सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के एक सौ छःवें अध्याय से एक सौ दशवें अध्याय तक (From the 106 to the 110 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ छःवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडधिकशततमोअध्‍याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा सगर का संतान के लिये तपस्‍या करना और शिव जी के द्वारा वरदान पाना"

  लोमश जी कहते हैं ;- राजन्! तब लोक पितामह ब्रह्माजी ने अपने पास आये हुए सब देवताओं से कहा,

   ब्रह्मा जी बोले ;- ‘देवगण! इस समय तुम सब लोग इच्‍छानुसार अभीष्‍ट स्‍थान को चले जाओ। अब दीर्घकाल के पश्‍चात समुद्र फिर अपनी स्‍वाभाविक अवस्‍था में आ जायेगा। महाराज भगीरथ अपने कुटुम्‍बीजनों के उद्धार का उद्देश्‍य लेकर जलनिधि समुद्र को पुन: अगाध जल-राशि से भर देंगे।' ब्रह्माजी की यह बात सुनकर सम्‍पूर्ण श्रेष्‍ठ देवता अवसर की प्रतीक्षा करते हुए जैसे आये थे, वैसे ही चले गये।

    युधिष्ठिर ने पूछा ;- ब्रह्मन्! भगीरथ के कुटुम्बीजन समुद्र की पूर्ति में निमित्त क्‍योंकर बने? मुने! उनके निमित्त बनने का कारण क्‍या है? और भगीरथ के आश्रय से किस प्रकार समुद्र की पूर्ति हुई? तपोधन! विप्रवर! मैं यह प्रसंग जिसमें राजाओं के उत्तम चरित्र का वर्णन है, आपके मुख से विस्‍तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ।

   वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;– जनमेजय! महात्‍मा धर्मराज के इस प्रकार पूछने पर विप्रवर लोमश ने महात्‍मा राजा सगर का माहात्‍मय बतलाया। 

   लोमश जी बोले ;– राजन्! इक्ष्‍वाकु वश में सगर नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। वे रूप, धैर्य और बल से सम्‍पन्‍न तथा बड़े प्रतापी थे, परंतु उनके कोई पुत्र न था। भारत! उन्‍होंने हैहय तथा तालजंग नामक क्षत्रियों का संहार करके सब राजाओं को अपने वश में कर लिया और अपने राज्‍य का शासन करने लगे। भरतश्रेष्‍ठ! राजा सगर की दो पत्नियां थीं, वैदर्भी और शैब्‍या। उन दानों को ही अपने रूप और यौवन का बड़ा अभिमान था। राजेद्र! राजा सगर अपनी दोनों पत्नियों के साथ कैलाश पर्वत पर जाकर पुत्र की इच्‍छा से बड़ी तपस्‍या करने लगे। योगयुक्‍त होकर महान् तप में लगे हुए महाराज सगर को त्रिपुरनाशक, त्रिनेत्रधारी, शंकर, भव, ईशान, शूलपाणि, पिनाकी, त्र्यम्‍बक, उग्रेश, बहुरूप और उमापति आदि नामों से प्रसिद्ध महात्‍मा भगवान शिव का दर्शन हुआ। वरदायक भगवान शिव को देखते ही महाबाहु राजा सगर ने दोनों पत्नियों सहित प्रणाम किया और पुत्र के लिये याचना की। तब भगवान शिव ने प्रसन्‍न होकर पत्‍नी सहित नृपश्रेष्‍ठ सगर से कहा,,

    शिव जी बोले ;- ‘राजन्! तुमने यहाँ जिस मुहूर्त में वर मांगा है, उसका परिणाम यह होगा। नरश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारी एक पत्‍नी के गर्भ से अत्‍यन्‍त अभिमानी साठ हजार शूरवीर पुत्र होंगे, परंतु वे सब के सब एक ही साथ नष्‍ट हो जायेंगे। भूपाल! तुम्‍हारी जो दूसरी पत्‍नी है, उसके गर्भ से एक ही शूरवीर वंशधर पुत्र उत्‍पन्‍न होगा।' ऐसा कहकर भगवान शंकर वहीं अन्‍तर्धान हो गये। राजा सगर भी अत्‍यन्‍त प्रसन्‍नचित्त हो पत्नियों सहित अपने निवास स्‍थान को चले गये।

     नरश्रेष्‍ठ! तदनन्तर उनकी वे दोंनों कमलनयनी पत्नियाँ वैदर्भी और शैब्‍या गर्भवती हुईं। फिर समय आने पर वैदर्भी ने अपने गर्भ से एक तूँबी उत्‍पन्‍न की और शैब्‍या ने देवता के समान सुन्‍दर रूप वाले एक पुत्र को जन्‍म दिया। राजा सगर ने उस तूँबी को फेंक देने का विचार किया। इसी समय आकाश से एक गम्‍भीर वाणी सुनायी दी- ‘राजन्! ऐसा दु:साहस न करो। अपने इन पुत्रों का त्‍याग करना तुम्‍हारे लिये उचित नहीं है। इस तूँबी में से एक–एक बीज निकाल कर घी से भरे हुए गरम घड़ों में अलग–अलग रखो और यत्‍नपूर्वक इन सबकी रक्षा करो। पृथ्‍वीपते! ऐसा करने से तुम्‍हें साठ हजार पुत्र प्राप्‍त होंगे। नरश्रेष्‍ठ! महादेव जी ने तुम्‍हारे लिये इसी क्रम से पुत्र जन्‍म होने का निर्देश किया है, अत: तुम्‍हें कोई अन्‍यथा विचार नहीं होना चाहिये।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में सगरसंतति वर्णन विषयक एक सौ छ:वाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ सातवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"सगर के पुत्रों की उत्पत्ति, साठ हजार सगरपुत्रों का कपिल की क्रोधाग्नि से भस्म होना, असमंजस का परित्याग, अंशुमान के प्रयत्न से सगर के यज्ञ की पूर्ति, अंशुमान से दिलीप को और दिलीप से भगीरथ को राज्य की प्राप्ति"

   लोमश जी कहते हैं ;– भरतश्रेष्ठ यह आकाशवाणी सुनकर भूपालशिरोमणी राजा सगर ने उस पर विश्वास करके उसके कथनानुसार सब कार्य किया। नरेश एक-एक बीज को अलग करके सब को घी से भरे हुए घड़ों में रखा। फिर पुत्रों की रक्षा के लिए तत्पर हो सब के लिये पृथक-पृथक धायें नियुक्त कर दीं। तदन्तर दीर्घ काल के पश्चात उस अनुपम तेजस्वी नरेश के साठ हजार महाबली पुत्र उन घड़ों में से निकल आये।

   युधिष्ठिर! राजर्षि‍ सगर के वे सभी पुत्र भगवान शिव की कृपा से ही उत्पन्न हुए थे। वे सब के सब भयंकर स्वभाव वाले और क्रूरकर्मा थे। आकाश में भी सब ओर घूम-फिर सकते थे। उनकी संख्या अधिक होने के कारण वे देवताओं सहित सम्पूर्ण लोकों की अवहेलना करते थे। समरभूमि में शोभा पाने वाले वे शूरवीर राजकुमार देवताओं, गन्धर्वों, राक्षसों तथा सम्पूर्ण प्राणियों को कष्‍ट दिया करते थे। मन्दबुद्धि सगरपुत्रों द्वारा सताये हुए सब लोग सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्माजी की शरण में गये। उस समय सर्वलोकपितामह महाभाग ब्रह्मा ने उनसे कहा,,

    ब्रह्मा जी बोले ;– 'देवताओ। तुम सभी इन सब लोगों के साथ जैसे आये हो, वैसे लौट जाओ। अब थोड़े ही दिनों में अपने ही किये हुए अपराधों द्वारा इन सगरपुत्रों का अत्यन्त घोर और महान संहार होगा।'

   नरेश्वर! उनके ऐसा कहने पर सब देवता तथा अन्य लोग ब्रह्माजी की आज्ञा ले जैसे आये थे, वैसे लौट गये। भरतश्रेष्‍ठ! तदन्तर बहुत समय बीत जाने पर पराक्रमी राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा ली। राजन! उनका यज्ञिय अश्व उनके अत्यन्त उत्साही सभी पुत्रों द्वारा सुरक्षित हो स्वच्छन्द गति से पृथ्वी पर विचरने लगा। जब वह अश्व भयंकर दिखायी देने वाले जलशून्य समुद्र के तट पर आया, तब प्रयत्नपूर्वक रक्षि‍त होने पर भी वहाँ सहसा अदृश्य हो गया। तात! तब उस उत्तम अश्व को अपहृत जानकर सगरपुत्रों ने पिता के पास आकर कहा,,

   सगरपुत्र बोले ;– 'हमारे यज्ञिय अश्व को किसी ने चुरा लिया, अब वह दिखायी नहीं देता।' यह सुनकर राजा सगर ने कहा,,

   राजा सगरबोले ;– 'तुम सब लोग समुद्र, वन और द्वीपों सहित सारी पृथ्वी पर विचरते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में जाकर उस अश्व का पता लगाओ।'

    महाराज! तदनन्तर वे पिता की आज्ञा ले इस सम्पूर्ण भूतल में सभी दिशाओं में अश्व की खोज करने लगे। खोजते-खोजते सभी सगरपुत्र एक-दूसरे से मिले, परंतु वे अश्व तथा अश्वहर्ता का पता न लगा सके। तब वे पिता के पास आकर उनके आगे हाथ जोड़कर बोले,,

   सगरपुत्र बोले ;– 'महाराज! हमने आपकी आज्ञा से समुद्र, वन, द्वीप, नदी, नद, कन्दरा, पर्वत और वन्य प्रदेशों सहित सारी पृथ्वी खोज डाली, परंतु हमें न तो अश्व मिला, न उसको चुराने वाला ही।' युधिष्ठिर! उनकी बात सुनकर राजा सगर क्रोध से मूर्च्छित हो उठे और उस समय दैववश उन सबसे इस प्रकार बोले,,

   राजा सगर बोले ;- 'जाओ, लौटकर न आना। पुन: घोड़े का पता लगाओ। पुत्रो! उस यज्ञ के अश्व को लिये बिना वापस न आना।' पिता का वह संदेश शिरोधार्य करके सगरपुत्रों ने फिर सारी पृथ्वी पर अश्व को ढूंढना आरम्भ किया। तदनन्तर उन वीरों ने एक स्थान पर पृथ्वी में दरार पड़ी देखी।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-41 का हिन्दी अनुवाद)

    उस बिल के पास पहुँच कर सगरपुत्रों ने कुदालों और फावड़ों से समुद्र को प्रयत्नपूर्वक खोदना आरम्भ किया। एक साथ लगे हुए सगरकुमारों के खोदने पर सब ओर से विदीर्ण होने वाले समुद्र को बड़ी पीड़ा का अनुभव होता था। सगर पुत्रों के हाथों मारे जाते हुए असुर, नाग, राक्षस और नाना प्रकार के जन्तु बड़े जोर से आर्तनाद करते थे। सैकड़ों और हजारों ऐसे प्राणी दिखायी देने लगे, जिनके मस्तक कट गये थे, शरीर छिन्न-भिन्न हो गये थे, चमड़े छिल गये थे तथा हड्डीयों के जोड़ टूट गये थे। इस प्रकार वरुण के निवासभूत समुद्र की खुदाई करते-करते उनका बहुत समय बीत गया, परंतु वह अश्व कहीं दिखायी नहीं दिया। राजन! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए सगरपुत्रों ने समुद्र के पूर्वोत्तर प्रदेश में पाताल फोड़कर प्रवेश किया और वहाँ उस यज्ञिय अश्व को पृथ्वी पर विचरते देखा। वहीं तेज की परम उत्तम राशि महात्मा कपिल बैठे थे, जो अपने दिव्य तेज से उसी प्रकार उद्भासित हो रहे थे, जैसे लपटों से अग्नि। राजन! उस अश्व को देखकर उनके शरीर में हर्षजनित रोमांच हो आया। वे काल से प्रेरित हो क्रोध में भरकर महात्मा कपिल का अनादर करके उस अश्व को पकड़ने के लिए दौड़े। महाराज! तब मुनिश्रेष्‍ठ कपिल कुपित हो उठे।

    मुनिप्रवर कपिल वे ही भगवान विष्‍णु हैं, जिन्हें वासुदेव कहते हैं। उन महातेजस्वी ने विकराल आंखें करके अपना तेज उन पर छोड़ दिया और मन्दबुद्धि सगरपुत्रों कों जला दिया। उन्हें भस्म हुआ देख महातपस्वी नारद जी राजा सगर के समीप आये और उनसे सब समाचार निवेदित किया। मुनि के मुख से निकले हुए इस घोर वचन को सुनकर राजा सगर दो घड़ी तक अनमने हो महादेव जी के कथन पर विचार करते रहे। पुत्र की मृत्युजनित वेदना से अत्यन्त दु:खी हो स्वयं ही अपने आपको सान्त्वना दे उन्होंने अश्व को ही ढूंढने का विचार किया। भरतश्रेष्‍ठ! तदनन्तर असमंजस के पुत्र अपने पौत्र अंशुमान को बुलाकर यह बात कही,,

   राजा सगर बोले ;– 'तात! मेरे अमित तेजस्वी साठ हजार पुत्र मेरे ही लिये महर्षि‍ कपिल की क्रोधाग्नि में पड़कर नष्‍ट हो गये। अनध! पुरवासियों के हित की रक्षा रखकर धर्म की रक्षा करते हुए मैंने तुम्हारे पिता को भी त्याग दिया है।'

   युधिष्ठिर ने पूछा ;- तपोधन नृपश्रेष्ठ सगर ने किसलिये अपने दुस्त्यज वीर पुत्र का त्याग किया था, यह मुझे बताइये।

   लोमश जी ने कहा;- राजन! सगर का वह पुत्र जिसे रानी शैब्या ने उत्पन्न किया था, असमंजस के नाम से विख्यात हुआ। वह जहाँ-तहाँ खेलकूद में लगे हुए पुरवासियों के दुर्बल बालकों के समीप सहसा पहूंच जाता और चीखते-चिल्लाते रहने पर भी उसका गला पकड़कर उन्हें नदी में फेंक देता था। तब समस्त पुरवासी भय और शोक में मग्‍न हो राजा सगर के पास आये और हाथ जोड़े खड़े हो इस प्रकार कहने लगे,,

   पुरवासी बोले ;- 'महाराज! आप शत्रुसेना आदि के भय से हमारी रक्षा करने वाले हैं। अत: असमंजस के घोर भय से आप हमारी रक्षा करें।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 42-62 का हिन्दी अनुवाद)

    पुरवासियों का यह भयंकर वचन सुनकर नृपश्रेष्‍ठ सगर दो घड़ी तक अनमने होकर बैठे रहे। फिर मन्त्रियों से इस प्रकार बोले,,

   राजा सगर बोले ;- 'आज मेरे पुत्र असमंजस को मेरे घर से बाहर निकाल दो। यदि तुम्हें मेरा प्रिय कार्य करना है तो मेरी इस आज्ञा का शीघ्र पालन होना चाहिये।'

   राजन! महाराज सगर के ऐसा कहने पर मन्त्रियों ने शीघ्र वैसा ही किया, जैसा उनका आदेश था। युधिष्ठिर! पुरवासियों के हित चाहने वाले महात्मा सगर ने जिस प्रकार अपने पुत्र को निर्वासित किया था, वह सब प्रसंग मैंने तुम से कह सुनाया। अब महाधनुर्धर अंशुमान से राजा सगर ने जो कुछ कहा, वह सब तुम्हें बता रहा हूँ, मेरे मुख से सुनो।

   सगर बोले ;- 'बेटा! तुम्हारे पिता को त्याग देने से, अन्य पुत्रों की मृत्यु हो जाने से तथा यज्ञसम्बंधी अश्व के न मिलने से मैं सर्वथा संतप्त हो रहा हूँ। अत: पौत्र! यज्ञ में विघ्न पड़ जाने से मैं मोहित और दु:ख से संतप्त हूँ, तुम अश्व को ले आकर नरक से मेरा उद्धार करो।' महात्मा सगर के ऐसा कहने पर अंशुमान बड़े दु:ख से उस स्थान पर गये, जहाँ पृथ्वी विदीर्ण की गयी थी। उन्होंने उसी मार्ग से समुद्र में प्रवेश किया और महात्मा कपिल तथा यज्ञिय अश्व को देखा। तेजोराशि मुनिप्रवर पुराणपुरुष कपिल जी का दर्शन करके अंशुमान ने धरती पर माथा टेककर प्रणाम किया और उनसे अपना कार्य बताया। भरतवंशी महाराज! इससे धर्मात्मा कपिल जी अंशुमान पर प्रसन्न हो गये और बोले,,

    कपिल मुनि जी बोले ;- 'मैं तुम्हें वर देने को उद्यत हूँ।' अंशुमान ने पहले तो यज्ञ कार्य की सिद्धि के लिये वहाँ उस अश्व के लिये प्रार्थना की और दूसरा वर अपने पितरों को पवित्र करने की इच्छा से मांगा।

   तब मुनिश्रेष्ठ महातेजस्वी कपिल ने अंशुमान से कहा,,

   कपिल मुनि बोले ;- 'अनध! तुम्हारा कल्याण हो। तुम जो कुछ मांगते हो, वह सब तुम्हें दूंगा। तुम में क्षमा, धर्म और सत्य सब कुछ प्रतिष्‍ठि‍त है। तुम जैसे पौत्र को पाकर राजा सगर कृतार्थ हैं और तुम्हारे पिता तुम्हीं से वस्तुत: पुत्रवान हैं। तुम्हारे ही प्रभाव से सगर के सारे पुत्र जो मेरी क्रोधाग्नि में शलभ की भाँति भस्म हो गये हैं, स्वर्गलोक में चले जायेंगे। तुम्हारा पौत्र भगवान शंकर को संतुष्‍ट करके सगरपुत्रों को पवित्र करने के लिये स्वर्गलोक से यहाँ गंगाजी को ले आयेगा। नरश्रेष्‍ठ! तुम्हारा भला हो। तुम इस यज्ञिय अश्व को ले जाओ। तात! महात्मा सगर का यज्ञ पूर्ण करो।'

    महात्मा कपिल के ऐसा कहने पर अंशुमान उस अश्व को लेकर महामना सगर के यज्ञमण्डप में आये और उनके चरणों में प्रणाम करके उनसे सब समाचार निवेदन किया। सगर ने भी स्नेह से अंशुमान का मस्तक सूंघा। अंशुमान ने सगरपुत्रों का विनाश जैसा देखा और सुना था, वह सब बताया, साथ ही यह भी कहा कि यज्ञिय अश्व यज्ञमण्डप में आ गया है। यह सुनकर राजा सगर ने पुत्रों के मरने का दु:ख त्याग दिया और अंशुमान की प्रशंसा करते हुए उस यज्ञ को पूर्ण किया। यज्ञ पूर्ण हो जाने पर सब देवताओं ने सगर का बड़ा सत्कार किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 63-70 का हिन्दी अनुवाद)

   कमल के समान नेत्रों वाले सगर ने वरुणालय समुद्र को अपना पुत्र माना और दीर्घ काल तक राज्य शासन करके अन्त में अपने पौत्र अंशुमान पर राज्य का सारा भार रखकर वे स्वर्गलोक को चले गये।

    महाराज! धर्मात्मा अंशुमान भी अपने पितामाह सगर के समान ही समुद्र से घि‍री हुई इस वसुधा का पालन करते रहे। उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम दिलीप था। वह भी धर्म का ज्ञाता था। दिलीप को राज्य देकर अंशुमान भी परलोकवासी हुए।

     दिलीप ने जब अपने पितरों के महान संहार का समाचार सुना, तब वे दु:ख से संतप्त हो उठे और उनकी सद्गति का उपाय सोचने लगे। राजा दिलीप ने गंगाजी को इस भूतल पर उतारने के लिये महान प्रयत्न किया। यथाशक्ति चेष्‍टा करने पर भी वे गंगा को पृथ्वी पर उतार न सके।

    दिलीप के भगीरथ नाम से विख्यात एक पुत्र हुआ, जो परम कान्तिमान, धर्मपरायण, सत्यवादी और अदोषदर्शी था। सत्यधर्मपरायण महात्मा भगीरथ का राज्याभिषेक करके दिलीप वन में चले गये।

   भरतश्रेष्‍ठ! राजा दिलीप तपस्याजनक सिद्धि से संयुक्त हो अन्त काल आने पर वन से स्वर्गलोक को चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्य माहात्म्य वर्णन विषयक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ आठवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्‍टाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"भगीरथ का हिमालय पर तपस्या द्वारा गंगा और महादेव जी को प्रसन्न करके उनसे वर प्राप्त करना"

   लोमश जी कहते हैं ;- राजन! महान धनुर्धर महारथी राजा भगीरथ चक्रवर्ती नरेश थे। वे सब लोगों के मन और नेत्रों को आनन्द प्रदान करने वाले थे। नरेश्वर! उन महाबाहु ने जब सुना कि महात्मा कपिल द्वारा हमारे (साठ हजार) पितरों की भयंकर मृत्यु हुई है और वे स्वर्ग प्राप्ति से वंचित रह गये हैं, तब उन्होंने व्‍यथि‍त हृदय से अपना राज्य मंत्री को सौंप दिया और स्वयं हिमालय के शिखर पर तपस्या करने के लिये प्रस्थान किया। नरश्रेष्‍ठ! तपस्या से सारा पाप नष्‍ट करके वे गंगाजी की आराधना करना चाहते थे। उन्होंने देखा कि गिरिराज हिमालय विविध धातुओं से विभूषि‍त नाना प्रकार के शिखरों से अलंकृत है। वायु के आधार पर उड़ने वाले मेघ चारों ओर से उसका अभिषेक कर रहे हैं। अनेकानेक नदियों, निकुंजों, घाटियों और प्रासादों (मन्दिरों) से इसकी बड़ी शोभा हो रही है। गुफाओं और कन्दराओं में छिपे हुए सिंह तथा व्याघ्रों से यह पर्वत सदा सेवित होता है।
    भाँति-भाँति के कलरव करते हुए विचित्र अंगों वाले पक्षी, भृंगराज, हंस, चातक, जलमुर्ग, मोर, शतपत्र नामक पक्षी, चक्रवाक, कोकिल, चकोर, असितापांग और पुत्रप्रिय आदि इस पर्वत की शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ के रमणीय जलाशयों में पद्मसमूह भरे हुए हैं। सारसों के मधुर कलरव उस पर्वतीय प्रदेश को सुशोभित कर रहे हैं। हिमालय की शिलाओं पर किन्नर और अप्सरायें बैठी हैं। वहाँ के वृक्षों पर चारों ओर से दिग्गजों के दांतों की रगड़ दिखायी देती है। हिमालय के इन शिखरों पर विद्याधरगण विचर रहे हैं। नाना प्रकार के रत्न सब ओर व्याप्त हैं। प्रज्वलित जिह्वा वाले भयंकर विषधर सर्प इस गिरी प्रदेश का सेवन करते हैं। यह शैलराज कहीं तो सुवर्ण के समान उद्भासित होता है, कहीं चांदी के समान चमकता है और कहीं जलराशि के समान काला दिखायी देता है। नरश्रेष्‍ठ भगीरथ उस हिमालय पर्वत पर गये और घोर तपस्या में लग गये। उन्होंने सहस्र वर्षों तक फल, मूल और जल का आहार किया एक हजार दिव्य वर्ष बीत जाने पर महान नदी गंगा ने स्वयं साकार होकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। 
   गंगाजी ने कहा ;- 'महाराज तुम मुझसे क्या चाहते हो, मैं तुम्हें क्या दूँ? नरश्रेष्‍ठ बताओ, मैं तुम्हारी याचना पूर्ण करूँगी।'
      राजन! उनके ऐसा कहने पर राजा भगीरथ ने हिमालयनन्दिनी गंगा को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा,,
   भगीरथ बोले ;- 'वरदायिनी महानदी! मेरे पितामह यज्ञसम्बंधी अश्व का पता लगाते हुए कपिल के कोप से यमलोक को जा पहूंचे हैं। वे सब राजा सगर के पुत्र थे और उनकी संख्या साठ हजार थी। भगवान कपिल के निकट जाकर वे सब-के-सब क्षण भर में भस्म हो गये। इस प्रकार दुर्मृत्यु से मरने के कारण उन्हें स्वर्ग में निवास नहीं प्राप्त हुआ है। महानदी! जब तक तुम अपने जल से उनके भस्म हुए शरीरों को सींच न दोगी, तब तक उन सगरपुत्रों की सद्गति नहीं हो सकती। महानदी! मेरे पितामह सगरकुमारों को स्वर्ग में पहुँचा दो। महानदी! मैं उन्हीं के उद्धार के लिये तुम से याचना करता हूँ।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्‍टाधिकशततमोअध्‍याय के श्लोक 21-26 का हिन्दी अनुवाद)

   लोमश जी कहते हैं ;– राजन! राजा भगीरथ की यह बात सुनकर विश्ववन्दिता गंगा अत्यन्त प्रसन्न हुईं और उनसे इस प्रकार बोली,,
   गंगा जी बोली ;- 'महाराज! मैं तुम्हारी बात मानूंगी, इसमें संशय नहीं हैं; परंतु आकाश से पृथ्वी पर गिरते समय मेरे वेग को रोकना बहुत कठिन है।
    राजन! देवश्रेष्ठ महेश्वर नीलकण्ठ को छोड़कर तीनों लोकों मे कोई भी मेरा वेग धारण नहीं कर सकता।
  महाबाहो! तुम तपस्या द्वारा उन्हीं वरदायक भगवान शिव को संतुष्‍ट करो। स्वर्ग से गिरते समय वे ही मुझे अपने मस्तक पर धारण करेंगे।विश्वभावन भगवान शंकर तपस्या द्वारा आराधना करने पर तुम्हारे पितरों के हित की इच्छा से अवश्य तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करेंगे।'
    राजन! यह सुनकर महाराज भगीरथ कैलाश पर्वत पर गये और वहाँ उन्होंने तीव्र तपस्या करके कुछ समय के बाद भगवान शंकर को प्रसन्न किया।
    नरेश्वर! गंगाजी की प्रेरणा के अनुसार नरश्रेष्ठ भगीरथ ने अपने पितरों को स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने के उदेश्य से महादेव जी से गंगाजी के वेग को धारण करने के लिए वर की याचना की।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोशमतीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्योपाख्यान विषयक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ नवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"पृथ्वी पर गंगाजी के उतरने और समुद्र को जल से भरने का विवरण तथा सगरपुत्रों का उद्धार"

  लोमश जी कहते हैं ;–  राजन! राजा भगीरथ की बात सुनकर देवताओं का प्रिय करने के लिये भगवान शिव ने कहा,,
   भगवान शिव बोले ;- 'एवमस्तु' महाभाग! मैं तुम्हारे लिये आकाश से गिरती हुई कल्याणमयी पुण्यस्वरूपा दिव्य देवनदी गंगा को अवश्य धारण करूँगा।' महाबाहो! ऐसा कहकर भगवान शिव भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित अपने भयंकर पार्षदों से घि‍रे हुए हिमालय पर आये। वहाँ ठहर कर उन्होंने नरश्रेष्‍ठ भगीरथ से कहा,,
   शिव जी बोले ;- 'महाबाहो! गिरिराजनन्दिनी महानदी गंगा से भूतल पर उतरने के लिए प्रार्थना करो। नरेश्वर! मैं तुम्हारे पितरों को पवित्र करने के लिए स्वर्ग से उतरती हुई सरिताओं में श्रेष्‍ठ गंगा को सिर पर धारण करूँगा।'
     भगवान शंकर की कही हुई बात सुनकर राजा भगीरथ ने एकाग्रचित्त हो प्रणाम करके गंगाजी का चिन्तन किया। राजा के चिन्तन करने पर भगवान शंकर को खड़ा हुआ देख पुण्यसलिता रमणीय नदी गंगा सहसा आकाश से नीचे गिरीं। उन्हें गिरती देख दर्शन के लिए उत्सुक हो महर्षियों सहित देवता, गन्धर्व, नाग और यक्ष वहाँ आ गये। तदनन्तर हिमालयनन्दिनी गंगा आकाश से वहाँ आ गिरीं। उस समय उनके जल में बड़ी-बड़ी भंवरें और तरंगें उठ रही थीं। मत्स्य और ग्राह भरे हुए थे। राजन! आकाश की मेखलारूप गंगा को भगवान शिव ने अपने ललाट देश में पड़ी हुई मोतियों की माला की भाँति धारण कर लिया। महाराज! नीचे गिरती हुई फेनपुंज से व्याप्त हुए जल वाली समुद्रगामिनी गंगा तीन धाराओं में बंटकर हंसों की पंक्तियों के समान सुशोभित होने लगी। वह मतवाली स्त्री की भाँति इस प्रकार आयी कि कहीं तो सर्प शरीर की भाँति कुटिल गति से बहती थी और कहीं-कहीं ऊंचे से नीचे गिरकर चट्टानों से टकराती जाती थी एवं श्वेत वस्त्रों के समान प्रतीत होने वाले फेनपुंज उसे आच्छादित किये हुए थे। कहीं-कहीं वह जल के कलकल नाद से उत्तम संगीत-सा गा रही थी। इस प्रकार अनेक रूप धारण करने वाली गंगा आकाश से गिरी और भूतल पर पहूंच कर राजा भगीरथ से बोली,,
  गंगा जी बोली ;- 'महाराज! रास्ता दिखाओ मैं किस मार्ग से चलूं? पृथ्वीपते! तुम्हारे लिये ही मैं इस भूतल पर उतरी हूँ।'
     यह सुनकर राजा भगीरथ जहाँ राजा सगर के पुत्रों के शरीर पड़े थे, वहाँ गंगाजी के पावन जल से उन शरीरों को प्लावित करने के लिए उस स्थान से प्रस्थित हुए। विश्ववन्दित भगवान शंकर गंगाजी को सिर पर धारण करके देवताओं के साथ पर्वतश्रेष्‍ठ कैलाश को चले गये। राजा भगीरथ ने गंगाजी के साथ समुद्र तट पर जाकर वरुणालय समुद्र को बड़े वेग से भर दिया और गंगाजी को अपनी पुत्री बना लिया। तत्पश्चात वहाँ उन्होंने पितरों के लिए जलदान किया और पितरों का उद्धार होने से वे सफल मनोरथ हो गये।
   युधिष्ठिर! जिस प्रकार गंगा त्रिपथगा ( स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी पर गमन करने वाली) हुई, वह सब प्रसंग मैंने तुम्हें सुना दिया। महाराज! समुद्र को भरने के लिये ही गंगा पृथ्वी पर उतारी गयी थी। राजन! देवताओं ने कालकेय नामक दैत्यौं को जिस प्रकार मार गिराया और कारणवश महात्मा अगस्त्य ने जिस प्रकार समुद्र पी लिया तथा उन्होंने ब्राह्मणों की हत्या करने वाले वातापि नामक दैत्य को जिस प्रकार नष्‍ट किया, वह सब प्रसंग, जिसके वि‍षय में तुमने पूछा था, मैंने बता दिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्यमाहात्म्य कथन वि‍षयक एक सौ नवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

एक सौ दशवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"नन्दा तथा कौशिकी का माहात्म्य, ऋष्यशृंग मुनि का उपाख्यान और उनको अपने राज्य में लाने के लिये राजा लोमपाद का प्रयत्न"

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्‍ठ! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठि‍र क्रमश: आगे बढ़ने लगे। उन्होंने पाप और भय का निवारण करने वाली नन्दा और अपरनन्दा- इन दो नदियों की यात्रा की। तत्पश्चात रोग-शोक से रहित हेमकूट पर्वत पर पहुँच कर राजा युधिष्ठि‍र ने वहाँ बहुत-सी अचिन्त्य एवं अद्भुत बातें देखीं। वहाँ वायु का सहारा लिये बिना ही बादल उत्पन्न हो जाते और अपने आप हजारों पत्थर (ओले) पड़ने लगते थे। जिनके मन में खेद भरा होता था, ऐसे मनुष्‍य उस पर्वत पर चढ़ नहीं सकते थे। वहाँ प्रतिदिन हवा चलती ओर रोज-रोज मेघ वर्षा करता था। वेदों के स्वाध्याय की ध्वनि तो सुनायी पड़ती, परंतु स्वाध्याय करने वाले का दर्शन नहीं होता था। सायंकाल और प्रात:काल भगवान अग्निदेव प्रज्वलित दिखायी देते थे। तपस्या में विघ्न डालने वाली मक्खियां वहाँ लोगों को डंक मारती रहती थीं, अत: वहाँ विरक्ति होती और लोग घरों की याद करने लगते थे।

     इस प्रकार बहुत-सी अद्भुत बातें देखकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने लोमश जी से पुन: इस अद्भुत अवस्था के विषय में पूछा। 
   युधिष्ठिर ने कहा ;- 'महातेजस्वी भगवन! इस परम तेजोमय पर्वत पर जो ये आश्चर्यजनक बातें होती हैं, इसका क्या रहस्य है? यह सब विस्तारपूर्क मुझे बताइये।' 
   तब लोमश जी ने कहा ;- 'शत्रुसूदन! हमने पूर्वकाल में जैसा सुन रखा है, वैसा बताया जाता है। तुम एकाग्रचित्त हो मेरे मुख से इसका रहस्य सुनो।
    पहले की बात है, इस ऋषभकूट पर ऋषभ नाम से प्रसिद्ध एक तपस्वी रहते थे। उनकी आयु कई सौ वर्षों की थी। वे तपस्वी होने के साथ ही बड़े क्रोधी थे। उन्होंने दूसरों के बुलाने पर कुपित होकर उस पर्वत से कहा,,
    तपस्वी बोले ;- 'जो कोई यहाँ पर बातचीत करे, उस पर तू ओले बरसा।' इसी प्रकार वायु को भी बुलाकर उन तपस्वी मुनि ने कहा,
   तपस्वी ने कहा ;- 'देखो, यहाँ किसी प्रकार का शब्द नहीं होना चाहिये।' तब से जो कोई पुरुष यहाँ बोलता है, उसे मेघ की गर्जना द्वारा रोका जाता है। राजन! इस प्रकार उन महर्षि ‍ने ही ये अदभूत कार्य किये है। उन्होंने क्रोधवश कुछ कार्यों का विधान और कुछ बातों का नि‍षेध कर दिया है।
   राजन! यह सुना जाता है कि प्राचीन काल में देवता लोग नन्दा के तट पर आये थे, उस समय उनके दर्शन की इच्छा से बहुतेरे मनुष्‍य सहसा वहाँ आ पहुँचे। इन्द्र आदि देवता उन्हें दर्शन देना नहीं चाहते थे, अत: विघ्नस्वरूप इस पर्वतीय प्रदेश को उन्‍होंने जनसाधारण के लिये दुर्गम बना दिया। कुन्तीनन्दन! तभी से साधारण मनुष्‍य इस पर्वत को देख भी नहीं सकते, चढ़ना तो दूर की बात है। कुन्तीकुमार! जिसने तपस्या नहीं की है, वह मनुष्‍य इस महान पर्वत को न तो देख सकता है और न चढ़ ही सकता है; अत: मौन व्रत धारण करो। उन दिनों सम्पूर्ण देवताओं ने यहाँ आकर उत्तम यज्ञों का अनुष्‍ठान किया था। भारत! उनके ये चिह्न आज भी प्रयत्‍क्ष देखे जाते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)

   यह दूर्वा कुश के आकार की दिखायी देती है और यह भूमि ऐसी लगती है, मानो इस पर कुश बिछाये गये हों। महाराज! ये वृक्ष भी यज्ञ-यूप के समान जान पड़ते हैं। भारत! आज भी यहाँ देवता तथा ऋषि निवास करते हैं। सायंकाल और प्रात:काल यहाँ उनके द्वारा प्रज्वलित की हुई अग्नि का दर्शन होता है। कुन्तीनन्दन! इस तीर्थ में गोता लगाने वाले मानवों का सारा पाप तत्काल नष्‍ट हो जाता है। अत: कुलश्रेष्‍ठ! तुम अपने भाइयों के साथ यहाँ स्नान करो। नन्दा में गोता लगाने के पश्चात तुम्हें कौशिकी के तट पर चलना होगा, जहाँ महर्षि‍ विश्वामित्र जी ने उत्तम एवं उग्र तपस्या की थी।
    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तदनन्तर राजा युधिष्ठि‍र अपने दल-बल के साथ नन्दा में गोता लगाकर रमणीय एवं शीतलपुण्यमयी कौशिकी के तट पर गये। वहाँ लोमश जी ने कहा,,
  लोमश जी बोले ;– 'भरतश्रेष्‍ठ! यह देवताओं की नदी पुण्यसलिला कौशिकी है और यह विश्वामित्र का रमणीय आश्रम है, जो प्रकाशित हो रहा है। यहीं कश्यपगोत्रीय महात्मा विभाण्ड का 'पुण्य' नामक आश्रम है। इन्हीं के तपस्वी एवं जितेन्द्रिय पुत्र महात्मा ऋष्‍यशृंग हैं, जिन्होंने अपनी तपस्या के प्रभाव से इन्द्र द्वारा वर्षा करवायी थी। उन दिनों देश में घोर अनावृष्‍टि‍ फैल रही थी, वैसे समय मे ऋष्‍यशृंग मुनि के भय से बल और वृत्रासुर के विनाशक देवराज इन्द्र ने उस देश में वर्षा की थी। वे तेजस्वी एवं शक्तिशाली मुनि मृगी के पेट से पैदा हुए थे और कश्यपनन्दन विभाण्डक के पुत्र थे। उन्‍होंने राजा लोमपाद के राज्य में अत्यन्त अद्भुत कार्य किया था। तब वर्षा से खेती अच्छी तरह लहलहा उठी, तब राजा लोमपाद ने अपनी पुत्री शान्ता ऋष्‍यशृंग को ब्याह दी; ठीक उसी तरह, जैसे सूर्यदेव ने अपनी बेटी का ब्रह्माजी के साथ ब्याह किया था।
    युधिष्ठिर ने पूछा ;- भगवन! कश्यपनन्दन विभाण्डक के पुत्र ऋष्‍यशृंग मृगी के पेट से कैसे उत्पन्न हुए? मनुष्‍य का पशुयोनि से संसर्ग करना तो शास्त्र और व्यवहार दोनों ही दृष्‍टि‍यों से विरुद्ध है। ऐसे विरुद्ध योनि-संसर्ग से उत्पन्न हुआ बालक तपस्वी कैसे हो सका? उस बुद्धिमान बालक के भय से बल और वृत्रासुर का विनाश करने वाले देवराज इन्द्र ने अनावृष्टि के समय वर्षा कैसे की। नि‍यम ओर व्रत का पालन करने वाली राजकुमारी भी कैसी थी, जि‍सने मृगस्‍वरूप मुनि‍ का भी मन मोह लि‍या। राजर्षि लोभपाद तो बड़े धर्मात्‍मा सुने गये हैं, फि‍र उनके राज्‍य में इन्‍द्र वर्षा क्‍यों नहीं करते थे। भगवन! ये सब बातें आप वि‍स्‍तारपूर्वक यथार्थरूप से बताइये। मैं महर्षि‍ ऋष्‍यशृंग के चरि‍त्र को सुनना चाहता हूँ।
    लोमश जी ने कहा ;– राजन! ब्रह्मर्षि‍ वि‍भाण्‍डक का अन्‍त:करण तपस्‍या से पवि‍त्र हो गया था। वे प्रजापति‍ के समान तेजस्‍वी और अमोघवीर्य महात्‍मा थे। उनके प्रतापी पुत्र ऋष्‍यशृंग का जन्‍म कैसे हुआ, यह बताता हूँ सुनो। जैसे वि‍भाण्‍डक मुनि‍ परम पूजनीय थे, वैसे ही उनका पुत्र भी बड़ा तेजस्‍वी हुआ। वह बाल्‍यावस्‍था में भी वृद्ध पुरुषों द्वारा सम्‍मानि‍त होता था। कश्‍यपगोत्रीय वि‍भाण्‍डक मुनि‍ देवताओं के समान सुन्‍दर थे। वे एक बहुत बड़े कुण्‍ड में प्रविष्‍ट होकर तपस्‍या करने लगे। उन्‍होंने दीर्घकाल तक महान क्‍लेश सहन कि‍या।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) दशाधिकशततमाअध्याय के श्लोक 35-58 का हिन्दी अनुवाद)

    राजन! एक दि‍न जब वे जल में स्‍नान कर रहे थे, उर्वशी अप्‍सरा को देखकर उनका वीर्य स्‍खलि‍त हो गया। उसी समय प्‍यास से व्‍याकुल हुई एक मृगी वहाँ आयी और पानी के साथ उस वीर्य को भी पी गयी। इससे उसके गर्भ रह गया। वह पूर्वजन्‍म में एक देवकन्‍या थी। लोकसृष्‍टा भगवान ब्रह्मा ने उसे यह वचन दि‍या था कि‍ 'तू मृगी होकर एक मुनि‍ को जन्‍म देने के पश्‍चात उस योनि‍ से मुक्‍त हो जायेगी।' ब्रह्माजी की वाणी अमोघ है और दैव के वि‍धान को कोई टाल नहीं सकता, इसलि‍ये वि‍भाण्‍डक के पुत्र महर्षि‍ ऋष्‍यशृंग का जन्‍म मृगी के पेट से हुआ। वे सदा तपस्‍या में संलग्‍न रहकर वन में ही नि‍वास करते थे। राजन! उन महात्‍मा मुनि‍ के सिर पर एक सींग था, इसलि‍ये उस समय उनका ऋष्‍यशृंग नाम प्रसि‍द्ध हुआ।
     नरेश्‍वर! उन्‍होंने अपने पि‍ता के सि‍वा दूसरे मनुष्‍य को पहले कभी नहीं देखा था, इसलि‍ये उनका मन सदा स्‍वभाव से ही ब्रह्मचर्य में संलग्‍न रहता था। इन्‍हीं दि‍नों राजा दशरथ के मि‍त्र लोमपाद अंग देश के राजा हुए। उन्‍होंने जान बूझकर एक ब्राह्मण के साथ मि‍थ्‍या व्‍यवहार कि‍या, यह बात हमारे सुनने में आयी है। इसी अपराध के कारण ब्राह्मणों ने राजा लोमपाद को त्‍याग दि‍या था। राजा ने पुरोहि‍त पर मनमाना दोषारोपण कि‍या था, इसलि‍ये इन्द्र ने उनके राज्‍य में वर्षा बन्‍द कर दी। इस अनावृष्‍टि‍ के कारण प्रजा को बड़ा कष्‍ट होने लगा।
    युधिष्ठर! तब राजा ने तपस्‍वी, मेधावी और इन्‍द्र से वर्षा करवाने में समर्थ ब्राह्मणों को बुलाकर इस संकट के नि‍वारण का उपाय पूछा। 'वि‍प्रगण! मेघ कैसे वर्षा करे– यह उपाय सोचि‍ये।' उनके पूछने पर मनीषी महात्‍माओं ने अपना अपना वि‍चार बताया। उन्‍हीं ब्राह्मणों में एक श्रैष्‍ठ महर्षि‍ भी थे। उन्‍होंने राजा से कहा,,
  महर्षि बोले ;– 'राजेन्‍द्र! तुम्‍हारे ऊपर ब्राह्मण कुपि‍त हैं; इसके लि‍ए तुम प्रायश्‍चि‍त करो। भूपाल! साथ ही हम तुम्‍हें यह सलाह देते हैं कि‍ अपने राज्‍य में महर्षि‍ वि‍भाण्‍डक के पुत्र वनवासी ऋष्‍यशृंग को बुलाओ। वे स्‍त्रि‍यों से सर्वथा अपरि‍चि‍त हैं और सदा सरल व्‍यवहार में ही तत्‍पर रहते हैं। महाराज! वे महातपस्‍वी ऋष्‍यशृंग यदि‍ आपके राज्‍य में पदार्पण करें तो तत्‍काल ही मेघ वर्षा करेगा, इस वि‍षय में मुझे तनि‍क भी संदेह नहीं है।' राजन! यह सुनकर राजा लोमपाद अपने अपराध का प्रायश्‍चि‍त करके ब्राह्मणों के पास गये और जब वे प्रसन्‍न हो गये, तब पुन: अपनी राजधानी को लौट आये। राजा का आगमन सुनकर प्रजाजनों को बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्‍तर अंगराज मन्‍त्रकुशल मन्‍त्रि‍यों को बुलाकर उनसे सलाह करके एक नि‍श्‍चय पर पहुँच जाने के बाद मुनि‍कुमार ऋष्‍यशृंग को अपने यहाँ ले आने के प्रयत्‍न में लग गये।
    राजा के मंत्रि‍ शास्‍त्रज्ञ, अर्थशास्‍त्र के वि‍द्वान और नीति‍नि‍पुण थे। अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले नरेश ने उन मन्‍त्रि‍यों के साथ वि‍चार करके एक उपाय जान लि‍या। तत्‍पश्‍चात भूपाल लोमपाद ने दूसरों को लुभाने की सब कलाओं में कुशल प्रधान-प्रधान वेश्‍याओं का बुलाया और कहा,,
  लोमपाद बोले ;- 'तुम लोग कोई उपाय करके मुनि‍कुमार ऋष्‍यशृंग को यहाँ ले आओ। सुन्‍दरि‍यो! तुम लुभाकर उन्‍हें सब प्रकार से सुख सुवि‍धा का वि‍श्‍वास दि‍लाकर मेरे राज्‍य में ले आना।' महाराज की यह बात सुनते ही वेश्‍याओं का रंग फी‍का पड़ गया। वे अचेत-सी हो गयीं। एक ओर तो उन्‍हें राजा का भय था और दूसरी ओर मुनि‍ के शाप से डरी हुई थीं; अत: उन्‍होंने इस कार्य को असम्‍भव बताया। उन सब में एक बूढ़ी स्‍त्री थी। उसने राजा से इस प्रकार कहा,,
   बूढ़ी स्त्री बोली ;- 'महाराज! मैं उन तपोधन मुनि‍कुमार को लाने का प्रयत्‍न करूँगी; परंतु आप यह आज्ञा दें कि‍ मैं इसके लि‍ए मनचाही व्‍यवस्‍था कर सकूं। यदि‍ मेरी इच्‍छा पूर्ण हुई तो मैं मुनि‍पुत्र ऋष्‍यशृंग को यहाँ लाने मैं सफल हो सकूंगी।' राजा ने उसकी इच्‍छा के अनुसार व्‍यवस्था करने की आज्ञा दे दी। साथ ही उसे प्रचुर धन और नाना प्रकार के रत्‍न भी दि‍ये। युधिष्ठर! तदनन्‍तर वह वेश्‍या रूप और यौवन से सम्‍पन्‍न स्‍त्रि‍यों को साथ लेकर शीघ्रतापूर्वक वन की ओर चल दी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में ऋष्‍यश्रृंगोपाख्‍यान वि‍षयक एक सौ दसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)


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