सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"वेश्या का ऋष्यशृंग को लुभाना और विभाण्डक मुनि का आश्रम पर आकर अपने पुत्र की चिन्ता का कारण पूछना"
लोमश जी कहते है ;- भरतनन्दन! उस वेश्या ने राजा की आज्ञा के अनुसार और बुद्धि से भी उनका कार्य सिद्ध करने के लिए नाव पर एक सुन्दर आश्रम बनाया। वह आश्रम भाँति-भाँति के पुष्प और फलों से सुशोभित कृत्रिम वृक्षों से घिरा हुआ था। उन वृक्षों पर नाना प्रकार के गुल्म और लता समूह फैले हुए थे और वे वृक्ष स्वादिष्ट एवं वांछनीय फल देने वाले थे। उन वृक्षों के कारण वह आश्रम अत्यन्त रमणीय और परम मनोहर दिखायी देता था। वैश्या ने उस नाव पर जिस सुन्दर आश्रम का निर्माण किया था; वह देखने में अद्भुत-सा था। तदनन्तर उसने अपनी उस नाव को काश्यप गोत्रीय विभाण्डक मुनि के आश्रम से थोड़ी दूर पर बांध दिया और गुप्तचरों को भेजकर यह पता लगा लिया कि इस समय विभाण्डक मुनि अपनी कुटिया से बाहर गये हैं।
तदनन्तर विभाण्डक मुनि को दूर गया देख उस वेश्या ने अपनी परम बुद्धिमति पुत्री को, जो उसी की भाँति वेश्यावृत्ति अपनायी हुई थी, कर्तव्य की शिक्षा देकर मुनि के आश्रम पर भेजा। वह भी कार्यसाधन में कुशल थी। उसने वहाँ जाकर निरन्तर तपस्या में लगे रहने वाले ऋषिकुमार ऋष्यशृंग के समीप उस आश्रम मे पहुँचकर उनको देखा। तत्पश्चात वेश्या ने कहा,,
वेश्या बोली ;- 'मुने! तपस्वी लोग कुशल से तो हैं न? आप लोगों को पर्याप्त फल-मूल तो मिल जाते हैं न? आप इस आश्रम में प्रसन्न तो हैं न? मैं इस समय आपके दर्शन के लिये ही यहाँ आयी हूँ। क्या तपस्वी लोगों की तपस्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है? आपके पिता का तेज क्षीण तो नहीं हो रहा है? ब्रह्मन! आप मजे में हैं न? ऋष्यशृंग जी! आपके स्वाध्याय का क्रम चल रहा है न?'
ऋष्यशृंग बोले ;- 'ब्रह्मन! आप अपनी समृद्धि से ज्योति की भाँति प्रकाशित हो रहे हैं। मैं आपको अपने लिये वन्दनीय मानता हूँ और स्वेच्छा से धर्म के अनुसार आपके लिये पाद्य-अर्ध्य एवं फल-मूल अर्पण करता हूँ। इस कुशासन पर आप सुखपूर्वक बैंठें। इस पर काला मृगचर्म बिछाया गया है। इसलिये इस पर बैठने में आराम रहेगा। आपका आश्रम कहाँ है? और आपका नाम क्या है? ब्रह्मन! आप देवता के समान यह किस व्रत का आचरण कर रहे हैं।'
वेश्या बोली ;- 'काश्यपनन्दन! मेरा आश्रम बड़ा मनोहर है। वह इस पर्वत के उस पार तीन योजन की दूरी पर स्थित है। वहाँ मेरा जो अपना धर्म है, उसके अनुसार आपको मेरा अभिवादन (प्रणाम) नहीं करना चाहिये। मैं आपके दिये हुए अर्ध्य और पाद्य का स्पर्श नहीं करूंगा। मैं आपके लिये वन्दनीय नहीं हूँ। आप ही मेरे वन्दनीय हैं। ब्रह्मन! मेरा यह नियम है, जिसके अनुसार मुझे आपका आलिंगन करना चाहिये।'
ऋष्यशृंग ने कहा ;- ब्रह्मन! मैं तुम्हें पके फल दे रहा हूँ। ये भिलावा, आंवले, करूषक (फालसा), इंगुद (हिंगोट), धन्वन (धामिन) और पीपल के फल प्रस्तुत हैं– इन सबका इच्छानुसार उपयोग कीजिये।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद)
लोमश जी कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर वेश्या ने उन सब फलों को छोड़कर स्वयं ऋष्यशृंग को अत्यन्त सुन्दर और अमूल्य भक्ष्य पदार्थ (फल आदि) दिये। उन परम सरस फलों ने उनकी रुचि को बढ़ाया। साथ ही सुगन्धित मालायें तथा विचित्र एवं चमकीले वस्त्र प्रदान किये। इतना ही नहीं, उसने मुनिकुमार को अच्छी श्रेणी के पेय पिलाये, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए। वे उसके साथ खेलने ओर जोर-जोर से हँसने लगे। वेश्या ऋष्यशृंग के पास ही गेंद खेलने लगी। वह अपने अंगों को मोड़ती हुई फलों के भार से लदी लता की भाँति झुक जाती और ऋष्यशृंग मुनि को बार-बार अपने अंग में भर लेती थी। साथ ही अपने अंगों से उनके अंगों को इस प्रकार दबाती, मानो उनके भीतर समा जायेगी। वहाँ शाल, अशोक और तिलक के वृक्ष खूब फूले हुए थे। उनकी डालियों को झुकाकर वह मदोन्मत्त वेश्या लज्जा का नाट्य-सा करती हुई महर्षि के उस पुत्र को लुभाने लगी।
ऋष्यशृंग की आकृति में किचिंत विकार देखकर उसने बार-बार उनके शरीर को आलिंगन के द्वारा दबाया और अग्निहोत्र का बहाना बनाकर वह उनके द्वारा देखी जाती हुई धीरे-धीरे वहाँ से चली गई। उसके चले जाने पर उसके अनुराग से उन्मत्त मुनिकुमार ऋष्यशृंग अचेत-से हो गये। उस निर्जन स्थान में उनकी मनोवृत्ति उसी की ओर लगी रही और वे लम्बी साँस खींचते हुए अत्यंत व्यथित हो उठे। तदनन्तर दो घड़ी के बाद हरे-पीले नेत्रों वाले काश्यपनन्दन विभाण्डक मुनि वहाँ आ पहुँचे। वे सिर से लेकर पैरों के पाखों तक रोमावलियों से भरे हुए थे। महात्मा विभाण्डक स्वाध्यायशील, सदाचारी तथा समाधिनिष्ट महर्षि थे। निकट आने पर उन्होंने पुत्र को अकेला उदासीन भाव से चिन्तामग्न होकर बैठा देखा। उसके चित्त की दशा विपरीत थी। वह बार-बार ऊपर की ओर दृष्टि किये उच्छवास ले रहा था।
इस दयनीय दशा में पुत्र को देखकर विभाण्डक मुनि ने पूछा,,
विभाण्डक मुनि बोले ;- 'तात! आज तुम अग्निकुण्ड में समिधाएं क्यों नहीं रख रहे हो? क्या तुमने अग्निहोत्र कर लिया? स्रुक और स्रुवा आदि यज्ञपात्रों को भली-भाँति शुद्ध करके रखा है न? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि तुमने हवन के लिये दूध देने वाली गाय का बछड़ा खोल दिया हो, जिससे वह सारा दूध पी गया हो। बेटा! आज तुम पहले जैसे दिखायी नहीं देते। किसी भारी चिन्ता में निमग्न हो, अपनी सुध-बुध खो बैठे हो। क्या कारण है, जो आज तुम अत्यंत दीन हो रहे हो। मैं तुमसे पूछता हूं, बताओ, आज यहाँ कौन आया था?'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में ऋष्यशृंगोपाख्यान विषयक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ बारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)
"ऋष्यशृंग का पिता को अपनी चिन्ता का कारण बताते हुए ब्रह्मचारीरूपधारी वेश्या के स्वरूप और आचरण का वर्णन"
ऋष्यशृंग ने कहा ;- पिताजी! यहाँ एक जटाधारी ब्रह्मचारी आया था। वह न तो छोटा था और न बहुत बड़ा ही। उसका हृदय बहुत उदार था। उसके शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान थी और उसकी बड़ी-बड़ी आंखें कमलों के सदृश जान पड़ती थीं। वह स्वयं देवताओं के समान सुशोभीत हो रहा था। उसका रूप बड़ा सुन्दर था। वह सूर्यदेव की भाँति उद्भासित हो रहा था। उसके नेत्र स्वच्छ, चमकीले एवं कजरारे थे। वह बड़ा गोरा दिखायी देता था। उसकी जटा बहुत लम्बी, साफ सुथरी और नीले रंग की थीं। उनसे बड़ी मधुर गन्ध फैल रही थी। वे सारी जटाएं एक सुनहरी रस्सी से गुंथी हुई थीं। उसके गले में एक ऐसा आश्चर्यरूप आभूषण (कण्ठा) था, जो आकाश में बिजली की भाँति चमक रहा था। उसके गले में नीचे (वक्ष:स्थल पर) दो मांसपिण्ड थे, जिन पर रोएं नहीं उगे थे। वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते थे।
उस ब्रह्मचारी के नाभिदेश के समीप जो शरीर का मध्यभाग था, वह बहुत पतला था और उसका नितम्ब भाग अत्यन्त स्थूल था। जैसे मेरे कौपीन के नीचे यह मूंज की मैखला बंधी है, इसी प्रकार उसके कटि प्रदेश में भी एक सोने की मेखला (करधनी) थी, जो उसके चीर के भीतर से चमकती रहती थी। उसकी अन्य सब बातें भी अद्भुद एवं दर्शनीय थीं। पैरों में (पायल की) छम-छम की ध्वनि बड़ी मधुर प्रतीत होती थी। इसी प्रकार हाथों की कलाइयों में मेरी इस रुद्राक्ष की माला की भाँति उसने दो कलापक (कंगन) बांध रखे थे, उनसे भी बड़ी मधुर ध्वनि होती रहती थी। वह ब्रह्मचारी जब तनिक भी चलता-फिरता या हिलता-डुलता था, उस समय आभूषण बड़ी मनोहर झनकार उत्पन्न करते थे, मानो सरोवर में मतवाले हंस कलरव कर रहें हो। उसके चीर भी अद्भुद दिखायी देते थे।
मेरी कौपीन के ये वल्कल वस्त्र सुन्दर नहीं है। उसका मुख भी देखने ही योग्य था। उसकी अद्भुद शोभा थी। ब्रह्मचारी की एक-एक बात मन को आनन्द-सिन्धु में निमग्न-सा कर देती थी। उसकी वाणी कोकिल के समान थी, जिसे एक बार सुन लेने पर अब पुन: सुनने के लिये मेरी अन्तरात्मा व्यथित हो उठी है। तात! जैसे माधवमास (वैशाख या वंसत ऋतु) में (सौरभयुक्त मलय) समीर से सेवित वन-उपवन की शोभा होती है, उसी प्रकार पवनदेव से सेवित वह ब्रह्मचारी उत्तम एवं पवित्र गन्ध से सुवासित और सुशोभित हो रहा था। उसकी जटा सटी हुई और अच्छी प्रकार से बंधी हुई थी, जो ललाट प्रदेश में दो भागों में विभक्त थी; किन्तु बराबर नहीं थी। उसके कुण्डलमण्डित कान सुन्दर एवं विचित्र चक्रवाकों से घिरे हुए से जान पड़ते थे। उसके पास एक विचित्र गोलाकार फल (गेंद) था, जिस पर वह अपने दाहिने हाथ से आघात करता था। वह फल (गेंद) पृथ्वी पर जाकर बार-बार ऊँचे की ओर उछालता था। उस समय उसका रूप अद्भुद दिखायी देता था।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद)
उस फल (गेंद) को मारकर वह चारों ओर घूमने लगता था, मानो वृक्ष हवा का झोंका खाकर झूम रहा हो। तात! देवपुत्र के समान उस ब्रह्मचारी को देखते समय मेरे हृदय में बड़ा प्रेम और आनन्द उमड़ रहा था और मेरी उसके प्रति आसक्ति हो गयी है। वह बार-बार मेरे शरीर का आलिंगन करके मेरी जटा पकड़ लेता और मेरे मुख को झुकाकर उस पर अपना मुख रख देता था, इस प्रकार मुख से मुख मिलाकर उसने एक ऐसा शब्द किया, जिसने मेरे हृदय में अत्यन्त आनन्द उत्पन्न कर दिया। मैंने जो पाद्य अर्पण किया, उसको उसने बहुत महत्व नहीं दिया।
मेरे दिये हुए ये फल भी उसने स्वीकार नहीं किये और मुझसे कहा- ‘मेरा ऐसा ही नियम है।‘ साथ ही उसने मेरे लिये दूसरे-दूसरे फल दिये। मैंने उसके दिये हुए जिन फलों का उपयोग किया है, उनके समान रस हमारे इन फलों में नहीं है। उन फलों के छिलके भी ऐसे नहीं थे, जैसे इन जंगली फलों के हैं। इन फलों के गूदे जैसे हैं, वैसे उसके दिये फलों के नहीं थे (वे सर्वथा विलक्षण थे)। उदारता के मूर्तिमान स्वरूप उस ब्रह्मचारी ने मुझे पीने के लिये अत्यन्त स्वादिष्ट जल भी दिया था। उस जल को पीते ही मेरे हर्ष की सीमा न हरी। मुझे यह धरती डोलती-सी जान पड़ने लगी।
वे विचित्र सुगन्धित मालाएं उसी ने रेशमी डोरों से गूंथ कर बनायी थीं, जिन्हें यहाँ बिखेरकर तपस्या से प्रकाशित होने वाला वह ब्रह्मचारी अपने आश्रम को चला गया था। उसके चले जाने से मैं अचेत हो गया हूँ। मेरा शरीर जलता-सा जान पड़ता है। मैं चाहता हूँ, शीघ्र उसके पास ही चला जाऊँ अथवा वही यहाँ नित्य मेरे पास रहे।
पिताजी! मैं उसी के पास जाता हूँ, देखूँ, उसकी ब्रह्मचर्य की साधना कैसी है? वह आर्य धर्म का पालन करने वाला ब्रह्मचारी जिस प्रकार तप करता है, उसके साथ रहकर में भी वैसी ही तपस्या करना चाहता हूँ। वैसा ही तप करने की इच्छा मेरे हृदय में भी है। यदि उसे नही देखूंगा तो मेरा यह चित्त संतप्त होता रहेगा।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में ऋष्यशृंगोपाख्यान विषयक एक सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ तेरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
"ऋष्यशृंग का अंगराज लोमपाद के यहाँ जाना, राजा का उन्हें अपनी कन्या देना, राजा द्वारा विभाण्डक मुनि का सत्कार तथा उन पर मुनि का प्रसन्न होना"
विभाण्डक ने कहा ;- बेटा! इस प्रकार अद्भुत दर्शनीय रूप धारण करके तो राक्षस ही इस वन में विचरा करते हैं। ये अनुपम पराक्रमी और मनोहर रूप धारण करने वाले होते हैं तथा ऋषि-मुनियों की तपस्या में सदा विघ्न डालने का ही उपाय सोचते रहते हैं। तात! वे मानोहररूपी राक्षस नाना प्रकार के उपायों द्वारा मुनि लोगों को प्रलोभन में डालते रहते हैं। फिर वे ही भयानक रूप धारण करके वन में निवास करने वाले मुनियों को आनन्दमय लोकों से नीचे गिरा देते हैं। अत: जो साधू पुरुषों को मिलने वाले पुण्य लोकों को पाना चाहते हैं, वह मुनि मन को संयम में रखकर उन राक्षसों का (जो मोहक रूप बनाकर धोखा देने के लिये आते हैं) किसी प्रकार सेवन न करे। वे पापाचारी निशाचर तपस्वी मुनियों के तप में विघ्न डालकर प्रसन्न होते हैं, अत: तपस्वी को चाहिये कि वह उनकी ओर आंख उठाकर देखे ही नहीं। वत्स! जिसे तुम जल समझते थे, वह मद्य था। वह पापजनक और अपेय है, उसे कभी नहीं पीना चाहिये। दुष्ट पुरुष उसका उपयोग करते हैं तथा ये विचित्र, उज्ज्वल और सुगन्धित पुष्प मालायें भी मुनियों के योग्य नहीं बतायी गयी हैं। ऐसी वस्तुएं लाने वाले राक्षस ही हैं।‘
ऐसा कहकर विभाण्डक मुनि ने पुत्र को उससे मिलने-जुलने से मना कर दिया और स्वयं उस वेश्या की खोज करने लगे। तीन दिनों तक ढूँढने पर भी जब वे उसका पता न लगा सके, तब आश्रम पर लौट आये। जब काश्यपनन्दन विभाण्डक मुनि आश्रम से पुन: विधि के अनुसार फल लाने के लिए वन में गये, तब वह वेश्या ऋष्यशृंग मुनि को लुभाने के लिए फिर उनके आश्रम पर आयी। उसे देखते ही ऋष्यशृंग मुनि हर्ष-विभोर हो उठे और घबराकर तुरंत उसके पास दौड़ गये। निकट जाकर उन्होंने कहा,,,
ऋष्यशृंग मुनि बोले ;- ‘ब्रह्मन! मेरे पिताजी जब तक लौटकर नहीं आते, तभी तक मैं और आप-दोनों आपके आश्रम की ओर चल दें।'
राजन! तदनन्तर विभाण्डक मुनि के इकलौते पुत्र को युक्ति से नाव में ले जाकर वेश्या ने नाव खोल दी। फिर सभी युवतियां भाँति-भाँति के उपायों द्वारा उनका मनोरंजन करती हुईं अंगराज के समीप आयीं। नाविकों द्वारा संचालित उस अत्यन्त उज्जवल नौका को जल से बाहर निकालकर राजा ने एक स्थान पर स्थापित कर दिया और जितनी दूरी से वह नौकागत आश्रम दिखायी देता था, उतनी दूरी के विस्तृत मैदान में उन्होंने ऋष्यशृंग मुनि के आश्रम जैसे ही एक विचित्र वन का निर्माण करा दिया, जो 'नाव्याश्रम’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राजा लोमपाद ने विभाण्डक मुनि के इकलौते पुत्र को महल के भीतर रनवास में ठहरा दिया और देखा, सहसा उसी क्षण इन्द्रदेव ने वर्षा आरम्भ कर दी तथा सारा जगत जल से परिपूर्ण हो गया। लोमपाद की मनोकामना पूरी हुई। उन्होंने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री शान्ता ऋष्यशृंग मुनि को ब्याह दी और विभाण्डक मुनि के क्रोध के निवारण का भी उपाय कर दिया। जिस रास्ते से महर्षि आने वाले थे, उसमें स्थान-स्थान पर बहुत-से गाय-बैल रखवा दिये और किसानों द्वारा खेतों की जुताई आरम्भ करा दी।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद)
राजा ने विभाण्डक मुनि के आगमन पथ में बहुत-से पशु तथा वीर पशुरक्षक भी नियुक्त कर दिये और सबको यह आदेश दे दिया कि जब पुत्र की अभिलाषा रखने वाले महर्षि विभाण्डक तुम से पूछें, तब हाथ जोड़कर उन्हें इस प्रकार उत्तर देना- ‘ये सब आपके पुत्र के ही पशु हैं, ये खेत भी उन्हीं के जोते जा रहे हैं। महर्षे! आज्ञा दें, हम आपका कौन-सा प्रिय कार्य करें। हम सब लोग आपके आज्ञापालक दास हैं।'
इधर प्रचण्ड कोपधारी महात्मा विभाण्डक फल-मूल लेकर अपने आश्रम में आये। वहाँ बहुत खोज करने पर भी जब अपना पुत्र उन्हें दिखायी न दिया, तब वे अत्यन्त क्रोध में भर गये। कोप से उनका हृदय विदीर्ण-सा होने लगा। उनके मन में यह संदेह हुआ कि कहीं राजा लोमपाद की तो यह करतूत नहीं है। तब वे चम्पानगरी की ओर चल दिये, मानो अंगराज को उनके राष्ट्र और नगर सहित जला देना चाहते हों। थककर भूख से पीड़ित होने पर विभाण्डक मुनि सायंकाल में उन्हीं समृद्धिशाली गोष्ठों में गये। गोपगणों ने उनकी विधिपूर्वक पूजा की। वे राजा की भाँति सुख-सुविधा के साथ वहीं रातभर रहे।
गोपगणों से अत्यनत सत्कार पाकर मुनि ने पूछा,,
विभाण्डक मुनि बोले ;- ‘तुम किसके गोपालक हो?' तब उन सबने निकट आकर कहा,,
गोपालक बोले ;- ‘यह सारा धन आपके पुत्र का ही है’। देश-देश में सम्मानित हो वे ही मधुर वचन सुनते-सुनते मुनि का रजोगुणजनित अत्यधिक क्रोध बिल्कुल शान्त हो गया। वे प्रसन्नतापूर्वक राजधानी में जाकर अंगराज से मिले। नरश्रेष्ठ लोमपाद से पूजित हो मुनि ने अपने पुत्र को उसी प्रकार ऐश्वर्य सम्पन्न देखा, जैसे देवराज इन्द्र स्वर्गलोक में देखे जाते हैं। पुत्र के पास ही उन्होंने बहू शान्ता को भी देखा, जो विद्युत के समान उद्भासित हो रही थी। अपने पुत्र के अधिकार में आये हुए ग्राम, घोष और बहू शान्ता को देखकर उनका महान कोप शान्त हो गया।
युधिष्ठिर! उस समय विभाण्डक मुनि ने राजा लोमपाद पर बड़ी कृपा की। सूर्य और अग्नि के समान प्रभावशाली महर्षि ने अपने पुत्र को वहाँ छोड़ दिया और कहा,,
विभाण्डक मुनि बोले ;- ‘बेटा! पुत्र उत्पन्न हो जाने पर इन अंगराज के सारे प्रिय कार्य सिद्ध करके फिर वन में ही आ जाना।' ऋष्यशृंग ने पिता की आज्ञा का अक्षरश: पालन किया। अन्त में पुन: उसी आश्रम में चले गये, जहाँ उनके पिता रहते थे। नरेन्द्र! शान्ता उसी प्रकार अनुकूल रहकर उनकी सेवा करती थी, जैसे आकाश में रोहिणी चन्द्रमा की सेवा करती है अथवा जैसे सौभग्यशालिनी अरुन्धती वसिष्ठ जी की, लोपामुद्रा अगस्त्य जी की, दमयन्ती नल की तथा शची वज्रधारी इन्द्र की सेवा करती हैं। युधिष्ठिर! जैसे नारायणी इन्द्रसेना सदा महर्षि मुद्गल के अधीन रहती थी तथा पाण्डुनन्दन! जैसे सीता महात्मा दशरथनन्दन श्रीराम के अधीन रही हैं और द्रौपदी सदा तुम्हारे वश में रहती आयी है, उसी प्रकार शान्ता भी सदा अधीन रहकर वनवासी ऋष्यशृंग की प्रसन्नतापूर्वक सेवा करती थी। उनका यह पुण्यमय आश्रम, जो पवित्र कीर्ति से युक्त है, इस महान कुण्ड की शोभा बढ़ाता हुआ प्रकाशित हो रहा है। राजन! यहाँ स्नान करके शुद्ध एवं कृतकृत्य होकर अन्य तीथों की यात्रा करो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में ऋष्यशृंगोपाख्यान विषयक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ चौदहवाँ अध्याय
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वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
एक सौ पंद्रहवाँ अध्याय
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