सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के इकतालीसवें अध्याय से पैतालीसवें अध्याय तक (From the 41 to the 45 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कैरात पर्व)

इकतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन के पास दिक्पालों का आगमन एवं उन्हें दिव्यास्त्र प्रदान तथा इन्द्र का उन्हें स्वर्ग में चलने का आदेश देना"

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन के देखते-देखते पिनाकधारी भगवान् वृषभध्वज अदृश्य हो गये। मानों भुवनभास्कर भगवान् सूर्य अस्त हो गये हों। भारत! तदनन्तर शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन को यह सोचकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि आज मुझे महादेव जी का प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं धन्य हूं! भगवान् का मुझ पर बड़ा अनुग्रह है कि त्रिनेत्रधारी, सर्वपापधारी एवं अभीष्ट वर देने वाले पिनाकपाणि भगवान् शंकर ने मूर्तिमान होकर मुझे दर्शन दिया और अपने करकमलों से मेरे अंगों का स्पर्श किया। आज मैं अपने-आपको परम कृतार्थ मानता हूं, साथ ही यह विश्वास करता हूँ कि महासमर में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करूंगा। अब मेरा अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध हो गया।

   इस प्रकार चिन्तन करते हुए अमित तेजस्वी कुन्तीकुमार अर्जुन के पास जल के स्वामी श्रीमान् वरुणदेव जल जन्तुओं से घिरे हुए आ पहुँचे। उनकी अंगकांति वैदूर्य मणि के समान थी और वे सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। नागों, नद और नदियों के देवताओं, दैत्यों तथा साध्य देवताओं के साथ जलजन्तुओं के स्वामी जितेन्द्रिय वरुणदेव ने उस स्थान को अपने शुभागमन से सुशोभित किया । तदनन्तर स्वर्ण के समान शरीर वाले भगवान् कुबेर महातेजस्वी विमान द्वारा वहाँ आये। उनके साथ बहुत-से यक्ष भी थे। वे अपने तेज से आकाशमण्डल को प्रकाशित से कर रहे थे। उनका दर्शन अद्भुत एवं अनुपम था। परम सुन्दर श्रीमहान् धनाध्यक्ष कुबेर अर्जुन को देखने के लिये वहाँ पधारे थे। इसी प्रकार समस्त जगत् का अन्त करने वाले श्रीमहान् प्रतापी यमराज ने प्रत्यक्ष रूप में वहाँ दर्शन दिया। उनके साथ मानव शरीरधारी विश्वभावन पितृगण भी थे। उनके हाथ में दण्ड शोभा पा रहा था । सम्पूर्ण भूतों का विनाश करने वाले अचिन्त्यामा सूर्यपुत्र धर्मराज अपने (तेजस्वी ) विमान से तीनों लोकों, गुह्यकों, गन्धर्वो तथा नागों को प्रकाशित कर रह थे। प्रलयकाल उपस्थित होने पर दिखायी देने वाले द्वितीय सूर्य की भाँति उनकी अद्भुत शोभा हो रही थी। उन सब देवताओं ने उस महापर्वत के विचित्र एवं तेजस्वी शिखरों पर पहुँचकर वहाँ तपस्वी अर्जुन को देखा।

   तत्पश्चात् दो ही घड़ी के बाद भगवान् इन्द्र इन्द्राणी के साथ ऐरावत की पीठ पर बैठकर वहाँ आये। देवताओं के समुदाय ने उन्हें सब ओर से घेर रखा था। उनके मस्तक पर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिससे वे शुभ्र के मेघखण्ड से आच्छादित चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे। बहुत से तपस्वी ऋषि तथा गन्धर्वगण उनकी स्तुति करते थे। वे उस पर्वत के शिखर पर आकर ठहर गये। मानो वहाँ सूर्य प्रकट हो रहे हों। तदनन्तर मेघ के समान गम्भीर स्वर वाले परम धर्मज्ञ एवं बुद्धिमान् यमराज ने दक्षिण दिशा में स्थित हो यह शुभ वचन बोले- 'अर्जुन! हम सब लोकपाल यहाँ आये हुए हैं। तुम हमें देखो। हम तुम्हें दिव्य दृष्टि देते हैं। तुम हमारे दर्शन के अधिकारी हो। तुम महामना एवं महाबली पुरातन महर्षि नर हो । तात! ब्रह्मा जी की आज्ञा से तुमने मानव शरीर ग्रहण किया है। अनघ! वसुओं के अंश में उत्पन्न महापराक्रमी और परम धर्मात्मा पितामह भीष्म को तुम संग्राम में जीत लोगे। भरद्वाजपुत्र द्रोणाचार्य के द्वारा सुरक्षित क्षत्रिय समुदाय भी, जिसका स्पर्श अग्नि के समान भयंकर है, तुम्हारे द्वारा पराजित होगा। कुरुनन्दन ! मानव शरीर में उत्पन्न हुए महाबली दानव तथा निवातकवच नामक दैत्य भी तुम्हारे हाथ से मारे जायेंगे। धनंजय ! सम्पूर्ण जगत् को उष्णता प्रदान करने वाले मेरे पिता भगवान् सूर्यदेव के अंश से उत्पन्न महापराक्रमी कर्ण भी तुम्हारा वध्य होगा।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 22-49 का हिन्दी अनुवाद)

   'शत्रुओं का संहार करने वाले कुन्तीकुमार! देवताओं, दानवों तथा राक्षसों के जो अंश पृथ्वी पर उत्पन्न हुए हैं, वे युद्ध में तुम्हारे द्वारा मारे जाकर अपने कर्मफल के अनुसार यथोचित गति प्राप्त करेंगे। फाल्गुन ! संसार में तुम्हारी अक्षय कीर्ति स्थापित होगी। तुमने यहाँ महासमर में साक्षात् महादेव जी को संतुष्ट किया। महाबाहो ! भगवान् श्रीकृष्ण के साथ मिलकर तुम्हें इस पृथ्वी का भार भी हल्का करना है, अतः यह मेरा दण्डास्त्र ग्रहण करो। इसका वेग कहीं भी कुण्ठित नहीं होता। इसी अस्त्र के द्वारा तुम बड़े-बड़े कार्य सिद्ध करोगे।'

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कुरुनन्दन कुन्तीकुमार अर्जुन ने विधिपूर्वक मन्त्र, उपचार, प्रयोग और उपसंहार सहित उन अस्त्र को ग्रहण किया। इसके बाद जलजन्तुओं के स्वामी मेघ के समान श्याम कांति वाले प्रभावशाली वरुण पश्चिम दिशाओं में खड़े हो इस प्रकार बोले,,

   वरूण जी बोले ;- 'पार्थ! तुम क्षत्रियों में प्रधान एवं क्षत्रिय धर्म में स्थित हो । विशाल तथा लाल नेत्रों वाले अर्जुन! मेरी ओर देखो में जल का स्वामी वरुण हूँ। कुन्तीकुमार! मेरे दिये हुए इन वरुण पाशों को रहस्य और उपसंहार सहित ग्रहण करो। इनके वेग को कोई भी रोक नहीं सकता। वीर! मैंने इन पाशों द्वारा तारकामय संग्राम में सहस्रों महाकाय दैत्यों को बांध लिया था। अतः महाबली पार्थी मेरे कृपाप्रसाद से प्रकट हुए इन पाशों को तुम ग्रहण करो। इनके द्वारा आक्रमण करने पर मृत्यु भी तुम्हारे हाथ से नहीं छूट सकती। इन अस्त्र के द्वारा जब तुम संग्राम में विचरण करोगे, उस समय यह सारी वसुन्धरा क्षत्रियों से शून्य हो जायेगी, इसमें संशय नहीं है

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! वरुण और यम के दिव्यास्त्र प्रदान कर चुकने के बाद कैलासनिवासी धनाध्यक्ष कुबेर ने कहा,,

   कुबेर बोले ;- 'महाबली बुद्धिमान् पाण्डुनन्दन ! मैं भी तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम अपराजित वीर हो तुमसे मिलकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। सव्यसाचिन्! महाबाहो ! पुरातन देव! सनातनपुरुष ! पूर्वकल्पों में मेरे साथ तुमने सदा तप के द्वारा परिश्रम उठाया है। नरश्रेष्ठ! आज तम्हें देखकर यह दिव्यास्त्र प्रदान करता हूँ। महाबाहो ! इसके द्वारा तुम दुर्जय मानवेतर प्राणियों को भी जीत लोगे। तुम मुझसे शीघ्र ही इस अत्युत्तम अस्त्र को ग्रहण कर लो। तुम इसके द्वारा दुर्योधन की सारी सेनाओं को जलाकर भस्म कर डालोगे। यह मेरा परम प्रिय अन्तर्धान नामक अस्त्र है। इसे ग्रहण करो। यह ओज, तेज और कांति प्रदान करने वाला, शत्रुओं को सुला देने वाला और समस्त वैरियों का विनाश करने वाला है। परमात्मा शंकर ने जब त्रिपुरासुर के तीनों नगरों का विनाश किया था, उस समय इस अस्त्र का उनके द्वारा प्रयोग किया गया था, जिससे बड़े-बड़े असुर दग्ध हो गये। सत्यपराक्रमी और मेरु के समान गौरवशाली पार्थ तुम्हारे लिये यह अस्त्र मैंने उपस्थित किया है। तुम इसे धारण करने के योग्य हो' । तब कुरुकुलनन्दन आनंद बढ़ाने वाले महाबाहु महाबली अर्जुन ने कुबेर के उस 'अन्तर्धान' नामक दिव्य अस्त्र को ग्रहण किया।

   तदनन्तर देवराज इन्द्र ने अनायास ही महान कर्म करने वाले कुंतीकुमार अर्जुन को मीठे वचनों द्वारा सांत्वना देते हुए मेघ और दुन्दुभि के समान गम्भीर स्वर से कहा,,

   देवराज इंद्र बोले ;- 'महाबाहु कुन्तीकुमार! तुम पुरातन शासक हो। तुम्हें उत्तम स्थिति प्राप्त हुई है। तुम साक्षात् देवगति को प्राप्त हुए हो। शत्रुदमन! तुम्हें देवताओं का बड़ा भारी कार्य सिद्ध करना है। महाद्युते ! तैयार हो जाओ। तुम्हें स्वर्गलोक में चलना है। मातलि के द्वारा जोता हुआ दिव्य रथ तुम्हें लेने के लिये पृथ्वी पर आने वाला है। कुरुनन्दन! वहीं (स्वर्ग में) मैं तुम्हें दिव्यास्त्र प्रदान करूंगा ।' उस पर्वत शिखर पर एकत्र हुए उन सभी लोकपालों का दर्शन करके परम बुद्धिमान् धनंजय को बड़ा विस्मय हुआ । तत्पश्चात् महातेजस्वी अर्जुन ने वहाँ वहाँ पधारे हुए लोकपालों का मीठे वचन, जल और फलों के द्वारा भी विधिपूर्वक पूजन किया। इसके बाद इच्छानुसार मन के समान वेग वाले समस्त देवता अर्जुन के प्रति सम्मान प्रकट करके जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। तदनन्तर देवताओं के दिव्यास्त्र प्राप्त करके पुरुषोत्तम अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई, उन्होंने अपने-आपको कृतार्थ एवं पूर्णमनोरथ माना।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कैरावपर्व में देवप्रस्थान विषयक इकतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

बयालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन का हिमालय से विदा होकर मातलि के साथ स्वर्गलोक को प्रस्थान"

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! लोकपालों के चले जाने पर शत्रुसंहारक अर्जुन ने देवराज इन्द्र के रथ का चिन्तन किया। निद्राविजयी बुद्धिमान् पार्थ के चिन्तन करते ही मातलि सहित महातेजस्वी रथ वहाँ आ गया। वह रथ आकाश को अन्धकारशून्य मेघों की घटा को विदीर्ण और महान् मेघ की गर्जना के समान गम्भीर शब्द से दिशाओं को परिपूर्ण-सा कर रहा था। उस रथ में तलवार, भयंकर शक्ति, उग्र गदा, दिव्य प्रभावशाली प्रास, अत्यन्त कांतिमयी विद्युत्, अशनि एवं चक्रयुक्त भारी वजन वाले प्रस्तर के गोले रखे हुए थे, जो चलाते समय हवा में सनसनाहट पैदा करते थे तथा जिनसे वज्रगर्जना और महामेघों की गम्भीर ध्वनि के समान शब्द होते थे। उस स्थान में अत्यन्त भयंकर तथा प्रज्वलित मुख वाले विशालकाय सर्प मौजूद थे। श्वेत बादलों के समूह की भाँति ढेर के ढेर युद्ध में फेंकने योग्य पत्थर भी रखे हुए थे। वायु के समान वेगशाली दस हजार श्वेत-पीत रंग वाले घोड़े नेत्रों में चकाचौंध पैदा करने वाले उस दिव्य मायामय रथ को वहन करते थे। अर्जुन ने उस रथ पर अत्यन्त नीलवर्ण वाले महातेजस्वी 'वैजयन्त' नामक इन्द्रध्वज को फहराता देखा। उसकी श्याम सुषमा नील कमल की शोभा को तिरस्कृत कर रही थी। उस ध्वज के दण्ड में सुवर्ण मढ़ा हुआ था। महाबाहु कुन्तीकुमार ने उस रथ पर बैठे हुए सारथि की ओर देखा, जो तपाये हुए सुवर्ण के आभूषणों से विभूषित था। उसे देखकर उन्होंने कोई देवता ही समझा। इस प्रकार विचार करते हुए अर्जुन के सम्मुख उपस्थित हो मातलि ने विनीत भाव से कहा।

   मातलि बोला ;- 'इन्द्रकुमार ! श्रीमहान् देवराज इन्द्र आपको देखना चाहते हैं। यह उनका प्रिय रथ है। आप इस पर शीघ्र आरूढ़ होइये। आपके पिता देवेश्वर शतक्रतु ने मुझसे कहा है कि 'तुम कुन्तीनन्दन अर्जुन को यहाँ ले आओ, जिससे सब देवता उन्हें देखें। देवताओं, महर्षियों, गन्धर्वों तथा अप्सराओं से घिरे हुए इन्द्र आपको देखने के लिये प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप देवराज की आज्ञा से इस लोक से मेरे साथ देवलोक को चलिये। वहाँ से दिव्यास्त्र प्राप्त करके लौट आइयेगा।'

  अर्जुन ने कहा ;- 'मातले! आप जल्दी चलिये। अपने इस उत्तम रथ पर पहले आप चढ़िये । यह सैकड़ों राजसूय और अश्वमेध यज्ञों द्वारा भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। प्रचुर दक्षिणा देने वाले, महान् सौभाग्यशाली, यज्ञपरायण भूमिपालों, देवताओं अथवा दानवों के लिये भी इस उत्तम रथ पर आरूढ़ होना कठिन है। जिन्होंने तपस्या नहीं की है, वे इस महान् दिव्य रथ का दर्शन या स्पर्श भी नहीं कर सकते, फिर इस पर आरूढ़ होने की तो बात ही क्या है? साधु सारथे! आप इस रथ पर स्थिरतापूर्वक बैठकर जब घोड़ों को काबू में कर लें, तब जैसे पुण्यात्मा सन्मार्ग पर आरूढ़ होता है, उसी प्रकार पीछे में भी इस रथ पर आरूढ़ होऊंगा।'

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन का यह वचन सुनकर इन्द्रसारथि मातलि शीघ्र ही रथ पर जा बैठा और बागडोर खींचकर घोड़ों को काबू में किया । तदनन्तर कुरुनन्दन कुन्तीकुमार अर्जुन ने प्रसन्न मन से गंगा में स्नान किया और पवित्र हो विधिपूर्वक जपने योग्य मन्त्र का जप किया। फिर विधिपूर्वक न्यायोचित रीति से पितरों का तर्पण करके विस्तृत शैलराज हिमालय से विदा लेने का उपक्रम किया। 'गिरिराज! तुम साधु-महात्माओं, पुण्यात्मा मुनियों तथा स्वर्गमार्ग की अभिलाषा रखने वाले पुण्यकर्मा मनुष्य के सदा शुभ आश्रय हो।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद)

    'गिरीराज! तुम्हारे कृपाप्रसाद से सदा कितने ही ब्राह्मण और क्षत्रिय और वैश्य स्वर्ग में जाकर व्यथारहित हो देवताओं के साथ विचरते हैं। अद्रिराज! महाशैल! मुनियों के निवासस्थान! तीथों से विभूषित हिमालय! मैं तुम्हारे शिखर पर सुखपूर्वक रहा हूं, अतः तुमसे आज्ञा माँगकर यहाँ से जा रहा हूँ। तुम्हारे शिखर, कुंजवन, नदियां, झरने और परम पुण्यमय तीर्थस्थान मैंने अनेक बार देखें हैं। यहाँ के विभिन्न स्थानों से सुगन्धित फल लेकर भोजन किये हैं। तुम्हारे शरीर से प्रकट हुए परम सुगन्धित प्रचुर जल का सेवन किया है। तुम्हारे झरने का अमृत के समान स्वादिष्ट जल मैंने प्रतिदिन पान किया है। प्रभो नागराज! जैसे शिशु अपने पिता के अंक में बड़े सुख से रहता है, उसी प्रकार मैंने भी तुम्हारी गोद में आमोदपूर्वक क्रीड़ाएं की हैं। शैलराज! अप्सराओं से व्याप्त और वैदिक मन्त्रों के उच्च घोष से प्रतिध्वनित तुम्हारे शिखरों पर मैंने बड़े सुख से निवास किया।

    ऐसा कहकर शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन शैलराज से आज्ञा मानकर उस दिव्य रथ को देदीप्यमान करते हुए से उस पर आरूढ़ हो गये, मानो सूर्य सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे हों। परम् बुद्धिमान् कुरुनन्दन अर्जुन बड़े प्रसन्न होकर उस अद्भुत चाल से चलने वाले सूर्यस्वरूप दिव्य रथ के द्वारा ऊपर की ओर जाने लगे। धीरे-धीरे धर्मात्मा मनुष्यों के दृष्टिपथ से दूर हो गये। ऊपर जाकर उन्होंने सहस्रों अद्भुत विमान देखे। वहाँ न सूर्य प्रकाशित होते हैं, न चन्द्रमा अग्नि की प्रभा भी वहाँ काम नहीं देती है। वहाँ स्वर्ग के निवासी अपने पुण्कर्मों से प्राप्त हुई अपनी ही प्रभा से प्रकाशित होते हैं। यहाँ प्रकाशमान तारों के रूप में जो दूर होने के कारण दीपक की भाँति छोटे और बड़े प्रकाशपुंज दिखायी देते हैं, उन सभी प्रकाशमान स्वरूपों को पाण्डुनन्दन अर्जुन ने देखा। जो अपने-अपने अधिष्ठानों में अपनी ही ज्योति से देदीप्यमान हो रहे थे। उन लोकों में वे सिद्ध राजर्षि वीर निवास करते थे, जो युद्ध में प्राण देकर वहाँ पहुँचे थे। सैकड़ों झुंड के झुंड तपस्वी पुरुष स्वर्ग में आ रहे थे, जिन्होंने तपस्या द्वारा उस पर विजय पायी थी।

   सूर्य के समान प्रकाशमान सहस्रों गन्धव, गुह्यहों, ऋषियों तथा अप्सराओं के समूहों को और उनके स्वतः प्रकाशित होने वाले लोकों को देखकर अर्जुन को बड़ा आश्चर्य होता था। अर्जुन ने प्रसन्नतापूर्वक मातलि से उनके विषय में पूछा, 

    तब मातलि ने उनसे कहा ;- 'कुन्तीकुमार! ये वे ही पुण्यात्मा पुरुष हैं, जो अपने-अपने लोकों में निवास करते हैं। विभो ! उन्हीं को भूतल पर आपने तारों के रूप में चमकते देखा । तदनन्तर अर्जुन ने स्वर्गद्वार पर खड़े हुए सुन्दर विजयी गजराज ऐरावत को देखा, जिसके चार दांत बाहर निकले हुए थे। वह ऐसा जान पड़ता था, मानों अनेक शिखरों से सुशोभित कैलास पर्वत हो । कुरु- पाण्डवशिरोमणि अर्जुन सिद्धों के मार्ग पर आकर वैसे ही शोभा पाने लगे-जैसे पूर्वकाल में भूपालशिरोमणि मान्धाता सुशोभित होते थे। कमलनयन अर्जुन ने उन पुण्यात्मा राजाओं के लोक में भ्रमण किया। इस प्रकार महायशस्वी पार्थ ने स्वर्गलोक में विचरते हुए आगे जाकर इन्द्रपोरी अमरावती का दर्शन किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्व में बयालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

तिरयालिसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन द्वारा देवराज इन्द्र का दर्शन तथा इन्द्रसभा में उनका स्वागत"

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! अर्जुन ने सिद्धों और चारणों से सेवित उस रम्य अमरावतीपुरी को देखा, जो सभी ऋतुओं के कुसुम से विभूषित पुण्यमय वृक्षों से सुशोभित थी। वहाँ सुगन्धयुक्त कमल तथा पवित्र गन्ध वाले अन्य पुष्पों की पवित्र गन्ध से मिली हुई वायु मानों व्यजन डुला रही थी। अप्सराओं से सेवित दिव्य नन्दनवन का भी उन्होंने दर्शन किया, जो दिव्य पुष्पों से भरे हुए वृक्षों द्वारा मानों उन्हें अपने पास बुला रहा था। जिन्होंने तपस्या नहीं की है, जो अग्निहोत्र से दूर रहे हैं तथा जिन्होंने युद्ध में पीठ दिखा दी है, वैसे लोग पुण्यात्माओं के उस लोक का दर्शन भी नहीं कर सकते। जिन्होंने यज्ञ नहीं किया है, व्रत का पालन नहीं किया है, जो वेद और श्रुतियों के स्वाध्याय से दूर रहे हैं, जिन्होंने तीथों में स्नान नहीं किया है तथा जो यज्ञ और दान आदि सत्कर्मों से वंचित रहे हैं, ऐसे लोगों को भी उस पुण्यलोक का दर्शन नहीं हो सकता। जो यज्ञों में विघ्न डालने वाले नीच, शराबी, गुरुपत्नीगामी, मांसाहारी तथा दुरात्मा हैं, वे तो किसी भी प्रकार भी उस दिव्य लोक का दर्शन नहीं पा सकते।

   जहाँ सब ओर दिव्य संगीत गूंज रहा था, उस दिव्य वन का दर्शन करते हुए महाबाहु अर्जुन ने देवराज इन्द्र की प्रिय नगरी अमरावती में प्रवेश किया। वहाँ स्वेच्छानुसार गमन करने वाले देवताओं के सहस्रों विमान स्थिर भाव से खड़े थे और हजारों इधर-उधर आते जाते थे। उन सबको पाण्डुनन्दन अर्जुन ने देखा। उस समय गन्धर्व और अप्सराएं उनकी स्तुति कर रही थीं। फूलों की सुगन्ध का भार वहन करने वाली पवित्र मन्द मन्द वायु मानों उनके लिये चंवर डुला रही थी। तदनन्तर देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों और महर्षियों ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अनायास ही महान् कर्म करने वाले कुन्तीकुमार अर्जुन का स्वागत- सत्कार किया। कहीं उन्हें आर्शीवाद मिलता और कहीं स्तुति प्रशंसा प्राप्त होती थी। स्थान-स्थान पर दिव्य वाद्यों की मधुर ध्वनि से उनका स्वागत हो रहा था। इस प्रकार महाबाहु अर्जुन शंख और दुन्दुभियों के गम्भीर नाद से गूंजते हुए 'सुरवीथी' नाम से प्रसिद्ध विस्तृत नक्षत्र मार्ग पर चलने लगे।

   इन्द्र की आज्ञा से कुन्तीकुमार का सब ओर स्तवन हो रहा था और इस प्रकार वे गन्तव्य मार्ग पर बढ़ते चले जा रहे थे। वहाँ साध्य, विश्वेदेव, मरुद्गण, अश्विनीकुमार, आदित्य, वसु, रुद्र तथा विशुद्ध ब्रह्मर्षिगण और अनेक राजर्षिगण एवं दिलीप आदि बहुत-से राजा, तुम्बुरू, नारद, हाहा, हुहु आदि गन्धर्वगण विराजमान थे। शत्रुओं का दमन करने वाले कुरुनन्दन अर्जुन ने उन सबसे विधिपूर्वक मिलकर अन्त में सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले देवराज इन्द्र का दर्शन किया। उन्हें देखते ही महाबाहु पार्थ उस उत्तम रथ से उतर पड़े और देवेश्वर पिता पाकशासन (इन्द्र) को उन्होंने प्रत्यक्ष देखा। उनके मस्तक पर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिसमें मनोहर स्वर्णमय दण्ड शोभा पा रहा था। उनके उभयपार्श्व में दिव्य सुगन्ध से वासित चंवर डुलाये जा रहे थे। विश्वावसु आदि गन्धर्व स्तुति और वन्दनापूर्वक उसके गुण गाते थे। श्रेष्ठ ब्रह्मर्षिगण ऋग्वेद और सामवेद के इन्द्र देवता सम्बन्धी मंत्रों द्वारा उनका स्तवन कर रहे थे। तदनन्तर बलवान् कुन्तीकुमार ने निकट जाकर देवेन्द्र के चरणों में मस्तक रख दिया और उन्होंने अपनी गोल-गोल मोटी भुजाओं से उठाकर अर्जुन को हृदय से लगा लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद)

  तत्पश्चात् इन्द्र ने अर्जुन का हाथ पकड़कर अपने देवर्षिगणसेवित पवित्र सिंहासन पर उन्हें पास ही बिठा लिया। तब शत्रु वीरों का संहार करने वाले देवराज ने विनीतभाव से आये हुए अर्जुन का मस्तक सूंघा और उन्हें अपनी गोद में बिठा लिया। उस समय सहस्रनेत्रधारी देवेन्द्र के आदेश से उनके सिंहासन पर बैठे हुए अपरिमित प्रभावशाली कुन्तीकुमार दूसरे इन्द्र की भाँति शोभा पा रहे थे। इसके बाद वृत्रासुर के शत्रु इन्द्र ने पवित्र गन्धयुक्त हाथ से बड़े प्रेम के साथ अर्जुन को सब प्रकार से आश्वासन देते हुए उनके सुन्दर मुख का स्पर्श किया। अर्जुन की सुन्दर विशाल भुजाएं प्रत्यंचा खींचकर बाण चलाने की रगड़ से कठोर हो गयी थीं। वे देखने में सोने के खंभे जैसी जान पड़ती थीं। देवराज उन भुजाओं पर धीरे-धीरे हाथ फेरने लगे।

   वज्रधारी इन्द्र वज्रधारणजनित चिह्न से सुशोभित दाहिने हाथ से अर्जुन को बार-बार सान्त्वना देते हुए उनकी भुजाओं को धीरे-धीरे थपथपाने लगे। सहस्र नयनों से सुशोभित वृत्रसूदन इन्द्र निद्राविजयी अर्जुन को मुसकारते हुए से देख रहे थे। उस समय इन्द्र की आंखें हर्ष से खिल उठी थीं। वे उन्हें देखने से तृप्त नहीं होते थे। जैसे कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उदित हुए सूर्य और चन्द्रमा आकाश की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार एक सिंहासन पर बैठे हुए देवराज इन्द्र और कुन्तीकुमार अर्जुन देवसभा को सुशोभित कर रहे थे। उस समय वहाँ साभगान में निपुण तुम्बुरु आदि श्रेष्ठ गन्धर्वगण सामगान के नियमानुसार अत्यन्त मधुर स्वर में गाथागान करने लगे।

    घृताची, मेनका, पूर्वचित्ति, स्वयंप्रभा, उर्वशी, मिश्रकेशी, दण्डगौरी, वरूथिनी, गोपाली, सहजन्या, कुम्भ योनि, प्रजागरा, चित्रसेना, चित्रलेखा, सहा और मधुर स्वरा-ये तथा और भी सहस्रों अप्सराएं वहाँ इन्द्रसभा में भिन्न-भिन्न स्थानों पर नृत्य करने लगीं। वे कमललोचना अप्सराएं सिद्ध पुरुषों के भी चित्त को प्रसन्न करने में संलग्न थीं। उनके कटि प्रदेश ओर नितम्ब विशाल थे। नृत्य करते समय उनके उन्नत स्तन कम्पमान हो रहे थे। उनके कटाक्ष, हाव-भाव तथा माधुर्य आदि मन, बुद्धि एवं चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियों का अपहरण कर लेते थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमन पर्व में इन्द्रसभादर्शन विषयक तैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

चवालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुश्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"अर्जुन को अस्त्र और संगीत की शिक्षा"

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर देवराज इन्द्र का अभिप्राय जानकर देवताओं और गन्धवों ने उत्तम अर्घ्य लेकर कुन्तीकुमार अर्जुन का यथोचित्त पूजन किया। राजकुमार अर्जुन को पाद्य, (अर्घ्य) आचमनीय आदि उपचार अर्पित करके देवताओं ने उन्हें इन्द्रभवन में पहुँचा दिया। इस प्रकार देव समुदाय से पूजित हो पाण्डुकुमार अर्जुन अपने पिता के घर में रहने और उनसे उपसंहार सहित महान् अस्त्रों की शिक्षा ग्रहण करने लगे। उन्होंने इन्द्र के हाथ से उनके प्रिय एवं दुःसह अस्त्र वज्र और भारी गड़गड़ाहट पैदा करने वाली उन अशनियों को ग्रहण किया, जिनका प्रयोग करने पर जगत् में मेघों की घटा घिर आती और मयूर नृत्य करने लगते हैं। सब अस्त्रों की शिक्षा ग्रहण कर लेने पर पाण्डुनन्दन पार्थ ने अपने भाईयों का स्मरण किया। परन्तु पुरन्दर के विशेष अनुरोध से वे (मानव-गणना के अनुसार) पांच वर्षों तक वहाँ सुखपूर्वक ठहर रहे।

 तदनन्तर इन्द्र ने अस्त्र शिक्षा में निपुण कुन्तीकुमार से उपयुक्त अवसर आने पर कहा,,

   देवराज इंद्र बोले ;- 'कुन्तीनन्दन ! तुम चित्रसेन से नृत्य और गति की शिक्षा ग्रहण कर लो। कुन्तीनन्दन! मनुष्यलोक में जो अब तक प्रचलित नहीं है, देवताओं की उस वाद्य कला का ज्ञान प्राप्त कर लो। इससे तुम्हारा भला होगा।

   पुरन्दर ने अर्जुन को संगीत की शिक्षा देने के लिये उन्हीं के मित्र चित्रसेन को नियुक्त कर दिया। मित्र से मिलकर दुःख, शोक से रहित अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए । चित्रसेन ने उन्हें गीत, वाद्य और नृत्य की बार-बार शिक्षा दी तो भी द्यूतजनित अपमान का स्मरण करके तपस्वी अर्जुन को तनिक भी शांति नहीं मिली। उन्हें दुःशासन तथा सुबलपुत्र शकुनि के वध के लिये मन में बड़ा रोष होता था तथा चित्रसेन के सहवास से कभी-कभी उन्हें अनुपम प्रसन्नता प्राप्त होती थी, जिससे उन्होंने गीत, नृत्य और वाद्य की उस अनुपम कला को (पूर्णरूप से) उपलब्ध कर लिया। शत्रुवीरों का हनन करने वाले वीर अर्जुन ने नृत्य सम्बन्धी अनेक गुणों की शिक्षा पायी। वाद्य और गीतविषयक सभी गुण सीख लिये तथापि भाइयों और माता कुन्ती का स्मरण करके उन्हें कभी चैन नहीं पड़ता था ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकभिगमनपर्व में अर्जुन की अस्त्रादिशिक्षा से सम्बन्ध रखने वाला चौवालीसवां अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

पैतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पंचचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"चित्रसेन और उर्वशी का वार्तालाप"

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! एक समय इन्द्र ने अर्जुन के नेत्र उर्वशी के प्रति आसक्त जानकर चित्रसेन गन्धर्व को बुलाया और प्रथम ही एकान्त में उनसे यह बात कहीं 'गन्धर्वराज! तुम मेरे भेजने से आज अप्सराओं में श्रेष्ठ उर्वशी के पास जाओ। पुरुषश्रेष्ठ! तुम्हें वहाँ भेजने का उद्देश्य यह है कि उर्वशी अर्जुन की सेवा में उपस्थित हो। जैसे अस्त्र विद्या सीख लेने के पश्चात् अर्जुन को मेरी आज्ञा से तुमने संगीत विद्या द्वारा सम्मानित किया है, उसी प्रकार वे स्त्रीसंगविशारद हो सकें, ऐसा प्रयत्न करों ।

   इन्द्र के इस प्रकार कहने पर 'तथास्तु' कहकर उनसे आज्ञा ले गन्धर्वराज चित्रसेन सुन्दरी अप्सरा उर्वशी के पास गये। उससे मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुए। उर्वशी ने चित्रसेन को आया जान स्वागतपूर्वक उनका सत्कार किया। जब वे आराम से बैठ गये, तब सुखपूर्वक सुन्दर आसन पर बैठी हुई उर्वशी से मुसकराकर बोले,,

   चित्रसेन बोले ;- 'सुश्रोणि! तुम्हें मालूम होना चाहये कि स्वर्ग के एकमात्र सम्राट् इन्द्र ने, जो तुम्हारे कृपाप्रसाद का अभिनन्दन करते हैं, मुझे तुम्हारे पास भेजा है। उन्हीं की आज्ञा से मैं यहाँ आया हूँ। सुन्दरी! जो अपने स्वाभाविक सद्गुण, श्री, शील (स्वभाव), मनोहर रूप, उत्तम व्रत और इन्द्रियसंयम के कारण देवताओं तथा मनुष्यों में विख्यात हैं। बल और पराक्रम के द्वारा जिनकी सर्वत्र प्रसिद्धि है, जो सबके प्रिय, प्रतिभाशाली, वर्चस्वी, तेजस्वी, क्षमाशील तथा ईर्ष्यारहित हैं, जिन्होंने छहों अंगों सहित चारों वेदों, उपनिषदों और पंचम वेद (इतिहास पुराण) का अध्ययन किया है। जिन्हें गुरुशुश्रूवा तथा आठ गुणों से युक्त मेघाशक्ति प्राप्त है, जो ब्रह्मचर्यपालन, कार्यदक्षता, संतान और युवावस्था के द्वारा अकेले ही देवराज इन्द्र की भाँति स्वर्गलोक की रक्षा करने में समर्थ हैं, जो अपने मुंह से अपने गुणों की कभी प्रशंसा नहीं करतें, दूसरों को सम्मान देते, अत्यन्त सूक्ष्म विषय को भी स्थूल की भाँति शीघ्र ही समझ लेते और सबसे प्रिय वचन बोलते हैं, जो अपने सुहृदों के लिये नाना प्रकार के अन्न-पान की वर्षा करते और सदा सत्य बोलते हैं, जिसका सर्वत्र आदर होता है, जो अच्छे वक्ता तथा मनोहर रूप वाले होकर भी अहंकारशून्य हैं, जिनके हृदय में अपने प्रेमी भक्तों के लिये अत्यन्त कृपा भरी हुई है, जो कांतिमान्, प्रिय और प्रतिज्ञापालन एवं युद्ध में स्थिरतापूर्वक डटे रहने वाले हैं, जिसके सद्गुणों की दूसरे लोग स्पृहा रखते हैं और उन्हीं गुणों के कारण जो महेन्द्र और वरुण के समान आदरणीय माने जाते हैं, उन वीरवर अर्जुन को तुम अच्छी तरह जानती हो। उन्हें स्वर्ग में आने का फल अवश्य मिलना चाहिये। तुम देवराज की आज्ञा के अनुसार आज अर्जुन के चरणों के समीप जाओ। कल्याणि ! तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे कुन्तीकुमार धनंजय तुम पर प्रसन्न हों।'

   चित्रसेन के ऐसा कहने पर उर्वशी के अधरों पर मुस्कान दौड़ गयी। उसने इस आदेश को अपने लिये बड़ा सम्मान समझा । अनिन्द्य सुन्दरी उर्वशी उस समय अत्यन्त प्रसन्न होकर चित्रसेन से इस प्रकार बोली,,

   उर्वशी बोली ;- 'गन्धर्वराज! तुमने जो अर्जुन के लेशमात्र गुणों का मेरे सामने वर्णन किया है, वह सब सत्य है। मैं दूसरे लोगों के मुख से भी उनकी प्रशंसा सुनकर उनके लिये व्यथित हो उठी हूँ। अतः इससे अधिक मैं अर्जुन का क्या वरण करू? महेन्द्र की आज्ञा से, तुम्हारे प्रेमपूर्ण बर्ताव से तथा अर्जुन के सद्गुण-समुदाय से मेरा उनके प्रति कामभव हो गया है। अतः अब तुम जाओ में इच्छानुसार सुखपूर्वक उनके स्थान पर यथासमय आऊंगी'।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमन पर्व में चित्रसेन- उर्वशी संवाद विषयक पैतालिसवां अध्याय पूरा हुआ)

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