सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ ग्यारहवें अध्याय से एक सौ पन्द्रहवें अध्याय तक (From the 111 to the 115 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादशाधि‍कशततम अध्‍याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"वेश्‍या का ऋष्‍यशृंग को लुभाना और वि‍भाण्‍डक मुनि‍ का आश्रम पर आकर अपने पुत्र की चि‍न्‍ता का कारण पूछना"

  लोमश जी कहते है ;- भरतनन्‍दन! उस वेश्‍या ने राजा की आज्ञा के अनुसार और बुद्धि‍ से भी उनका कार्य सि‍द्ध करने के लि‍ए नाव पर एक सुन्‍दर आश्रम बनाया। वह आश्रम भाँति‍-भाँति‍ के पुष्‍प और फलों से सुशोभि‍त कृत्रि‍म वृक्षों से घि‍रा हुआ था। उन वृक्षों पर नाना प्रकार के गुल्‍म और लता समूह फैले हुए थे और वे वृक्ष स्‍वादि‍ष्‍ट एवं वांछनीय फल देने वाले थे। उन वृक्षों के कारण वह आश्रम अत्‍यन्‍त रमणीय और परम मनोहर दि‍खायी देता था। वैश्‍या ने उस नाव पर जि‍स सुन्‍दर आश्रम का निर्माण कि‍या था; वह देखने में अद्भुत-सा था। तदनन्‍तर उसने अपनी उस नाव को काश्‍यप गोत्रीय वि‍भाण्‍डक मुनि‍ के आश्रम से थोड़ी दूर पर बांध दि‍या और गुप्‍तचरों को भेजकर यह पता लगा लि‍या कि इस समय वि‍भाण्‍डक मुनि‍ अपनी कुटि‍या से बाहर गये हैं।

     तदनन्‍तर वि‍भाण्‍डक मुनि‍ को दूर गया देख उस वेश्‍या ने अपनी परम बुद्धि‍मति‍ पुत्री को, जो उसी की भाँति‍ वेश्‍यावृत्‍ति‍ अपनायी हुई थी, कर्तव्‍य की शि‍क्षा देकर मुनि‍ के आश्रम पर भेजा। वह भी कार्यसाधन में कुशल थी। उसने वहाँ जाकर नि‍रन्‍तर तपस्‍या में लगे रहने वाले ऋषि‍कुमार ऋष्‍यशृंग के समीप उस आश्रम मे पहुँचकर उनको देखा। तत्‍पश्‍चात वेश्‍या ने कहा,,

   वेश्या बोली ;- 'मुने! तपस्‍वी लोग कुशल से तो हैं न? आप लोगों को पर्याप्‍त फल-मूल तो मि‍ल जाते हैं न? आप इस आश्रम में प्रसन्‍न तो हैं न? मैं इस समय आपके दर्शन के लि‍ये ही यहाँ आयी हूँ। क्‍या तपस्‍वी लोगों की तपस्‍या उत्‍तरोत्‍तर बढ़ रही है? आपके पि‍ता का तेज क्षीण तो नहीं हो रहा है? ब्रह्मन! आप मजे में हैं न? ऋष्‍यशृंग जी! आपके स्‍वाध्‍याय का क्रम चल रहा है न?'

    ऋष्‍यशृंग बोले ;- 'ब्रह्मन! आप अपनी समृद्धि‍ से ज्‍योति‍ की भाँति‍ प्रकाशि‍त हो रहे हैं। मैं आपको अपने लि‍ये वन्‍दनीय मानता हूँ और स्‍वेच्‍छा से धर्म के अनुसार आपके लि‍ये पाद्य-अर्ध्‍य एवं फल-मूल अर्पण करता हूँ। इस कुशासन पर आप सुखपूर्वक बैंठें। इस पर काला मृगचर्म बि‍छाया गया है। इसलि‍ये इस पर बैठने में आराम रहेगा। आपका आश्रम कहाँ है? और आपका नाम क्‍या है? ब्रह्मन! आप देवता के समान यह कि‍स व्रत का आचरण कर रहे हैं।'

  वेश्‍या बोली ;- 'काश्‍यपनन्‍दन! मेरा आश्रम बड़ा मनोहर है। वह इस पर्वत के उस पार तीन योजन की दूरी पर स्‍थि‍त है। वहाँ मेरा जो अपना धर्म है, उसके अनुसार आपको मेरा अभि‍वादन (प्रणाम) नहीं करना चाहि‍ये। मैं आपके दि‍ये हुए अर्ध्‍य और पाद्य का स्‍पर्श नहीं करूंगा। मैं आपके लि‍ये वन्‍दनीय नहीं हूँ। आप ही मेरे वन्‍दनीय हैं। ब्रह्मन! मेरा यह नियम है, जि‍सके अनुसार मुझे आपका आलिंगन करना चाहि‍ये।'

   ऋष्‍यशृंग ने कहा ;- ब्रह्मन! मैं तुम्‍हें पके फल दे रहा हूँ। ये भि‍लावा, आंवले, करूषक (फालसा), इंगुद (हि‍ंगोट), धन्‍वन (धामि‍न) और पीपल के फल प्रस्‍तुत हैं– इन सबका इच्‍छानुसार उपयोग कीजि‍ये।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादशाधि‍कशततम अध्‍याय के श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद)

   लोमश जी कहते हैं ;- राजन! तदनन्‍तर वेश्‍या ने उन सब फलों को छोड़कर स्‍वयं ऋष्यशृंग को अत्‍यन्‍त सुन्‍दर और अमूल्‍य भक्ष्‍य पदार्थ (फल आदि) दि‍ये। उन परम सरस फलों ने उनकी रुचि को बढ़ाया। साथ ही सुगन्‍धि‍त मालायें तथा वि‍चि‍त्र एवं चमकीले वस्‍त्र प्रदान कि‍ये। इतना ही नहीं, उसने मुनि‍कुमार को अच्‍छी श्रेणी के पेय पि‍लाये, जि‍ससे वे बहुत प्रसन्‍न हुए। वे उसके साथ खेलने ओर जोर-जोर से हँसने लगे। वेश्‍या ऋष्यशृंग के पास ही गेंद खेलने लगी। वह अपने अंगों को मोड़ती हुई फलों के भार से लदी लता की भाँति‍ झुक जाती और ऋष्यशृंग मुनि‍ को बार-बार अपने अंग में भर लेती थी। साथ ही अपने अंगों से उनके अंगों को इस प्रकार दबाती, मानो उनके भीतर समा जायेगी। वहाँ शाल, अशोक और ति‍लक के वृक्ष खूब फूले हुए थे। उनकी डालि‍यों को झुकाकर वह मदोन्मत्त वेश्‍या लज्‍जा का नाट्य-सा करती हुई महर्षि‍ के उस पुत्र को लुभाने लगी।

    ऋष्यशृंग की आकृति‍ में कि‍चिंत वि‍कार देखकर उसने बार-बार उनके शरीर को आलिंगन के द्वारा दबाया और अग्‍नि‍होत्र का बहाना बनाकर वह उनके द्वारा देखी जाती हुई धीरे-धीरे वहाँ से चली गई। उसके चले जाने पर उसके अनुराग से उन्‍मत्‍त मुनि‍कुमार ऋष्यशृंग अचेत-से हो गये। उस निर्जन स्‍थान में उनकी मनोवृत्‍ति‍ उसी की ओर लगी रही और वे लम्‍बी साँस खींचते हुए अत्‍यंत व्‍यथि‍त हो उठे। तदनन्‍तर दो घड़ी के बाद हरे-पीले नेत्रों वाले काश्‍यपनन्‍दन वि‍भाण्‍डक मुनि‍ वहाँ आ पहुँचे। वे सि‍र से लेकर पैरों के पाखों तक रोमावलि‍यों से भरे हुए थे। महात्‍मा वि‍भाण्‍डक स्‍वाध्‍यायशील, सदाचारी तथा समाधि‍नि‍ष्‍ट महर्षि‍ थे। नि‍कट आने पर उन्‍होंने पुत्र को अकेला उदासीन भाव से चिन्‍तामग्‍न होकर बैठा देखा। उसके चि‍त्‍त की दशा वि‍परीत थी। वह बार-बार ऊपर की ओर दृष्‍टि‍ कि‍ये उच्‍छवास ले रहा था।

   इस दयनीय दशा में पुत्र को देखकर वि‍भाण्‍डक मुनि‍ ने पूछा,,

   विभाण्डक मुनि बोले ;- 'तात! आज तुम अग्‍नि‍कुण्‍ड में समि‍धाएं क्‍यों नहीं रख रहे हो? क्‍या तुमने अग्‍नि‍होत्र कर लि‍या? स्रुक और स्रुवा आदि‍ यज्ञपात्रों को भली-भाँति‍ शुद्ध करके रखा है न? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि‍ तुमने हवन के लि‍ये दूध देने वाली गाय का बछड़ा खोल दि‍या हो, जि‍ससे वह सारा दूध पी गया हो। बेटा! आज तुम पहले जैसे दि‍खायी नहीं देते। कि‍सी भारी चि‍न्‍ता में नि‍मग्‍न हो, अपनी सुध-बुध खो बैठे हो। क्‍या कारण है, जो आज तुम अत्‍यंत दीन हो रहे हो। मैं तुमसे पूछता हूं, बताओ, आज यहाँ कौन आया था?'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में ऋष्यशृंगोपाख्‍यान वि‍षयक एक सौ ग्‍यारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादशाधि‍कशततम अध्‍याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"ऋष्यशृंग का पि‍ता को अपनी चि‍न्‍ता का कारण बताते हुए ब्रह्मचारीरूपधारी वेश्‍या के स्‍वरूप और आचरण का वर्णन"

  ऋष्‍यशृंग ने कहा ;- पि‍ताजी! यहाँ एक जटाधारी ब्रह्मचारी आया था। वह न तो छोटा था और न बहुत बड़ा ही। उसका हृदय बहुत उदार था। उसके शरीर की कान्‍त‍ि सुवर्ण के समान थी और उसकी बड़ी-बड़ी आंखें कमलों के सदृश जान पड़ती थीं। वह स्‍वयं देवताओं के समान सुशोभीत हो रहा था। उसका रूप बड़ा सुन्‍दर था। वह सूर्यदेव की भाँति‍ उद्भासि‍त हो रहा था। उसके नेत्र स्‍वच्‍छ, चमकीले एवं कजरारे थे। वह बड़ा गोरा दि‍खायी देता था। उसकी जटा बहुत लम्‍बी, साफ सुथरी और नीले रंग की थीं। उनसे बड़ी मधुर गन्‍ध फैल रही थी। वे सारी जटाएं एक सुनहरी रस्‍सी से गुंथी हुई थीं। उसके गले में एक ऐसा आश्‍चर्यरूप आभूषण (कण्‍ठा) था, जो आकाश में बि‍जली की भाँति‍ चमक रहा था। उसके गले में नीचे (वक्ष:स्‍थल पर) दो मांसपि‍ण्‍ड थे, जि‍न पर रोएं नहीं उगे थे। वे अत्‍यन्‍त मनोहर जान पड़ते थे।

     उस ब्रह्मचारी के नाभिदेश के समीप जो शरीर का मध्‍यभाग था, वह बहुत पतला था और उसका नि‍तम्‍ब भाग अत्‍यन्‍त स्‍थूल था। जैसे मेरे कौपीन के नीचे यह मूंज की मैखला बंधी है, इसी प्रकार उसके कटि‍ प्रदेश में भी एक सोने की मेखला (करधनी) थी, जो उसके चीर के भीतर से चमकती रहती थी। उसकी अन्‍य सब बातें भी अद्भुद एवं दर्शनीय थीं। पैरों में (पायल की) छम-छम की ध्‍वनि‍ बड़ी मधुर प्रतीत होती थी। इसी प्रकार हाथों की कलाइयों में मेरी इस रुद्राक्ष की माला की भाँति‍ उसने दो कलापक (कंगन) बांध रखे थे, उनसे भी बड़ी मधुर ध्‍वनि‍ होती रहती थी। वह ब्रह्मचारी जब तनि‍क भी चलता-फि‍रता या हि‍लता-डुलता था, उस समय आभूषण बड़ी मनोहर झनकार उत्‍पन्‍न करते थे, मानो सरोवर में मतवाले हंस कलरव कर रहें हो। उसके चीर भी अद्भुद दि‍खायी देते थे।

   मेरी कौपीन के ये वल्‍कल वस्‍त्र सुन्‍दर नहीं है। उसका मुख भी देखने ही योग्‍य था। उसकी अद्भुद शोभा थी। ब्रह्मचारी की एक-एक बात मन को आनन्‍द-सि‍न्‍धु में नि‍मग्‍न-सा कर देती थी। उसकी वाणी कोकि‍ल के समान थी, जि‍से एक बार सुन लेने पर अब पुन: सुनने के लि‍ये मेरी अन्‍तरात्‍मा व्‍यथि‍त हो उठी है। तात! जैसे माधवमास (वैशाख या वंसत ऋतु) में (सौरभयुक्‍त मलय) समीर से सेवि‍त वन-उपवन की शोभा होती है, उसी प्रकार पवनदेव से सेवि‍त वह ब्रह्मचारी उत्‍तम एवं पवि‍त्र गन्‍ध से सुवासि‍त और सुशोभि‍त हो रहा था। उसकी जटा सटी हुई और अच्‍छी प्रकार से बंधी हुई थी, जो ललाट प्रदेश में दो भागों में वि‍भक्‍त थी; कि‍न्‍तु बराबर नहीं थी। उसके कुण्‍डलमण्‍डि‍त कान सुन्‍दर एवं वि‍चि‍त्र चक्रवाकों से घि‍रे हुए से जान पड़ते थे। उसके पास एक वि‍चि‍त्र गोलाकार फल (गेंद) था, जि‍स पर वह अपने दाहि‍ने हाथ से आघात करता था। वह फल (गेंद) पृथ्‍वी पर जाकर बार-बार ऊँचे की ओर उछालता था। उस समय उसका रूप अद्भुद दि‍खायी देता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादशाधि‍कशततम अध्‍याय के श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद)

    उस फल (गेंद) को मारकर वह चारों ओर घूमने लगता था, मानो वृक्ष हवा का झोंका खाकर झूम रहा हो। तात! देवपुत्र के समान उस ब्रह्मचारी को देखते समय मेरे हृदय में बड़ा प्रेम और आनन्‍द उमड़ रहा था और मेरी उसके प्रति‍ आसक्‍ति‍ हो गयी है। वह बार-बार मेरे शरीर का आलि‍ंगन करके मेरी जटा पकड़ लेता और मेरे मुख को झुकाकर उस पर अपना मुख रख देता था, इस प्रकार मुख से मुख मि‍लाकर उसने एक ऐसा शब्‍द कि‍या, जि‍सने मेरे हृदय में अत्‍यन्‍त आनन्‍द उत्‍पन्‍न कर दि‍या। मैंने जो पाद्य अर्पण कि‍या, उसको उसने बहुत महत्‍व नहीं दि‍या।

   मेरे दि‍ये हुए ये फल भी उसने स्‍वीकार नहीं कि‍ये और मुझसे कहा- ‘मेरा ऐसा ही नि‍यम है।‘ साथ ही उसने मेरे लि‍ये दूसरे-दूसरे फल दि‍ये। मैंने उसके दि‍ये हुए जि‍न फलों का उपयोग कि‍या है, उनके समान रस हमारे इन फलों में नहीं है। उन फलों के छि‍लके भी ऐसे नहीं थे, जैसे इन जंगली फलों के हैं। इन फलों के गूदे जैसे हैं, वैसे उसके दि‍ये फलों के नहीं थे (वे सर्वथा वि‍लक्षण थे)। उदारता के मूर्ति‍मान स्‍वरूप उस ब्रह्मचारी ने मुझे पीने के लि‍ये अत्‍यन्त स्‍वादि‍ष्‍ट जल भी दि‍या था। उस जल को पीते ही मेरे हर्ष की सीमा न हरी। मुझे यह धरती डोलती-सी जान पड़ने लगी।

    वे वि‍चि‍त्र सुगन्‍धि‍त मालाएं उसी ने रेशमी डोरों से गूंथ कर बनायी थीं, जि‍न्‍हें यहाँ बि‍खेरकर तपस्‍या से प्रकाशि‍त होने वाला वह ब्रह्मचारी अपने आश्रम को चला गया था। उसके चले जाने से मैं अचेत हो गया हूँ। मेरा शरीर जलता-सा जान पड़ता है। मैं चाहता हूँ, शीघ्र उसके पास ही चला जाऊँ अथवा वही यहाँ नि‍त्‍य मेरे पास रहे।

   पि‍ताजी! मैं उसी के पास जाता हूँ, देखूँ, उसकी ब्रह्मचर्य की साधना कैसी है? वह आर्य धर्म का पालन करने वाला ब्रह्मचारी जि‍स प्रकार तप करता है, उसके साथ रहकर में भी वैसी ही तपस्या करना चाहता हूँ। वैसा ही तप करने की इच्‍छा मेरे हृदय में भी है। यदि‍ उसे नही देखूंगा तो मेरा यह चि‍त्‍त संतप्‍त होता रहेगा।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में ऋष्‍यशृंगोपाख्‍यान वि‍षयक एक सौ बारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधि‍कशततम अध्‍याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"ऋष्यशृंग का अंगराज लोमपाद के यहाँ जाना, राजा का उन्‍हें अपनी कन्‍या देना, राजा द्वारा वि‍भाण्‍डक मुनि‍ का सत्‍कार तथा उन पर मुनि‍ का प्रसन्‍न होना"

    वि‍भाण्‍डक ने कहा ;- बेटा! इस प्रकार अद्भुत दर्शनीय रूप धारण करके तो राक्षस ही इस वन में वि‍चरा करते हैं। ये अनुपम पराक्रमी और मनोहर रूप धारण करने वाले होते हैं तथा ऋषि‍-मुनि‍यों की तपस्या में सदा वि‍घ्‍न डालने का ही उपाय सोचते रहते हैं। तात! वे मानोहररूपी राक्षस नाना प्रकार के उपायों द्वारा मुनि‍ लोगों को प्रलोभन में डालते रहते हैं। फि‍र वे ही भयानक रूप धारण करके वन में नि‍वास करने वाले मुनि‍यों को आनन्‍दमय लोकों से नीचे गि‍रा देते हैं। अत: जो साधू पुरुषों को मि‍लने वाले पुण्‍य लोकों को पाना चाहते हैं, वह मुनि‍ मन को संयम में रखकर उन राक्षसों का (जो मोहक रूप बनाकर धोखा देने के लि‍ये आते हैं) कि‍सी प्रकार सेवन न करे। वे पापाचारी नि‍शाचर तपस्‍वी मुनि‍यों के तप में वि‍घ्‍न डालकर प्रसन्‍न होते हैं, अत: तपस्‍वी को चाहि‍ये कि वह उनकी ओर आंख उठाकर देखे ही नहीं। वत्‍स! जि‍से तुम जल समझते थे, वह मद्य था। वह पापजनक और अपेय है, उसे कभी नहीं पीना चाहि‍ये। दुष्‍ट पुरुष उसका उपयोग करते हैं तथा ये वि‍चि‍त्र, उज्ज्वल और सुगन्‍धि‍त पुष्‍प मालायें भी मुनि‍यों के योग्‍य नहीं बतायी गयी हैं। ऐसी वस्‍तुएं लाने वाले राक्षस ही हैं।‘

   ऐसा कहकर वि‍भाण्‍डक मुनि‍ ने पुत्र को उससे मि‍लने-जुलने से मना कर दि‍या और स्‍वयं उस वेश्‍या की खोज करने लगे। तीन दि‍नों तक ढूँढने पर भी जब वे उसका पता न लगा सके, तब आश्रम पर लौट आये। जब काश्‍यपनन्‍दन वि‍भाण्‍डक मुनि‍ आश्रम से पुन: वि‍धि के अनुसार फल लाने के लि‍ए वन में गये, तब वह वेश्‍या ऋष्‍यशृंग मुनि‍ को लुभाने के लि‍ए फि‍र उनके आश्रम पर आयी। उसे देखते ही ऋष्‍यशृंग मुनि‍ हर्ष-वि‍भोर हो उठे और घबराकर तुरंत उसके पास दौड़ गये। नि‍कट जाकर उन्‍होंने कहा,,,

   ऋष्यशृंग  मुनि बोले ;- ‘ब्रह्मन! मेरे पि‍ताजी जब तक लौटकर नहीं आते, तभी तक मैं और आप-दोनों आपके आश्रम की ओर चल दें।'

     राजन! तदनन्‍तर वि‍भाण्‍डक मुनि‍ के इकलौते पुत्र को युक्‍ति‍ से नाव में ले जाकर वेश्‍या ने नाव खोल दी। फि‍र सभी युवति‍यां भाँति‍-भाँति‍ के उपायों द्वारा उनका मनोरंजन करती हुईं अंगराज के समीप आयीं। नावि‍कों द्वारा संचालि‍त उस अत्‍यन्‍त उज्जवल नौका को जल से बाहर नि‍कालकर राजा ने एक स्‍थान पर स्‍थापि‍त कर दि‍या और जि‍तनी दूरी से वह नौकागत आश्रम दि‍खायी देता था, उतनी दूरी के वि‍स्तृत मैदान में उन्‍होंने ऋष्‍यशृंग मुनि‍ के आश्रम जैसे ही एक वि‍चि‍त्र वन का निर्माण करा दि‍या, जो 'नाव्‍याश्रम’ के नाम से प्रसि‍द्ध हुआ। राजा लोमपाद ने वि‍भाण्‍डक मुनि‍ के इकलौते पुत्र को महल के भीतर रनवास में ठहरा दि‍या और देखा, सहसा उसी क्षण इन्द्रदेव ने वर्षा आरम्‍भ कर दी तथा सारा जगत जल से परि‍पूर्ण हो गया। लोमपाद की मनोकामना पूरी हुई। उन्‍होंने प्रसन्‍न होकर अपनी पुत्री शान्ता ऋष्यशृंग मुनि‍ को ब्‍याह दी और वि‍भाण्‍डक मुनि‍ के क्रोध के नि‍वारण का भी उपाय कर दि‍या। जि‍स रास्‍ते से महर्षि‍ आने वाले थे, उसमें स्‍थान-स्‍थान पर बहुत-से गाय-बैल रखवा दि‍ये और कि‍सानों द्वारा खेतों की जुताई आरम्‍भ करा दी।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधि‍कशततम अध्‍याय के श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद)

   राजा ने वि‍भाण्‍डक मुनि‍ के आगमन पथ में बहुत-से पशु तथा वीर पशुरक्षक भी नि‍युक्‍त कर दि‍ये और सबको यह आदेश दे दि‍या कि जब पुत्र की अभि‍लाषा रखने वाले महर्षि‍ वि‍भाण्‍डक तुम से पूछें, तब हाथ जोड़कर उन्‍हें इस प्रकार उत्‍तर देना- ‘ये सब आपके पुत्र के ही पशु हैं, ये खेत भी उन्‍हीं के जोते जा रहे हैं। महर्षे! आज्ञा दें, हम आपका कौन-सा प्रि‍य कार्य करें। हम सब लोग आपके आज्ञापालक दास हैं।'

   इधर प्रचण्‍ड कोपधारी महात्‍मा वि‍भाण्‍डक फल-मूल लेकर अपने आश्रम में आये। वहाँ बहुत खोज करने पर भी जब अपना पुत्र उन्‍हें दि‍खायी न दि‍या, तब वे अत्‍यन्त क्रोध में भर गये। कोप से उनका हृदय वि‍दीर्ण-सा होने लगा। उनके मन में यह संदेह हुआ कि‍ कहीं राजा लोमपाद की तो यह करतूत नहीं है। तब वे चम्‍पानगरी की ओर चल दि‍ये, मानो अंगराज को उनके राष्ट्र और नगर सहि‍त जला देना चाहते हों। थककर भूख से पीड़ि‍त होने पर वि‍भाण्‍डक मुनि‍ सायंकाल में उन्‍हीं समृद्धि‍शाली गोष्‍ठों में गये। गोपगणों ने उनकी वि‍धिपूर्वक पूजा की। वे राजा की भाँति‍ सुख-सुवि‍धा के साथ वहीं रातभर रहे।

   गोपगणों से अत्‍यनत सत्‍कार पाकर मुनि‍ ने पूछा,,

   विभाण्डक मुनि बोले ;- ‘तुम कि‍सके गोपालक हो?' तब उन सबने नि‍कट आकर कहा,,

   गोपालक बोले ;- ‘यह सारा धन आपके पुत्र का ही है’। देश-देश में सम्‍मानि‍त हो वे ही मधुर वचन सुनते-सुनते मुनि‍ का रजोगुणजनि‍त अत्‍यधि‍क क्रोध बि‍ल्‍कुल शान्‍त हो गया। वे प्रसन्‍नतापूर्वक राजधानी में जाकर अंगराज से मि‍ले। नरश्रेष्‍ठ लोमपाद से पूजि‍त हो मुनि‍ ने अपने पुत्र को उसी प्रकार ऐश्‍वर्य सम्‍पन्‍न देखा, जैसे देवराज इन्द्र स्‍वर्गलोक में देखे जाते हैं। पुत्र के पास ही उन्‍होंने बहू शान्ता को भी देखा, जो वि‍द्युत के समान उद्भासि‍‍त हो रही थी। अपने पुत्र के अधि‍कार में आये हुए ग्राम, घोष और बहू शान्‍ता को देखकर उनका महान कोप शान्‍त हो गया।

      युधि‍ष्ठिर! उस समय वि‍भाण्‍डक मुनि‍ ने राजा लोमपाद पर बड़ी कृपा की। सूर्य और अग्‍नि‍ के समान प्रभावशाली महर्षि‍ ने अपने पुत्र को वहाँ छोड़ दि‍या और कहा,,

  विभाण्डक मुनि बोले ;- ‘बेटा! पुत्र उत्‍पन्‍न हो जाने पर इन अंगराज के सारे प्रि‍य कार्य सि‍द्ध करके फि‍र वन में ही आ जाना।' ऋष्‍यशृंग ने पि‍ता की आज्ञा का अक्षरश: पालन कि‍या। अन्‍त में पुन: उसी आश्रम में चले गये, जहाँ उनके पि‍ता रहते थे। नरेन्‍द्र! शान्‍ता उसी प्रकार अनुकूल रहकर उनकी सेवा करती थी, जैसे आकाश में रोहि‍णी चन्‍द्रमा की सेवा करती है अथवा जैसे सौभग्‍यशालि‍नी अरुन्धती वसि‍ष्ठ जी की, लोपामुद्रा अगस्त्य जी की, दमयन्ती नल की तथा शची वज्रधारी इन्द्र की सेवा करती हैं। युधि‍ष्‍ठि‍र! जैसे नारायणी इन्‍द्रसेना सदा महर्षि‍ मुद्गल के अधीन रहती थी तथा पाण्‍डुनन्‍दन! जैसे सीता महात्‍मा दशरथनन्‍दन श्रीराम के अधीन रही हैं और द्रौपदी सदा तुम्‍हारे वश में रहती आयी है, उसी प्रकार शान्‍ता भी सदा अधीन रहकर वनवासी ऋष्‍यशृंग की प्रसन्‍नतापूर्वक सेवा करती थी। उनका यह पुण्‍यमय आश्रम, जो पवि‍त्र कीर्ति‍ से युक्‍त है, इस महान कुण्‍ड की शोभा बढ़ाता हुआ प्रकाशि‍त हो रहा है। राजन! यहाँ स्‍नान करके शुद्ध एवं कृतकृत्‍य होकर अन्‍य तीथों की यात्रा करो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में ऋष्‍यशृंगोपाख्‍यान वि‍षयक एक सौ तेरहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ चौदहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्दशाधि‍कशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"युधि‍ष्‍ठि‍र का कौशि‍की, गंगासागर एवं वैतरणी नदी होते हुए महेन्‍द्र पर्वत पर गमन"

     वैशम्‍पायन जी कहते है ;- जनमेजय! तदनन्‍तर पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठर ने कौशि‍की नदी के तटवर्ती सभी तीर्थों और मन्‍दि‍रों की क्रमश: यात्रा की। राजन! उन्‍होंने गंगासागर संगमतीर्थ में समुद्र तट पर पहुँचकर पांच सौ नदि‍यों के जल में स्‍नान कि‍या। भारत! तत्‍पश्‍चात वीर भूपाल युधि‍ष्‍ठि‍र अपने भाइयों के साथ कलि‍गं देश (उड़ीसा) में गये।
    तब लोमश जी ने कहा ;- कुन्‍तीकुमार! यह कलि‍गं देश है, जि‍समें वैतरणी नदी बहती है। जहाँ धर्म ने भी देवताओं की शरण में जाकर यज्ञ कि‍या था। यह पर्वतमालाओं से सुशोभि‍त वैतरणी का वही उत्‍तर तट है, जहाँ यज्ञ का आयोजन कि‍या गया था। बहुत-से ऋषि‍-मुनि‍ तथा ब्राह्मण लोग सदा इस उत्‍तर तट का सेवन करते आये हैं।। स्‍वर्गलोक की प्राप्‍ति‍ करने वाले पुण्‍यात्‍मा मनुष्‍य के लि‍ये यह स्‍थान ‘देवयान’ मार्ग के समान है। प्राचीन काल में ऋषि‍यों तथा अन्‍य लोगों ने भी यहाँ बहुत-से यज्ञों का अनुष्‍ठान कि‍या था। राजेन्‍द्र! यहीं रुद्रदेव ने यज्ञ में पशु को ग्रहण कर लि‍या था। उस पशु को ग्रहण करके उन्‍होंने कहा,,
    रुद्रदेव बोले ;- ‘यह तो मेरा हि‍स्‍सा है’। भरतश्रेष्‍ठ! पशु का अपहरण हो जाने पर देवताओं ने उनसे कहा,,
    देवता बोले ;- ‘आप दूसरों के धन से द्रोह न करें (दूसरों के हि‍स्‍से को न लें), धर्म के साधनभूत समस्‍त यज्ञभागों को लेने की इच्‍छा न करें।' यों कहकर उन्‍होंने कल्‍याणमय वचनों द्वारा भगवान रुद्र का स्‍तवन कि‍या और इष्‍टि‍ द्वारा उन्‍हें तृप्‍त करके उस समय उनका वि‍शेष सम्‍मान कि‍या। तब वे उस पशु को वहीं छोड़कर देवयान मार्ग से चले गये।
    युधि‍ष्‍ठि‍र! यज्ञ में भगवान रुद्र की भागपरम्‍परा का बोधक एक श्‍लोक है, उसे बताता हूं, सुनो- ‘देवताओं ने रुद्रदेव के भय से उनके लि‍ये शीघ्र ही सब भागों की अपेक्षा उत्‍तम एवं सनातन भाग देने का संकल्‍प कि‍या’। जो मनुष्‍य यहाँ इस गाथा का गान करते हुए वैतरणी के जल का स्‍पर्श करता है, उसकी दृष्‍टि‍ में देवयान मार्ग प्रकाशि‍त हो जाता है।
   वैशम्‍पान जी कहते है ;- राजन! तदनन्‍तर महान भागयशाली समस्‍त पाण्‍डवों और द्रौपदी ने वेतरणी के जल में उतरकर अपने पि‍तरों का तर्पण कि‍या। उस समय युधिष्ठर बोले,,
   युधिष्ठिर बोले ;- लोमश जी! देखि‍ये, इस वैतरणी नदीं में वि‍धि‍पूर्वक स्‍नान करने से मुझे तपोबल प्राप्‍त हुआ है, जि‍सके प्रभाव से मैं मानवीय वि‍षयों से दूर हो गया हूँ। सुव्रत! आपकी कृपा से इस समय मुझे सम्‍पूर्ण लोकों का दर्शन हो रहा है। यह तप और स्‍वाध्‍याय में लगे हुए महात्‍मा वैखानस ऋषि‍यों का शब्‍द है।
    लोमश जी ने कहा ;- राजा युधि‍ष्‍ठि‍र! जहाँ से आती हुई इस ध्‍वनि‍ को तुम सुन रहे हो, वह स्‍थान यहाँ से तीन लाख योजन दूर है; अत: अब चुप रहो। राजन! यह ब्रह्माजी का दि‍व्‍य वन प्रकाशि‍त हो रहा है; राजेन्‍द्र! यहीं प्रतापी वि‍श्वकर्मा ने यज्ञ कि‍या है। उस यज्ञ में ब्रह्माजी ने पर्वत और वनप्रान्‍त सहि‍त सारी पृथ्‍वी महात्‍मा कश्यप को दक्षि‍णा रूप में दे दी थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्दशाधि‍कशततम अध्‍याय के श्लोक 19-30 का हिन्दी अनुवाद)

     कुन्‍तीकुमार! उनके द्वारा अपना दान होते ही पृथ्‍वी बहुत दु:खी हो गयी और कुपि‍त हो लोकनाथ प्रभु ब्रह्मा से इस प्रकार बोली,,
   पृथ्वी बोले ;- ‘भगवन! आप मुझे कि‍सी मनुष्‍य को न सौंपें। यदि‍ मुझे मनुष्‍य को सौंपेंगे तो वह व्‍यर्थ होगा, क्‍योंकि‍ मैं अभी रसातल को चली जाऊँगी।' राजन! पृथ्‍वी देवी को वि‍षाद करती देख महर्षि‍ भगवान कश्यप ने प्रार्थना द्वारा उन्‍हें प्रसन्‍न कि‍या। पाण्‍डुनन्‍दन! उनकी तपस्‍या से प्रसन्‍न हुई पृथ्‍वी पुन: जल से उपर उठकर वेदी के रूप में स्‍थि‍त हो गयी। राजन! वह पृथ्‍वी देवी ही यहाँ इस मि‍ट्टी की देवी के रूप में प्रकाशि‍त हो रही है। महाराज! इस पर आरूढ़ हो तुम बल पराक्रम से सम्‍पन्‍न हो जाओगे।
    युधिष्ठिर! वही यह वेदीस्‍वरूपा पृथ्‍वी समुद्र का आश्रय लेकर स्‍थि‍त है; तुम्‍हारा कल्‍याण हो। तुम अकेले ही इस पर चढ़कर समुद्र को पार करो। मैं तुम्‍हारे लि‍ये स्‍वस्‍ति‍वाचन करूंगा, जि‍ससे तुम आज इस वेदी पर चढ़ सको; अजमीढकुलनन्‍दन! नहीं तो मनुष्‍य के द्वारा स्‍पर्श हो जाने पर यह वेदी समुद्र में प्रवेश कर जाती है। (समुद्र में स्‍नान करते समय उसकी प्रार्थना के लि‍ये नि‍म्‍नांकि‍त मन्‍त्र का उच्‍चारण करना चाहि‍ये-) जि‍नमें यह सम्‍पूर्ण वि‍श्‍व लीन होता है तथा जो सबसे श्रेष्‍ठ है, उन भगवान वि‍ष्णु को नमस्‍कार है। देवेश्‍वर! आप खारे समुद्र में नि‍वास करें। हे समुद्र! अग्‍नि‍, मि‍त्र (सूर्य) और दि‍व्‍य जल- ये सब तुम्‍हारी योनि‍ (उत्‍पति‍ कारण) हैं। तुम सर्वव्‍यापी परमात्‍मा के रेतस (वीर्य या शक्‍ति‍) हो और तुम्हीं अमृत की उत्‍पति‍ के स्‍थान हो।
     पाण्‍डुनन्‍दन! इस सत्‍य वाक्‍य का उच्‍चारण करते हुए तुम शीघ्रतापूर्वक इस वेदी पर आरूढ़ हो जाओ। हे महासागर! अग्‍नि‍ तुम्‍हारी योनि‍ (कारण) है और यज्ञ शरीर है, तुम भगवान वि‍ष्‍णु की शक्‍ति‍ के आधार और मोक्ष के साधन हो। पाण्‍डुपुत्र! इस सत्‍य वचन को बोलते हुए नदि‍यों के स्‍वामी समुद्र में स्‍नान करना चाहि‍ये। कुरुश्रेष्ठ! जल का स्‍वामी समुद्र देवताओं का अधि‍ष्‍ठान है। कुन्‍तीनन्‍दन! ऊपर बतायी हुई रीति के सिवा, दूसरे किसी प्रकार से इस महासागर का कुश के अग्रभाग द्वारा भी स्‍पर्श नहीं करना चाहि‍ये।
      वेशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर लोमश जी के स्‍वस्‍ति‍वाचन करने के पश्‍चात महात्‍मा राजा युधिष्ठिर ने उनकी बतायी हुई सारी वि‍धि‍यों का पालन करते हुए समुद्र में स्‍नान करने के लि‍ए प्रवेश कि‍या। इसके बाद महेन्‍द्र पर्वत पर जाकर रात्रि‍ बि‍तायी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में महेन्द्राचल गमन विषयक एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ पंद्रहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचदशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"अकृतव्रण के द्वारा युधिष्‍ठि‍र से परशुराम जी के उपाख्यान के प्रसंग में ऋचीक मुनि का गाधिकन्या के साथ विवाह और भृगु ऋषि‍ की कृपा से जमदग्नि की उत्पति का वर्णन"

   वैशम्पायन जी कहते है ;- जनमेजय! उस पर्वत पर एक रात निवास करके भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर ने तपस्वी मुनियों का बहुत सत्कार किया। लोमश जी ने युधिष्ठिर से उन सभी तपस्वी महात्माओं का परिचय कराया। उनमें भृगु, अंगिरा, वसिष्ठ तथा कश्यप गोत्र के अनेक संत महात्मा थे। उन सबसे मिलकर राजर्षि‍ युधिष्ठि‍र ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और परशुराम जी के सेवक वीरवर अकृतव्रण से पूछा,,
   युधिष्ठिर बोले ;- ‘भगवन परशुराम जी इन तपस्वी महात्माओं को कब दर्शन देंगे? उसी निमित्त से मैं भी उन भगवन भार्गव का दर्शन करना चाहता हूँ।'
   अकृतव्रण ने कहा ;- राजन! आत्मज्ञानी परशुराम जी को पहले ही यह ज्ञात हो गया था कि आप आ रहे हैं। आप पर उनका बहुत प्रेम है, अत: वे शीध्र ही आपको दर्शन देंगे। ये तपस्वी लोग प्रत्येक चतुर्दशी ओर अष्‍टमी को परशुराम जी का दर्शन करते हैं। आज की रात बीत जाने पर कल सबेरे चतुर्दशी हो जायेगी।
    युधिष्ठिर ने पूछा ;- मुने! आप महाबली परशुराम जी के अनुगत भक्त हैं। उन्होंने पहले जो-जो कार्य किये हैं, उन सबको आपने प्रयत्‍क्ष देखा है। अत: हम आपसे जानना चाहते हैं कि परशुराम जी ने किस प्रकार ओर किस कारण से समस्त क्षत्रियों को युद्ध में पराजित किया था। आप वह वृत्तांत आज मुझे बताइये।
     अकृतव्रण ने कहा ;- भरतकुलभुषण नृपश्रेष्‍ट युधिष्ठिर! भृगुवंशी परशुराम जी की कथा बहुत बड़ी और उत्तम है, मैं आपसे उसका वर्णन करूँगा। भारत! जमदग्रिकुमार परशुराम तथा हैहयराज कार्तवीर्य का चरित्र देवताओं के तुल्य है। पाण्डुनन्दन! परशुराम जी ने अर्जुन नाम से प्रसिद्ध जिस हैहयराज कार्तवीर्य का वध किया था, उसके एक हजार भुजाएं थीं। पृथ्वीपते! श्रीदत्तात्रेय जी की कृपा से उसे एक सोने का विमान मिला था और भूतल के सभी प्राणीयों पर उसका प्रभुत्व था। महामना कार्तवीर्य के रथ की गति को कोई भी रोक नहीं सकता था। उस रथ और वर के प्रभाव से शक्ति सम्पन्न हुआ कार्तवीर्य अर्जुन सब ओर घूमकर सदा देवताओं, यक्षों तथा ऋषि‍यों को रौंदता फिरता था और सम्पूर्ण प्राणीयों को भी सब प्रकार से पीड़ा देता था। कार्तवीर्य का ऐसा अत्याचार देख देवता तथा महान व्रत का पालन करने वाले ऋषि‍ मिलकर दैत्यों का विनाश करने वाले सत्यपराक्रमी देवाधिदेव भगवान विष्णु के पास जा इस प्रकार बोले,,
   देवता व ऋषि गण बोले ;- ‘भगवन! आप समस्त प्राणीयों की रक्षा के लिए कृतवीर्यकुमार अर्जुन का वध कीजिये।‘
    एक दिन शक्तिशाली हैहयराज ने दिव्य विमान द्वारा शची के साथ क्रीड़ा करते हुए देवराज इन्द्र पर आक्रमण किया। भारत! तब भगवान विष्‍णु ने कार्तवीर्य अर्जुन का नाश करने के सम्बंध में इन्द्र के साथ विचार-विनिमय किया। समस्त प्राणीयों के हित के लिये जो कार्य करना आवश्यक था, उसे देवेन्द्र ने बताया। तत्पश्चात विश्ववन्दित भगवान विष्‍णु ने वह सब कार्य करने की प्रतिज्ञा करके अत्यन्त रमणीय बदरीतीर्थ की यात्रा की, जहाँ उनका अपना ही विस्तृत आश्रम था।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचदशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)

      इसी समय इस भूतल पर कान्यकुब्ज देश में एक महाबली महाराज शासन करते थे, जो गाधि के नाम से विख्यात थे। वे राजधानी छोड़कर वन में गये और वहीं रहने लगे। उनके वनवास काल में ही एक कन्या उत्पन्न हुई, जो अप्सरा के समान सुन्दरी थी। भारत! विवाह योग्य होने पर भृगुपुत्र ऋचीक मुनि ने उसका वरण किया। उस समय राजा गाधि ने कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्रह्मर्षि‍ ऋचीक से कहा,,
  राजा गाधि बोले ;- ‘दिजश्रेष्‍ठ! हमारे कुल में पूर्वजों ने जो कुछ शुल्क लेने का नियम चला रखा है, उसका पालन करना हम लोगों के लिए भी उचित है। अत: आप यह जान लें, इस कन्या के लिए एक सहस्र वेगशाली अश्व शुल्क रूप में देने पड़ेंगे, जिनके शरीर का रंग तो सफेद और पीला मिला हुआ-सा और कान एक ओर से काले रंग के हों। भृगुनन्दन! आप कोई निन्दनीय तो हैं नहीं, यह शुल्क चुका दीजिये, फिर आप जैसे महात्मा को में अवश्य अपनी कन्या ब्याह दूंगा’।
    ऋचीक बोले ;- राजन! मैं आपको एक ओर से श्याम कर्ण वाले पाण्डु रंग के वेगशाली अश्व एक हजार की संख्या में अर्पित करूँगा। आपकी पुत्री मेरी धर्मपत्नी बने।
    अकृतव्रण कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार शुल्क देने की प्रतिज्ञा करके ऋचीक मुनि ने वरुण के पास जाकर कहा,,
   ऋचीक मुनि बोले ;- ‘ देव! मुझे शुल्क में देने के लिए एक हजार ऐसे अश्व प्रदान करें, जिनके शरीर का रंग पाण्डुर और कान एक ओर से श्याम हों। साथ ही वे सभी अश्व तीव्रगामी होने चाहिये।‘ उस समय वरुण ने उनकी इच्छा के अनुसार एक हजार श्याम कर्ण के घोड़े दे दिये। जहाँ वे श्याम कर्ण के घोड़े प्रकट हुए थे, वह स्थान अश्वतीर्थ नाम से विख्यात हुआ। तत्पश्चात राजा गाधि ने शुल्क रूप में एक हजार श्याम कर्ण घोड़े प्राप्त करके गंगातट पर कान्यकुब्ज नगर में ऋचीक मुनि को अपनी पुत्री सत्यवती ब्याह दी। उस समय देवता बराती बने थे। देवता उन सबको देखकर वहाँ से चले गये। विप्रवर ऋचीक ने धर्मपूर्वक सत्यवती को पत्नी के रूप में प्राप्त करके उस सुन्दरी के साथ अपनी इच्छा के अनुसार सुखपूर्वक रमण किया।
    राजन! विवाह करने के पश्चात पत्नी सहित ऋचीक को देखने के लिए महर्षि‍ भृगु उनके आश्रम पर आये अपने श्रेष्‍ठ पुत्र को विवाहित देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। उन दोनों पति-पत्नि ने पवित्र आसन पर विराजमान देववृन्दवन्दित गुरु (पिता एवं श्वसुर) का पूजन किया और उनकी उपासना में संलग्न हो वे हाथ जोड़े खड़े रहे। भगवान भृगु ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपनी पुत्रवधु से कहा- ‘सौभाग्यवती बहु! कोई वर मांगो, मैं तुम्हारी इच्छा के अनुरूप वर प्रदान करूँगा’। सत्यवती ने श्वसुर को अपने और अपनी माता के लिये पुत्र-प्राप्ति का उद्देश्‍य रखकर प्रसन्न किया। तब भृगु जी ने उस पर कृपादृष्‍टि‍ की। भृगु जी बोले- 'बहू! ऋतुकाल में स्नान करने के पश्चात तुम और तुम्हारी माता पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से दो भिन्न-भिन्न वृक्षों का आलिगंन करो। तुम्हारी माता पीपल का और तुम गूलर का आलिंगन करना।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचदशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 36-45 का हिन्दी अनुवाद)

    'भद्रे! मैंने विराट पुरुष परमात्मा का चिन्तन करके तुम्हारे और तुम्हारी माता के लिये यत्नपूर्वक दो चरु तैयार किये हैं। तुम दोनों प्रयन्तपूर्वक अपने-अपने चरु का भक्षण करना।' ऐसा कहकर भृगु अन्तर्धान हो गये। इधर सत्यवती और उसकी माता ने वृक्षों के आलिंगन और चरु-भक्षण में उलट-फेर कर दिया।
    तदनन्तर बहुत दिन बीतने पर भगवान भृगु अपनी दिव्य ज्ञानशक्ति से सब बातें जानकर पुन: वहाँ आये। उस समय महातेजस्वी भृगु अपनी पुत्रवधु सत्यवती से बोले,,
    भृगु ऋषि बोले ;- ‘भद्रे! तुमने चरु-भक्षण और वृक्षों का आलिगंन किया है, उसमें उलट-फेर करके तुम्हारी माता ने तुम्हें ठग लिया। सुभ्र! इस भूल के कारण तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण होकर भी क्षत्रियोचित आचार-विचार वाला होगा और तुम्हारी माता का पुत्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणोचित आचार-विचार का पालन करने वाला होगा। वह पराक्रमी बालक साधु-महात्माओं के मार्ग का अवलम्बन करेगा’।
    तब सत्यवती ने बार-बार प्रार्थना करके पुन: अपने श्वसुर को प्रसन्न किया और कहा,,
   सत्यवती बोली ;- ‘भगवन! मेरा पुत्र ऐसा न हो। भले ही, पौत्र क्षत्रिय स्वभाव का हो जाये’।
    पाण्डुनन्दन! तब ‘एवमस्तु’ कहकर भृगु जी ने अपनी पुत्रवधु का अभिनन्दन किया। तत्पश्चात प्रसव का समय आने पर सत्यवती ने जमदग्रि नामक पुत्र को जन्म दिया। भार्गवनन्दन जमदग्रि तेज और ओज (बल) दोनों से सम्पन्न थे।
     युधिष्ठिर! बड़े होने पर महातेजस्वी जमदग्रि मुनि‍ वेदाध्ययन द्वारा अन्य बहुत-से ऋषि‍यों से आगे बढ़ गये। भरतश्रेष्‍ठ! सूर्य के समान तेजस्वी जमदग्रि की बुद्धि में सम्पूर्ण धनुर्वेद और चारों प्रकार के अस्त्र स्वत: स्फुरित हो गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में कार्तवीर्योपाख्यान विषयक एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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