सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के इक्यावनवें अध्याय से पचपनवें अध्याय तक (From the 51 to the 55 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

इक्यावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"संजय का धृतराष्ट्र के प्रति श्रीकृष्णादि के द्वारा की हुई दुर्योधन के वध की प्रतिज्ञा का वृत्तान्त सुनाना"

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- पुरुषरत्न जनमेजय! पाण्डवों का वह अद्भुत एवं अलौकिक चरित्र सुनकर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र का मन चिन्ता और शोक में डूब गया। वे अत्यन्त खिन्न हो उठे और लंबी एवं गरम सांसें खींचकर अपने सारथि संजय को निकट बुलाकर बोले,,- 

   धृतराष्ट्र बोले ;- ‘सूत! मैं बीते हुए द्यूतजनित घोर अन्याय का स्मरण करके दिन तथा रात में क्षणभर भी शांति नहीं पाता। मैं देखता हूं, पाण्डवों के पराक्रम असह्य हैं। उनमें शौर्य, धैर्य तथा उत्तम धारणशक्ति है। उन सब भाइयों में परस्पर अलौकिक प्रेम है। देवपुत्र महाभाग नकुल-सहदेव देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। वे दोनों ही पाण्डव युद्ध में प्रचण्ड हैं। उनके आयुध दृढ़ हैं। वे दूर तक निशाना मारते हैं। युद्ध के लिये उनका भी दृढ़ निश्चय है। वे दोनों ही बड़ी शीघ्रता से हस्त संचालन करते हैं। उनका क्रोध भी अत्यन्त दृढ़ है। वे सदा उद्योगशील और बड़े वेगवान् हैं। जिस समय भीमसेन और अर्जुन को आगे रखकर वे दोनों सिंह समान पराक्रमी और अश्विनीकुमारों के समान दुःसह वीर युद्ध के मुहाने पर खड़े होंगे, उसी समय मुझे अपनी सेना को कोई वीर शेष रहता नहीं दिखायी देता है।

   संजय! देवपुत्र महारथी नकुल-सहदेव युद्ध में अनुपम हैं। कोई भी रथी उनका सामना नहीं कर सकता। अमर्ष में भरे हुए माद्रीकुमार द्रौपदी को दिये गये उस कष्ट को कभी क्षमा नहीं करेंगे। महान् धनुर्धर वृष्णिवंशी, महातेजस्वी पांचाल योद्धा और युद्ध में सत्यप्रतिज्ञ वासुदेव श्रीकृष्ण से सुरक्षित कुन्तीपुत्र निश्चय ही मेरे पुत्रों की सेना को भस्म कर डालेंगे। सूतनन्दन! बलराम और श्रीकृष्ण से प्रेरित वृष्णिवंशी योद्धाओं के वेग को युद्ध में समस्त कौरव मिलकर भी नहीं सह सकते। उनके बीच में जब भयानक पराक्रमी महान् धनुर्धर भीमसेन बड़े-बड़े वीरों का संहार करने वाली आकाश में ऊपर उठी हुई गदा लिये विचरेंगे, तब उन भीम की गदा के वेग को तथा वज्रगर्जन के समान गाण्डीव धनुष की टंकार को भी कोई नरेश नहीं सह सकता। उस समय मैं दुर्योधन के वश में होने के कारण अपने हितैषी सुहृदों की उन याद रखने योग्य बातों को याद करूंगा, जिनका पालन मैंने पहले नहीं किया।'

  संजय ने कहा ;- 'राजन्! आपके द्वारा यह बहुत बड़ा अन्याय हुआ है, जिसकी आपने जान-बूझकर उपेक्षा की है। (उसे रोकने की चेष्टा नहीं की है); वह यह है कि आपने समर्थ होते हुए भी मोहवश अपने पुत्र को कभी रोका नहीं। भगवान् मधुसूदन ने ज्यों ही सुना कि पाण्डव द्यूत में पराजित हो गये, त्यों ही वे काम्यकवन में पहुँचकर कुन्तीपुत्रों से मिले और उन्हें आश्वासन दिया। इसी प्रकार द्रुपद के धृष्टद्युम्न आदि पुत्र, विराट, धृष्टकेतु और महारथी कैकय-इन सब ने पाण्डवों से भेट की। राजन्! पाण्डवों को जूए में पराजित देखकर उन सब ने जो बातें कहीं, उन्हें गुप्तचरों द्वारा जानकर मैंने आपकी सेवा में निवेदन कर दिया था। पाण्डवों ने मिलकर मधुसूदन श्रीकृष्ण को युद्ध में अर्जुन का सारथि होने के लिये वरण किया और श्रीहरि ने ‘तथास्तु’ कहकर उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान् श्रीकृष्ण भी कुन्तीपुत्रों को उस अवस्था में काला मृगचर्म ओढ़कर आये हुए देख उस समय अमर्ष में भर गये और युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले,,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘इन्द्रप्रस्थ में कुन्तीकुमारों के पास जो समृद्धि थी तथा राजसूय यज्ञ के समय जिसे मैंने अपनी आंखों देखा था, वह अन्य नरेशों के लिये अत्यन्त दुर्लभ थी। उस समय सब भूमिपाल पाण्डवों के शस्त्रों के तेज से भयभीत थे। अंग, वंग, पुण्ड्र, उड्र, चोल, द्राविड़, आन्ध्र, सागरतटवर्ती द्वीप तथा समुद्र के समीप निवास करने वाले जो राजा थे, वे सभी राजसूय यज्ञ में उपस्थित थे। सिंहल, बर्बर, म्लेच्छ, लंकानिवासी, पश्चिम के राष्ट्र, सागर के निकटवर्ती सैकड़ों प्रदेश, दरद, समस्त किरात, यवन, शक, हार-हुण, चीन, तुषार, सैन्धव, जागुड़, रामठ, मुण्ड, स्त्रीराज, केकय, मालव तथा काश्मीर देश के नरेश भी राजसूय यज्ञ में बुलाये गये थे और मैंने उन सबको आपके यज्ञ में रसोई परोसते देखा था। सब ओर फैली हुई आपकी उन चंचल समृद्धि को जिन लोगों ने छल से छीन लिया है, उसके प्राण लेकर भी मैं इसे पुनः वापस लाऊंगा।

    कुरुनन्दन! भरतकुलतिलक! बलराम, भीमसेन, अर्जुन, नकुल-सहदेव, अक्रूर, गद, साम्ब, प्रद्युम्न, आहुक, वीर धृष्टद्युम्न और शिशुपालपुत्र धृष्टकेतु के साथ आक्रमण करके युद्ध में दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन एवं शकुनि तथा और जो कोई योद्धा सामना करने आयेगा, उसे भी शीघ्र ही मारकर मैं आपकी सम्पत्ति लौटा आऊंगा। तदनन्तर आप भाइयों सहित हस्तिनापुर में निवास करते हुए धृतराष्ट्र की राजलक्ष्मी को पाकर इस सारी पृथ्वी का शासन कीजिये’।

   तब राजा युधिष्ठिर ने उस वीर समुदाय में इन धृष्टद्युम्न आदि शूरवीरों के सुनते हुए श्रीकृष्ण ने कहा।

 युधिष्ठिर बोले ;- 'जनार्दन! मैं आपकी सत्य वाणी शिरोधार्य करता हूँ। महाबाहो! केशव! तेरहवें वर्ष के बाद आप मेरे सम्पूर्ण शत्रुओं को उनके बन्धु-बान्धवों सहित नष्ट कीजियेगा। ऐसा करके आप मेरे सत्य (वनवास के लिये की गयी प्रतिज्ञा) की रक्षा कीजिये। मैंने राजाओं की मण्डली में वनवास की प्रतिज्ञा की है।' धर्मराज की यह बात सुनकर धृष्टद्युम्न आदि सभासदों ने समयोचित मधुर वचनों द्वारा अमर्ष में भरे हुए श्रीकृष्ण को शीघ्र ही शांत कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने क्लेशरहित हुई द्रौपदी से भगवान् श्रीकृष्ण को सुनते हुए कहा,,

धृष्टद्युम्न आदि बोले ;- ‘देवि! दुर्योधन तुम्हारे क्रोध से निश्चय ही प्राण त्याग देगा। वरवर्णिनि! हम सब सच्ची प्रतिज्ञा करते हैं, तुम शोक न करो। कृष्णे! उस समय तुम्हें जूए में जीती हुई देखकर जिन लोगों ने हंसी उड़ायी है, उनके मांस भेड़िये और गीध खायेंगे और नोच-नोचकर ले जायेंगे। इसी प्रकार जिन्होंने तुम्हें सभाभवन में घसीटा है, उनके कटे हुए सिरों को घसीटते हुए गीध और गीदड़ उनके रक्त पीयेंगे। पांचालराजकुमारी! तुम देखोगी कि उन दृष्टों के शरीर इस पृथ्वी पर मांसाहारी गीदड़-गीध आदि पशु-पक्षियों द्वारा बार-बार घसीटे और खाये जा रहे हैं। जिन लोगों ने तुम्हें सभा में क्लेश पहुँचाया और जिन्होंने चुपचाप रहकर उस अन्याय की उपेक्षा की है, उन सब के कटे हुए मस्तकों का रक्त वह पृथ्वी पीयेगी’।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 43-46 का हिन्दी अनुवाद)

  भरतकुलतिलक! इस प्रकार उन वीरों ने अनेक प्रकार की बातें कही थीं। वे सब के सब तेजस्वी और शूरवीर हैं। उनके शुभ लक्षण अमिट हैं। धर्मराज ने तेरहवें वर्ष के बाद युद्ध करने के लिये उनका वरण किया है। वे महारथी वीर भगवान् श्रीकृष्ण को आगे रखकर आक्रमण करेंगे।

    बलराम, श्रीकृष्ण, अर्जुन, प्रद्युम्न, साम्ब, सात्यकि, भीमसेन, नकुल-सहदेव, केकय राजकुमार, द्रुपद और उनके पुत्र तथा मत्स्य नरेश विराट, ये सब-के-सब विश्व विख्यात अजेय वीर हैं। ये महामना जब अपने संगे सम्बन्धियों और सेना के साथ धावा करेंगे, उस समय क्रोध में भरे हुए केसरी सिंहों के समान उन महावीरों का समर में जीवन की इच्छा रखने वाला कौन पुरुष सामना करेगा?'

धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! जब जूआ खेला जा रहा था, उस समय विदुर ने मुझसे जो बात कही थी कि 'नरेन्द्र! यदि आप पाण्डवों को जूए में जीतेंगे तो निश्चय ही यह कौरवों के लिये खून की धारा से भरा हुआ अत्यन्त भयंकर, विनाश-काल होगा।' सूत! विदुर ने पहले जो बात कही थी, वह अवश्य ही उसी प्रकार होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। वनवास का समय व्यतीत होने पर पाण्डवों के कथनानुसार यह घोर युद्ध होकर ही रहेगा, इसमें संशय नहीं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्व में धृतराष्ट्रविलाप विषयक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

बावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"भीमसेन-युधिष्ठिर संवाद, बृहदश्व का आगमन तथा युधिष्ठिर के पूछने पर बृहदश्व के द्वारा नलोपाख्यान की प्रस्तावना"

   जनमेजय ने पुछा ;- ब्रह्मन! अस्त्र विधा की प्राप्ति के लिये महात्मा अर्जुन के इन्द्रलोक चले जाने पर युधिष्ठिर आदि पाण्डवों ने क्या किया?

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! अस्त्र विद्या के लिये महात्मा अर्जुन के इन्द्रलोक जाने पर भरतकुलभूषण पाण्डव द्रौपदी के साथ काम्यकवन में निवास करने लगे। तदनन्तर एक दिन एकान्त एवं पवित्र स्थान में, जहाँ छोटी-छोटी हरी दूर्वा आदि घास उगी हुई थी, वे भरतवंश के श्रेष्ठ पुरुष दुःख से पीड़ित हो द्रौपदी के साथ बैठे और धनंजय अर्जुन के लिये चिंता करते हुए अत्यन्त दुःख में भरे अश्रुगद्गद कण्ठ से उन्हीं की बातें करने लगे। अर्जुन के वियोग से पीड़ित उन समस्त पाण्डवों को शोक सागर ने अपनी लहरों में डुबा दिया। पाण्डव राज्य छिन जाने से तो दु:खी थे ही, अर्जुन के विरह से वे और भी क्लेश में पड़ गये थे।

   उस समय महाबाहु भीमसेन ने युधिष्ठिर से कहा,,

  भीमसेन बोले ;- ‘महाराज! आपकी आज्ञा से भरतवंश का रत्न अर्जुन तपस्या के लिये चला गया। हम सब पाण्डवों के प्राण उसी में बसते हैं। यदि कहीं अर्जुन का नाश हुआ तो पुत्रों सहित पांचाल, हम पाण्डव, सात्यकि और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण- ये सब के सब नष्ट हो जायेंगे। जो धर्मात्मा अर्जुन अनेक प्रकार के क्लेशों का चिन्तन करते हुए आपकी आज्ञा से तपस्या के लिये गया, उससे बढ़कर दुःख और क्या होगा। जिस महापराक्रमी अर्जुन के बाहुबल का आश्रय लेकर हम संग्राम में शत्रुओं को पराजित और इस पृथ्वी को अपने अधिकार में आयी हुई समझते हैं। जिस धनुर्धर वीर के प्रभाव से प्रभावित होकर मैंने सभा में शकुनि सहित समस्त धृतराष्ट्र पुत्रों को तुरन्त ही यमलोक नहीं भेज दिया। हम सब लोग बाहुबल से सम्पन्न हैं और भगवान् वासुदेव हमारे रक्षक हैं तो भी हम आपके कारण अपने उठे हुए क्रोध को चुपचाप सह लेते हैं।

   भगवान् श्रीकृष्ण के साथ हम लोग कर्ण आदि शत्रुओं को मारकर अपने बाहुबल से जीती हुई सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन कर सकते हैं। आपके जूए के दोष से हम लोग पुरुषार्थयुक्त होकर भी दीन बन गये हैं और वे मूर्ख दुर्योधन आदि भेंट में मिले हुए हमारे धन से सम्पन्न हो इस समय अधिक बलशाली बन गये हैं। महाराज! आप क्षत्रिय धर्म की ओर तो देखिये। इस प्रकार वन में रहना कदापि क्षत्रियों का धर्म नहीं है। विद्वानों ने राज्य को ही क्षत्रिय का सर्वोत्तम धर्म माना है। आप क्षत्रिय धर्म के ज्ञाता नरेश हैं। धर्म के मार्ग से विचलित न होइये। राजन्! हम लोग बारह वर्ष बीतने के पहले ही अर्जुन को वन से लौटाकर और भगवान् श्रीकृष्ण को बुलाकर धृतराष्ट्र के पुत्रों का संहार कर सकते हैं।

   महाराज! महामते! धृतराष्ट्र के पुत्र कितनी ही सेनाओं की मोर्चाबन्दी क्यों न कर लें, हम लोग उन्हें शीघ्र ही यमलोक का पठीक बनाकर ही छोड़ेंगे। मैं स्वयं ही शकुनि सहित समस्त धृतराष्ट्र पुत्रों को मार डालूंगा। दुर्योधन, कर्ण अथवा दूसरा जो काई योद्धा मेरा सामना करेगा, उसे भी अवश्य मारूंगा। मेरे द्वारा शत्रुओं का संहार हो जाने पर आप फिर तेरह वर्ष के बाद वन में चले आइयेगा। प्रजानाथ! ऐसा करने पर आपको दोष नहीं लगेगा।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘तात! शत्रुदमन! महाराज! हम नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करके अपने किये हुए पाप को धो-बहाकर उत्तम स्वर्गलोक में चलेंगे। राजन्! यदि ऐेसा हो तो आप हमारे धर्मपरायण राजा अविवेकी और दीर्घसुत्री नहीं समझे जायेंगे। शठता करने या जानने वाले शत्रुओं को शठता के द्वारा ही मारना चाहिये, यह एक सिद्धान्त है। जो स्वयं दूसरों पर छल-कपट का प्रयोग करता है, उसे छल से भी मार डालने में पाप नहीं बताया गया है। भरतवंशी महाराज! धर्मशास्त्र में इसी प्रकार धर्मपरायण धर्मज्ञ पुरुषों द्वारा यहाँ एक दिन-रात एक संवत्सर के समान देखा जाता है। प्रभो! महाराज! इसी प्रकार सदा यह वैदिक वचन सुना जाता है कि कृच्छ्रव्रत के अनुष्ठान से एक वर्ष की पूर्ति हो जाती है।

    अच्युत! यदि आप वेद को प्रमाण मानते हैं तो तेरहवें दिन के बाद ही तेहर वर्षाें का समय बीत गया, ऐसा समझ लीजिये। शत्रुदमन! यह दुर्योधन को उसके सगे-सम्बन्धियों सहित मार डालने का अवसर आया है। राजन्! वह सारी पृथ्वी को जब तक एक सूत्र में बांध ले, उसके पहले ही यह कार्य कर लेना चाहिये। राजेन्द्र! जूए के खेल में आसक्त होकर आपने ऐसा अनर्थ कर डाला कि प्रायः हम सब लोगों को अज्ञातवास के संकट में लाकर पटक दिया। मैं ऐसा कोई देश या स्थान नहीं देखता, जहाँ अत्यन्त दुष्टचित्त, दुरात्मा दुर्योधन अपने गुप्तचरों द्वारा हम लोगों का पता न लगा ले। वह नीच नराधम हम सब लोगों का गुप्त निवास जान लेने पर पुनः अपनी कपटपूर्ण नीति द्वारा हमें इस वनवास में ही डाल देगा। यदि वह पापी किसी प्रकार यह समझ ले कि हम अज्ञातवास अवधि पार कर गये हैं, तो वह उस दशा में हमें देखकर पुनः आपको ही जूआ खेलने के लिये बुलायेगा। महाराज! आप एक बार जूए के संकट से बचकर दुबारा द्यूतक्रीड़ा में प्रवृत हो गये थे, अतः मैं समझता हूं, यदि पुनः आपका द्यूत के लिये आवाहन हो तो आप उससे पीछे न हटेंगे।

   नरेश्वर! वह विवेकशून्य शकुनि जूआ फेंकने की कला में कितना कुशल है, वह आप अच्छी तरह जानते हैं, फिर तो उसमें हारकर आप पुनः वनवास ही भोगेंगे। महाराज! यदि आप हमें दीन, हीन, कृपण ही बनाना चाहते हैं तो जब तक जीवन है, तब तक सम्पूर्ण वेदोक्त धर्मों के पालन पर ही दृष्टि रखिये। अपना निश्चय तो यही है कि कपटी को कपट से ही मारना चाहिये। यदि आपकी आज्ञा हो तो जैसे तृण की राशि में डाली हुई आग हवा का सहारा पाकर उसे भस्म कर डालती है, वैसे ही मैं जाकर अपनी शक्ति के अनुसार उस मूढ़ दुर्योधन का वध कर डालूँ, अतः आप मुझे आज्ञा दीजिये।'

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धर्मराज राजा युधिष्ठिर ने उपर्युक्त बातें कहने वाले पाण्डुनन्दन भीमसेन का मस्तक सूंघकर उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा,,

युधिष्ठिर बोले ;- ‘महाबाहो! इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि तुम तेरहवें वर्ष के बाद गाण्डीवधारी अर्जुन के साथ जाकर युद्ध में सुयोधन को मार डालोगे। किंतु शक्तिशाली वीर कुन्तीकुमार! तुम जो यह कहते हो कि सुयोधन के वध का अवसर आ गया है, वह ठीक नहीं है। मैं झूट नहीं बोल सकता, मुझमें यह आदत नहीं है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 39-54 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘कुन्तीनन्दन! तुम दुर्धर्ष, वीर हो, छल-कपट का आश्रय लिये बिना ही पापपूर्ण विचार रखने वाले दुर्योधन को सगे-सम्बन्धियों सहित नष्ट कर सकते हो’।

   धर्मराज युधिष्ठिर जब भीमसेन से ऐसी बातें कह रहे थे, उसी समय महाभाग महर्षि बृहदश्व वहाँ आ पहुँचे। धर्मात्मा धर्मराज युधिष्ठिर ने धर्मानुष्ठान करने वाले उन महात्मा को आया देख शास्त्रीय विधि के अनुसार मधुपर्क द्वारा उनका पूजन किया। जब वे आसन पर बैठकर थकावट से निवृत्त हो चुके अर्थात् विश्राम कर चुके, तब महाबाहु युधिष्ठिर उनके पास ही बैठकर उन्हीं की ओर देखते हुए अत्यन्त दीनतापूर्ण वचन बोले,,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘भगवन्! पासे फेंककर खेले जाने वाले जूए के लिये मूझे बुलाकर छल-कपट में कुशल तथा पासा डालने की कला में निपुण धूर्त जुआरियों ने मेरे सारे धन तथा राज्य का अपहरण कर लिया है। मैं जूए का मर्मज्ञ नहीं हूँ। फिर भी पापपूर्ण विचार रखने वाले उन दुष्टों के द्वारा मेरी प्राणों से भी अधिक गौरवशालिनी पत्नी द्रौपदी केश पकड़कर भरी सभा में लायी गयी। एक बार जूए के संकट से बच जाने पर पुनः द्यूत का आयोजन करके उन्होंने मुझे जीत लिया और मृगचर्म पहिनाकर वनवास का अत्यन्त दारुण कष्ट भोगने के लिये इस महान् वन में निवार्सित कर दिया। मैं अत्यन्त दु:खी हो बड़ी कठिनाई से वन में निवास करता हूँ। जिस सभा में जूआ खेलने का आयोजन किया गया था, वहाँ प्रतिपक्षी पुरुषों के मुख से मुझे अत्यन्त कठोर बातें सुननी पड़ी हैं। इसके सिवा द्यूत आदि कार्यों का उल्लेख करते हुए मेरे दुःखातुर सुहृदों ने जो संतापसूचक बातें कही हैं, वे सब मेरे हृदय में स्थित हैं। मैं उन सब बातों को याद करके सारी रात चिन्ता में निमग्न रहता हूँ। इधर जिस गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन में हम सबके प्राण बसते हैं, वह भी हमसे अलग है। महात्मा अर्जुन के बिना मैं निष्प्राण-सा हो गया हूँ। मैं सदा निरालस्य भाव से यही सोचा करता हूँ कि श्रेष्ठ, दयालु और प्रियवादी अर्जुन कब अस्त्र विद्या सीखकर फिर यहाँ आयेगा और मैं उसे भर आंख देखूंगा। क्या मेरे जैसा अत्यन्त भाग्यहीन राजा इस पृथ्वी पर कोई दूसरा भी है? अथवा आपने कहीं मेरे-जैसे किसी राजा को पहले कभी देखा या सुना है। मेरा तो यह विश्वास है कि मुझसे बढ़कर अत्यन्त दु:खी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है’।

  बृहदश्व बोले ;- महाराज पाण्डुनन्दन! तुम जो यह कह रहे हो कि मुझसे बढ़कर अत्यन्त भाग्यहीन कोई पुरुष कहीं भी नहीं है, उसके विषय में मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाऊंगा। अनघ! पृथ्वीपते! यदि तुम सुनना चाहो तो मैं उस व्यक्ति का परिचय दूंगा, जो इस पृथ्वी पर तुमसे भी अधिक दु:खी राजा था।

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिर ने मुनि से कहा,,

   युधिष्ठिर बोले ;- ‘भगवन्! अवश्य कहिये। जो मेरे जैसी संकटपूर्ण स्थिति में पहुँचा हुआ हो, उस राजा का चरित्र मैं सुनना चाहता हूँ।

  बृहदश्व ने कहा ;- राजन्! अपने धर्म से कभी च्युत न होने वाले भूपाल! तुम भाइयों सहित सावधान होकर सुनो। इस पृथ्वी पर जो तुमसे भी अधिक दु:खी राजा था, उसका परिचय देता हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 55-59 का हिन्दी अनुवाद)

   निषध देश में वीरसेन नाम से प्रसिद्ध एक भूपाल हो गये हैं। उन्हीं के पुत्र का नाम नल था, जो धर्म और अर्थ के तत्त्वज्ञ थे। हमने सुना है कि राजा नल को उनके भाई पुष्कर ने छल से ही जूए के द्वारा जीत लिया था और वे समस्त दुःख से आतुर हो अपनी पत्नी के साथ वनवास का दुःख भोगने लगे थे।

  राजन्! उनके साथ न सेवक थे न रथ, न भाई थे न बान्धव। वन में रहते समय उनके पास ये वस्तुएं कदापि शेष नहीं थी। तुम तो देवतुल्य पराक्रमी वीर भाइयों से घिरे हुए हो। ब्रह्मा जी के समान तेजस्वी श्रेष्ठ ब्राह्मण तुम्हारे चारों ओर बैठे हुए हैं। अतः तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।

   युधिष्ठिर बोले ;- 'वक्ताओं में श्रेष्ठ मुने! मैं उत्तम महामना राजा नल का चरित्र विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। आप मुझे बताने की कृपा करें।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतगर्त नलोपाख्यानपर्व में बृहदश्व-युधिष्ठिर संवाद विषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

तिरपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"नल-दमयन्ती के गुणों का वर्णन, उनका परस्पर अनुराग और हंस का दमयन्ती और नल को एक-दूसरे के संदेश सुनाना"

   बृहदश्व ने कहा ;- धर्मराज! निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल नाम से प्रसिद्ध एक बलवान् राजा हो गये हैं। वे उत्तम गुणों से सम्पन्न, रूपवान् और अश्व संचालन की कला में कुशल थे। जैसे देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के शिरमौर हैं, उसी प्रकार राजा नल का स्थान समस्त राजाओं के ऊपर था। वे तेज में भगवान् सूर्य के समान सर्वोपरि थे। निषध देश के महाराज नल बड़े ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, शूरवीर, द्यूतक्रीड़ा के प्रेमी, सत्यवादी, महान् और एक अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे। वे श्रेष्ठ स्त्रियों को प्रिय थे और उदार, जितेन्द्रिय, प्रजाजनों के रक्षक तथा साक्षात् मनु के समान धनुर्धरों में उत्तम थे।

   इसी प्रकार उन दिनों विदर्भ देश में भयानक पराक्रमी भीम नामक राजा राज्य करते थे। वे शूरवीर और सर्वसद्गुणसम्पन्न थे। उन्हें कोई संतान नहीं थी। अतः संतान प्राप्ति की कामना उनके हृदय में सदा बनी रहती थी। भारत! राजा भीम ने अत्यन्त एकाग्रचित्त होकर संतान प्राप्ति के लिये महान् प्रयत्न किया। उन्हीं दिनों उनके यहाँ दमन नामक ब्रह्मर्षि पधारे। राजेन्द्र! धर्मज्ञ तथा संतान की इच्छा वाले उस भीम ने अपनी रानी सहित उन महातेजस्वी मुनि को पूर्ण सत्कार करके संतुष्ट किया। महायशस्वी दमन मुनि ने प्रसन्न होकर पत्नी सहित राजा भीम को एक कन्या और तीन उदार पुत्र प्रदान किये। कन्या का नाम था दमयन्ती और पुत्रों के नाम थे-दम, दान्त और दमन। ये सभी बड़े तेजस्वी थे। राजा के तीनों पुत्र गुणसम्पन्न, भयंकर वीर और भयानक पराक्रमी थे। सुन्दर कटि प्रदेश वाली दमयन्ती रूप, तेज, यश, श्री और सौभाग्य के द्वारा तीनों लोकों में विख्यात यशस्विनी हुई। जब उसने युवावस्था में प्रवेश किया, उस समय सौ दासियां और सौ सखियां वस्त्रभूषणों से अलंकृत हो सदा उसकी सेवा में उपस्थित रहती थीं। मानों देवांगनाएं शची की उपासना करती हों।

     अनिन्द्य सुन्दर अंग वाली भीमकुमारी दमयन्ती सब प्रकार के आभूषण से विभूषित हो सखियों की मण्डली में वैसी ही शोभा पाती थी, जैसे मेघमाला के बीच विद्युत् प्रकाशित हो रही हो। वह लक्ष्मी के समान अत्यन्त सुन्दर रूप से सुशोभित थी। उसके नेत्र विशाल थे। देवताओं और यक्षों में भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीं देखने में नहीं आती थी। मनुष्यों तथा अन्य वर्ग के लोगों में भी वैसी सुन्दरी पहले न तो कभी देखी गयी थी और न सुनने में ही आयी थी। उस बाला को देखते ही चित्त प्रसन्न हो जाता था। वह देववर्ग में भी श्रेष्ठ सुन्दरी समझी जाती थी। नरश्रेष्ठ नल भी इस भूतल के मनुष्यों में अनुपम सुन्दर थे। उनका रूप देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो नल के आकार में स्वयं मूर्तिमान् कामदेव ही उत्पन्न हुआ हों। लोग कौतूहलवश दमयन्ती के समीप नल की प्रशंसा करते थे और निषधराज नल के निकट बार-बार दमयन्ती के सौन्दर्य की सराहना किया करते थे।

   कुन्तीनन्दन! इस प्रकार निरन्तर एक-दूसरे के गुणों को सुनते-सुनते उन दोनों में बिना देखे ही परस्पर काम (अनुराग) उत्पन्न हो गया। उनकी वह कामना दिन-दिन बढ़ती ही चली गयी। जब राजा नल उस कामदेवना को हृदय के भीतर छिपाये रखने में असमर्थ हो गये, तब वे अन्तःपुर के समीपवर्ती उपवन में जाकर एकान्त में बैठे गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद)

   इतने ही में उनकी दृष्टि कुछ हंसों पर पड़ी, जो सुवर्णमय पंखों से विभूषित थे। वे उसी उपवन में विचर रह थे। राजा ने उनमें से एक हंस को पकड़ लिया। तब आकाशचारी हंस ने उस समय नल से कहा,,
    हंस बोला ;- 'राजन्! आप मुझे न मारें। मैं आपका प्रिय कार्य करूंगा। निषधनरेश! मैं दमयन्ती के निकट आपकी ऐसी प्रशंसा करूंगा, जिससे वह आपके सिवा दूसरे किसी पुरुष को मन में कभी स्थान न देगी’।

    हंस के ऐसा कहने पर राजा नल ने उसे छोड़ दिया। फिर वे हंस वहाँ से उड़कर विदर्भ देश में गये। तब विदर्भ नगरी में जाकर वे सभी हंस दमयन्ती के निकट उतरे। दमयन्ती ने भी उन अद्भुत पक्षियों को देखा। सखियों से घिरी हुई राजकुमारी दमयन्ती उन अपूर्व पक्षियों को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और तुरन्त ही उन्हें पकड़ने की चेष्टा करने लगी। तब हंस उस प्रमदावन में सब ओर विचरण करने लगे। उस समय सभी राजकन्याओं ने एक-एक करके उन सभी हंसों का पीछा किया।

   दमयन्ती जिस हंस के निकट दौड़ रही थी, उसने उससे मानवी वाणी में कहा,,
हंस बोला ;- ‘राजकुमारी दमयन्ती! सुनो, निषध देश में नल नाम से प्रसिद्ध एक राजा हैं, जो अश्विनीकुमारों के समान सुन्दर हैं। मनुष्यों में तो कोई उनके समान है ही नहीं। सुन्दरी! रूप दृष्टि से तो वे मानों स्वयं मूर्तिमान् कामदेव से ही प्रतीत होते हैं। सुमध्यमे! यदि तुम उनकी पत्नी हो जाओ तो तुम्हारा जन्म और यह मनोहर रूप सफल हो जाये। हम लोगों ने देवता, गन्धर्व, मनुष्य, नाग तथा राक्षसों को भी देखा है; परन्तु हमारी दृष्टि में अब तक उनके जैसा कोई भी पुरुष पहले कभी नहीं आया है। तुम रमणियों में रत्नस्वरूपा हो और नल पुरुषों के मुकुटमणि हैं। यदि किसी विशिष्ट नारी का विशिष्ट पुरुष के साथ संयोग हो तो वह विशेष गुणकारी होता है।'
    राजन्! हंस के इस प्रकार कहने पर दमयन्ती ने उससे कहा,,
दमयन्ती बोली ;- ‘पक्षिराज! तुम नल के निकट भी ऐसी ही बात कहना’।
  राजन्! विदर्भ राजकुमारी दमयन्ती से ‘तथास्तु’ कहकर वह हंस पुनः निषध देश में आया और उसने नल से सब बातें निवेदन कीं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में हंस-दमयन्ती संवाद विषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

चौवनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतु:पञ्चाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"स्वर्ग में नारद और इन्द्र की बातचीत, दमयन्ती के स्वयंवर के लिये राजाओं तथा लोकपालों का प्रस्थान"

   बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- भारत! दमयन्ती ने जब से हंस की बात सुनीं, तब से राजा नल के प्रति अनुरक्त हो जाने के कारण वह अस्वस्थ रहने लगी। तदनन्तर उसके मन में सदा चिन्ता बनी रहती थी। स्वभाव में दैन्य आ गया। चेहरे का रंग फीका पड़ गया और दमयन्ती दिन-दिन दुबली होने लगी। उस समय वह प्रायः लम्बी सांसें खींचती रहती थी। ऊपर की ओर निहारती हुई सदा नल के ध्यान में परायण रहती थी। देखने में उन्मत्त-सी जान पड़ती थी। उसका शरीर पाण्डु वर्ण का हो गया। कामवेदना की अधिकता से उसकी चेतना क्षण-क्षण में विलम्ब-सी हो जाती थी। उसकी शय्या, आसन तथा भोग-सामग्रियों में कहीं भी प्रीति नहीं होती थी। वह न तो रात में सोती और न दिन में ही। बारंबार ‘हाय-हाय’ करके रोती ही रहती थी। उसकी वैसी आकृति और अस्वस्थ-अवस्था का क्या कारण है, यह सखियों ने संकेत से जान लिया था। तदनन्तर दमयन्ती की सखियों ने विदर्भ नरेश को उसकी उस अस्वस्थ अवस्था के विषय में सूचना दी। सखियों के मुख से दमयन्ती के विषय में वैसी बात सुनकर राजा भीम ने बहुत सोचा-विचारा, परन्तु अपनी पुत्री के लिये कोई विशेष महत्त्वपूर्ण कार्य उन्हें नहीं सूक्ष पड़ा। वे सोचने लगे कि 'क्यों मेरी पुत्री आजकल स्वस्थ नहीं दिखायी देती है?’
    राजा ने बहुत सोचने-विचारने के बाद एक निश्चय किया कि मेरी पुत्री अब युवावस्था में प्रवेश कर चुकी, अतः दमयन्ती के लिये स्वयंवर रचाना ही उन्हें अपना विशेष कर्तव्य दिखायी दिया। राजन्! विदर्भ नरेश ने सब राजाओं को इस प्रकार निमन्त्रित किया,,
    विदर्भ नरेश बोले ;- ‘वीरो! मेरे यहाँ कन्या का स्वयंवर है। आप लोग पधार कर इस उत्सव का आनंद लें।' दमयन्ती का स्वयंवर होने जा रहा है, यह सुनकर सभी नरेश विदर्भराज भीम के आदेश से हाथी, घोड़ों तथा रथों की तुमुल ध्वनि से पृथ्वी को गुंजाते हुए उनकी राजधानी में गये। उस समय उनके साथ विचित्र माला एवं आभूषणों से विभूषित बहुत-से सैनिक देखे जा रहे थे। महाबाहु राजा भीम ने वहाँ पधारे हुए उन महामना नरेशों का यथायोग्य पूजन किया। तत्पश्चात् वे उनके पूजित हो वहीं रहने लगे।
   इसी समय देवर्षिप्रवर महान् व्रतधारी महाप्राज्ञ नारद और पर्वत दोनों महात्मा इधर घूमते हुए इन्द्रलोक में गये। वहाँ उन्होंने देवराज के भवन में प्रवेश किया। उस भवन में उनका विशेष आदर सत्कार और पूजन किया गया। उन दोनों की पूजा करके भगवान् इन्द्र ने उनसे उन दोनों के तथा सम्पूर्ण जगत् के कुशल-मंगल एवं स्वस्थता का समाचार पूछा। 
    तब नारद जी ने कहा ;- 'प्रभो! देवेश्वर! हम लोगों की सर्वत्र कुशल है और समस्त लोकों में भी राजा लोग सकुशल हैं।'
    बृहदश्व कहते हैं ;- राजन् नारद की बात सुनकर बल और वृत्रासुर का वध करने वाले इन्द्र ने उनसे पूछा,,
इंद्रदेव बोले ;- 'मुने! जो धर्मज्ञ भूपाल अपने प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करते हैं और पीठ न दिखाकर लड़ते समय किसी शस्त्र के आघात से मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उनके लिये हमारा यह स्वर्गलोक अक्षय हो जाता हैं और मेरी ही तरह उन्हें भी यह मनोवांछित भोग प्रदान करता है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद)

‘वे शूरवीर क्षत्रिय यहाँ हैं? अपने उन प्रिय अतिथियों को आजकल मैं यहाँ आते नहीं देख रहा हूं’।
  इन्द्र के ऐसा पूछने पर नारद जी ने उत्तर दिया। 
नारद बोले ;- 'मघवन्! मैं वह कारण बताता हूं, जिससे राजा लोग आजकल यहाँ नहीं दिखायी देते, सुनिये।
   विदर्भ नरेश भीम के यहाँ दमयन्ती नाम से प्रसिद्ध एक कन्या उत्पन्न हुई है, जो मनोहर रूप-सौन्दर्य में पृथ्वी की सम्पूर्ण युवतियों को लांघ गयी है। इन्द्र! अब शीघ्र ही उसका स्वयंवर होने वाला है, उसी में सब राजा और राजकुमार जा रहे हैं। बल और वृत्रासुर के नाशक इन्द्र! दमयन्ती सम्पूर्ण जगत् का एक अद्भुत रत्न है। इसलिये सब राजा उसे पाने की विशेष अभिलाषा रखते हैं।'
   यह बात हो ही रही थी कि देवश्रेष्ठ लोकपालगण अग्नि सहित देवराज के समीप आये। तदनन्तर उन सब ने नारद जी की ये विशिष्ट बातें सुनीं। सुनते ही वह सब के सब हर्षोल्लास से परिपूर्ण हो बोले,,
   लोकपालगण बोले ;- 'हम लोग भी उस स्वयंवर में चलें’। महाराज! तदनन्तर वे सब देवता अपने सेवकगणों और वाहनों के साथ विदर्भ देश में गये, समस्त भूपाल एकत्र हुए थे।
    कुन्तीनन्दन! उदारहृदय राजा नल भी विदर्भ नगर में समस्त राजाओं का समागम सुनकर दमयन्ती में अनुरक्त हो बहां गये। उस समय देवताओं ने पृथ्वी पर मार्ग में खडे़ हुए राजा नल को देखा। रूप-सम्पति की दृष्टि से वे साक्षात् मूर्तिमान कामदेव से जान पड़ते थे। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले महाराज नल को देखकर वे लोकपाल उनके रूप, वैभव से चकित हो दमयन्ती को पाने का संकल्प छाड़ बैठे।
   राजन्! तब उन देवताओं ने अपने विमान को आकाश में रोक दिया और वहाँ से नीचे उतर कर निषध नरेश से कहा,,
  देवता बोले ;- ‘निषध देश के महाराज नरश्रेष्ठ नल! आप सत्यव्रती हैं, हम लोगों की सहायता कीजिये। हमारे दूत बन जाइये’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत् वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में इन्द्र-नारदसंवाद विषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

पचपनवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"नल का दूत बनकर राजमहल में जाना और दमयन्ती को देवताओं का संदेश सुनाना"

   बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- भारत! देवताओं से उनकी सहायता करने की प्रतिज्ञा करके राजा नल ने हाथ जोड़ पास जाकर उनसे पूछा,,
   राजा नल बोले ;- ‘आप लोग कौन हैं? और वह कौन व्यक्ति है, जिसके पास जाने के लिये आपने मुझे दूत बनाने की इच्छा की है तथा आप लोगों का वह कौन-सा कार्य है, जो मेरे द्वारा सम्पन्न होने योग्य है, यह ठीक-ठीक बताइये’।
   निषधराज नल के इस प्रकार पूछने पर,,
 इन्द्र ने कहा ;- ‘भूपाल! तुम हमें देवता समझो, हम दमयन्ती को प्राप्त करने के लिये यहाँ आये हैं। मैं इन्द्र हूं, ये अग्निदेव हैं, ये जल के स्वामी वरुण और ये प्राणियों के शरीरों का नाश करने वाले साक्षात् यमराज हैं। आप दमयन्ती के पास जाकर उसे हमारे आगमन की सूचना दे दीजिये और कहिये-महेन्द्र आदि लोकपाल तुम्हें देखने के लिये आ रहे हैं। इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम-ये देवता तुम्हें प्राप्त करना चाहते हैं। तुम उनमें से किसी एक देवता को पति के रूप में चुन लो’।
   इन्द्र के ऐसा कहने पर ,,
नल हाथ जोड़कर बोले,,- ‘देवताओ! मेरा भी एकमात्र यही प्रयोजन है, जो आप लोगों का है; अतः एक ही प्रयोजन के लिये आये हुए मुझे दूत बनाकर न भेजिये। देवेश्वरों! जिसके मन में किसी स्त्री को प्राप्त करने का संकल्प हो गया है, वह पुरुष उसी स्त्री को दूसरे के लिये कैसे छोड़ सकता है? अतः आप लोग ऐसी बात कहने के लिये मुझे क्षमा करे’।
    देवताओं ने कहा ;- 'निषध नरेश! तुम पहले हम लोगों से हमारा कार्य सिद्ध करने के लिये प्रतिज्ञा कर चुके हो, फिर तुम उस प्रतिज्ञा का पालन कैसे नहीं करोगे? इसलिये निषधराज! तुम शीघ्र जाओ; देर न करो।'
   बृहदश्व मुनि कहते हैं ;- राजन्! उन देवताओं के ऐसा कहने पर निषध नरेश ने पुनः उनसे पूछा,,
  निषेध नरेश बोले ;- 'विदर्भराज के सभी भवन (पहरेदारों से) सुरक्षित हैं। मैं उनमें कैसे प्रवेश कर सकता हूँ।' तब इन्द्र ने पुनः उत्तर दिया,,
   इंद्रदेव बोले ;- ‘तुम वहाँ प्रवेश कर सकोगे।’ तत्पश्चात् राजा नल ‘तथास्तु’ कहकर दमयन्ती के महल में गये। वहाँ उन्होंने देखा, सखियों से घिरी हुई परम सुन्दरी विदर्भ राजकुमारी दमयन्ती अपने सुन्दर शरीर और दिव्य कांति से अत्यन्त उद्भासित हो रही है। उसके अंग परम सुकुमार हैं, कटि के ऊपर का भाग अत्यन्त पतला है और नेत्र बड़े सुन्दर हैं एवं वह अपने तेज से चन्द्रमा की प्रभा को भी तिरस्कृत कर रही है। उस मनोहर मुसकान वाली राजकुमारी को देखते ही नल के हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी; तथापि अपनी प्रतिज्ञा को सत्य करने की इच्छा से उन्होंने उस कामदेवना को मन में ही रोक लिया। निषधराज को वहाँ आये देख अन्तःपुर की सारी सुन्दरी स्त्रियां चकित हो गयीं और उनके तेज से तिरस्कृत हो अपने आसनों से उठकर खड़ी हो गयीं। अत्यन्त प्रसन्न और आश्चर्यचकित होकर उन सब ने राजा नल के सौन्दर्य की प्रशंसा की। उन्होंने उन से वार्तालाप नहीं किया; परन्तु मन-ही-मन उनका बड़ा आदर किया। वे सोचने लगीं- ‘अहो! इनका रूप अद्भुत है, कांति बड़ी मनोहर है तथा इन महात्मा का धैर्य भी अनुठा है। न जाने ये हैं कौन? सम्भव है देवता, यक्ष अथवा गन्धर्व हों?

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद)

   नल के तेज से प्रतिहत हुई वे लजीली सुन्दरियां उनसे कुछ बोल ही न सकीं। तब मुसकराकर बातचीत करने वाली दमयन्ती ने विस्मित होकर मुस्कराते हुए वीर नल से इस प्रकार पूछा,,
   नल बोले ;- ‘आप कौन हैं? आपके सम्पूर्ण अंग निर्दोष एवं परम सुन्दर हैं। आप मेरे हृदय की कामाग्नि बड़ा रहे हैं। निष्पाप वीर! आप देवताओं के समान यहाँ आ पहुँचे हैं। मैं आपका परिचय पाना चाहती हूँ। आपका इस रनिवास में आना कैसे सम्भव हुआ? आपको किसी ने देखा कैसे नहीं? मेरा यह महल अत्यन्त सुरक्षित है और यहाँ के राजा का शासन बड़ा कठोर है-वे अपराधियों को बड़ा कठोर दण्ड देते हैं।’
विदर्भ राजकुमारी के ऐसा पूछने पर नल ने इस प्रकार उत्तर दिया। 

  नल ने कहा ;- 'कल्याणि! तुम मुझे नल समझो। मैं देवताओं का दूत बनकर यहाँ आया हूँ। इन्द्र, अग्नि, वरुण और उनमें से किसी एक को अपना पति चुन लो। उन्हीं देवताओं के प्रभाव से मैं इस महल के भीतर आया हूँ और मुझे कोई न देख सका है। भीतर प्रवेश करते समय न तो किसी ने मुझे देखा है और न रोका ही है। भद्रे! इसीलिये श्रेष्ठ देवताओं ने मुझे यहाँ भेजा है। शुभे इसे सुनकर तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा निश्चय करो।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में नल के देवदूत बनकर दमयन्ती के पास जाने से सम्बन्ध रखने वाला पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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