सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के छियालीसवें अध्याय से पचासवें अध्याय तक (From the 46 to the 50 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

छियालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"उर्वशी का कामपीड़ित होकर अर्जुन के पास जाना और उनके अस्वीकार करने पर उन्हें शाप देकर लौट आना"

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर कृतकृत्य हुए गन्धर्वराज चित्रसेन को विदा करके पवित्र मुस्कान वाली उर्वशी ने अर्जुन से मिलने के लिये उत्सुक हो स्नान किया। धनंजय के रूप-सौन्द्रर्य से प्रभावित उसका हृदय कामदेव के बाणों द्वारा अत्यन्त घायल हो चुका था। वह मदनाग्नि से दग्ध हो रही थी। स्नान के पश्चात् उसने चमकीले और मनोभिराम आभूषण धारण किये। सुगन्धित दिव्य पुष्पों के हारों से अपने को अलंकृत किया। फिर उसने मन ही मन संकल्प किया-दिव्य बिछौनों से सजी हुई एक सुन्दर विशाल शय्या बिछी हुई है। उसका हृदय सुन्दर तथा प्रियतम के चिन्तन में एकाग्र था। उसने मन की भावना द्वारा ही यह देखा कि कुन्तीकुमार अर्जुन उसके पास आ गये हैं और वह उनके साथ रमण कर रही है।

   संध्या को चन्द्रोदय होने पर जब चारों ओर चांदनी छिटक गयी, उस समय विशाल नितम्बों वाली अप्सरा अपने भवन से निकलकर अर्जुन के निवास स्थान की ओर चली। उसके कोमल-घुंघराले और लम्बे केशों का समूह वेणी के रूप में आबद्ध था। उनमें कुमुद पुष्पों के गुच्छे लगे हुए थे। इस प्रकार सुशोभित वह ललना अर्जुन के गृह की ओर बढ़ी जा रही थी। भौंहों की भंगिमा, वार्तालाप की महिमाा, उज्ज्वल कांति और सौम्य भाव से सम्पन्न अपने मनोहर मुखचन्द्र द्वारा वह चन्द्रमा को चुनौती-सी देती हुई इन्द्रभवन के पथ पर चल रही थी। चलते समय सुन्दर हारों से विभूषित उर्वशी के उठे हुए स्तन जोर-जोर से हिल रहे थे। उन पर दिव्य अंगराग लगाये गए थे। उनके अग्रभाग अत्यन्त मनोहर थे। वे दिव्य चन्दन से चर्चित हो रहे थे। स्तनों के भारी भार को वहन करने के कारण थककर वह पग-पग पर झुकी जाती थी। उसका अत्यंत सुन्दर मध्य भाग (उदर) त्रिबली रेखा से विचित्र शोभा धारण करता था। सुन्दर महीन वस्त्रों से आच्छादित उसका जघन प्रदेश अनिन्द्य सौन्दर्य से सुशोभित हो रहा था। वह कामदेव का उज्ज्वल मंदिर जान पड़ता था। नाभि के नीचे के भाग में पर्वत के समान विशाल नितम्ब ऊंचा और स्थूल प्रतीत होता था। कटि में बंधी हुई करघनी की लड़ियाँ उस जघन प्रदेश को सुशोभित कर रही थीं।

   वह मनोहर अंग (जघन) देवलोकवासी महर्षियों के भी चित को क्षुब्ध कर देने वाला था। उनके दोनों चरणों के गुल्फ (टखने) मांस से छिपे हुए थे। उसके विस्तृत तलवे और अंगुलियां लाल रंग की थीं। वे दोनों पैर कछुए की पीठ के समान ऊंचे होने के साथ ही घुंघुरूओं के चिह्न से सुशोभित थे। वह अल्प सुरापान से, संतोष से, काम से और नाना प्रकार की विलासिताओं से युक्त होने के कारण अत्यन्त दर्शनीय हो रही थीं। जाती हुई उस पिलासिनी अप्सरा की आकृति अनेक आश्रयों से भरे हुए स्वर्गलोक में भी सिद्ध, चारण और गन्धर्वों के लिये देखने के ही योग्य हो रही थी। अत्यन्त महीन मेघक समान श्याम रंग की सुन्दर ओढ़नी ओढ़े उर्वशी आकाश में बादलों से ढकी हुई चन्द्रलेखा-सी चली जा रही थी। मन और वायु के समान तीव्र वेग से चलने वाली वह पवित्र मुस्कान से सुशोभित अप्सरा क्षणभर में पाण्डुकुमार अर्जुन के महल में आ पहुँची।

   नरश्रेष्ठ जनमेजय महल के द्वार पर पहुँचकर वह ठहर गयी। उस समय द्वारपालों ने अर्जुन को उसके आगमन की सूचना दी। तब सुन्दर नेत्रों वाली उर्वशी रात्रि में अर्जुन के अत्यन्त मनोहर तथा उज्ज्वल भवन में उपस्थित हुई। राजन्! अर्जुन सशंक हृदय से उसके सामने गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद)

   उर्वशी को आयी देख अर्जुन के नेत्र लज्जा से मुंद गये। उस समय उन्होंने उसके चरणों में प्रणाम करके उसका गुरुजनोचित सत्कार किया। 

 अर्जुन बोले ;- 'देवि! श्रेष्ठ अप्सराओं में भी तुम्हारा सबसे ऊंचा स्थान है। मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करता हूँ। बताओ, मेरे लिये क्या आज्ञा है? मैं तुम्हारा सेवक हूँ और तुम्हारी आज्ञा का पालन करने के लिये उपस्थित हूँ।'

  अर्जुन की यह बात सुनकर उर्वशी के होश-हवास गुम हो गये। उस समय उसने गन्धर्वराज चित्रसेन की कही हुई सारी बातें कह सुनायीं।

   उर्वशी ने कहा ;- 'पुरुषोत्तम! चित्रसेन ने मुझे जैसा संदेश दिया है और उसके अनुसार जिस उद्देश्य को लेकर में यहाँ आयी हूँ, वह सब मैं तुम्हें बता रही हूँ। देवराज इन्द्र के इस मनोरम निवास स्थान में तुम्हारे शुभागमन के उपलक्ष्य में एक महान् उत्सव मनाया गया। वह उत्सव स्वर्गलोक का सबसे बड़ा उत्सव था। उसमें रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार और वसुगण-सब का एक ओर से समागम हुआ था। नरश्रेष्ठ! महर्षि समुदाय, राजर्षिप्रवर, सिद्ध, चारण, यक्ष तथा बड़े-बड़े नाग-ये सभी अपने पद सम्मान और प्रभाव के अनुसार योग्य आसनों पर बैठे थे। इन सब के शरीर अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी थे और वे समस्त देवता अपनी अद्भुत समृद्धि से प्रकाशित हो रहे थे। विशाल नेत्रों वाले इन्द्रकुमार! उस समय गन्धवों द्वारा अनेक वीणाएँ बजायी जा रही थीं। दिव्य मनोरम संगीत छिड़ा हुआ था और सभी प्रमुख अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। कुरुकुलनन्दन पार्थ! उस समय तुम मेरी ओर निर्निमेष नयनों से निहार रहे थे। देवसभा में जब उस महोत्सव की समाप्ति हुई, तब तुम्हारे पिता की आज्ञा लेकर सब देवता अपने-अपने भवन को चले गये।

   शत्रुदमन! इसी प्रकार आपके पिता से विदा लेकर सभी प्रमुख अप्सराएं तथा दूसरी साधारण अप्सराएं भी अपने-अपने घर को चली गयीं। कमलनयन! तदनन्तर देवराज इन्द्र का संदेश लेकर गन्धर्वप्रवर चित्रसेन मेरे पास आये और इस प्रकार बोले,,

  चित्रसेन बोले ;- ‘वरवर्णिनि! देवेश्वर इन्द्र ने तुम्हारे लिये एक संदेश देकर मुझे भेजा है। तुम उसे सुनकर महेन्द्र का, मेरा तथा मुझसे अपना भी प्रिय कार्य करो। सुश्रोणि! जो संग्राम में इन्द्र के समान पराक्रमी और उदारता आदि गुणों से सदा सम्पन्न हैं, उन कुन्तीनन्दन अर्जुन की सेवा तुम स्वीकार करो।’ इस प्रकार चित्रसेन ने मुझसे कहा था। अनघ! शत्रुदमन! तदनन्तर चित्रसेन और तुम्हारे पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके मैं तुम्हारी सेवा के लिये तुम्हारे पास आयी हूँ। तुम्हारे गुणों ने मेरे चित्त को अपनी ओर खींच लिया है। मैं कामदेव के वश में हो गयी हूँ। वीर! मेरे हृदय में भी चिरकाल से यह मनोरथ चला आ रहा था।'

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! स्वर्गलोक में उर्वशी की यह बात सुनकर अर्जुन अत्यन्त लज्जा से गड़ गये और हाथों से दोनों कान मूंदकर बोले,,

   अर्जुन बोले ;- ‘सौभाग्यशालिनि! भाविनि! तुम जैसी बात कह रही हो, उसे सुनना भी मेरे लिये बड़े दु:ख की बात है। वरानने! निश्चय ही तुम मेरी दृष्टि में गुरुपत्नियों के समान पूजनीय हो। कल्याणि! मेरे लिये जैसी महाभागा कुन्ती ओर इन्द्राणि शची हैं, वैसी ही तुम भी हो। इस विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 39-56 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘शुभे! पवित्र मुसकान वाली उर्वशी! मैंने जो उस समय सभा में तुम्हारी ओर एकटक दृष्टि से देखा था, उसका एक विशेष कारण था, उसे सत्य बताता हूँ सुनो। यह आनंदमयी उर्वशी की पूरुवंश की जननी है, ऐसा समझकर मेरे नेत्र खिल उठे और इस पूज्य भाव को लेकर ही मैंने तुम्हें वहाँ देखा था। कल्याणमयी अप्सरा! तुम मेरे विषय में कोई अन्यथा भाव मन में न लाओ। तुम मेरे वंश की वृद्धि करने वाली हो, अतः गुरु से भी अधिक गौरवशालिनी हो’।

   उर्वशी ने कहा ;- 'वीर देवराजनन्दन! हम सब अप्सराएं स्वर्गवासियों के लिये अनावृत हैं-हमारा किसी के साथ कोई पर्दा नहीं है। अतः तुम मुझे गुरुजन के स्थान पर नियुक्त न करो। पूरुवंश के कितने ही पोते-नाती तपस्या करके यहाँ आते हैं और वे हम सब अप्सराओं के साथ रमण करते हैं। इसमें उनका कोई अपराध नहीं समझा जाता। मानद! मुझ पर प्रसन्न होओ। मैं कामवेदना पीड़ित हूँ, मेरा त्याग न करो। मैं तुम्हारी भक्त हूँ और मदनाग्नि से दग्ध हो रही हूँ; अतः मुझे अंगीकार करो।'

   अर्जुन ने कहा ;- 'वरारोहे! अनिन्दित! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, मेरे उस सत्य वचन को सुनो। ये दिशा, विदिशा तथा उनकी अधिष्ठात्री देवियां भी सुन लें। अनघे! मेरी दृष्टि में कुन्ती, माद्री और शची का जो स्थान है, वही तुम्हारा भी है। तुम पूरुवंश की जननी होने के कारण आज मेरे लिये परम गुरुस्वरूप हो। वरवर्णिनि! मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर तुम्हारी शरण में आया हूँ। तुम लौट जाओ। मेरी दृष्टि में तुम माता के समान पूजनीया हो और तुम्हें पुत्र के समान मानकर मेरी रक्षा करनी चाहिये।'

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कुन्तीकुमार अर्जुन के ऐसा कहने पर उर्वशी क्रोध से व्याकुल हो उठी। उसका शरीर कांपने लगा और भौहें टेढ़ी हो गयीं। उसने अर्जुन को शाप देते हुए कहा।

   उर्वशी बोली ;- 'अर्जुन! तुम्हारे पिता इन्द्र के कहने से मैं स्वयं तुम्हारे घर पर आयी और कामबाण से घायल हो रही हूँ, फिर भी तुम मेरा आदर नहीं करते। अतः तुम्हें स्त्रियों के बीच में सम्मानरहित होकर नर्तक बनकर रहना पड़ेगा। तुम नपुसंक कहलाओगे और तुम्हारा सारा आचार-व्यवहार हिजड़ों के ही समान होगा।' फड़कते हुए ओठों से इस प्रकार शाप देकर उर्वशी लंबी सांसें खींचती हुई पुनः शीघ्र ही अपने घर को लौट गयी।

  तदनन्तर शत्रुदमन पाण्डुकुमार अर्जुन बड़ी उतावली के साथ चित्रसेन के समीप गये तथा रात में उर्वशी के साथ जो घटना जिस प्रकार घटित हुई, वह सब उन्होंने उस समय चित्रसेन को ज्यों का त्यों कह सुनायी। साथ ही उसके शाप देने की बात भी उन्होंने बार-बार दुहरायी। चित्रसेन ने भी सारी घटना देवराज इन्द्र से निवेदन की। तब इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन को बुलाकर एकान्त में कल्याणमय वचनों द्वारा सान्त्वना देते हुए मुसकराकर उनसे कहा,,

   देवराज इंद्र बोले ;- ‘तात! तुम सत्पुरुषों के शिरोमणि हो, तुम-जैसे पुत्र को पाकर कुन्ती वास्तव में श्रेष्ठ पुत्र वाली है। महाबाहो! तुमने अपने धैर्य (इन्द्रियसंयम) के द्वारा ऋषियों को भी पराजित कर दिया है। मानद! उर्वशी ने तुम्हें शाप दिया है, वह तुम्हारे अभीष्ट अर्थ का साधक होगा।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 57-63 का हिन्दी अनुवाद)

  अनघ! तुम्हें भूतल पर तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास करना है। वीर! उर्वशी के दिये हुए शाप को तुम उसी वर्ष में पूर्ण कर दोगे। नर्तक वेष और नपुंसक भाव से एक वर्ष तक इच्छानुसार विचरण करके तुम फिर अपना पुरुषत्व प्राप्त कर लोगे’।

  इन्द्र के ऐसा कहने पर शत्रु वीरों का संहार करने वाले अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर तो उन्हें शाप की चिंता छूट गयी। पाण्डुपुत्र धनंजय महायशस्वी गन्धर्व चित्रसेन के साथ स्वर्गलोक में सुखपूर्वक रहने लगे।

  जो मनुष्य पाण्डुनन्दन अर्जुन के इस चरित्र को प्रतिदिन सुनता है, उसके मन में पापपूर्ण विषय भोगों की इच्छा नहीं होती। देवराज इन्द्र के पुत्र अर्जुन के इस अत्यन्त दुष्कर पवित्र चरित्र को सुनकर मद, दम्भ तथा विषयासक्ति आदि दोषों से रहित श्रेष्ठ मानव स्वर्गलोक में जाकर वहाँ सूखपूर्वक निवास करते हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्व में उर्वशीशाप नामक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

सैतालीसवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"लोमश मुनि का स्वर्ग में इन्द्र और अर्जुन से मिलकर उनका संदेश ले काम्यकवन में आना"

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! एक समय की बात है, महर्षि लोमश इधर-उधर घूमते हुए इन्द्र से मिलने की इच्छा लेकर स्वर्गलोक में गये। उन महामुनि ने देवराज इन्द्र से मिलकर उन्हें नमस्कार किया और देखा, पाण्डुनन्दन अर्जुन इन्द्र के आधे सिंहासन पर बैठे हैं। तदनन्तर इन्द्र की आज्ञा से एक उत्तम सिंहासन पर, जहाँ ऊपर कुश का आसन बिछा हुआ था, महर्षियों से पूजित द्विजवर लोमश जी बैठे। इन्द्र के सिंहासन पर बैठे हुए कुन्तीकुमार अर्जुन को देखकर लोमश जी के मन में एक विचार हुआ कि ‘क्षत्रिय होकर भी कुन्तीकुमार ने इन्द्र का आसान कैसे प्राप्त कर लिया? इनका पुण्य-कर्म क्या है? इन्होंने किन-किन लोकों पर विजय पायी है? जिस पुण्य के प्रभाव से इन्होंने यह देववन्दित स्थान प्राप्त किया है?'

लोमश मुनि के संकल्प को जानकर वृ़त्रहन्ता शचीपति इन्द्र ने हंसते हुए उनसे कहा,,
   देवराज इंद्र बोले ;- ‘ब्रह्मर्षे! आपके मन में जो प्रश्न उठा है, उसका समधान कर रहा हूं, सुनिये। ये अर्जुन मानव योनि में उत्पन्न हुए केवल मरणधर्मा मनुष्य नहीं हैं। महर्षे! ये महाबाहु धनंजय कुन्ती के गर्भ से उत्पन्न मेरे पुत्र हैं और कुछ कारणवश अस्त्र-विद्या सीखने के लिये यहाँ आये हैं। आश्चर्य है कि आप इन पुरातन ऋषिप्रवर को नहीं जानते हैं। ब्रह्मन्! इनका जो स्वरूप है और इनके अवतार-ग्रहण का जो कारण है, वह सब मैं बता रहा हूं, आप मेरे मुंह से यह बात सुनिये। नर-नारायण नाम से प्रसिद्ध जो पुरातन मुनीश्वर हैं, वे ही श्रीकृष्ण और अर्जुन के रूप में अवतीर्ण हुए हैं, यह बात आप जान लें। तीनों लोकों में विख्यात नर-नारायण ऋषि ही देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये पुण्य के आधाररूप भूतल पर अवतीर्ण हुए हैं। देवता अथवा महात्मा महर्षि भी जिसे देखने में समर्थ नहीं, वह बदरी नाम से विख्यात पुण्यतीर्थ इनका आश्रम है, वहीं पूर्वकाल में श्रीकृष्ण और अर्जुन का (नारायण और नर का) निवास स्थान था। जहाँ से सिद्ध-चारणसेवित गंगा का प्राकट्य हुआ है।

   ब्रह्मर्षे! ये दोनों महातेजस्वी नर और नारायण मेरे अनुरोध से पृथ्वी पर उत्पन्न हैं। इनकी शक्ति महान् है, ये दोनों इस पृथ्वी का भार उतारेंगे। इन दिनों निवातकवच नाम से प्रसिद्ध कुछ असुरगण बड़े उद्दण्ड हो रहे हैं, वे वरदान से मोहित होकर हमारा अनिष्ट करने में लगे हुए हैं। उनमें बल तो है ही, बली होने का अभिमान भी है। वे देवताओं को मार डालने के विचार करते हैं। देवताओं को तो वे लोग कुछ गिनते ही नहीं; क्योंकि उन्हें वैसा ही वरदान प्राप्त हो चुका है। वे महाबली भयंकर दानव पाताल में निवास करते हैं। सम्पूर्ण देवता मिलकर भी उसके साथ युद्ध नहीं कर सकते। इस समय भूतल पर जिनका अवतार हुआ है, वे श्रीमान् मधुसूदन विष्णु ही कपिल नाम से प्रसिद्ध देवता हुए हैं। वे ही भगवान् अपराजित हरि हैं। महर्षे! पूर्वकाल में रसातल को खोदने वाले सगर के महामना पुत्र उन्हीं कपिल की दृष्टिपात पड़ने से भस्म हो गये थे।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-35 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘द्विजश्रेष्ठ! वे भगवान् श्रीहरि हमारा महान् कार्य सिद्ध कर सकते हैं। कुन्तीकुमार अर्जुन से भी हमारा कार्य सिद्ध हो सकता है। यदि श्रीकृष्ण और अर्जुन किसी महायुद्ध में एक-दूसरे से मिल जायें तो वे दोनों एक साथ होकर महान् से महान् कार्य सिद्ध कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं है। भगवान् श्रीकृष्ण तो दृष्टिनिक्षेपमात्र से ही महान् कुण्ड में निवास करने वाले नागों की भाँति समस्त ‘निवातकवच’ नामक दानवों को उनके अनुयायियों सहित मार डालने में समर्थ हैं। परन्तु किसी छोटे कार्य के लिये भगवान् मधुसूदन को सूचना देनी उचित नहीं जान पड़ती। वे तेज के महान् राशि हैं; यदि प्रज्वलित हों तो सम्पूर्ण जगत् को भस्म कर सकते हैं। ये शूरवीर अर्जुन अकेले ही उन समस्त निवातकवचों का संहार करने में समर्थ हैं। उन सब को युद्ध में मारकर ये फिर मनुष्य लोक को लौट जायेंगे।

  मुने! आप मेरे अनुरोध से कृपया भूलोक में जाइये और काम्यकवन में निवास करने वाले युधिष्ठिर से मिलिये। वे बड़े धर्मात्मा और सत्यपवित्र हैं। उनसे मेरा यह संदेश कहियेगा,,- ‘राजन्! आप अर्जुन के वापस लौटने के विषय में उत्कण्ठित न हों। वे अस्त्र विद्या सीखकर शीघ्र ही लौट आयेंगे। जिसका बाहुबल पूर्ण अस्त्र शिक्षा के अभाव से त्रुटिपूर्ण हो तथा जिसने अस्त्र विद्या का पूर्ण ज्ञान न प्राप्त किया हो, वह युद्ध में भीष्म-द्रोण आदि का सामना नहीं कर सकता। महाबाहु महामना अर्जुन अस्त्र विद्या की पूरी शिक्षा पा चुके हैं। वे दिव्य नृत्य, वाद्य एवं गीत की कला में भी पारंगत हो गये हैं। मनुजेश्वर! शत्रुदमन! आप भी अपने सभी भाइयों के साथ पवित्र तीर्थों का दर्शन कीजिये। राजेन्द्र! पुण्यतीथों के स्नान करके पाप-ताप से रहित हो सुखी एवं निष्कलंक जीवन बिताते हुए आप राज्य भोग करेंगे। द्विजश्रेष्ठ! आप भी भूतल पर विचरने वाले राजा युधिष्ठिर की रक्षा करते रहें; क्योंकि आप तपोबल से सम्पन्न हैं। पर्वतों के दुर्गम स्थानों में तथा ऊंची-नीची भूमियों में भयंकर राक्षस निवास करते हैं; उनसे आप भाइयों सहित युधिष्ठिर की रक्षा कीजियेगा’।

महेन्द्र के ऐसा कहने पर अर्जुन ने भी विनीत होकर लोमश मुनि से कहा,,
   अर्जुन बोले ;- ‘मुने! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की भाइयों सहित रक्षा कीजिये। साधुशिरोमणे! महामुने! आपसे सुरक्षित रहकर राजा युधिष्ठिर तीथों में भम्रण करें और दान दें-ऐसी कृपा कीजिये’।

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ‘बहुत-अच्छा’ कहकर महातपस्वी लोमश जी ने उनका अनुरोध मान लिया और काम्यकवन में जाने के लिये भूलोक की ओर प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने शत्रुदमन कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिर को भाइयों तथा तपस्वी मुनियों से घिरा हुआ देखा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्व में लोमशगमन विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

अड़तालीसवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टचत्वारिश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"दुःखित धृतराष्ट्र का संजय के सम्मुख अपने पुत्रों के लिये चिंता करना"

  जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! अमित तेजस्वी कुन्तीकुमार अर्जुन का यह कर्म तो अत्यन्त अद्भुत है। परम बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्र ने भी यह अवश्य सुना होगा। उसे सुनकर उन्होंने क्या कहा था? यह बतलाइये।

   वैशम्पायन जी ने कहा ;- जनमेजय! अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने ऋषि द्वैपायन व्यास के मुख से अर्जुन के इन्द्रलोकगमन का समाचार सुनकर संजय से यह बात कही। 
  धृतराष्ट्र बोले ;- सूत! मैंने परम बुद्धिमान् कुन्तीकुमार अर्जुन का सारा वृत्तान्त सुना है। सारथे! क्या तुम्हें भी इस विषय में यथार्थ बातें ज्ञात हुई हैं? मेरा मूढ़बुद्धि पुत्र तो विषय भोगों में फंसा हुआ है। उसका विचार सदा पापपूर्ण ही बना रहता है। प्रमाद में पड़ा हुआ वह अत्यन्त दुर्बुद्धि दुर्योधन एक दिन सारे भूमण्डलका नाश करा देगा। जिन महात्मा के मुख से हंसी में भी सदा सत्य ही बातें निकलती हैं और जिनकी ओर से लड़ने वाले धनंजय जैसे योद्धा हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिर के लिये इस कौरव-राज्य को जीतने की तो बात ही क्या है, वे तीनों लोकों पर अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। जो पत्थर पर रगड़कर तेज किये गये हैं, जिनके अग्रभाग बड़े तीखे हैं, उन कर्णि नामक नाराचों का प्रहार करने वाले अर्जुन के आगे कौन योद्धा ठहर सकता है?
  जराविजयी मृत्यु भी उनका सामना नहीं कर सकती। मेरे सभी दुरात्मा पुत्र मृत्यु के वश में हो गये हैं, क्योंकि उनके सामने दुर्धर्ष वीर पाण्डवों के साथ युद्ध करने का अवसर उपस्थित हुआ है। मैं दिन-रात विचार करने में भी यह नहीं समझ पाया कि युद्ध में गाण्डीवधन्वा अर्जुन का सामना कौन रथी कर सकता है? द्रोण और कर्ण उस अर्जुन का सामना कर सकते हैं। भीष्म भी युद्ध में उससे लोहा ले सकते हैं; परन्तु तो भी मेरे मन में महान् संशय ही बना हुआ है। मुझे इस लोक में अपने पक्ष की जीत नहीं दिखायी देती। कर्ण दयालु और प्रमादी है। आचार्य द्रोण वृद्ध एवं गुरु हैं। इधर कुन्तीकुमार अर्जुन अत्यन्त अमर्ष में भरे हुए और बलवान् हैं। उद्योगी और दृढ़ पराक्रमी हैं। सब ओर से घमासान युद्ध छिड़ने की सम्भावना हो गयी है। युद्ध में पाण्डवों की पराजय नहीं हो सकती; क्योंकि उनकी ओर सभी अस्त्र विद्या के विद्वान् शूरवीर और महान् यशस्वी हैं और वे पराजित न होकर सवेश्वर सम्राट् बनने की इच्छा रखते हैं। इन कर्ण आदि योद्धाओं का वध हो जाये अथवा अर्जुन ही मारे जायें तो इस विवाद की शांति हो सकती है। परन्तु अर्जुन को मारने वाला या जीतने वाला कोई नहीं है। मेरे मन्दबुद्धि पुत्रों के प्रति उनका बढ़ा हुआ क्रोध कैसे शांत हो सकता है? अर्जुन इन्द्र के समान वीर हैं। उन्होंने खाण्डव वन में अग्नि को तृप्त किया तथा राजसूय महायज्ञ में समस्त राजाओं पर विजय पायी।
    संजय! पर्वत के शिखर पर गिरने वाला वज्र भले ही कुछ बाकी छोड़ दे; किंतु तात! किरीटधारी अर्जुन के चलाये हुए बाण कुछ भी शेष नहीं छोड़ेंगे। जैसे सूर्य की किरणें चराचर जगत् को संतप्त करती हैं, उसी प्रकार अर्जुन की भुजाओं द्वारा चलाये गये बाण मेरे पुत्रों को संतप्त कर देंगे। मुझे तो आज भी सव्यसाची अर्जुन के रथ की घरघराहट से सारी कौरव सेना भयातुर हो छिन्न-भिन्न सी होती प्रतीत हो रही है। जब किरीटधारी अर्जुन हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये (तूणीर से) बाण निकालते और चलाते हुए समरभूमि में खडे़ होंगे, उस समय उनसे पार पाना असम्भव हो जायेगा। वे ऐसे जान पड़ेंगे, मानों विधाता ने किसी दूसरे सर्वसंहारकारी यमराज की सृष्टि कर दी हो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्व में धृतराष्ट्रविलाप विषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

उन्चासवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोनपंचशत्तम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"संजय के द्वारा धतराष्ट्र की बातों का अनुमोदन और धृतराष्ट्र का संताप"

  संजय बोला ;- राजन् आपने जो दुर्योधन के विषय में जो बातें कही हैं, वे सभी यथार्थ हैं। महीपते! आपका वचन मिथ्या नहीं है। महातेजस्वी वे पाण्डव अपनी धर्मपत्नी यशस्विनी कृष्णा को सभा में लायी गयी देखकर क्रोध से भरे हुए हैं और महाराज! दुःशासन तथा कर्ण की वह कठोर बातें सुनकर पाण्डव आप लोगों की निंदा करते हैं, ऐसा मुझे विश्वास है। राजेन्द्र! मैंने यह भी सुना है कि कुन्तीकुमार अर्जुन ने एकादश मूर्तिधारी भगवान् शंकर को भी अपने धनुष-बाण की कला द्वारा संतुष्ट किया। जटाजूटधारी सर्वदेवेश्वर भगवान् शंकर ने स्वयं ही अर्जुन के बल की परीक्षा लेने के लिये किरातवेष धारण करके उनके साथ युद्ध किया था। वहाँ अस्त्र प्राप्ति के लिये विशेष उद्योगशील कुरुकुलरत्न अर्जुन को उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन लोकपालों ने भी दर्शन दिया था। इस संसार में अर्जुन को छोड़कर दूसरा कोई मनुष्य ऐसा नहीं है, जो इन लोकश्वरों का साक्षात् दर्शन प्राप्त कर सके।

   राजन्! अष्टमूर्ति भगवान् महेश्वर भी जिसे युद्ध में पराजित न कर सके, उन्हीं वीरवर अर्जुन को दूसरा कोई वीर पुरुष जीतने का साहस नहीं कर सकता। भरी सभा में द्रौपदी का वस्त्र खींचकर पाण्डवों को कुपित करने वाले आप के पुत्रों ने स्वयं ही इस रोमांचकारी, अत्यन्त भयंकर एवं घमासान युद्ध को निमन्त्रित किया। जब दुर्योधन ने द्रौपदी को अपनी दोनों जांघें दिखायी थीं, उस समय यह देखकर भीमसेन ने फड़कते हुए ओठों से जो बात कही थी, वह व्यर्थ नहीं हो सकती।
   उन्होंने कहा था,,- ‘पापी दुर्योधन! मैं तेरहवें वर्ष के अन्त में अपनी भयानक वेगशाली गदा से तुझ कपटी जुआरी की दोनों जांघें तोड़ डालूंगा।' सभी पाण्डव प्रहार करने वाले योद्धाओं में श्रेष्ठ हैं। सभी अपरिमित तेज से सम्पन्न हैं तथा सब को अस्त्रों का परिज्ञान है, अतः वे देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्जय हैं। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि अपनी पत्नी के अपमानजनित अमर्ष से युक्त और रोष से उत्तेजित हो समस्त कुन्तीपुत्र संग्राम में आपके पुत्रों का संहार कर डालेंगे।'
   धृतराष्ट्र ने कहा ;- सूत! कर्ण ने कठोर बातें कहकर क्या किया, पूरा वैर तो इतने से ही बढ़ गया कि द्रौपदी को सभा में (केश पकड़कर) लाया गया। अब भी मेरे मूर्ख पुत्र चुपचाप बैठे हैं। उनका बड़ा भाई दुर्योधन विनय एवं नीति के मार्ग पर नहीं चलता। सूत! वह मन्दभागी दुर्योधन मुझे अन्धा, अकर्मण्य और अविवेकी समझकर मेरी बात भी नहीं सुनना चाहता। कर्ण और शकुनि आदि जो उसके मूर्ख मंत्री हैं, वे भी विचारशून्य होकर उसके अधिक-से-अधिक दोष बढ़ाने की ही चेष्टा करते हैं। अमित तेजस्वी अर्जुन के द्वारा स्वेच्छापूर्वक छोड़े हुए बाण भी मेरे पुत्रों को जलाकर भस्म कर सकते हैं, फिर क्रोधपूर्वक छोड़े हुए बाणों के लिये तो कहना ही क्या है? अर्जुन के बाहु-बल द्वारा चलाये हुए उनके महान् धनुष से छूटे हुए दिव्यास्त्र मन्त्रों द्वारा अभिमंत्रित बाण देवताओं का भी संहार कर सकते हैं। जिनके मंत्री, संरक्षक और सुह्द त्रिभूवननाथ, जनार्दन श्रीहरि हैं, वे किसे नहीं जीत सकते?
   संजय! अर्जुन का वह पराक्रम तो बड़े आश्चर्य का विषय है कि उन्होंने महादेव जी के साथ बाहुयुद्ध किया, यह मेरे सुनने में आया है। आज से पहले खाण्डव वन में अग्निदेव की सहायता के लिये श्रीकृष्ण और अर्जुन ने जो कुछ किया है, वह तो सम्पूर्ण जगत् की आंखों के सामने है। जब कुन्तीपुत्र अर्जुन, भीमसेन और यदुकुलतिलक वासुदेव श्रीकृष्ण क्रोध में भरे हुए हैं, तब मुझे यह विश्वास कर लेना चाहिये कि शकुनि तथा अन्य मंत्रियों सहित मेरे सभी पुत्र सर्वथा जीवित नहीं रह सकते।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्व में धृतराष्ट्र खेद विषयक उन्चासवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

पचासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"वन में पाण्डवों का आहार"

   जनमेजय बोले ;- मुने! वीर पाण्डवों को वन में निर्वासित करके राजा धृतराष्ट्र ने जो इतना शोक किया, यह व्यर्थ था। उस मंदबुद्धि राजकुमार दुर्योधन को ही किसी तरह त्याग देना उसके लिये सर्वथा उचित था, जो महारथी पाण्डवों को अपने दुर्व्यवहार से कुपित करता जा रहा था। विप्रवर! बताइये, पाण्डव लोग वन में क्या भोजन करते थे? जंगली फल-मूल या खेती से पैदा हुआ ग्रामीण अन्न? इसका आप स्पष्ट वर्णन कीजिये।
    वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन्! पुरुषश्रेष्ठ पाण्डव जंगली फल-मूल और खेती से पैदा हुए अन्नादि भी पहले ब्राह्मणों को निवेदन करके फिर स्वयं खाते थे एवं सब लोगों की रक्षा के लिये केवल बाणों के द्वारा ही हिसंक पशुओं को मारा करते थे। राजन्! उन दिनों वन में निवास करने वाले महाधनुर्धर शूरवीर पाण्डवों के साथ बहुत-से साग्निक (अग्निहोत्री) और निरग्रिक (अग्निहोत्ररहित) ब्राह्मण भी रहते थे। राजा युधिष्ठिर जिनका पालन करते थे, वे महात्मा, स्नातक, मोक्षवेत्ता ब्राह्मण दस हजार की संख्या में थे। वे रुरुमृग, कृष्णमृग तथा अन्य जो मेध्य (पवित्र) हिसंक वनजन्तु थे, उन सबको विविध बाणों द्वारा मारकर उनके चर्म ब्राह्मणों को आसनादि बनाने के लिये अर्पित कर देते थे। वहाँ उन ब्राह्मणों में से कोई भी ऐसा नहीं दिखायी देता था, जिसके शरीर का रंग दूषित हो अथवा जो किसी रोग से ग्रस्त हो। उनमें से कोई कृशकाय, दुर्बल, दीन अथवा भयभीत भी नहीं जान पड़ता था।
   कुरुकुलतिलक धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों का प्रिय पुत्रों की भाँति तथा ज्ञातिजनों का सहोदर भाइयों के समान पालन-पोषण करते थे। इसी प्रकार यशस्विनी द्रौपदी भी पतियों तथा समस्त द्विजातियों को माता के समान पहले भोजन कराकर पीछे बचा-खुचा आप खाती थी।
   राजा युधिष्ठिर पूर्व दिशा में, भीमसेन दक्षिण दिशा में तथा नकुल-सहदेव पश्चिम एवं उत्तर दिशा में और कभी सब मिलकर नित्य वन में निकल जाते ओर धनुषधारी (डाकुओं) तथा हिंसक पशुओं का संहार किया करते थे। इस प्रकार काम्यकवन में अर्जुन से वियुक्त एवं उनके लिये उत्कण्ठित होकर निवास करने वाले पाण्डवों के पांच वर्ष व्यतीत हो गये। इतने समय तक उनका स्वाध्याय, जप और होम सदा पूर्ववत् चलता रहा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्व में पाण्डवों के भोजन का वर्णनविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें