्हें आश्वासन दिया। राजा नल ने उस पूजा को विधिपूर्वक स्वीकार करके अपनी ओर से भी श्वशुर का सेवा-सत्कार किया। तदनन्तर विदर्भ नगर में राजा नल को इस प्रकार आया देख हर्षोल्लास में भरी हुई जनता का महान् आनन्दजनित कोलाहल होने लगा।
      विदर्भ नरेश ने ध्वजा, पताकाओं की पंक्तियों से कुण्डिनपुर को अद्भुत शोभा से सम्पन्न किया। सड़कों को खूब झाड़-बुहारकर उन पर छिड़काव किया गया था। फूलों से उन्हें इच्छी तरह सजाया गया था। पुरवासियों के द्वार-द्वार पर सुगंध फैलाने के लिये राशि-राशि फूल बिखेरे गये थे। सम्पूर्ण देव मंदिरों की सजावट और देव मूर्तियों की पूजा की गयी थी। राजा ऋतुपर्ण ने भी जब यह सुना कि बाहुक के वेष में राजा नल ही थे और अब वे दमयन्ती से मिले हैं, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने राजा नल को बुलाकर उनसे क्षमा मांगी। बुद्धिमान् नल ने भी अनेक युक्तियों द्वारा उनसे क्षमा याचना की। नल से आदर-सत्कार पाकर वक्ताओं में श्रेष्ठ एवं तत्त्वज्ञ राजा ऋतुपर्ण मुसकराते हुए मुख से बोले,,
   ऋतुपर्ण बोले ;- ‘निषध नरेश! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आप अपनी बिछुड़ी हुई पत्नी से मिले।’ ऐसा कहकर उन्होंने नल का अभिनन्दन किया। (और पुनः कहा-) ‘नैषध! भूपालशिरोमणे! आप मेरे घर पर जब अज्ञातवास की अवस्था में रहते थे, उस समय मैंने आपका कोई अपराध तो नहीं किया? उन दिनों यदि मैंने बिना जाने या जान-बूझकर आपके साथ अनुचित बर्ताव किये हों तो उन्‍हें आप क्षमा करे।'
     नल ने कहा ;- 'राजन्! आपने मेरा कभी थोड़ा-सा भी अपराध नहीं किया है और यदि किया भी हो तो उसके लिये मेरे हृदय में क्रोध नहीं है। मुझे आपके प्रत्येक बर्ताव को क्षमा ही करना चाहिये। राजन्! मेरी समस्त कामनाएं वहाँ अच्छी तरह पूर्ण की गयीं और इसके कारण मैं सदा आपके यहाँ सुखी रहा। महाराज! आपके भवन में मुझे जैसा आराम मिला, वैसा अपने घर में भी नहीं मिला। आपका अश्वविज्ञान मेरे पास धरोहर के रूप में पड़ा है। राजन्! यदि आप ठीक समझें तो मैं उसे आपको देने की इच्छा रखता हूँ।' ऐसा कहकर निषधराज नल ने ऋतुपर्ण को अश्वविद्या प्रदान की।
      युधिष्ठिर! ऋतुपर्ण ने भी शास्त्रीय विधि के अनुसार उनसे अश्वविद्या ग्रहण की। अश्वों का रहस्य ग्रहण करके और निषध नरेश नल को पुनः द्यूतविद्या का रहस्य समझाकर दूसरा सारथि साथ ले राजा ऋतुपर्ण अपने नगर को चले गये। राजन्! ऋतुपर्ण के चले जाने पर राजा नल कुण्डिनपुर में कुछ समय तक रहे। वह काल उन्हें थोड़े समय के समान ही प्रतीत हुआ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत नलोपाख्यानपर्व में ऋतुपर्ण का स्वदेशगमन विषयक सतहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)

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वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

अठहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा नल का पुष्कर को जूए में हराना और उसको राजधानी में भेजकर अपने नगर में प्रवेश करना"

    बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! निषध नरेश एक मास तक कुण्डिनपुर में रहकर राजा भीम की आज्ञा ले थोड़े से सेवकों सहित वहाँ से निषध देश की ओर प्रस्थित हुए। उनके साथ चारों ओर से सोलह हाथियों द्वारा घिरा हुआ एक सुन्दर रथ, पचास घोड़े और छः सौ पैदल सैनिक थे। महामना राजा नल ने इन सबके द्वारा पृथ्वी को कम्पित-सी करते हुए बड़ी उतावली के साथ रोषावेश में भरे वेगपूर्वक निषध देश की राजधानी में प्रवेश किया। तदनन्तर! वीरसेनपुत्र नल ने पुष्कर के पास जाकर कहा,,
   राजा नल बोले ;- ‘अब हम दोनों फिर से जूआ खेलें। मैंने बहुत धन प्राप्त किया है। दमयन्ती तथा अन्य जो कुछ भी मेरे पास है, यह सब मेरी ओर से सारा राज्य ही दांव पर रखा जायेगा। इस एक पण के साथ हम दोनों में फिर जूए का खेल प्रारम्भ हो, यह मेरा निश्चित विचार है। तुम्हारा भला हो, यदि ऐसा न कर सको तो हम दोनों अपने प्राणों की बाजी लगावें।
    जूए के दांव में दूसरे का राज्य या धन जीतकर रख लिया जाये तो उसे यदि वह पुनः खेलना चाहे तो प्रतिपण (बदले का दाव) देना चाहिये, वह परम धर्म कहा गया है। यदि तुम पासों से जूआ खेलना न चाहो तो बाणों द्वारा युद्ध का जूआ आरम्भ होना चाहिये। राजन्! द्वैरथ युद्ध के द्वारा तुम्हारी अथवा मेरी शांति हो जाये। यह राज्य हमारी वंश परम्परा के उपभोग में आने वाला है। जिस-किसी उपाय से भी जैसे-तैसे इसका उद्धार करना चाहिये; ऐसा वृद्ध पुरुषों का उपेदश है। पुष्कर! आज तुम दो में से एक में मन लगाओ। छलपूर्वक जूआ खेलो अथवा युद्ध के लिये धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाओ’।
    निषधराज नल के ऐसा कहने पर पुष्कर ने अपनी विजय को अवश्यम्भावी मानकर हंसते हुए उनसे कहा,,
    पुष्कर बोले ;- ‘नैषध! सौभाग्य की बात है कि तुमने दांव पर लगाने के लिये धन का उपार्जन कर लिया है। यह भी आनंद की बात है कि दमयन्ती के दुष्कर्मों का क्षय हो गया। महाबाहु नरेश! सौभाग्य से तुम पत्नी सहित अभी जीवित हो। इसी धन को जीत लेने पर दमयन्ती श्रृंगार करके निश्चय ही मेरी सेवा में उपस्थित होगी, ठीक उसी तरह, जैसे स्वर्गलोक की अप्सरा देवराज इन्द्र की सेवा में जाती है। नैषध! मैं प्रतिदिन तुम्हारी याद करता हूँ और तुम्हारी राह भी देखा करता हूँ। शत्रुओं के साथ जूआ खेलने से मुझे कभी तृप्ति ही नहीं होती। आज श्रेष्ठ अंगों वाली अनिन्द्य सुन्दरी दमयन्ती को जीतकर मैं कृतार्थ हो जाऊंगा; क्योंकि वह सदा मेरे हृदय मंदिर में निवास करती है’।
    इस प्रकार बहुत-से असम्बद्ध प्रलाप करने वाले पुष्कर की वे बातें सुनकर राजा नल को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने तलवार से उसका सिर काट लेने की इच्छा की। रोष से उनकी आंखें लाल-लाल हो गयीं तो भी राजा नल ने हंसते हुए उससे कहा,,
    राजा नल बोले ;- ‘अब हम दोनों जूआ प्रारम्भ करें, तुम अभी व्यर्थ बकवाद क्यों करते हो? हार जाने पर ऐसी बातें न कर सकोगे।' तदनन्तर पुष्कर तथा राजा नल में एक ही दांव लगाने की शर्त रखकर जूए का खेल प्रारम्भ हुआ। तब वीर नल ने पुष्कर को हरा दिया। पुष्कर ने रत्न, खजाना तथा प्राणों तक की बाजी लगा दी थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टसप्ततितम अध्याय के श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद)

   पुष्कर को परास्त करके राजा नल ने हंसते हुए उससे कहा,,
    राजा नल बोले ;- ‘नृपाधम! अब यह शांत और अकण्टक सारा राज्य मेरे अधिकार में आ गया। विदर्भ कुमारी दमयन्ती की ओर तू आंख उठाकर देख भी नहीं सकता। मूर्ख! आज से तू परिवार सहित दमयन्ती का दास हो गया। पहले तेरे द्वारा जो मैं पराजित हो गया था, उसमें तेरा कोई पुरुषार्थ नहीं था। मूढ़! वह सब कलियुग की करतूत थी, जिसे तू नहीं जानता है। दूसरे (कलियुग) के किये हुए अपराध को मैं किसी तरह तेरे मत्थ नहीं मढूंगा। तू सुखपूर्वक जीवित रह। मैं तेरे प्राण तुझे वापस देता हूँ। तेरा सारा सामान और तेरे हिस्से का धन भी तुझे लौटाये देता हूँ। वीर! तेरे ऊपर मेरा पूर्ववत् प्रेम बना रहेगा, इसमें संशय नहीं है।'
     इस प्रकार सत्यपराक्रमी राजा नल ने अपने भाई पुष्कर को सान्तवना दे बार-बार हृदय से लगाकर उसकी राजधानी को भेज दिया। राजन्! निषधराज के इस प्रकार सान्त्वना देने पर पुष्कर ने पुण्यश्लोक नल को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा,,
   पुष्कर बोला ;- ‘पृथ्वीनाथ! आप जो मुझे प्राण और निवास स्थान भी वापस दे रहे हैं, इससे आपकी अक्षय कीर्ति बनी रहे। आप सौ वर्षों तक जीयें और सुखी रहें।'
     नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर! राजा नल के द्वारा इस प्रकार सत्कार पाकर पुष्कर एक मास तक वहाँ टिका रहा और फिर आत्मीयजनों के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपनी राजधानी को चला गया। उसके साथ विशाल सेना और विनयशील सेवक भी थे। वह शरीर से सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहा था।
      पुष्कर को धन-वित्त के साथ सकुशल घर भेजकर श्रीमान राजा नल ने अपने अत्यंत शोभासम्पन्न नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करके निषध नरेश ने पुरवासियों को सान्त्वना दी। नगर और जनपद के लोग बड़े प्रसन्न हुए। उनके शरीर में रोमांच हो गया। मंत्री आदि सब लोगों ने हाथ जोड़कर कहा,,
    मंत्री गण बोले ;- ‘महाराज! आज हम नगर और जनपद के निवासी संतोष से सांस ले सके हैं। जैसे देवता देवराज इन्द्र की सेवा में उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार अब हमें पुनः आपकी उपासना करने-आपके पास बैठने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में पुष्कर को हराकर राजा नल के अपने नगर में आने से सम्बन्ध रखने वाला अठहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)

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वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

उन्यासीवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा नल के आख्यान के कीर्तन का महत्त्व, बृहदश्व मुनि का युधिष्ठिर को आश्वासन देना तथा द्यूतविद्या और अश्वविद्या का रहस्य बताकर जाना"

   बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जब नगर में शांति छा गयी और सब लोग प्रसन्न हो गये, सर्वत्र महान् उत्सव होने लगा, उस समय राजा नल विशाल सेना के साथ जाकर दमयन्ती को विदर्भ देश से बुला लाये। दमयन्ती के पिता भंयकर पराक्रमी अप्रमेय आत्मबल से सम्पन्न थे, शत्रु पक्ष के वीरों का हनन करने में समर्थ थे। उन्होंने अपनी पुत्री दमयन्ती को बड़े सत्कार के साथ विदा किया। पुत्र और पुत्री सहित दमयन्ती के आ जाने पर राजा नल सब बर्ताव-व्यवहार बड़े आनंद से सम्पन्न करने लगे। जैसे नन्दन वन में देवराज इन्द्र शोभा पाते हैं, उसी प्रकार वे जम्बूद्वीप के समस्त राजाओं में प्रकाशमान हो रहे थे। वे महायशस्वी नरेश अपने राज्य को पुनः वापस लेकर उसका न्यायपूर्वक शासन करने लगे। उन्होंने पर्याप्त दक्षिणा से युक्त विविध प्रकार के यज्ञों द्वारा विधिपूर्वक भगवान् का यजन किया। राजेन्द्र! इसी प्रकार तुम भी पुनः अपना राज्य पाकर सुहृदों सहित शीघ्र ही यज्ञ का अनुष्ठान करोगे।
     भरतश्रेष्ठ! पुरुषोत्तम! शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले महाराज नल जूआ खेलने के कारण अपनी पत्नी सहित इस प्रकार के महान् संकट में पड़ गये। पृथ्वीपते! राजा नल ने अकेले ही यह भयंकर और महान् दुःख प्राप्त किया था; उन्हें पुनः अभ्युदय की प्राप्ति हुई। पाण्डुनन्दन! तुम तो अपने सभी भाईयों और महारानी द्रौपदी के साथ इस महान् वन में भ्रमण करते हो और निरन्तर धर्म के ही चिन्तन में लगे रहते हो। राजन्! महान् भाग्यशाली वेद-वेदागों के परांगत विद्वान् ब्राह्मण सदा तुम्हारे साथ रहते हैं, फिर तुम्हारे लिये इस परिस्थिति में शोक की क्या बात है? कर्कोटक नाग, दमयन्ती, नल तथा राजर्षि ऋतुपर्ण की चर्चा कलियुग के दोष का नाश करने वाली है। महाराज तुम्हारे जैसे लोगों को यह कलिनाशक इतिहास सुनकर आश्वासन प्राप्त हो सकता है। पुरुष को प्राप्त होने वाले सभी विषय सदा अस्थिर एवं विनाशशील हैं। यह सोचकर उनके मिलने या नष्ट होने पर तुम्हें तनिक भी चिंता नहीं करनी चाहिये।
     नरेश! इस इतिहास को सुनकर तुम धैर्य धारण करो, शोक न करो, महाराज! तुम्‍हें संकट में पड़ने पर विशादग्रस्त नहीं होना चाहिये। जब दैव (प्रारब्ध) प्रतिकूल हो और पुरुषार्थ निष्फल हो जाये, उस समय भी सत्त्वगुण का आश्रय लेने वाले मनुष्य अपने मन में विषाद नहीं लाते। जो राजा नल के इस महान् चरित्र का वर्णन करेंगे अथवा निरन्तर सुनेंगे, उन्हें दरिद्रता नहीं प्राप्त होगी। उनके सभी मनोरथ सिद्ध होंगे वे संसार में धन्य हो जायेंगे। इस प्राचीन एवं उत्तम इतिहास का सदा ही श्रवण करके मनुष्य पुत्र, पौत्र, पशु तथा मानवों में श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है। साथ ही, वह नीरोग और प्रसन्न होता है, इसमें संशय नहीं है। राजन्! तुम जो इस भय से डर रहे हों, कि कोई द्यूतविद्याता ज्ञाता मनुष्य पुनः मुझे जूए के लिये बुलायेगा (उस दशा में पुनः पराजय का कष्ट देखना पड़ेगा) तुम्हारे इस भय को मैं दूर कर दूंगा। सत्यपराक्रमी कुन्तीनन्दन! मैं द्यूतविद्या के सम्पूर्ण हृदय (रहस्य) को जानता हूं, तुम उसे ग्रहण कर लो। मैं प्रसन्न होकर तुम्हें बतलाता हूँ।
    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने प्रसन्नचित्त हो बृहदश्व से कहा,,
    युधिष्ठिर बोले ;- ‘भगवन्! मैं द्यूतविद्या के रहस्य को यथार्थ रूप से जानना चाहता हूं’।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 21-31 का हिन्दी अनुवाद)

    तब महातपस्वी मुनि ने महात्मा पाण्डुनन्दन को द्यूतविद्या का रहस्य बताया और उन्हें अश्वविद्या का भी उपदेश देकर वे स्नान आदि करने के लिये चले गये। बृहदश्व मुनि के चले जाने पर दृढ़व्रती राजा युधिष्ठिर ने इधर-उधर के तीर्थों, पर्वतों और वनों से आये हुए तपस्वी ब्राह्मणों के मुख से सव्यसाची अर्जुन का यह समाचार सुना कि ‘मनीषी अर्जुन वायु का आहार लेकर कठोर तपस्या में लगे हैं। महाबाहु कुन्तीकुमार बड़ी दुष्कर तपस्या में स्थित हैं। ऐसा कठोर तपस्वी आज से पहले दूसरा कोई नहीं देखा गया। कुन्तीकुमार धनंजय जिस प्रकार नियम और व्रत का पालन करते हुए तपस्या में संलग्न हैं, वह अद्भुत है। वे मौनभाव से रहते और अकेले ही विचरते हैं। श्रीमान् अर्जुन धर्म के मूर्तिमान स्वरूप जान पड़ते हैं।'
      राजन्! उस महान् वन में अपने प्रिय भाई अर्जुन को तपस्या करते सुनकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर उनके लिये बार-बार शोक करने लगे। अर्जुन के वियोग में संतप्त हृदय वाले वे युधिष्ठिर निर्भय आश्रय की इच्छा रखते हुए उस महान् वन में रहते थे और अनेक प्रकार के ज्ञान से सम्पन्न ब्राह्मणों से अपना मनोगत अभिप्राय पूछा करते थे। राजन्! द्यूतविद्या का रहस्य जानकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर भीमसेन आदि के साथ मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने एक साथ बैठे हुए सब भाईयों की ओर देखा, उस समय वहाँ अर्जुन को न देखकर उनके नेत्रों में आंसू भर आये और वे अत्यन्त संतप्त हो भीमसेन से बोले।
      युधिष्ठिर ने कहा ;- 'भीमसेन! मैं तुम्हारे छोटे भाई अर्जुन को कब देखूंगा? कुरुश्रेष्ठ अर्जुन मेरे ही लिये अत्यन्त कठोर तपस्या करते हैं। मैं उन्हें अक्षहृदय (द्यूतविद्या के रहस्य) का ज्ञान कब कराऊंगा। भीम! मेरे द्वारा ग्रहण किये हुए अक्षहृदय को सुनकर पुरुषसिंह अर्जुन बहुत प्रसन्न होगें, इसमें संशय नहीं है।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यापर्व में ब्रहदश्वगमन विषयक उन्यासीवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

अस्सीवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन के लिये द्रौपदी सहित पाण्डवों की चिन्ता"

    जनमेजय ने पूछा ;- भगवन्! मेरे प्रपितामह अर्जुन के काम्यकवन से चले जाने पर उनसे अलग रहते हुए शेष पाण्डवों ने कौन-सा कार्य किया? वे सैन्यविजयी, महान् धनुर्धर अर्जुन ही उन सबके आश्रय थे। जैसे आदित्यों में विष्णु हैं, वैसे ही पाण्डवों में मुझे धनंजय जान पड़ते हैं। वे संग्राम से कभी पीछे न हटने वाले और इन्द्र के समान पराक्रमी थे। उनके बिना मेरे अन्य वीर पितामह वन में कैसे रहते थे?
    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तात! सत्यपराक्रमी पाण्डुकुमार अर्जुन के काम्यकवन से चले जाने पर सभी पाण्डव उनके लिये दुःख और शोक में मग्न रहने लगे। जैसे मणियों की माला का सूत टूट जाये अथवा पक्षियों के पंख कट जायें, वैसी दशा में उन मणियों और पक्षियों की जो अवस्था होती है, वैसी ही अर्जुन के बिना पाण्डवों की थी। उन सबके मन में तनिक भी प्रसन्नता नहीं थी। अनायास ही महान् कर्म करने वाले अर्जुन के बिना वह वन किसी प्रकार शोभा-शून्य-सा हो गया, जैसे कुबेर के बिना चैत्ररथ वन।
     जनमेजय! अर्जुन के बिना वे नरश्रेष्ठ पाण्डव आनन्दशून्य हो काम्यकवन में रह रहे थे। भरतश्रेष्ठ! वे महारथी वीर शुद्ध बाणों द्वारा ब्राह्मणों के (बाघम्बर आदि) लिये पराक्रम करके नाना प्रकार के पवित्र मृगों को मारा करते थे। वे नरश्रेष्ठ और शत्रुदमन पाण्डव प्रतिदिन ब्राह्मणों के लिये जंगली फल-मूल का आहार संग्रहीत करके उन्हें अर्पित करते थे। राजन्! धनंजय के चले जाने पर सभी नरश्रेष्ठ वहाँ खिन्न-चित्त हो उन्हीं के लिये उत्कण्ठित होकर रहते थे। विशेषतः पांचाल राजकुमारी द्रौपदी अपने मझले पति अर्जुन का स्मरण करती हुई सदा उद्विग्न रहने वाले पाण्डव शिरोमणि युधिष्ठिर से इस प्रकार बोली,,
   द्रोपदी बोली ;- ‘पाण्डवश्रेष्ठ! जो दो भुजा वाले अर्जुन सहस्रबाहु अर्जुन के समान पराक्रमी हैं, उनके बिना यह वन मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं यत्र-तत्र यहाँ की जिस-जिस भूमि पर दृष्टि डालती हूं, सबको सूनी-सी ही पाती हूँ। यह अनेक आश्चर्य से भरा हुआ और विकसित कुसुमों से अलंकृत वृक्षों वाला काम्यकवन भी सव्यसाची अर्जुन के बिना पहले जैसा रमणीय नहीं जान पड़ता है। नीलमेघ के समान कांति और मतवाले गजराज की-सी गति वाले उन कमलनयन अर्जुन के बिना यह काम्यकवन मुझे तनिक भी नहीं भाता है। राजन्! जिसके धनुष की टंकार बिजली की गड़गड़ाहट के समान सुनायी देती है, उन सव्यसाची की याद करके मुझे तनिक भी चैन नहीं मिलता’।
     महाराज! इस प्रकार विलाप करती हुई द्रौपदी की बात सुनकर शत्रुवीरों का संहार करने वाले भीमसेन ने उससे इस प्रकार कहा। 
    भीमसेन बोले ;- 'भद्रे! सुमध्यमे! तुम जो कुछ कहती हो, वह मेरे मन को प्रसन्न करने वाला है। तुम्हारी बात मेरे हृदय को अमृतपान के तुल्य तृप्ति प्रदान करती है। जिसकी दोनों भुजाएं लम्बी, मोटी, बराबर-बराबर तथा परिघ के समान सुशोभित होने वाली हैं, जिन पर प्रत्यंचा की रगड़ का चिह्न बन गया है, जो गोलाकार हैं और जिनमें खग एवं धनुष सुशोभित होते हैं, सोने के भुजबन्दों से विभूषित होकर जो पांच-पांच फन वाले दो सर्पों के समान प्रतीत होती हैं, उन पांचों अंगुलियों से युक्त दोनों भुजाओं से विभूषित नरश्रेष्ठ अर्जुन के बिना आज यह वन सूर्यहीन आकाश के समान श्रीहीन दिखलायी देता है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अशीतितम अध्याय के श्लोक 20-30 का हिन्दी अनुवाद)

     'जिस महाबाहु अर्जुन का आश्रय लेकर पांचाल और कुरुवंश के वीर युद्ध के लिये उद्यत देवताओं की सेना का सामना करने से भी भयभीत नहीं होते हैं, जिन महात्मा के बाहुबल के भरोसे हम सब लोग युद्ध में अपने शत्रुओं को पराजित और इस पृथ्वी का राज्य अपने अधिकार में आया हुआ मानते हैं, उन वीरवर अर्जुन के बिना हमें काम्यकवन में धैर्य नहीं प्राप्त हो रहा है। मुझे सारी दिशाएं अन्धकार से आच्छन्न-सी दिखायी देती हैं।'
    भीमसेन की यह बात सुनकर पाण्डुनन्दन नकुल अश्रुगद्गद कण्ठ से बोले। 
     नकुल ने कहा ;- 'जिस महावीर अर्जुन के विषय में रणप्रांगण के भीतर देवताओं के द्वारा भी दिव्य कर्मों का वर्णन किया जाता है, उन योद्धाओं में श्रेष्ठ धनंजय के बिना अब इस वन में क्या प्रसन्नता है? जिस महातेजस्वी ने उत्तर दिशा में जाकर महाबली मुख्य-मुख्य गन्धवों को युद्ध में परास्त करके उनसे सैकड़ों घोड़े प्राप्त किये। जिन्होंने महायज्ञ राजसूय में अपने प्यारे भाई धर्मराज युधिष्ठिर को प्रेमपूर्वक वायु के समान वेगशाली तित्तिरिकल्माष नामक सुन्दर घोड़े भेंट किये थे। भीम के छोटे भाई उन भयंकर धनुर्धर देवोपम अर्जुन के बिना इस समय मुझे इस काम्यकवन में रहने की इच्छा नहीं होती।'
    सहदेव ने कहा ;- 'जिस महारथी वीर ने अपने राजसूय महायज्ञ के अवसर पर युद्ध में जीतकर बहुत धन और कन्याएं महाराज युधिष्ठिर को भेंट की थीं, जिन अनन्त तेजस्वी धनंजय ने भगवान् श्रीकृष्ण की सम्मति से युद्ध के लिये एकत्र हुए समस्त यादवों को अकेले ही जीतकर सुभद्रा का हरण कर लिया था। महाराज! उन्हीं विजयी भ्राता धनंजय के आसनों को अब अपनी कुटिया में सूना देखकर मेरे हृदय को कभी शांति नहीं मिलेगी। अतः शत्रुदमन! मैं इस वन से अन्यत्र चलना पसन्द करता हूँ। वीरवर अर्जुन के बिना अब यह वन रमणीय नहीं लगता।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में अर्जुन के लिये पाण्डवों का अनुताप विषयक अस्सीवां अध्याय पूरा हुआ)


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