सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के छाछठवें अध्याय से सत्तरवें अध्याय तक (From the 66 to the 70 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

छाछठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा नल के द्वारा दावानल से कर्कोटक नाग की रक्षा तथा नाग द्वारा नल को आश्वासन"

    बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! दमयन्ती को छोड़कर जब राजा नल आगे बढ़ गये, तब एक गहन वन में उन्होंने महान् दावानल प्रज्वलित होते देखा। उसी के बीच में उन्हें किसी प्राणी का यह शब्द सुनायी पड़ा,,- ‘पुण्यश्लोक महाराज नल! दौड़िये, मुझे बचाइये।’ उच्च स्वर से बार-बार दुहरायी गयी इस वाणी को सुनकर राजा नल ने कहा,,

    नल बोले ;- ‘डरो मत’। इतना कहकर वे आग के भीतर घुस गये। वहाँ उन्होंने देखा, एक नागराज कुण्डलाकार पड़ा हुआ सो रहा है। उस नाग ने हाथ जोड़कर कांपते हुए नल से उस समय इस प्रकार कहा,,

   नाग बोला ;- ‘राजन् मुझे कर्कोटक नाग समझिये। नरेश्वर! एक दिन मेरे द्वारा महातेजस्वी ब्रह्मर्षि नारद ठगे गये, अतः मनुजेश्वर! उन्होंने क्रोध से आविष्ट होकर मुझे शाप दे दिया,,- ‘तुम स्थावर वृक्ष की भाँति एक जगह पड़े रहो, जब कभी राजा नल आकर तुम्हें यहाँ से अन्यत्र ले जायेंगे, तभी तुम मेरे शाप से छुटकारा पा सकोगे’। राजन्! नारद जी के उस शाप से मैं एक पग भी चल नहीं सकता; आप मुझे बचाइये, मैं आपको कल्याणकारी उपदेश दूंगा। साथ ही मैं आपका मित्र हो जाऊँगा। सर्पों में मेरे-जैसा प्रभावशाली दूसरा कोई नहीं है। मैं आपके लिये हल्का हो जाऊंगा। आप शीघ्र मुझे लेकर यहाँ से चल दीजिये’।

    इतना कहकर नागराज कर्कोटक अंगूठे के बराबर हो गया। उसे लेकर राजा नल वन के उस प्रदेश की ओर चले गये, यहाँ दावानल नहीं था। अग्नि के प्रभाव से रहित अवकाश देश में पहुँचने पर जब नल ने उस नाग को छोड़ने का विचार किया, उस समय कर्कोटक ने फिर कहा,,

   कर्कोटक नाग बोला ;- ‘नैषध! आप अपने कुछ पैंड गिनते हुए चलिये। महाबाहो! ऐसा करने पर मैं आपके लिये परम कल्याण का साधन करूंगा’। तब राजा नल ने अपने पैंड गिनने आरम्भ किये। पैंड गिनते-गिनते जब राजा नल ने ‘दश’ कहा, तब नाग ने उन्हें डंस लिया। उसके डंसते ही उनका पहला रूप तत्काल अन्तर्हित (होकर श्याम वर्ण) हो गया। अपने रूप को इस प्रकार विकृत (गौर वर्ण से श्याम वर्ण) हुआ देख राजा नल को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने अपने पूर्वस्वरूप को धारण करके खड़े हुए कर्कोटक नाग को देखा।

  तब कर्कोटक नाग ने राजा नल को सान्त्वना देते हुए कहा,,

   कर्कोटक नाग फिर बोला ;- ‘राजन्! मैंने आपके पहले रूप को इसलिये अदृश्य कर दिया है कि लोग आपको पहचान न सकें। महाराज नल! जिस कलियुग के कपट से आपको महान् दुःख का सामना करना पड़ा है, वह मेरे विष से दग्ध होकर आपके भीतर बड़े कष्ट से निवास करेगा। कलियुग के सारे अंग मेरे विष से व्याप्त हो जायेंगे। महाराज! वह जब तक आपको छोड़ नहीं देगा, तब तक आपके भीतर बड़े दुःख से निवास करेगा। नरेश्वर! आप छल-कपट द्वारा सताये जाने योग्य नहीं थे, तो भी जिसने बिना किसी अपराध के आपके साथ कपट का व्यवहार किया है, उसी के प्रति क्रोध से दोषदृष्टि रखकर मैंने आपकी रक्षा की है। नरव्याघ्र महाराज! मेरे प्रसाद से आपको दाढ़ों वाले जंतुओं और शत्रुओं से तथा वेदवेत्ताओं के शाप आदि से भी कभी भय नहीं होगा। राजन्! आपको विषजनित पीड़ा कभी नहीं होगी। राजेन्द्र! आप युद्ध में भी सदा विजय प्राप्त करेंगे।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 20-26 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘राजन्! अब आप यहाँ से अपने को बाहुक नामक सूत बताते हुए राजा ऋतुपर्ण के समीप जाइये। वे द्यूतविद्या में बड़े निपुण हैं। निषधेश्वर! आप आज ही रमणीय अयोध्यापुरी को चले जाइये। इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न श्रीमहान् राजा ऋतुपर्ण आप से अश्वविद्या का रहस्य सीखकर बदले में आपको द्यूतक्रीड़ा का रहस्य बतलायेंगे और आपके मित्र भी हो जायेंगे। जब आप द्यूतविद्या के ज्ञाता होंगे, तब पुनः कल्याणभागी हो जायेंगे। मैं सच कहता हूं, आप एक ही साथ अपनी पत्नी, दोनों संतानों तथा राज्य को प्राप्त कर लेंगे; अतः अपने मन में चिंता न कीजिये।

    नरेश्वर! जब आप अपने (पहले वाले) रूप को देखना चाहें, उस समय मेरा स्मरण करें और इस कपड़े को ओढ़ लें। इस वस्त्र से आच्छादित होते ही आप अपना पहला रूप प्राप्त कर लेंगे।’

ऐसा कहकर नाग ने उन्हें दो दिव्य वस्त्र प्रदान किये।

   कुरुनन्दन युधिष्ठिर! इस प्रकार राजा नल को संदेश और वस्त्र देकर नागराज कर्कोटक वहीं अन्तर्धान हो गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में नल-कर्कोटक संवाद विषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

सड़सठवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा नल का ऋतुपर्ण के यहाँ अश्वाध्यक्ष के पद पर नियुक्त होना और वहाँ दमयन्ती के लिये निरन्तर चिन्तित रहना तथा उनकी जीवन से बातचीत"

   बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- कर्कोटक नाग के अन्तर्धान हो जाने पर निषध नरेश नल ने दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण के नगर में प्रवेश किया। वे बाहुक नाम से अपना परिचय देते हुए राजा ऋतुपर्ण के यहाँ उपस्थित हुए और बोले,,
   बाहुक (राजा नल) बोले ;- ‘घोड़ों को हांकने की कला में इस पृथ्वी पर मेरे समान दूसरा कोई नहीं है। मैं इन दिनों अर्थसंकट में हूँ। आपको किसी भी कला की निपुणता के विषय में सलाह लेनी हो, तो मुझसे पूछ सकते हैं। अन्न-संस्कार (भाँति-भाँति की रसोई बनाने का कार्य) भी मैं दूसरों की अपेक्षा विशेष जानता हूँ। इस जगत् में जितनी भी शिल्पकलाएं हैं तथा दूसरे भी जो अत्यन्त कठिन कार्य हैं, मैं उन सबको अच्छी तरह करने का प्रयत्न कर सकता हूँ। महाराज ऋतुपर्ण! आप मेरा भरण-पोषण कीजिये’।
     ऋतुपर्ण ने कहा ;- 'बाहुक! तुम्हारा भला हो। तुम मेरे यहाँ निवास करो। ये सब कार्य तुम्हें करने होंगे। मेरे मन में सदा यही विचार विशेषतः रहता है कि शीघ्रतापूर्वक कहीं भी पहुँच सकूं। अतः तुम ऐसा उपाय करो, जिससे मेरे घोड़े शीघ्रगामी हो जायें। आज से तुम हमारे अश्वाध्यक्ष हो। दस हजार मुद्राएं तुम्हारा वार्षिक वेतन है। वार्ष्‍णेय और जीवल- ये दोनों सारथि तुम्हारी सेवा में रहेंगे। बाहुक! इन दोनों के साथ तुम बड़े सुख से रहोगे। तुम मेरे यहाँ रहो।'
     बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! राजा के ऐसा कहने पर नल वार्ष्‍णेय और जीवल के साथ सम्मानपूर्वक ऋतुपर्ण के नगर में निवास करने लगे। वे दमयन्ती का निरन्तर चिन्तन करते हुए वहाँ रहने लगे। वे प्रतिदिन सायंकाल इस एक श्लोक को पढ़ा करते थे,,- ‘भूख-प्यास से पीड़ित और थकी-मांदी वह तपस्विनी उस मन्दबुद्धि पुरुष का स्मरण करती हुई कहाँ सोती होगी तथा अब वह किसके समीप रहती होगी?' एक दिन रात्रि के समय जब राजा इस प्रकार बोल रहे थे, जीवल ने पूछा,,
जीवल बोले ;- 'बाहुक! तुम प्रतिदिन किस स्त्री के लिये शोक करते हो, मैं सुनना चाहता हूँ। आयुष्मन्! वह किसकी पत्नी है, जिसके लिये तुम इस प्रकार निरन्तर शोकमग्न रहते हो।’
    तब राजा नल ने उससे कहा,
 राजा नल बोले ;- ‘किसी अल्पबुद्धि पुरुष के एक स्त्री थी, जो उसके अत्यन्त आदर की पात्र थी। किंतु उस पुरुष की बात अत्यन्त दृढ़ नहीं थी। वह अपनी प्रतिज्ञा से फिसल गया। किसी विशेष प्रयोजन से विवश होकर वह भाग्यहीन पुरुष अपनी पत्नी से बिछुड़ गया। पत्नी से विलग होकर वह मन्दबुद्धि मानव दिन-रात शोकाग्नि से दग्ध एवं दुःख से पीड़ित होकर आलस्य से रहित हो इधर-उधर भटकता रहता है। रात में उसी का स्मरण करके वह एक श्लोक को गाया करता है। सारी पृथ्वी का चक्कर लगाकर वह कभी किसी स्थान में पहुँचा और वहीं निरन्तर उस प्रियतमा का स्मरण करके दुःख भोगता रहता है। यद्यपि वह उस दुःख को भोगने के योग्य हैं नहीं। वह नारी इतनी पतिव्रता थी कि संकट काल में भी उस पुरुष के पीछे-पीछे वन में चली गयी; किंतु उस अल्प पुण्य वाले पुरुष ने उसे वन में ही त्याग दिया। अब तो यदि वह जीवित होगी तो बड़े कष्ट से उसके दिन बीतते होंगे। वह स्त्री अकेली थी। उसे मार्ग का ज्ञान नहीं था। जिस संकट में वह पड़ी थी, उसके योग्य वह कदापि नहीं थी। भूख और प्यास से उसके अंग व्याप्त हो रहे थे। उस दशा में परित्यक्त होकर वह यदि जीवित भी हो तो भी उसका जीवित रहना बहुत कठिन है। आर्य जीवन! अत्यन्त भयंकर विशाल वन में जहाँ नित्य-निरन्तर हिंसक जन्तु विचरते रहते हैं, उस मन्दबुद्धि एवं मन्दभाग्य पुरुष ने उसका त्याग कर दिया था। इस प्रकार निषध नरेश राजा नल दमयन्ती का निरन्तर स्मरण करते हुए राजा ऋतुपर्ण के यहाँ अज्ञातवास कर रहे थे।
"इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में नल-विलाप विषयक सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ"

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

अड़सठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"विदर्भराज का नल-दमयन्ती की खोज के लिये ब्राह्मणों को भेजना, सुदेव ब्राह्मण का चेदिराज के भवन में जाकर मन-ही-मन दमयन्ती के गुणों का चिन्तन और उससे भेंट करना"

  बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! राज्य का अपहरण हो जाने पर जब नल पत्नीसहित वन में चले गये, तब विदर्भ नरेश भीम ने नल का पता लगाने के लिये बहुत-से ब्राह्मणों को इधर-उधर भेजा। राजा भीम ने प्रचुर धन देकर ब्राह्मणों को यह संदेश दिया,,
   भीमसेन बोले ;- ‘आप लोग राजा नल और मेरी पुत्री दमयन्ती की खोज करें। निषध नरेश नल का पता लग जाने पर जब यह कार्य सम्पन्न हो जायेगा, तब मैं आप लोगों में से जो भी नल-दमयन्ती को यहाँ ले आयेगा, उसे एक हजार गौएं दूंगा। साथ ही जीविका के लिये अग्रहार (करमुक्त भूमि) दूंगा और ऐसा गांव दे दूंगा, जो आय में नगर के समान होगा। यदि नल-दमयन्ती में से किसी एक को या दोनों को ही यहाँ ले आना सम्भव न हो सके तो केवल उनका पता लग जाने पर भी मैं एक हजार गोधन दान करूंगा।'
    राजा के ऐसा कहने पर वे सब ब्राह्मण बड़े प्रसन्न होकर सब दिशाओं में चले गये और नगर तथा राष्ट्रों में पत्नीसहित निषध नरेश नल का अनुसंधान करने लगे; परन्तु कहीं भी वे नल अथवा भीमकुमारी दमयन्ती को नहीं देख पाते थे। तदनन्तर सुदेव नामक ब्राह्मण ने पता लगाते हुए रमणीय चेदि नगरी में जाकर वहाँ राजमहल में विदर्भ कुमारी दमयन्ती को देखा। वह राजा के पुण्यवाचन के समय सुनन्दा के साथ खड़ी थी। उसका अनुपम रूप (मैल से आवृत होने के कारण) मंद-मंद प्रकाशित हो रहा था, मानो अग्नि की प्रभा धूमसमूह से आवृत हो रही हो। विशाल नेत्रों वाली उस राजकुमारी को अधिक मलिन और दुर्बल देख उपयुक्त कारणों से उसकी पहचान करते हुए सुदेव ने निश्चय किया कि यह भीमकुमारी दमयन्ती ही है।
    सुदेव (मन ही मन) बोले ;- 'मैंने पहले जिस रूप में इस कल्याणमयी राजकन्या को देखा, वैसी ही यह आज भी है। लोककमनीय लक्ष्मी की भाँति इस भीमकुमारी को देखकर आज मैं कृतार्थ हो गया हूँ। यह श्यामा युवती पूर्ण चन्द्रमा के समान कांतिमयी है। इसके स्तन बड़े मनोहर और गोल-गोल हैं। यह देवी अपनी प्रभा से सम्पूर्ण दिशाओं को अलोकित कर रही है। उसके बड़े-बड़े नेत्र मनोहर कमलों की शोभा को लज्जित कर रहे हैं। यह कामदेव की रति-सी जान पड़ती है। पूर्णिमा के चन्द्रमा की चांदनी के समान यह सब लोगों के लिये प्रिय है। विदर्भरूपी सरोवर से यह कमलिनी मानो प्रारब्ध के दोष से निकाल ली गयी है। इसके मलिन अंग कीचड़ लिपटी हुई नलिनी के समान प्रतीत होते हैं। यह उस पूर्णिमा की रजनी के समान जान पड़ती है, जिसके चन्द्रमा पर मानो राहू ने ग्रहण लगा रखा हो। पति-शोक से व्याकुल और दीन होने के कारण यह सूखे जल-प्रवाह वाली सरिता के समान प्रतीत होती है। इसकी दशा इस पुष्करिणी के समान दिखायी देती है, जिसे हाथियों ने अपने शुण्डदण्ड से मथ डाला हो तथा जो नष्ट हुए पत्तों वाले कमल से युक्त हो एवं जिसके भीतर निवास करने वाले पक्षी अत्यन्त भयभीत हो रहे हों। यह दुःख से अत्यन्त व्याकुल-सी प्रतीत हो रही है। मनोहर अंगों वाली यह सुकुमारी राजकन्या उन महलों में रहने योग्य है, जिसका भीतरी भाग रत्नों का बना हुआ है। (इस समय दुःख ने इसे ऐसा दुर्बल कर दिया है कि) यह सरोवर से निकाली और सूर्य की किरणों से जलायी हुई कमलिनी के समान प्रतीत हो रही है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद)

   'यह रूप और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न है। श्रृंगार धारण करने के योग्य होने पर भी यह श्रृंगारशुन्‍य है, मानो आकाश में मेघों की काली घटा से आवृत नूतन चन्द्रकला हो। यह राजकन्या प्रिय कामभोगों से वंचित है। अपने बन्धुजनों से बिछुड़ी हुई है और पति के दर्शन की इच्छा से अपने (दीन-दुर्बल) शरीर को धारण कर रही है। वास्तव में पति ही नारी का सबसे श्रेष्ठ आभूषण है। उसके होने से यह बिना आभूषणों के सुशोभित होती है; परन्तु यह पतिरूप आभूषण से रहित होने के कारण शोभामयी होकर भी सुशोभित नहीं हो रही है। इससे विलग होकर राजा नल यदि अपने शरीर को धारण करते हैं और शोक से शिथिल नहीं हो रहे हैं तो यह समझना चाहिये कि वे अत्यन्त दुष्कर कर्म कर रहे हैं। काले-काले केशों ओर कमल के समान विशाल नेत्रों से सुशोभित इस राजकन्याको, जो सदा सुख भोगने के ही योग्य है, दुःखित देखकर मेरे मन में भी बड़ी व्यथा हो रही है। जैसे रोहिणी चन्द्रमा के संयोग से सुखी होती है, उसी प्रकार यह शुभलक्षणा साध्वी राजकुमारी अपने पति के समागम से (संतुष्ट) कब इस दुःख के समुद्र से पार हो सकेगी।
     जैसे कोई राजा एक बार अपने राज्य से च्युत होकर फिर उसी राज्यभूमि को प्राप्त कर लेने पर अत्यन्त आनन्द का अनुभव करता है, उसी प्रकार पुनः इसके मिल जाने पर निषध नरेश नल को निश्चय ही बड़ी प्रशंसा होगी। विदर्भकुमारी दमयन्ती राजा नल के समान शील और अवस्था से युक्त है, उन्हीं के तुल्य उत्तम कुल से सुशोभित है। निषध नरेश नल विदर्भकुमारी के योग्य हैं और यह कजरारे नेत्रों वाली वैदर्भी नल के योग्य है। राजा नल का पराक्रम और धैर्य असीम है। उनकी यह पत्नी पतिदर्शन के लिये लालायित और उत्कण्ठित है, अतः मुझे इससे मिलकर इसे आश्वासन देना चाहिये। इस पूर्णचन्द्रमुखी राजकुमारी ने पहले कभी दुःख को नहीं देखा था। इस समय दुःख से आतुर हो पति के ध्यान में परायण है, अतः मैं इसे आश्वासन देने का विचार कर रहा हूँ।'
    बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इस प्रकार भाँति-भाँति के कारणों और लक्षणों से दमयन्ती को पहचानकर और अपने कर्तव्य के विषय का विचार करके सुदेव ब्राह्मण उसके समीप गये और इस प्रकार बोले,,,
  सुदेव ब्राम्हण बोले ;- ‘विदर्भ राजकुमारी! मैं तुम्हारे भाई का प्रिय सखा सुदेव हूँ। महाराज भीम की आज्ञा से तुम्हारी खोज करने के लिये यहाँ आया हूँ। निषध नरेश की महारानी! तुम्हारे पिता, माता और भाई सब सकुशल हैं और कुण्डिनपुर में जो तुम्हारे बालक हैं, वे भी कुशल हैं। तुम्हारे बन्धु-बान्धव तुम्हारी ही चिन्ता से मृतक-तुल्य हो रहे हैं। (तुम्हारी खोज करने के लिये) सैकड़ों ब्राह्मण इस पृथ्वी पर घूम रहे हैं’।
    बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! सुदेव को पहचानकर दमयन्ती ने क्रमशः अपने सभी सगे-सम्बन्धियों का कुशल-समाचार पूछा। राजन्! अपने भाई के प्रति मित्र द्विजश्रेष्ठ सुदेव को सहसा आया देख दमयन्ती शोक से व्याकुल हो फूट-फूटकर रोने लगी। भारत! तदनन्तर उसे सुदेव के साथ एकान्त में बात करती तथा रोती देख सुनन्दा शोक से व्याकुल हो उठी और।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 34-39 का हिन्दी अनुवाद)

उसने अपनी माता से जाकर कहा,,
  सुनन्दा बोली ;- ‘मां! सैरन्ध्री एक ब्राह्मण से मिलकर बहुत रो रही है। यदि तुम ठीक समझो तो इसका कारण जानने की चेष्टा करो’।
   तदनन्तर चेदिराज की माता उस समय अन्तःपुर से निकलकर उसी स्थान पर गयी, जहाँ राजकन्या दमयन्ती ब्राह्मण के साथ खड़ी थी।
  युधिष्ठिर! तब राजमाता ने सुदेव ब्राह्मण को बुलाकर पूछा,,
  राजमाता बोली ;- ‘विप्रवर! जान पड़ता है, तुम इसे जानते हो। बताओ, यह सुन्दरी युवती किसकी पत्नी अथवा किसकी पुत्री है? यह सुन्दर नेत्रों वाली सुन्दरी अपने भाई-बन्धुओं अथवा पति से किस प्रकार विलग हुई है, यह सती-साध्वी नारी ऐसी दुरवस्था में क्यों पड़ गयी? ब्रह्मन! इस देवरूपिणी नारी के विषय में यह सारा वृत्तान्त में पूर्ण रूप से सुनना चाहती हूँ। मैं जो कुछ पुछती हूं, वह मुझे ठीक-ठीक बताओ’।
   राजन्! राजमाता के इस प्रकार पूछने पर वे द्विजश्रेष्ठ सुदेव सुखपूर्वक बैठकर दमयन्ती का यथार्थ वृत्तान्त बताने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में दमयन्ती-सुदेव संवाद विषयक अरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

उनहत्तरवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"दमयन्ती का अपने पिता के यहाँ जाना और वहाँ से नल को ढूँढने के लिये अपना संदेश देकर ब्राह्मणों को भेजना"

   सुदेव ने कहा ;- देवि! विदर्भ देश के राजा महातेजस्वी भीम बड़े धर्मात्मा हैं। यह उन्हीं की पुत्री है। इस कल्याणस्वरूपा राजकन्या का नाम दमयन्ती है। वीरसेनपुत्र नल निषध नरेश सुप्रसिद्ध राजा हैं। उन्हीं (परम) बुद्धिमान्, पुण्यश्लोक नल की यह कल्याणमयी पत्नी है। एक दिन राजा नल अपने भाई के द्वारा जूए में हार गये। उसी में उनका सारा राज्य चला गया। वे दमयन्ती के साथ वन में चले गये। तब से अब तक किसी को उनका पता नहीं लगा। हम अनेक ब्राह्मण दमयन्ती को ढूंढने के लिये इस पृथ्वी पर विचर रहे हैं। आज आपके पुत्र के महल में मुझे यह राजकुमारी मिली है। रूप में इसकी समानता करने वाली कोई भी मानवकन्या नहीं है। इसकी दोनों भौहों के बीच एक जन्मजात उत्तम तिल का चिह्न है। मैंने देखा है, इस श्यामा राजकुमारी के ललाट में वह कमल के समान चिह्न छिपा हुआ है। मेघमाला से ढंके हुए चन्द्रमा की भाँति उसका वह चिह्न मैल से ढक गया है। विधाता के द्वारा निर्मित यह चिह्न इसके भावी ऐश्वर्य का सूचक है। इस समय यह प्रतिपदा की मलिन चन्द्रकला के समान अधिक शोभा नहीं पा रही है। इसका सुवर्ण-जैसा सुन्दर शरीर मैल से व्याप्त हो संस्कारशून्य (मार्जन आदि से रहित) होने पर भी स्पष्ट रूप से उद्भासित हो रहा है। इसका रूप सौन्दर्य नष्ट नहीं हुआ है। जैसे छिपी हुई आग अपनी गर्मी से पहचान ली जाती है, उसी प्रकार यद्यपि देवी दमयन्ती मलिन शरीर से युक्त है तो भी इस ललाटवर्ती तिल के चिह्न से ही मैंने इसे पहचान लिया है'।
    युधिष्ठिर! सुदेव का यह वचन सुनकर सुनन्दा ने दमयन्ती के ललाटवर्ती चिह्न को ढंकने वाली मैल धो दी। मैल धुल जाने पर उसके ललाट का वह चिह्न उसी प्रकार चमक उठा, जैसे बादल रहित आकाश में चन्द्रमा प्रकाशित होता है। भारत! उस चिह्न को देखकर सुनन्दा और राजमाता दोनों रोने लगीं और दमयन्ती को हृदय से लगाये दो घड़ी तक स्तब्ध खड़ी रहीं। 'सुन्दरी मैं और तुम्हारी माता दोनों दशार्ण देश के स्वामी महामना राजा सुदामा की पुत्रियां हैं। तुम्हारी मां का ब्याह राजा भीम के साथ हुआ और मेरा चेदिराज वीरबाहु के साथ। तुम्हारा जन्म दशार्ण देश में मेरे पिता के ही घर पर हुआ और मैंने अपनी आंखों देखा। भामिनि! तुम्हारे लिये जैसा पिता का घर है, वैसा ही मेरा घर है। दमयन्ती! यह सारा ऐश्वर्य जैसे मेरा है, उसी प्रकार तुम्हारा भी है’।
  युधिष्ठिर! तब दमयन्ती ने प्रसन्न हृदय से अपनी मौसी को प्रणाम करके कहा,
  दमयन्ती बोली ;- ‘मां! यद्यपि तुम मुझे पहचानती नहीं थीं, तब भी मैं तुम्हारे यहाँ बड़े सुख से रही हूँ। तुमने मेरे इच्छानुसार सारी सुविधाएं कर दीं और सदा तुम्हारे द्वारा मेरी रक्षा होती रही। अब यदि मैं यहाँ रहूँ तो यह मेरे लिये अधिक-से-अधिक सुखदायक होगा, इसमें संशय नहीं है, किंतु मैं बहुत दिनों से प्रवास में भटक रहीं हूं, अतः माताजी! मुझे विदर्भ जाने की आज्ञा दीजिये। मैंने अपने बच्चों को पहले ही कुण्डिनपुर भेज दिया था। वे वहीं रहते हैं। पिता से तो उनका वियोग हो ही गया है; मुझसे भी वह बिछुड़ गये हैं, ऐसी दशा में शोकार्त बालक कैसे रहते होंगे?'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘मां! यदि तुम मेरा कुछ भी प्रिय करना चाहती हो तो मेरे लिये शीघ्र किसी सवारी की व्यवस्था कर दो। मैं विदर्भ देश जाना चाहती हूँ।'
     राजन्! तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर दमयन्ती की मौसी ने प्रसन्नतापूर्वक अपने पुत्र की राय लेकर सुन्दरी दमयन्ती को पालकी पर बिठाकर विदा किया। उसकी रक्षा के लिये बहुत बड़ी सेना दी। भरतश्रेष्ठ! राजमाता ने दमयन्ती के साथ खाने-पीने की तथा अन्य आवश्यक सामग्रियों की इच्छी व्यवस्था कर दी। तदनन्तर वहाँ से विदा हो वह थोड़े दिनों में विदर्भ देश की राजधानी में जा पहुँची। उसके आगमन से माता-पिता आदि सभी बन्धु-बान्धव बड़े प्रसन्न हुए और सब ने उसका स्वागत किया।
   राजन्! समस्त बन्धु-बान्धवों, दोनों बच्चों, माता-पिता और सम्पूर्ण सखियों को सकुशल देखकर यशस्विनी देवी दमयन्ती ने उत्तम विधि के साथ देवताओं और ब्राह्मणों का पूजन किया। राजा भीम अपनी पुत्री को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने एक हजार गौ, एक गांव तथा धन देकर सुदेव ब्राह्मण को संतुष्ट किया। युधिष्ठिर! भाविनी दमयन्ती ने उस रात में पिता के घर में विश्राम किया। सबेरा होने पर उसने माता से कहा।
   दमयन्ती बोली ;- 'मां! यदि मुझे जीवित देखना चाहती हो तो मैं तुमसे सच कहती हूं, नरवीर महाराज नल की खोज कराने का पुनः प्रयत्न करो’। दमयन्ती के ऐसा कहने पर महारानी की आंखें आंसुओं से भर आयीं। वे अत्यन्त दु:खी हो गयीं और तत्काल उसे कोई उत्तर न दे सकीं। तब महारानी की यह दयनीय अवस्था देख उस समय सारे अन्तःपुर में हाहाकार मच गया। सब-के-सब फूट-फूटकर रोने लगे। तदनन्तर महाराज भीम से उनकी पत्नी ने कहा,,
  भीम बोले ;- ‘प्राणनाथ! आपकी पुत्री दमयन्ती अपने पति के लिये निरन्तर शोक में डूबी रहती है। नरेश्रष्ठ! उसने लाज छोड़कर स्वयं अपने मुंह से कहा है, अतः आपके सेवक पुण्यश्लोक महाराज नल का पता लगाने का प्रयत्न करें’। महारानी से प्रेरित हो राजा भीम ने अपने अधीनस्थ ब्राह्मण को यह कहकर सब दिशाओं में भेजा कि ‘आप लोग नल को ढूंढने की चेष्टा करें’।
   तत्पश्चात् विदर्भ नरेश की आज्ञा से ब्राह्मण लोग प्रस्थित हो दमयन्ती के पास जाकर बोले,,
  ब्राह्मण बोले ;- ‘राजकुमारी! हम सब नल का पता लगाने जा रहे हैं (क्या आप को कुछ कहना है?)’। तब भीकुमारी ने उन ब्राह्मणों से कहा,,
दमयन्ती बोली ;- ‘सब राष्ट्रों में घूम-घूमकर जनसमुदाय में आप लोग बार-बार मेरी यह बात बोलें,,- ‘ओ जुआरी प्रियतम! तुम वन में सोयी हुई और अपने पति में अनुराग रखने वाली मुझ प्यारी पत्नी को छोड़कर तथा मेरे आधे वस्त्र को फाड़कर कहाँ चले दिये? उसे तुमने जिस अवस्था में देखा था, उसी अवस्था में वह आज भी है और तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रही है। आधे वस्त्र से अपने शरीर को ढंककर वह युवती तुम्हारी विराहग्नि में निरन्तर जल रही है। वीर भूमिपाल! सदा तुम्हारे शोक से रोती हुई अपनी उस प्यारी पत्नी पर पुनः कृपा करो और मुझे मेरी बात का उत्तर दो। ब्राह्मणों! यह तथा और भी बहुत-सी ऐसी बातें आप कहें, जिससे वे मुझ पर कृपा करें। वायु की सहायता से प्रज्वलित आग सारे वन को जला डालती है (उसी प्रकार विरह की व्याकुलता मुझे जला रही है)।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 41-50 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘प्राणनाथ! पति को उचित है कि वह सदा अपनी पत्नी का भरण-पोषण एवं संरक्षण करे। आप धर्मज्ञ और साधु पुरुष हैं, आपके ये दोनों कर्तव्य सहसा नष्ट कैसे हो गये? आप विख्यात विद्वान्, कुलीन और सदा सबके प्रति दयाभाव रखने वाले हैं, परंतु मेरे हृदय में यह संदेह होने लगा है कि आप मेरा भाग्य नष्ट होने के कारण मेरे प्रति निर्दय हो गये हैं। नरव्याघ्र! नरोत्तम! मुझ पर दया करो। मैंने तुम्हारे ही मुख से सुन रखा है कि दयालुता सबसे बड़ा धर्म है।
    ब्राह्मणो! यदि आपके ऐसी बातें कहने पर कोई किसी प्रकार भी आपको उत्तर दे तो उस मनुष्य का सब प्रकार से परिचय प्राप्त कीजियेगा कि वह कौन है और कहाँ रहता है, इत्यादि। विप्रवरो! आपके इन वचनों को सुनकर जो कोई मनुष्य जैसा भी उत्तर दे, उसकी वह बात याद रखकर आप लोग मुझे बतावें। किसी को भी यह नहीं मालूम होना चाहिये कि आप लोग मेरी आज्ञा से यह बातें कह रहे हैं। जब कोई उत्तर मिल जाये, तब आप आलस्य छोड़कर पुनः यहाँ तुरन्त लौट आवें। उत्तर देने वाला पुरुष धनवान् हो या निर्धन, समर्थ हो या असमर्थ, वह क्या करना चाहता है, इस बात को जानने का प्रयत्न कीजिये’।
    राजन्! दमयन्ती के ऐसा कहने पर वे ब्राह्मण संकट में पड़े हुए राजा नल को ढूंढने के लिये सब दिशाओं की ओर चले गये।
   युधिष्ठिर! उन ब्राह्मणों ने नगरों, राष्ट्रों, गांवों, गोष्ठों तथा आश्रमों में भी नल का अन्वेषण किया; किंतु उन्हें कहीं भी पता न लगा। महाराज! दमयन्ती ने जैसा बताया था, उस वाक्य को सभी ब्राह्मण भिन्न-भिन्न स्थानों पर जाकर लोगों को सुनाया करते थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में नल की खोज विषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

सत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"पर्णाद का दमयन्ती से बाहुकरूपधारी नल का समाचार बताना और दमयन्ती का ऋतुपर्ण के यहाँ सुदेव नामक ब्राह्मण को स्वयंवर का संदेश देकर भेजना"

    बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर दीर्घ काल के पश्चात् पर्णाद नामक ब्राह्मण विदर्भ देश की राजधानी में लौटकर आये और दमयन्ती से इस प्रकार बोले,,
    ब्राम्हण बोले ;- ‘दमयन्ती! मैं निषध नरेश को ढूंढता हुआ अयोध्या नगरी में गया और वहाँ राजा ऋतुपर्ण के दरबार में उपस्थित हुआ। वहाँ बहुत लोगों की भीड़ में मैंने तुम्हारा वाक्य महाभाग ऋतुपर्ण को सुनाया। वरवर्णिनि! उस बात को सुनकर राजा ऋतुपर्ण कुछ न बोले। मेरे बार-बार कहने पर भी उनका कोई सभासद भी इसका उत्तर न दे सका। परन्तु ऋतुपर्ण के यहाँ बाहुक नामधारी एक पुरुष है, उसने जब मैं राजा से विदा लेकर लौटने लगा, तब मुझसे एकान्त में आकर तुम्हारी बातों का उत्तर दिया। वह महाराज ऋतुपर्ण का सारथि है। उसकी भुजाएं छोटी हैं तथा वे देखने में कुरूप भी है। वह घोड़ों को शीघ्र हांकने में कुशल है और अपने बनाये हुए भोजन में बड़ी मिठास उत्पन्न करता है। बाहुक ने बार-बार लम्बी सांसें खींचकर अनेक बार रोदन किया और मुझसे कुशल-समाचार पुछकर फिर वह इस प्रकार कहने लगा- ‘उत्तम कुल की स्त्रियां बड़े भारी संकट में पड़कर भी स्वयं अपनी रक्षा करती हैं। ऐसा करके वे सत्य और स्वर्ग दोनों पर विजय पा लेती हैं, इसमें संशय नहीं है। श्रेष्ठ नारियां अपने पतियों से परित्यक्त होने पर भी कभी क्रोध नहीं करतीं। वे सदाचारणी कवच से आवृत प्राणों को धारण करती हैं।'
    वह पुरुष बड़े संकट में था, सुख वे साधनों से वंचित होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था। ऐसी दशा में यदि उसने अपनी पत्नी का परित्याग किया है तो इसके लिये पत्नी को उस पर क्रोध नहीं करना चाहिये। जीविका पाने के लिये चेष्टा करते समय पक्षियों ने जिसके वस्त्र का अपहरण कर लिया था और जो अनेक प्रकार की मानसिक चिन्ताओं से दग्ध हो रहा था, उस पुरुष पर श्यामा को क्रोध नहीं करना चािहये। पति ने उसका सत्कार किया हो या असत्कार-उसे चाहिये कि पति को वैसे संकट में पड़ा देखकर उसे क्षमा कर दे; क्योंकि वह राज्य और लक्ष्मी से वंचित हो भूख से पीड़ित एवं विपत्ति के अथाह सागर में डूबा हुआ था।' बाहुक की यह बात सुनकर मैं तुरन्त यहाँ चला आया। यह सुन कर अब कर्तव्याकर्तव्य के निर्णय में तुम्हीं प्रमाण हो। (तुम्हारी इच्छा हो तो) महाराज को भी ये बातें सूचित कर दो’।
    युधिष्ठिर! पर्णाद का यह कथन सुनकर दमयन्ती के नेत्रों में आंसू भर आया। उसने एकान्त में जाकर अपनी माता से कहा,,
  दमयन्ती बोली ;- ‘मां! पिताजी को यह बात कदापि मालूम न होनी चाहिये। मैं तुम्हारे ही सामने विप्रवर सुदेव को इस कार्य में लगाऊंगी। तुम ऐसी चेष्टा करो, जिससे पिताजी को मेरा विचार ज्ञात न हो। यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहती हो तो तुम्हें इसके लिये सचेष्ट रहना होगा। जैसे सुदेव ने मुझे यहाँ लाकर बन्धु-बान्धवों से मिला दिया, उसी मंगलमय उद्देश्य की सिद्धि के लिये सुदेव ब्राह्मण फिर शीघ्र ही वहाँ जायें, देर न करें। मां! वहाँ जाने का उद्देश्य है, महाराज नल को यहाँ ले आना’।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ततितम अध्याय के श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद)

   इतने ही में विप्रवर पर्णाद जब विश्राम कर चुके, तब विदर्भ राजकुमारी दमयन्ती ने बहुत धन देकर उनका सत्कार किया और यह भी कहा,,
    दमयन्ती बोली ;- ‘महाराज नल के यहाँ पधारने पर मैं आपको और भी धन दूंगी। विप्रवर! आप ने मेरा बहुत बड़ा उपकार किया, जो दूसरा नहीं कर सकता; क्योंकि अब मैं अपने स्वामी से शीघ्र ही मिल सकूंगी’।
    दमयन्ती के ऐसा कहने पर अत्यन्त उदार हृदय वाले पर्णाद अपने परम मंगलमय आशीर्वादों द्वारा उसे आश्वासन दे कृतार्थ हो अपने घर चले गये।
   युधिष्ठिर! तदनन्तर दमयन्ती ने सुदेव ब्राह्मण को बुलाकर अपनी माता के समीप दुःख-शोक से पीड़ित होकर कहा,,
   दमयन्ती फिर बोली ;- ‘सुदेव जी! आप इच्छानुसार चलने वाले द्रुतगामी पक्षी की भाँति शीघ्रतापूर्वक अयोध्या नगरी में जाकर वहाँ के निवासी राजा ऋतुपर्ण से कहिये,,- ‘भीमकुमारी दमयन्ती पुनः स्वयंवर करेगी। वहाँ बहुत-से राजा और राजकुमार सब ओर से जा रहे हैं। उसके लिये समय नियत हो चुका है। कल ही स्वयंवर होगा। शत्रुदमन! यदि आपका वहाँ पहुँचना सम्भव हो तो शीघ्र जाइये। कल सूर्योदय होने के बाद वह दूसरे पति का वरण कर लेगी; क्योंकि वीर नल जीवित हैं या नहीं, इसका कुछ पता नहीं लगता है’।
    महाराज! दमयन्ती के इस प्रकार बताने पर सुदेव ब्राह्मण ने राजा ऋतुपर्ण के पास जाकर वही बात कही।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में दमयन्ती के पुनः स्वयंवर की चर्चा से सम्बन्ध रखने वाला सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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