सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के इकसठवें अध्याय से पैसठवें अध्याय तक (From the 61 to the 65 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

इकसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"नल का जूए में हाकर दमयन्ती के साथ वन को जाना और पक्षियों द्वारा आपद्भस्‍त नल के वस्त्र का अपहरण"

     बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर वार्ष्‍णेय के चले जाने पर जूआ खेलने वाले पुण्यश्लोक महाराज नल के सारे राज्य और जो कुछ धन था, उन सब का जूए में पुष्कर ने अपहरण कर लिया। राजन्! राज्य हार जाने पर नल से पुष्कर ने हंसते हुए कहा कि ‘क्या फिर जूआ आरम्भ हो? अब तुम्हारे पास दांव पर लगाने के लिये क्या है? तुम्हारे पास केवल दमयन्ती शेष रह गयी है और सब वस्तुएं तो मैंने जीत ली हैं, यदि तुम्हारी राय हो तो दमयन्ती को दांव पर रखकर एक बार फिर जूआ खेला जाये’।

    पुष्कर के ऐसा कहने पर पुण्यश्लोक महाराज नल का हृदय शोक से विदीर्ण-सा हो गया, परन्तु उन्होंने उससे कुछ कहा नहीं। तदनन्तर! महायशस्वी नल ने अत्यन्त दुःखित हो पुष्कर की ओर देखकर अपने सब अंगों के आभूषण उतार दिये और केवल एक अधोवस्त्र धारण करके चादर ओढ़े बिना ही अपनी विशाल सम्पति को त्यागकर सुहृदों का शोक बढ़ाते हुए वे राजभवन से निकल पड़े। दमयन्ती के शरीर पर भी एक ही वस्त्र था। वह जाते हुए राजा नल के पीछे हो ली। वे उसके साथ नगर से बाहर तीन-रात तक टिके रहे। महाराज! पुष्कर ने उस नगर में यह घोषण करा दी-डुग्गी पिटवा दी कि ‘जो नल के साथ अच्छा बर्ताव करेगा, वह मेरा वध्य होगा’।

    युधिष्ठिर! पुष्कर के उस वचन से और नल के प्रति पुष्कर का द्वेष होने से पुरवासियों ने राजा नल का कोई सत्कार नहीं किया। इस प्रकार राजा नल अपने नगर के समीप तीन रात तक केवल जलमात्र का आहार करके टिके रहे। वे सर्वथा सत्कार के योग्य थे तो भी उनका सत्कार नहीं किया गया। वहाँ भूख से पीड़ित हो फल-मूल आदि जुटाते हुए राजा नल वहाँ से अन्यत्र चले गये। केवल दमयन्ती उनके पीछे-पीछे गयी। इसी प्रकार नल बहुत दिनों तक क्षुधा से पीड़ित रहे। एक दिन उन्होंने कुछ ऐसे पक्षी देखे, जिनकी पांखें सोने की थीं। उन्हें देखकर (क्षुधातुर और आपत्तिग्रस्त होने के कारण) बलवान् निषध-नरेश के मन में यह बात आयी कि ‘यह पक्षियों का समुदाय ही आज मेरा भक्ष्य हो सकता है और इनकी ये पांखें मेरे लिये धन हो जायेंगी’। तदनन्तर उन्होंने अपने अधोवस्त्र से उन पक्षियों को ढंक दिया। किंतु वे सब पक्षी उनका वह वस्त्र लेकर आकाश में उड़ गये। उड़ते हुए उन पक्षियों ने राजा नल को दीनभाव से नीचे मुंह किये धरती पर नग्न खड़ा देख उनसे कहा,,

   पक्षी बोले ;- ‘ओ खोटी बुद्धि वाले नरेश! हम (पक्षी नहीं) पासे हैं और तुम्हारा वस्त्र अपहरण करने की इच्छा से ही यहाँ आये थे। तुम वस्त्र पहने हुए ही वहाँ से चले आये थे, इससे हमें प्रसन्नता नहीं हुई थी’।

    राजन्! उन पासों को नजदीक से जाते देख और अपने आपको नग्नावस्था में पाकर पुण्यश्लोक नल ने उस समय दमयन्ती से कहा,,

    राजा नल बोले ;- ‘सती साध्वी रानी! जिसके क्रोध से मेरा ऐश्वर्य छिन गया, मैं क्षुधापीड़ित एवं दुःखित होकर जीवन निवार्ह के लिये अन्न तक नहीं पा रहा हूँ और जिनके कारण निषध देश की प्रजा ने मेरा सत्कार नहीं किया, भीरु! वे ही ये पासे हैं, जो पक्षी होकर मेरा वस्त्र लिये जा रहे हैं।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘मैं बड़ी विषम परिस्थिति में पड़ गया हूँ। दुःख के मारे मेरी चेतना लुप्त-सी हो रही है। मैं तुम्हारा पति हूं, अतः तुम्हारे हित की बात बता रहा हूं, इसे सुनो,,

   राजा नल बोले ;- ‘ये बहुत-से मार्ग हैं, जो दक्षिण दिशा की ओर जाते हैं। यह मार्ग ऋक्षवान् पर्वत को लांघकर अवन्ती देश को जाता है। यह महान् पर्वत विन्ध्य दिखायी दे रहा है और यह समुद्रगामिनी पयोष्णी नदी है। यहाँ महर्षियों के बहुत-से आश्रम हैं, जहाँ प्रचुर मात्रा में फल-मूल उपलब्ध हो सकते हैं। यह विर्दभ देश का मार्ग है और वह कोसल देश को जाता है। दक्षिण दिशा में इसके बाद का देश दक्षिणापथ बहलाता हैं।

   भारत! राजा नल ने एकाग्रचित्त होकर बड़ी आतुरता के साथ दमयन्ती से उपर्युक्त बातें बार-बार कहीं। तब दमयन्ती अत्यन्त दुःख से दुर्बल हो नेत्रों से आंसू बहाती हुई गद्गद वाणी में राजा नल से यह करुण वचन बोली,,

   दमयन्ती बोली ;- ‘महाराज! आपका मानसिक संकल्प क्या है, इस पर जब मैं बार-बार विचार करती हूँ, तब मेरा हृदय उद्विग्न हो उठता है और सारे अंग शिथिल हो उठते हैं। आपका राज्य छिन गया। धन नष्ट हो गया। आपके शरीर पर वस्त्र तक नहीं रह गया तथा भूख और परिश्रम से कष्ट पा रहे हैं। ऐसी अवस्था में इस निर्जन वन में आपको असहाय छोड़कर मैं कैसे जा सकती हूँ? महाराज! जब आप भंयकर वन में थके-मांदे भूख से पीड़ित हो अपने पूर्व सुख का चिन्तन करते हुए अत्यन्त दु:खी होने लगेंगे, उस समय मैं सान्त्वना द्वारा आपका संताप का निवारण करूंगी। चिकित्सकों का मत है कि समस्त दुःखों की शांति के लिये पत्नी के समान दूसरी कोई औषध नहीं है; यह मैं आपसे सत्य कहती हूँ।'

   नल ने कहा ;- 'सुमध्यमा दमयन्ती! तुम जैसा कहती हो, वह ठीक है। दु:खी मनुष्य के लिये पत्नी के समान दूसरा कोई मित्र या औषध नहीं है। भीरु! मैं तुम्हें त्यागना नहीं चाहता, तुम इतनी अधिक शंका क्यों करती हो? अनिन्दिते! मैं अपने शरीर का त्याग कर सकता हूं, पर तुम्हें नहीं छोड़ सकता।'

   दमयन्ती ने कहा ;- 'महाराज! यदि आप मुझे त्यागना नहीं चाहते तो विदर्भ देश का मार्ग क्यों बता रहे हैं? राजन् मैं जानती हूँ कि आप स्वयं मुझे नहीं त्याग सकते, परन्तु महीपते! इस घोर आपत्ति ने आपके चित्त को आकर्षित कर लिया है, इस कारण आप मेरा त्याग भी कर सकते हैं। नरश्रेष्ठ! आप बार-बार जो मुझे विदर्भ देश का मार्ग बता रहे हैं। देवोपम आर्यपुत्र! इसके कारण आप मेरा शोक भी बढ़ा रहे हैं। यदि आपका यह अभिप्राय हो कि दमयन्ती अपने बन्धु-बान्धवों के यहाँ चली जाये तो आपकी सम्मति हो तो हम दोनों साथ ही विदर्भ देश को चलें। मानद! वहाँ विदर्भ नरेश आपका पूरा आदर-सत्कार करेंगे। राजन्! उनसे पूजित होकर आप हमारे घर में सुखपूर्वक निवास कीजियेगा।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में नल की वनयात्रा विषयक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

बासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा नल की चिंता और दमयन्ती को अकेली सोती छोड़कर उनका अन्यत्र प्रस्थान"

  नल ने कहा ;- प्रिये! इसमें संदेह नहीं कि विदर्भ राज्य जैसे तुम्हारे पिता का है, वैसे मेरा भी है, तथापि आपत्ति में पड़ा हुआ मैं किसी तरह वहाँ नहीं जाऊंगा। एक दिन मैं भी समृद्धिशाली राजा था। उस अवस्था में वहाँ जाकर मैंने तुम्हारे हर्ष को बढ़ाया और आज उस राज्य से वंचित होकर केवल तुम्हारे शोक की वृद्धि कर रहा हूं, ऐसी दशा में वहाँ कैसे जाऊंगा?'

   बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! आधे वस्त्र से ढकी हुई कल्याणमयी दमयन्ती से बार-बार ऐसा कहकर राजा नल ने उसे सान्त्वना दी; क्योंकि वे दोनों एक ही वस्त्र से अपने अंगों को ढक्कर इधर-उधर धूम रहे थे। भूख और प्यास से थके-मांदे वे दोनों दम्पति किसी सभाभवन (धर्मशाला) में जा पहुँचे। तब उस धर्मशाला में पहुँचकर निषध नरेश राजा नल वैदर्भी के साथ भूतल पर बैठे। वे वस्त्रहीन, चटाई आदि से रहित, मलिन एवं धूलिधूसरित हो रहे थे। दमयन्ती के साथ थककर भूमि पर ही सो गये। सुकुमारी तपस्विनी कल्याणमयी दमयन्ती भी सहसा दुःख में पड़ गयी थी। वहाँ आने पर उसे भी निंद्रा ने घेर लिया।

   राजन्! राजा नल का चित्त शोक से मथा जा रहा था। वे दमयन्ती के सो जाने पर भी स्वयं पहले की भाँति सो न सके। राज्य अपहरण, सुहृदों का त्याग और वन में प्राप्त होने वाले नाना प्रकार के क्लेश पर विचार करते हुए वे चिन्ता को प्राप्त हो गये। वे सोचने लगे ‘ऐसा करने से मेरा क्या होगा और यह कार्य न करने से भी क्या होगा। मेरा मर जाना अच्छा है कि अपनी आत्मीया दमयन्ती को त्याग देना। यह मुझसे इस प्रकार अनुरक्त होकर मेरे ही लिये दुःख उठा रही है। यदि मुझसे अलग हो जाये तो यह कदाचित् अपने स्वजनों के पास जा सकती है। मेरे पास रहकर तो यह पतिव्रता नारी निश्चय ही केवल दुःख भागेगी। यद्यपि इसे त्याग देने पर एक संशय बना रहेगा तो भी यह सम्भव है कि इसे कभी सुख मिल जाये।'

   राजन्! नल अनेक प्रकार से बार-बार विचार करके एक निश्चय पर पहुँच गये और दमयन्ती का परित्याग कर देने में ही उसकी भलाई मानने लगे। ‘यह महाभागा यशस्विनी दमयन्ती मेरी भक्त और पतिव्रता है। पातिव्रत-तेज के कारण मार्ग में कोई इसका सतीत्व नष्ट नहीं कर सकता। ऐसा सोचकर उनकी बुद्धि दमयन्ती को अपने साथ रखने के विचार से निवृत्त हो गयी। बल्कि दुष्ट स्वभाव वाले कलियुग से प्रभावित होने के कारण दमयन्ती को त्याग देने में ही उनकी बुद्धि प्रवृत्त हुई। तदनन्तर राजा ने अपनी वस्त्रहीनता और दमयन्ती की एकवस्त्रता का विचार करके उसके आधे वस्त्र को फाड़ लेना ही उचित समझा। फिर यह सोचकर कि ‘मैं कैसे वस्त्र को काटूं, जिससे मेरी प्रिय की नींद न टूटे।’ राजा नल धर्मशाला में (नंगे ही) इधर-उधर धूमने लगे। भारत! इधर-उधर दौड़-धूप करने पर राजा नल को उस सभाभवन में एक अच्छी-सी नंगी तलवार मिल गयी।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 19-29 का हिन्दी अनुवाद)

   उसी से दमयन्ती का आधा वस्त्र काटकर परंतप नल ने उसके द्वारा अपना शरीर ढंक लिया और अचेत सोती हुई विदर्भ राजकुमारी दमयन्ती को वहीं छोड़कर वे शीघ्रता से चले गये। कुछ दूर जाने पर उनके हृदय का विचार पलट गया और वे पुनः उसी सभाभवन में लौट आये। वहाँ उस समय दमयन्ती को देखकर निषध नरेश नल फूट-फूटकर रोने लगे। वे विलाप करते हुए कहने लगे,,

   नल बोले ;- ‘पहले जिस मेरी प्रियतमा दमयन्ती को वायु तथा सूर्य देवता भी नहीं देख पाते थे, वही इस धर्मशाला में भूमि पर अनाथ की भाँति सो रही है। यह मनोहर हास्य वाली सुन्दरी वस्त्र के आधे टुकड़े से लिपटी हुई सो रही है। जब इसकी नींद खुलेगी, तब पगली-सी होकर न जाने यह कैसी दशा को पहुँच जायेगी। यह भयंकर वन हिसंक पशुओं और सर्पों से भरा है। मुझसे बिछुड़कर शत्रुलक्षण सती दमयन्ती अकेले इस वन में कैसे विचरण करेगी? महाभागे! तुम धर्म से आवृत हो, आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार और मरुद्गण-ये सब देवता तुम्हारी रक्षा करें’।

   इस भूतल पर रूप-सौन्दर्य में जिसकी समानता करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी, उसी अपनी प्यारी पत्नी दमयन्ती के प्रति इस प्रकार कहकर राजा नल वहाँ से उठे और चल दिये। उस समय कलि ने उनकी विवेकशक्ति हर ली थी।

   राजा नल को एक ओर कलियुग खींच रहा था और दूसरी और दमयन्ती का सौहार्द। अतः वह बार-बार जाकर फिर उस धर्मशाला में ही लौट आते थे। उस समय दु:खी राजा नल का हृदय मानो दुविधा में पड़ गया था। जैसे झूला बार-बार नीचे-ऊपर आता-जाता रहता है, उसी प्रकार उनका हृदय कभी बाहर जाता, कभी सभाभवन में लौट आता था। अन्त में कलियुग ने प्रबल आकर्षण किया, जिससे मोहित होकर राजा नल बहुत देर तक करुण विलाप करके अपनी सोती हुई पत्नी को छोड़कर शीघ्रता से चले गये।

   कलियुग के स्पर्श से उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी; अतः वे अत्यन्त दु:खी हो विभिन्न बातों का विचार करते हुए उन सूने वन में अपनी पत्नी को अकेली छोड़कर चल दिये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में दमयन्ती परित्याग विषयक बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

तिरसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"दमयन्ती का विलाप तथा अजगर एवं व्याध से उनके प्राण एवं सतीत्व की रक्षा तथा दमयन्ती के पातिव्रत्य धर्म के प्रभाव से व्याध का विनाश"

   बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! नल के चले जाने पर जब दमयन्ती की थकावट दूर हो गयी, तब उनकी आंख खुली। उस निर्जन वन में अपने स्वामी को न देखकर सुन्दरी दमयन्ती भयातुर और दुःख शोक से व्याकुल हो गयी। उसने भयभीत होकर निषध नरेश नल को ‘महाराज! आप कहाँ हैं?’ यह कहकर बड़े जोर से पुकारा। ‘हा नाथ! हा महाराज! हा स्वामिन्! आप मुझे क्यों त्याग रहे हैं? हाय! मैं मारी गयी, नष्ट हो गयी, इस जनशून्य वन में मुझे बड़ा भय लग रहा है। महाराज! आप तो धर्मज्ञ और सत्यवादी हैं; फिर वैसी सच्ची प्रतिज्ञा करके आज आप इस जंगल में मुझे सोती छोड़कर कैसे चले गये? मैं आपकी सेवा में कुशल और अनुरक्त भार्या हूँ। विशेषत: मेरे द्वारा आपका कोई अपराध भी नहीं हुआ। यदि कोई अपराध हुआ है, तो वह दूसरे के ही द्वारा, मुझसे नहीं; तो भी आप मुझे त्यागकर क्यों चले जा रहे हैं?

    नरेश्वर! आपने पहले स्वयंवर सभा में उन लोकपालों के निकट जो बातें कहीं थीं, क्या आप उन्हें आज मेरे प्रति सत्य सिद्ध कर सकेंगे? पुरुष शिरोमणे! मनुष्यों की मृत्यु असमय में नहीं होती, तभी तो आपकी यह प्रियतमा आप से परित्यक्त होकर दो घड़ी भी जी रही है। पुरुषश्रेष्ठ! यहाँ इतना ही परिहास बहुत है। अत्यन्त दुर्धर्ष वीर! मैं बहुत डर गयी हूँ। प्राणेश्वर! अब मुझे अपना दर्शन दीजिये। राजन्! निषधनरेश! आप दीख रहे हैं, दीख रहे हैं, यह दिखायी दिये। लताओं द्वारा अपने को छिपाकर आप मुझसे बात क्यों नहीं कर रहे हैं? राजेन्द्र! मैं इस प्रकार भय और चिन्ता में पड़कर यहाँ विलाप कर रही हूँ और आप आश्वासन भी नहीं देते! भूपाल! यह तो आपकी बड़ी निर्दयता है।

   नरेश्वर! मैं अपने लिये शोक नहीं करती। मुझे दूसरी किसी बात का भी शोक नहीं है। मैं केवल आपके लिये शोक कर रहीं हूँ कि आप अकेले कैसी शोचनीय दशा में पड़ जायेंगे! राजन्! आप भूखे-प्यासे और परिश्रम से थके-मांदे होकर जब सांयकाल किसी वृक्ष के नीचे आकर विश्राम करेंगे, उस समय मुझे अपने पास न देखकर आपकी कैसी दशा हो जायेगी?’

   तदनन्तर प्रचण्ड शोक से पीड़ित हो क्रोधाग्नि से दग्ध होती हुई-सी दमयन्ती अत्यन्त दु:खी हो रोने और इधर-उधर दौड़ने लगी। दमयन्ती बार-बार उठती और बार-बार विह्वल हो गिर पड़ती थी। वह कभी भयभीत होकर छिपती और कभी जोर-जोर से रोने-चिल्लाने लगती थी। अत्यन्त शोकसंतप्त हो बार-बार लम्बी सांसे खींचती हुई व्याकुल पतिव्रता दमयन्ती दीर्घ निःश्वास लेकर रोती हुई बोली- ‘जिसके अभिशाप से निषध नरेश नल दुःख से पीड़ित हो क्लेश-पर-क्लेश उठाते जा रहे हैं, उस प्राणी को हम लोगों के दु:ख प्राप्त हों। जिस पापी ने पुण्यात्मा राजा नल को इस दशा में पहुँचाया है, वह उनसे भी भारी दुःख में पड़कर दुःख की जिंदगी बितावे’।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)

  इस प्रकार विलाप करती तथा हिंसक जन्तुओं से भरे हुए वन में अपने पति को ढूंढ़ती हुई महामना राजा नल की पत्नी भीमकुमारी दमयन्ती उन्मत्त हुई रोती-बिलखती और ‘हा राजन्, ‘हा महाराज’ ऐसा बार-बार कहती हुई इधर-उधर दौड़ने लगी। वह कुकरी पक्षी की भाँति जोर-जोर से करुण क्रन्दन कर रही थी और अत्यन्त शोक करती हुई बार-बार विलाप कर रही थी। वहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक विशालकाय भूखा अजगर बैठा था। उसने बार-बार चक्कर लगाती सहसा निकट आयी हुई भीमकुमारी दमयन्ती को (पैरों की ओर से) निगलना आरम्भ कर दिया।

   शोक में डूबी हुई वैदर्भी को अजगर निगल रहा था, तो वह अपने लिये उतना शोक नहीं कर रही थी, जितना शोक उसे निषध नरेश नल के लिये था। वह विलाप करती हुई कहने लगी,,

  दमयन्ती बोली ;- ‘हा नाथ! इस निर्जन वन में यह अजगर सर्प मुझे अनाथ की भाँति निगल रहा है। आप मेरी रक्षा के लिये दौड़कर आते क्यों नहीं हैं? निषध नरेश! यदि मैं मर गयी, तो मुझे बार-बार याद करके आपकी कैसी दशा हो जायेगी? प्रभो! आज मुझे वन में छोड़कर आप क्यों चले गये? निष्पाप निषध नरेश! इस संकट से मुक्त होने पर जब आपको पुनः शुद्ध बुद्धि, चेतना और धन आदि की प्राप्ति होगी, उस समय मेरे बिना आपकी क्या दशा होगी? नृपप्रवर! जब आप भूख से पीड़ित हो थके-मांदे एवं अत्यन्त खिन्न होंगे, उस समय आपकी उस थकावट को कौन दूर करेगा?’

    इसी समय कोई व्याध उस गहन वन में विचर रहा था, वह दमयन्ती का करुण क्रन्दन सुनकर बड़े वेग से उधर आया। उस विशाल नयनों वाली युवती को अजगर के द्वारा उस प्रकार निगली जाती देख व्याध ने बड़ी उतावली के साथ वेग से दौड़कर तीखे शस्त्र से शीघ्र ही उस अजगर का मुख फाड़ दिया। वह अजगर छटपटाकर चेष्टारहित हो गया। मृगों को मारकर जीविका चलाने वाले उस व्याध ने सर्प के टुकड़े-टुकड़े करके दमयन्ती को छुड़ाया। फिर जल से उसके सर्पग्रस्त शरीर को धोकर उसे आश्वासन दे उसके लिये भोजन की व्यवस्था कर दी। भारत! जब वह भोजन कर चुकी, तब व्याध ने उससे पूछा,,

    व्याध बोला ;- ‘मृगलोचने! तुम किसकी स्त्री हो और कैसे वन में चली आयी हो? भामिनि! किस प्रकार तुम्हें यह महान् कष्ट प्राप्त हुआ है?’

   भरतवंशी नरेश युधिष्ठिर! व्याध के पूछने पर दमयन्ती ने उसे सारा वत्तान्त यथार्थ रूप से कहा सुनाया। स्थूल नितम्ब और स्तनों वाली विदर्भकुमारी ने आधे वस्त्र से ही अपने अंगों को ढंक रखा था। पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुख वाली दमयन्ती का एक-एक अंग सुकुमार एवं निर्दोष था। उसकी आंखें तिरछी बरौनियों से सुशोभित थीं और वह बड़े मधुर स्वर में बोल रही थी। इन सब बातों की ओर लक्ष्य करके वह व्याध काम के अधीन हो गया। वह मधुर एवं कोमल वाणी से उसे अपने अनुकूल बनाने के लिये भाँति-भाँति के आश्वासन देने लगा। वह व्याध उस समय कामवेदना से पीड़ित हो रहा था। सती दमयन्ती ने उसके दूषित मनोभाव को समझ लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 35-39 का हिन्दी अनुवाद)

    पतिव्रता दमयन्ती भी उसकी दुष्टता को समझकर तीव्र क्रोध के वशीभूत हो मानो रोषाग्नि से प्रज्वलित हो उठी। यद्यपि वह नीच पापात्मा व्याध उस पर बलात्कार करने के लिये व्याकुल हो गया था, परन्तु दमयन्ती अग्निशिखा की भाँति उद्दीप्त हो रही थी, अतः उसका स्पर्श करना उसको दुष्कर प्रतीत हुआ। पति तथा राज्य दोनों से वंचित होने के कारण दमयन्ती अत्यन्त दुःख से आतुर हो रही थी।

   इधर व्याध की कुचेष्टा वाणी द्वारा रोकने पर रुक सके, ऐसी प्रतीत नहीं होती थी। तब (उस व्याध पर अत्यन्त रुष्ट हो) उसने उसे शाप दे दिया,,

  दमयन्ती बोली ;- ‘यदि मैं निषधराज नल के सिवा दूसरे किसी पुरुष का मन में भी चिन्तन भी करती होऊं, तो इसके प्रभाव से यह तुच्छ व्याध प्राणशून्य होकर गिर पड़े’।

दमयन्ती के इतना कहते ही वह व्याध आग से जले हुए वृक्ष की भाँति प्राणशून्य होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में अजगरग्रस्त दमयन्तीमोचन विषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

चौसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"दमयन्ती का विलाप और प्रलाप, तपस्वियों द्वारा दमयन्ती को आश्वासन तथा उनकी व्यापारियों के दल से भेंट"

   बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! व्याध का विनाश करके वह कमलनयनी राजकुुमारी झिल्लियों की झंकार से गूंजते हुए निर्जन एवं भयंकर वन में आगे बढ़ी। वह वन सिंह, चीतों, रुरुमृग, व्याघ्र, भैंसों तथा रीछ आदि पशुओं से युक्त एवं भाँति-भाँति के पक्षिसमुदाय से व्याप्त था। वहाँ म्लेच्छ और तस्करों का निवास था। शाल, वेणु, धव, पीपल, तिन्दुक, इंदुग, पलाश, अर्जुन, अरिष्ट, स्वन्दन (तिनिश), सेमल, जामुन, आम, लोध, खैर, साखू, बेंत, आंवला, पाकर, कदम्ब, गूलर, बेर, बेल, बरगद, प्रियाल, ताल, खजूर, हर्रे तथा बहेड़े आदि वृक्षों से यह विशाल वन परिपूर्ण हो रहा था। दमयन्ती ने वहाँ सैकड़ों धातुओं से संयुक्त नाना प्रकार के पर्वत, पक्षियों के कलरवों से गुंजायमान कितने ही निकुंज और अद्भुत कन्दराएं देखीं।

   कितनी ही नदियों, सरोवरों, बावलियों तथा नाना प्रकार के मृगों और पक्षियों को देखा। उसने बहुत-से भयानक रूप वाले पिशाच, नाग तथा राक्षस देखे। कितने ही गड्ढों, पोखरों और पर्वतशिखरों का अवलोकन किया। सरिताओं और अद्भुत झरनों को देखा। विर्दभराजनन्दिनी ने उस वन में झुंड के झुंड भैंसे, सूअर, रीछ और जंगली सांप देखे। तेज, यश, शोभा और परम धैर्य से युक्त विदर्भकुमारी उस समय अकेली विचरती और नल को ढूंढती थी। वह पति के विरहरूपी संकट से संतप्त थी। अतः राजकुमारी दमयन्ती उस भयंकर वन में प्रवेश करके भी किसी जीव-जन्तु से भयभीत नहीं हुई।

    राजन्! विदर्भकुमारी दमयन्ती के अंग-अंग में पति के वियोग का शोक व्याप्त हो गया था, इसलिये वह अत्यन्त दुःखित हो एक शिला के नीचे भाग में बैठकर बहुत विलाप करने लगी। 

   दमयन्ती बोली ;- 'चौड़ी छाती वाले महाबाहु निषध नरेश महाराज! आज इस निर्जन वन में (मुझ अकेली को) छोड़कर आप कहाँ चले गये? नरश्रेष्ठ! वीरशिरोमणे! प्रचुर दक्षिणा वाले अश्वमेध आदि यज्ञों का अनुष्ठान करके भी आप मेरे साथ मिथ्या बर्ताव क्यों कर रहे हैं? महातेजस्वी कल्याणमय राजाओं में उत्तम नरश्रेष्ठ! आपने मेरे सामने जो बात कही थी, अपनी उस बात का स्मरण करना उचित है। भूमिपाल! आकाशचारी हंसों ने आपके समीप तथा मेरे सामने जो बातें कही थीं, उन पर विचार कीजिये। नरसिंह! एक ओर अंग और उपांगों सहित विस्तारपूर्वक चारों वेदों का स्वाध्याय हो और दूसरी ओर केवल सत्यभाषण हो तो वह निश्चय ही उससे बढ़कर है। अतः शत्रुहन्ता नरेश्वर! वीर! आपने पहले मेरे समीप जो बातें कहीं हैं, उसे सत्य कहना चाहिये।

    हा निष्पाप वीर नल! आपकी मैं दमयन्ती इस भयंकर वन में नष्ट हो रही हूं, आप मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देते? यह भयानक आकृति वाला क्रूर सिंह भूख से पीड़ित हो मुंह बाये खड़ा है और मुझ पर आक्रमण करना चाहता है, क्या आप मेरी रक्षा नहीं कर सकते? कल्याणमय नरेश! आप पहले जो सदा यह कहते थे कि तुम्हारे सिवा दूसरी कोई भी स्त्री मुझे प्रिय नहीं है, अपनी उस बात को सत्य कीजिये। महाराज! मैं आपकी प्रिय पत्नी हूँ और आप मेरे प्रियतम पति हैं, ऐसी दशा में भी मैं यहाँ उन्मत्त विलाप कर रहीं हूँ तो भी आप मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देते?'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद)

   पृथ्वीनाथ! मैं दीन, दुर्बल, कांतिहीन और मलिन होकर आधे वस्त्र से अपने अंगों को ढक कर अकेली अनाथ-सी विलाप कर रहीं हूँ। विशाल नेत्रों वाले शत्रुसूदन आर्य! मेरी दशा अपने झुंड से बिछुड़ी हुई हरिणी की-सी हो रही है। मैं यहाँ अकेली रो रही हूँ। परन्तु आप मेरा मान नहीं रखते हैं। महाराज! इस महान् वन में मैं सती दमयन्ती अकेली आपको पुकार रही हूं, आप मुझे उत्तर क्यों नहीं देते?

   नरश्रेष्ठ! आप उत्तम कुल और शील स्वभाव से सम्पन्न हैं। आप अपने सम्पूर्ण मनोहर अंगों से सुशोभित होते हैं। आज इस पर्वत शिखर पर मैं आपको नहीं देख पाती हूँ। निषध नरेश! इस महाभयंकर वन में, जहाँ सिंह-व्याघ्र रहते हैं, आप कहीं सोये हैं, बैठे हैं अथवा खडे़ हैं? मेरे शोक को बढ़ाने वाले नरश्रेष्ठ! आप यहीं हैं या कहीं अन्यत्र चल दिये, यह मैं किससे पूछूं? आपके लिये शोक से दुर्बल होकर मैं अत्यन्त दुःख से आतुर हो रही हूँ। 'क्या तुमने इस वन में राजा नल से मिलकर उन्हें देखा है?’ ऐसा प्रश्न अब मैं इस वन में प्रस्थान करने वाले नल के विषय में किससे करूं? शत्रुओं के व्यूह का नाश करने वाले जिन परमसुन्दर कमलनयन महात्मा राजा नल को तू खोज रही है, वे सही तो हैं, ऐसी मधुर वाणी आज मैं किसके मुख से सुनूंगी? यह वन का राजा कांतिमान् सिंह मेरे सामने चला आ रहा है, इसके चार दाढ़ें और विशाल ठोड़ी है। मैं निःशंक होकर इसके सामने जा रही हूँ और कहती हूं, आप मृगों के राजा और इस वन के स्वामी हैं। मैं विदर्भ राजकुमारी दमयन्ती हूँ। मुझे शत्रुघाती निषध नरेश नल की पत्नी समझिये। मृगेन्द्र! मैं इस वन में अकेली पति की खोज में भटक रही हूँ तथा शोक से पीड़ित एवं दीन हो रही हूँ। यदि आपने नल को यहाँ कहीं देखा हो तो उनका कुशल-समाचार बताकर मुझे आश्वासन दीजिये अथवा वनराज मृगश्रेष्ठ! यदि आप नल के विषय में कुछ नहीं बताते हैं तो मुझे खा जायें और इस दुःख से छुटकारा दे दें।

   अहो! इस घोर वन में मेरा विलाप सुनकर भी यह सिंह मुझे सान्त्वना नहीं देता। यह तो स्वादिष्ट जल से भरी हुई इस समुद्रगामिनी नदी की ओर जा रहा है। अच्छा, इस पवित्र पर्वत से ही पूछती हूँ। यह बहुत-से ऊंचे-ऊंचे शोभ वाली बहुरंगे एवं मनोरम शिखरों द्वारा सुशोभित है। अनेक प्रकार के धातुओं से व्याप्त और भाँति-भाँति के शिलाखण्डों से विभूषित है। यह पर्वत इस महान् वन की ऊपर उठी हुई पताका के समान जान पड़ता है। यह सिंह, व्याघ्र, हाथी, सूअर, रीछ और मृगों से परिपूर्ण है। इसके चारों ओर अनेक प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे हैं। पलाश, अशोक, बकुल, पुन्नाग, कनेर, धव तथा प्लक्ष आदि सुन्दर फूलों वाले वृक्षों से यह पर्वत सुशोभित हो रहा है। यह पर्वत अनेक सरिताओं, सुन्दर पक्षियों और शिखरां से परिपूर्ण है। तब मैं इसी गिरिराज से महाराज नल का समाचार पूछती हूँ। भगवन्! अचलप्रवर! दिव्य दृष्टिपात! विख्यात! सबको शरण देने वाले परम कल्याणमय महीघर! आपको नमस्कार है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 43-62 का हिन्दी अनुवाद)

  मैं निकट आकर आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ। आप मेरा परिचय इस प्रकार जानें, मैं राजा की पुत्री, राजा की पुत्रवधू तथा राजा की पत्नी हूँ। मेरी ‘दमयन्ती’ नाम से प्रसिद्धि है। विदर्भ देश के स्वामी महारथी भीम नामक राजा मेरे पिता हैं। वे पृथ्वीपालक तथा चारों वर्णों के रक्षक हैं। उन्होंने (प्रचुर) दक्षिणा वाले राजसूय तथा अश्वमेध नामक यज्ञों का अनुष्ठान किया है। वे भूमिपालों में श्रेष्ठ हैं। धर्मज्ञ तथा पवित्र हैं। वे विदर्भ देश की जनता का इच्छी तरह पालन करने वाले हैं। उन्होंने समस्त शत्रुओं को जीत लिया है, वे बड़े शक्तिशाली हैं। भगवन्! मुझे उन्हीं की पुत्री जानिये। मैं आपकी सेवा में (एक जिज्ञासा लेकर) उपस्थित हूँ। निषध देश के महाराज मेरे श्वशुर थे, वे प्रातः स्मरणी नरश्रेष्ठ वीरसेन के नाम से विख्यात थे। उन्हीं महाराज वीरसेन के एक वीर पुत्र हैं, जो बड़े ही सुन्दर और सत्यपराक्रमी हैं। वे वंश परम्परा से प्राप्त अपने पिता के राज्य का पालन करते हैं। उनका नाम नल है।

    शत्रुदमन, श्यामसुन्दर राजा नल पुण्यश्लोक कहे जाते हैं। वे बड़े ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, वक्ता, पुण्यात्मा, सोमपान करने वाले और अग्निहोत्री हैं। वे अच्छे यज्ञकर्ता, उत्तम दाता, शूरवीर योद्धा और श्रेष्ठ शासक हैं, आप मुझे उन्हीं की श्रेष्ठ पत्नी समझ लीजिये। मैं अबला नारी आपके निकट यहाँ उन्हीं की कुशल पूछने के लिये आयी हूँ। गिरीराज! (मेरे स्वामी मुझे छोड़कर कहीं चले गये हैं)। मैं धन-सम्पति से वंचित, पतिदेव से रहित, अनाथ और संकटों की मारी हुई हूँ। इस वन में अपने पति को ही खोज कर रही हूँ। पवर्तश्रेष्ठ! क्या आपने इन सैकड़ों गगनचुम्बी शिखरों द्वारा इस भयानक वन में कहीं राजा नल को देखा है? मेरे महायशस्वी स्वमाी निषधराज नल गजराज की-सी चाल से चलते हैं। वे बड़े बुद्धिमान्, महाबाहु, अमर्षशील (दुःख को न सहन करने वाले) पराक्रमी, धैर्यवान और वीर हैं। क्या आपने कहीं उन्हें देखा है?

   गिरिश्रेष्ठ! मैं आपकी पुत्री के समान हूँ और (पति के वियोग से बहुत ही) दुःखी हूँ। क्या आप व्याकुल होकर अकेली विलाप करती हुई मुझ अबला को आज अपनी वाणी द्वारा आश्वासन न देंगे? वीर! धर्मज्ञ! सत्यप्रतिज्ञ और पराक्रमी महीपाल! यदि आप इसी वन में हैं तो राजन्! अपने आपको प्रकट करके मुझे दर्शन दीजिये। मैं कब निषधराज नल की मेघ-गर्जना के समान स्निग्ध्, गम्भीर, अमृतोपम वह मधुर वाणी सुनूंगी। उन महामना राजा के मुख से ‘वैदर्भि!’ इस सम्बोधन से युक्त शुभ, स्पष्ट, वेद अनुकूल, सुन्दर पद और अर्थ से युक्त तथा मेरे शोक का विनाश करने वाली वाणी मुझे कब सुनायी देगी। धर्मवत्सल नरेश्वर! मुझ भयभीत अबला को आश्वासन दीजिये।

   इस प्रकार उस श्रेष्ठ पर्वत से कहकर वह राजकुमारी दमयन्ती फिर वहाँ से उत्तर की ओर चल दी। लगातार तीन दिन और तीन रात चलने के पश्चात् उस श्रेष्ठ नारी ने तपस्वियों से युक्त एक वन देखा, जो अनुपम तथा दिव्य वन से सुशोभित था तथा वसिष्ठ, भृगु और अत्रि के समान नियम-परायण, मिताहारी तथा (शम), दम, शौच, आदि से सम्पन्न तपस्वियों से वह शोभायमान हो रहा था।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 63-83 का हिन्दी अनुवाद)

  वहाँ कुछ तपस्वी लोग केवल जल पीकर रहते थे और कुछ लोग वायु पीकर। कितने ही केवल पत्ते चबाकर रहते थे। वे जितेन्द्रिय महाभाग स्वर्गलोक के मार्ग का दर्शन करना चाहते थे। वल्कल और मृगचर्म धारण करने वाले उन जितेन्द्रिय मुनियों से सेवित एक रमणीय आश्रयमण्डल दिखायी दिया, जिसमें प्रायः तपस्वी लोग निवास करते थे। उस आश्रम में नाना प्रकार के मृगों और वानरों के समुदाय भी विचरते रहते थे। तपस्वी महात्माओं से भरे हुए उस आश्रम को देखते ही दमयन्ती को बड़ी सान्त्वना मिली। उसकी भौंहें बड़ी सुन्दर थीं। केश मनोहर जान पड़ते थे। नितम्ब भाग, स्तन, दन्तपंक्ति और मुख सभी सुन्दर थे। उसके मनोहर कजरारे नेत्र विशाल थे। वह तेजस्विनी और प्रतिष्ठित थी। महाराज वीरसेन की पुत्रवधू रमणीशिरोमणि महाभागा तपस्विनी उन दमयन्ती ने आश्रम के भीतर प्रवेश किया। वहाँ तपोवृद्ध महात्माओं को प्रमाण करके वह उनके समीप विनीत भाव से खड़ी हो गयी। तब वहाँ के सभी श्रेष्ठ तपस्वीजनों ने उससे कहा,,

तपस्वी बोले ;- ‘देवि! तुम्हारा स्वागत है’। तदनन्तर वहाँ दमयन्ती का यथोचित्त आदर सत्कार करके उन तपोधनों ने कहा,,

तपस्वी बोले ;- ‘शुभे! बैटो, बताओ, हम तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करें।'

उस समय सुन्दर अंगों वाली दमयन्ती ने उनसे कहा,,

   दमयन्ती बोली ;- ‘भगवन्! निष्पाप महाभागगण! यहाँ तप, अग्निहोत्र, धर्म, मृग और पक्षियों के पालन तथा अपने धर्म के आचरण आदि विषयों में आप लोग सकुशल हैं न?’ 

  तब उन महात्माओं ने कहो ;- ‘भद्रे! यशस्विनी! सर्वत्र कुशल है। सर्वांगसुन्दरी! बताओ, तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो? तुम्हारे उत्तम रूप को परम सुन्दर कांति को यहाँ देखकर हमें बड़ा विस्मय हो रहा है। धैर्य धारण करो, शोक न करो। तुम इस वन की देवी हो या इस पर्वत की अधिदेवता। अनिन्दिते! कल्याणि! अथवा तुम इस नदी की अधिष्ठात्री देवी हो, सच-सच बताओ।’

   दमयन्ती ने उन ऋषियों से कहा ;- ‘तपस्या के धनी ब्राह्मणों! न तो मैं इस वन की देवी हूं, न पर्वत की अधिदेवता और न इस नदी की ही देवी हूँ। आप सब लोग मुझे मानवी समझें। मैं विस्तारपूर्वक अपना परिचय दे रहीं हूं, आप लोग सुनें। विदर्भ देश में भीम नाम के प्रसिद्ध एक भूमिपाल हैं। द्विजवरों! आप सब महात्मा जान लें, मैं उन्हीं महाराज की पुत्री हूँ। निषध देश के स्वामी, संग्रामविजयी, वीर, विद्वान्, बुद्धिमान्, प्रजापालक महायशस्वी राजा नल मेरे पति हैं। वे देवताओं के पूजन में संलग्न रहते हैं और ब्राह्मणों के प्रति उनके हृदय में बड़ा स्नेह है। वे निषधकुल के रक्षक, महातेजस्वी, महाबली, सत्यवादी, धर्मज्ञ, विद्वान्, सत्यप्रतिज्ञ, शत्रुमर्दन, ब्राह्मणभक्त, देवोपासक, शोभा तथा सम्पति से युक्त तथा शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले हैं। मेरे स्वामी नृपश्रेष्ठ नल देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। उनके नेत्र विशाल हैं, उनका मुख सम्पूर्ण चन्द्रमा के समान सुन्दर है व शत्रुओं का संहार करने वाले, बड़े-बड़े यज्ञों के आयोजन और वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान् हैं। युद्ध में उन्होंने कितने शत्रुओं का संहार किया है। वे सूर्य और चन्द्रमा के समान तेजस्वी और कांतिमान् हैं। एक दिन कुछ कपटकुशल, अजितेन्द्रिय, अनार्य, कुटिल तथा द्यूतनिपुण जुआरियों ने उन सत्य धर्मपरायण महाराज नल को जूए के लिये आवाहन करके उनके सारे राज्य और घन का अपहरण कर लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 84-106 का हिन्दी अनुवाद)

  आप दमयन्ती नाम से विख्यात मुझे उन्हीं नृपश्रेष्ठ नल की पत्नी जानें। मैं अपने स्वामी के दर्शन के लिये उत्सुक हो रही हूँ। मेरे पति महामना नल युद्धकला में कुशल और सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के विद्वान् हैं। मैं उन्हीं की खोज करती हुई वन, पर्वत, सरोवर, नदी, गड्ढे और सभी जंगलों में दु:खी होकर घूमती हूँ। भगवन्! क्या आपके इस रमणीय तपोवन में निषध नरेश नल आये थे? ब्रह्मन्! जिनके लिये मैं व्याघ्र, सिंह आदि पशुओं से सेवित अत्यन्त दारुण, भयंकर, घोर वन में आयी हूँ। यदि कुछ ही दिन-रात में मैं राजा नल को नहीं देखूँगी तो इस शरीर का परित्याग करके आत्मा का कल्याण करूँगी। उन पुरुषरत्न नल के बिना जीवन धारण करने से मेरा क्या प्रयोजन है? अब मैं पतिशोक से पीड़ित होकर न जाने कैसी हो जाऊंगी?'

   इस प्रकार वन में अकेली विलाप करती हुई भीमनन्दिनी दमयन्ती के सत्य का दर्शन करने वाले उन तपस्वियों ने कहा,,

तपस्वी बोले ;- ‘कल्याणि! शुभे! हम अपने तपोबल से देख रहे हैं, तुम्हारा भविष्य परम कल्याणमय होगा। तुम शीघ्र ही निषध नरेश नल का दर्शन प्राप्त करोगी। भीमकुमारी! तुम शत्रुओं का संहार करने वाले निषध देश के अधिपति और धर्मात्माओं में श्रेष्ठ राजा नल को सब प्रकार से चिन्ताओं से रहित देखोगी। तुम्हारे पति सब प्रकार के पापजनित दुःखों से मुक्त और फिर सम्पूर्ण रत्नों से सम्पन्न होंगे। शत्रुदमन राजा नल फिर उसी श्रेष्ठ नगर का शासन करेंगे। वे शत्रुओं के लिये भयदायक और सुहृदों के लिये शोकनाश करने वाले होंगे। कल्याणि! इस प्रकार सत्कुल में उत्पन्न अपने पति को तुम (नरेश के पद पर प्रतिष्ठित) देखोगी’।

   नल की प्रियतमा महारानी राजकुमारी दमयन्ती से ऐसा कहकर वे सभी तपस्वी अग्निहोत्र और आश्रमसहित अदृश्य हो गये। उस समय राजा वीरसेन की पुत्रवधू सर्वांगसुन्दरी दमयन्ती वह महान् आश्चर्य की बात देखकर बड़े विस्मय में पड़ गयी। (उसने सोचा)- 'क्या मैंने कोई स्वप्न देखा है? यहाँ यह कैसी अद्भुत घटना हो गयी? वे सब तपस्वी कहाँ चले गये और वह आश्रममण्डल कहाँ है?' पवित्र मुसकान वाली भीमपुत्री दमयन्ती बहुत देर तक इन सब बातों पर विचार करती रही। तत्पश्चात् वह पति-शोकपरायण और दीन हो गयी तथा उसके मुख पर उदासी छा गयी।

   तदनन्तर! वह दूसरे स्थान पर जाकर अश्रुगद्गद वाणी से विलाप करने लगी। उसने आंसू भरे नेत्रों से देखा, वहाँ से कुछ ही दूर पर एक अशोक का वृक्ष था। दमयन्ती उसके पास गयी। वह तरुवर अशोक फूलों से भरा था। उस वन में पल्लवों से लदा हुआ पक्षियों के कलरवों से गुंजायमान वह वृक्ष बड़ा ही मनोरम जान पड़ता था। (उसे देखकर वह मन-ही-मन कहने लगी) ‘अहो! इस वन के भीतर अशोक बड़ा सुन्दर है। यह अनेक प्रकार के फल, फूल आदि अलंकारों से अलंकृत सुन्दर गिरीराज की भाँति सुशोभित हो रहा है’। अब उसने अशोक से कहा,,

   दमयन्ती ने कहा ;- ‘प्रियदर्शन अशोक! तुम शीघ्र ही मेरा शोक दूर कर दो। क्या तुमने शोक, भय और बाधा से रहित शत्रुदमन राजा नल को देखा है? क्या मेरे प्रियतम, दमयन्ती के प्राणवल्लभ, निषध नरेश नल पर तुम्हारी दृष्टि पड़ी? उन्होंने एक साड़ी के आधे टुकड़े से अपने शरीर को ढंक रखा है, उनके अंगों की त्वचा बड़ी सुकुमार है। वे वीरवर नल भारी संकट से पीड़ित होकर इस वन में आये हैं।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 107-125 का हिन्दी अनुवाद)

  अशोक वृक्ष! तुम ऐसा करो, जिससे मैं यहाँ से शोकरहित होकर जाऊं। अशोक उसे कहते हैं, जो शोक का नाश करने वाला हो, अतः अशोक! तुम अपने नाम को सत्य एवं सार्थक करो’।

    इस प्रकार शोकार्त हुई सुन्दरी दमयन्ती उस अशोक वृक्ष की परिक्रमा करके वहाँ से अत्यन्त भयंकर स्थान की ओर गयी। उसने अनेक प्रकार के वृक्ष, अनेकानेक सरिताओं, बहुसंख्यक रमणीय पर्वतों, अनेक मृग-पक्षियों, पर्वत की कन्दराओं तथा उनके मध्य भागों और अद्भुत नदियों को देखा। पति का अन्वेषण करने वाली दमयन्ती ने उस समय पूर्वोक्त सभी वस्तुओं को देखा। इस तरह बहुत दूर तक का मार्ग तय कर लेने के बाद पवित्र मुस्कान वाली दमयन्ती ने एक बहुत बड़े सार्थ (व्यपारियों के दल) को देखा, जो हाथी, घोड़े तथा रथ से व्याप्त था। वह व्यापारियों का समूह स्वच्छ जल से सुशोभित एक सुन्दर रमणीय नदी को पार कर रहा था। नदी का जल बहुत ठंडा था, उसका पाट चौड़ा था। उसमें कई कुण्ड थे और वह किनारे पर उगे हुए बेंत के वृक्षों से आच्छादित हो रही थी। उसके तट पर क्रौंच, कुरर और चक्रवाक आदि पक्षी कूज रहे थे। कछुए, मगर और मछलियों से भरी हुई वह नदी विस्तृत टापू से सुशोभित हो रही थी।

   उस बहुत बड़े समूह को देखते ही यशस्विनी नलपत्नी सुन्दरी दमयन्ती उसके पास पहुँचकर लोगों की भीड़ में घुस गयी। उसका रूप उन्मत्त स्त्री का-सा जान पड़ता था, वह शोक से पीड़ित, दुर्बल, उदास और मलिन हो रही थी। उसने आधे वस्त्र से अपने शरीर को ढक रखा था और उसके केशों पर धूल जम गयी थी। वहाँ दमयन्ती को सहसा देखकर कितने ही मनुष्य भय से भाग खड़े हुए। कोई-कोई भारी चिंता में पड़ गये और कुछ लोग तो चीखने चिल्लाने लगे। कुछ लोग उसकी हंसी उड़ाते थे और कुछ उसमें दोष देख रहे थे। भारत! उन्हीं में कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें उस पर दया आ गयी और उन्होंने उसका समाचार पूछा,,
   लोगों ने पूछा ;- ‘कल्याणि! तुम कौन हो? किसकी स्त्री हो और इस वन में क्या खोज रही हो? तुम्हें देखकर हम बहुत दु:खी हैं। क्या तुम मानवी हो? कल्याणि! सच बताओ, तुम इस वन, पर्वत अथवा दिशा की अधिष्ठात्री देवी तो नहीं हो? हम सब लोग तुम्हारी शरण में आये हैं। तुम यक्षी हो या राक्षसी, कोई श्रेष्ठ देवांगना हो? अनिन्दिते! सर्वथा हमारा कल्याण एवं संरक्षण करो। कल्याणी! यह हमारा समूह शीघ्र कुशलपूर्वक यहाँ से चला जाये और हम लोगों का सब प्रकार से भला हो, ऐसी कृपा करो’।

उस यात्री के द्वारा जब ऐसी बात कही गयी, तब पति के वियोगजनित दुःख से पीड़ित साध्वी राजकुमारी दमयन्ती ने उन सबको इस प्रकार उत्तर दिया,,
  दमयन्ती बोली ;- ‘इस जनसमुदाय के जो सरदार हों, उनसे, इस जनसमूह से तथा इसके (भीतर रहने वाले और) आगे चलने वाले जो बाल-वृद्ध और युवक मनुष्य हों, उन सबसे मेरा यह कहना है कि आप सब लोग मुझे मानवी समझें। मैं एक नरेशपुत्री, महाराज की पुत्रवधु तथा राजपत्नी हूँ। अपने स्वामी के दर्शन की इच्छा से इस वन में भटक रही हूँ। विदर्भराज भीम मेरे पिता हैं, निषध नरेश महाभाग राजा नल मेरे पति हैं। मैं उन्हीं अपराजित वीर नल की खोज कर रहीं हूँ।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 126-132 का हिन्दी अनुवाद)

‘यदि आप लोग शत्रुसमूह का संहार करने वाले मेरे प्रियतम पुरुषसिंह महाराज नल के विषय में कुछ जानते हों तो शीघ्र बतावें’।
   उस महान् समूह का मालिक और समस्त यात्रीदल का संचालन (वणिक्) शुचि नाम से प्रसिद्ध था। उसने उस सुन्दरी से कहा,,
     शुचि बोला ;- ‘कल्याणि! मेरी बात सुनो। शुचिस्मिते! मैं इस दल का नेता और संचालक हूँ। यशस्विनी! मैंने नल नामधारी किसी मनुष्य को इस वन में नहीं देखा है। यह सम्पूर्ण वन मनुष्येत्तर प्राणियों से भरा है। इसके भीतर हाथियों, चीतों, भैंसों, सिंहों, रीछों और मृगों को ही मैं देखता आ रहा हूँ। तुम-जैसी मानव-कन्या के सिवा और किसी मनुष्य को मैं इस विशाल वन में नहीं देख रहा हूँ। इसलिये यक्षराज मणिभद्र आज हम पर प्रसन्न हों’।

तब दमयन्ती ने उन सब व्यापारियों तथा दल के संचालक से कहा,,
   दमयन्ती बोली ;- 'आपका यह दल कहाँ जायेगा? यह मुझे बताइये।'
सार्थवाह ने कहा ;- 'राजकुमारी! हमारा यह दल शीघ्र ही सत्यदर्शी चेदिराज सुबाहु के जनपद (नगर) में विशेष लाभ के उद्देश्य से जायेगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में दमयन्ती की सार्थवाह भेंटविषयक चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

पैसठवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"जंगली हाथियों द्वारा व्यापारियों के दल का सर्वनाश तथा दुःखित दमयन्ती का चेदिराज के भवन में सुखपूर्वक निवास"

    बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! दल के संचालन की वह बात सुनकर निर्दोष एवं सुन्दर अंगों वाली दमयन्ती पतिदेव के दर्शन के लिये उत्सुक हो व्यापारियों के उस दल के साथ ही यात्रा करने लगी। तदनन्तर बहुत समय के बाद एक भयंकर विशाल वन में पहुँचकर उन व्यापारियों ने एक महान् सरोवर देखा, जिसका नाम था, पद्म-सौगन्धिक। वह सब ओर से कल्याणप्रद जान पड़ता था। उस रमणीय सरोवर के पास घास और ईन्धन की अधिकता थी, फूल और फल भी वहाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते थे। उस तालाब पर बहुत-से पक्षी निवास करते थे। सरोवर का जल स्वच्छ और स्वादु था, वह देखने में बड़ा ही मनोहर और अत्यन्त शीतल था। व्यापारियों के वाहन बहुत थक गये थे। इसलिये उन्होंने वहीं पड़ाव डालने का निश्चय किया। समूह अधिपति से अनुमति लेकर सब लोगों ने उस उत्तम वन में प्रवेश किया और वह महान् जनसमुदाय सरोवर के पश्चिम तट पर ठहर गया।
    तत्पश्चात् आधी रात के समय जब कहीं से भी कोई शब्द सुनायी नहीं देता था और दल के सभी लोग थककर सो गये थे, उस समय गजराजों के मद की धारा से मलिन जल वाली पहाड़ी नदी में पानी पीने के लिये (जंगली) हाथियों का एक झुंड आ निकला। उस झुंड ने व्यापारियों के सोये हुए दल को और उनके साथ आये हुए बहुत से हाथियों को भी देखा। तब वन में रहने वाले उन सभी मदोन्मत्त गजों ने उन ग्रामीण हाथियों को देखकर उन्हें मार डालने की इच्छा से उन पर वेगपर्वूक आक्रमण किया। पर्वत की चोटी से टूटकर पृथ्वी पर गिरने वाले बड़े-बड़े शिखरों के समान उन आक्रमणकारी जंगली हाथियों का वेग (उस यात्रीदल के लिये) अत्यन्त दुःसह था। ग्रामीण हाथियों पर आक्रमण करने की चेष्टा वाले उन वनवासी गजराजों के वन्यमार्ग अवरुद्ध हो गये थे। सरोवर के तट पर व्यापारियों का महान् समुदाय उनका मार्ग रोककर सो रहा था। उन हाथियों ने सहसा पहुँचकर समूचे दल को कुचल दिया।
    कितने ही मनुष्य धरती पर पड़े-पड़े छटपटा रहे थे। उस दल के कितने ही पुरुष हाहाकार करते हुए बचाव की जगह खोजते हुए जंगल के पौधों के समूह में भाग गये। बहुत-से मनुष्य तो नींद के मारे अन्धे हो रहे थे। हाथियों ने किन्हीं को दांतों से, किन्हीं को सूंडों से और कितनों को पैरों से घायल कर दिया। उनके बहुत-से ऊंट और घोड़े मारे गये और उस समुदाय में बहुत-से पैदल लोग भी थे। वे सब लोग उस समय भय से चारों और भागते हुए एक-दूसरे से टकराकर चोट खा जाते थे। घोर आर्तनाद करते हुए सभी लोग धरती पर गिरने लगे। कुछ लोग बड़े वेग से वृक्षों पर चढ़ते हुए नीचे की विषम भूमियों पर गिर पड़ते थे।
    राजन्! इस प्रकार दैववश बहुतेरे जंगली हाथियों ने आक्रमण करके (प्रायः) उन सम्पूर्ण समृद्धिशाली व्यापारियों के समुदाय को नष्ट कर दिया। उस समय वहाँ तीनों लोकों को भय में डालने वाला महान् आर्तनाद एवं चीत्कार हो रहा था।
    कोई कहता ;- ‘अरे! इधर बड़ जोर की आग प्रज्वलित हो उठी है। यह भारी संकट आ गया (अब) दौड़ो और बचाओ।’ 
   दूसरा कहता ;- ‘अरे! ये ढेर-के-ढेर रत्न बिखरे पड़े हैं, इन्हें सम्हालकर रखो। इधर-उधर भागते क्यों हो?'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)

   तीसरा कहता था ;- ‘भाई! इस धन पर सबका समान अधिकार है, मेरी यह बात झूठी नहीं है’। 
   कोई कहता ;- ‘ऐ कायरो! मैं फिर तुमसे बात करूंगा, अभी अपनी रक्षा की चिंता करो।' इस तरह की बातें करते हुए सब लोग भय से भाग रहे थे। इस प्रकार जब वहाँ भयानक नर-संहार हो रहा था, उसी समय दमयन्ती भी जाग उठी। उसका हृदय भय से संत्रस्त हो उठा। वहाँ उसने वह महासंहार अपनी आंखों से देखा, जो सब लोगों के लिये भयंकर था। उसने ऐसी दुर्घटना पहले कभी नहीं देखी थी। वह सब देखकर वह कमलनयनी बाला भय से व्याकुल हो उठी। उसको कहीं से कोई सान्त्वना नहीं मिल रही थी। वह इस प्रकार स्तब्ध हो रही थी, मानो धरती से सट गयी हो। तदनन्तर वह किसी प्रकार उठकर खड़ी हुई। दल के जो लोग संकट से मुक्त हो आघात से बचे हुए थे, वे सब एकत्र हो कहने लगे कि ‘यह हमारे किस कर्म का फल है? निश्चय ही हमने महायशस्वी मणिभद्र का पूजन नहीं किया है। इसी प्रकार हमने श्रीमहान् यक्षराज कुबेर की भी पूजा नहीं की है अथवा विघ्नकर्ता विनायकों की भी पहले पूजा नहीं कर ली थी अथवा हमने पहले जो-जो शकुन देखे थे, उसका विपरित फल है। यदि हमारे ग्रह विपरीत न होते तो और किस हेतु से यह संकट हमारे ऊपर कैसे आ सकता है?'
    दूसरे लोग जो अपने कुटुम्बीजनों और धन के विनाश से दीन हो रहे थे, 
   वे इस प्रकार कहने लगे ;- ‘आज हमारे विशाल जनसमूह के साथ वह जो उन्मत्त जैसी दिखायी देने वाली नारी आ गयी थी, वह विकराल आकार वाली राक्षसी थी तो भी अलौकिक सुन्दर रूप धारण करके हमारे दल में घुस गयी थी। उसी ने पहले से ही यह अत्यन्त भयंकर माया फैला रखी थी। निश्चय ही वह राक्षसी, यक्षी अथवा भयंकर पिशाची थी-इसमें विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं कि यह सारा पापपूर्ण कृत्य उसी का किया हुआ है। उसने हमें अनेक प्रकार का दुःख दिया और प्रायः सारे दल का विनाश कर दिया। वह पापिनी समूचे सार्थ के लिये अवश्य ही कृत्या बनकर आयी थी। यदि हम उसे देख लेंगे तो ढेलों से, धूल और तिलकों से, लकड़ियों और मुक्कों से भी अवश्य मार डालेंगे।
    उनका वह अत्यन्त भयंकर वचन सुनकर दमयन्ती लज्जा से गड़ गयी भय से व्याकुल हो उठी। उनके पापपूर्ण संकल्प के संघटित होने की आशंका करके वह उसी ओर भाग गयी, जहाँ घना जंगल था। वहाँ जाकर अपनी इस परिस्थितियों पर विचार करके वह विलाप करने लगी- ‘अहो! मुझ पर विधाता का अत्यन्त भयानक और महान् कोप है, जिससे मुझे कहीं भी कुशल-क्षेम की प्राप्ति नहीं होती। न जाने, यह हमारे किस कर्म का फल है? मैंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी किसी का थोड़ा-सा भी अमंगल किया हो, इसकी याद नहीं आती, फिर यह मेरे किस कर्म का फल मिल रहा है? निश्चय ही यह मेरे दूसरे जन्मों के किये हुए पाप का महान् फल प्राप्त हुआ है, जिससे मैं इस अनन्त कष्ट में पड़ गयी हूँ। मेरे स्वामी के राज्य का अपहरण हुआ, उन्हें आत्मीयजन से ही पराजित होना पड़ा, मेरा अपने पतिदेव से वियोग हुआ और अपनी संतानों के दर्शन से भी वंचित हो गयी हूँ।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 35-52 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘इतना ही नहीं, असंख्य सर्प आदि जन्तुओं से भरे हुए इस वन में मुझे अनाथ की-सी दशा में रहना पड़ता है।' तदनन्तर दूसरा दिन प्रारम्भ होने पर मरने से बचे हुए लोग उस स्थान से निकलकर उस विकट संहार के लिये शोक करने लगे। राजन् कोई भाई के लिये दु:खी था, कोई पिता के लिये; किसी को पुत्र का शोक था और किसी को मित्र का। विदर्भ राजकुमारी दमयन्ती भी इसके लिये शोक करने लगी कि ‘मैंने कौन-सा पाप किया है, जिससे इस निर्जन वन में मुझे जो यह समुद्र के समान जनसमुदाय प्राप्त हो गया था, वह भी मेरे ही दुर्भाग्य से हाथियों के झुंड द्वारा मारा गया। निश्चय ही मुझे अभी दीर्घ काल तक दुःख-ही-दुःख भोगना है।
    जिनकी मृत्यु का समय नहीं आया है, वह इच्छा होते हुए भी मर नहीं सकता। वृद्ध पुरुषों का यह जो उपदेश मैंने सुन रखा है, यह ठीक ही जान पड़ता है, तभी तो आज मैं दुःखित होने पर भी हाथियों के झुंड से कुचलकर मर न सकी। मनुष्यों को इस जगत् में कोई भी सुख या दुःख ऐसा नहीं मिलता, जो विधाता का दिया हुआ न हो। मैंने बचपन में भी मन, वाणी अथवा क्रियाओं द्वारा ऐसा पाप नहीं किया है, जिससे मुझे यह दुःख प्राप्त होता। मैं समझती हूं, स्वयंवर के लिये जो लोकपाल देवगण पधारे थे, नल के कारण मैंने उनका तिरस्कार कर दिया था। अवश्य उन्हीं देवताओं के प्रभाव से आज मुझे वियोग का कष्ट प्राप्त हुआ है।’ इस प्रकार दुःख से आतुर हुई सुन्दरी पतिव्रता दमयन्ती ने उस समय अनेक प्रकार से विलाप एवं प्रलाप किये।
     नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर मरने से बचे हुए वेदों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मणों के साथ यात्रा करती हुई शरत्काल के चन्द्रमा की कला के समान वह सुन्दरी थोड़े ही समय में संध्या होते-होते सत्यदर्शी चेदिराज सुबाहु ही राजधानी में जा पहुँची। शरीर में आधी साड़ी को लपेटे हुए ही उसने उस उत्तम नगर में प्रवेश किया। वह विह्वल, दीन और दुर्बल हो रही थी। उसके सिर के बाल खुले हुए थे। उसने स्नान नहीं किया था। पुरवासियों ने उसे उन्मत्ता की भाँति जाते देखा। चेदि नरेश की राजधानी में उसे प्रवेश करते देख उस समय बहुत-से ग्रामीण बालक कौतूहलवश उसके साथ हो लिये थे। उनसे घिरी हुई दमयन्ती राजमहल के समीप गयी। उस समय राजमाता ने उसे महल पर से देखा। वह जनसाधारण से घिरी हुई थी। 
   राजमाता ने धाय से कहा ;- ‘जाओ, इस युवती को मेरे पास ले आओ। इसे लोग तंग कर रहे हैं। वह दुःखिनी युवती कोई आश्रम चाहती है। मुझे इसका रूप ऐसा दिखायी देता है, जो मेरे घर को प्रकाशित कर देगा। इसका वेष तो उन्मत्त के समान है, परन्तु यह विशाल नेत्रों वाली युवती कल्याणमयी लक्ष्मी के समान जान पड़ती हैं।’
    धाय उन सब लोगों को हटाकर उसे उत्तम राजमहल की अट्टालिका पर चढ़ा ले आयी। राजन्! तत्पश्चात् विस्मित होकर राजमाता ने   दमयन्ती से पूछा ;- ‘अहो! तुम इस प्रकार दुःख से दबी होने पर भी इतना सुन्दर रूप कैसे धारण करती हो?'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद)

   मेघमाला के प्रकाशित होने वाली बिजली की भाँति तुम इस दुःख में भी कैसी तेजस्विनी दिखायी देती हो। मुझसे बताओ, तुम कौन हो? किसकी स्त्री हो? यद्यपि तुम्हारे शरीर पर कोई आभूषण नहीं है तो भी तुम्हारा यह रूप मानव-जगत् का नहीं जान पड़ता। देवता की-सी दिव्य कांति धारण करने वाली वत्से! तुम असहाय-अवस्था में होकर भी लोगों से डरती क्यों नहीं हो?’

उसकी वह बात सुनकर भीमकुमारी ने कहा,,
    दमयन्ती बोली ;- ‘माताजी! आप मुझे मानव-कन्या ही समझिये। मैं अपने पति के चरणों में अनुराग रखने वाली एक नारी हूँ। मेरी अन्तःपुर में काम करने वाली सैरन्ध्री जाति है। मैं सेविका हूँ और जहाँ इच्छा होती है, वहीं रहती हूँ। मैं अकेली हूँ, फल-मूल खाकर जीवन निर्वाह करती हूँ और जहाँ सांझ होती है, वहीं टिक जाती हूँ। मेरे स्वामी में असंख्य गुण हैं, उनका मेरे प्रति सदा अत्यन्त अनुराग है। जैसे छाया राह चलने वाले पथिक के पीछे-पीछे चलती है, उसी प्रकार मैं भी अपने वीर पतिदेव में भक्तिभाव रखकर सदा उन्हीं का अनुसरण करती हूँ। र्दुभाग्यवश एक दिन मेरे पतिदेव जूआ खेलने में अत्यन्त आसक्त हो गये और उसी में अपना सब कुछ हारकर वे अकेले ही वन की ओर चले दिये। एक वस्त्र धारण किये उन्मत्त और विह्वल हुए अपने वीर स्वामी को सान्त्वना देती हुई मैं भी उनके साथ वन में चली गयी। एक दिन की बात है, मेरे वीर स्वामी किसी कारणवश वन में गये। उत्तम समय वे भूख से पीड़ित और अनमने हो रहे थे। अतः उन्होंने अपने उस एक वस्त्र को भी कहीं वन में छोड़ दिया। मेरे शरीर पर भी एक ही वस्त्र था। वे नग्न, उन्मत्त-जैसे और अचेत हो रहे थे। उसी दशा में सदा उनका अनुसरण करती हुई अनेक रात्रियों तक कभी सो न सकी। तदनन्तर बहुत समय के पश्चात् एक दिन जब मैं सो गयी थी, उन्होंने मेरी आधी साड़ी फाड़ ली और मुझ निरपराधिनी पत्नी को वहीं छोड़कर वे कहीं चल दिये। मैं दिन-रात वियोगाग्नि में जलती हुई निरन्तर उन्हीं पतिदेव को ढूंढती फिरती हूँ। मेरे प्रियतम की कांति कमल के भीतरी भाग के समान है। वे देवताओं के समान तेजस्वी, मेरे प्राणों के स्वामी और शक्तिशाली हैं। बहुत खोजने पर भी मैं अपने प्रिय को न तो देख सकी हूँ और न उनका पता ही पा रहीं हूं’।
    भीमकुमारी दमयन्ती के नेत्रों में आंसू भरे हुए थे एवं वह आर्तस्वर से बहुत विलाप कर रही थी। राजमाता स्वयं भी उनके दुःख से दु:खी हो बोली,,
  राजमाता बोली ;- ‘कल्याणि! तुम मेरे पास रहो। तुम पर मेरा बहुत प्रेम है। भद्रे! मेरे सेवक तुम्हारे पति की खोज करेंगे अथवा यह भी सम्भव है, वे इधर-उधर भटकते हुए स्वयं ही इधर आ निकलें। भद्रे! तुम यहीं रहकर अपने पति को प्राप्त कर लोगी’।
    राजमाता की यह बात सुनकर दमयन्ती ने कहा,,,
दमयन्ती बोली ;- ‘वीरमातः मैं एक नियम के साथ आपके यहाँ रह सकती हूँ। मैं किसी का जूठा नहीं खाऊंगी, किसी के पैर नहीं धोऊंगी और किसी भी दूसरे पुरुष से किसी तरह भी वार्तालाप नहीं करूंगी। यदि कोई पुरुष मुझे प्राप्त करना चाहे तो वह आपके द्वारा दण्डनीय हो और बार-बार ऐसे अपराध करने वाले मूढ़ को आप प्राणदण्ड भी दें, यही मेरा निश्चित व्रत है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 70-76 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘मैं अपने पति की खोज के लिये केवल ब्राह्मणों से मिल सकती हूँ। यदि यहाँ ऐसी व्यवस्था हो सके तो निश्चय ही आपके निकट निवास करूंगी। इसमें संशय नहीं हैं। यदि इसके विपरित कोई बात हो तो कहीं भी रहने का मेरे मन में संकल्प नहीं हो सकता।’

यह सुनकर राजमाता प्रसन्नचित्त होकर उससे बोली,,
राजमाता बोली ;- ‘बेटी! मैं यह सब करूंगी। सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा व्रत ऐसा उत्तम है।’
   राजा युधिष्ठिर! दमयन्ती से ऐसा कहकर राजमाता अपनी पुत्री सुनन्दा से बोली,,
   राजमाता फिर बोली ;- ‘सुनन्दे! इस सैरन्ध्री को तुम देवीस्वरूपा समझो। यह अवस्था में तुम्हारे समान है, अतः तुम्हारी सखी होकर रहे। तुम इसके साथ सदा प्रसन्नचित एवं आनंदमग्न रहो’। तब सखियों से घिरी हुई सुनन्दा अत्यन्त हर्षोल्लास में भरकर दमयन्ती को साथ ले अपने भवन में आयी।
    सुनन्दा दमयन्ती की इच्छानुसार सब प्रकार की व्यवस्था करके उसे बड़े आदर-सत्कार के साथ रखने लगी। इससे दमयन्ती को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह वहाँ उद्वेगरहित हो रहने लगी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में दमयन्ती का चेदिराज के भवन में निवासविषयक पैसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें