सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
छप्पनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"नल का दमयन्ती से वार्तालाप करना और लौटकर देवताओं को उसका संदेश सुनाना"
बृहदश्व मुनि कहते है ;- राजन्! दमयन्ती ने अपनी श्रद्धा के अनुसार देवताओं को नमस्कार करके नल से हंसकर कहा,,
दमयन्ती बोली ;- ‘महाराज! आप ही मेरा पाणिग्रहण कीजिये और बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ। नरेश्वर! मैं तथा मेरा जो कुछ दूसरा धन है, वह सब आपका है। आप पूर्ण विश्वस्त होकर मेरे साथ विवाह कीजिये।। भुपाल! हंसों की जो बात मैंने सुनी, वह (मेरे हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित करके सदा) मुझे दग्ध करती रहती है। वीर! आप ही को पाने के लिये मैंने यहाँ समस्त राजाओं का सम्मेलन कराया है। मानद! आपके चरणों में भक्ति रखने वाली मुझ दासी को यदि आप स्वीकार नहीं करंगे तो मैं आपके ही कारण विष, अग्नि, जल अथवा फांसी को निमित्त बनाकर अपना प्राण त्याग दूंगी।'
दमयन्ती के ऐसा कहने पर राजा नल ने उनसे पूछा,,
राजा नल बोले ;- '(तुम्हें पाने के लिये उत्सुक) लोकपालों के होते हुए तुम एक साधारण मनुष्य को कैसे पति बनाना चाहती हो? जिन लोकसृष्टा महामना ईश्वरों के चरणों की धूल समान भी मैं नहीं हूं, उन्हीं की ओर तुम्हें मन लगाना चाहिये। निर्दोष अंगों वाली सुन्दरी! देवताओं के विरुद्ध चेष्टा करने वाला मानव मृत्यु को प्राप्त हो सकता है; अतः तुम मुझे बचाओ और उन श्रेष्ठ देवताओं को ही वरण करो तथा देवताओं को ही पाकर निर्मल वस्त्र, दिव्य एवं विचित्र पुष्पहार तथा मुख्य-मुख्य आभूषणों का सुख भोगो। जो इस सारी पृथ्वी को संक्षिप्त करके पुनः अपना ग्रास बना लेते हैं; उन देवेश्वर अग्नि को कौन नारी अपना पति न चुनेगी? जिनके दण्ड के भय से संसार में आये हुए समस्त प्राणि समुदाय धर्म का ही पालन करते हैं, उस यमराज को कौन अपना पति नहीं वरेगी? दैत्यों और दानवों का मर्दन करने वाले धर्मात्मा महामना सर्वदेवेश्वर महेन्द्र का कौन नारी पतिरूप में वरण न करेगी? यदि तुम ठीक समझती हो तो लोकपालों में प्रसिद्ध वरुण को निःशंक होकर अपना पति बनाओ। यह एक हितैषी सुहृद का वचन है, इसे सुनो’।
तदनन्तर विषधराज नल के ऐसा कहने पर दमयन्ती शोकाश्रुओं से भरे हुए नेत्रों द्वारा देखती हुई इस प्रकार बोली,,
दमयन्ती बोली ;- ‘पृथ्वीपते! मैं सम्पूर्ण देवताओं को नमस्कार करके आप ही को अपना पति चुनती हूँ। यह मैने आप से सच्ची बात कहीं है।' ऐसा कहकर दमयन्ती दोनों हाथ जोड़कर थर-थर कांपने लगी। उस अवस्था में राजा नल ने उससे कहा,,
राजा नल बोले ;- ‘कल्याणि! मैं इस समय दूत का कार्य करने के लिये आया हूँ, अतः भद्रे! इस समय वही करो जो मेरे स्वरूप के अनुरूप हो। मैं देवताओं के समान प्रतिज्ञा करके विशेषत: परोपकार के लिये प्रयत्न आरम्भ करके अब यहाँ स्वार्थ-साधन के लिये कैसे उत्साहित हो सकता हूँ। यदि यह धर्म सुरक्षित रहे तो उससे मेरे स्वार्थ की भी सिद्धि हो सकती है। भद्रे! तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे मैं इस प्रकार धर्मयुक्त स्वार्थ की सिद्धि कंरू’।
यह सुनकर पवित्र मुसकान वाली दमयन्ती राजा नल से धीरे-धीरे मधुर वाणी से बोली,,
दमयन्ती बोली ;- ‘नरेश्वर! मैंने उस निर्दोष उपाय को ढूंढ़ निकाला है, राजन्! जिससे आपको किसी प्रकार दोष नहीं लगेगा।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 20-31 का हिन्दी अनुवाद)
‘नरश्रेष्ठ! आप और इन्द्र आदि सब देवता एक ही साथ उस रंगमण्डप में पधारें, जहाँ मेरा स्वयंवर होने वाला है। नरेश्वर! नरव्याघ्र! तदनन्तर में उन लोकपालों के समीप ही आपका वरण कर लूंगी। ऐसा करने से (आपको कोई) दोष नहीं लगेगा’।
युधिष्ठिर! विदर्भ राजकुमारी के ऐसा कहने पर राजा नल पुनः वहीं लौट आये, जहाँ देवताओं से उनकी भेट हुई थी। महान् शक्तिशाली लोकपालों ने इस प्रकार राजा नल को लौटते देखा और उन्हें देखकर उनसे सारा वृत्तान्त्त पूछा,,
लोकपाल बोले ;- ‘राजन्! क्या तुमने पवित्र मुस्कान वाली दमयन्ती को देखा है? पापरहित भूपाल! हम सब लोगों को उसने क्या संदेश दिया बताओ’।
नल ने कहा ;- 'देवताओ! आपकी आज्ञा पाकर मैं दमयन्ती के महल में गया। उसकी ड्योढ़ी विशाल थी और दण्डधारी बूढ़े रक्षक घेरकर पहरा दे रहे थे। आप लोगों के प्रभाव से उसमें प्रवेश करते समय मुझे वहाँ राजकन्या के सिवा दूसरे किसी मनुष्य ने नहीं देखा। दमयन्ती की सखियों को भी मैंने देखा और उन सखियों ने भी मुझे देखा। देवेश्वरो! वे सब मुझे देखकर आश्चर्यचकित हो गयीं।
श्रेष्ठ देवताओ! जब में आप लोगों के प्रभाव का वर्णन करने लगा, उस समय सुमुखी दमयन्ती ने मुझ में ही अपना मानसिक संकल्प रखकर मेरा ही वरण किया। उस बाला ने मुझ से यह भी कहा कि ‘नरव्याध्र! सब देवता आपके साथ उस स्थान पर पधारें, जहाँ स्वयंवर होने वाला है। निषधराज! मैं उन देवताओं के समीप ही आपका वरण कर लूंगी। महाबाहो! ऐसा होने पर आपको दोष नहीं लगेगा। देवताओ! दमयन्ती के महल का इतना ही वृत्तान्त्त है, जिसे मैंने ठीक-ठीक निवेदन कर दिया। देवेश्वरगण! अब इस सम्पूर्ण विषय में आप सब देवता लोग ही प्रमाण हैं, अर्थात् आप ही साक्षी हैं।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में नलकर्तृक देवदौत्यविषयक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
सत्तावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"स्वयंवर में दमयन्ती द्वारा नल का वरण, देवताओं का नल को वर देना, देवताओं और राजाओं का प्रस्थान, नल-दमयन्ती का विवाह एवं नल का यज्ञानुष्ठान और संतानोत्पादन"
बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर शुभ समय, उत्तम तिथि तथा पुण्यदायक अवसर आने पर राजा भीम ने समस्त भूपालों को स्वयंवर के लिये बुलाया। यह सुनकर सब भूपाल कामपीड़ित हो दमयन्ती को पाने की इच्छा से तुरन्त चल दिये। रंगमण्डप सोने के खम्भों से सुशोभित था। तोरण से उसकी शोभा और बढ़ गयी थी। जैसे बडे़-बड़े सिंह पर्वत की गुफा में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार उन नरेशों ने रंगमण्डप में प्रवेश किया। वहाँ सब भूपाल भिन्न-भिन्न आसनों पर बैठ गये। सब ने सुगन्धित फूलों की माला धारण कर रखी थी और सब के कानों में विशुद्ध मणिमय कुण्डल झिलमिला रहे थे।
व्याघ्रों से भरी हुई पर्वत की गुफा तथा नागों से सुशोभित भोगवतीपुरी की भाँति वह पुण्यमयी राजसभा नरश्रेष्ठ भूपालों से भरी दिखायी देती थी। वहाँ भूमिपालों की (पांच अंगुलियों से युक्त) परिघ-जैसी मोटी भुजाएं आकार-प्रकार और रंग में अत्यन्त सुन्दर तथा पांच मस्तक वाले सर्प के समान दिखायी देती थीं। जैसे आकाश में तारे प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार सुन्दर केशांत भाग से विभूषित एवं रुचिर नासिका, नेत्र और भौहों से युक्त राजाओं के मनोहर मुख सुशोभित हो रहे थे। तदनन्तर अपनी प्रभा से राजाओं के नयनों को लुभाती और चित्त को चुराती हुई सुन्दर मुख वाली दमयन्ती ने रंगभूमि में प्रवेश किया। वहाँ आते ही दमयन्ती के अंगों पर उन महामना नरेशों की दृष्टि पड़ी। उसे देखने वाले राजाओं में से जिसकी दृष्टि दमयन्ती के जिस अंग पर पड़ी, वहीं लग गयी, वहाँ से हट न सकी।
भारत! तत्पश्चात् राजाओं के नाम, रूप, यश और पराक्रम आदि का परिचय दिया जाने लगा। भीमकुमारी दमयन्ती ने आगे बढ़कर देखा, यहाँ तो एक जगह पांच पुरुष एक ही आकृति के बैठे हुए हैं। उन सबके रूप-रंग आदि में कोई अन्तर नहीं था। वे पांचों नल के ही समान दिखायी देते थे। उन्हें एक जगह स्थित देखकर संदेह उत्पन्न हो जाने से विदर्भराजकुमारी वास्तविक राजा नल को पहचान न सकी। वह उनमें से जिस-जिस व्यक्ति पर दृष्टि डालती, उसी-उसी को राजा नल समझने लगती थी। वह भाविनी राजकन्या बुद्धि से सोच-विचार कर मन-ही-मन तर्क करने लगी।
'अहो! मैं कैसे देवताओं को जानूं और किस प्रकार राजा नल को पहचानू।’ इस चिंता में पड़कर विदर्भराजकुमारी दमयन्ती को बड़ा दुःख हुआ। भारत! उसने अपने सुने हुए देवचिह्नों पर भी विचार किया। वह मन-ही-मन कहने लगी, मैंने बडे़-बुढे़ पुरुषों से देवताओं की पहचान कराने वाले जो लक्षण या चिह्न सुन रखे हैं, उन्हें यहाँ भूमि पर बैठे हुए इन पांच पुरुषों में से किसी एक में भी नहीं देख पाती हूँ’ उसने अनेक प्रकार से निश्चय और बार-बार विचार करके देवताओं की शरण में जाना ही समयोचित कर्तव्य समझा। तत्पश्चात् मन एवं वाणी द्वारा देवताओं को नमस्कार करके दोनों हाथ जोड़कर कांपती हुई वह इस प्रकार बोली- ‘मैंने हंसों की बात सुनकर निषध नरेश नल का पतिरूप में वरण कर लिया है। इस सत्य के प्रभाव से देवता लोग स्वयं ही मुझे राजा नल की पहचान करा दें।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद)
‘यदि मैं मन, वाणी एवं क्रिया द्वारा कभी सदाचार से च्युत नहीं हुई हूँ तो उस सत्य के प्रभाव से देवता लोग मुझे राजा नल की प्राप्ति करावें। यदि देवताओं ने उन निषध नरेश नल को ही मेरा पति निश्चित किया हो तो उस सत्य के प्रभाव से देवता लोग मुझे उन्हीं को बता दें। यदि मैंने नल की आराधना के लिये ही यह व्रत आरम्भ किया हो तो उस सत्य के प्रभाव से देवता मुझे उन्हीं को बता दें। महेश्वर लोकपालगण अपना रूट प्रकट कर दें, जिससे मैं पूण्यलोक महाराज नल को पहचान सकूं।'
दमयन्ती का वह करुण विलाप सुनकर तथा उसके अंतिम निश्चय, नल विषयक वास्वविक अनुराग, विशुद्ध हृदय, उत्तम बुद्धि तथा नल के प्रति भक्ति एवं प्रेम देखकर देवताओं ने दमयन्ती के भीतर वह यथार्थशक्ति उत्पन्न कर दी, जिससे उसे देवसूचक लक्षणों का निश्चय हो सके। अब दमयन्ती ने देखा-सम्पूर्ण देवता स्वेदरहित हैं-उनके किसी अंग में पसीने की बूंद नहीं दिखायी देती, उनकी आंखों की पलकें नहीं गिरती हैं। उन्होंने जो पुष्प मालाएं पहन रक्खी हैं, वे नूतन विकार से युक्त हैं। वे सिंहासनों पर बैठे हैं, किंतु अपने पैरों से पृथ्वीतल का स्पर्श नहीं करते हैं और उनकी परछाई नहीं पड़ती है। उन पांचों में एक पुरुष ऐसे हैं, जिसकी परछाई पड़ रही है। उनके गले की पुष्पमाला कुम्हला गयी है। उनके अंगों में धूलकण और पसीने की बूंदे भी दिखायी पड़ती हैं। वे पृथ्वी का स्पर्श किये बैठे हैं और उनके नेत्रों की पलके गिरती हैं। इन लक्षणों से दमयन्ती ने निषधराज नल को पहचान लिया।
भरतकुलभूषण पाण्डुनन्दन! राजकुमारी दमयन्ती ने उन देवताओं तथा पुण्यश्लोक नल की ओर पुनः दृष्टिपात करके धर्म के अनुसार विषधराज नल का ही वरण किया। विशाल नेत्रों वाली दमयन्ती ने लजाते-लजाते नल के वस्त्र का छोर पकड़ लिया और उनके गले में परम सुन्दर फूलों का हार डाल दिया। इस प्रकार वरवर्णिनी दमयन्ती ने राजा नल का पतिरूप में वरण कर लिया। फिर तो दूसरे राजाओं के मुख में सहसा ‘हाहाकार’ का शब्द निकल पड़ा। भारत! देवता और महर्षि वहाँ साधुवाद देने लगे। सब ने विस्मित होकर राजा नल की प्रशंसा करते हुए इनके सौभाग्य को सराहा।
कुरुनन्दन! वीरसेन कुमार नल ने उल्लसित हृदय से सुन्दरी दमयन्ती को आश्वासन देते हुए कहा,,
राजा नल बोले ;- ‘कल्याणी! तुम देवताओं के समीप जो मुझ-जैसे पुरुष का वरण कर रही हो, इस अलौकिक अनुराग के कारण अपने इस पति को तुम सदा अपनी प्रत्येक आज्ञा के पालन में तत्पर समझो। पवित्र मुसकान वाली देवि! मेरे इस शरीर में जब तक प्राण रहेंगे, तब तक तुम में मेरा अनन्य अनुराग बना रहेगा, यह मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ।' इसी प्रकार दमयन्ती ने भी हाथ जोड़कर विनीत वचनों द्वारा महाराज नल का अभिनन्दन किया। वे दोनों एक दूसरे को पाकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सामने अग्नि आदि देवताओं को देखकर मन ही मन उनकी ही शरण ली।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 36-46 का हिन्दी अनुवाद)
दमयन्ती ने जब नल को वरण कर लिया, तब उन सब महातेजस्वी लोकपालों ने प्रसन्नचित्त होकर नल को आठ वरदान दिये। शचीपति इन्द्र ने प्रसन्न होकर निषधराज नल को यह वर दिया कि "मैं यज्ञ में तुम्हें प्रत्यक्ष दर्शन दूँगा और अंत में सर्वोत्तम गति प्रदान करूँगा।"
हविष्यभोक्ता अग्निे ने नल को अपने ही समान तेजस्वी लोक प्रदान किये और यह भी कहा कि "राजा नल जहाँ चाहेंगे, वहीं मैं प्रकट हो जाऊंगा।"
यमराज ने यह कहा कि "राजा नल की बनाई हुई रसोई में उत्तमात्तम रस एवं स्वाद उपलब्ध होगा और धर्म में इनकी दृढ़ निष्ठा बनी रहेगी।"
जल के स्वामी वरुण ने नल की इच्छा के अनुसार जल प्रकट होने का वर दिया और यह भी कहा कि "तुम्हारी पुष्पमालाएं सदा उत्तम गन्ध से सम्पन्न होगी।"
इस प्रकार सब देवताओं ने दो-दो वर दिये। इस प्रकार राजा नल को वरदान देकर वे देवता लोग स्वर्गलोक को चले गये। स्वयंवर में आये हुए राजा भी विस्मयविमुग्ध हो नल और दमयन्ती के विवाहोत्सव का-सा अनुभव करते हुए प्रसन्नतापूर्वक जैसे आये थे, वैसे लौट गये। सब नरेशों के विदा हो जाने पर महात्मा भीम ने बड़ी प्रसन्नता के साथ नल-दमयन्ती का शास्त्रविधि के अनुसार विवाह कराया। मनुष्यों में श्रेष्ठ निषध नरेश नल अपनी इच्छा के अनुसार कुछ दिनों तक ससुराल में रहे, फिर विदर्भ नरेश भीम की आज्ञा ले (दमयन्ती सहित) अपनी राजधानी को निकल गये।
राजन्! पुण्यश्लोक महाराज नल ने भी उस रमणीरत्न को पाकर उसके साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे शची के साथ इन्द्र करते हैं। राजा नल सूर्य के समान प्रकाशित होते थे। वीरवर नल अत्यन्त प्रसन्न रहकर अपनी प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते हुए उसे प्रसन्न रखते थे। उन बुद्धिमान् नरेश ने नहुषनन्दन ययाति की भाँति अश्वमेध तथा पर्याप्त दक्षिणा वाले दूसरे बहुत-से यज्ञों का भी अनुष्ठान किया। तदनन्तर देवतुल्य राजा नल ने दमयन्ती के साथ रमणीय वनों और उपवनों में विहार किया। महामना नल ने दमयन्ती के गर्भ से इन्द्रसेन नामक एक पुत्र और इन्द्रसेना नाम वाली एक कन्या को जन्म दिया। इस प्रकार यज्ञों का अनुष्ठान तथा सुखपूर्वक विहार करते हुए महाराज नल ने धन-धान्य से सम्पन्न वसुन्धरा का पालन किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत दमयन्ती स्वयंवर विषयक सतावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
अट्ठावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"देवताओं के द्वारा नल के गुणों का गान और उनके निषेध करने पर भी नल के विरुद्ध कलियुग का कोप"
बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! भीमकुमारी दमयन्ती द्वारा निषध नरेश नल का वरण हो जाने पर जब महातेजस्वी लोकपालगण स्वर्गलोक को जा रहे थे, उस समय मार्ग में उन्होंने देखा कि कलियुग के साथ द्वापर आ रहा है।
कलियुग को देखकर बल और वृत्रासुर का नाश करने वाले इन्द्र ने पूछा,,
इंद्रदेव बोले ;- ‘कले! बताओ तो सही द्वापर के साथ कहाँ जा रहे हो?'
तब कलि ने इन्द्र से कहा ;- ‘देवराज! मैं दमयन्ती के स्वयंवर में जाकर उसका वरण करूंगा; क्योंकि मेरा मन उसके प्रति आसक्त हो गया है’।
तब इन्द्र ने हंसकर कहा ;- ‘वह स्वयंवर तो हो गया। हमारे समीप ही दमयन्ती ने राजा नल को अपना पति चुन लिया।'
इन्द्र के ऐसा कहने पर कलियुग को क्रोध चढ़ गया और उसी समय उसने उन सब देवताओं को सम्बोधित करके यह बात कही,,
कलियुग बोला ;- ‘दमयन्ती ने देवताओं के बीच में मनुष्य का पतिरूप में वरण किया है। अतः उसे बड़ा भारी दण्ड देना उचित प्रतीत होता है’।
कलियुग के ऐसा कहने पर देवताओं ने उत्तर दिया,,
देवता गण बोले ;- ‘दमयन्ती ने हमारी आज्ञा लेकर नल का वरण किया है। राजा नल सर्वगुणसम्पन्न हैं। कौन स्त्री उनका वरण नहीं करेगी? जिन्होंने भलीभाँति ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करके चारों वेदों तथा पंचम वेद समस्त इतिहास, पुराण का भी अध्ययन किया है, जो सब धर्मों को जानते हैं, जिनके घर पर पंचयज्ञों में धर्म के अनुसार सम्पूर्ण देवता नित्य तृप्त होते हैं, जो अहिंसापरायण, सत्यवादी तथा दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले हैं, जिन नरश्रेष्ठ लोकपाल-सदृश तेजस्वी नल में दक्षता, धैर्य, ज्ञान, तप, शौच, शम और दम आदि गुण नित्य निवास करते हैं। कले! ऐसे राजा नल को जो मूढ़ शाप देने की इच्छा रखता है, वह मानो अपने को ही शाप देता है। अपने द्वारा अपना ही विनाश करता है। ऐसे सगुण सम्पन्न महाराज नल को जो शाप देने की कामना करेगा, वह कष्ट से भरे हुए अगाध एवं विशाल नरककुण्ड में निमग्न होगा।’
कलियुग और द्वापर से ऐसा कहकर देवता लोग स्वर्ग में चले गये। तदनन्तर देवताओं के चले जाने पर कलियुग ने द्वापर से कहो,,
कलियुग बोला ;- ‘द्वापर! मैं अपने क्रोध का उपसंहार नहीं कर सकता। नल के भीतर निवास करूंगा और उन्हें राज्य से वंचित कर दूंगा, जिससे वे दमयन्ती के साथ रमण नहीं कर सकेंगे। तुम्हें भी जूए के पासों में प्रवेश करके मेरी सहायता करनी चाहिये’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में कलि-देवता संवाद विषयक अठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
उनसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"नल में कलियुग का प्रवेश एवं नल और पुष्कर की द्यूतक्रीड़ा, प्रजा और दमयन्ती के निवारण करने पर भी राजा का द्यूत से निवृत्त नहीं होना"
बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार द्वापर के साथ संकेत करके कलियुग उस स्थान पर आया, जहाँ निषधराज नल रहते थे। वह प्रतिदिन राजा नल का छिद्र देखता हुआ निषध देश में दीर्घकाल तक टिका रहा। बारह वर्षों के बाद एक दिन कलि को एक छिद्र दिखायी दिया। राजा नल उस दिन लघुशंका करके आये और हाथ-मुंह धोकर आचमन करने के पश्चात् संध्योपासना करने बैठ गये; पैरों को नहीं धोया। वह छिद्र देखकर कलियुग उनके भीतर प्रविष्ट हो गया। नल में आविष्ट होकर कलियुग ने दूसरा रूप धारण करके पुष्कर के पास जाकर कहा,,
कलियुग बोला ;- ‘चलो, राजा नल के साथ जूआ खेलो। मेरे साथ रहकर तुम जूए में अवश्य राजा नल को जीत लोगे। इस प्रकार महाराज नल को उनके राज्यसहित जीतकर निषध देश को अपने अधिकारों में कर लो’।
कलि के ऐसा कहने पर पुष्कर राजा नल के पास गया। कलि भी सांड़ बनकर पुष्कर के साथ हो लिया। शत्रुवीरों का संहार करने वाले पुष्कर ने वीरवर नल के पास जाकर उनसे बार बार कहा,,
पुष्कर बोले ;- ‘हम दोनों धर्मपूर्वक जूआ खेंले।’ पुष्कर राजा नल का भाई लगता था। महामना राजा नल द्यूत के लिये पुष्कर के आह्वान को न सह सके। विदर्भ राजकुमारी दमयन्ती के देखते-देखते उसी क्षण जूआ खेलने का उपर्युक्त अवसर समझ लिया। तब कलियुग से आविष्ट होकर राजा नल हिरण्य, सुवर्ण, रथ आदि वाहन और बहुमूल्य वस्त्र दांव पर लगाते तथा हार जाते थे। सुहृदों में कोई ऐसा नहीं था, जो द्यूतक्रीड़ा के मद से उन्मत्त शत्रुदमन नल को उस समय जूआ खेलने से रोक सके।
भारत! तदनन्तर समस्त पुरवासी मनुष्य मंत्रियों के साथ राजा से मिलने तथा उन आतुर नरेश को द्यूतक्रीड़ा से रोकने के लिये वहाँ आये। इसी समय सारथि ने महल में जाकर महारानी दमयन्ती से निवेदन किया,,
सारथी बोला ;-‘ देवि ये पुरवासी लोग कार्यवश राजद्वार पर खड़े हैं। आप निषधराज से निवेदन कर दें। धर्म-अर्थ का तत्त्व जानने वाले महाराज के भावी संकट को सहन न कर सकने के कारण मंत्रियों सहित सारी प्रजा द्वार पर खड़ी हैं।' यह सुनकर दुःख से दुर्बल हुई दमयन्ती ने शोक से अचेत-सी होकर आंसू बहाते हुए गद्गद वाणी से निषध नरेश से कहा,,
दमयन्ती बोली ;- ‘महाराज! पुरवासी प्रजा राजभक्तिपूर्वक आपसे मिलने के लिये समस्त मंत्रियों के साथ द्वार पर खड़ी है। आप उन्हें दर्शन दें।’ दमयन्ती ने इन वाक्यों का बार-बार दुहराया। मनोहर नयनप्रान्त वाली विदर्भकुमारी इस प्रकार विलाप करती रह गयी, परन्तु कलियुग से आविष्ट हुए राजा नल ने उससे कोई बात तक न की। तब वे सब मंत्री और पुरवासी दुःख से आतुर और लज्जित हो यह कहते हुए अपने-अपने घर चले गये कि ‘यह राजा नल अब राज्य पर अधिक समय तक रहने वाला नहीं है।’
युधिष्ठिर! पुष्कर और नल की वह द्यूतक्रीड़ा कई महीनों तक चलती रही। पुण्यलोक महाराज नल उसमें हारते जा रहे थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में नलद्यूत विषयक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
साठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"दुःखित दमयन्ती का वार्ष्णेय के द्वारा कुमार-कुमारी को कुण्डिनपुर भेजना"
बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर दमयन्ती ने देखा कि पुण्यश्लोक महाराज नल उन्मत्त की भाँति द्यूतक्रीड़ा में आसक्त हैं। वह स्वयं सावधान थी। उनकी वैसी अवस्था देख भीमकुमारी भय और शोक से व्याकुल हो गयी और महाराज के हित के लिये किसी महत्त्वपूर्ण कार्य का चिन्तन करने लगी। उनके मन में यह आशंका हो गयी कि राजा पर बहुत बड़ा कष्ट आने वाला है। वह उनका प्रिय एवं हित करना चाहती थी। अतः महाराज के सर्वस्व का अपहरण होता जान धाय को बुलाकर (इस प्रकार बोली)।
उनकी धाय का नाम बृहत्सेना था। यह अत्यन्त यशस्विनी और परिचर्या के कार्य में निपुण थी। समस्त कार्यों के साधन में कुशल, हितैषिणी, अनुरागिणी और मधुरभाषिणी थी।
दमयन्ती ने उससे कहा ;- ‘बृहत्सेने! तुम मंत्रियों के पास जाओ तथा राजा नल की आज्ञा से उन्हें बुला लाओ। फिर उन्हें यह बताओ कि अमुक-अमुक द्रव्य हारा जा चुका है और अमुक धन अभी अवशिष्ट है’। तब वे सब मंत्री राजा नल का आदेश जानकर ‘हमारा अहो भाग्य है’ ऐसा कहते हुए नल के पास आये। वे सारी (मंत्री आदि) प्रकृतियां दूसरी बार राजद्वार पर उपस्थित हुईं। दमयन्ती ने इसकी सूचना महाराज नल का दी, परन्तु उन्होंने इस बात का अभिनन्दन नहीं किया। पति को अपनी बात का प्रसन्नतापूर्वक उत्तर देते न देख दमयन्ती लज्जित हो पुनः महल के भीतर चली गयी। वहाँ फिर उसने सुना कि सारे पासे लगातार पुण्यश्लोक राजा नल के विपरित पड़ रहे हैं और उनका सर्वस्व अपहृत हो रहा है। तब उसने पुनः धाय से कहा,,
दमयन्ती बोली ;- ‘बृहत्सेने! फिर राजा नल की आज्ञा से जाओ और वार्ष्णेय सूत को बुला लाओ। कल्याणि! एक बहुत बड़ा कार्य उपस्थित हुआ है’।
बृहत्सेना ने दमयन्ती की बात सुनकर विश्वसनीय पुरुषों द्वारा वार्ष्णेय को बुलाया। तब अनिन्द्य स्वभाव वाली और देश काल को जानने वाली भीमकुमारी दमयन्ती ने वार्ष्णेय को मधुर वाणी में सान्त्वना देते हुए यह समयोचित बात कही,,
दमयन्ती बोली ;- ‘सूत! तुम जानते हो कि महाराज तुम्हारे प्रति कैसा अच्छा बर्ताव करते थे। आज वे विषम संकट में पड़ गये हैं, अतः तुम्हें भी उनकी सहायता करनी चाहिये। राजा जैसे-जैसे पुष्कर से पराजित हो रहे हैं, वैसे-ही-वैसे जूए में उनकी आसक्ति बढ़ती जा रही है। जैसे पुष्कर के पासे उसकी इच्छा के अनुसार पड़ रहे हैं, वैसे ही नल के पासे विपरीत पड़ते देखे जा रहे हैं। वे सुहृदों और स्वजनों के वचन अच्छी तरह नहीं सुनते हैं। जूए ने उन्हें ऐसा मोहित कर रखा है कि इस समय वे मेरी बात का आदर नहीं कर रहे हैं। मैं इसमें महामना नैषध का निश्चय ही कोई दोष नहीं मानती। जूए से मोहित होने के कारण ही राजा मेरी बात का अभिनन्दन नहीं कर रहे हैं। सारथे! मैं तुम्हारी शरण में आयी हूं, मेरी बात मानो। मेरे मन में अशुभ विचार आते हैं, इससे अनुमान होता है कि राजा नल का राज्य से च्युत होना सम्भव है। तुम महाराज के प्रिय मन के समान वेगशाली अश्वों को रथ में जोतकर उस पर इन दोनों बच्चों को बिठा लो और कुण्डिनपुर को चले जाओ’।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 20-25 का हिन्दी अनुवाद)
‘वहाँ इन देनों बालकों को, इस रथ को और इन घोड़ों को भी मेरे भाई-बन्धुओं की देख-रेख में सौंपकर तुम्हारी इच्छा हो तो वहीं रह जाना या अन्यत्र कहीं चले जाना’।
दमयन्ती की यह बात सुनकर नल के सारथि वार्ष्णेय ने नल के मुख्य-मुख्य मंत्रियों से यह सारा वृत्तान्त निवेदित किया।
राजन्! उनसे मिलकर इस विषय पर भलीभाँति विचार करके उन मंत्रियों की आज्ञा ले सारथि वार्ष्णेय ने दोनों बालकों को रथ पर बैठाकर विदर्भ देश को प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर उसने घोड़ों को, उस श्रेष्ठ रथ को तथा उस बालिका इन्द्रसेना को एवं राजकुमार इन्द्र को वहीं रख दिया तथा राजा भीम से विदा ले आर्तभाव से राजा नल की दुर्दशा के लिये शोक करता हुआ घूमता-घामता अयोध्या नगरी में चला गया।
युधिष्ठिर! वह अत्यन्त दु:खी हो राजा ऋतुपर्ण की सेवा में उपस्थित हुआ और उनका सारथि बनकर जीविका चलाने लगा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यसानपर्व में नल की कन्या और पुत्र को कुण्डिनपुर भेजने से सम्बन्ध रखने वाला साठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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