सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के इकहत्तरवें अध्याय से पचहत्तरवें अध्याय तक (From the 71 to the 75 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

इकहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा ऋतुपर्ण का विदर्भ देश को प्रस्थान, राजा नल के विषय में वार्ष्‍णेय का विचार और बाहुक की अद्भुत अश्वसंचालन कला से वार्ष्‍णेय और ऋतुपर्ण का प्रभावित होना"

    बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! सुदेव की वह बात सुनकर राजा ऋतुपर्ण ने मधुर वाणी से सान्त्वना देते हुए बाहुक से कहा,,

   ऋतूपर्ण बोले ;- ‘बाहुक! तुम अश्वविद्या के तत्त्वज्ञ हो, यदि मेरी बात मानो तो मैं दमयन्ती के स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिये एक ही दिन में विदर्भ देश की राजधानी में पहुँचना चाहता हूँ।'   

     कुन्तीनन्दन! राजा ऋतुपर्ण के ऐसा कहने पर राजा नल का मन अत्यन्त दु:ख से विदीर्ण होने लगा। महामना नल बहुत देर तक किसी भारी चिंता में निमग्न हो गये।

   वे सोचने लगे,,- ‘क्या दमयन्ती ऐसी बात कह सकती है? अथवा सम्भव है, दुःख से मोहित होकर वह ऐसा कार्य कर ले। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसने मेरी प्राप्ति के लिये यह महान् उपाय सोच निकाला हो? तपस्विनी एवं दीन विदर्भ राजकुमारी को मुझ नीच एवं पापबुद्धि पुरुष ने धोखा दिया है, इसीलिये वह ऐसा निष्ठुर कार्य करने को उद्यत हो गयी हैं। संसार में स्त्री का चंचल स्वभाव प्रसिद्ध है। मेरा अपराध भी भयंकर है। सम्भव है मेरे प्रवास से उसका हार्दिक स्नेह कम हो गया हो, अतः वह ऐसा भी कर ले। क्योंकि पतली कमर वाली वह युवती मेरे शोक से अत्यन्त उद्विग्न हो उठी होगी और मेरे मिलने की आशा न होने के कारण उसने ऐसा विचार कर लिया होगा, परन्तु मेरा हृदय कहता है कि वह कभी ऐसा नहीं कर सकती। विशेषतः वह संतानवती है। इसलिये भी उससे ऐसी आशा नहीं की जा सकती। इसमें कितना सत्य और असत्य है-इसे में वहाँ जाकर ही निश्चित रूप से जान सकूंगा, अतः मैं अपने लिये ही ऋतुपर्ण की इस कामना को पूर्ण करूंगा’।

    मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके दीनहृदय बाहुक ने दोनों हाथ जोड़कर राजा ऋतुपर्ण से इस प्रकार कहा,,

   बाहुक बोले ;- ‘नरेश्वर! पुरुषसिंह! मैंने आपकी आज्ञा सुनी है, मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि मैं एक ही दिन में विदर्भ देश की राजधानी में आपके साथ जा पहुँचूगा’।

    युधिष्ठिर! तदनन्तर बाहुक ने अश्वशाला में जाकर राजा ऋतुपर्ण की आज्ञा से अश्वों की परीक्षा की। ऋतुपर्ण बाहुक को बार-बार उत्तेजित करने लगे, अतः उसने अच्छी तरह विचार करके अश्वों की परीक्षा ली और ऐसे अश्वों को चुना, जो देखने में दुबले होने पर भी मार्ग तय करने में शक्तिशाली एवं समर्थ थे। वे तेज और बल से युक्त थे। वे अच्छी जाति के और अच्छे स्वभाव के थे। उनमें अशुभ लक्षणों का सर्वथा अभाव था। उनकी नाक मोटी और थूथन (ठोड़ी) चौड़ी था। वे वायु के समान वेगशाली सिन्धु देश के घोडे़ थे। वे इस आवर्त (भंवरियों) के चिह्नों से युक्त होने के कारण निर्दोष थे। उन्हें देखकर राजा ऋतुपर्ण ने कुछ कुपित होकर कहा,,

   राजा ऋतुपर्ण बोले ;- ‘क्या तुमसे ऐसे ही घोडे़ चुनने के लिये कहा था, तुम मुझे धोखा तो नहीं दे रहे हो। ये अल्पबल और शक्ति वाले घोड़े कैसे मेरा इतना बड़ा रास्ता तय कर सकेंगे? ऐसे घोड़ों से इतनी दूर तक कैसे रथ ले जाया जायेगा?’

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 16-36 का हिन्दी अनुवाद)

   बाहुक (राजा नल) ने कहा ;- 'राजन्! ललाट में एक, मस्तक में दो, पार्श्वभाग में दो, उपपार्श्वभाग में भी दो, छाती में दोनों और दो दो और पीठ में एक-इस प्रकार कुल बारह भंवरियों को पहचानकर घोड़े रथ में जोतने चाहिये। ये मेरे चुने हुए घोड़े अवश्य विदर्भ देश की राजधानी तक पहुचेंगे, इसमें संशय नहीं है। महाराज! इन्हें छोड़कर आप जिनको भी ठीक समझें, उन्हीं को मैं रथ में जोत दूंगा।' 

   ऋतुपर्ण बोले ;- 'बाहुक! तुम अश्वविद्या के तत्त्वज्ञ और कुशल हो, अतः जिन्हें इस कार्य में समर्थ समझो, उन्हीं को शीघ्र जोतो।' तब चतुर एवं कुशल राजा नल ने अच्छी जाति और उत्तम स्वभाव के चार वेगशाली घोड़ों को रथ से जोता। जुते हुए रथ पर राजा ऋतुपर्ण बड़ी उतावली के साथ सवार हुए। इसलिये उनके चढ़ते ही वे उत्तम घोड़े घुटनों के बल पृथ्वी पर गिर पड़े।

     युधिष्ठिर! तब नरश्रेष्ठ श्रीमहान् राजा नल ने तेज और बल से सम्पन्न घोड़ों को पुचकारा। फिर अपने हाथ में बागडोर ले उन्हें काबू में करके रथ को आगे बढ़ाने की इच्छा की। वार्ष्‍णेय सारथि को रथ पर बैठाकर अत्यन्त वेग का आश्रय ले उन्होंने रथ हांक दिया। बाहुक के द्वारा विधिपूर्वक हांके जाते हुए वे उत्तम अश्व रथी को मोहित से करते हुए इतने तीव्र वेग से चले, मानो आकाश में उड़ रहे हों। इस प्रकार वायु के समान वेग से रथ का वहन करने वाले उन अश्वों को देखकर श्रीमान् अयोध्या नरेश को बड़ा विस्मय हुआ। रथ की आवाज सुनकर और घोड़ों को काबू में करने की वह कला देखकर वार्ष्‍णेय ने बाहुक के अश्व-विज्ञान पर सोचना आरम्भ किया- ‘क्या यह देवराज इन्द्र का सारथि मातलि है? इस वीर बाहुक में मातलि का-सा ही महान् लक्षण देखा जाता है अथवा घोड़ों की जाति और उनके विषय की तात्विक बातें जानने वाले ये आचार्य शालिहोत्र तो नहीं हैं, जो परम सुन्दर मानव शरीर धारण करके यहाँ आ पहुँचे हैं अथवा शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले साक्षात् राजा नल ही तो इस रूप में नहीं आ गये हैं? अवश्य वे ही हैं।'

   इस प्रकार वार्ष्‍णेय ने चिन्तन करना प्रारम्भ किया। ‘राजा नल इस जगत् में जिस विद्या को जानते हैं, उसी को बाहुक भी जानता है। बाहुक और नल दोनों का ज्ञान मुझे एक-सा दिखायी देता है। बहुत-से महात्मा प्रच्छन्न रूप धारण करके देवोचित विधि तथा शास्त्रोंक्त नियमों से युक्त होकर इस पृथ्वी पर विचरते रहते हैं। इसके शरीर की रूपहीनता को लक्ष्य करके मेरी बुद्धि में यह भेद नहीं पैदा होता कि यह नल नहीं है, परन्तु राजा नल की जो मोटाई है, उससे यह कुछ-पतला है। उससे मेरे मन में यह विचार होता है कि सम्भव है, यह नल न हो। इसकी अवस्था का प्रमाण तो उन्हीं के समान है, परन्तु रूप की दृष्टि से तो अन्तर पड़ता है। फिर भी अन्ततः मैं इसी निर्णय पर पहुँचता हूँ कि मेरी राय में बाहुक सर्वगुणसम्पन्न राजा नल ही हैं’।

   महाराज युधिष्ठिर! इस प्रकार पुण्यश्लोक नल के सारथि वार्ष्‍णेय ने बार-बार उपर्युक्त रूप से विचार करते हुए मन-ही-मन उक्त धारणा बना ली। महाराज ऋतुपर्ण भी बाहुक के अश्वचालन विषयक ज्ञान पर विचार करके वार्ष्‍णेय सारथि के साथ बहुत प्रसन्न हुए। उसकी वह एकाग्रता, वह उत्साह, घोड़ों को काबू में रखने की वह कला और उत्तम प्रयत्न देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में ऋतुपर्ण का विदर्भ देश में गमन विषयक इकहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

बहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"ऋतुपर्ण के उत्तरीय वस्त्र गिरने और बहेड़े के वृक्ष के फलों को गिनने के विषय में नल के साथ ऋतुपर्ण की बातचीत, ऋतुपर्ण से नल को द्यूतविद्या के रहस्य की प्राप्ति और उनके शरीर से कलियुग का निकलना"

   बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जैसे पक्षी आकश में उड़ता है, उसी प्रकार बाहुक (बडे़ वेग से) शीघ्रतापूर्वक कितनी ही नदियों, पर्वतों, वनों और सरोवरों को लांघता हुआ आगे बढ़ने लगा। जब रथ इस प्रकार तीव्र गति से दौड़ रहा था, उसी समय शत्रुओं के नगरों को जीतने वाले राजा ऋतुपर्ण ने देखा, उनका उत्तरीय वस्त्र नीचे गिर गया। उस समय वस्त्र गिर जाने पर उन महामना नरेश ने बड़ी उतावली के साथ नल से कहा,,

   राजा ऋतुपर्ण बोले ;- ‘महामते! इन वेगशाली घोड़ों को (थोड़ी देर के लिये) रोक लो। मैं अपनी गिरी हुई चादर लूंगा। जब तक यह वार्ष्‍णेय उतर कर मेरे उत्तरीय वस्त्र को ला दे, तब तक रथ को रोके रहो’। यह सुनकर नल ने उसे उत्तर दिया,,

   नल बोले (बाहुक) ;- 'महाराज! आपका वस्त्र बहुत दूर गिरा है। मैं उस स्थान से चार कोस आगे आ गया हूँ। अब फिर वह नहीं लाया जा सकता’।

    राजन्! नल के ऐसा कहने पर राजा ऋतुपर्ण चुप हो गये। अब वे एक वन में एक बहेड़े के वृक्ष के पास आ पहुँचे, जिसमें बहुत से फल लगे थे। उस वृक्ष को देखकर राजा ऋतुपर्ण ने तुरन्त ही बाहुक से कहा,,

राजा ऋतुपर्ण बोले ;- ‘सूत! तुम देखो, मुझमें भी गणना करके (हिसाब लगाने) की कितनी अद्भुत शक्ति है। बाहुक! इस वृक्ष पर जितने पत्ते और फल हैं, उन सबको मैं बताता हूँ। पेड़ के नीचे जो पत्ते और फल गिर हुए हैं, उनकी संख्या एक सौ अधिक है; इसके सिवा एक पत्र एक फल और भी अधिक है; अर्थात् नीचे गिर हुए पत्तों और फलों की संख्या वृक्ष में लगे हुए पत्तों और फलों से एक सौ दो अधिक है। इस वृक्ष की दोनों शाखाओं में पांच करोड़ पत्ते हैं। तुम्हारी इच्छा हो ता इन दोनों शाखाओं तथा इसकी अन्य प्रशाखाओं (को काटकर उन) के पत्ते गिन लो। इसी प्रकार इन शाखाओं में दो हजार पंचानवे फल लगे हुए हैं।'

   यह सुनकर बाहुक ने रथ खड़ा करके राजा से कहा,,

  बाहुक बोला ;- ‘शत्रुसूदन नरेश! आप जो कह रहे हैं, वह संख्या परोक्ष है। मैं इतने बड़े बहेड़े के वृक्ष को काटकर उसके फलों की संख्या को प्रत्यक्ष करूंगा। महाराज! आपकी आंखों के सामने इस बहेड़े को काटूंगा। इस प्रकार गणना कर लेने पर वह संख्या परोक्ष नहीं रह जायेगी। बिना ऐसा किये मैं तो नहीं समझ सकता कि (फलों की) संख्या इतनी है या नहीं। जनेश्वर! यदि वार्ष्‍णेय दो घड़ी तक भी इन घोड़ों की लगाम संभाले तो मैं आपके देखते-देखते इसके फलों को गिन लूंगा’। 

   तब राजा ने सारथि (बाहुक) से कहा ;- ‘यह विलम्ब करने का समय नहीं है।’

   बाहुक बोला ;- ‘मैं प्रयत्नपूर्वक शीघ्र ही गणना समाप्त कर दूंगा। आप दो घड़ी तक प्रतीक्षा कीजिये अथवा यदि आपको बड़ी जल्दी हो तो यह विदर्भ देश का मंगलमय मार्ग है, वार्ष्‍णेय को सारथि बनाकर चले जाइये’। कुरुनन्दन! तब ऋतुपर्ण ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा,,

   राजा ऋतुपर्ण बोले ;- ‘बाहुक! तुम्हीं इन घोड़ों को हांक सकते हो। इस कला में पृथ्वी पर तुम्हारे जैसा दूसरा कोई नहीं है। घोड़ों के रहस्य को जानने वाले बाहुक! तुम्हारे ही प्रयत्न से मैं विदर्भ देश की राजधानी में पहुँचना चाहता हूँ। देखो, तुम्हारी शरण में आया हूँ। इस कार्य में विघ्न न डालो।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘बाहुक! यदि आज विदर्भ देश में पहुँचकर तुम मुझे सूर्य का दर्शन करा सको तो तुम जो कहोगे, तुम्हारी वही इच्छा पूर्ण करूंगा।' 

    यह सुनकर बाहुक ने कहा ,,

   बाहुक बोला ;- ‘मैं बहेड़े के फलों को गिनकर विदर्भ देश को चलूंगा। आप मेरी यह बात मान लीजिये’। राजा ने मानो अनिच्छा से कहा हो,,

  राजा बोले ;- ‘अच्छा, गिन लो। अश्वविद्या के तत्त्व को जानने वाले निष्पाप बाहुक! मेरे बताये अनुसार तुम शाखा के एक ही भाग को गिनो। इससे तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी’।' बाहुक ने रथ से उतरकर तुरन्त ही उस वृक्ष को काट डाला। गिनने से उसे उतने ही फल मिले। तब उसने विस्मित होकर राजा ऋतुपर्ण से कहा,,

   बाहुक बोला ;- ‘राजन्! आप में गणित की एक अद्भुत शक्ति मैंने देखी है। नराधिप! जिस विद्या में यह गिनती जान ली जाती है, मैं उसे सुनना चाहता हूँ।’

   राजा तुरन्त जाने के लिये उत्सुक थे, अतः उन्होंने बाहुक से कहा,,

  राजा बोले ;- ‘तुम द्यूत-विद्या का मर्मज्ञ और गणित में अत्यन्त निपुण समझो’।

    बाहुक ने कहा ;- 'पुरुषश्रेष्ठ! तुम यह विद्या मुझे बतला दो और बदले में मुझसे भी अश्व-विद्या का रहस्य ग्रहण करो लो’। तब राजा ऋतुवर्ण ने कार्य की गुरुता और अश्व विज्ञान के लोभ से बाहुक को आश्वासन दते हुए कहा,,

   राजा ऋतुपर्ण बोले ;- ‘तथास्तु। बाहुक! तुम मुझ से द्यूत-विद्या का गूढ़ रहस्य ग्रहण करो और अश्व विज्ञान को मेरे लिये अपने पास धरोवर के रूप में रहने दो।’ ऐसा कहकर ऋतुपर्ण ने नल को अपनी विद्या दे दी। द्यूत-विद्या का रहस्य जानने के अनन्तर नल के शरीर से कलियुग निकला। वह कर्कोटक नाग के तीखे विष को बार-बार उगल रहा था। उस समय कष्ट में पड़े हुए कलियुग की वह शपाग्नि भी दूर हो गयी। राजा नल को उसने दीर्धकाल तक कष्ट दिया था और उसी के कारण वे कर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। तदनन्तर विष के प्रभाव से मुक्त होकर कलियुग ने अपने स्वरूप को प्रकट किया।

   उस समय निषध नरेश नल ने कुपित हो कलियुग को शाप देने की इच्छा की। तब कलियुग भयभीत होता कांपता हुआ हाथ जोड़ उनसे बोला,,

   कलयुग बोला ;- ‘महाराज! अपने क्रोध को रोकिये। मैं आपको उत्तम कीर्ति प्रदान करूंगा। इन्द्रसेन की माता दमयन्ती ने, पहले जब उसे आपने वन में त्याग दिया था, कुपित होकर मुझे शाप दे दिया। उससे मैं बड़ा कष्ट पाता रहा हूँ। किसी से पराजित न होने वाले महाराज! मैं आपके शरीर में अत्यन्त दुःखित होकर रहता था। नागराज कर्कोटक के विष से मैं दिन-रात झुलसता जा रहा था (इस प्रकार मुझे अपने किये का कठोर दण्ड मिल गया है)। अब मैं आपकी शरण में हूँ। आप मेरी यह बात सुनिये, यदि भय पीड़ित और शरण के आये हुए मुझको आप शाप नहीं देंगे तो संसार में जो मनुष्य आलस्यरहित हो आपकी कीर्ति-कथा का कीर्तन करेंगे, उन्हें मुझसे कभी भय नहीं होगा।’ कलियुग के ऐसा कहने पर राजा नल ने अपने क्रोध को रोक लिया। तदनन्तर कलियुग भयभीत हो तुरन्त ही बहेड़े के वृक्ष में समा गया। वह जिस समय निषधराज नल के साथ बात कर रहा था, उस समय दूसरे लोग उसे नहीं देख पाते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 39-43 का हिन्दी अनुवाद)

    तदनन्तर कलियुग के अदृश्य हो जाने पर शत्रुवीरों का संहार करने वाले निषध नरेश राजा नल सारी चिन्ताओं से मुक्त हो गये। बहेड़े के फलों को गिनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उत्तम तेज से युक्त तेजस्वी रूप धारण करके रथ पर चढ़े और वेगशाली घोड़ों को हांकते हुए विदर्भ देश को चल दिये।

   कलियुग के आश्रय लेने से बहेड़े का वृक्ष निन्दित हो गया। तदनन्तर राजा नल ने प्रसन्नचित से पुनः घोड़ों को हांकना आरम्भ किया। वे उत्तम अश्व पक्षियों की तरह बार-बार उड़ते हुए से प्रतीत हो रहे थे ।अब महायशस्वी राजा नल विदर्भ देश की ओर (बड़े वेग से बढ़े) जा रहे थे। नल के चले जाने पर कलि अपने घर चले गये।

   राजन्! कलि से मुक्त हो भूमिपाल राजा नल सारी चिन्ताओं से छुटकारा पा गये; किंतु अभी तक उन्हें अपना पहला रूप नहीं प्राप्त हुआ था। उनमें केवल इतनी ही कमी रह गयी थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में कलियुग निर्गमन विषयक बहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

तीहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"ऋतुपर्ण का कुण्डिनपुर में प्रवेश, दमयन्ती का विचार तथा भीम के द्वारा ऋतुपर्ण का स्वागत"

  बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर शाम होते-होते सत्यपराक्रमी राजा ऋतुपर्ण विदर्भ राज्य में जा पहुँचे। लोगों ने राजा भीम को भी इस बात की सूचना दी। भीम के अनुरोध से राजा ऋतुपर्ण ने अपने रथ की घर्घराहट द्वारा सम्पूर्ण दिशा-विदिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए कुण्डिनपुर में प्रवेश किया। नल के घोड़े वहीं रहते थे, उन्होंने रथ का घोष सुना। सुनकर वह उतने ही प्रसन्न और उत्साहित हुए, जितने कि पहले नल के समीप रहा करते थे। दमयन्ती ने भी नल के रथ की घर्घराहट सुनी, मानो वर्षा काल में गरजते हुए मेघों का गम्भीर घोष सुनायी देता हो। वहाँ महाभयंकर रथनाद सुनकर उसे बड़ा विस्मय हुआ।

     पूर्वकाल में राजा नल जब घोड़ों की बाग संभालते थे, उन दिनों उनके रथ से जैसी गम्भीर ध्वनि प्रकट होती थी, वैसी ही उस समय के रथ की घर्घराहट भी दमयन्ती और उसके घोड़ों को जान पड़ी। महल पर बैठे हुए मयूरों, गजशाला में बंधे हुए गजराजों तथा अश्वशाला के अश्वों ने राजा के रथ का वह अद्भुत घोष सुना। राजन! रथ की उस आवाज को सुनकर हाथी और मयूर अपना मुँह ऊपर उठाकर उसी प्रकार उत्कण्ठापूर्वक अपनी बोली बोलने लगे, जैसे वे मेघों की गर्जना होने पर बोला करते हैं।

   (उस समय) दमयन्ती ने (मन-ही-मन) कहा ;- 'अहो! रथ की घर्घराहट इस पृथ्वी को गुंजाती हुई जिस प्रकार मेरे मन को आह्लाद प्रदान कर रही है, उससे जान पड़ता है, ये महाराज नल ही पधारे हैं। आज यदि असंख्य गुणों से विभूषित तथा चन्द्रमा के समान मुख वाले वीरवर नल को न देखूंगी तो अपने इस जीवन का अन्त कर दूंगी, इसमें संशय नहीं है। आज यदि मैं इन वीरशिरोमणि नल की दोनों भुजाओं के मध्य भाग में, जिसका स्पर्श अत्यन्त सुखद है, प्रवेश न कर सकी तो अवश्य जीवित न रह सकूंगी। यदि रथ द्वारा मेघ के समान गम्भीर गर्जना करने वाले निषध नरेश के स्वामी महाराज नल आज मेरे पास नहीं पधारेंगे तो मैं सुवर्ण के समान देदीप्यमान दहकती हुई आग में प्रवेश कर जाऊंगी। यदि सिंह के समान पराक्रमी और मतवाले हाथी के समान मस्तानी चाल से चलने वाले राजराजेश्वर नल मेरे पास नहीं आयेंगे तो आज अपने जीवन को नष्ट कर दूँगी, इसमें संशय नहीं है। मुझे याद नहीं कि स्वेच्छापूवर्क अर्थात् हंसी-मजाक में भी मैं कभी झुठ बोली हूं, स्मरण नहीं कि कभी किसी का मेरे द्वारा अपकार हुआ हो तथा यब भी स्मरण नहीं कि मैंने प्रतिज्ञा की हुई बात का उल्लंघन किया हो। मेरे निषधराज नल शक्तिशाली, क्षमाशील, वीर, दाता, सब राजाओं से श्रेष्ठ, एकान्त में भी नीच कर्म से दूर रहने वाले तथा परायी स्त्रियों के लिये नपुंसकतुल्य हैं। मैं (सदा) उन्हीं के गुणों का स्मरण करती और दिन-रात उन्हीं के परायण रहती हूँ। प्रियतम नल के बिना मेरा यह हृदय उनके विरह शोक से विदीर्ण-सा होता रहता है।'

    भारत! इस प्रकार विलाप करती हुई दमयन्ती अचेत-सी हो गयी। वह पुण्यश्लोक नल के दर्शन की इच्छा से ऊंचे महल की छत पर जा चढ़ी। वहाँ से उसने देखा, वार्ष्‍णेय और बाहुक के साथ रथ पर बैठे हुए महाराज ऋतुपर्ण मध्यम कक्षा (परकोटे) में पहुँच गये हैं। तदनन्तर वार्ष्‍णेय और बाहुक ने उस उत्तम रथ से उतर कर घोड़े खोल दिये और रथ को एक जगह खड़ा कर दिया। इसके बाद राजा ऋतुपर्ण रथ के पिछले भाग से उतरकर भयानक पराक्रमी महाराज भीम से मिले।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद)

   तदनन्तर भीम ने बड़े आदर-सत्कार के साथ उन्हें अपनाया और राजा ऋतुपर्ण का भलीभाँति आदर-सत्कार किया। भूपाल ऋतुपर्ण रमणीय कुण्डिनपुर में ठहर गये। उन्हें बार-बार देखने पर भी वहाँ (स्वयंवर जैसी) कोई चीज नहीं दिखायी दी। वे विदर्भ नरेश से मिलकर सहसा इस बात को न जान सके कि यह स्त्रियों की अकस्मात् गुप्त मन्त्रणा-मात्र थी।

   भरतनन्दन युधिष्ठिर! विदर्भराज ने स्वागतपूर्वक ऋतुपर्ण से पूछा,,

    युधिष्ठिर बोले ;- 'आपके यहाँ पधारने का क्या कारण है?' राजा भीम यह नहीं जानते थे कि दमयन्ती के लिये ही इनका शुभागमन हुआ है। राजा ऋतुपर्ण भी बड़े बुद्धिमान् और सत्यपराक्रमी थे। उन्होंने वहाँ किसी भी राजा या राजकुमार को नहीं देखा। ब्राह्मणों का भी वहाँ समागम नहीं हो रहा था। स्वयंवर की तो कोई चर्चा तक नहीं थी। तब कोशल नरेश ने मन-ही-मन कुछ विचार किया और विदर्भराज से कहा,,

    राजा ऋतुपर्ण बोले ;- ‘राजन्! मैं आपका अभिवादन करने के लिये आया हूँ।' 

   यह सुनकर राजा भीम भी मुस्करा दिये और मन-ही-मन सोचने लगे,,- ‘ये बहुत-से गांवों को लांघकर सौ योजन से भी अधिक दूर चले आये हैं, किंतु कार्य इन्होंने बहुत साधारण बतलाया है। फिर इनके आगमन का क्या कारण है, इसे मैं ठीक-ठीक न जान सका।

‘अच्छा, जो भी कारण होगा पीछे मालूम कर लूंगा। ये जो कारण बता रहे हैं, इतना ही इनके आगमन का हेतु नहीं है।’ ऐसा विचार कर राजा ने उन्हें सत्कारपूर्वक विश्राम के लिये विदा किया और कहा,,

   भीमसेन बोले ;- ‘आप बहुत थक गये होंगे, अतः विश्राम कीजिये।’ विदर्भ नरेश के द्वारा प्रसन्नतापर्वूक आदर-सत्कार पाकर राजा ऋतुपर्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वे राजसेवकों के साथ गये और बताये हुए भवन में विश्राम के लिये प्रवेश किया।

   राजन्! वार्ष्‍णेय सहित ऋतुपर्ण के चले जाने पर बाहुक रथ लेकर रथशाला में आ गया। उसने उन घोड़ों को खोल दिया और अश्वशास्त्र की विधि के अनुसार उनकी परिचर्या करने के बाद घोड़ों को पुचकार कर उन्हें धीरज देने के पश्चात् वह स्वयं भी रथ के पिछले भाग में जा बैठा। दमयन्ती भी शोक से आतुर हो राजा ऋतुपर्ण, सूतपुत्र वार्ष्‍णेय तथा पूर्वोक्त बाहुक को देखकर सोचने लगी,,

  दमयन्ती ने सोचा ;- ‘यह किसके रथ की घर्घराहट सुनायी पड़ती थी। वह गम्भीर घोष तो महाराज नल के रथ-जैसा था; परन्तु इन आगन्तुकों में मुझे निषधराज नल नहीं दिखायी देते। वार्ष्‍णेय ने भी नल के समान ही अश्वविद्या सीख ली हो, निश्चय ही यह सम्भावना की जा सकती है। तभी आज रथ की आवाज बड़े जोर से सुनायी दे रही थी, जैसे नल के रथ हांकते समय हुआ करती है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि राजा ऋतुपर्ण भी वैसे ही अश्वविद्या में निपुण हों, जैसे राजा नल हैं; क्योंकि नल के ही समान इनके रथ का गम्भीर घोष लक्षित होता है’।

   युधिष्ठिर! इस प्रकार विचार करके शुभलक्षण दमयन्ती ने नल का पता लगाने के लिये अपनी दूती को भेजा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में ऋतुपर्ण का राजा भीम के नगर में प्रवेश विषयक तिहतरवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

चौहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुःसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"बाहुक-केशिनी संवाद"

   दमयन्ती बोली ;- केशिनी! जाओ और पता लगाओ कि यह छोटी-छोटी बांहों वाला पुरुष रथवाहक, जो रथ के पिछले भाग में बैठा है, कौन है? भद्रे! इसके निकट जाकर सावधानी के साथ मधुर वाणी में कुशल पूछना। अनिन्दिते! साथ ही इस पुरुष के विषय में ठीक-ठीक बाते जानने की चेष्टा करना। इसके विषय में मुझे बड़ी भारी शंका है। सम्भव है, इस वेष में राजा नल ही हों। मेरे मन में जैसा संतोष है और हृदय में जैसी शांति है, उससे मेरी उक्त धारणा पुष्ट हो रही है। सुश्रोणि! तुम बातचीत के सिलसिलें में इसके सामने पर्णाद ब्राह्मण वाली बात कहना और अनिन्दिते! यह जो उत्तर दे, उसे अच्छी तरह समझना।'

    तब वह दूती बड़ी सावधानी से वहाँ जाकर बाहुक से वार्तालाप करने लगी और कल्याणी दमयन्ती भी महल में उसके लौटने की प्रतीक्षा में बैठी रही।

  केशिनी ने कहा ;- 'नरेन्द्र! आपका स्वागत है! मैं आपका कुशल समाचार पूछती हूँ। पुरुषश्रेष्ठ! दमयन्ती की कही हुई यह उत्तम बातें सुनिये। विदर्भ राजकुमारी यह सुनना चाहती हैं कि आप लोग अयोध्या से कब चले हैं और किसलिये यहाँ आये हैं? आप न्याय के अनुसार ठीक-ठीक बतायें।'

    बाहुक बोला ;- 'महात्मा कोसलराज ने एक ब्राह्मण के मुख से सुना था कि कल दमयन्ती का द्वितीय स्वयंवर होने वाला है। यह सुनकर राजा हवा के समान वेगशाली और सौ योजन तक दौड़ने वाले अच्छे घोड़ों से जुते हुए रथ पर सवार हो विदर्भ प्रदेश के लिये प्रस्थित हो गये। इस यात्रा में मैं ही इनका सारथि था।'

  केशिनी ने पूछा ;- 'आप लोगों में से जो तीसरा व्यक्ति है, वह कहाँ से आया है अथवा किसका सेवक है? ऐसे ही आप कौन हैं, किसके पुत्र हैं और आप पर इस कार्य का भार कैसे आया है?'

   बाहुक बाला ;- 'भद्रे! उस तीसरे व्यक्ति का नाम वार्ष्‍णेय है, वह पुण्यश्लोक राजा नल का सारथि है। नल के वन में निकल जाने पर वह ऋतुपर्ण की सेवा में चला गया है। मैं भी अश्वविद्या में कुशल हूँ और सारथि के कार्य में भी निपुण हूं, इसलिये राजा ऋतुपर्ण ने स्वयं ही मुझे वेतन देकर सारथि के पद पर नियुक्त कर लिया।'

   केशिनी ने पूछा ;- 'बाहुक! क्या वार्ष्‍णेय यह जानता है कि राजा नल कहाँ चले गये, उसने आपसे महाराज के सम्बन्ध में कैसी बात बतायी है?'

   बाहुक बोला ;- 'भद्रे! पुण्यकर्मा नल के दोनों बालकों को यहीं रखकर वार्ष्‍णेय अपनी रुचि के अनुसार अयोध्या चला गया था। यह नल के विषय में कुछ नहीं जानता है। यशस्विनी! दूसरा कोई पुरुष भी नल को नहीं जानता। राजा नल का पहला रूप अदृश्य हो गया है। वे इस जगत् में गूढ़भाव से विचरते हैं। परमात्मा ही नल को जानते हैं तथा उसकी जो अन्तरात्मा है, वह उन्हें जानती है, दूसरा कोई नहीं; क्योंकि राजा नल अपने लक्षणों और चिह्नों को कभी दूसरों के सामने नहीं प्रकट करते हैं।'

   केशिनी ने कहा ;- 'पहली बार अयोध्या में जब वे ब्राह्मण देवता गये थे, तब उन्होंने स्त्रियों की सिखायी हुई निम्नांकित बातें बार-बार कहीं थी,,- ‘ओ जुआरी प्रियतम! तुम अपने प्रति अनुराग रखने वाली वन में सोयी हुई मुझ प्यारी पत्नी को छोड़कर तथा मेरे आधे वस्त्र को फाड़कर कहाँ चल दिये?'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुःसप्ततितम अध्याय के श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘उसे तुमने जिस अवस्था में देखा था, उसी अवस्था में वह आज भी है और तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रही है। आधे वस्त्र से अपने शरीर को ढक कर वह युवती दिन-रात तुम्हारी विरहाग्नि में जल रही है। वीर भूमिपाल! सदा तुम्हारे शोक से रोती हुई अपनी उसी प्यारी पत्नी पर पुनः कृपा करो और मेरी बात का उत्तर दो।' महामते! ब्राह्मण के मुख से यह वचन सुनकर पहले आपने जो उत्तर दिया था, उसी को वैदर्भी आपके मुंह से पुनः सुनना चाहती हैं।'

  बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! केशिनी के ऐसा कहने पर राजा नल के हृदय में बड़ी वेदना हुई। उनकी दोनों आंखें आंसुओं से भर गयीं। निषध नरेश शोकाग्नि से दग्ध हो रहे थे, तो भी उन्होंने अपने दुःख के वेग को रोककर अश्रुगद्गद वाणी में पुनः यों कहना आरम्भ किया।

   बाहुक बोला ;- 'उत्तम कुल की स्त्रियां बड़े भारी संकट में पड़कर भी स्वयं अपनी रक्षा करती हैं। ऐसा करके वे स्वर्ग और सत्य दोनों पर विजय पा लेती हैं, इसमें संशय नहीं है। श्रेष्ठ नारियां अपने पतियों के परित्यक्त होने पर भी कभी क्रोध नहीं करती। वे सदा सदाचाररूपी कवच से आवृत प्राणी को धारण करती हैं। वह पुरुष बड़े संकट में था तथा सुख के साधनों से वंचित होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हा गया था। ऐसी दशा में यदि उसने अपनी पत्नी का परित्याग किया है, तो इसके लिये पत्नी को उस पर क्रोध नहीं करना चाहिये। पति ने उसका सत्कार किया हो या असत्कार; उसे चाहिये कि पति को वैसे संकट में पड़ा देखकर उसे क्षमा कर दे; क्योंकि वह राज्य और लक्ष्मी से वंचित हो भूख से पीड़ित एवं विपत्ति के अथाह सागर में डूबा हुआ था।'

   इस प्रकार पूवोक्त बातें कहते हुए नल का मन अत्यन्त उदास हो गया। भारत! वे अपने उमड़ते हुए आंसुओं को रोक न सके तथा रोने लगे।

  तदनन्तर केशिनी ने भीतर जाकर दमयन्ती से यह सब निवेदन किया। उसने बाहुक की कही हुई सारी बातों और उसके मनोविकारों को भी यथावत् कह सुनाया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत नलोपाख्यानपर्व में नल-केशिनी संवाद विषयक चौहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

पचहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"दमयन्ती के आदेश से केशिनी द्वारा बाहुक की परीक्षा तथा बाहुक का अपने लड़के-लड़कियों को देखकर उनसे प्रेम करना"

  बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर यह सब सुनकर दमयन्ती अत्यन्त शोकमग्न हों गयी। उसके हृदय में निश्चित रूप से बाहुक के नल होने का संदेह हो गया और यह केशिनी से इस प्रकार बोली,,

   दमयन्ती बोली ;- ‘केशिनी! फिर जाओ और बाहुक की परीक्षा करो। अब की बार तुम कुछ बोलना मत। निकट रहकर उसके चरित्रों पर दृष्टि रखना। भामिनि! जब वह कोई काम करे तो उस कार्य को करते समय उसकी प्रत्येक चेष्टा और उसके कारण पर लक्ष्य रखना। केशिनी! वह आग्रह करे तो भी उसे आग न देना और मांगने पर भी किसी प्रकार जल्दी में आकर पानी भी न देना। बाहुक के इन सब चरित्रों की समीक्षा करके फिर मुझे सब बात बताना। बाहुक में यदि तुम्हें कोई दिव्य तथा मानवोचित विशेषता दिखायी दे तथा और भी कोई विशेषता दृष्टिगोचर हो तो उस पर भी दृष्टि रखना और मुझे आकर बताना’।

    दमयन्ती के ऐसा कहने पर केशिनी पुनः वहाँ गयी और अश्वविद्या-विशारद बाहुक के लक्षणों का अवलोकन करके वह फिर लौट आयी। उसने बाहुक में जो दिव्य अथवा मानवोचित विशेषताएं देखीं, उसका यथावत् समाचार पूर्ण रूप से दमयन्ती को बताया।

   केशिनी ने कहा ;- 'दमयन्ती! उसका प्रत्येक व्यवहार अत्यन्त प्रवित्र है। ऐसा मनुष्य तो पहले मैंने कहीं भी न देखा है और न सुना है। किसी छोटे-से-छोटे दरवाजे पर जाकर भी वह झुकता नहीं है। उसे देखकर बड़ी आसानी के साथ दरवाजा ही इस प्रकार ऊंचा हो जाता है कि जिससे मस्तक उससे स्पर्श न हो। संकुचित स्थान में भी उसके लिये बहुत बड़ा अवकाश बन जाता है। राजा भीम ने ऋतुपर्ण के लिये अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ भेजे थे। उसमें प्रचुर मात्रा में केला आदि फलों का गूदा भी था , उनको धोने के लिये वहाँ खाली घड़े रख दिये थे; परंतु बाहुक के देखते ही वह सारे घड़े पानी से भर गये। उससे खाद्य पदार्थों को धोकर बाहुक ने चूल्हे पर चढ़ा दिया। फिर एक मुट्ठी तिनका लेकर सूर्य की किरणों से ही उसे उद्दीप्त किया। फिर तो देखते-देखते सहसा उसमें आग प्रज्वलित हो गयी। वह अद्भुत बात देखकर मैं आश्चर्यचकित होकर जहाँ आयी हूँ। बाहुक में एक और भी बड़े आश्चर्य की बात देखी है। शुभे! वह अग्नि का स्पर्श करके भी जलता नहीं है। पात्र में रखा हुआ थोड़ा-सा जल भी उसकी इच्छा के अनुसार तुरन्त ही प्रवाहित हो जाता है। एक और अत्यन्त आश्चर्यजनक बात मुझे उसमें दिखायी दी है। वह फूल लेकर उन्हें हाथों से धीरे-धीरे मसलता था। हाथों से मसलने पर भी वे फूल विकृत नहीं होते थे, अपितु और भी सुगन्धित और विकसित हो जाते थे। ये अद्भुत लक्षण देखकर मैं शीघ्रतापूर्वक यहाँ आयी हूँ।'

     बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! दमयन्ती ने पुण्यश्लोक महाराज नल की-सी बाहुक की सारी चेष्टाओं को सुनकर मन-ही-मन यह निश्चय कर लिया कि महाराज नल ही आये हैं। अपने कार्यों और चेष्टाओं द्वारा वे पहचान लिये गये हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचसप्ततितम अध्याय के श्लोक 19-28 का हिन्दी अनुवाद)

  चेष्टाओं द्वारा उसके मन में यह प्रबल आशंका जम गयी कि बाहुक मेरे पति ही हैं। फिर तो वह रोने लगी और मधुर वाणी में केशिनी से बोली,,

   दमयन्ती बोली ;- ‘सखी! एक बार फिर जाओ और जब बाहुक असावधान हो तो उसके द्वारा विशेष विधि से उबालकर तैयार किया हुआ फलों का गूदा रसोईघर में से शीघ्र उठा लाओ।’

   केशिनी दमयन्ती की प्रियकारिणी सखी थी। वह तुरन्त गयी और जब बाहुक का ध्यान दूसरी और गया, तब वह उसके उबाले हुए गरम-गरम फलों के गूदे में से थोड़ा-सा निकालकर तत्काल ले गयी।

   कुरुनन्दन! केशिनी ने यह फलों का गूदा दमयन्ती को दे दिया। उसे पहले अनेक बार नल के द्वारा उबाले हुए फलों के गूदे के स्वाद का अनुभव था। उसे खाकर वह पूर्णरूप से इस निश्चय पर पहुँच गयी कि बाहुक सारथि वास्तव में राजा नल हैं। फिर तो वह अत्यन्त दु:खी होकर विलाप करने लगी। उस समय उसकी व्याकुलता बहुत बढ़ गयी।

    भारत! फिर उसने मुंह धोकर केशिनी के साथ अपने बच्चों को बाहुक के पास भेजा। बाहुकरूपी राजा नल ने इन्द्रसेना और उसके भाई इन्द्रसेन को पहचान लिया और दौड़कर दोनों बच्चों को छाती से लगाकर गोद में ले लिया। देवकुमारों के समान उन दोनों सुन्दर बालकों को पाकर निषधराज नल अत्यन्त दुःखमय हो जोर-जोर से रोने लगे। उन्होंने बार-बार अपने मनोविकार दिखाये और सहसा दोनों बच्चों को छोड़कर केशिनी से इस प्रकार कहा,,

राजा नल (बाहुक) बोले ;- ‘भद्रे! ये दोनों बालक मेरे पुत्र और पुत्री के समान हैं, इसीलिये इन्हें देखकर सहसा मेरे नेत्रों से आंसू बहने लगे। भद्रे! तुम बार-बार आती-जाती हो, लोग किसी दोष की आशंका कर लेंगे और हम लोग इस देश के अतिथि हैं; अतः तुम सुखपूर्वक महल में चली जाओ’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत नलोपाख्यानपर्व में नल का अपनी पुत्री और पुत्र को देखने से सम्बन्ध रखने वाला पचहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)

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